Remarks on Kabandha by Dr. Fatah Singh-
कबन्ध क अर्थात् प्रजापति जो अनिर्वचनीय है । जिसने क को बांध रखा है , वह कबन्ध है । हमारा यह स्थूल देह ही कबन्ध है । रामायण के कबन्ध का मुख उसके उदर में है । पेट, भक्षण ही उसके लिए सब कुछ है । कं ब्रह्म खं ब्रह्म तभी बनेगा जब कबन्ध रूपी देह को राम - लक्ष्मण अग्नि में जला देंगे । तब यह सीता प्राप्ति का उपाय बताएगा । - फतहसिंह
राम – लक्ष्मण के द्वारा राक्षस कबन्ध का वध, दिव्यरूपधारी कबन्ध के द्वारा सुग्रीव से मैत्री का परामर्श
-- राधा गुप्ता
स्वस्वरूप – आत्मस्वरूप में स्थित और अपने विचारों का निर्माता – नियन्ता होकर भी जब संस्कार रूप धारण कर चुके अपने ही देहाभिमान (रावण) के द्वारा छलपूर्वक अपने ही जीवन – व्यवहार से (पञ्चवटी में निर्मित पर्णशाला से ) अपनी ही पवित्रता (सीता) का हरण हो जाता है, तब आत्मस्थ मनुष्य (राम) दुखी होता है और अपनी उस पवित्रता को वापस लाने के लिए यथेष्ट प्रयास भी करता है। परन्तु पवित्रता (सीता) को प्राप्त करने की इस अन्वेषण यात्रा में अपने ही चित्त/अवचेतन मन में बैठे हुए ( दण्डकारण्य में विद्यमान) अनेक विषैले विचार (राक्षस) चित्त से बाहर निकलते हैं और पवित्रता – प्राप्ति की अन्वेषण – यात्रा में बाधा उपस्थित करते हैं।
पहली बाधा उपस्थित होती है – चित्त/अचेतन में बैठे उस विषैले विचार से – जिसमें मनुष्य गलती करके (रिश्वत देकर, झूठ बोलकर अथवा बेईमानी आदि करके) अपनी गलत बात को भी सही ठहराने के लिए अपने मन को यह तर्क देता है कि अमुक – अमुक की सुख – सुविधा के लिए मुझे ऐसा करना पडा (द्रष्टव्य – अयोमुखी राक्षसी का वृत्तान्त)।
दूसरी बाधा उपस्थित होती है – चित्त/अवचेतन मन में विद्यमान उस विचार से, जिसके कारण मनुष्य स्वयं को असहाय या मजबूर समझता है और तर्क देता है कि अमुक – अमुक परिस्थिति में नीतिविरुद्ध कार्य करने के सिवाय उसके पास दूसरा कोई चुनाव नहीं है। यह एक ऐसा विषैला विचार है जो किसी भी सृजनशील मन को बाँध देता है। बाँधने के कारण ही इस विचार को कबन्ध (क+बन्ध) कहा गया है। क का अर्थ है – प्रजापति अर्थात् विचारों का रचयिता मन तथा बन्ध का अर्थ है – बाँधना।
कथा का संक्षिप्त स्वरूप
कथा में कहा गया है कि कबन्ध राक्षस ने वन्य को इकठ्ठा करने वाले स्थूलशिरा महर्षि को डराया था, इसलिए उनके शापवश उसे दीर्घजीवन प्राप्त हुआ था। परन्तु राम – लक्ष्मण ने तलवार से उसकी दोनों भुजाओं को काट डाला और उसी की इच्छानुसार उसके शरीर को भी जला दिया, जिसके फलस्वरूप कबन्ध ने राक्षस स्वरूप का त्याग करके दिव्य स्वरूप प्राप्त कर लिया और सीता के अन्वेषण हेतु राम – लक्ष्मण को सुग्रीव से मित्रता करने का परामर्श दिया(वाल्मीकि रामायण अरण्यकाण्ड अध्याय 69-73)।
कथा का प्रतीकात्मक स्वरूप
प्रस्तुत कथा में वन्य को इकट्ठा करने वाले स्थूलशिरा महर्षि का अर्थ है – अपने आप उगने वाले (वन्य) विचारों को अपने मन के भीतर इकट्ठा करने वाला सामान्य बुद्धि (स्थूलशिरा) मनुष्य।
* शाप शब्द पौराणिक साहित्य में अवश्य भवितव्यता अर्थात् अवश्य होने को इंगित करता है।
