KAPOTA OR PIGEON
There are numerous stories about pigeon in puranic texts. The main theme of these stories generally revolves around the sacrifice by the pigeon of his own body to satisfy the hunger of a guest at the roots of the tree. There is a hymn also in Rigveda devoted to pigeons. Taking account of all these described facts, it seems that in Hindu mythology, pigeon symbolizes our 10 senses(five involved in knowledge, five in action). All the time, these senses open outward, not inward. What has to be done to achieve this goal, this seems to be the crux of all the description of puranic and vedic texts.
कपोत
टिप्पणी : ऋग्वेद १०.१६५ सूक्त कपोत सूक्त है और लगता है कि पूरे वैदिक और पौराणिक साहित्य में कपोत के संदर्भ इसी सूक्त के परितः केन्द्रित हैं । ब्रह्म पुराण में कपोत व उलूक के परस्पर संघर्ष की कथा को तो इस सूक्त की प्रत्यक्ष व्याख्या ही माना जा सकता है । इन सबको समझने के लिए सबसे पहले आवश्यकता कपोत शब्द को समझने की है । उणादि सूत्र १.६२ में कपोत की निरुक्ति कबेरोतच् पश्च ( ओतच्प्रत्ययो वकारस्य पकार: ) रूप में की गई है । इस सूत्र में कबृ धातु वर्णे अर्थ में है जिसमें पाणिनीय नियम के अनुसार ऋकार का लोप हो जाता है । यदि धातु को कबि माना जाता है तो कबि धातु मर्दने अर्थ में है । सम्यक् व्याख्या अपेक्षित है । सामान्य रूप में लक्ष्मीनारायण संहिता की व्याख्या स्वीकार की जा सकती है कि कपोत क - पोत है, इस संसार में नौका के समान है । ब्रह्म पुराण की कथा के अनुसार कपोत यम के उपासक हैं । पितरों का देवता यम कहा जाता है । अतः कपोत पितरों के समान हमारा पालन करने वाली वृत्तियां हो सकती हैं - लोभ, क्रोध, भय आदि जो इस संसार में हमारी रक्षा करती हैं । यह वृत्तियां क्यों उत्पन्न होती हैं, इसका तर्क यह है कि हमारी चेतना समष्टि से, परमात्मा से अपना तादात्म्य खो देती है और अपने आपको अकेला पाकर अपनी सुरक्षा करने का प्रयत्न करती है । ब्रह्म पुराण में इन कपोतों को अनुह्राद और हेति नाम दिया गया है । हेति - जो तथाकथित रूप से हित साधन करना चाहता है । अनुह्राद - ह्राद, आह्लाद का अनुकरण करने वाला, अर्थात् हर्ष, शोक भय आदि । वैदिक साहित्य में सार्वत्रिक रूप से उल्लेख आते हैं ( शांखायन गृह्य सूत्र ५.५.१, आश्वलायन गृह्य सूत्र ३.८.७ ) कि यदि कपोत और उलूक बैठ जाएं ( गृह पर? ) या दु:स्वप्न दर्शन या अरिष्ट दर्शन पर देवा: कपोत इति सूक्त से शान्ति करनी होती है । काठक गृह्य सूत्र ५६.१ के अनुसार यदि संघ सहित आने वाला कपोत भयार्त होकर सक्तु या भस्म में पद रखे तो देवा: कपोत आदि से होम करना होता है । बृहद् देवता ८.६७ के अनुसार कपोत ने तपोरत नैर्ऋत् कपोत दीर्घतपा ऋषि के अग्निधान पर पद रख दिया था । तब ऋषि ने देवा: कपोत इति सूक्त द्वारा कपोत की स्तुति की । काठक गृह्य सूत्र के उपरोक्त संदर्भ से प्रतीत होता है कि संघ सहित कपोत हमारी इन्द्रियां हो सकती हैं जिनमें से कोई एक भयार्त होकर अन्तर्मुखी हो सकती है । स्कन्द पुराण में शिव द्वारा कपोत जैसा सूक्ष्म रूप धारण करके तप करने का उल्लेख है । यह सूक्ष्म रूप भी अन्तर्मुखी स्थिति हो सकती है । भविष्य पुराण में कपोत हय के उल्लेख आते हैं जिसने १२ गर्तों को तो पार कर लिया, लेकिन १३वें गुप्त गर्त को पार नहीं कर सका । अश्वमेध यज्ञ में अश्व का बन्धन करने वाली रस्सी १३ अरत्नि की होती है जिसके सम्बन्ध में अनुमान है कि १३ द्वारा १३वें अधिक मास , पुरुषोत्तम मास का संकेत किया गया है । यह १३वां मास अतिरिक्त है, अतिरिक्त ऊर्जा है जो सरलता से प्राप्त नहीं होती । इसे उच्छिष्ट( उत् - शिष्ट, शेष बची ) भी कहते हैं । मनुष्य में वीर्य आदि भी उच्छिष्ट होते हैं । लक्ष्मीनारायण संहिता के अनुसार १० कपोत कथा का उच्छिष्ट भक्षण करने से सुपोत बन गए , उन्हें जाति स्मरण हो गया । अतः जो वृत्तियां अन्तर्मुखी नहीं हो रहीं हैं, वह उच्छिष्ट उर्जा के संयोग से अन्तर्मुखी हो सकती हैं । आधुनिक विज्ञान की दृष्टि से यह बहुत महत्त्वपूर्ण है कि उच्छिष्ट ऊर्जा पाकर अन्तर्मुखी होने का क्या अर्थ हो सकता है । अन्तर्मुखी होने या सूक्ष्म रूप धारण करने से तात्पर्य एण्ट्रापी या अव्यवस्था के माप को कम करने से हो सकता है । वृत्तियों को मन के स्तर से ऊपर उठाकर बुद्धि के स्तर से जोडने से भी ऐसा हो सकता है । वैदिक साहित्य की भाषा में इसे कपोत द्वारा अग्निधान पर पद रखना कहा गया है । जो ऊर्जा पहले हमारे व्यक्तित्व का पालन करने में व्यय हो रही थी, अब वह अन्तर्मुखी होकर अग्नि का, पृथिवी की ज्योति का वर्धन करेगी । पौराणिक साहित्य में सार्वत्रिक रूप से कपोत युगल द्वारा वृक्ष के मूल में बैठे लुब्धक की शान्ति के लिए स्वयं का अग्नि में उत्सर्ग कर देने की कथा आती है । यहां वृक्ष मूल में बैठे लुब्धक से तात्पर्य एकान्तिक साधना के लिए अग्रसर साधक से हो सकता है जिसकी शान्ति तभी हो सकती है जब वृक्ष के रूप में फैली उसकी कपोत रूपी वृत्तियां अग्नि की मूल वृत्ति में समाहित हो जाएं । लगता है कि ऋग्वेद के कपोत सूक्त का आरम्भ यहां से होता है । इस सूक्त की पहली ऋचा में कपोत को निर्ऋति का दूत कहा गया है । निर्ऋति को पाप का देवता कहा जाता है । अतः हो सकता है कि पापों को नष्ट करने में कपोत का दूत बनना उसका अन्तर्मुखी होना हो । दूसरी ऋचा में कपोत के गृह में प्रवेश पर उसके अनुपद्रवकारी, शिव रूप होने की कामना है । कथासरित्सागर व महाभारत में राजा शिबि द्वारा शरणागत कपोत की रक्षा हेतु स्वयं के मांस को प्रस्तुत करने की कथा आती है । इस कथा की व्याख्या इस प्रकार की जा सकती है कि किसी वृत्ति के अन्तर्मुखी होने पर उसको अन्तर्मुखी बनाएं रखने के लिए मांसल भोगों का त्याग करना पडेगा, अन्यथा वह अन्तर्मुखी वृत्ति उपद्रव करने वाली बन जाएगी । कहा जाता है कि बहुत से लोगों की कुण्डलिनी विशेष परिस्थितियों में अनायास जाग्रत हो जाती है, लेकिन संयम के अभाव में वह केवल गम्भीर रोग ही उत्पन्न करेगी ।
ब्रह्म पुराण की कथा में कपोत और उलूक के संघर्ष का वर्णन है । कपोत यम का उपासक है, जबकि उलूक अग्नि का । संघर्ष की शान्ति तब होती है जब यम - उपासक कपोत अग्नि की स्तुति करता है और अग्नि - उपासक उलूक यम की । ऋग्वेद के कपोत सूक्त की चतुर्थ ऋचा में भी उलूक की वाक् के मोघ, व्यर्थ होने की कामना की गई है । कपोत के साथ उलूक की व्याख्या एक दूसरी समस्या है । मैत्रायणी संहिता ३.१४.४ के अनुसार वनस्पति देवता के लिए उलूक का और मित्रावरुण - द्वय के लिए कपोत का आलभन किया जाता है । वैदिक साहित्य के अनुसार वनस्पति का कार्य देवों के लिए मधु प्रदान करना है । इस मधुरता को पाकर कोई मतवाला न हो, इसके लिए यम की उपासना की आवश्यकता हो सकती है । यह उल्लेखनीय है कि कपोत की भांति उलूक के भी २ रूप हो सकते हैं - अश्व और गौ रूप, जिसके लिए उलूक शब्द पर टिप्पणी द्रष्टव्य है । महाभारत के प्रसंग के अनुसार उलूक रात्रि में काकों को, कालिमा को नष्ट करता है जिसे देखकर अश्वत्थामा शिक्षा लेता है । यह भी हो सकता है कि उलूक ज्ञान वृत्ति से काक रूपी कालिमा को नष्ट करता हो, जबकि कपोत कर्म - प्रधान वृत्ति से सम्बन्धित हो । वैसे भी कपोत का उपास्य देव यम कर्मों का ही नियमन करता है ।
