ऋतम्भर
टिप्पणी : ऋतम्भर राजा की धेनु ऋतम्भरा प्रज्ञा है, वह प्रज्ञा जिसके द्वारा यह ज्ञात हो जाए कि किस समय कौन सा कार्य करना है, त्रिकाल दृष्टि । जाबालि ऋषि उपनिषदों में सत्यकाम है जो जबाला का पुत्र है । सत्यकाम से गुरु ने पूछा कि वह किसका पुत्र है ? उसने उत्तर दिया कि मेरी माता कहती है कि उसने बहुत से ऋषियों की सेवा की है । पता नहीं वह किसका पुत्र है । ऋषि का अर्थ ज्ञानवृत्ति है । अज का अर्थ है जिसका जन्म नहीं , जो अजात है । जबाला के ज का अर्थ है वह सत्य जो जायमान है, जन्म ले सकता है । बाला का अर्थ है जिसने जायमान सत्य को बल दिया हो, उसे प्रज्वलित कर दिया हो । ऐसी जबाला ने सत्य को, ज्ञान को विभिन्न ऋषियों से एकत्र किया है । तभी सत्य उत्पन्न हो सकता है । उसी का पुत्र सत्यकाम है । वह जाबालि ऋषि है , वही ऋतम्भर को सत्य बता सकता है । जंगल से व्याघ्र का आना ऋतंभरा प्रज्ञा में अहंकार का उत्पन्न होना है । मैं प्रज्ञावान हूं, ऐसा अहंकार ऋतम्भरा प्रज्ञा रूपी गौ को खा जाता है । इस अहंकार को नष्ट करने का उपाय अयोध्यापति ऋतुपर्ण बताता है - रामभक्ति । इससे अहंकार नष्ट हो जाएगा । फिर राजा गौ की सेवा करे तो सन्तान उत्पन्न होगी । चित्तवृत्तियाँ जो अन्तर्मुखी हैं, गौ कहलाती हैं । - फतहसिंह
वैदिक साहित्य में केवल ऋग्वेद ५.५९.१ व ९.९७.२४ में ही ऋतम्भर शब्द का उल्लेख आया है । इस ऋचा में द्युलोक व पृथिवी से ऋत के भरण के लिए मरुतों की अर्चना की जाती है । पुराणों में ऋतम्भर की कथा वैदिक साहित्य की किस ग्रन्थि को सुलझाती है, यह अन्वेषणीय है । ऋतम्भर को सत्यवान् रूपी पुत्र प्राप्ति की चिन्ता है जिसके लिए वह जाबालि ऋषि के पास जाता है । उपनिषदों में जाबालि का नाम सत्यकाम जाबालि आया है जो जबाला का पुत्र है । जबाला / जभारा ऋषियों से सत्य का भरण / सम्पादन करती है । ऋतम्भर द्वारा गौ की सेवा के संदर्भ में, यह कहा जा सकता है कि अश्व का सम्बन्ध सत्य के साथ होगा और गौ का ऋत के साथ । ऋग्वेद १.८४.१६, ३.७.२, ३.५६.२, ४.४०.५, ५.४५.७ व ८, ७.३६.१, ९.६६.१२, ९.७२.६, ९.९४.२, १०.१००.१०, १०.१०८.११, अथर्ववेद १०.१०.३३, २०.१७.९, तैत्तिरीय संहिता ४.२.११.३ में भी ऋत के साथ गौ का उल्लेख आया है । इसके अतिरिक्त, ऋग्वेद १.७३.६, १.१४१.१, १.१५३.३, ४.२३.१०, ९.७०.१, ९.७७.१, अथर्ववेद ७.१.१ में ऋत के साथ धेनु या धेना शब्द प्रकट हुआ है । ऋग्वेद ४.३.९ व ४.२३.९ में उल्लेख आता है कि ऋत से ऋत की स्तुति की जाती है । जिस प्रकार गौ कच्चा खाकर उसे मधु समान दुग्ध में रूपान्तरित कर देती है , ऐसे ही ऋत को पकाकर उसे मधु का रूप प्रदान करना है । यह मधु रूप ही सत्य का रूप हो सकता है जिसकी ऋतम्भर को अभिलाषा है । आगे की कथा का तात्पर्य अन्वेषणीय है ।
अथर्ववेद १०.८.३१ तथा शतपथ ब्राह्मण ६.४.४.१० के आधार पर एक प्रबल संभावना यह बनती है कि ऋत भक्ति के अज और अवि प्रकारों से सम्बन्धित है । इससे आगे की भक्तियां गौ और अश्व होती हैं । अतः पुराणों में ऋतम्भर की कथा के माध्यम से इस परोक्ष तथ्य को स्पष्ट किया गया है ।