* कबन्ध को स्थूलशिरा द्वारा दीर्घजीवन प्राप्त होने का अर्थ है – मेरे पास कोई चुनाव नहीं है, मैं मजबूर हूँ – इस प्रकार के असहायता का अनुभव कराने वाले विषैले विचार (राक्षस कबन्ध) का सामान्य बुद्धि मनुष्य के भीतर बहुत समय तक विद्यमान रहना।
* राम – लक्ष्मण द्वारा तलवार से कबन्ध राक्षस की दोनों भुजाओं को काटने और उसके शरीर को जला देने का अर्थ है – अपने विचारों के निर्माता और नियन्ता आत्मस्थ मनुष्य द्वारा ज्ञान की तलवार से मेरे पास कोई रास्ता नहीं है तथा मैं मजबूर हूँ – इस प्रकार की विचाररूपी भुजाओं को काटकर स्वयं को असहाय, बेबस अनुभव कराने वाले संस्कार बन चुके विचार को भी पूर्णतया समाप्त कर देना।
* कबन्ध द्वारा दिव्य रूप को प्राप्त करने का अर्थ है – उपर्युक्त वर्णित विषैले विचार के समाप्त होने से उसके स्थान पर यह उपयोगी सकारात्मक विचार उत्पन्न होना कि मेरे पास सदैव चुनाव है और मैं किसी गलत कार्य को करने के लिए विवश नहीं हूँ – स्वतन्त्र हूँ।
* यही सकारात्मक विचार ज्ञान की ओर बढने और ज्ञान का यथायोग्य उपयोग करने के लिए आत्मस्थ मनुष्य का मार्ग प्रशस्त करता है जिसे कथा में यह कहकर संकेतित किया गया है कि दिव्यरूपधारी कबन्ध ने राम – लक्ष्मण को सुग्रीव से मिलने और उससे मैत्री करने के लिए प्रेरित किया।
कथा का सार
सार रूप में यह कहा जा सकता है कि चित्त/अवचेतन मन में पडा हुआ अर्थात् दण्डकारण्य में रहने वाला उपर्युक्त वर्णित नकारात्मक विचार चित्त/अवचेतन मन से निकलकर चेतन मन पर प्रकट होता है। सामान्य बुद्धि वाला मनुष्य जहां उस नकारात्मक विचार से प्रभावित होकर उसके अधीन हो जाता है, वहीं आत्मस्थ मनुष्य अपने सभी विचारों का निर्माता और नियन्ता (राम – लक्ष्मण) हो जाने के कारण उस नकारात्मक विचार को विनष्ट करके तथा रूपान्तरित करके आगे बढ जाता है।
प्रथम लेखन – 7-3-2014ई. (फाल्गुन शुक्ल सप्तमी, विक्रम संवत् 2014)
Comments : For your reference to kabandha, perhaps you are familiar, adhyAtma rAmAyaNa AranyakANDa http://sanskritdocuments.org/doc_raama also has the story. It however refers to Ashtavakra than sthUlashirA that Radhaji can add (verses 17-20). – Abhyankar
VEDIC VIEW OF KABANDHA
- Vipin Kumar
There is a famous story in Valmiki Ramayana about demon Kabandha. When Lord Rama lost his consort Sita and was wandering in forests in search of her, demon Kabandha caught hold of him. His face was in his belly, but his hands were very long and powerful. Before Lord Rama destroys him, he tells them how they can search their consort, who can help them etc. Can this story teach something further? The authors have traced the lineage of this story to vedic texts and explained what may be the mystical meaning of Kabandha, and what is left to be understood. Vedic references about Kabandha indicate that this may be connected with conservation of energy, just like cavities in modern sciences. In a cavity, the rays of light or any other particle can not escape from it. After the cavity is formed, the energy conserved has to be taken out( This is the principle of modern laser light).
