The puraanic story of Kadru can be read in brief in website1, website2, website 3 and in website4 in detail.
Kadru is the gross earth element. The opposite is Suparni/Vinataa which is the heavenly element which illuminates in various ways. Suparni means - with feathers. It can go far away by flying. There is a story in vedic and puraanic literature that there was a bet between Kadru and Suparni whether the tail of the horse of sun is black or white. Kadru said it is black. At last, Kadru won and Suparni became her slave. The fact behind it is that the tail of horse of sun is symbolic of the human world which can not be seen by gross earth element. For Kadru, it will appear dark only. In this situation, Vinataa/Suparni will have to work as a slave of Kadru. This story is found with a slight variation in Braahmanic literature. The variation is that Kadru sees the tail of horse as dynamic, while Suparni sees it stable .
- Fatah Singh
(Extract from the book ‘Vedic Darshana’)
In one brahmanical text, the context of Kadru and Suparni(one who can fly) is given at the end of a special act in Somayaaga, named Prayaaja and also at the beginning of an act called buying of Soma herb from a mean caste. It appears that this anecdote forms a part of the prayaaja itself. The reason is the statement that chhandas/poetry are the carriers of gods, just like the animals are for humans. In this anecdote, the chhandas carry initiation and tapa/penance from heaven to earth and also leave their own burden in the heaven itself. These chhandas are the sons of Suparni in the anecdote and therefore, it remains an open question what may be the role of Kadru in this context. As has been stated in the comments on word Prayaaga, the Prayaaja act in a yaaga is the way of slow progress which is performed along with acts of fast progress.
The word Kadru seems to be derived from the root kadi which means joy and sorrow. To how much extent this meaning fits with the descriptions of the word, will be considered here.
There is an anecdote in braahmanical text that Kadru is earth while Suparni is voice. These two fell in a competition who can see far away. Then Suparni informed that she is seeing a white horse which is tied with a special pole. Then Kadru said that the horse has black? aura. The anecdote goes further – Kadru wins and Suparni is supposed to fetch nectar from the heavens to get herself freed from bondage. The puraanic version of this differs in the respect that not aura, but the body hair are black. To falsely prove her assertion, she orders her serpent sons to get attached with the horse’s hair so that these look black. In puraanic texts, the hair are symbolic of thrill with joy. This can be called a part of scattered energy. The aura also is a part of scattered energy. And vedas instruct to purify soma with the hair of a sheep. In puraanic stories, the attachment of serpents with the hair of the horse may mean to purify from poison, as serpents are supposed to drink poison. Thus the context of Kadru seems to be to purify the thrill of joy. In puraanic texts, Kadru is incarnated in the form of Rohini, the wife of Vasudeva and mother of Balaraama, who is himself an incarnation of Shesha, the supreme serpent. And in puranic text, one Aahlaada or joy has been depicted as the incarnation of Balaraama. Rohini is one who can ascend.
There is a hymn in Rigveda whose seer is the queen of serpents. This hymn is recited without voice at certain occasions in yaagas. In Hatha yoga, the queen of serpents is supposed to be the Kundalini power. The recitation of this hymn rejuvenates the serpents and allows the production of best food on earth.
The above description about Kadru does not seem to satisfy the quest for mystery behind Kadru. There are certain verses in Rigveda where a similar word Kadu has appeared. This is a combined word, whose parts are kat – Um. The explanation for this word is generally given that it represents ‘when’. But it is quite possible that this is the root of word Kadru. Kadru may be a state when the formation of an year in the form of association of earth, sun and moon has not yet taken place. This is a primordial state. And this a state which has been called as untrue, like that of human being.
One other interpretation of Kadru can be attempted on the basis of a state when all sins are destroyed, and only mud or filth remains.
