KAMBAL
There are few contexts of Ashvatar and Kambal brothers in puranic texts. The equivalent of this can be found in Atharvaveda as Sambhal and Kambal. In Valmiki Ramayana, these seem to have been quoted as Malad and Kaaroosh. Kambal may mean who fills with joy. On the other side, Sambhal may be associated with penances.
कम्बल
टिप्पणी कम्बल के विषय में सूचना का एकमात्र स्रोत हमें अथर्ववेद १४.२.६६ में मिलता है । यहां सम्भल स्थान के अन्दर कम्बल स्थित कहा गया है । सम्भल में मल का त्याग किया जाता है, जबकि कम्बल में दुरित, दुष्कृत आदि का त्याग किया जाता है । सम्भल और कम्बल शब्दों को शं - भर और कं - भर के रूप में समझा जा सकता है । एक ओर पुराणों का अश्वतर और कम्बल युगल है तो दूसरी ओर अथर्ववेद का सम्भल और कम्बल युगल है । क्या अश्वतर और सम्भल का कोई तादात्म्य हो सकता है ? ऐसा अनुमान है कि शं रोगों के, विष के शमन से सम्बन्धित है जबकि कम्बल कं, आनन्द के भरण से । हमारे शरीर में विष का शमन प्रतिविष द्रव्य(एण्टीबांडीज) द्वारा किया जाता है । सामान्य स्थिति यह है कि जितने प्रतिविष कणों की हमें आवश्यकता होती है, उतने उत्पन्न नहीं हो पाते । इसी कारण रोग हमें जकड लेते हैं । यदि सर्प काट ले तो उसके विष का शमन करने के लिए तुरन्त भारी मात्रा में प्रतिविष कणों की आवश्यकता होती है जिसकी पूर्ति आधुनिक चिकित्सा विज्ञान में घोडों के शरीर से निकाले गए प्रतिविष कणों द्वारा की जाती है । तीर्थंकर महावीर के बारे में उल्लेख आता है कि सर्प उन्हें काटता रहा और उन पर कोई प्रभाव नहीं हुआ । इसी प्रकार के कथन योगियों, मीरा आदि भक्तों के बारे में भी मिलते हैं । तैत्तिरीय संहिता ७.१.१.२ का कथन है कि अश्वतर/खच्चर प्रजा उत्पन्न नहीं कर सकता । प्रजापति ने उसका वीर्य निकाल कर ओषधियों व पशुओं में रख दिया । अतः वह तेजस् से पूर्ण दिखाई देते हैं । जैमिनीय ब्राह्मण १.६७ का कथन है कि अश्वतर अतिरिक्त है और षोडशी भी अतिरिक्त है । अतः अतिरिक्त को अतिरिक्त में स्थापित किया जाता है । अश्वतर को षोडशी में स्थापित किया जाता है । यह कथन महत्त्वपूर्ण प्रतीत होता है क्योंकि सामान्य स्थिति में तो अश्वतर के प्रतीक प्रतिविष कण अतिरिक्त तो क्या, न्यूनता में रहते हैं । लेकिन वैदिक साहित्य उनकी अतिरिक्त अवस्था की कल्पना करता है और इतना ही नहीं, उस अतिरिक्त मात्रा को षोडशी में, अक्षर स्थिति में भी स्थापित करता है, जहां वह नष्ट ही न हों । अश्वतर को नाग कहने का तात्पर्य यह हो सकता है कि प्रतिविष कणों की उत्पत्ति अश्व की भांति त्वरित रूप में नहीं होती, अपितु धीरे - धीरे होती है । अश्वतर के विष - शमन कार्य के विपरीत, कम्बल का कार्य कं, आनन्द प्रदान करना है । ऋग्वेद की ऋचाओं में कईं प्रकार के कं के उल्लेख आते हैं, जैसे उषा आदि द्वारा देखने का आनन्द(दृशे कं - ऋग्वेद १.