कपाल
अयं प्रतीयते यत् कपालस्य वैशिष्ट्यं क्रमस्य पालने अस्ति। क्रमपालनस्य विलोमं लङ्घनं, त्वरितगति-साधना अस्ति। अथर्ववेदे १०.५.२५-३५ विष्णोः क्रमणस्य कथनमस्ति। प्रथमतः क्रमणं ऊर्ध्वदिशायां – पृथिव्यां, अन्तरिक्षे, दिवि भवति। तत्पश्चात् क्रमणं दिशा, आशायाः अनुदिशं भवति। या क्रमिकसाधना, मन्दगत्या साधना अस्ति, तस्यां साधकः एकस्य स्तरस्य पाकं करोति। यदा स्तरस्य पाकः भवति, तदा तस्य क्रमणं करोति। प्रथमः स्तरः पृथिवी अस्ति। पृथिव्याः स्तरे यः वैशिष्ट्यं अस्ति, तस्य संज्ञा ध्रुवः अस्ति। ध्रुवः अर्थात् हर्ष-शोकतः कंपनं न भवेत्। यः स्थूलपदार्थः अस्ति, तत्र कंपनं न भवति। जाग्रतचेतनायां अस्याः मूलं तालः अस्ति (द्र. वेतालशब्दोपरि टिप्पणी)। अन्तरिक्षस्य स्तरे वैशिष्ट्यं धरुणं अस्ति, दिवि धर्त्रम् (तै.ब्रा. ३.२.७.१-४)।
शतपथब्राह्मणे एवं तैत्तिरीयसंहितायां(तै.सं. १.६.८.३) कथनमस्ति यत् ये दश द्वन्द्वाः/मिथुनाः सन्ति, तेषु स्फ्य-कपालस्य एकः द्वन्द्वः अस्ति। अपि च, स्फ्यस्य कपालेन सह कः संबन्धं अस्ति। अनुमानमस्ति यत् यावत् साधनायाः गतिः ऊर्ध्वमुखी अस्ति, तावत् अस्य संज्ञा यूपः अस्ति (माश १.२.४.[२] )। यदा साधनायाः विस्तारं दिश्योः अनुदिशं भवति, व्यवहारे, समाजे भवति, तदा अस्य संज्ञा स्फ्यः अस्ति। पुराणेषु स्फ्यशब्दस्य स्थाने कपालस्फोटशब्दः अस्ति, अयं प्रतीयते। कथनमस्ति यत् यथा क्षत्रियाय खड्गः अस्त्रः भवति, एवमेव ब्राह्मणाय स्फ्यः अस्ति। कर्मकाण्डे स्फ्येन वेद्याः परिधिषु परिलेखनं कुर्वन्ति। परिलेखनेन वेद्यां राक्षसादीनां प्रवेशं न भविष्यति (रामायणे अयं परिलेखनं लक्ष्मणः पञ्चवट्यां सीतायाः रक्षणाय करोति)।
ब्राह्मणग्रन्थेषु सार्वत्रिकरूपेण पुरोडाशस्य पाकाय कपालानां उपयोगः भवति। पुरोडाशस्य वैशिष्ट्यं कपालानां संख्यानुसारेण अस्ति। कपालानां संख्यानिर्धारणं छन्दस्य पदस्य अक्षरसंख्यानुसारेण भवति। अयं संकेतमस्ति यत् कपालात् ऊर्जायाः क्षरणं न भवेत्, अतएव छन्दशब्दस्य प्रयोगमस्ति।
टिप्पणी : रुद्र द्वारा ब्रह्मा के अहंकार युक्त शिर का छेदन करने पर कपाल के हस्त से लग्न हो जाने जैसे पौराणिक कथानकों का वैदिक साहित्य में कोई प्रत्यक्ष उल्लेख नहीं आता । पौराणिक कथाओं के अनुसार रुद्र के हस्त से कपाल का मोचन काशी में जाने पर ही हुआ । अन्य कथा में इन्द्र द्वारा वृत्र की हत्या पर वृत्र का कपाल इन्द्र के हस्त से संलग्न हो गया और वह हाटकेश्वर क्षेत्र में स्नान से ही मुक्त हो पाया । यह कथाएं संकेत करती हैं कि बहिर्मुखी वृत्ति को अन्तर्मुखी कर लेना ब्रह्मा अथवा वृत्र का शिर काटने जैसा है । लेकिन इतना करना ही पर्याप्त नहीं है । बुराईयां संस्कार रूप में पीछे रह जाती हैं जो हस्त रूपी कर्मेन्द्रिय से चिपकी रहती हैं । काशी आदि क्षेत्रों ( योग में तीसरी आंख का स्थान ) में, जहां संस्कार भी भस्म हो जाते हैं, कपाल का हस्त से मोचन हो सकता है । अतः पुराणों के अनुसार कपाल किसी प्रकार से पूर्व संस्कारों से जुडा है । वैदिक साहित्य में कपाल अथवा कपालों के ऊपर पुरोडाश को स्थापित किया जाता है । पुरोडाश की हवि अग्नि में विभिन्न देवताओं हेतु दी जाती है । शतपथ ब्राह्मण १.२.१.७ आदि में दर्शपूर्ण मास यज्ञ के संदर्भ में कपाल को पृथिवी पर ध्रुव, अन्तरिक्ष में धरुण ( जल आदि को धारण करने वाला ) तथा द्युलोक में धर्त्र की संज्ञा दी गई है । आटे को पीसकर उसे गूंथकर व पकाकर कपाल के मुख पर स्थापित किया जाता है । इसे पुरोडाश कहते हैं । कहा गया है कि कपाल द्वारा पुरोडाश का श्रपण/ पकना होता है । इस क्रिया में कपाल का योगदान गौण सा प्रतीत होता है । लेकिन शतपथ ब्राह्मण ६.१.१.११ में पृथिवी आदि विभिन्न स्तरों पर सृष्टि प्रक्रिया के संदर्भ में अण्डकपालों के उत्पन्न होने का वर्णन किया गया है । पहले अण्डकपाल के रस से अग्नि उत्पन्न हुई, अण्ड के कपाल से जो रस लिप्त था, उससे अज उत्पन्न हुआ और जो कपाल था, वह पृथिवी बना । फिर अग्नि ने पृथिवी में रेतस् का सिञ्चन किया । उस अण्डकपाल के रस से वायु, लिप्त रस से मरीचियां तथा कपाल से अन्तरिक्ष उत्पन्न हुआ । फिर वायु ने अन्तरिक्ष से मिथुन किया । इससे उत्पन्न अण्डकपाल के रस से आदित्य, लिप्त रस से रश्मियां तथा कपाल से द्युलोक उत्पन्न हुए । फिर आदित्य व द्यौ के मिथुन से उत्पन्न अण्डकपाल के रस से चन्द्रमा, लिप्त रस से अवान्तर दिशाएं तथा कपाल से दिशाएं उत्पन्न हुई । इस प्रकार कपाल से चन्द्रमा की उत्पत्ति सर्वोच्च स्थिति है । पुरोडाश मर्त्य स्तर पर चन्द्रमा का रूप हो सकता है । शतपथ ब्राह्मण ४.४.५.१५ के अनुसार रस ही पुरोडाश है ।
दर्शपूर्ण मास यज्ञ हविर्यज्ञों में से एक है, अतः उसमें पुरोडाश की हवि दी जाती है, लेकिन सोम यागों में हवि की आहुति नहीं दी जाती, केवल सोम की आहुति दी जाती है । सोम की आहुति के लिए काष्ठ के पात्रों का उपयोग किया जाता है जो ध्यान का, काष्ठ की भांति गहरे ध्यान का प्रतीक हो सकते हैं । दूसरी ओर, कपाल मृन्मय होता है । यह मर्त्य स्तर का प्रतीक हो सकता है । स्कन्द पुराण आदि की कथाओं में कपाली रुद्र द्वारा सोमयाग में प्रथम दिन आकर उपद्रव करने पर सोमयाग में भी कपाल पर स्थित पुरोडाश की आहुति की प्रतिष्ठा होने का तथ्य उल्लेखनीय है ।
