KAKUDA OR HUMP
The hump of a cow is called KAKUDA in Sanskrit. This may symbolize the highest state of consciousness. But there are other riddles associated with this word both in vedic and puraanic texts. In puraanic texts, Kakuda word has mostly been used as an adjective of king Raivata. This finds no parallel in vedic texts. In Somayaga, the only rites performed are that of Raivata sama which is sung on 6th day which is the last day in a sense. So why the authors of puranic texts coined a name Raivata Kakudmi, the Raivata who has hump. The answer may be that Raivata is the last stage of creation in Somayaga. This may be considered the state of highest entropy from modern scientific view. On the other hand, the state of lowest entropy lies in the Kakuda or hump. That may be the reason why the authors of puranic texts chose to connect the two. There are still many more statements on Kakuda in vedic texts which demand explanation.
ककुद्
टिप्पणी : पुराणों में वृषभ के ककुद् की कल्पना का मूल ऋग्वेद १०.८.२ में मिलता है । इस ऋचा में वृषभ ककुद्मान् को गर्भ कहा गया है जो अग्नि का रूप है । अथर्ववेद ६.८६.३ में इसे मनुष्यों का ककुद् कहा गया है । अथर्ववेद ९.४.८ में ककुत् में मरुतों रूपी प्राणों की स्थिति का उल्लेख है । ऋग्वेद ८.४४.१६ की अग्निर्मूर्द्धा दिव: ककुत् इति ऋचा का वैदिक साहित्य में सार्वत्रिक उल्लेख आता है । शतपथ ब्राह्मण ७.५.१.३५ में अग्नि रूपी पशु की ककुद् में ऋतव्या इष्टका की स्थिति कही गई है । शतपथ ब्राह्मण १३.३.३.१० तथा तैत्तिरीय ब्राह्मण ३.८.२१.४ में अश्वमेध के तीन शीर्षों में ३ ककुदों / ककुभों की स्थितियों का उल्लेख है । एकविंश अग्नि, एकविंश स्तोम तथा एकविंशति यूपों को अश्वमेध की तीन ककुद् कहा गया है । शतपथ ब्राह्मण ३.१.३.१२ में मृत वृत्र की अक्षि के त्रिककुद् गिरि बनने का उल्लेख आता है । तैत्तिरीय आरण्यक ६.१०.१ में त्रैककुद् आञ्जन के हिमवान् पर्वत पर उत्पन्न होने का उल्लेख है ।
बौद्ध मत में बुद्ध की मूर्तियों में शिर के ऊपर एक उन्नत स्थान दिखाया जाता है जिसे संभवतः ककुद् कहते हैं । बुद्ध के कुछ अवतारों में यह ककुद एक नहीं, एक के ऊपर एक कईं दिखाए जाते हैं । जैसा कि व्यान शब्द की टिप्पणी में कहा गया है, ऐसा अनुमान है कि ककुद् व्यान प्राण की स्थिति है । इस स्थिति में सूर्य किरणों का अधिकतम अवशोषण संभव हो पाता है जो जड तत्त्वों का, भोजन का ग्रहण किए बिना ही जीवन यापन संभव बनाता है ।
वैदिक साहित्य में एक उलझन ककुद् और ककुप / ककुभ शब्दों के सम्बन्ध में है । ककुप् दिशा को कहते हैं । इसके अतिरिक्त ककुप् छन्द होता है जिसके प्रथम पद में ८, द्वितीय पद में १२ तथा तृतीय पद में ८ अक्षर होते हैं ।
ककुप्