कबन्ध का वैदिक स्वरूप
- विपिन कुमार
टिप्पणी : अथर्ववेद ६.७५ - ६.७७ सूक्त कबन्ध ऋषि के हैं जिनमें प्रथम का देवता इन्द्र तथा शेष २ सूक्तों का देवता अग्नि है । इसके अतिरिक्त ऋग्वेद ५.५४.८, ५.८५.३, ८.७.१०, ९.७४.७ तथा अथर्ववेद ९.४.३ में भी कवन्ध शब्द प्रकट हुआ है जिसमें क उदात्त है । व के स्थान पर कहीं - कहीं ब पाठभेद भी मिलता है । पुराणों में कबन्ध राक्षस की एकमात्र कथा रामायण में ही उपलब्ध होती है जिसका एक संक्षिप्त रूपान्तर महाभारत वनपर्व २७९ में भी मिलता है । इसके अतिरिक्त , पुराणों में युद्धों के संदर्भ में शिर रहित कबन्धों का सार्वत्रिक उल्लेख आता है । शब्दकल्पद्रुम में कबन्ध शब्द की निरुक्ति कं सुखं बध्यते रुध्यतेऽस्मात् इति कबन्ध: की गई है और इसका अर्थ राहु किया गया है । इसी स्थान पर कबन्ध की दूसरी निरुक्ति केन प्राणवायुना पुनर्बध्यते सम्बध्यते मस्तकहीनस्यापि दैवेन प्राणावेशात् जीवतो नरस्येव क्रियाकारित्वशक्तित्वात् तथात्वम् रूप में की गई है । शतपथ ब्राह्मण १४.६.७.१ या बृहदारण्यक उपनिषद ३.७.१ में एक आख्यान आता है जिसमें पतंचल काप्य की भार्या पर कबन्ध आथर्वण नामक गन्धर्व ने अधिकार कर लिया है, वैसे ही जैसे लौकिक रूप में कह दिया जाता है कि अमुक स्त्री पर देवता आ गया है । वह कबन्ध आथर्वण रूपी भार्या अपने पति से २ प्रश्न पूछती है । प्रथम, कि क्या तुम्हें ज्ञात है कि यह लोक, परलोक , सारे भूत किस सूत्र से बंधे हैं ? और दूसरा कि इस लोक, परलोक तथा सारे भूतों के अंदर जो अन्तर्यामी विद्यमान है, जो इन सबका नियमन करता है, क्या तुम उसको जानते हो ? आख्यान में आगे चलकर उत्तर दिया गया है कि वायु ही वह सूत्र है और आत्मा ही वह अन्तर्यामी है । इस आख्यान में सारे भूतों को परस्पर बांधने वाले सूत्र के रूप में वायु का, प्राण वायु का उल्लेख महत्त्वपूर्ण है और शब्दकल्पद्रुम में दी गई कबन्ध शब्द की दूसरी निरुक्ति का भी इस से तादात्म्य है । ऋग्वेद ५.८५.३ के संदर्भ में सायण द्वारा कवन्ध की निरुक्ति कवनमुदकं धीयते अत्र इति मेघ: के रूप में की गई है । शब्दकल्पद्रुम में कव को स्तुति के अर्थ में कहा गया है । यह उल्लेखनीय है कि निघण्टु में कवन्ध या कबन्ध को उदक नामों में परिगणित किया गया है और तदनुसार वैदिक ऋचाओं की व्याख्याओं में सायण द्वारा सार्वत्रिक रूप से कवन्ध का अर्थ मेघ किया गया है जिसका भेदन कर पृथिवी पर वृष्टि कराना अभीष्ट है । लगता है कि वाल्मीकि रामायण की कबन्ध की कथा कबन्ध ऋषि के सूक्तों तथा अन्य संदर्भों को समझने की कुंजी है । कथा के अनुसार कबन्ध का पूर्व रूप दनु है । दनु को दानु कहा जा सकता है - जो अपने पास किसी भी ऊर्जा का, शक्ति का संचय नहीं करता, सब दान कर देता है, नष्ट कर देता है । इसके विपरीत, कबन्ध में संचय की प्रवृत्ति है जिसका संकेत कबन्ध शब्द की निरुक्तियों से मिलता है । शक्ति के इस संचय से क्या होगा ? बृहदारण्यक उपनिषद आदि के कथनानुसार सूत्र रूपी यह शक्ति जड जगत को परस्पर सम्बद्ध करेगी, वैसे ही जैसे हमारे प्राण हमारी देह के अङ्गों को सम्बद्ध करते हैं । सम्बद्ध करने वाला यह सूत्र विभिन्न स्तरों पर विभिन्न प्रकार का हो सकता है । चेतन जगत में सबसे निचले स्तर पर वासनाओं का सूत्र है । इन स्तरों के विकसित होने पर