KANSA – VEDIC ORIGIN OF STORY
Puraanic stories are traditionally supposed to contain the explanation of vedic mantras. But it generally becomes difficult to prove this belief by facts. Therefore, puraanic stories are erroneously supposed to contain some historical facts. In this note, an attempt has been made to search the origin of the story of puraanic character Kansa in vedic texts. Rigveda does not contain the word Kansa directly, but it’s mantras contain a word kam, and veda authorities have interpreted it as a word without any actual meaning, just inserted to complete the chhanda or meter of the poem. But this simplification of facts is not true. Let us try to find out how the story of Kansa in puraanas can help us in understanding word kam of veda and then we will try to understand how a whole web has been fabricated in puraanas on the basis of the facts of somayaga etc.
The word kam is taken in the sense of joy or feel-good, a joy which becomes undescribable. This joy can be of immortal nature or of mortal nature. Kansa in Sanskrit language is a vessel for filling water. In somayaga, two types of waters are used – one which has to be fetched on the day of yagna and the other which is fetched a day before yagna. This later water is symbolic of slow progress, a progress which depends on future. On the other hand, the water which is fetched today, is symbolic of quick progress, or in other words, whatever has to be done, has to be done today. It can be said that one water is associated with progress of God and the other with nature. After fetching slow process water in kansa or pitcher, this is kept for some time at the place of a fire of a priest who is 8th in sequence and is considered immortal. The other 7 fires in the sequence are considered mortal. Only 8th is able to fight demons or sins, the other 7 not. This may be one explanation why Kansa of puraanic story was able to kill 6 earlier sons of Devaki. These 8 stages may be some stages of spiritual achievements out of which 7 can not resist the worldly temptations while the 8th can. What is special with this 8th fire which makes it immortal ? The name of this fire is emotion and adjective is flowing. This makes it immortal. Until some event is localized, it will be mortal, but when it starts to flow like rivers, it becomes immortal. The eternal law of chance in nature affects a flowing thing the least.
The wives of king Kansa are named as Asti and Prapti, or whatever one already has and what one clamours for. In conclusion, puraanic Kansa can be called the joy of a common man which can be superceded only by the birth of Krishna.
कंस
पौराणिक शीर्षकों के वैदिक संदर्भ
कर्मकाण्ड में आता है कि जो महत् की प्राप्ति करना चाहता है, वह द्वादश दिन का व्रत लेकर उदुम्बर के कंस या चमस में सब ओषधियों के रस एकत्र करके पुरुष नक्षत्र में उस रस का दधि - मधु के साथ मन्थ बनाकर होम करे । आचार्य यजमान का अभिषेक करने के अनन्तर दक्षिणा पाने के बाद क्षत्रिय के हाथ में सुराकंस रखता है । क्षत्र शिल्पों हस्ति, अश्वतरी, अश्वरथ आदि के साथ कंस का आहरण करने से ब्रह्म को प्राप्त करता है । लगता है कि पुराणों में कंस का चरित्र चित्रण का उद्देश्य यह है कि मानव देह रूपी इस कंस को कैसे इतना शुद्ध किया जाए कि यह सब ओषधियों का, ऊपर से आने वाली शक्तियों का , सोम का रस धारण करने में समर्थ हो सके ।