कपाल शब्द का सामान्य अर्थ क का, सुख का पालन करने वाला कर सकते हैं । उणादि कोश में कपाल की व्युत्पत्ति कपि धातु में ल प्रत्यय द्वारा की गई है । कपि धातु कम्पन, चञ्चलता के अर्थ में आती है । अतः चञ्चलता का लालन करने वाले पात्र को कपाल कह सकते हैं । कपाल के इस गुण को समझने के लिए आधुनिक विज्ञान में केविटी शब्द की सहायता ले सकते हैं । किसी प्रकार की ऊर्जा को सुरक्षित रखने के लिए केविटी का आश्रय लिया जाता है । केविटी में ऊर्जा की तरङ्गें केविटी की भित्तियों से परावर्तित होती रहती हैं और केविटी में ऊर्जा का क्षय नहीं होता । केविटी ऊर्जा को सुरक्षित रखने का एक पात्र है । इसी प्रकार चेतना के स्तर पर ऊर्जा को सुरक्षित रखने के लिए पात्र को कपाल नाम दिया गया है । तैत्तिरीय संहिता २.२.९.७ में कहा गया है कि कपालों से ही छन्दों को प्राप्त किया जाता है । यज्ञ में विभिन्न देवताओं को अष्टाकपाल पुरोडाश, एकादशकपाल पुरोडाश, द्वादश कपाल पुरोडाश आदि की हवि अर्पित की जाती है । इन पुरोडाशों में कपालों की संख्या छन्दों के अक्षरों के अनुसार होती है । गायत्री छन्द के एक पद में ८ अक्षर होते हैं, अतः अग्नि का अष्टाकपाल पुरोडाश होता है । त्रिष्टुप् छन्द के एक पद में ११ अक्षर होते हैं, अतः इन्द्र, इन्द्राग्नि, अग्नीषोम आदि का एकादश कपाल पुरोडाश होता है आदि । यह अक्षर केवल कहने के लिए ही अक्षर नहीं हैं, अपितु इन्हें वास्तविक रूप में ऊर्जा के संदर्भ में अ - क्षर बनना पडता है । जैमिनीय ब्राह्मण २.३९५ में अच्छिद्र कपाल का उल्लेख आता है । यहां छिद्र शब्द भी कपाल से ऊर्जा के क्षरण के संदर्भ में समझना चाहिए । तैत्तिरीय ब्राह्मण ३.२.७.४ में अष्टाकपाल को पुरुष के शिर का प्रतीक कहा गया है । शतपथ ब्राह्मण ४.४.५.१५ में वरुण के एक कपाल को शरीर का प्रतीक कहा गया है । शरीर के या शिर के इन्द्रिय रूपी छिद्रों से ऊर्जा का क्षरण न हो, यह अपेक्षित है । आधुनिक विज्ञान में केविटी के अन्दर ऊर्जा को सुरक्षित रखने के लिए उसकी दीवारों को या सतह को विशेष प्रकार का बनाया जाता है । उदाहरण के लिए यदि प्रकाश को सुरक्षित रखना है तो केविटी की भित्तियों से प्रकाश का पूर्ण, १००% परावर्तन होना चाहिए, प्रकाश के किसी अंश का भित्तियों में शोषण नहीं होना चाहिए । कपाल के संदर्भ में शतपथ ब्राह्मण ६.१.१.११ में अण्डकपाल की भित्तियों से लिप्त रसों के क्रमशः अज, मरीचि, रश्मि व अवान्तर दिशाएं बनने का उल्लेख आता है । हो सकता है कि यह उल्लेख कपाल रूपी केविटी की वास्तविक रचना की जानकारी देने के लिए ही हो । अण्डकपाल के इस संदर्भ में अश्रुओं का उल्लेख भी आता है जिसे अभी समझने की आवश्यकता है ।
वैदिक साहित्य में एक कपाल पुरोडाश से लेकर एकविंश कपाल पुरोडाश तक के उल्लेख आते हैं । तैत्तिरीय ब्राह्मण ३.२.७.४ के अनुसार पहले पुरुष एक कपाल होता है, फिर २, फिर ३, फिर ८ । सम्यक व्याख्या अपेक्षित है ।
ऊपर पृथिवी से लेकर दिशाओं तक कपालों के विकास का उल्लेख किया गया है । ऐसा समझना चाहिए कि पृथिवी, अन्तरिक्ष आदि कपाल कोई अलग - अलग पात्र नहीं हैं , अपितु अग्नि के पृथिवी तत्त्व से संयोग करने पर पृथिवी कपाल का जन्म होता है । अन्तरिक्ष कपाल का विकास सूक्ष्म रूप में इसी पृथिवी कपाल के अन्दर होता है । फिर इससे भी सूक्ष्म द्यु कपाल का विकास अन्तरिक्ष कपाल के अन्दर होता है जो सूर्य को धारण करता है । जड जगत से सम्बन्ध रखने वाले आधुनिक विज्ञान में ऐसा उदाहरण खोजना कठिन है जहां एक केविटी के अन्दर ही दूसरी केविटी का विकास किया गया हो ।
पुराणों में रुद्र द्वारा ब्रह्मा/अज का शिर काटने से कपाल के बनने के उल्लेखों के संदर्भ में वैदिक साहित्य में पृथिवी रूपी अण्ड कपाल पर लिप्त रस से अज के उत्पन्न होने का उल्लेख विचारणीय है ।
कपर्दी शिव के संदर्भ में शङ्कुकर्ण मुनि द्वारा ब्रह्मपार स्तोत्र द्वारा कपर्दी की आराधना का वर्णन आता है । कपाल शब्द की व्याख्या भी क - पार या ब्रह्मपार के रूप में की जा सकती है ।
प्रथम लेखनः- २८.१.२००५ई.
KAPAALA
In sacrificial rituals, a kapaala is a vessel made of fired clay. The most common use of a kapaala vessel in Somayaga is for ripening of a type of bread called PURODAASHA which is offered as an oblation to gods. This Purodaasha is considered to represent the human head or mind. The shape of Purodaasha is also like a human head or say a double bread. In rituals, burning coal is put inside the kapaala vessel and purodaasha is kept on it’s mouth as if the coal fire will ripen the purodaasha. As appears from puranic and vedic contexts, kapaala also represents a human head. But at the level of consciousness, there may be several stages of development of kapaala. Mostly, three stages have been mentioned – at ground level, at mid level and the highest level.