यह वासनाएं अग्नि, वायु, सूर्य का रूप धारण कर सकती हैं । लगता है कि रामायण की कथा का दनु असुर वासनाओं के स्तर का सूत्र है जिससे शक्ति का क्षय ज्ञानेन्द्रियों व कर्मेन्द्रियों के माध्यम से होता रहता है । इनमें से ज्ञानेन्द्रियों के क्षय को तो इन्द्र के वज्र ने समाप्त कर दिया है लेकिन कर्मेन्द्रियों से शक्ति का क्षय राम और लक्ष्मण द्वारा कबन्ध की भुजाएं ज्ञान रूपी असि से काटने पर ही रुकता है । इसके पश्चात् राम और लक्ष्मण कबन्ध का दाह करते हैं और तब वह सीता की खोज के लिए ऋष्यमूक पर्वत पर सुग्रीव आदि से मैत्री का परामर्श देता है । यह कथा एक प्रकार से अथर्ववेद ६.७५ - ७७ सूक्तों की पौराणिक व्याख्या कही जा सकती है । सूक्त ६.७५ सपत्नों के, शत्रुओं के, दुर्गुणों के नाश के लिए है जिनका नाश पुराणों के कहने के अनुसार इन्द्र के वज्र से, डा. फतहसिंह के अनुसार वज्र जैसी संकल्प शक्ति से होता है । सूक्त ६.७६ आयु प्राप्ति के लिए है जिसमें अग्नि के आवर्तन, विवर्तन आदि का उल्लेख है । यह उल्लेख आधुनिक विज्ञान में ऊर्जा के रक्षण के लिए बनाई जाने वाली केविटी जैसा ही है जिसमें प्रकाश आदि की किरणें बन्द पात्र की दीवारों से टकराकर लौटती रहती हैं और कभी भी नष्ट नहीं होती । आयु प्राप्ति का यह सूक्त बृहदारण्यक में उल्लिखित वायु सूत्र प्रतीत होता है ( वा - आयु, विकल्प से आयु ) । इस सूक्त को वर्तमान काल में प्रचलित विपश्यना ध्यान योग के तुल्य कहा जा सकता है । तीसरा सूक्त प्रतिष्ठा हेतु है जिसमें सहस्र शब्द का उल्लेख है । यह अग्नि का सूर्य रूप हो सकता है । ब्राह्मण ग्रन्थों में कहा गया है कि वायु और सूर्य अग्नि के ही विकसित रूप हैं और अग्नि पृथिवी की ज्योति है । अतः यह कहा जा सकता है कि जड जगत को सूत्र द्वारा परस्पर सम्बद्ध करने का कार्य पृथिवी से उत्पन्न ज्योति रूप यह अग्नि ही करती है और कबन्ध रूपी पात्र में यह अग्नि विकसित होकर सुग्रीव के रूप में विज्ञानमय कोश का मार्ग बताती है (सु - ग्रीव, जहां ग्री धातु विज्ञान के अर्थ में हो सकती है ) ।
वेदों की ऋचाओं में कवन्ध को नीचे की ओर, भूमि की ओर फोडने का निर्देश दिया गया है, वैसे ही जैसे मेघों के फूटने पर वृष्टि होती है । अथर्ववेद ९.४.३ में उल्लेख है कि ऋषभ वसुओं /धनों/वासनाओं के कबन्ध को धारण करता है और देवयान मार्ग की यात्रा के लिए इस कबन्ध को फोडना, इसे नीचे की ओर प्रवाहित करना आवश्यक है । वसुओं के कबन्ध के उल्लेख से यह संकेत मिलता है कि वसुओं के इस कबन्ध का विकास वासनाओं के रूपान्तरण से हुआ है ।
बृहदारण्यक उपनिषद में कबन्ध आथर्वण द्वारा अन्तर्यामी के संदर्भ में पूछा गया दूसरा प्रश्न रामायण की कथा में तथा वैदिक ऋचाओं में किस प्रकार प्रस्फुटित हुआ है, यह अन्वेषणीय है । अन्तर्यामी द्वारा जगत के नियमन के संदर्भ में यह प्रायः कहा जाता है कि स्थूल स्तर पर जो कुछ हो रहा है, वह आकस्मिक नहीं है, अपितु उसका नियमन सूक्ष्म स्तर के कोशों द्वारा किया जाता है । लेकिन बृहदारण्यक के आख्यान में अन्तर्यामी के सम्बन्ध में सूक्ष्म से सूक्ष्म प्रश्न उठाए गए हैं जिनका उत्तर अन्वेषणीय है ।