बृहद् देवता ७.८६ में ऋग्वेद १०.५७-५९ के संदर्भ में किरात व आकुलि नामक २ असुरों द्वारा कपोत - द्वय द्विजों का रूप धारण करके गोपायन बन्धुओं में से सुबन्धु का हरण करने का उल्लेख है जिसकी व्याख्या अपेक्षित है ।
ऐसी संभावना है कि उलूक समाधि से पूर्व की अवस्था है और कपोत समाधि से व्युत्थान पर आनन्द की अवस्था है ।
कपोत
ॐमित्रावरुणाभ्यां कपोतान् ( आलभते ) - वाजसनेयि संहिता २४.२३
ॐकबेरोतच् पश्च - उणादि सूत्र १.६२
ॐद्वौ किराताकुली नाम ततो मायाविनौ द्विजौ ।। असमाति: पुरोऽधत्त वरिष्टौ तौ हि मन्यते । तौ कपोतौ द्विजौ भूत्वा गत्वा गोपायनानभि ।। मायाबलाच्च योगाच्च सुबन्धुमभिपेततु: । - - - बृहद् देवता ७.८६
ॐआसीदृषिर्दीर्घतपा: कपोतो नाम नैर्ऋतः । अकरोत्कपोतस्तस्याष्ट्र्याम् अग्निधाने पदं किल । स तमात्महितैर्वाक्यै: कपोतं स्तुतवानृषि: । देवा: इति सूक्तेन प्रायश्चित्तार्थमुच्यते । - बृहद् देवता ८.६७
ॐकपोतोलूकाभ्यां उपवेशने । देवा: कपोत इति प्रत्यृचं जुहुयात् । दु:स्वप्न दर्शने चाऽरिष्टदर्शने च । निशायां काकशब्द क्रान्ते च । अन्येषु चाद्भूतेषु च । - - - - शाङ्खायन गृह्य सूत्र ५.५.१
ॐकपोतश्चेदगारमुपहन्यादनुपतेद्वा देवा: कपोत इति प्रत्यृचं जुहुयाज्जपेद्वा - आश्वलायन गृह्य सूत्र ३.८.७
ॐत्वमिन्द कपोताय च्छिन्न पक्षाय वञ्चते । श्यामाकं पक्वं पीलुं च वारस्मा अकृणोर्बहु ।। - शाङ्खायन श्रौत सूत्र १२.१६.१
ॐआयूतिके कपोते भयार्ते सक्तुषु भस्मनि वा पदं दृष्ट~वा देव: कपोत इत्यष्टर्चेन स्थालीपाकस्य जुहोति । - काठक गृह्य सूत्र ५६.१
ॐइन्द्रमहोत्सव: :- गृध्रश्चेदस्मिन्निपतति मृत्योर्भयं भवति । यत्र कृष्णशकुनिरन्तरिक्षेण पततीति जयेद्यस्त्वा गृध्र: कपोत इत्यन्ततो जपेत् । - अथर्व परिशिष्ट १९.१.१०
ॐकाष्ठं वा यदि वा शृङ्गं गृहीत्वा शुनक: स्वयम् । ग्राममध्येन धावन्स्यात्तथैवाहुर्महद्भयम् ।। पुरोहितस्तु कुर्वीत कापोतीं शान्तिमुत्तमाम् । देव: कपोत इति च सूक्तं तत्र समादिशेत् - अथर्व परिशिष्ट ७०ग.२८.५
ॐत्वमिन्द्र कपोताय च्छिन्नपक्षाय वञ्चते । श्यामाकं पक्वं विरुज वारस्मा अकृणोर्बहु ।। - खिल ५.२१.२
ॐदेवा: कपोत इषितो यदिच्छन्दूतो निर्ऋत्यां इदमाजगाम । तस्मा अर्चाम कृणवाम निष्कृतिं शं नो अस्तु द्विपदे शं चतुष्पदे ।। शिव: कपोत इषितो नो अस्त्वनागा देवा: शकुनो गृहेषु । अग्निर्हि विप्रो जुषतां हविर्न: परि हेति: पक्षिणी नो वृणक्तु ।। हेति: पक्षिणी न दभात्यस्मानाष्ट्र्यां पदं कृणुते अग्निधाने । शं नो गोभ्यश्च पुरुषेभ्यश्चास्तु मा नो हिंसीदिह देवा: कपोतः ।। यदुलूको वदति मोघमेतद्यत्कपोतः पदमग्नौ कृणोति । यस्य दूतः प्रहित एष एतत्तस्मै यमाय नमो अस्तु मृत्यवे ।। ऋचा कपोतं नुदत प्रणोदमिषं मदन्तः परि गां नयध्वं । संयोपयन्तो दुरितानि विश्वा हित्वा न ऊर्जं प्र पतात्पतिष्ठ: ।। - ऋग्वेद १०.१६५, अथर्ववेद ६.२८
ॐवनस्पतया उलूकान् आलभते, मित्रावरुणाभ्यां कपोतान् आलभते - मैत्रायणी संहिता ३.१४.४
ॐअथ यस्यैतत् वक्रस्य सत: शूल इवाग्रं भवति । स ह कपोती नाम । तस्मात्तादृशमायुष्कामो यूपं न कुर्वीत । - शतपथ ब्राह्मण ११.७.३.२
प्रथम लेखनः- १२.११.२००१ई.