टिप्पणी : कंस को समझने के लिए एक कुञ्जी हमें हरिवंश पुराण में कंस शब्द की परोक्ष निरुक्ति से प्राप्त होती है जहां कंस का पिता स्वयं को क:/प्रजापति मान कर अपने भावी पुत्र को कं कहता है । जैसा कि कम्बल शब्द की टिप्पणी में कहा गया है, ऋग्वेद में बहुत प्रकार के कं के उल्लेख आते हैं, जैसे भोजनाय कं, जीवनाय कं, श्रोमताय कं, दृशे कं, मदाय कं आदि । कं शब्द की गोपनीयता का अनुमान हम यास्क के निरुक्त १.३.९ से लगा सकते हैं जहां मन्त्र में कं शब्द को पाद पूरक के रूप में माना गया है, अर्थात् वह मन्त्र में छन्द के पाद के अक्षरों की संख्या पूरी करने मात्र के लिए है । कं का सामान्य अर्थ सुख और अन्न लिया जाता है, लेकिन शतपथ ब्राह्मण ९.१.२.२२ तथा २.५.२.११ से संकेत मिलता है कि जब हमारी इन्द्रियों से प्राप्त होने वाला कोई सुख हमें अभिभूत कर दे, हम उस सुख या आनन्द का वर्णन करने में अपने को असमर्थ पाने लगें तो वह कं की स्थिति होती है । वैदिक साहित्य में कंस की व्याख्या क्षत्र शिल्प के रूप में की गई है(गोपथ ब्राह्मण २.६७, जैमिनीय ब्राह्मण १.२६३ आदि) । शिल्प का अर्थ भी वैदिक साहित्य में मर्त्य स्तर पर आनन्द की प्राप्ति से ही होता है । तैत्तिरीय ब्राह्मण ३.७.४.१० से ऐसा संकेत मिलता है कि कं अपरिमित में से परिमित सुख की स्थिति है जिसका उपयोग सुकृत के लिए किया जाना चाहिए । पुराणों का कंस मथुरा/मधुरा का राजा है, जितना भी मधुर रस है, उस पर उसका आधिपत्य है ।
कंस को और अधिक समझने के लिए सोमयागों में वसतीवरी ग्रहणम् के प्रकरण को समझना होगा । सोमयाग में यज्ञ/सुत्या से पहले दिन सायंकाल यजमान - पत्नी बहते हुए जल को कांस्य कलश में, जिसे वसतीवरी कहा जाता है, भरती है । इस जल को सायंकाल आतप व छाया की सन्धि में भरना होता है । यदि यह सन्धि उपलब्ध न हो सके तो जल के ऊपर हिरण्य, अङ्गार आदि रखकर ही काम चलाया जाता है । इस संदर्भ में शतपथ ब्राह्मण ३.९.२.६ का कथन है कि किरणें विश्वेदेवा हैं और जो जल ग्रहण किया जाता है, वह जीवन का जल है । यदि यह जल प्राप्त हो गया तो भविष्य के कल/श्व: सुत्या में होने वाला यज्ञ सुनिश्चित हो जाता है । एक दूसरा जल यज्ञ के दिन ही प्रातःकाल एकधना नामक कलश में ग्रहण किया जाता है । यह जल अद्य सुत्या के लिए है । यज्ञ में इन दोनों जलों को मिलाकर प्रयोग किया जाता है । यहां श्व: और अद्य को समझ लेना महत्त्वपूर्ण है । वैदिक साहित्य में धीरे - धीरे प्रगति करने वाले प्राण अङ्गिरस प्राण कहलाते हैं और इनका यज्ञ श्व: सुत्या द्वारा होता है । दूसरी ओर, तेजी से प्रगति करने वाले आदित्य प्राण हैं जिनका यज्ञ अद्य सुत्या द्वारा होता है । दूसरी भाषा में, ऐसा भी कहा जा सकता है कि प्रकृति का यज्ञ श्व: सुत्या द्वारा और पुरुष का यज्ञ अद्य सुत्या द्वारा होता है । श्व: सुत्या के लिए जो जीवन जल प्राप्त करना है, वह आतप और छाया की सन्धि में प्राप्त करना है । इस सन्धि को हमें भली प्रकार समझना होगा । प्राण और अपान की सन्धि लोक में कुम्भक कहलाती है । जब हमें किसी कारण से रोमाञ्च उत्पन्न होता है तो यह भी प्राण और अपान की सन्धि होने के फलस्वरूप ही है । यह सन्धि का आरम्भ है । इससे आगे प्रगति करने पर हमारे शरीर के जड अवस्था में पडे हुए जल प्रवाह का रूप धारण कर लेते हैं, शरीर के निचले भाग से सिर की ओर बढने लगते हैं । लोक में जो वीर्य को ऊर्ध्वगामी करने के उल्लेख आते हैं, वह भी इसी प्रक्रिया का परिणाम हो सकता है । पौराणिक कंस की कथा के संदर्भ में कंस जरासन्ध की २ पुत्रियों