जैमिनीय ब्राह्मण ३.३१२ में द्वादशाह यज्ञ के संदर्भ में कबन्ध आथर्वण का उल्लेख आता है । यहां कहा गया है कि व्यूहात्मक द्वादशाह यज्ञ को सबसे पहले कबन्ध आथर्वण ने ही जाना । उससे पहले केवल समूहात्मक द्वादशाह था । व्यूहात्मक द्वादशाह को समझने के लिए जैमिनीय ब्राह्मण ३.३०९ आदि की सहायता ली जा सकती है । संक्षेप में, द्वादशाह के प्रथम तीन दिनों में प्रातःसवन में गायत्री छन्द का प्राधान्य रहता है । इससे अगले तीन दिनों में माध्यन्दिन सवन में गायत्री छन्द का प्राधान्य रहता है और उससे अगले तीन दिनों में तृतीय सवन में गायत्री छन्द का प्राधान्य रहता है । सामान्य स्थिति यह है कि प्रातःसवन में गायत्री छन्द प्रधान होता है, माध्यन्दिन में त्रिष्टुप् और सायं सवन में जगती । लेकिन छन्दों में यह व्युत्क्रम कबन्ध आथर्वण द्वारा खोजा गया । इसका लाभ यह हुआ कि प्रथम तीन दिनों में अग्नि गायत्रमुख होकर ऊर्ध्वगमन करती है । दूसरे तीन दिनों में वायु गायत्रीमध्य होकर तिर्यक् गति करती है और अगले तीन दिनों में सूर्य गायत्रोत्तम होकर अधोगति करता है और तीनों ही पापों का नाश करते हैं । प्रथम से मुख के पापों का, दूसरे से मध्य के पापों का और तीसरे से पदों के पापों का नाश होना कहा गया है, यद्यपि इस कथन का अधिक गम्भीर निहितार्थ प्रतीत होता है । यह उल्लेखनीय है कि अथर्ववेद ६.७५ - ७७ सूक्त अनुष्टुप् छन्द में हैं और अनुष्टुप् छन्द का उल्लेख द्वादशाह में केवल दसवें दिन के लिए किया गया है ।
रामायण की कथा में राम द्वारा कबन्ध को पहले अवट में दबाने और फिर अग्नि में दहन करने का उल्लेख आता है । लौकिक रूप में अवट गर्त को कहते हैं लेकिन यह विचारणीय है कि क्या अवट का अर्थ पञ्चवटी के पांच वाटों/पांच इन्द्रियों से रहित गर्त से है?
निघण्टु में कबन्ध शब्द का उदक नामों में वर्गीकरण कितना उपयुक्त है, यह अन्वेषणीय है । उदक की निरुक्ति उदञ्चतीति उदक, जो ऊपर की ओर गति करे, वह उदक कहा गया है । ऊपर के वर्णन से प्रकट होता है कि कबन्ध ऊर्जा का संचय करने की एक युक्ति है और आधुनिक विज्ञान के अनुसार जहां ऊर्जा के संचय की संभावना होगी, वहां अव्यवस्था में ह्रास की, व्यवस्था में वृद्धि की संभावना भी होगी ।
इन्द्र द्वारा कबन्ध के मुख को उसके उदर में स्थापित करने आदि के पौराणिक कथनों का तात्पर्य अन्वेषणीय है । अमृत मन्थन की कथा में राहु का चक्र से सिर कटने पर शीर्ष भाग के राहु और कबन्ध भाग के केतु बनने की कथा में केतु और कबन्ध का क्या सम्बन्ध हो सकता है, यह भी अन्वेषणीय है ।
प्रथम लेखनः- १२.१०.२००१
Symbolism of waters in Veda
- Sukarma Pal Singh Tomar
(A thesis accepted by Chaudhary Charan Singh University, Meerut, 1995)
Word meaning of Kabandha is - bound with 'ka' . At grosser level, this ka is Indra related with mortal soul . At universal level, this is Indra related with God. Hence, from individual point of view, Kabandha means one bonded with soul/Indra. Kabandha can be called that original water of life which is the source of life oceans at three stages - gross body level, ethereal level and causal level. In trance, this Kabandha becomes the source of honey which is milked by different veins of the body. One hymn of Rigveda presents a complete picture of this Kabandha at different levels.