Kapaala still occupies its place in a Hindu daily life. At Deepaavali festival, there is a practice of putting roasted rice in an earthen vessel and then putting a sugar article resembling purodaasha on it’s mouth. Kapaala Bhedan or breaking of kapaala ritual is performed over a dead body.
Regarding the meaning of word Kapaala, letter ka represents the pleasures of this world ( on the other hand, letter Kha represents sky or the world beyond, the world of trance ). So, the instrument responsible for making the worldly pleasures available to us can be called a kapaala. If letter la in kapaala is replaced by letter ra, then it will mean one which takes beyond the pleasures of this world. And this meaning has been utlilzed by puranic texts when these refer to Brahmapaara Stotra.
There are intriguing universal contexts in puraanic texts of kapaala being attached to hands after it was cut from the head and special efforts have to be made to get the kapaala unattached. The possible meaning of this may be that the quality of action or our past deeds remains attached to the kapaala even after it is cut. This prevents preservation of energy by utilizing it in action.
In sacrificial rituals, different types of kapaala and accordingly different types of Purodaasha have been mentioned. The difference exists in the number of kapaala on which Purodaasha is ripened. Sometimes 8 –kapaala purodaasha is mentioned, sometimes 11 etc. This number refers to the letters in Chhanda or meter and therefore, understanding the meaning of different Chhanda becomes necessary. One is directed to read the following link in this connection :
RISHI and CHHANDA
From modern scientific point of view, the most important property of a kapaala vessel seems to be – to how much extent it can become a cavity to conserve energy. This cavity of Hindu mythology is such that it has cavity inside a cavity. Each inner one has higher perfection. It can be said that this is only a beginging to understand the word KAPAAL
संदर्भ
*सं ते शीर्ष्ण: कपालानि हृदयस्य च यो विधुः। उद्यन्नादित्य रश्मिभिः शीर्ष्णो रोगमनीनशोऽङ्गभेदमशीशमः ॥ - अथर्ववेद ९.१३.२२
*मस्तिष्कमस्य यतमो ललाटं ककाटिकां प्रथमो यः कपालम्। चित्वा चित्यं हन्वोः पूरुषस्य दिवं रुरोह कतमः स देवः ॥ - अ. १०.२.८
*राजसूये वैश्वदेव हविषां प्रशंसा : स एतं प्रजापतिर्मारुतं सप्तकपालमपश्यत्। तं निरवपत्। ततो वै प्रजाभ्योऽकल्पत। - - - सप्तकपालो भवति। सप्त गणा वै मरुतः। - तैत्तिरीय ब्राह्मण १.६.२.३
*सोमाय पितृमते पुरोडाशं षट्कपालं निर्वपति। संवत्सरो वै सोमः पितृमान्। - तै.ब्रा. १.६.८.२
*ऐन्द्रमेकादशकपालं राजन्यस्य गृहे। इन्द्रियमेवावरुन्धे। - तै.ब्रा. १.७.३.३
*आग्नेयमष्टाकपालं सेनान्यो गृहे। सेनामेवास्य संश्यति। - - - वारुणं दशकपालं सूतस्य गृहे। वरुणसवमेवावरुन्धे।- - - मारुतं सप्तकपालं ग्रामण्यो गृहे। अन्नं वै मरुतः। अन्नमेवावरुन्धे। - - - - सावित्रं द्वादशकपालं क्षत्तुर्गृहे प्रसूत्यै। - - - -आश्विनं द्विकपालं संग्रहीतुर्गृहे। अश्विनौ वै देवानां भिषजौ।- - - - - इन्द्राय सुत्राम्णे पुरोडाशमेकादशकपालम्। - तै.ब्रा. १.७.३.३
*राजसूये दिग्जयध्यानम् : अन्नं वै मरुतः। - - एकविँशतिकपालो भवति प्रतिष्ठित्यै। - तै.ब्रा. १.७.७.३
*राजसूये विजयादूर्द्ध्वम् : मारुतस्य चैकविँशतिकपालस्य - - - - तै.ब्रा. १.७.१०.६
*राजसूये सौत्रामणि विधिः :- ऐन्द्रमेकादशकपालं निर्वपति। इन्द्रियमेवावरुन्धे। सावित्रं द्वादशकपालं प्रसूत्यै। वारुणं दशकपालम्। अन्तत एव वरुणमवयजते। - तै.ब्रा. १.८.६.३
*त एतं पितृभ्यो मघाभ्यः पुरोडाशं षट्कपालं निरवपन्। ततो वै ते पितृलोक आर्ध्नुवन्। - तै.ब्रा. ३.१.४.८
*स एतं त्वष्ट्रे चित्रार्यै पुरोडाशमष्टाकपालं निरवपत्। ततो वै स चित्रं प्रजामविन्दत। - तै.ब्रा. ३.१.४.१२
*तावेतमिन्द्राग्निभ्यां विशाखाभ्यां पुरोडाशमेकादशकपालं निरवपताम्। - तै.ब्रा. ३.१.४.१४
*स एतमिन्द्राय ज्येष्ठायै पुरोडाशमेकादशकपालं निरवपन्महाव्रीहीणाम्। - तै.ब्रा. ३.१.५.२