टिप्पणी वैदिक साहित्य में ककुप् दिशाओं को कहते हैं । ऋग्वेद ४.१९.४ में इन्द्र द्वारा पर्वतों की ककुभों को नष्ट करने का उल्लेख आता है(दृळ्हान्यौभ्नादुशमान ओजोऽवाभिनत्ककुभः पर्वतानाम् ॥) । भाष्यों में पर्वतों की ककुभों का अर्थ पर्वतों के पक्ष व शिखर भी किया गया है जिनको इन्द्र ने काटकर पर्वतों को स्थिर किया । ककुप् छन्द का नाम भी है । उष्णिक् व ककुप् छन्दों का उल्लेख साथ - साथ आता है । उष्णिक् छन्द में भी २८ अक्षर होते हैं लेकिन उसके प्रथम २ पदों में ८ - ८ तथा तीसरे पद में १२ अक्षर होते हैं । षड्-विंश ब्राह्मण १.३.१२ में ककुप् व उष्णिक् को श्रोत्र - द्वय कहा गया है(चैकं छन्दः ककुबुष्णिहौ द्वे सामनी तस्मात्समानँ सच्छ्रोत्रं द्वेधैव श्रृणोति) । जैमिनीय ब्राह्मण २.२५६(ऐळं ककुभि, स्वारम् उष्णिहि। त्रिरात्रम् एवैतन् मध्यतो व्यतिषजन्त्य् अवस्रंसाय॥) में ऐडं साम को ककुप् छन्द में तथा स्वारं साम को उष्णिक् छन्द में गाने का निर्देश है । जैमिनीय ब्राह्मण २.८७(तस्यैकविंशो माध्यंदिनो भवति। सा हास्य ककुप्। य उ ह वा एषां लोकानां श्रेष्ठास् ते ककुभः। अग्निर् वा अस्य लोकस्य ककुब्, वायुर् अन्तरिक्षस्य, आदित्यो दिवः। ककुभाम् एको भवति य एवं वेद। ) तथा २.३२८(स वा एष महात्रिककुब् भवति। त्रयो ह वा एषां लोकानां ककुभः। अग्निर् वा अस्य लोकस्य ककुब्, वायुर् अन्तरिक्षस्यादित्यो दिवः।) के अनुसार पृथिवी का ककुप् अग्नि, अन्तरिक्ष का वायु तथा द्यु का आदित्य है । इस कथन के अनुसार जो लोकों में श्रेष्ठ है , वह उस लोक का ककुप् है । शतपथ ब्राह्मण ८.५.२.४(प्राणो वै ककुप्छन्दस्त्रिककुप्छन्द इत्युदानो वै त्रिककुप्छन्दः) के अनुसार प्राण ककुप् है, जबकि त्रैककुप् उदान है । जैमिनीय ब्राह्मण १.१८५ में त्रैककुप् को अन्नाद्य, अन्नों में श्रेष्ठतम् कहा गया है ।
ककुद्मी
टिप्पणी
रैवत ककुद्मी की व्याख्या का सूत्र जैमिनीय ब्राह्मण १.१४४ से प्राप्त होता है । सोमयाग में माध्यन्दिन सवन के पश्चात् अन्त में पृष्ठ स्तोत्र होते हैं । ६ दिवसीय सोमयाग में प्रथम दिन के पृष्ठ स्तोत्र क्रमशः रथन्तर, वामदेव्य, श्यैत व नौधस साम होते हैं । दूसरे दिन रथन्तर के बदले बृहत् साम होता है, शेष ३ वही रहते हैं । इसी प्रकार तीसरे दिन वैरूप, चौथे दिन वैराज, पांचवें दिन शक्वर तथा छठे दिन रैवत साम होता है । यज्ञ की क्रियाओं से ऐसा प्रतीत होता है कि आकाश, वायु, अग्नि, जल व पृथिवी नामक ५ महाभूतों तथा रथन्तर आदि ६ सामों में कोई सम्बन्ध है । बृहत् साम आकाश से, वैरूप वायु से, वैराज अग्नि से, शक्वर जल से तथा रैवत पृथिवी तत्त्वों से सम्बन्धित हो सकते हैं । अन्यत्र इन्हें ६ दिशाओं से सम्बद्ध किया गया है । डा. फतहसिंह के शब्दों में यह समाधि से व्युत्थान की क्रमिक स्थिति हो सकती है । इन सामों को पृष्ठ स्तोत्र क्यों कहा जाता है, इस सम्बन्ध में ब्राह्मण ग्रन्थों का कहना है कि जैसे हम अपने पृष्ठ भाग को , कमर को नहीं देख सकते, उसी प्रकार यह पृष्ठ अदृश्य रहते हैं । वैदिक साहित्य में इस संदर्भ में वृषभ के पृष्ठ की कल्पना की गई है जिस पर ककुद की स्थिति होती है । यज्ञ में वामदेव्य साम(कया नश्चित्र आ भुवत् इति)को ककुद् की संज्ञा दी गई है । वामदेव गर्भ में ही रहना पसंद करता है, वह गर्भ से बाहर निकलना, प्रकट होना नहीं चाहता । भौतिक जगत में अन्तरिक्ष गर्भ का स्थान माना जाता है । जैमिनीय ब्राह्मण १.