कद्रू
टिप्पणी : ( ऋग्वेद १०.१८९ आदि ) । कद्रू स्थिर पृथिवी तत्त्व है । शिव पुराण के अनुसार कद्रू महामोहात्मक है । सुपर्णी नाना रूप में प्रकाश करने वाली द्यौ तत्त्व है । सुपर्णी का अर्थ है जिसके पंख लगे हों । यह उड कर बहुत दूर तक जा सकती है । सूर्य रूपी अश्व की किरण रूपी पूंछ( मानुषी त्रिलोकी ) को स्थिर पृथिवी तत्त्व नहीं देख सकता । उसे तो वह काला ही प्रतीत होगा । ऐसी स्थिति में विनता को कद्रू की दासी के रूप में कार्य करना होगा । ब्राह्मण ग्रन्थों में इस कथा का रूपान्तर इस प्रकार है कि कद्रू अश्व की पूंछ को गतिशील देखती है जबकि सुपर्णी स्थिर ।
डा. फतहसिंह ( 'वैदिक दर्शन' पुस्तक के आधार पर )
शतपथ ब्राह्मण ३.२.४.१ में कद्रू व सुपर्णी की प्रतिस्पर्द्धा का प्रसंग सोमक्रयण विधि के आरम्भ में तथा प्रयाजविधि के पश्चात् दिया गया है । ऐसा प्रतीत होता है कि कद्रू व सुपर्णी का प्रसंग प्रयाज - अनुयाज विधि की एक रहस्यमय व्याख्या ही है । इस प्रतीति का कारण यह है कि अनुयाजों को छन्द कहा गया है जो देवों का भार ढोने का कार्य करते हैं, वैसे ही जैसे अश्व आदि पशु मनुष्यों के लिए भार ढोते हैं ( शतपथ ब्राह्मण १.८.२.८) । कद्रू व सुपर्णी के प्रसंग में जगती व त्रिष्टुप् छन्द स्वर्ग से दीक्षा व तप ढोकर लाते हैं, जबकि अपने कुछ अक्षर वहीं पर त्याग आते हैं जिन्हें बाद में गायत्री लाती है । जैसा कि प्रयाग शब्द की टिप्पणी में कहा गया है, प्रयाग सोमयाग के अन्तर्गत होने वाली प्रयाज इष्टि से सम्बन्धित है । प्रयाज - अनुयाज इष्टि एक मन्द गति से प्रगति करने का मार्ग है जबकि प्रवर्ग्य - उपसद इष्टि तीव्र गति से प्रगति करने का मार्ग है ( त्रिष्टुप् छन्द द्वारा लाए गए तप को उपसद कहा गया है ) । यदि सुपर्णी के पुत्र रूप सुपर्ण/छन्द अनुयाजों का रूप हैं तो कद्रू का स्थान भी यहीं कहीं निश्चित किया जाना चाहिए ।
कद्रू शब्द किस धातु के आधार पर बना है, यह अभी तक स्पष्ट नहीं है क्योंकि वैदिक पदानुक्रम कोश ( विश्वेश्वरानन्द वैदिक शोध संस्थान, होशियारपुर ) में कद्रू शब्द की निरुक्ति पर प्रश्नवाचक चिह्न लगा दिया गया है । काशकृत्स्न धातु कोश में कदि धातु का अर्थ आह्लादने व रोदने किया गया है । इस लेख में यह विचार किया जाएगा कि कद्रू शब्द के मूल में कदि धातु का प्रयोग कितना उपयुक्त या अनुपयुक्त है ।
शतपथ ब्राह्मण ३.६.२.२-८ में कद्रू व सुपर्णी ( पुराणों में कद्रू व विनता) के बीच विवाद का वृत्तान्त दिया गया है । इस विवरण के अनुसार वाक् सुपर्णी है, इयं/पृथिवी कद्रू । उनमें शर्त लगी कि जो हममें से अधिक दूर तक देखेगा, वह जीतेगा । सुपर्णी ने देखा कि इस सलिल के पार एक अश्व है जो एक स्थाणु/खूंटे से बंधा है । इस पर कद्रू ने कहा कि उसका वाल न्यषञ्जि/चित्र रूप? है । उसको वात हिलाती है । इससे आगे कहा गया है कि वेदि ही सलिल है, अग्नि ही श्वेत अश्व है, यूप स्थाणु है । कद्रू ? रशना( बांधने वाली रस्सी ) है । इस आख्यान का पौराणिक रूपान्तर यह है कि पुराणों में अश्व को उच्चैःश्रवा अश्व कहा गया है । कद्रू उच्चैःश्रवा के रोमों/पूंछ को