अस्ति और प्राप्ति को भार्याओं के रूप में प्राप्त करता है । डा. फतहसिंह के अनुसार यहां जरासन्ध मर्त्य स्तर की सन्धि काऋ अन्नमय, प्राणमय और मनोमय कोशों की विज्ञानमय कोश से सन्धि का प्रतीक है । इस सन्धि के फलस्वरूप उसको जो प्राप्ति होती है, उसका नाम अस्ति है । लेकिन यह अस्ति पर्याप्त नहीं है । जीव में कामना और अधिक आनन्द प्राप्त करने की रहती है जिसका नाम है प्राप्ति । कंस रूपी जीव इन्हीं २ पर आधारित रहता है । दूसरा दृष्टिकोण, श्री अरविन्द के शब्दों में क्षैतिज व ऊर्ध्वाधर विकास हो सकता है । जरासन्धि या मर्त्य स्तर की सन्धि को अमर्त्य स्तर की सन्धि में रूपान्तरित करना यज्ञ का लक्ष्य हो सकता है । यज्ञ में प्रतिप्रस्थाता नामक ऋत्विज वसतीवरी कलश को नदी से लाकर यज्ञ में विभिन्न स्थलों पर रखता है । शतपथ ब्राह्मण ३.९.२.१६ के अनुसार कलश को अन्त में आग्नीध्र नामक ऋत्विज की अग्नि के समीप रखा जाता है और कहा गया है कि ऐसा करने से कलश के जल में विश्वेदेवों का वास हो जाता है और यही वसतीवरी(वसतां - वर:) के नाम की निरुक्ति है । जैसा कि आग्नीध्र शब्द की टिप्पणी में कहा जा चुका है, आग्नीध्र नामक ऋत्विज का स्थान यज्ञ भूमि में अन्तर्वेदी और बहिर्वेदी की सन्धि पर होता है । उसकी प्रवृत्ति बहिर्मुखी भी होती है, अन्तर्मुखी भी । उसके लिए आन्तरिक विश्व भी यज्ञमय है, बाहरी विश्व भी यज्ञमय । आग्नीध्र की अग्नि परोक्ष रूप में दक्षिणाग्नि का रूप है, ऐसा विद्वानों का मानना है । दक्षिणाग्नि का राजा नल है । शतपथ ब्राह्मण ३.६.१.२७ के अनुसार आग्नीध्र की अग्नि ८ धिष्ण्य अग्नियों में अन्तिम होती है और यह अमर्त्य होती है । इससे पहले ६ धिष्ण्य अग्नियों का स्थान सदोमण्डप में होता, मैत्रावरुण, ब्राह्मणाच्छंसी, पोता, नेष्टा और अच्छावाक् की अग्नियों के रूप में होता है और यह मर्त्य होती हैं । मर्त्य कहने से तात्पर्य यह है कि वह असुरों से युद्ध करने में असमर्थ हैं, असुरों से लडने में वह मर जाती हैं । दूसरी ओर, आग्नीध्र की धिष्ण्य असुरों से सदा जीतती है और कर्मकाण्ड में जब भी आवश्यकता होती है, प्रायः आग्नीध्र ऋत्विज अपनी धिष्ण्य अग्नि से इन धिष्ण्यों को क्षणिक रूप में प्रज्वलित करता है । फिर यह बुझ जाती हैं । कहा गया है कि पहले यह अग्नियां सोम की रक्षा करने वाले गन्धर्व थे और सोम की रक्षा में असफल होने पर इन्हें धिष्ण्य अग्नियों में स्थापित होना पडा(शतपथ ब्राह्मण ३.६.२.१७) । कंस के संदर्भ में धिष्ण्य अग्नियों को समझना इसलिए महत्त्वपूर्ण है कि पुराणों में कंस द्वारा देवकी के ६ गर्भों को नष्ट करने के उल्लेख आते हैं । भागवत पुराण १०.८५ के अनुसार इन ६ गर्भों के पूर्व जन्मों में नाम क्रमशः स्मर, उद्गीथ, पतङ्ग, परिष्वङ्ग, क्षुद्रभृद् और घृणि थे । अन्य पुराणों के अनुसार इनके नाम सुषेण, कीर्तिमान्, उदासी, भद्रकृत्, भद्रविदेह आदि थे । प्रश्न यह उठता है कि क्या इन ६ गर्भों का तादात्म्य ६ मर्त्य धिष्ण्यों से स्थापित किया जा सकता है ? वर्तमान में इसका एक प्रयास मात्र किया जा सकता है । शुक्ल यजुर्वेद माध्यन्दिन संहिता ५.३१ तथा तैत्तिरीय संहिता १.३.३.३ में ६ धिष्ण्य अग्नियों के नाम इस प्रकार हैं : १वह्नि जो हव्यवाहन है, देवों को हवि का वहन करती है, २श्वात्र जो प्रचेता है, ३ तुथ जो विश्ववेदा है, ४ उशिक् जो कवि है, ५ अङ्घारि जो बम्भारि है , ६ अवस्यु जो दुवस्यु है । आर्षेय कल्प के ज्योvतिष्टोमे अग्निष्टोम प्रकरण में इन ६ को क्रमशः होता, मैत्रावरुण, ब्राह्मणाच्छंसी, पोता, नेष्टा व अच्छावाक् की धिष्ण्य अग्नियों से सम्बद्ध किया गया है । ७वी मार्जालीय धिष्ण्य का नाम शुन्ध्यु तथा ८वी अमर्त्य धिष्ण्य को विभु जो प्रवाहण है, कहा गया है । शतपथ ब्राह्मण ६.