KANYA OR VIRGIN
In Hindu daily life, a female child is supposed to be a virgin or kanya until she is of marriageable age. The marriageable age differs in actual practice and in puranic texts. In puranic texts, the marriageable age is 13 or 14 years. And as the female child grows year by year, she is given different sacred names. And she is worshipped as an incarnation of goddess or Devi. The mystery behind it seems to be that whatever has been designated as our basic instincts – our hunger, sleep, anger etc., all of these can be converted into divine nature and these have been given the name of virgin. The climax is that the virgin has been called as possessing dark quality, wife as action quality and sister as pious quality. And all the three are interchangeable. This statement helps solving the riddle of so many stories retold every time on certain festivals.
कन्या
टिप्पणी : दुर्गा सप्तशती ( मार्कण्डेय पुराण ८२/७९) के मध्यम चरित्र में सारे देवता अपना - अपना तेज देकर उस तेज को एकत्रित करके एक देवी का निर्माण करते हैं जिसने महिषासुर आदि असुरों का वध किया । फिर उत्तर चरित्र में शुम्भ - निशुम्भ आदि असुरों के अत्याचार पर देवगण फिर उस देवी को याद करते हैं जो महिषासुर वध के पश्चात् अदृश्य हो गई थी । वह उस देवी का सब भूतों की निद्रा में, तृष्णा में, क्षुधा में, शान्ति आदि में स्मरण करते हैं ( या देवी सर्वभूतेषु निद्रा रूपेण संस्थिता । ) । और वह देवी अचानक पार्वती की देह से प्रकट हो जाती है । इसका निहितार्थ यह होगा कि हमारी जो क्षुधा, तृष्णा, क्षान्ति, निद्रा आदि वृत्तियां हैं, वह उसी देवी का, उसी कन्या का रूप हैं जो दिव्य है । मर्त्य स्तर पर वही दिव्य कन्या विकृत होकर हमारी क्षुद्र वृत्तियों में प्रकट हो रही है । यदि इन वृत्तियों को परिष्कृत कर दिया जाए तो वह फिर देवी, कन्या बन सकती है । पुराणों में दक्ष ६० कन्याएं उत्पन्न करता है और वह सब देवों और ऋषियों की पत्नियां बनती हैं । दक्ष का अर्थ है दक्षता उत्पन्न करना, अपनी वृत्तियों में दक्षता लाना । उदाहरण के लिए, यदि हम भोजन से २००० कैलोरी ऊर्जा प्राप्त कर २ किलोमीटर भाग सकते हैं, तो दक्षता में वृद्धि पर हम ३ किलोमीटर भी भाग सकते हैं । ऋग्वेद १०.७२.४ का कथन है कि दक्ष से अदिति उत्पन्न हुई और अदिति से दक्ष । और कि अदिति दक्ष की दुहिता/ कन्या है । दूसरी ओर पुराणों में दक्ष ६० कन्याओं और सती को उत्पन्न करता है । इसका निहितार्थ हुआ कि दक्ष अपनी बिखरी हुई वृत्तियों को पहले कन्याओं का रूप देता है और फिर यदि वह चाहे तो यह सारी कन्या रूपी वृत्तियां एक इकाई अदिति के रूप में रूपान्तरित हो सकती हैं । पुराणों में भी दक्ष की सामर्थ्य शिव की पत्नी बनने योग्य सती को उत्पन्न करने तक दिखाई गई है ।