१४४ में विस्तार से बताया गया है कि वामदेव की उत्पत्ति कैसे हुई । देवों ने असुरों से लडने से पूर्व अपने वाम वसुओं को एकत्रित करके रख दिया । असुरों को जीतने के पश्चात् उन्होंने अपने - अपने वाम वसुओं को प्राप्त कहना चाहा लेकिन वह सारा मिलकर एक हो चुका था । तब उससे रथन्तर, बृहत् आदि ६ सामों की सृष्टि हुई । रैवत साम को उत्पन्न करने के पश्चात् उससे आगे सृष्टि नहीं हो सकी । वह ककुद् रूप बन गया । वही वामदेव्य है । यह विशेष तथ्य है कि पुराणों में बृहत् ककुद्मी, वैरूप ककुद्मी, वैराज ककुद्मी आदि नाम नहीं हैं, केवल रैवत ककुद्मी नाम है । ऐसा हो सकता है कि रैवत साम तक आते आते ऊर्जा पूर्ण रूप से अव्यवस्थित हो जाती है(रैवत साम का विस्तार सबसे अधिक होता है) और इससे आगे सृष्टि करना, उस ऊर्जा का कार्य में उपयोग करना संभव नहीं है । तब यह रैवत ककुद्मी अपनी कन्या रेवती को संकर्षण को, शेष को, अनन्त को दे देता है । संकर्षण की स्थिति पृथिवी से भी नीचे मानी गई है । वह सबसे अधिक अव्यवस्थित स्थिति है । यह उल्लेखनीय है कि यज्ञ में रैवत साम के समय शक्वरी व रेवती ब्रह्मा से नाम प्राप्त करने की ५ बार मांग करती हैं और ब्रह्मा उन्हें ५ बार नाम देते हैं । अतः इस साम के ५ भाग हैं । नाम के दृष्टिकोण से विचार करने पर क्रमशः अस्ति(समाधि की, अस्तित्व मात्र की स्थिति), भाति, प्रिय, नाम व रूप का उल्लेख आता है। एक ओर सबसे अव्यवस्थित स्थिति रेवती है तो दूसरी ओर सबसे व्यवस्थित स्थिति ब्रह्म की मान सकते हैं । जैमिनीय ब्राह्मण १.३५५ के अनुसार पृष्ठ पर ककुद् ब्रह्म के सदृश है ।
रैवत ककुद्मी की तुलना सोमयाग के तृतीय सवन में सभ - पौष्कल सामों से भी की जा सकती है जिसके लिए पुष्कल शब्द पर टिप्पणी द्रष्टव्य है । सभ साम स्वारं व ककुप् प्रकार का है जबकि पौष्कल उष्णिक् प्रकार का । यह संकेत देता है कि रैवत की प्रकृति पौष्कल या पुष्कल जैसी हो सकती है जो अपने शीर्ष या ककुप् को सुरक्षित रखता है ।
प्रथम लेखनः- ११-९-२००६ई.
संदर्भ
*अग्निर्मूर्धा दिवः ककुत् पतिः पृथिव्या अयम्। अपां रेतांसि जिन्वति ॥ - ऋग्वेद ८.४४.१६
*मुमोद गर्भो वृषभः ककुद्मानस्रेमा वत्सः शिमीवाँ अरावीत्। स देवतात्युद्यतानि कृण्वन् त्स्वेषु क्षयेषु प्रथमो जिगाति ॥ - ऋ. १०.८.२
*सम्राडस्यसुराणां ककुन्मनुष्याणाम्। देवानामर्धभागसि त्वमेकवृषो भव ॥ - अथर्ववेद ६.८६.३
*इन्द्रस्योजो वरुणस्य बाहू अश्विनोरंसौ मरुतामियं ककुत्। बृहस्पतिं संभृतमेतमाहुर्ये धीरासः कवयो ये मनीषिणः ॥ - अ. ९.४.८.