३.३.११ में ७ सोमक्रयणों के नाम क्रमशः स्वानः, भ्राज:, अङ्घारि, बम्भारि, हस्त, सुहस्त व कृशानु दिए गए हैं और कहा गया है कि यह धिष्ण्य नहीं, अपितु धिष्ण्य भाजना: हैं । डा. लक्ष्मीश्वर झा के अनुसार धिष्ण्य अग्नियां अन्तरिक्ष की अग्नियां हैं और इनकी उत्पत्ति घर्षण से होती है । लोक व्यवहार में जिसे घिसना कहते हैं, उसे वैदिक भाषा में धिषण कहते हैं । इसका तात्पर्य यह निकाला जा सकता है कि यह अग्नियां हमारे व्यक्तित्व के विभिन्न स्तरों पर हुए घर्षण से, जड और चेतन के घर्षण से, सन्धियों से उत्पन्न हुई हैं । धिष्ण्य भाजना: को सोमक्रयणाः, सोम खरीदने के द्रव्य कहने से तात्पर्य यह हो सकता है कि जो सोम हमारे शूद्र व्यक्तित्व के पास जड, वृत्र अवस्था में पडा है, उसे इन सोमक्रयणाः द्वारा मुक्त कराया जा सकता है । यदि इन धिष्ण्य अग्नियों को किसी प्रकार भक्ति में उत्पन्न आन्तरिक स्थितियां, आनन्द माना जाए तो यह कहा जा सकता है कि इन्द्रियों से प्राप्त आनन्द इन धिष्ण्यों से प्राप्त आनन्द से अधिक प्रबल है, अतः कंस के हाथों उनकी मृत्यु हो जाती है । पौराणिक कंस के संदर्भ में, देवकी का ८वां पुत्र सबसे महत्त्वपूर्ण है जिसके द्वारा कंस का वध नियत है । विभु प्रवाहण नामक ८वी धिष्ण्य अग्नि में ऐसी कौन सी विशेषता हो सकती है जिसके कारण वह अमर्त्य है, यह अन्वेषणीय है । वैसे, डा. फतहसिंह के अनुसार वैदिक साहित्य में ऋभु, विभु और वाज, तीन शब्द हैं जिनमें ऋभु ज्ञान से, विभु भावना से और वाज कर्म से सम्बन्धित हैं । विभु प्रवाहण नाम से लगता है कि विभु या भावना का कर्म में प्राकट्य विभु प्रवाहण है ।
पुराणों में कंस द्वारा भय के कारण मोक्ष प्राप्ति के संदर्भ में, महाभारत आदि में गङ्गा व शन्तनु के ८वें पुत्र के रूप में भीष्म का वर्णन मिलता है । इससे पहले ७ पुत्र मर्त्य लोक में जन्म लेते ही देवलोक को प्राप्त हो गए थे, केवल ८वें वसु का अवतार भीष्म(भी - शम्) ही इस लोक में रहा । भीष्म मृत्यु के भय से मुक्त था क्योंकि उसे स्वच्छन्द मृत्यु का वरदान था और उसने दक्षिणायन की अपेक्षा उत्तरायण में मृत्यु का वरण किया । आग्नीध्र ऋत्विज की प्रकृति की व्याख्या ८वें वसु के रूप में कैसे की जा सकती है, यह भी अन्वेषणीय है(स्कन्द पुराण १.२.१३ में वसुगण शिव के कांस्य लिङ्ग की उपासना करते हैं) ।
पौराणिक राजा कंस द्वारा कृष्ण को मारने के लिए विभिन्न असुरों के प्रेषण की कथाओं के संदर्भ में, कंस द्वारा भेजे गए असुर शम्बरादि असुरों की सभा के सदस्य हैं जो कंस के मित्र बन गए हैं । अथर्ववेद १४.२.६९ में सम्भल में मल त्याग के पश्चात् कम्बल में दुरित के त्याग का उल्लेख आता है । लेकिन कंस की कथा में पहले कृष्ण कंस का वध करते हैं, फिर कृष्ण - पुत्र प्रद्युम्न शम्बरासुर का वध करता है । शतपथ ब्राह्मण १३.८.१.१० में भी पहले कंवति और फिर शंवति करने का निर्देश है । यह क्रम विपर्यास क्यों है, यह अन्वेषणीय है ।
महाभारत आदि में कंस द्वारा मृत्यु - पश्चात् विश्वेदेवों का लोक प्राप्त करने के उल्लेख आते हैं । इस संदर्भ में वैदिक विश्वेदेवों की प्रकृति को समझना उपयोगी होगा । वैदिक साहित्य में वसुओं, रुद्रों, आदित्यों व मरुतों के समूह को विश्वेदेवा कहा जाता है । ऐसा कहा जा सकता है कि जब अमर्त्य देव मर्त्य स्तर पर अवतरण करते हैं तो वह विश्वेदेवा बन जाते हैं । अग्नि ८ वसुओं के रूप में, सोम ११ रुद्रों के रूप में, आदित्य १२ आदित्यों के रूप में तथा इन्द्र ४९ मरुतों के रूप में अवतरित होते हैं । दूसरी ओर, पुराणों के वर्णन से प्रतीत होता है कि पितरों की सर्वोच्च स्थिति विश्वेदेवा हैं । अतः यह कहा जा सकता है कि मर्त्य और अमर्त्य स्तर की सन्धि विश्वेदेवा हैं ।