पुराणों और वेदों में प्रच्छन्न रूप से कन्या को पिता या पितरों के साथ तथा पति के साथ सम्बद्ध किया गया है । आश्विन् मास में सूर्य के कन्या राशिगत होने के समय पहले कृष्णपक्ष में पितरों का श्राद्ध आदि किया जाता है और उसके पश्चात् शुक्ल पक्ष में नवरात्र के रूप में देवियों या कन्याओं की आराधना की जाती है । अथर्ववेद १.१४.२ तथा १४.२.५२ के कथनानुसार कन्या पहले पितृगृह में पिता आदि के संरक्षण में रहती है, फिर पति गृह में जाती है । यह संकेत करता है कि कन्या का पालन पितर शक्तियां, डा. फतहसिंह के शब्दों में हमारे अहं रूप शरीर का पालन करने वाली वृत्तियां करती हैं । जब कन्या पितृगृह में पुष्ट हो जाए, तब वह वर गृह में वधू बनकर जा सकती है । देवीभागवत पुराण में कन्या की पुष्टि के १० स्तर कहे गए हैं , अन्य पुराणों में इन स्तरों के नाम व संख्या भिन्न हो सकती हैं । कन्या के १० स्तरों के नाम महत्त्वपूर्ण हैं । उदाहरणार्थ, ८वें शाम्भवी स्तर को वराहोपनिषद ५.५३, मण्डलब्राह्मणोपनिषद, तथा अद्वयतारकोपनिषद के आधार पर समझा जा सकता है ।
ऋग्वेद ८.९१ सूक्त अत्रि - पुत्री अपाला कन्या का है । इस सूक्त को एक कथा के माध्यम से समझाया गया है । अपाला कन्या जल लेने या स्नान करने कूप पर गई । मार्ग में उसे सोम लता भी मिल गई और वह उसे मुख में रख कर चबाने लगी । इन्द्र ने उसके दांत बजते हुए देखकर सोचा कि वह सोम का सवन कर रही है और इन्द्र सोमपान करने आ पहुंचा । लेकिन फिर वास्तविकता ज्ञात होने पर वह लौटने लगा । तब अपाला ने इन्द्र को घर पर आने के लिए आमन्त्रित किया और इन्द्र ने उसके मुख में ही सोम का पान किया । उसके साथ सङ्गम किया । फिर अपाला ने इन्द्र से शिर व उपोदर के बालों को उगाने तथा त्वचा का कुष्ठ दूर करने का अनुरोध किया । इन्द्र ने उसे रथ, अनः तथा युगों के छिद्रों / खे से तीन बार निकाला और अपेक्षित कार्य का सम्पादन किया । इस सूक्त की आरम्भिक ऋचा में कन्या को जल भरते समय सोम पा जाने का उल्लेख है । यह संकेत करता है कि कन्या में आपः को, जल को आकर्षित करने की शक्ति है । उणादि कोश ४.११२ के आधार पर कन्या शब्द की निरुक्ति कन् - कान्ति, दीप्ति, अथवा कम् - कामना करने वाली तथा गति करने वाली के आधार पर की जाती है । इसका अर्थ यह हुआ कि कन्या की कामना कोई साधारण कामना नहीं है । और एक स्तर पर वह सोम की प्राप्ति करने में भी समर्थ है । इस सूक्त की अन्तिम ऋचा में इन्द्र द्वारा अपाला को रथ के खे से निकालने का उल्लेख है । यह संकेत करता है कि कन्या की पराकाष्ठा कं से परे खं, आकाश को भी प्राप्त करने में है ।
भविष्य पुराण में प्रकृति की कन्या अवस्था को तमोरूपा कहे जाने के संदर्भ में कन्या की तमोगुणी प्रवृत्ति को रुद्र की तमोगुणी प्रवृत्ति के संदर्भ में समझा जा सकता है । रुद्र का निवास श्मशान में होता है जहां कर्मों के फलों को जलाकर नाश किया जाता है । इसी प्रकार कन्या को भी समझा जा सकता है ।
ऋग्वेद के विवाह सूक्त १०.८५ आदि में कन्या के विवाह से पहले सोम, विश्वावसु गन्धर्व तथा अग्नि द्वारा कन्या का भोग किए जाने के उल्लेख आते हैं । मनुष्य इसका चतुर्थ पति होता है । इस कथन का निहितार्थ अन्वेषणीय है ।