*स एतं विष्णवे श्रोणायै पुरोडाशं त्रिकपालं निरवपत्। ततो वै स पुण्यं श्लोकमशृणुत। - तै.ब्रा. ३.१.५.७
*स एतं वरुणाय शतभिषजे भेषजेभ्यः पुरोडाशं दशकपालं निरवपत्कृष्णानां व्रीहीणाम्। - तै.ब्रा. ३.१.५.९
*स एतमहये बुध्नियाय प्रोष्ठपदेभ्यः पुरोडाशं भूमिकपालं निरवपत्। - तै.ब्रा. ३.१.५.११
*स एतं चन्द्रमसे प्रतीदृश्यायै पुरोडाशं पञ्चदशकपालं निरवपत्। ततो वै सोऽहोरात्रानर्धमासान्मासानृतून्त्संवत्सरमाप्त्वा। चन्द्रमसः सायुज्यं सलोकतामाप्नोत्। - तै.ब्रा. ३.१.६.१
*मेध्येऽग्नौ कपालमुपदधाति। निर्दग्धं रक्षो निर्दग्धा अरातय इत्याह। - - - - - ध्रुवमसि पृथिवीं दृंहेत्याह। पृथिवीमेवैतेन दृंहति। धर्त्रमस्यन्तरिक्षं दृंहेत्याह। अन्तरिक्षमेवैतेन दृंहति। धरुणमसि दिवं दृंहेत्याह दिवमेवैतेन दृंहति। धर्माऽसि दिशो दृंहेत्याह। दिश एवैतेन दृंहति। - - - -त्रीण्यग्रे कपालान्युपदधाति। त्रय इमे लोकाः। एषां लोकानामाप्त्यै। एकमग्रे कपालमुपदधाति। एकं वा अग्रे कपालं पुरुषस्य संभवति। अथ द्वे। अथ त्रीणि। अथ चत्वारि। अथाष्टौ। तस्मादष्टाकपालं पुरुषस्य शिरः। यदेवं कपालान्युपदधाति। - - - तै.ब्रा. ३.२.७.१-४
*यदष्टावुपदधाति। गायत्रिया तत्संमितम्। यन्नव। त्रिवृता तत्। यद्दश। विराजा तत्। यदेकादश। त्रिष्टुभा तत्। यद्द्वादश। जगत्या तत्। छन्दःसंमितानि स उपदधत्कपालानि। - - - - यानि घर्मे कपालान्युपचिन्वन्ति। वेधस इति चतुष्पदयर्चा विमुञ्चति। - तै.ब्रा. ३.२.७.६
*उलूखले मुसले यच्च शूर्पे। आशिश्लेष दृषदि यत्कपाले। अवप्रुषो विप्रुषः संयजामि। विश्वे देवा हविरिदं जुषन्ताम् ॥ - तै.ब्रा. ३.७.६.२१
*अथैतानि कपालानि संचिन्त्य यत्राहवनीयस्य भस्मोद्धृतं स्यात् तद् उपनिकिरेत्। - जैमिनीय ब्राह्मण १.५४
*ज्यायो वा हि कनीयो वा न हि वा तेन तत् समम्। कपालम् अन्यथा सत्य् अछिद्र उपधीयते ॥ - जै.ब्रा. २.३९५
*- - - तद् धिरण्मयम् आण्डं समैषत्। तस्य हरितम् अधरं कपालम् आसीद् रजतम् उत्तरम्। तच् छतं देवसंवत्सराञ् छयित्वा निर्भिद्यम् अभवत्सहस्रं वा द्युम्नान्। - जै.ब्रा. ३.३६१
*आग्नावैष्णवं पुरोळाशं निर्वपन्ति दीक्षणीयमेकादशकपालम्।- - - - -तदाहुर्यदेकादशकपालः पुरोळाशो द्वावग्नाविष्णू कैनयोस्तत्र क्लृप्तिः का विभक्तिरिति। अष्टाकपाल आग्नेयोऽष्टाक्षरा वै गायत्री गायत्रमग्नेश्छन्दस्त्रिकपालो वैष्णवस्त्रिर्हीदं विष्णुर्व्यक्रमत सैनयोस्तत्र क्लृप्तिः सा विभक्तिः। - ऐतरेय ब्राह्मण १.१
*हविरातिथ्यं निरुप्यते सोमे राजन्यागते। - - - - - नवकपालो भवति। नव वै प्राणाः। प्राणानां क्लृप्त्यै प्राणानां प्रतिप्रज्ञात्यै। - ऐ.ब्रा. १.१५
*तदेतद्देवमिथुनं यद्घर्मः स यो घर्मस्तच्छिश्नं यौ शफौ तौ शफौ योपयमनी ते श्रोणिकपाले - - - - ऐ.ब्रा. १.२२
*धात्रे पुरोळाशं द्वादशकपालं यो धाता स वषट्कारः। - ऐ.ब्रा. ३.४७
*सूर्याय पुरोळाशमेककपालं यः सूर्यः स धाता स उ एव वषट्कारः। - ऐ.ब्रा. ३.४८
*तदाहुर्यस्य गार्हपत्याहवनीयौ मिथः संसृज्येयातां का तत्र प्रायश्चित्तिरिति सोऽग्नये वीतयेऽष्टाकपालं पुरोळाशं निर्वपेत् - - - ऐ.ब्रा. ७.६
*तदाहुर्यस्य सर्व एवाग्नयो मिथः संसृज्येरन्का तत्र प्रायश्चित्तिरिति सोऽग्नये विविचयेऽष्टाकपालं पुरोळाशं निर्वपेत् - - - ऐ.ब्रा. ७.६
*तदाहुर्यस्याग्नयोऽन्यैरग्निभिः संसृज्येरन्का तत्र प्रायश्चित्तिरिति सोऽग्नये क्षामवतेऽष्टाकपालं पुरोळाशं निर्वपेत् - - - ऐ.ब्रा. ७.६
*तदाहुर्यस्याग्नयो ग्राम्येणाग्निना संदह्येरन्का तत्र प्रायश्चित्तिरिति सोऽग्नये संवर्गायाष्टाकपालं पुरोळाशं निर्वपेत् - - - ऐ.ब्रा. ७.७
*तदाहुर्यस्याग्नयो दिव्येनाग्निना संसृज्येरन्का तत्र प्रायश्चित्तिरिति सोऽग्नयेऽप्सुमतेऽष्टाकपालं पुरोळाशं निर्वपेत् - - -ऐ.ब्रा. ७.७
*तदाहुर्यस्याग्नयः शवाग्निना संसृज्येरन्का तत्र प्रायश्चित्तिरिति सोऽग्नये शुचयेऽष्टाकपालं पुरोळाशं निर्वपेत् - - ऐ.ब्रा. ७.७
*तदाहुर्य आहिताग्निरुपवसथेऽश्रु कुर्वीत का तत्र प्रायश्चित्तिरिति सोऽग्नये व्रतभृतेऽष्टाकपालं पुरोळाशं निर्वपेत् - - - ऐ.ब्रा. ७.८
*तदाहुर्य आहिताग्निरुपवसथेऽव्रत्यमापद्येत का तत्र प्रायश्चितिरिति सोऽग्नये व्रतपतये ऽष्टाकपालं पुरोळाशं निर्वपेत् - - - - ऐ.ब्रा. ७.८
*तदाहुर्य आहिताग्निरमावास्यां पौर्णमासी वाऽतीयात्का तत्र प्रायश्चित्तिरिति सोऽग्नये पथिकृतेऽष्टाकपालं पुरोळाशं निर्वपेत् - - - - ऐ.ब्रा. ७.८