कंस के संदर्भ में ' पुराणों में वैदिक संदर्भ ' पुस्तक में कंस का विश्लेषण पठनीय है ।
प्रथम लेखनः- ३१-१-२००३ई., संशोधनः- १९.१.२००५ई.
संदर्भ
*यद्दुष्कृतं
यच्छमलं
विवाहे
वहतौ
च
यत्।
तत्
संभलस्य
कम्बले
मृज्महे
दुरितं
वयम्
॥
संभले
मलं
सादयित्वा
कम्बले
दुरितं
वयम्।
अभूम
यज्ञियाः
शुद्धाः
प्र
ण
आयूंषि
तारिषत्
॥
-
अथर्ववेद
१४.२.६६
-
६७
*आ वो मक्षू तनाय कं रुद्रा अवो वृणीमहे। गन्ता नूनं नोऽवसा यथा पुरेत्था कण्वाय बिभ्युषे ॥ - ऋग्वेद १.३९.७
*श्रियसे कं भानुभिः सं मिमक्षिरे ते रश्मिभिस्त ऋक्वभिः सुखादयः। ते वाशीमन्त इष्मिणो अभीरवो विद्रे प्रियस्य मारुतस्य धाम्नः ॥ - ऋ. १.८७.६
*तेऽरुणेभिर्वरमा पिशङ्गैः शुभे कं यान्ति रथतूर्भिरश्वैः। रुक्मो न चित्रः स्वधितीवान् पव्या रथस्य जङ्घनन्त भूम ॥ - ऋ. १.८८.२
*श्रिये कं वो अधि तनूषु वाशीर्मेधा वना न कृणवन्त ऊर्ध्वा। युष्मभ्यं कं मरुतः सुजातास्तुविद्युम्नासो धनयन्ते अद्रिम् ॥ - ऋ. १.८८.३
*अस्य श्रवो नद्यः सप्त बिभ्रति द्यावाक्षामा पृथिवी दर्शतं वपुः। अस्मे सूर्याचन्द्रमसाभिचक्षे श्रद्धे कमिन्द्र चरतो वितर्तुरम् ॥ - ऋ. १.१०२.२
*मा च्छेद्म रश्मीfरिति नाधमानाः पितृqणां शक्तीरनुयच्छमानाः। इन्द्राग्निभ्यां कं वृषणो मदन्ति ता ह्यद्री धिषणाया उपस्थे ॥ - ऋ. १.१०९.३
*सुसंकाशा मातृमृष्टेव योषाविस्तन्वं कृणुषे दृशे कम्। भद्रा त्वमुषो वितरं व्युच्छ न तत् ते अन्या उषसो नशन्त ॥ - ऋ. १.१२३.११
*एवेदेषा पुरुतमा दृशे कं नाजामिं न परि वृणक्ति जामिम्। अरेपसा तन्वा३ शाशदाना नार्भादीषते न महो विभाती ॥ - ऋ. १ .१२४.६
*युवमेतं चक्रथुः सिन्धुषु प्लवमात्मन्वन्तं पक्षिणं तौग्र्याय कम्। येन देवत्रा मनसा निरूहथुः सुपप्तनी पेतथुः क्षोदसो महः ॥ - ऋ. १.१८२.५
*कः स्विद् वृक्षो निष्ठितो मध्य अर्णसो यं तौग्र्यो नाधितः पर्यषस्वजत्। पर्णा मृगस्य पतरोरिवारभ उदश्विना ऊहथुः श्रोमताय कम् ॥ - ऋ. १.१८२.७
*अरमयः सरपसस्तराय कं तुर्वीतये च वय्याय च स्रुतिम्। नीचा सन्तमुदनयः परावृजं प्रान्धं श्रोणं श्रवयन् त्सास्युक्थ्यः ॥ - ऋ. २.१३.१२
*यत्रोत मर्त्याय कमरिणा इन्द्र सूर्यम्। प्रावः शचीभिरेतशम् ॥ - ऋ. ४.३०.६
*अववर्षीर्वर्षमुदु षू गृभायाऽकर्धन्वान्यत्येतवा उ। अजीजन ओषधीर्भोजनाय कमुत प्रजाभ्योऽविदो मनीषां ॥ - ऋ. ५.८३.१०
*भुवं ज्योतिर्निहितं दृशये कं मनो जविष्ठं पतयत्स्वन्तः। विश्वे देवाः समनसः सकेता एकं क्रतुमभि वि यन्ति साधु ॥ - ऋ. ६.९.५
*श्रिये ते पादा दुव आ मिमिक्षुर्धृष्णुर्वज्री शवसा दक्षिणावान्। वसानो अत्कं सुरभिं दृशे कं स्वर्ण नृतविषिरो बभूथ ॥ - ऋ. ६.२९.३
*नैतावदन्ये मरुतो यथेमे भ्राजन्ते रुक्मैरायुधैस्तनूभिः। आ रोदसी विश्वपिशः पिशानाः
समानमञ्जयञ्जते शुभे कम् ॥ - ऋ. ७.५७.३
*तिस्रो द्यावो निहिता अन्तरस्मिन् तिस्रो भूमीरुपराः षड्विधानाः। गृत्सो राजा वरुणश्चक्र एतं दिवि प्रेङ्खं हिरण्ययं शुभे कम् ॥ - ऋ. ७.८७.५
*आ यद्रुहाव वरुणश्च नावं प्र यत् समुद्रमीरयाव मध्यम्। अधि यदपां स्नुभिश्चराव प्र प्रेङ्ख ईङ्खयावहै शुभे कम् ॥ - ऋ. ७.८८.३
*वीतिहोत्रा कृतद्वसू दशस्यन्तामृताय कम्। समूधो रोमशं हतो देवेषु कृणुतो दुवः ॥ -ऋ. ८.३१.९
*अवितासि सुन्वतो वृक्तबर्हिषः पिबा सोमं मदाय कं शतक्रतो। यं ते भागमधारयन् विश्वाः सेहानः पृतना उरु ज्रयः समप्सुजिन्मरुत्वाँ इन्द्र सत्पते। प्राव स्तोतारं मघवन्नव त्वां पिबा सोमं मदाय कं शतक्रतो। - - - -ऊर्जा देवाँ अवस्योजसा त्वां पिबा सोमं मदाय कं शतक्रतो। - - - - -जनिता दिवो जनिता पृथिव्याः पिबा सोमं मदाय कं शतक्रतो। - - - - - -जनिताश्वानां जनिता गवामसि पिबा सोमं मदाय कं शतक्रतो। - - - - अत्रीणां स्तोममद्रिवो महस्कृधि पिबा सोमं मदाय कं शतक्रतो। - - - - - ऋ. ८.३६.१-६