१२३.११, १.१२४.६, ६.९.५, ६.२९.३, १०.१२३.७, ८.९४.२), मरुतों आदि द्वारा शुभे कं(ऋग्वेद १.८८.२, ७.५७.३, ७.८७.५, ७.८८.३), सोम द्वारा मदाय कं(ऋग्वेद ८.३६.१-६, ८.८२.५, ९.८.५, ९.४५.१, ९.६२.२०), भोजनाय कं(ऋग्वेद ५.८३.१०), ऋताय कं(ऋग्वेद ८.३१.९), वीर्याय कं(ऋग्वेद ८.६१.१८), जीवनाय कं(ऋग्वेद १०.१६१.१), मर्याय कं(ऋग्वेद ४.३०.६), अमृताय कं(ऋग्वेद ९.१०६.८), प्रजायै कं(ऋग्वेद १०.१३.४) आदि । इसके अतिरिक्त बहुत सी ऋचाओं में नु कं, हि कं आदि अक्षर मिलते हैं जहां कं अनुदात्त है और सायणाचर्य इसे छन्द के पाद पूरक अक्षर के रूप में मानते हैं । प्रश्न यह है कि पुराणों में अश्वतर और कम्बल को तथा अथर्ववेद में सम्भल और कम्बल को साथ - साथ क्यों रखा गया है ? इसका कारण यह प्रतीत होता है कि शरीर में विष शमन रूपी शम्भर से शेष बची ऊर्जा से ही कं - भर का विकास होता है ।
अथर्ववेद में जहां सम्भल और कम्बल का उल्लेख है, वाल्मीकि रामायण १.२४ में लगता है कि इसी तथ्य को मलद और कारूष प्रदेशों के रूप में चित्रित किया गया है । यह प्रदेश इन्द्र के अभिषेक के दूषित जल से उत्पन्न हुए हैं । कारूष का अर्थ क्षुधा कहा गया है(शब्दकोश का अर्थ रूक्ष है) । यहां ताटका यक्षी अगस्त्य के यज्ञ में विघ्न डालती है जिससे अगस्त्य उसे शाप से राक्षसी बना देते हैं । उसके पुत्र मारीच व सुबाहु हैं । विश्वामित्र राम की सहायता से इन सबका हनन आदि करते हैं । करूष का क्षुधा होना कम् - भर, कम्बल के अर्थ के अनुकूल है । जैसा कि अन्यत्र भी उल्लेख किया जा चुका है, क्षुधा पूर्ति का कार्य चन्द्रमा का है(और रोग शमन का सूर्य का ?) । चन्द्रमा जितना विकसित होता जाएगा, क्षुधा उतनी ही कम होती जाएगी । अतः यह सोचना पडेगा कि कम्बल चन्द्रमा से कितना सम्बन्धित है । जैमिनीय ब्राह्मण २.२२० में अगस्त्य को षोडशी से सम्बद्ध किया गया है जिसमें रामायण के अनुसार ताटका विघ्न डालती है ।
पुराणों में अश्वतर व कम्बल द्वारा सरस्वती से संगीत की शिक्षा ग्रहण के उल्लेखों के संदर्भ में यह कहा जा सकता है कि विष के शमन पर संगीत स्वयं उत्पन्न हो जाएगा ।
वैदिक साहित्य में कुछ स्थानों पर अश्वतर को कंस, हस्ती आदि के साथ रखा गया है लेकिन कोई टिप्पणी नहीं की गई है । कंस आदि शिल्प के अन्तर्गत आते हैं ।
यह महत्त्वपूर्ण है कि वैदिक साहित्य में अश्वतर की दक्षिणा बिना बर्हि के देने का निर्देश है, जबकि पुराणों में कम्बलबर्हि शब्द उपलब्ध है ।
प्रथम लेखनः- २१.१.२००५ई.
संदर्भ
कम्बल
*यद्दुष्कृतं यच्छमलं विवाहे वहतौ च यत्। तत् संभलस्य कम्बले मृज्महे दुरितं वयम् ॥ संभले मलं सादयित्वा कम्बले दुरितं वयम्। अभूम यज्ञियाः शुद्धाः प्र ण आयूंषि तारिषत् ॥ - अथर्ववेद १४.२.६६ - ६७
*आ वो मक्षू तनाय कं रुद्रा अवो वृणीमहे। गन्ता नूनं नोऽवसा यथा पुरेत्था कण्वाय बिभ्युषे ॥ - ऋग्वेद १.३९.७
