KARNA
Hindu mythology presents an esoteric aspect of ears through the famous character of Karna in puraanic texts. Vedic texts divide ear in two parts – karna and shrotra. New inner voice, divine voice is heard by shrotra, while old inner voice is heard by karna. The earlier is called Shruti and the later one smriti. One can not hear shruti all the time, nor everybody can hear shruti. Therefore in such a situation, smriti is used. Smriti – whatever has been prescribed by those who have heard shruti. There are certain events in the puraanic character of Karna which are understandable at present. Karna is brought up by Raadhaa. Hindu mythology contemplates that Aatman has 16 nodes, just as moon has 15 or 16 nodes. Out of these 16, 15 are connected with waxing and waning. But the 16th one is free from waxing and waning and that is called Raadhaa. This 16th node is prospered by the 15 mortal nodes. So both are inseparable.
One can penetrate the hidden aspects of characters by the type of flag hoisted on their chariots. Karna’s chariot has the sign of chain which links an elephant. The root of elephant in vedic texts is taken as ‘iraa’ /idaa which may be taken as representative of unconscious mind. So one can say that the goal of Karna is to control the unconscious mind. The chariot of Karna is guided/ driven by Shalya. Shalya means a thorn, and it’s spiritual meaning is taken as thrilling experience. In Hindu rituals, it is prescribed that the the ears of a dead body by covered by a sacrificial vessel called praashitra. The origin of this particular vessel is also from thorn.
Karna is born of a virgin character named Kunti. There is enough material in Kuntaapa hymns of Atharva-veda to understand Kunti. The word meaning of Kunti according to Shabdakalpadruma kosha may be one who digs the earth, who tries to become inward for progress on spiritual path. There one may experience several thrilling experiences. This may be the birth of Karna. But her mother Kunti does not welcome this birth.
It has been stated in Mahaabhaarata that Karna can not compete with others until he becomes a king or Raajaa. Moon/Soma is also called Raajaa. This indicates that somehow one has to divert his ears from sun aspect to moon aspect.
कर्ण
कर्णस्य विषये विशिष्ट तथ्याः
१.कर्णस्य ध्वजोपरि हेमहस्तिश्रृंखलायाः चिह्नं अस्ति। हस्ती पृथिव्योपरि सूर्यस्य रूपं भवति। यथा सूर्यः स्वरश्मिभिः जलस्य, प्राणस्य आकर्षणं करोति, एवमेव हस्ती स्वशुण्डेन जलस्य आकर्षणं करोति। कर्णोपि पार्थिव सूर्यस्य प्रतीकमस्ति। अन्येषु शब्देषु, ब्रह्माण्डे प्रत्येक प्राणी पार्थिव सूर्यस्य प्रतीकमस्ति।
२.पौराणिक संदर्भेषु एके संदर्भे उल्लेखमस्ति यत् कुन्ती स्वपुत्रस्य प्रवाहं गङ्गानद्यां करोति। अन्यसंदर्भे उल्लेखमस्ति यत् कुन्ती स्वपुत्रस्य प्रवाहं अश्वनद्यां करोति। यदा कर्णस्य ग्रन्थ्याः विमोचनं भवति, तदा अक्षस्य, तृतीयचक्षुषः आविर्भावमपि अवश्यं भविष्यति, एषः अनुमानः(स्कन्द पुराण ७.३.८ )। अस्य चक्षुषः प्रयत्नतः रक्षा करणीया कर्तव्यमस्ति, न भोगलिप्सया अस्य हानिः भवेत्। अश्वनद्यां कर्णस्य प्रवाहस्य कथनं संकेतमस्ति यत् यम-नियमानां पालनं नाभवत्। अश्वस्य गतिः संसारे भवति।
३.कर्णस्य तुलना गोकर्णेन सह करणीयमस्ति। गोकर्णक्षेत्र विषये कथनमस्ति यत् अत्र आत्मलिङ्गस्य प्रतिष्ठा अस्ति। अत्र स्थितस्य लिङ्गस्य संज्ञा महाबलेश्वरः अस्ति। एकस्मिन् पक्षे आत्मनः बलमस्ति, अपरस्मिन् पक्षे अङ्गानां, इन्द्रियाणां बलं अस्ति। यदि इन्द्रियाणां बले ह्रासं भविष्यति, तदैव आत्मनः बलस्य वृद्धिः भविष्यति। महाभारतस्य कर्णः अङ्गदेशस्य राजा अस्ति। आत्मनः राजा भवनं तस्य कर्तव्यमस्ति।