*अग्ने मन्मानि तुभ्यं कं घृतं न जुह्व आसनि। स देवेषु प्र चिकिद्धि त्वं ह्यसि पूर्व्यः शिवो दूतो विवस्वतो नभन्तामन्यके समे ॥ - ऋ. ८.३९.३
*प्रभङ्गी शूरो मघवा तुवीमघः संमिश्लो वीर्याय कम्। उभा ते बाहू वृषणा शतक्रतो नि या वज्रं मिमिक्षतुः ॥ - ऋ. ८.६१.१८
*तुभ्यायमद्रिभिः सुतो गोभिः श्रीतो मदाय कम्। प्र सोम इन्द्र हूयते ॥ - ऋ. ८.८२.५
*यस्या देवा उपस्थे व्रता विश्वे धारयन्ते। सूर्यामासा दृशे कम् ॥ - ऋ. ८.९४.२
*पिबा सोमं मदाय कमिन्द्र श्येनाभृतं सुतम्। त्वं हि शश्वतीनां पती राजा विशामसि ॥ - ऋ. ८.९५.३
*देवेभ्यस्त्वा मदाय कं सृजानमति मेष्यः। सं गोभिर्वासयामसि ॥ - ऋ. ९.८.५
*स पवस्व मदाय कं नृचक्षा देववीतये। इन्दविन्द्राय पीतये ॥ - ऋ. ९.४५.१
*उत त्वामरुणं वयं गोभिरञ्ज्मो मदाय कम्। वि नो राये दुरो वृधि ॥ - ऋ. ९.४५.३
*आ त इन्दो मदाय कं पयो दुहन्त्यायवः। देवा देवेभ्यो मधु ॥ - ऋ. ९.६२.२०
*स मातरा न ददृशान उस्रियो नानददेति मरुतामिव स्वनः। जानन्नृतं प्रथमं यत् स्वर्णरं प्रशस्तये कमवृणीत सुक्रतुः ॥ - ऋ. ९.७०.६
*तव द्रप्सा उदप्रुत इन्द्रं मदाय वावृधुः। त्वां देवासो अमृताय कं पपुः ॥ - ऋ. ९.१०६.८
*सप्त स्वसॄररुषीर्वावशानो विद्वान् मध्व उज्जभारा दृशे कम्। अन्तर्येमे अन्तरिक्षे पुराजा इच्छन् ववि|मविदत् पूषणस्य ॥ - ऋ. १०.५.५
*देवेभ्यः कमवृणीत मृत्युं प्रजायै कममृतं नावृणीत। बृहस्पतिं यज्ञमकृण्वत ऋषिं प्रियां यमस्तन्वं प्रारिरेचीत् ॥ - ऋ. १०.१३.४
*यथा युगं वरत्रया नह्यन्ति धरुणाय कम्। एवा दाधार ते मनो जीवातवे न मृत्यवे ऽथो अरिष्टतातये ॥ - ऋ. १०.६०.८
*सुन्वन्ति सोमं रथिरासो अद्रयो निरस्य रसं गविषो दुहन्ति ते। दुहन्त्यूधरुपसेचनाय कं नरो हव्या न मर्जयन्त आसभिः ॥ - ऋ. १०.७६.७
*हविष्पान्तमजरं स्वर्विदि दिविस्पृश्याहुतं जुष्टमग्नौ। तस्य भर्मणे भुवनाय देवा धर्मणे कं स्वधया पप्रथन्त ॥ - ऋ. १०.८८.१
*स्तोमेन हि दिवि देवासो अग्निमजीजनञ्छक्तिभी रोदसिप्राम्। तमू अकृण्वन् त्रेधा भुवे कं स ओषधीः पचति विश्वरूपाः ॥ - ऋ. १०.८८.१०
*कत्यग्नयः कति सूर्यासः कत्युषासः कत्यु स्विदापः। नोपस्पिजं वः पितरो वदामि पृच्छामि वः कवयो विद्मने कम् ॥ - ऋ. १०.८८.१८
*ऊर्ध्वो गन्धर्वो अधि नाके अस्थात् प्रत्यङ् चित्रा बिभ्रदस्यायुधानि। वसानो अत्कं सुरभिं दृशे कं स्वर्ण नाम जनत प्रियाणि ॥ - ऋ. १०.१२३.७
*मुञ्चामि त्वा हविषा जीवनाय कमज्ञातयक्ष्मादुत राजयक्ष्मात्। ग्राहिर्जग्राह यदि वैतदेनं तस्या इन्द्राग्नी प्र मुमुक्तमेनम् ॥ - ऋ. १०.१६१.१
*शतं कंसाः शतं दोग्धारः शतं गोप्तारो अधि पृष्ठे अस्याः। ये देवास्तस्यां प्राणन्ति ते वशां विदुरेकधा ॥ (वशा गौ) - अथर्ववेद १०.१०.५
*येनाज्येन हविषा प्रजायै च वरेण्यम्। पशुभ्यश् चक्षुषे च कंसम अग्र्यं सम इधीमहि ॥ - पैप्पलाद संहिता १८.६.९
*विश्वभृतो वै नामैता आपो यत् पुरुषः। तासां मृत्युर् अधिपतिः। यो वा एता विश्वभृत आपो वेद मृत्युम् अधिपतिं विश्वस्य भर्ता भवति विश्वम् एनं बिभ्रतस् सं त्रयो अग्नयो गृहे धीयन्ते दक्षिणाग्निर् गार्हपत्य आहवनीयः। एनं चत्वारि वामानि गच्छन्ति निष्कः कंसो अश्वतरो हस्ती। अधिपतिर् स्वानां चान्येषा च य एवं वेद ॥ - पैप्पलाद संहिता १२.७.१३
*अथ यत् पश्चाद् वा पुरस्ताद् वा परिक्रम्य दक्षिणतो ऽग्नीनाम् आस्ते प्रजापतिर् एव तद् भूत्वास्ते कम् अहम् अस्मि कं मम इति। - जैमिनीय ब्राह्मण १.४१
*एनानि वै क्षत्रे शिल्पानि हस्तिनिष्को ऽश्वतरीरथो ऽश्वरथो रुक्मः कंसः - तान्य् एव तद् आहृत्य ब्रह्मण्य् अनक्ति। - जै.ब्रा. १.२६३
*यथा राज्ञः परिष्कारश् शार्दूलाजिनं मणिहिरण्यं हस्ती निष्को ऽश्वतरीरथो ऽश्वरथो रुक्मः कंसस् त एवम् एष एतेषां साम्नां परिष्कारः। - जै.ब्रा. १.३४१