*श्रियसे कं भानुभिः सं मिमक्षिरे ते रश्मिभिस्त ऋक्वभिः सुखादयः। ते वाशीमन्त इष्मिणो अभीरवो विद्रे प्रियस्य मारुतस्य धाम्नः ॥ - ऋ. १.८७.६
*तेऽरुणेभिर्वरमा पिशङ्गैः शुभे कं यान्ति रथतूर्भिरश्वैः। रुक्मो न चित्रः स्वधितीवान् पव्या रथस्य जङ्घनन्त भूम ॥ - ऋ. १.८८.२
*श्रिये कं वो अधि तनूषु वाशीर्मेधा वना न कृणवन्त ऊर्ध्वा। युष्मभ्यं कं मरुतः सुजातास्तुविद्युम्नासो धनयन्ते अद्रिम् ॥ - ऋ. १.८८.३
*अस्य श्रवो नद्यः सप्त बिभ्रति द्यावाक्षामा पृथिवी दर्शतं वपुः। अस्मे सूर्याचन्द्रमसाभिचक्षे श्रद्धे कमिन्द्र चरतो वितर्तुरम् ॥ - ऋ. १.१०२.२
*मा च्छेद्म रश्मीfरिति नाधमानाः पितृqणां शक्तीरनुयच्छमानाः। इन्द्राग्निभ्यां कं वृषणो मदन्ति ता ह्यद्री धिषणाया उपस्थे ॥ - ऋ. १.१०९.३
*सुसंकाशा मातृमृष्टेव योषाविस्तन्वं कृणुषे दृशे कम्। भद्रा त्वमुषो वितरं व्युच्छ न तत् ते अन्या उषसो नशन्त ॥ - ऋ. १.१२३.११
*एवेदेषा पुरुतमा दृशे कं नाजामिं न परि वृणक्ति जामिम्। अरेपसा तन्वा३ शाशदाना नार्भादीषते न महो विभाती ॥ - ऋ. १ .१२४.६
*युवमेतं चक्रथुः सिन्धुषु प्लवमात्मन्वन्तं पक्षिणं तौग्र्याय कम्। येन देवत्रा मनसा निरूहथुः सुपप्तनी पेतथुः क्षोदसो महः ॥ - ऋ. १.१८२.५
*कः स्विद् वृक्षो निष्ठितो मध्य अर्णसो यं तौग्र्यो नाधितः पर्यषस्वजत्। पर्णा मृगस्य पतरोरिवारभ उदश्विना ऊहथुः श्रोमताय कम् ॥ - ऋ. १.१८२.७
*अरमयः सरपसस्तराय कं तुर्वीतये च वय्याय च स्रुतिम्। नीचा सन्तमुदनयः परावृजं प्रान्धं श्रोणं श्रवयन् त्सास्युक्थ्यः ॥ - ऋ. २.१३.१२
*यत्रोत मर्त्याय कमरिणा इन्द्र सूर्यम्। प्रावः शचीभिरेतशम् ॥ - ऋ. ४.३०.६
*अववर्षीर्वर्षमुदु षू गृभायाऽकर्धन्वान्यत्येतवा उ। अजीजन ओषधीर्भोजनाय कमुत प्रजाभ्योऽविदो मनीषां ॥ - ऋ. ५.८३.१०
*भुवं ज्योतिर्निहितं दृशये कं मनो जविष्ठं पतयत्स्वन्तः। विश्वे देवाः समनसः सकेता एकं क्रतुमभि वि यन्ति साधु ॥ - ऋ. ६.९.५
*श्रिये ते पादा दुव आ मिमिक्षुर्धृष्णुर्वज्री शवसा दक्षिणावान्। वसानो अत्कं सुरभिं दृशे कं स्वर्ण नृतविषिरो बभूथ ॥ - ऋ. ६.२९.३
*नैतावदन्ये मरुतो यथेमे भ्राजन्ते रुक्मैरायुधैस्तनूभिः। आ रोदसी विश्वपिशः पिशानाः
समानमञ्जयञ्जते शुभे कम् ॥ - ऋ. ७.५७.३
*तिस्रो द्यावो निहिता अन्तरस्मिन् तिस्रो भूमीरुपराः षड्विधानाः। गृत्सो राजा वरुणश्चक्र एतं दिवि प्रेङ्खं हिरण्ययं शुभे कम् ॥ - ऋ. ७.८७.५
*आ यद्रुहाव वरुणश्च नावं प्र यत् समुद्रमीरयाव मध्यम्। अधि यदपां स्नुभिश्चराव प्र प्रेङ्ख ईङ्खयावहै शुभे कम् ॥ - ऋ. ७.८८.३
*वीतिहोत्रा कृतद्वसू दशस्यन्तामृताय कम्। समूधो रोमशं हतो देवेषु कृणुतो दुवः ॥ -ऋ. ८.३१.९