वेद में उदक का प्रतीकवाद
- सुकर्मपाल सिंह तोमर
(चौधरी चरणसिंह विश्वविद्यालय द्वारा १९९५ ई. में स्वीकृत शोधप्रबन्ध )
कबन्ध
कबन्ध का यौगिक अर्थ है - 'क' से बंधा हुआ । 'क:' प्रजापति पिण्डाण्ड में आत्मारूप इन्द्र है और ब्रह्माण्ड में परमात्मा रूप इन्द्र । अतः व्यष्टि की दृष्टि से कबन्ध से शरीरी प्राण अभिप्रेत होता है जो 'क' नामक आत्मा(इन्द्र) से बंधा हुआ होता है । इसी प्रकार, पूरा ब्रह्माण्डीय प्राण क: प्रजापति(परमात्मा रूपी इन्द्र ) से बंधा हुआ है । 'यथा पिण्डे तथा ब्रह्माण्डे ' नियम के अनुसार इस अवधारणा को व्यष्टि की दृष्टि से समझना ही यहां सुगम होगा ।
कबन्ध को हम वह मूल प्राणोदक कह सकते हैं जो कारण, सूक्ष्म और स्थूल शरीरों में स्थित तीन प्राण - सरोवरों का उत्स है । समाधि की स्थिति में यह कबन्ध मधु(सोम) का उत्स बन जाता है जिसके उक्त तीनों सरोवरों के लिए शरीर की विविध नाडियां रूपी गायें मधु का दोहन करने लगती हैं(ऋग्वेद ८.७.१०) । ऋग्वेद ९.७४.७ में इस कवन्ध का विविधरूपेण चित्र उपस्थित किया गया है, जिसके प्रसंग में स्व:, रेतस्, पयः, ईम्, रसं, वनं, आपः, मधु, ऋतं, घृतं, अमृतं, नभ:, हवि: जैसे उदक नामों का उल्लेख भी प्राप्त होता है । आनन्दमय कोश के स्तर पर यह प्राणोदक रूप आनन्द सर्वाधिक वननीय होने से वन( उदक नाम ) कहलाता है और इस वन रूप में वह स्व: नामक ज्योति के स्वरूप में होता है । पयः नामक प्राणोदक का वर्धन करने वाले रेतः द्वारा जो हिरण्यकोश रूपी द्युलोक से शिशु के समान जन्म लेकर नीचे की ओर आता है( ऋ. ९.७४.१), वह सुब्रह्म से विस्तारित सर्वथा पूर्ण(आपूर्ण) अंशु है जो उक्त द्युलोक के खम्भे के समान आन्तरिक वृष्टि? से गतिशील होता है ( ऋग्वेद ९.७४.२) । इसी कबन्ध नामक प्राणोदक को आत्मा से युक्त नभ कहा गया है जो घृत तथा पयः नामक प्राणोदक के रूप में दुहा जाता है तथा उसी को 'ऋतस्य नाभि:' एवं अमृत रूप में उत्पन्न होने वाला कहा जाता है ( ऋ. ९.७४.४) । सूक्त के अन्य मन्त्र में उस प्राणोदक के लिए हवि: और अमृतं( दोनों उदकनाम ) प्रयुक्त हैं ( ऋग्वेद ९.७४.६) और एक मन्त्र में इसी को श्वेत रूप धारण करने वाला सोम और अन्नमय कोश रूपी भूमि का वर्षणशील असुर कहा गया है जो 'ईम् ' नामक प्राणोदक की सहायता 'धी' द्वारा करता है और कबन्ध नामक द्युलोक के उत्स का अवदारण करता है ( ऋ. ९.७४.७) ।
संदर्भ
*त्रीणि सरांसि पृश्नयो दुदुह्रे वज्रिणे मधु ।
उत्सं कवन्धमुद्रिणम् ॥ - ऋ. ८,००७.१०
*श्वेतं रूपं कृणुते यत्सिषासति सोमो मीढ्वां असुरो वेद भूमनः ।
धिया शमी सचते सेमभि प्रवद्दिवस्कवन्धमव दर्षदुद्रिणम् ॥ - ऋ. ९,०७४.०७
*पुमान् अन्तर्वान्त्स्थविरः पयस्वान् वसोः कबन्धमृषभो बिभर्ति ।
तमिन्द्राय पथिभिर्देवयानैर्हुतमग्निर्वहतु जातवेदाः ॥३॥ शौ.अ. ९,४.३
*चतुष्टयं युजते संहितान्तं जानुभ्यामूर्ध्वं शिथिरं कबन्धम् ।
श्रोणी यदूरू क उ तज्जजान याभ्यां कुसिन्धं सुदृढं बभूव॥३॥-शौ.अ. १०,२.३