*अथ कालेयं कं सुष्वाणायासद् इति। - जै.ब्रा. २.१९४
*अथ कावं, कं सुष्वाणायासद् इति। - जै.ब्रा. २.१९५
*प्रजापतिर् वा ऐक्षत - कं वै प्रजाभ्यो ऽभूवम् कम् आत्मने ऽसानीति। स एताम् कवती प्रतिपदम् अपश्यत् कायाम् उपालंभ्याम्। ततो व स कं प्रजाभ्यो ऽभवत्कम् आत्मने। कं हैव प्रजाभ्यो भवति कम् आत्मने य एवं वेद। - जै.ब्रा. २.२३१
*तेनाब|nवन् स्वर्गं लोकं गत्वा - बृहद् वाव न इदं कम् अभूद् येन स्वर्गं लोकं व्यापामेति। तद् एव बृहत्कस्य बृहत्कत्वम्। तद् एतत् स्वर्ग्यं साम। बृहद् अस्मै कं भवत्य्, अश्नुते स्वर्गं लोकं य एवं वेद। - जै.ब्रा. ३.७८
*वरुणप्रघास पर्व : तयोरुभयोरेव करीराण्यावपति। कं वै प्रजापतिः प्रजाभ्यः करीरैरकुरुत। कम्वेवैष एतत् प्रजाभ्यः कुरुते। तयोरुभयोरेव शमीपलाशान्यावपति। कं वै प्रजापतिः प्रजाभ्यः
शमीपलाशैरकुरुत। शम्वेवैष एतत् प्रजाभ्यः कुरुते। अथ काय एककपालः पुरोडाशो भवति। कं वै प्रजापतिः प्रजाभ्यः कायेनैककपालेन पुरोडाशेनाकुरुत। कम्वेवैष एतत् प्रजाभ्यः कायेनैककपालेन पुरोडाशेन कुरुते। - शतपथ ब्राह्मण २.५.२.११-१३
*वाय्वन्तरिक्षादि सृष्टिः प्रजापतेश्चित्याग्निरूपता : सोऽब्रवीत् - यावद् यावद्वै जुहुथ - तावत्तावन्मे कं भवतीति। तद् यदस्माऽइष्टे कमभवत्- तस्माद्वेवेष्टकाः। - श.ब्रा. ६.१.२.२३
*परिषेक धेनूकरणावकर्षणादिकं कर्म : ताः (आपः) प्रजापतिमब्रुवन् - यद्वै नः कमभूद् - अवाक्तदगादिति। सोऽब्रवीत् - एष व एतस्य वनस्पतिर्वेत्त्विति। वेत्तु सः। वेत्तुसो ह वै तं वेतस इत्याचक्षते परोक्षम्। अथ यदब्रुवन् - अवाङ् नः कमगादिति - ता अवाक्का अभवन्। अवाक्का ह वै ता अवका इत्याचक्षते परोऽक्षम्। - श.ब्रा. ९.१.२.२२
*अर्कविधोपासनम् : अथार्कस्य अग्निर्वा अर्कः। तस्याहुतय एव कम् आहुतयो ह्यग्नये कम्। आदित्यो वा अर्कः। तस्य चन्द्रमा एव कम्। चन्द्रमा ह्यादित्याय कम्। इत्यधिदेवतम्। अथाध्यात्मम्। प्राणो वा अर्कः। तस्यान्नमेव कम्। अन्नं हि प्राणाय कम्। इति नु एवार्कस्य। - श.ब्रा. १०.६.२.५-७
*उपास्यस्य हिरण्यगर्भस्य स्वरूपप्रतिपादकं ब्राह्मणम् : अशनाययाऽशनाया हि मृत्युस्तन्मनो ऽकुरुत - आत्मन्वी स्यामिति। सोऽर्चन्नचरत्। तस्यार्चत अपोऽजायन्त। अर्चते वै मे कमभूदिति। तदेवार्क्यस्यार्कत्वम्। कं ह वा अस्मै भवति - य एवमेतदर्क्यस्यार्कत्वं वेद। - श.ब्रा. १०.६.५.१
*पितृpमेधः :- कंवति कुर्यात्। कं मेऽसदिति। अथो शंवति। शं मेऽसदिति। - श.ब्रा. १३.८.१.१०
*कृत्वा यवान्वपति। अक्षं मे यवयानिति। अवकाभिः प्रच्छादयति। कं मेऽसदिति।
दर्भैः प्रच्छादयति अरूक्षतायै। - श.ब्रा. १३.८.३.१३
*श्रीमन्थकर्म ब्राह्मणम् : स यः कामयेत। महत्प्राप्नुयामिति। उदगयन आपूर्यमाणपक्षे पुण्याहे द्वादशाहमुपसद्व्रती भूत्वा, औदुम्बरे कंसे चमसे वा सवौrषधं फलानीति संभृत्य, परिसमुह्य, - - - - - पुंसा नक्षत्रेण मंथं सन्नीय जुहोति। - श.ब्रा. १४.३.३.१
*पुत्रमन्थकर्म ब्राह्मणम् : अथ यस्य जायामार्तवं विन्देत्। त्र्यहं कंसे न पिबेत्। अहतवासाः। नैनां वृषलो न वृषल्युपहन्यात्। - श.ब्रा. १४.३.४.१२
*जातकर्म : जाते अग्निमुपसमाधाय। अंके आधाय। कंसे पृषदाज्यमानीय। पृषदाज्यस्योपघातं जुहोति - - - श.ब्रा. १४.३.४.२३
*हविषः पुरोनुवाक्या : अस्य श्रवो नद्यः सप्त बिभ्रति। द्यावा क्षामा पृथिवी दर्शतं वपुः। अस्मे सूर्याचन्द्रमसाऽभिचक्षे। श्रद्धे कमिन्द्र चरतो विचर्तुरम् ॥ - तैत्तिरीय ब्राह्मण २.८.९.२
*दर्भ संनहन मन्त्रः : अपरिमितानां परिमिताः। संनह्ये सुकृताय कम्। एनो मा निगां कतमच्चनाहम्। पुनरुत्थाय बहुला भवन्तु ॥ - तै.ब्रा. ३.७.४.१०
*तास्वन्विष्टि। पष्ठौहीवरां दद्यात्कंसं च। स्त्रियै चाऽऽभारं समृद्ध्यै। - तै.ब्रा. ३.१२.२.९, ३.१२.४.७
*अरण्येऽधीयीरन्। - - - - - धेनुर्दक्षिणा। कंसं वासश्च क्षौमम्। अन्यत्र शुक्लम्। - तैत्तिरीय आरण्यक १.३१.३