काला बताती है और सर्पों को आदेश देती है कि मेरा कथन सत्य करने के लिए उस अश्व पर लिपट जाओ । जो सर्प उसके आदेश की अवहेलना करता है, उसे वह नष्ट होने का शाप देती है । इस प्रकार शतपथ ब्राह्मण तथा पुराणों के आख्यानों में अंतर यह है कि शतपथ में वाल न्यषञ्जि है जबकि पुराणों में रोम । वैदिक तथा पौराणिक साहित्य में वाल का अर्थ मुख्य ज्योvति के परितः बिखरी हुई ज्योvति लिया जाता है, जैसे महापुरुषों के मुख के परितः आभामण्डल । रोम का अर्थ हर्ष से रोमांच होना लिया जाता है । दोनों ही स्थितियों में यह बिखरी हुई ऊर्जा का ही अंश है । और वैदिक साहित्य में अवि के बालों/वालों का प्रयोग सोम को शुद्ध करने, छानने के लिए किया जाता है । यह संकेत करता है कि जब कद्रू अपने सर्प पुत्रों को उच्चैःश्रवा के बाल काले बनाने का आदेश देती है, तो उससे तात्पर्य बिखरी ऊर्जा में निहित विष के पान से, बिखरी ऊर्जा को शुद्ध करने से हो सकता है । आह्लाद भी बिखरी ऊर्जा है । और भविष्य पुराण में उदयसिंह व आह्लाद का पूरा आख्यान है जहां आह्लाद को बलराम का अंश कहा गया है । बलराम शेषनाग का अवतार तथा रोहिणी के पुत्र हैं , जबकि स्वयं रोहिणी को कद्रू का मनुष्य रूप में अवतार कहा गया है ।
प्रश्न यह उठता है कि क्या कद्रू, जिसे ब्राह्मण ग्रन्थों में इयं/पृथिवी कहा गया है और डा. फतहसिंह जिसे स्थिर तत्त्व मानते हैं, पृथिवी से ऊपर स्थित अन्तरिक्ष व द्युलोक से ऊर्जा का ग्रहण करती है ? पुराणों के अनुसार इसका उत्तर हां में है क्योंकि कद्रू रोहिणी के रूप में अवतार लेती है । चन्द्रमा की सर्वप्रिय पत्नी का नाम भी रोहिणी है । रोहिणी अर्थात् जिसमें आरोहण का गुण विद्यमान हो । ऋग्वेद १०.१८९ सूक्त ( आयं गौ: पृश्निरक्रमीत् इत्यादि ) की ऋषिका सार्पराज्ञी है और देवता आत्मा या सूर्य है । हठयोग में कुण्डलिनी शक्ति को सार्पराज्ञी माना जाता है । कद्रू के प्रसंग में भी कद्रू को सार्पराज्ञी माना जा सकता है । तैत्तिरीय संहिता १.५.४.१ में आख्यान है कि सर्पों ने स्वयं को जीर्ण होते देखा । तब कद्रू - पुत्र कसर्णीर ने यह सार्पराज्ञी सूक्त देखा और इसके द्वारा पुनर्यौवन प्राप्त किया । इसके अतिरिक्त पृथिवी ने देखा कि उस पर अन्नाद्य, अन्नों में श्रेष्ठतम अन्न उत्पन्न नहीं होता है । उसने यह मन्त्र देखा और अन्नाद्य को प्राप्त किया । इस सूक्त में तीन ऋचाएं है । ऐसा प्रतीत होता है कि यह तीन पृथिवी, अन्तरिक्ष व द्युलोक से सम्बद्ध हैं । पहली ऋचा में पृश्नि गौ का उल्लेख यह संकेत करता है कि पृथिवी अब गौ रूप होकर ऊपर से ऊर्जा को ग्रहण करने लगी है । दूसरी ऋचा अन्तरिक्ष से सम्बन्धित हो सकती है क्योंकि इसमें प्राण और अपान का उल्लेख है । तीसरी ऋचा में वाक् के पतङ्ग हेतु ३० धामों में विराजने का उल्लेख है । यह द्युलोक से सम्बद्ध हो सकती है और शतपथ ब्राह्मण के आख्यान की सुपर्णी वाक् का रूप भी हो सकती है ।