*तदाहुर्यस्य सर्व एवाग्नय उपशाम्येरन्का तत्र प्रायश्चित्तिरिति सोऽग्नये तपस्वते जनद्वते पावकवतेऽष्टाकपालं पुरोळाशं निर्वपेत् - - - ऐ.ब्रा. ७.८
*तदाहुर्य आहिताग्निराग्रयणेनानिष्ट्वा नवान्नं प्राश्नीयात्का तत्र प्रायश्चित्तिरिति सोऽग्नये वैश्वानराय द्वादशकपालं पुरोळाशं निर्वपेत् - ऐ.ब्रा. ७.९
*तदाहुर्य आहिताग्निर्यदि कपालं नश्येत्का तत्र प्रायश्चित्तिरिति सोऽश्विभ्यां द्विकपालं पुरोळाशं निर्वपेत् - - - ऐ.ब्रा. ७.९
*तदाहुर्य आहिताग्निर्यदि सूतकान्नं प्राश्नीयात्का तत्र प्रायश्चितिरिति सोऽग्नये तन्तुमतेऽष्टाकपालं पुरोळाशं निर्वपेत् - - - ऐ.ब्रा. ७.९
*तदाहुर्य आहिताग्निर्जीवे मृतशब्दं श्रुत्वा का तत्र प्रायश्चित्तिरिति सोऽग्नये सुरभिमतेऽष्टाकपालं पुरोळाशं निर्वपेत् - - - ऐ.ब्रा. ७.९
*तदाहुर्य आहिताग्निर्यस्य भार्या गौर्वा यमौ जनयेत्का तत्र प्रायश्चित्तिरिति सोऽग्नये मरुत्वते त्रयोदशकपालं पुरोळाशं निर्वपेत् - ऐ.ब्रा. ७.९
*पात्रासादनम् : द्वन्द्वं पात्राण्युदाहरति - - - - स्फ्यं च कपालानि च। - - - शतपथ ब्राह्मण १.१.१.२२
*स वै कपालान्येवान्यतर उपदधाति, दृषदुपले अन्यतरः। तद्वा एतदुभयं सह क्रियते।- - - शिरो ह वा यतद्यज्ञस्य - यत्पुरोडाशः। स यान्येवेमानि शीर्ष्णः कपालानि - एतान्येवास्य कपालानि, मस्तिष्क एव पिष्टानि। - - - स यः कपालान्युपदधाति, स उपवेषमादत्ते - धृष्टिरसि इति। - - श.ब्रा. १.२.१.१
*तं (अङ्गारम्) मध्यमेन कपालेनाभ्युपदधाति। - - - - एष हि यजुष्कृतो मेध्यः। तस्मान्मध्यमेन कपालेनाभ्युपदधाति। स उपदधाति - ध्रुवमसि पृथिवीं दृंह इति। - श.ब्रा. १.२.१.६
*अथ यत्पश्चात्तदुपदधाति - धरुणमस्यन्तरिक्षं दृंह इति। - - - - अथ यत्पुरस्तात्तदुपदधाति - धर्त्रमसि दिवं दृंह इति। - - - - अथ यद्दक्षिणतस्तदुपदधाति - विश्वाभ्यस्त्वाशाभ्य उपदधामि इति। - - - - -तूष्णीं वैवेतराणि कपालान्युपदधाति। - - - - अथाङ्गारैरभ्यूहति - भृगूणामङ्गिरसां तपसा तप्यध्वम् इति। एतद्वै तेजिष्ठं तेजो यद्भृग्वङ्गिरसाम्। सुतप्तान्यसन्निति - तस्मादेवमभ्यूहति। - श.ब्रा. १.२.१.१०-१३
*अथ फलीकरणान् कपालेनाधोऽधः कृष्णाजिनमुपास्यति। रक्षसां भागोऽसि इति। - श.ब्रा. १.९.२.३३
*अष्टाकपालाः सर्वे पुरोडाशा भवन्ति। अष्टाक्षरा वै गायत्री। गायत्रमग्नेश्छन्दः, स्वेनैवैनमेतच्छन्दसाधत्ते। तानि सर्वाणि चतुर्विंशतिः कपालानि सम्पद्यन्ते। चतुर्विंशत्यक्षरा वै गायत्री - श.ब्रा. २.२.१.१७
*पुनराधानम् : आग्नेयमेव पञ्चकपालं पुरोडाशं निर्वपति। तस्य पञ्चपदाः पङ्क्तयो याज्यानुवाक्या भवन्ति। पञ्च वा ऋतवः ऋतून् प्राविशत्। - श.ब्रा. २.२.३.१४
*आग्रयणेष्टिः-- त उ ह विश्वेदेवा ऊचुः - अनयोर्वा अयं द्यावापृथिव्यो रसः - हन्तेमे अस्मिन्नाभजामेति। ताभ्यामेतं भागमकल्पयन् - एतं द्यावापृथिव्यमेककपालं पुरोडाशम्। तस्माद् द्यावापृथिव्य एककपालः पुरोडाशो भवति। तस्येयमेव कपालम् , एकेव हीयम्। - - - - तदाहुः - पर्याभूद्वा अयमेककपालो, मोहिष्यति राष्ट्रमिति - नास्य सा परिचक्षा- - - - -आज्यं ह वा अनयोर्द्यावापृथिव्योः प्रत्यक्षं रसः। - श.ब्रा. २.४.३.८
*अथातः पयस्याया एवायतनम्। मारुतस्तु सप्तकपालः। विशो वै मरुतो देवविशः।- - - - तेभ्य एतं भागमकल्पयत् - एतं मारुतं सप्तकपालं पुरोडाशम्। - - - तद्यत्सप्तकपालो भवति - सप्तसप्त हि मारुतो गणः। - श.ब्रा. २.५.१.१२
*अथ द्यावापृथिव्य एककपालः पुरोडाशो भवति। एतैर्वै हविर्भिः प्रजापतिः प्रजा सृष्ट्वा ता द्यावापृथिवीभ्यां पर्यगृह्णात्। - श.ब्रा. २.५.१.१७
*वरुण प्रघासः :- अथ काय एककपालः पुरोडाशो भवति। कं वै प्रजापतिः प्रजाभ्यः कायेनैककपालेन पुरोडाशेनाकुरुत। - श.ब्रा. २.५.२.१३
*अथाध्वर्युरेव कायेनैककपालेन पुरोडाशेन प्रचरति। कायेनैककपालेन पुरोडाशेन प्रचर्याध्वर्युरेवाह - अग्नये स्विष्टकृतेऽनुब्रूहि इति। - श.ब्रा. २.५.२.३९
*अथ महाहविर्यागः :- अथ मरुद्भ्यः क्रीडिभ्यः सप्तकपालं पुरोडाशं निर्वपति। - - - श.ब्रा. २.५.३.२०
*अथ वैश्वकर्मण एककपालः पुरोडाशो भवति। विश्वं वा एतत् कर्म कृतम्, सर्वं जितं देवानामासीत् साकमेधैरीजानानां विजिग्यानानाम्। - - - श.ब्रा. २.५.४.१०
*स पितृभ्यः सोमवद्भ्यः षट्कपालं पुरोडाशं निर्वपति, सोमाय वा पितृमते। षड् वा ऋतवः, ऋतवः पितरः - तस्मात् षट्कपालो भवति। - श.ब्रा. २.६.१.४