*अवितासि सुन्वतो वृक्तबर्हिषः पिबा सोमं मदाय कं शतक्रतो। यं ते भागमधारयन् विश्वाः सेहानः पृतना उरु ज्रयः समप्सुजिन्मरुत्वाँ इन्द्र सत्पते। प्राव स्तोतारं मघवन्नव त्वां पिबा सोमं मदाय कं शतक्रतो। - - - -ऊर्जा देवाँ अवस्योजसा त्वां पिबा सोमं मदाय कं शतक्रतो। - - - - -जनिता दिवो जनिता पृथिव्याः पिबा सोमं मदाय कं शतक्रतो। - - - - - -जनिताश्वानां जनिता गवामसि पिबा सोमं मदाय कं शतक्रतो। - - - - अत्रीणां स्तोममद्रिवो महस्कृधि पिबा सोमं मदाय कं शतक्रतो। - - - - -ऋ. ८.३६.१-६
*अग्ने मन्मानि तुभ्यं कं घृतं न जुह्व आसनि। स देवेषु प्र चिकिद्धि त्वं ह्यसि पूर्व्यः शिवो दूतो विवस्वतो नभन्तामन्यके समे ॥ - ऋ. ८.३९.३
*प्रभङ्गी शूरो मघवा तुवीमघः संमिश्लो वीर्याय कम्। उभा ते बाहू वृषणा शतक्रतो नि या वज्रं मिमिक्षतुः ॥ - ऋ. ८.६१.१८
*तुभ्यायमद्रिभिः सुतो गोभिः श्रीतो मदाय कम्। प्र सोम इन्द्र हूयते ॥ - ऋ. ८.८२.५
*यस्या देवा उपस्थे व्रता विश्वे धारयन्ते। सूर्यामासा दृशे कम् ॥ - ऋ. ८.९४.२
*पिबा सोमं मदाय कमिन्द्र श्येनाभृतं सुतम्। त्वं हि शश्वतीनां पती राजा विशामसि ॥ - ऋ. ८.९५.३
*देवेभ्यस्त्वा मदाय कं सृजानमति मेष्यः। सं गोभिर्वासयामसि ॥ - ऋ. ९.८.५
*स पवस्व मदाय कं नृचक्षा देववीतये। इन्दविन्द्राय पीतये ॥ - ऋ. ९.४५.१
*उत त्वामरुणं वयं गोभिरञ्ज्मो मदाय कम्। वि नो राये दुरो वृधि ॥ - ऋ. ९.४५.३
*आ त इन्दो मदाय कं पयो दुहन्त्यायवः। देवा देवेभ्यो मधु ॥ - ऋ. ९.६२.२०
*स मातरा न ददृशान उस्रियो नानददेति मरुतामिव स्वनः। जानन्नृतं प्रथमं यत् स्वर्णरं प्रशस्तये कमवृणीत सुक्रतुः ॥ - ऋ. ९.७०.६
*तव द्रप्सा उदप्रुत इन्द्रं मदाय वावृधुः। त्वां देवासो अमृताय कं पपुः ॥ - ऋ. ९.१०६.८
*सप्त स्वसॄररुषीर्वावशानो विद्वान् मध्व उज्जभारा दृशे कम्। अन्तर्येमे अन्तरिक्षे पुराजा इच्छन् ववि|मविदत् पूषणस्य ॥ - ऋ. १०.५.५
*देवेभ्यः कमवृणीत मृत्युं प्रजायै कममृतं नावृणीत। बृहस्पतिं यज्ञमकृण्वत ऋषिं प्रियां यमस्तन्वं प्रारिरेचीत् ॥ - ऋ. १०.१३.४
*यथा युगं वरत्रया नह्यन्ति धरुणाय कम्। एवा दाधार ते मनो जीवातवे न मृत्यवे ऽथो अरिष्टतातये ॥ - ऋ. १०.६०.८
*सुन्वन्ति सोमं रथिरासो अद्रयो निरस्य रसं गविषो दुहन्ति ते। दुहन्त्यूधरुपसेचनाय कं नरो हव्या न मर्जयन्त आसभिः ॥ - ऋ. १०.७६.७
*हविष्पान्तमजरं स्वर्विदि दिविस्पृश्याहुतं जुष्टमग्नौ। तस्य भर्मणे भुवनाय देवा धर्मणे कं स्वधया पप्रथन्त ॥ - ऋ. १०.८८.१
*स्तोमेन हि दिवि देवासो अग्निमजीजनञ्छक्तिभी रोदसिप्राम्। तमू अकृण्वन् त्रेधा भुवे कं स ओषधीः पचति विश्वरूपाः ॥ - ऋ. १०.८८.१०
*कत्यग्नयः कति सूर्यासः कत्युषासः कत्यु स्विदापः। नोपस्पिजं वः पितरो वदामि पृच्छामि वः कवयो विद्मने कम् ॥ - ऋ. १०.८८.१८
*ऊर्ध्वो गन्धर्वो अधि नाके अस्थात् प्रत्यङ् चित्रा बिभ्रदस्यायुधानि। वसानो अत्कं सुरभिं दृशे कं स्वर्ण नाम जनत प्रियाणि ॥ - ऋ. १०.१२३.७
*मुञ्चामि त्वा हविषा जीवनाय कमज्ञातयक्ष्मादुत राजयक्ष्मात्। ग्राहिर्जग्राह यदि वैतदेनं तस्या इन्द्राग्नी प्र मुमुक्तमेनम् ॥ - ऋ. १०.१६१.१
इत्यादि।