कद्रू के विषय में जो कुछ ऊपर कहा गया है, वह जिज्ञासा को शान्त करने के लिए पर्याप्त नहीं है । ऋग्वेद की ऋचाओं में कत् शब्द का प्रयोग होता है, जैसे कद्रुद्राय प्रचेतसे, कदू न्वस्याकृतम् इत्यादि । स्वाभाविक रूप से यह संदेह होता है कि क्या इस कत् का सम्बन्ध कद्रू से हो सकता है ? ब्राह्मण ग्रन्थों जैसे ऐतरेय ब्राह्मण ६.२१ आदि में कत् की व्याख्या क: - प्रजापति के रूप में की गई है । डा. फतहसिंह क: को ऐसे आनन्द के रूप में लेते हैं जो इस काया से बंधा हुआ है । सायण भाष्य आदि में कत् की व्याख्या कदा - कब आदि के द्वारा भी की गई है । जब ऋचाओं में कदु शब्द होता है तो उसका सन्धि विच्छेद कत् - ऊँ इति किया जाता है । ऐतरेय ब्राह्मण ६.२१ में कत् इत्यादि से आरम्भ होने वाली कुछ ऋचाओं के समूह को प्रगाथ नाम दिया गया है । कहा गया है कि अन्न ही कम् है और अन्नाद्य, सर्वश्रेष्ठ अन्न की प्राप्ति के लिए इन प्रगाथ ऋचाओं का शंसन किया जाता है । प्रगाथ से क्या तात्पर्य है, यह अन्वेषणीय है । प्रगाथ को गाथा का प्रकृष्ट रूप कहा गया है । और काठक संहिता १४.५ के अनुसार गाथा अनृत की स्थिति है । मनुष्य अनृत वाक् बोलते हैं । ऐसा लगता है कि गाथा का गान किसी आह्लाद विशेष की स्थिति में स्वयं ही प्रस्फुटित हो जाता है लेकिन इसे श्रुति नहीं माना जाना चाहिए । कद्रू की स्थिति भी कुछ ऐसी ही हो सकती है । कत् - ऊँ , ऊँ की प्रतीक्षा है कि कब प्राप्त होगा । द व्यञ्जन में र का समावेश गति के लिए, तेज के लिए किया जाता है । ऐसा कहा जा सकता है कि ऊपर जिस कद्रू व सुपर्णी के आख्यान का उल्लेख है, वह ऐसी स्थिति है जब मन, प्राण और वाक् अथवा पृथिवी, सूर्य और चन्द्रमा के परस्पर योग से संवत्सर का निर्माण नहीं हुआ है, एक संहिता नहीं बनी है । तैत्तिरीय संहिता २.१.४.२ का कथन है कि संवत्सर से परे( परस्तात्) प्राजापत्य कद्रू पशु का आलभन करे । यह कथन भी वर्तमान धारणा की पुष्टि करता है । कद्रू व सुपर्णी का आख्यान उस समय का है जब उत्तरवेदी की कल्पना भी नहीं हुई थी । उत्तरवेदी में ही यूप की स्थापना होती है ।
कद्रू शब्द की एक निरुक्ति का प्रयास कर्द धातु के आधार पर किया जा सकता है जिसका अर्थ काशकृत्स्न धातु कोश में कुत्सित शब्द दिया गया है(जैसे गुदा से अपान वायु के निःसरण के समय) । कर्द का अर्थ कर्दम, कीचड, पंक भी होता है । यह स्थिति पापों के जलने की स्थिति हो सकती है क्योंकि एक स्थान पर उल्लेख आता है कि जब अग्नि ने जल में प्रवेश किया, तब कर्दम उत्पन्न हुआ ।
कद्रू के पुत्र सर्प क्यों हैं, यह अन्वेषणीय है । वैसे, सोमयाग में ऋत्विजों को जब सामूहिक रूप से उत्तरवेदी के एक छोर से दूसरे छोर तक जाना होता है तो वे एक दूसरे का कच्छ पकड कर पङ्क्तिबद्ध होकर प्रसर्पण करते हैं । सर्पण को अंग्रेजी भाषा में स्लिप, फिसलना कहते हैं । आधुनिक पदार्थ विज्ञान में ऐसा भी होता है कि जब एक ठोस के किसी परमाणु के लिए आगे जाने का मार्ग बन्द होता है तो वह अपनी अतिरिक्त ऊर्जा का व्यय स्लिप द्वारा कर देता है । उस स्थान विशेष पर एक रचना दोष उत्पन्न हो जाता है । अतः यह आगे विचारणीय है कि क्या सोमयाग में प्रसर्पण भी इसलिए होता है कि सामान्य रूप से वातावारण इतना सघन है कि आगे कदम नहीं रखा जा सकता ।
प्रथम लेखनः- १०.५.२००६ई.