*(अभिषेकानन्तरम्) अथास्मै सुराकंसं हस्त आदधाति। स्वादिष्ठया मदिष्ठया पवस्व सोम धारया। इन्द्राय पातवे सुतः इति। - ऐतरेय ब्राह्मण ८.८
*एत्य गृहान्पश्चाद् गृह्यस्याग्नेरुपविष्टायान्वारब्धाय ऋत्विगन्ततः कंसेन चतुर्गृहीतास्तिस्र आज्याहुतीरैन्द्रीः प्रपदं जुहोत्यनार्त्या अरिष्ट्या अज्यान्या अभयाय। - ऐ.ब्रा. ८.११
*अनार्तो ह वा अरिष्टोऽजीवः सर्वतोv गुप्तस्त्रय्यै विद्यायै रूपेण सर्वा दिशोऽनु संचरत्यैन्द्रे लोके प्रतिष्ठितो यस्मा एता ऋत्विगन्ततः कंसेन चतुर्गृहीतास्तिस्र आज्याहुतीरैन्द्रीः प्रपदं जुहोति। - ऐ.ब्रा. ८.११
*दक्षिणायां दत्तायामाचार्यकर्तव्यं : अथास्मै सुराकंसं हस्त आदधाति - स्वादिष्ठया मदिष्ठया पवस्व सोम धारया। इन्द्राय पातवे सुत इति। - ऐ.ब्रा. ८.२०
*अथ यत् काय एककपालः, प्रजापतिर्वै कः प्रजापतेराप्त्यै। अथो सुखस्य वा एतद् नामधेयं कमिति। सुखमेव तदध्यात्मन् धत्ते। - गोपथ ब्राह्मण २.१.२२
*को वै प्रजापतिः। प्रजापतेराप्त्यै, यदेव कद्वन्तः। तत् स्वर्गस्य लोकस्य रूपम्, यद्वेव कद्वन्तः। अथो अन्नं वै कम्, अथो अन्नस्यावरुद्ध्यै, यद्वेव कद्वन्तः। अथो सुखं वै कम्, अथो सुखस्यावरुद्ध्यै, यद्वेव कद्वन्तः। - - - - - तानि कद्वद्भिः प्रगाथैः शमयन्ति। तान्येभ्यः शान्तानि कं भवन्ति। - गोपथ ब्रा. २.६.३
*एतेषां वै शिल्पानामनुकृतीह शिल्पमधिगम्यते। हस्ती कंसो वासो हिरण्यमश्वतरीरथः शिल्पम्। - - - -। यद्वेव शिल्पानि, आत्मसंस्कृतिर्वै शिल्पानि - गोपथ ब्रा. २.६.७
*अथ यद्द्वैपदो स्तोत्रियानुरूपौ भवतः - इमा नु कं भुवना सीषधाम इति। द्विपाद् वै पुरुषः। - गोपथ ब्रा. २.६.१२
*दर्शपूर्णमास : अथोत्तरेण गार्हपत्यमुपविश्य कंसं वा चमसं वा प्रणीताप्रणयनं याचति तस्मिंस्तिरः पवित्रमप आनयन्नाह ब्रह्मन्नपः प्रणेष्यामि - - - - बौधायन श्रौत सूत्र १.४
*दर्शपूर्णमास : अथ कंसं वा चमसं वेडोपहवनं याचति तमन्तर्वेदि निधाय तस्मिनुपस्तीर्य दक्षिणस्य पुरोडाशस्य दक्षिणार्धात्प्ररुज्यावदधाति मनुना दृष्टां घृतपदीं मित्रावरुणसमीरिताम् - - - - -बौ.श्रौ.सू. १.१८
*पशुबन्धः :- अथ कंसे वा चमसे वा वसाहोमं गृह्णाति यूष्णोपसिञ्चत्यभिघारयत्यथ पशोरवदानानि संमृशति - बौ.श्रौ.सू. ४.९
*चातुर्मास्ये वैश्वदेवहवींषि : कंसे वा चमसे वामिक्षां व्युद्धृत्य वाजिनमानीयाथाभिघारयति - बौ.श्रौ.सू. ५.२
*चातुर्मास्ये वरुणप्रघासः :- प्रसिद्धमैन्द्राग्नान्मारुतीं प्रतिप्रस्थाता कंसे वा चमसे वामिक्षां व्युद्धृत्य तस्यां मेषीमवदधात्यथास्यै शमीपर्णकरीरसक्तूनामिक्षामित्युपवपति - - - - - -वारुणीमध्वर्युस्तथैव कंसे वा चमसे वामिक्षां व्युद्धृत्य तस्यां मेषमवदधाति - बौ.श्रौ.सू. ५.६
*चातुर्मास्ये वरुणप्रघासः :- - - - -शंयुना प्रस्तरपरिधि संप्रकीर्य संप्रस्राव्य स्रुचो विमुच्य तथैव कंसौ वा चमसौ वानाज्यलिप्तौ याचतः समानी वाजिनयोः - - - बौ.श्रौ.सू. ५.९
*अग्निष्टोम प्रातःसवनम् : - - - -वर्चोधां यज्ञवाहसं सुपारा नो असद्वश इत्यथास्मै कंसे वा चमसे वा निःषिच्य व्रतं प्रयच्छति - बौ.श्रौ.सू. ६.७
*अग्निष्टोम माध्यन्दिन सवनम् : ज्योतिरसि वैश्वानरं पृश्नियै दुग्धमिति बर्हिषी अन्तर्धाय कंसे वा चमसे वा गृह्णाति यावती द्यावापृथिवी महित्वा यावच्च सप्त सिन्धवो वितस्थुः। - - - - -- बौ.श्रौ.सू. ८.३
*दर्शपूर्णमासौ : वानस्पत्यो ऽसि देवेभ्यः शुन्धस्वेति प्रणीताप्रणयनं चमसमद्भिः परिक्षालयति तूष्णीं कंसं मृन्मयं च। कंसेन प्रणयेद्ब|ह्मवर्चसकामस्य मृन्मयेन प्रतिष्ठाकामस्य गोदोहनेन वसुकामस्य - आपस्तम्ब श्रौत सूत्र १.१६.३
*आपो नः शोशुचदघमिति प्रत्यृचं हुत्वा ब्राह्मणान्भोजयित्वा स्वस्त्ययनं वाचयीत गौः कंसोऽहतं वासश्च दक्षिणा। - आश्वलायन गृह्य सूत्र ४.६.१८