*पितृयज्ञः :- स जघनेन गार्हपत्य प्राचीनावीती भूत्वा दक्षिणाऽऽसीन एतं षट्कपालं पुरोडाशं गृह्णाति। - - - - - दक्षिणार्धे गार्हपत्यस्य षट् कपालान्युपदधाति। - श.ब्रा. २.६.१.८
*त्र्यम्बकहविर्यागः :- ते वै रौद्रा भवन्ति। रुद्रस्य हीषुः। एककपाला भवन्ति। एकदेवत्या असन्निति। तस्मादेककपाला भवन्ति। - श.ब्रा. २.६.२.३
*त्र्यम्बकहविर्यागः :- उत्तरार्द्धे गार्हपत्यस्य कपालान्युपदधाति - श.ब्रा. २.६.२.५
*आतिथ्येष्टिः :- नवकपालः पुरोडाशो भवति। शिरो वै यज्ञस्यातिथ्यम्। नवाक्षरा वै गायत्री। अष्टौ तानि - यान्यन्वाह। प्रणवो नवमः। - - - - श.ब्रा. ३.४.१.१५
*हविर्धान कर्म : इदं हैवास्यैतत् शीर्षकपालम् - यद् इदमुपरिष्टात्। अधीव ह्येतत् क्षियन्त्यन्यानि शीर्षकपालानि। - श.ब्रा. ३.५.३.२३
*हविर्धानकर्म-- अथ यत् इदं पश्चाच्छदिर्भवति इदं वैवास्यैतत् शीर्षकपालं - यदिदं पश्चात्। - श.ब्रा. ३.५.३.२५
*अथ वारुण एककपालः पुरोडाशो भवति। यो वाऽस्य रसोऽभूत्। आहुतिभ्यो वाऽअस्य तमजीजनत्।- - - रसो वै पुरोडाशः। - - - श.ब्रा. ४.४.५.१५
*उदवसानीयेष्टिः :- स आग्नेयं पञ्चकपालं पुरोडाशं निर्वपति। - - - तद् यत्पञ्चकपालः पुरोडाशो भवति। पञ्चपदाः पङ्क्तयो याज्यानुवाक्याः। - श.ब्रा. ४.५.१.१४
*स यदाग्नावैष्णवऽएकादशकपालः पुरोडाशो भवति - अग्निर्वै दाता, वैष्णवाः पुरुषाः - तदस्माऽअग्निर्दाता पुरुषान् ददाति। - - - - - - अथ यद्वैष्णवस्त्रिकपालो वा पुरोडाशो भवति, चरुर्वा - यानेवास्माऽअग्निर्दाता पुरुषान् ददाति- तेष्वेवैतदन्ततः प्रतितिष्ठति। - श.ब्रा. ५.२.५.२
*अथापरेण त्रिषंयुक्तेन यजते। स आग्नापौष्णमेकादशकपालं पुरोडाशं निर्वपति, ऐन्द्रापौष्णं चरुम्, पौष्णं चरुम्। - - - - स यदाग्नापौष्णऽएकादशकपालः पुरोडाशो भवति - अग्निर्वै दाता, पौष्णाः पशवः - तदस्माऽअग्निरेव दाता पशून् ददाति। - श.ब्रा. ५.२.५.५
*रत्नयागाः :- अथ श्वोभूते ग्रामण्यो गृहान् परेत्य, मारुतं सप्तकपालं पुरोडाशं निर्वपति। - श.ब्रा. ५.३.१.६
*अथ त्वाष्ट्रं दशकपालं पुरोडाशं निर्वपति। त्वष्टा वै रूपाणामीष्टे। - श.ब्रा. ५.४.५.८
*अथैतानि हवींषि निर्वपति - आग्नेयमष्टाकपालं पुरोडाशम्, सौम्यं चरुम्, वैष्णवं त्रिकपालं वा पुरोडाशं चरुं वा यथेष्ट्या एवं यजते। - श.ब्रा. ५.४.५.१६
*आग्नेयोऽष्टाकपालः पुरोडाशो भवति, सौम्यश्चरुः, सावित्रो द्वादशकपालो वाऽष्टाकपालो वा पुरोडाशः, बार्हस्पत्यश्चरुः, त्वाष्ट्रो दशकपालः पुरोडाशः, वैश्वानरो द्वादशकपालः - एतानि षट् पूर्वाणि हवींषि भवन्ति। - श.ब्रा. ५.५.२.६
*चरकसौत्रामणिः :- अथैतानि हवींषि निर्वपति। सावित्रं द्वादशकपालं वाऽष्टाकपालं वा पुरोडाशम् , वारुणं यवमयं चरुम्, ऐन्द्रमेकादशकपालं पुरोडाशम्। - श.ब्रा. ५.५.४.२९
*अथैतेनाश्विनेन द्विकपालेन पुरोडाशेन प्रचरति। - श.ब्रा. ५.५.४.३३
*अग्निचित्त्या ब्राह्मणम् : अथ यदरसदिव - स रासभोऽभवत्। अथ यः कपाले रसो लिप्त आसीत् - सोऽजोऽभवत्। अथ यत्कपालमासीत् - सा पृथिव्यभवत्। - श.ब्रा. ६.१.१.११
*अथ यः कपाले रसो लिप्त आसीत्, ता मरीचयोऽभवन्। अथ यत्कपालमासीत् - तदन्तरिक्षमभवत्। - श.ब्रा. ६.१.२.२
*अथ यः कपाले रसो लिप्त आसीत् - ते रश्मयोऽभवन्। अथ यत्कपालमासीत् - सा द्यौरभवत्। - श.ब्रा. ६.१.२.३
*अथ यः कपाले रसो लिप्त आसीत्। ता अवान्तरदिशोऽभवन्। अथ यत्कपालमासीत् - ता दिशोऽभवन्। - श.ब्रा. ६.१.२.४
*तदाहुः - कथमस्यैषोऽग्निः पञ्चेष्टकः सर्वः पशुष्वारब्धो भवतीति। पुरोडाशकपालेषु न्वेवाऽऽप्यते। - श.ब्रा. ६.२.१.२०
*अथ यत्तदरसदिव - एष रासभः। अथ यः कपाले रसो लिप्त आसीद् - एष सोऽजः। अथ यत् तत्कपालमासीद् - एषा सा मृत् - यामेतदाहरिष्यन्तो भवन्ति। - श.ब्रा. ६.३.१.२८
*यद्येषोखा भिद्येत - याऽभिन्ना नवा स्थाल्युरुबिली स्यात्। तस्यामेनं पर्यावपेत्। - - - तत्रोखायै कपालं पुरस्तात् प्रास्यति। - - - - - पुनस्तत्कपालमुखायामुपसमस्य उखां चोपशयां च पिष्ट्वा संसृज्य निदधाति, प्रायश्चित्तिभ्यः। - श.ब्रा. ६.६.४.८
*कूर्मेष्टकोपधानम् : तस्य यदधरं कपालम्। अयं स लोकः। तत्प्रतिष्ठितमिव भवति। - - - अथ यदुत्तरम् - सा द्यौः। तद्व्यवगृहीतान्तमिव भवति। - श.ब्रा. ७.५.१.२
*पशूपरि होमः :- अस्थि वाऽऋक्। इदं तच्छीर्षकपालं विहाप्य यदिदमन्तरतः शीर्ष्णो वीर्यम् - तदस्मिन्दधाति। - श.ब्रा. ७.५.२.२५
*अथोत्तरमर्धर्चमनुद्रुत्य स्वाहाकरोति। इदं तच्छीर्षकपालं सन्धाय यदिदमुपरिष्टाच्छीर्ष्णो वीर्यं तदस्मिन्दधाति। - श.ब्रा. ७.५.२.२६
