KAPARDI
Kapardi in Hindu mythology happens to be one of the names of Lord Shiva. In common parlence, one who has locks of hair on his head is called Kapardi. There are few references to this word in vedas but understanding their mystical meanings is difficult. Puranic texts have made the task somewhat easier. Garuda puraana says that kaparda is the water of sky river, aakaash ganga. This is key to understand the whole mystery. The word meaning of kaparda may be – which gives trembling. When we eat sweetmeat, the taste on our tongue gives us an inner trembling. In this case, the cause of trembling has been simulated from outside. Can it be that some physiological process inside our body itself create the same or better trembling? So many people have experience in their life when some event gave them trembling. It is believed that some type of liquid seeps from our head which can give trembling. Authors of Sacred texts have made a whole web around this phenomenon. If the liquid seeps from above, how to take maximum advantage of it? This liquid should fall at proper place. So they created the concept of Kapaala the vessel which may preserve this liquid to the best possible extent. Moreover, this liquid is used to prepare a dough from which a type of bread(Purodaasha) is prepared and then offered to gods. What can be the quality of cereal powder from which dough is to be prepared, has been discussed in the next page under the heading ‘powder’.
कपर्दी
टिप्पणी : सामान्य भाषा में कपर्दी उसे कहा जाता है जिसके सिर पर बालों की जटाएं हों। कपर्दी का अर्थ इस प्रकार किया जा सकता है कि जो कपः, कम्पन दे। जब हम कोई स्वादिष्ट भोजन करते हैं तो हमारी देह के कोशों में कहीं कम्पन उत्पन्न होता है । आधुनिक चिकित्सा विज्ञान के अनुसार इससे हमारे शरीर में बहुत से हारमोन स्रवित होते हैं। भोजन से प्राप्त स्वाद से उत्पन्न होने वाला कम्पन क्षणिक होता है। क्या कोई ऐसा कम्पन भी है जो चिरकाल तक रह सके? ऋग्वेद की ६ ऋचाओं में कपर्दी अथवा कपर्द शब्द प्रकट हुआ है । ऋग्वेद ९.६७.११ के अनुसार मधु रूपी सोम कपर्दी के लिए घृत के समान स्रवित? होता है । इस ऋचा का देवता पवमान या पूषा है । पुराणों में कपर्दी के उल्लेखों अथवा कथाओं को समझने के लिए केवल यही एकमात्र सामग्री हमें उपलब्ध है । अथवा यह कह सकते हैं कि वैदिक साहित्य में जो कपर्दी के उल्लेख आए हैं, उन्हें समझने के लिए पुराण ही एकमात्र स्रोत हैं । स्कन्द पुराण में शतरुद्रिय के संदर्भ में पिष्ट लिङ्ग की कपर्दी नाम से पूजा का उल्लेख है । पूषा देवता के लिए पिष्ट की, पिसे हुए की हवि दी जाती है । जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है, कपर्दी से सम्बन्धित २ ऋचाओं का देवता पूषा है । पिष्ट का क्या अर्थ है, यह यज्ञ में पुरोडाश की निर्माण प्रक्रिया से स्पष्ट होता है । पुरोडाश बनाते समय अन्न को दृषद व उपल ( सिल - बट्टे ) द्वारा पीसते हैं और कहते हैं - प्राणाय त्वा, अपानाय त्वा, उदानाय त्वा इत्यादि ( शतपथ ब्राह्मण १.२.१.