*श्येनः क्रोडो३न्तरिक्षं पाजस्यं बृहस्पतिः ककुद् बृहतीः कीकसाः। - अ. ९.१२.५
*यौ ते बाहू ये दोषणी यावंसौ या च ते ककुत्। आमिक्षां दुह्रतां दात्रे क्षीरं सर्पिरथो मधु ॥ - अ. १०.९.१९
*ऊर्ध्वो बिन्दुरुदचरद् ब्रह्मणः ककुदादधि। ततस्त्वं जज्ञिषे वशे ततो होताजायत ॥ - अ. १०.१०.१९
*बृहदुपस्थानम् : अग्निर्मूद्धा दिवः ककुत्पतिः पृथिव्या अयम्। अपां रेतांसि जिन्वति इति। अन्वेव धावति। - - - शतपथ ब्राह्मण २.३.४.११
*आग्नावैष्णवीष्टिः - त्रैककुदं भवति। यत्र वा इन्द्रो वृत्रमहन् - तस्य यदक्ष्यासीत्। तं गिरिं त्रिककुदमकरोत्। तद् यत्त्रैककुदं भवति - चक्षुष्येवैतच्चक्षुर्दधाति। तस्मात्त्रैककुदं भवति। यदि त्रैककुदं न विन्देद् अप्यत्रैककुदमेव स्यात्। समानी ह्येवाञ्जनस्य बन्धुता ॥ - श.ब्रा. ३.१.३.१२
*अनेनापि - देवीरापो यो व ऊर्मिः प्रतूर्तिः ककुन्मान् वाजसाः तेनायं वाजं सेत् इति। - श.ब्रा. ५.१.४.६
*स्रुगिष्टकाद्वयोपधानम् : अग्निर्मूर्धा दिवः ककुत् इति। एष उ सोऽग्निः। गायत्र्या। गायत्रोऽग्निः। - श.ब्रा. ७.४.१.४१
*उखोपरि होमः - - - - - -कीकसा विश्वज्योतिः। ककुदमृतव्ये। ग्रीवा अषाढा। शिरः कूर्मः। - श.ब्रा ७.५.१.३५
*यो वा अश्वमेधे तिस्रः ककुदो वेद ककुद्ध राज्ञां भवति। एकविंशोऽग्निर्भवति। एकविंशः स्तोमः। एकविंशतिर्यूपाः। एता वा अश्वमेधे तिस्रः ककुदः। ता य एवं वेद। ककुद्ध राज्ञां भवति। - श.ब्रा. १३.३.३.१०
*आग्नेयीष्टिः - अग्निर्मूर्द्धा दिवः ककुत् भुवो यज्ञस्य रजसश्च नेता इति उपांशु हविषो याज्याऽनुवाक्ये मूर्द्धन्वत्यन्या भवति। सद्वत्यन्या। एष वै मूर्द्धा। य एष तपति। - श.ब्रा. १३.४.१.१३
*कुशतरुणकैस्त्रैककुदेनाञ्जनेनाङ्क्ते - यदाञ्जनं त्रैककुदं जातं हिमवतस्परि। तेनामृतस्य मूलेनारातीर्जम्भयामसि ॥ - तैत्तिरीय आरण्यक ६.१०.२
*आग्नेयकर्मणि विनियोक्तव्यो मन्त्राः - वृषाऽस्यंशुर्वृषभाय गृह्यसे। वृषाऽयमुग्रो नृचक्षसे। दिव्यःकर्मण्यो हितो बृहन्नाम। वृषभस्य या ककुत् ॥ - तैत्तिरीय ब्राह्मण २.४.७.१
*कौकिल सौत्रामणि : शमिता नो वनस्पतिः। सविता प्रसुवन्भगम्। ककुच्छन्द इहेन्द्रियम्। वशा वेहद्गौर्न वयो दधुः ॥ - तै.ब्रा. २.६.१८.४
*इष्टिहौत्रस्य मन्त्राः - अग्निर्मूर्धा दिवः ककुत्। पतिः पृथिव्या अयम्। अपां रेताँसि जिन्वति। - तै.ब्रा. ३.५.७.१
*एकविँश एवाग्निः स्यादित्याहुः। एकविँशः स्तोमः। एकविँशतिर्यूपाः। यथा प्रष्टिभिर्याति। तादृगेव तत्। यो वा अश्वमेधे तिस्रः ककुभो वेद। ककुद्ध राज्ञां भवति। एकविँशोऽग्निर्भवति। एकविँशःस्तोमः। एकविँशतिर्यूपाः। एता वा अश्वमेधे तिस्रः ककुभः। य एवं वेद। ककुद्ध राज्ञां भवति। यो वा अश्वमेधि त्रीणि शीर्षाणि वेद। - - - - - -तै.ब्रा. ३.८.२१.४
*तन् नासृजत। तद् ऊर्ध्वम् उदैषद् यथा पृष्ठं यथा ककुद् एवम्। तद् देवास् संगृह्योर्ध्वा उदायन्। - जैमिनीय ब्राह्मण १.१४४
*तद् अप्सव् अन्तः पर्यपश्यन् यथा पृष्ठात् ककुद् उदीषिता स्याद् एवम्। - जै. ३.३५४, ३.३५५