*तस्य (पशोः) त्रिवृद्वत्यावेव शिरः। ते यत्त्रिवृद्वत्यौ भवतः - त्रिवृद्धि शिरः। द्वे भवतः - द्विकपालं हि शिरः। पूर्वार्द्ध उपदधाति - पुरस्ताद्धीदं शिरः। - श.ब्रा. ८.४.४.४
*एक एष भवति। एकमिव हि शिरः। सप्तेतरे सप्तकपालाः। यदु वा अपि बहुकृत्वः सप्त - सप्त - सप्तैव तत्। शीर्षण्येव तत्सप्त प्राणान्ददाति। - श.ब्रा. ९.३.१.८
*वैश्वानर होमः :- तद् यं प्रथमं दक्षिणतो मारुतं जुहोति - याः सप्त प्राच्यः स्रवन्ति - ताः सः। स सप्तकपालो भवति। सप्त हि ताः - याः प्राच्यः स्रवन्ति। अथ यं प्रथममुत्तरतो जुहोति - ऋतवः सः। स सप्तकपालो भवति। सप्त हि ऋतवः। अथ यं द्वितीयं दक्षिणतो जुहोति - पशवः सः। स सप्तकपालो भवति। सप्त हि ग्राम्याः पशवः। - श.ब्रा. ९.३.१.१८
*अथ याः सप्त प्रतीच्य स्रवन्ति - सोऽरण्येऽनूच्यः। स सप्तकपालो भवति। सप्त हि ताः – याः प्रतीच्यः स्रवन्ति। - श.ब्रा. ९.३.१.२४
*स यः स वैश्वानरः - असौ स आदित्यः। अथ ये ते मारुताः - रश्मयस्ते। ते सप्त सप्तकपाला भवन्ति। सप्त सप्त हि मारुता गणाः। - श.ब्रा. ९.३.१.२५
*चित्याग्नौ लोकदृष्ट्युपासनं ब्राह्मणम् : अथ या अमूः षट्त्रिंशदिष्टका अतियन्ति - यः स त्रयोदशो मास आत्मा - प्राणः सः। तस्य त्रिंशदात्मन्विधाः - प्रतिष्ठायां द्वे, प्राणेषु द्वे, शीर्षन् द्वे। तद् यत्ते द्वे भवतः - द्विकपालं हि शिरः। - श.ब्रा. १०.५.४.१२
*मित्रविन्देष्टिः :- सैतां दशहविषमिष्टिमपश्यत्। आग्नेयमष्टाकपालं पुरोडाशम्। सौम्यं चरुम्। वारुणं दशकपालं पुरोडाशम्। मैत्रं चरुम्। ऐन्द्रमेकादशकपालं पुरोडाशम्। बार्हस्पत्यं चरुम्। सावित्रं द्वादशकपालं वाऽष्टाकपालं वा पुरोडाशम्। पौष्णं चरुम्। सारस्वतं चरुम्। त्वाष्ट्रं दशकपालं पुरोडाशम्। - श.ब्रा. ११.४.३.५
*तदनेन सर्वेण प्रायश्चित्तिं कुरुते। तानि कपालानि संचित्य। यत्र भस्मोद्धृतं स्यात्। तन्निवपेत्। - श.ब्रा. १२.४.१.८
*सौत्रामणी यागः :- एकादशकपाल ऐन्द्रो भवति। एकादशाक्षरा वै त्रिष्टुप्। इन्द्रियमु वै वीर्यं त्रिष्टुप्। - - - द्वादशकपालः सावित्रो भवति। द्वादश वै मासाः संवत्सरस्य। संवत्सरं वा अन्नाद्यमन्वायत्तम्। - - - दशकपालो वारुणो भवति। दशाक्षरा वै विराट्। अन्नं विराट्। वरुणोऽन्नपतिः। - श.ब्रा. १२.७.२.१८
*अश्वमेधीयप्रायश्चित्तानि : अथ यद्यक्षतामयो विंदेत्। वैश्वानरं द्वादशकपालं भूमिकपालं पुरोडाशमनुनिर्वपेत्। इयं वै वैश्वानरः - श.ब्रा. १३.३.८.३
*महावीरादि प्रवर्ग्य पात्र संभरणम् : तूष्णीं पिन्वने। तूष्णीं रौहिणकपाले। - श.ब्रा. १४.१.२.१७, १९, २०, २१, २४, २५
*घर्मसन्दीपनं ब्राह्मणम् : द्वन्द्वं पात्राण्युपसादयति उपयमनीं महावीरं परीशासौ पिन्वने रौहिणकपाले रौहिणहवन्यौ स्रुचौ। - श.ब्रा. १४.१.३.१
*घर्मोद्वासनं ब्राह्मणम् : पश्चाद्रौहिणकपाले जानुनी एवास्मिन्नेतद्दधाति। ते यदेककपाले भवतः। एककपाले इव हीमे जानुनी। - श.ब्रा. १४.३.१.२२
*यद् ग्राम्याणां पात्राणां कपालैः संसृजेत्। ग्राम्याणि पात्राणि शुचाऽर्पयेत्। अर्मकपालैः संसृजति। एतानि वा अनुपजीवनीयानि। तान्येव शुचाऽर्पयति। - तैत्तिरीय आरण्यक ५.२.१३
*- - - - यत्रासौ केशान्तो विवर्तते। व्यपोह्य शीर्षकपाले। - - - तै.आ. ७.६.१
*अथ यदैन्द्राग्नो द्वादशकपालो भवति, बलं वै तेज इन्द्राग्नी, बलमेव तत् तेजसि प्रतिष्ठापयति। - गोपथ ब्राह्मण २.१.२२
*अथ यत् काय एककपालः, प्रजापतिर्वै कः, प्राजपतेराप्त्यै अथो सुखस्य वा एतन् नामधेयं कम् इति सुखम् एव तद् अध्य् आत्मन् धत्ते। - गोपथ ब्राह्मण २.१.२२
*तस्य यो घर्मस्तच्छिश्नं, यौ शफौ तावाण्ड्यौ, योपयमनी ते श्रोणिकपाले, यत् पयस्तद् रेतः। - गो.ब्रा.२.२.६
*अग्निर्वा अर्कः। ता नव भवन्ति नवकपालं वै शिरः। - ऐतरेय आरण्यक १.४.१
*कपालोपधानार्था मन्त्राः :- धृष्टिरसि ब्रह्म यच्छापाग्नेऽग्निमामादं जहि निष्क्रव्यादं सेधाऽऽ देवयजं वह निर्दग्धा अरातयो ध्रुवमसि पृथिवीं दृंहाऽऽयुर्दृंह प्रजां दृंह सजातानस्मै यजमानाय पर्यूह धर्त्रमस्यन्तरिक्षं दृंह प्राणं दृंहापानं दृंह सजातानस्मै यजमानाय पर्यूह धरुणमसि दिवं दृंह चक्षुः दृंह श्रोत्रं दृंह सजातानस्मै यजमानाय पर्यूह धर्मासि दिशो दृंह योनिं दृंह प्रजां दृंह सजातानस्मै यजमानाय पर्यूह - - - - भृगूणामङ्गिरसां तपसा तप्यध्वं यानि घर्मे कपालान्युपचिन्वन्ति वेधसः। पूष्णस्तान्यपि व्रत इन्द्रवायू वि मुञ्चताम्। - तैत्तिरीय संहिता १.१.७.१