प्रथम लेखनः- १२.९.२००१ई.
संदर्भ
*कन्येव तन्वा शाशदानाँ एषि देवि देवमियक्षमाणम्। संस्मयमाना युवतिः पुरस्तादाविर्वक्षांसि कृणुषे विभाती ॥ - ऋग्वेद १.१२३.१०
*हनामैनाँ इति त्वष्टा यदब्रवीच्चमसं ये देवपानमनिन्दिषुः। अन्या नामानि कृण्वते सुते सचाf अन्यैरेनान् कन्या नामभिः स्परत् ॥ - ऋ. १.१६१.५
*आ ते कारो शृणवामा वचांसि ययाथ दूरादनसा रथेन। नि ते नंसै पीप्यानेव योषा मर्यायेव कन्या शश्वचै ते ॥ - ऋ. ३.३३.१०
*कन्या इव वहतुमेतवा उ अञ्ज्यञ्जाना अभि चाकशीमि। यत्र सोमः सूयते यत्र यज्ञो घृतस्य धारा अभि तत् पवन्ते ॥ - ऋ. ४.५८.९
*पावीरवी कन्या चित्रायुः सरस्वती वीरपत्नी धियं धात्। ग्नाभिरच्छिद्रं शरणं सजोषा दुराधर्षं गृणते शर्म यंसत् ॥ - ऋ. ६.४९.७
*स्तोमं जुषेथां युवशेव कन्यनां विश्वेह देवौ सवनाव गच्छतम्। सजोषसा उषसा सूर्येण चेषं नो वोळ्हमश्विना ॥ - ऋ. ८.३५.५
*कन्या वारवायती सोममपि स्रुताविदत्। अस्तं भरन्त्यब्रवीदिन्द्राय सुनवै त्वा शक्राय सुनवै त्वा ॥ (ऋषिः :- अपाला आत्रेयी, देवता - इन्द्रः - ऋ. ८.९१.१
*अभि त्वा योषणो दश जारं न कन्यानूषत। मृज्यसे सोम सातये ॥ - ऋ. ९.५६.३
*अविता नो अजाश्वः पूषा यामनियामनि। आ भक्षत् कन्यासु नः ॥ अयं सोमः कपर्दिने घृतं न पवते मधु। आ भक्षत् कन्यासु नः ॥ अयं त आघृणे सुतो घृतं न पवते शुचि। आ भक्षत् कन्यासु नः ॥ - ऋ. ९.६७.१०-१२
*भोजायाश्वं सं मृजन्त्याशुं भोजायास्ते कन्या शुम्भमाना। भोजस्येदं पुष्करिणीव वेश्म परिष्कृतं देवमानेव चित्रम् ॥ - ऋ. १०.१०७.१०
*एषा ते राजन् कन्या वधूर्नि धूयतां यम। सा मातुर्बध्यतां गृहेऽथो भ्रातुरथो पितुः ॥ - अथर्ववेद १.१४.२
*यदन्तरं तद् बाह्यं यद्बाह्यं तदन्तरम्। कन्यानां विश्वरूपाणां मनो गृभायौषधे ॥ - अ. २.३०.४
*वृक्षंवृक्षमा रोहसि वृषण्यन्तीव कन्यला। जयन्ती प्रत्यातिष्ठन्ती स्परणी नाम वा असि ॥ - अ. ५.५.३
*उदप्रुतो मरुतस्ताँ इयर्त वृष्टिर्या विश्वा निवतस्पृणाति। एजाति ग्लहा कन्येव तुन्नैरुं तुन्दाना पत्येव जाया ॥ - अ. ६.२२.३
*यथा यशः कन्यायां यथास्मिन्त्संभृते रथे। एवा मे वरुणो मणिः कीर्तिं भूतिं नि यच्छतु। तेजसा मा समुक्षतु यशसा समनक्तु मा ॥ - अ. १०.३.२०
*तौदी नामासि कन्या घृताची नाम वा असि। अधस्पदेन ते पदमा ददे विषदूषणम् ॥ - अ. १०.४.२४
*ब्रह्मचर्येण कन्या युवानं विन्दते पतिम्। अनड्वान् ब्रह्मचर्येणाश्वो घासं जिगीर्षति ॥ - अ. ११.७.१८
*यस्ते गन्धः पुरुषेषु स्त्रीषु पुंसु भगो रुचिः। यो अश्वेषु वीरेषु यो मृगेषूत हस्तिषु। कन्यायां वर्चो यद्भूमे तेनास्माँ अपि सं सृज मा नो द्विक्षत कश्चन ॥ - अ. १२.१.२५
*यं बल्बजं न्यस्यथ चर्म चोपस्तृणीथन। तदा रोहतु सुप्रजा या कन्या विन्दते पतिम् ॥ - अ. १४.२.२२
*उशतीः कन्यला इमाः पितृलोकात् पतिं यतीः। अव दीक्षामसृक्षत स्वाहा ॥ - अ. १४.२.५२
*अप्रपाणा च वेशन्ता रेवाँ अप्रतिदिश्ययः। अयभ्या कन्या कल्याणी तोता कल्पेषु संमिता ॥ सुप्रपाणा च वेशन्ता रेवान्त्सुप्रतिदिश्ययः। सुयभ्या कन्या कल्याणी तोता कल्पेषु संमिता ॥ - अ. २०.१२८.८-९