२१) । इसका अर्थ है कि अन्न को पीसने के पश्चात् उस आटे को गूंथने के लिए उसमें जल मिलाया जाता है । यह जल रस का, जीवन रस का, जीव का रूप है । पुराणों में कपर्द शब्द की व्याख्या से यह स्पष्ट होता है कि पुरोडाश में मिलाया जाने वाला यह जल आकाशगङ्गा से सोम की किरणों द्वारा द्रवित जल है । पुरोडाश मस्तिष्क का प्रतीक है । पुराणों की कथाओं में कपर्दीश्वर के कारण पिशाचों की मुक्ति के संदर्भ में पिशाच शब्द की निरुक्ति पिशं अञ्चति इति, पिसे हुए को, सूक्ष्म बनाए गए भाग को खाने वाले के रूप में कर सकते हैं । पिसा हुआ भाग पिशाचों से तभी सुरक्षित रह सकता है जब उसमें कपर्द रूपी जल आकर मिले । ऋग्वेद १.११४.१ में इमा रुद्राय तवसे कपर्दिने में तव: शब्द की व्याख्या लौकिक भाषा में तवा, ताव आदि से कर सकते हैं । इस तव: के कारण आकाशगङ्गा का जल स्रवित हो सकता है । पुराणों में आकाशगङ्गा का उल्लेख कहां से आ गया है, यह पता नहीं है । शतपथ ब्राह्मण ६.५.१.१० में सिनीवाली ( दृष्ट चन्द्रमा वाली अमावास्या ) को सुकपर्द्दा कहा गया है ।
कपर्दी शिव द्वारा यज्ञ में कपाल फेंकने और याज्ञिकों द्वारा कपर्दी का अनादर करने पर कपालों के पुनः - पुनः प्रकट होने की कथा के संदर्भ में, यज्ञ में पुरोडाश को मिट्टी से बने कपालों के ऊपर रखा जाता है जिससे पुरोडाश पक जाए । मस्तिष्क रूपी पुरोडाश के लिए शिर कपाल का कार्य करता है । कपाल जितना श्रेष्ठ होगा, पुरोडाश भी उतना ही अच्छा बनेगा । सर्वश्रेष्ठ पुरोडाश वह होगा जिसमें कपर्द का जल मिला हो । वैसे पुरोडाश को बनाने के लिए कपाल भी एक विशेष गुण वाला होगा । जो कपर्दी का आदर करेगा, उसका पुरोडाश बनाने में उपयोग करेगा, उसे कपाल को उन्नत करने की आवश्यकता नहीं रह जाएगी । पुरोडाश बनाने का कार्य अपनी चरम सीमा को प्राप्त हो जाएगा । यही यज्ञ में कपालों के पुनः - पुनः प्रकट होने की व्याख्या हो सकती है ।
कपर्दी
ॐइमा रुद्राय तवसे कपर्दिने क्षयद्वीराय प्र भरामहे मती: । यथा शमसद् द्विपदे चतुष्पदे विश्वं पुष्टं ग्रामे अस्मिन्ननातुरम् ।। - ऋग्वेद १.११४.१
ॐदिवो वराहमरुषं कपर्दिनं त्वेषं रूपं नमसा नि ह्वयामहे । हस्ते बिभ्रद् भेषजा वार्याणि शर्म वर्म च्छर्दिरस्मभ्यं यंसत् ।। - ऋग्वेद १.११४.५
ॐरथीतमं कपर्दिनमीशानं राधसो मह: । रायः सखायमीमहे ।। - ऋ. ६.५५.२
ॐदाशराज्ञे परियत्ताय विश्वतः सुदास इन्द्रावरुणावशिक्षतम् । श्वित्यञ्चो यत्र नमसा कपर्दिनो धिया धीवन्तो असपन्त तृत्सव: ।। - ऋ. ७.८३.८
ॐअयं सोम: कपर्दिने घृतं न पवते मधु । आ भक्षत् कन्यासु नः ।। - ऋ`. ९.६७.११
ॐशुनमष्ट्राव्यचरत् कपर्दी वरत्रायां दार्वानह्यमान: । नृम्णानि कृण्वन् बहवे जनाय गा:
पस्पशानस्तविषीरधत्त ।। - ऋ. १०.१०२.८
ॐचित्याग्निहोमोक्ति: :- विज्यं धनु: कपर्दिनो विशल्यो बाणवां उत । - तैत्तिरीय संहिता ४.५.१.४
ॐचित्याग्निहोमोक्ति: :- नमो भवाय च - - - - नम: कपर्दिने च व्युप्तकेशाय च - - - तै.सं. ४.५.५.१
ॐनम इरिण्याय च - - - नम: कपर्दिने च पुलस्तये च - - - तै.सं. ४.५.९.१
ॐइमा रुद्राय तवसे कपर्दिने क्षयद्वीराय प्र भरामहे मति । तथा नः शमसद् द्विपदे चतुष्पदे विश्वं पुष्टं ग्रामे अस्मिन् अनातुरम् ।। - तै.सं. ४.५.१०.१
ॐचित्याग्निहोमोक्ति: :- ये भूतानामधिपतयो विशिखास: कपर्दिनः । - तै.सं. ४.५.११.१
ॐशरद ऋतु: :-अमुतो जेतुमिषुमुखमिव । संनद्धा: सह ददृशे ह । अपध्वस्तैर्वस्तिवर्णैरिव । विशिखास: कपर्दिनः ।। - तैत्तिरीय आरण्यक १.४.२
ॐसिनीवाली सुकपर्द्दा सुकुरीरा स्वौपशा इति । योषा वै सिनीवाली । एतदु वै योषायै समृद्धं रूपम् - यत्सुकपर्दा सुकुरीरा स्वौपशा । - शतपथ ब्राह्मण ६.५.१.१०
प्रथम लेखनः- २२.१.२००५