* प्रवत्स्यतो यजमानस्य अग्न्युपस्थानमन्त्राः--यानि घर्मे कपालान्युपचिन्वन्ति वेधसः। पूष्णस्तान्यपि व्रत इन्द्रवायू वि मुञ्चताम् ॥ - तै.सं. १.५.१०.३
*यज्ञायुधसंभृत्यभिधानम् : यो वै दश यज्ञायुधानि वेद मुखतोऽस्य यज्ञः कल्पते स्फ्यः च कपालानि च - - - - -तै.सं. १.६.८.३
*द्वादशद्वंद्वसंपत्त्यभिधानम् : कपालानि चोप दधाति पुरोडाशं च अधिश्रयत्याज्यं च स्तम्बयजुश्च हरति - - तै.सं. १.६.९.३
*अभिचारकर्त्रादीनामिष्टिविधिः :- तस्मा एतमैन्द्रमेकादशकपालं निर्वपेददिन्द्रमेव स्वेन भागधेयेनोप धावति। - तै.सं. २.२.८.६
*आग्नावैष्णवमेकादशकपालं निर्वपेदभिचरन्त्सरस्वत्याज्यभागा स्याद् बार्हस्पत्यश्चरु यददाग्नावैष्णव एकादशकपालो भवत्यग्निः सर्वा देवता - - - तै.सं. २.२.९.१
*आग्नावैष्णवमेकादशकपालं निर्वपेद् - - - तै.सं. २.२.९.२
*आग्नावैष्णवमष्टाकपालं निर्वपेत्प्रातः सवनस्य - - - - -आग्नावैष्णवमेकादशकपालं निर्वपेन्माध्यंदिनस्य सवनस्य - - - - यदेकादशकपालो भवत्येकादशाक्षरा त्रिष्टुप्त्रैष्टुभं माध्यंदिनं सवनं - - - -आग्नावैष्णवं द्वादशकपालं निर्वपेत्तृतीयसवनस्य - - - यद्द्वादशकपालो भवति द्वादशाक्षरा जगती जागतं तृतीयसवनं - - - - कपालैरेव छन्दांस्याप्नोति पुरोडाशैः सवनानि मैत्रावरुणमेककपालं निर्वपेद् वशायै काले यैवासौ भ्रातृव्यस्य वशाऽनूबन्ध्या सो एवैषैतस्यैककपालो भवति न हि कपालैः पशुमर्हत्याप्तुम्। - तै.सं. २.२.९.७
*अन्नादनशक्तिकामस्येष्टिविधिः :- इन्द्राय राज्ञे पुरोडाशम् एकादशकपाल मिन्द्रायाधिराजायेन्द्राय स्वराज्ञे - - - -उत्तानेषु कपालेष्वधि श्रयत्ययातयामत्वाय त्रयः पुरोडाशा भवन्ति त्रय इमे लोका - तै.सं. २.३.६.२
*इन्द्रियसामर्थ्यशरीरसामर्थ्यकामस्येष्टिविधिः :- उत्तानेषु कपालेष्वधि श्रयत्ययातयामत्वाय द्वादशकपालः पुरोडाशः भवति वैश्वदेवत्वाय - तै.सं. २.३.७.३
*आग्नेयपुरोडाशाभिधानम् : यदाग्नेयोऽष्टाकपालोऽमावास्यायां च पौर्णमास्यां चाच्युतो भवति सुवर्गस्य लोकस्याभिजित्यै - - - - - सर्वाणि कपालान्यभि प्रथयति तावतः पुरोडाशानमुष्मिꣳल्लोकेऽभि जयति - - - - -यद्येकं कपालं नश्येदेको मासः संवत्सरस्यानवेतः स्यादथ यजमानः प्र मीयेत - - - - आश्विनं द्विकपालं निर्वपेद् द्यावापृथिव्यमेककपालमश्विनौ वै देवानां भिषजौ ताभ्यामेवास्मै भेषजं करोति द्यावापृथिव्य एककपालो भवत्यनयोर्वा एतन्नश्यति - तै.सं २.६.३.३-६
*उखानिर्माणम् : यद् ग्राम्याणां पात्राणां कपालै संसृजेद् ग्राम्याणि पात्राणि शुचाऽर्पयेदर्मकपालैः संसृजत्येतानि वा अनुपजीवनीयानि तान्येव शुचाऽर्पयति - तै.सं. ५.१.६.२
*उख्यस्य जननम् : यदि भिद्येत तैरेव कपालैः संसृजत्सैव ततः प्रायश्चित्तिः - तै.सं. ५.१.९.३
पुरोडाशैस्सवनानि कपालैश्छन्दाँसि (आप्नोति) – काठसं. १०.१
कपाल- सा-, आध्व०) इष्टियज्ञेषु प्रकृतिभूते हविर्यागानां तृतीये दर्शपूर्णमासप्रकरणे तद्विकृतिषु च पुरोडाशपाकार्थं मृत्तिकानिर्मितानि वह्नौ पक्वानि द्व्यङ्गुलोच्छ्रायाणि, यस्मिन् पुरोडाशे यावन्ति विहितानि तानि सर्वाणि मिलित्वा गार्हपत्यस्य पश्चाद् भूमौ गार्हपत्यायतनान्तः पश्चिमभागे वा उपधीयमानानि कपालपदवाच्यानि । श्रौ० प० नि० पृ० ६-७ त्र्ङ्गुलवृत्तानि षडङ्गुलविपुलानि कपालपदवाच्यानि कपालानीत्युच्यन्ते । द्र० श्रौ० प० नि० पृ० ६-७, पुरोडाश-, पुरोडाशदेवता-, पुरोडाशभेद- ।
कपालरचना (आध्व०)-- इष्टियज्ञेषु प्रकृतिभूते हविर्यज्ञानां तृतीये दर्शपूर्णमासप्रकरणे तद्विकृतिषु च सर्वकपालप्रकृतिभूते अष्टकपालपुरोडाशे प्रथमं कपालं चतुरस्रं मध्ये उपधीयते । तस्य पुरस्तात् द्वितीयं शफाकारतासंपादनाय अर्धचन्द्राकारम् तृतीयं तु मध्यमस्य पश्चात् द्वितीयसदृशम् चतुर्थं तु मध्यमस्य दक्षिणतस्तादृशमेव पञ्चमं तु दक्षिणस्य पुरस्तादाग्नेयकोणे शफाकारता संपत्तियोग्यम् पृष्ठं तु दक्षिणस्य पश्चात् नैर्ऋतकोणे समुदितस्य शफाकारतासंपत्ति- योग्यम् सप्तमं तु मध्यमस्योत्तरार्धे पश्चिमभागे शफाकारतासंपत्तियोग्यम् अष्टमं च मध्यमस्योत्तरार्धे पूर्वभागे उपधीयते । एवमष्टौ कपालानि समुदितानि अश्वशफपरिमितानि अश्वशफाकाराणि भवन्ति । तदेवं नवकपालादिषु अष्टाकपालन्यूनकपालादिषु च कपालरचना कपालविभागश्च अश्वशफाकारता तत्परिमाणसंपत्तिसंभवेन कर्तव्यौ पुरोडाशस्य अनेककपालत्वे अश्वशफाकारता अश्वशफपरिमाणता च कपालसमूहे एव बोधव्येति विशेषोऽवधेयः ।
श्रौतयज्ञप्रक्रिया-पदार्थानुक्रमकोषः – पं. पीताम्बरदत्त शास्त्री(राष्ट्रिय संस्कृत संस्थानम्, नई दिल्ली)