*क्रोशाति हार्दा कन्येव तुन्ना पेरुं तुञ्जाना पत्येव जाया। - तैत्तिरीय संहिता ३.१.११.८
*चातुर्मास्यगतवैश्वदेवाख्यपर्वविहितहविषां याज्यापुरोनुवाक्याभिधानम् : पावीरवी कन्या चित्रायुः सरस्वती वीरपत्नी धियं धात्। ग्नाभिरच्छिद्रं शरणं सजोषा दुराधर्षं गृणते शर्म यंसत् ॥ - तै.सं. ४.१.११.२
४.१.५.[७]
स होवाच । ऋषे नमस्ते यन्नावेदिषं तेनाहिंसिषमियं सुकन्या तया तेऽपह्नुवे संजानीतां मे ग्राम इति तस्य ह तत एव ग्रामः संजज्ञे स ह तत एव शर्यातो मानव उद्युयुजे नेदपरं हिनसानीति
४.१.५.[८]
अश्विनौ ह वा इदं भिषज्यन्तौ चेरतुः । तौ सुकन्यामुपेयतुस्तस्याम् मिथुनमीषाते तन्न जज्ञौ
४.१.५.[९]
तौ होचतुः । सुकन्ये कमिमं जीर्णिं कृत्यारूपमुपशेष आवामनुप्रेहीति सा होवाच यस्मै मां पितादान्नैवाहं तं जीवन्तं हास्यामीति तद्धायमृषिराजज्ञौ
४.१.५.[१०]
स होवाच । सुकन्ये किं त्वैतदवोचतामिति तस्मा एतद्व्याचचक्षे स ह व्याख्यात उवाच यदि त्वैतत्पुनर्ब्रुवतः सा त्वं ब्रूतान्न वै सुसर्वाविव स्थो न सुसमृद्धाविवाथ मे पतिं निन्दथ इति तौ यदि त्वा ब्रवतः केनावमसर्वौ स्वः केनासमृद्धाविति सा त्वं ब्रूतात्पतिं नु मे पुनर्युवाणं कुरुतमथ वां वक्ष्यामीति तां पुनरुपेयतुस्तां हैतदेवोचतुः
४.१.५.[११]
सा होवाच । न वै सुसर्वाविव स्थो न सुसमृद्धाविवाथ मे पतिं निन्दथ इति तौ होचतुः केनावमसर्वौ स्वः केनासमृद्धाविति सा होवाच पतिं नु मे पुनर्युवाणं कुरुतमथ वां वक्ष्यामीति
४.१.५.[१२]
तौ होचतुः । एतं ह्रदमभ्यवहर स येन वयसा कमिष्यते तेनोदैष्यतीति तं ह्रदमभ्यवजहार स येन वयसा चकमे तेनोदेयाय
४.१.५.[१३]
तौ होचतुः । सुकन्ये केनावमसर्वौ स्वः केनासमृद्धाविति तौ हर्षिरेव प्रत्युवाच कुरुक्षेत्रेऽमी देवा यज्ञं तन्वते ते वां यज्ञादन्तर्यन्ति तेनासर्वौ स्थस्तेनासमृद्धाविति तौ ह तत एवाश्विनौ प्रेयतुस्तावाजग्मतुर्देवान्यज्ञं तन्वानान्त्स्तुते बहिष्पवमाने
४.१.५.[१४]
तौ होचतुः । उप नौ ह्वयध्वमिति ते ह देवा ऊचुर्न वामुपह्वयिष्यामहे बहु मनुष्येषु संसृष्टमचारिष्टं भिषज्यन्ताविति
४.१.५.[१५]
तौ होचतुः । विशीर्ष्णा वै यज्ञेन यजध्व इति कथं विशीर्ष्णेत्युप नु नौ ह्वयध्वमथ वो वक्ष्याव इति तथेति ता उपाह्वयन्त ताभ्यामेतमाश्विनं ग्रहमगृह्णस्तावध्वर्यू यज्ञस्याभवतां तावेतद्यज्ञस्य शिरः प्रत्यधत्तां तददस्तद्दिवाकीर्त्यानां ब्राह्मणे व्याख्यायते यथा तद्यज्ञस्य शिरः प्रतिदधतुस्तस्मादेष स्तुते बहिष्पवमाने ग्रहो गृह्यते स्तुते हि बहिष्पवमान आगच्छताम्
यासामषाढा मधु भक्षयन्ति । ता न आपः शँ स्योना भवन्तु । तन्नो विश्वे उपशृण्वन्तु देवाः । तदषाढा अभि संयन्तु यज्ञम् । तन्नक्षत्रं प्रथतां पशुभ्यः । कृषिर्वृष्टिर्यजमानाय कल्पताम् । शुभ्राः कन्या युवतयः सुपेशसः । कर्मकृतः सुकृतो वीर्यावतीः । विश्वान्देवान्हविषा वर्धयन्तीः । अषाढाः काममुपयान्तु यज्ञम् १६ – तै.ब्रा. 3.1.2.4
न
मुञ्चति
न
गृह्णाति
वायुमन्तर्बहिः
स्थितम्
।
सम्पूर्णकुम्भवत्तिष्ठेदचलः
स
तु
कुम्भकः
।।
३७३.९
।।
कन्यकः
सकृदुद्घातः
स
वै
द्वादशमात्रिकः
।
मध्यमश्च
द्विरुद्घातश्चतुर्विंशतिमात्रिकः
।।
अग्निपुराणम्
३७३.१०
।।