संदर्भ
*काम्या पशव : :- संवत्सरस्य परस्तात् प्राजापत्यं कद्रुमालभेत। - तैत्तिरीय संहिता २.१.४.२
*अपिबत्कद्रुवः सुतमिन्द्रः सहस्रबाह्वे। अत्रादेदिष्ट पौंस्यम् ॥ - ऋ. ८.४५.२६
*भूमिर्भूम्ना द्यौर्वरिणाऽन्तरिक्षं महित्वा। उपस्थे ते देव्यदितेऽग्निमन्नादम् अन्नाद्यायाऽऽदधे। आऽऽयं गौः पृश्निरक्रमीदसनन्मातरं पुनः। पितरं च प्रयन्त्सुवः। त्रिंशद्धाम वि राजति वाक् पतङ्गाय शिश्रिये। प्रत्यस्य वह द्युभिः ॥ अस्य प्राणादपानत्यन्तश्चरति रोचना। व्यख्यन्महिषः सुवः ॥ - तै.सं. १.५.३.१
*भूमिर्भूम्ना द्यौर्वरिणेत्याहाऽऽशिषैवैनमा धत्ते सर्पा वै जीर्यन्तोऽमन्यन्त स एतं कसर्णीरः काद्रवेयो मन्त्रमपश्यत्ततो वै ते जीर्णास्तनूरपाघ्नत सर्पराज्ञिया ऋग्भिर्गार्हपत्यमा दधाति पुनर्नवमेवैनमजरं कृत्वाऽऽधत्तेऽथो पूतमेव पृथिवीमन्नाद्यं नोपानमत् सैतं मन्त्रमपश्यत् ततो वै तामन्नाद्यमुपानमत् यत् सर्पराज्ञिया ऋग्भिर्गार्हपत्यमादधाति अन्नाद्यस्यावरुद्ध्या - तै.सं.. १.५.४.१
सोमक्रयणविधिः :- त(देवाः) एते माये असृजन्त। सुपर्णीं च कद्रूं च। तद्धिष्ण्यानां ब्राह्मणे व्याख्यायते - सौपर्णीकाद्रवं यथा तदास। - श.ब्रा. ३.२.४.१
*दिवि वै सोम आसीत् - अथेह देवाः। ते देवा अकामयन्त - आ नः सोमो गच्छेत्, तेनागतेन यजेमहीति। त ऽएते मायेऽसृजन्त - सुपर्णीं च कद्रूं च। वागेव सुपर्णी, इयं कद्रूः ताभ्यां समदं चक्रुः। ते हऽर्तीयमानेऽऊचतुः - यतरा नौ दवीयः परापश्याद् - आत्मानं नौ सा जयादिति। तथेति। सा ह कद्रूरुवाच - परेक्षस्वेति। सा ह सुपर्ण्युवाच - अस्य सलिलस्य पारेऽश्वः श्वेत स्थाणौ सेवते - तमहं पश्यामीति। तमेव त्वं पश्यसीति। तं हीति। अथ ह कद्रूरुवाच - तस्य वालो न्यषञ्जि। तममुं वातो धूनोति। तमहं पश्यामीति। सा यत् सुपर्ण्युवाच - अस्य सलिलस्य पार इति। वेदिर्वै सलिलम्, वेदिमेव सा तदुवाच। अश्वः श्वेतः, स्थाणौ सेवतऽइति। अग्निर्वाऽअश्वः श्वेतः। यूपः स्थाणुः। अथ यत् कद्रूरुवाच - तस्य वालो न्यषञ्जि। तममुं वातो धूनोति, तमहं पश्यामीति - रशना हैव सा। - - - श.ब्रा. ३.६.२.२ - ५
*देवा ह वै सर्वचरौ सत्रं निषेदुस्ते ह पाप्मानं नापजघ्निरे तान् होवाचार्बुदः काद्रवेयः सर्प ऋषिर्मन्त्रकृदेका वै वो होत्राऽकृता; तां वोऽहं करवाण्यथ पाप्मानमपहनिष्यध्व इति - ऐतरेय ब्राह्मण ६.१
*काम्याः पशवः :- अथेयं दशर्षभा संवत्सरमभि विहिता प्राजापत्य एवैषां कद्रुर्दशमो भवतीति कथमत्र ब्रह्मचर्यं सिध्यती न सिध्यती - बौधायन श्रौत सूत्र २४.३८
*व्रात्याः :- वासः कृष्णशं कद्रु। - कात्यायन श्रौत सूत्र २२.४.१३
*कस्तमिन्द्र त्वा वसुं, कन्नव्यो अतसीनां, कदू न्वस्याकृतमिति कद्वन्तः प्रगाथा आरम्भणीया अहरहः शस्यन्ते। को वै प्रजापतिः, प्रजापतेराप्त्यै। यदेव कद्वन्ता३:, अन्नं वै कमन्नाद्यस्यावरुद्ध्यै। यद्वेव कद्वन्ता३:, अहरहर्वा एते शान्तान्यहीनसूक्तान्युपयुञ्जाना यन्ति, तानि कद्वद्भिः प्रगाथैः शमयन्ति, तान्येभ्यः शान्तानि कं भवन्ति, तान्येनाञ्छान्तानि स्वर्गं लोकमभिवहन्ति। - ऐतरेय ब्राह्मण ६.२१