टिप्पणी : वैदिक साहित्य में सार्वत्रिक रूप से(ऋग्वेद १.१०.९, १.४४.१३, १.४५.७, २.३९.६ आदि)कर्णों द्वारा श्रुत को प्राप्त करने का निर्देश है । एक ओर श्रुति है, दूसरी ओर स्मृति । अतः प्रतीत होता है कि कर्ण स्मृति का प्रतिनिधित्व करते हैं । स्मृति यदि श्रुति से जुडी रहेगी तो सर्वदा नयी बनी रहेगी । यदि श्रुति से कट जाएगी तो बासी हो जाएगी । हम सभी दैनिक जीवन में व्यवहार स्मृति के अनुसार ही करते हैं । हमारी स्मृति बासी है । कर्ण स्मृति से जुडे हैं, इसका वैदिक प्रमाण क्या है ? शतपथ ब्राह्मण ८.५.४.९, १०.१.३.७ आदि में अग्निचयन के संदर्भ में स्वयमातृण्णा और विकर्णी इष्टकाओं के उल्लेख आते हैं । स्वयमातृण्णा इष्टका बीच में रखी जाती है और विकर्णी उसके परितः । स्वयमातृण्णा का अर्थ होता है नैसर्गिक रूप से छिद्र वाली, जिसका यज्ञ में प्रतीक छिद्र वाले कङ्कड - पत्थर होते हैं । कर्णों के बारे में कहा गया है कि वह वितृण्ण होकर श्रुति से जुड जाएं()। विकर्णी को शतपथ ब्राह्मण ८.७.३.१० में वायु या आयु कहा गया है और स्वयमातृण्णा को प्राण । योग की भाषा में ऐसा कहा जा सकता है कि स्वयमातृण्णा तो हिरण्मय कोश हो सकता है और विकर्णी नीचे के अन्य कोश । ऋग्वेद १.१२२.१४ तथा ८.७२.१२ में हिरण्यकर्णं मणिग्रीवमर्णं कहा गया है । अतः यह हिरण्यकर्ण वाली स्थिति सर्वोच्च कोश की स्थिति है । इसका विशेषण मणिग्रीव है । पुराणों में लगता है कि इसी मणिग्रीव को सुग्रीव कहा गया है जो त्रेतायुग में कर्ण के पूर्वजन्म का प्रतिनिधित्व करता है । सुग्रीव राम का मित्र है । द्वापर में कर्ण का पालन अधिरथ - पत्नी राधा करती है । पुराणों में कहा गया है कि भौतिक जगत में दिखाई देने वाले सोम/चन्द्रमा में १५ कलाएं हैं, १६वी कला नहीं है, अतः उसकी क्षय - वृद्धि होती रहती है । राधा १६वी कला है जिसके कारण सोम अमृत बना रहता है । ब्राह्मण ग्रन्थों में षोडशी कला को ध्रुवा कहा गया है । राधा द्वारा कर्ण के पालन का क्या तात्पर्य हो सकता है , इसका कुछ संकेत जैमिनीय ब्राह्मण १.१९९ से मिलता है । इस कथन में सोम बेचने वाली सोमक्रयणी को अधिकर्णी संज्ञा दी गई है तथा षोडशी स्तोत्र द्वारा उसे सोम की रक्षा करने वाली कहा गया है । ऐसा हो सकता है कि कर्ण के रूप में स्मृति की रक्षा करने से ही षोडशी कला सुरक्षित रह सकती हो(शतपथ ब्राह्मण ३.३.१.१६ में सोमक्रयणी वाक् को अकर्णा कहा गया है । हो सकता है उसे कर्णों की आवश्यकता पडती हो ।)।
कर्ण के बारे में अन्य रहस्यों का उद्घाटन शतपथ ब्राह्मण १२.५.२.७, जैमिनीय ब्राह्मण १.४८ आदि के इस कथन से होता है कि मृत अग्निहोत्री के कर्णों पर प्राशित्रहरण नामक यज्ञीय पात्र रखे जाते हैं, उदर पर इडापात्री रखी जाती है, पादों पर उलूखल आदि आदि । प्राशित्र और इडापात्री पात्रों के १० मिथुनों में से एक है । प्राशित्र पुमान् है, इडापात्री स्त्री । प्राशित्र के बारे में ब्राह्मण ग्रन्थों में आख्यान आता है कि पुत्री के प्रति काम से युक्त प्रजापति का रुद्र ने इषु/तीर से वेधन किया । फिर प्रसन्न होने पर देवों ने यज्ञ रूप प्रजापति के शरीर से उस इषु को निकाला । संभवतः उस इषु में यज्ञरूप प्रजापति का कुछ अंश लगा रह गया । वही प्राशित्र है । उस प्राशित्र में अन्नाद्य, अन्नों में श्रेष्ठतम् दधि, मधु, घृत आदि भरे रहते हैं । देवों ने उस अन्नाद्य के, पुरोडाश के भक्षण का प्रयत्न किया । उसे देखकर भग देवता अन्धा हो गया । पूषा के दांत टूट गए आदि आदि । तब बृहस्पति ने सविता की प्रेरणा से पूषा के हाथों से, मित्र के चक्षु से उसके भक्षण का उपाय किया । एक ओर सबसे अधिक पकी हुई अवस्था में प्राशित्र है तो दूसरी ओर इडा पात्र । इडा का भक्षण प्रायः नहीं किया जाता, उसे केवल ओठों से छुआ भर जाता है, जब तक उसका पाक न हो जाए(इडा को पाकयज्ञिया कहा जाता है)। इडा को अचेतन मन का प्रतीक भी कहा गया है(द्र. इडा पर टिप्पणी)। कहा गया है कि वर्षा होने से पृथिवी पर इरा, घास उत्पन्न होती है । हस्ती के सम्बन्ध में भी इरा, ऐरावत का उपयोग किया जाता है । महाभारत में कर्ण के रथ की ध्वजा हस्ति कक्ष्या या शृङ्खला है । इसका अर्थ हुआ कि कर्ण की सर्वोच्च प्राथमिकता इडा को नियन्त्रित करने की है । और ब्राह्मण ग्रन्थ कहते हैं कि नियन्त्रण का यह कार्य कर्णों पर प्राशित्र के माध्यम से, सर्वोच्च अन्नाद्य की प्राप्ति के माध्यम से ही हो सकता है । सामान्य जीवन में मधुर संगीत ही कर्णों का भोजन है । अध्यात्म में हो सकता है कि श्रुति का श्रवण ही अन्नाद्य की स्थिति हो ।
ऊपर प्राशित्र पात्र की उत्पत्ति इषु/तीर से कही गई है । अध्यात्म में इस इषु/तीर/शल्य को रोमाञ्च कह सकते हैं । महाभारत में कर्ण युद्ध में अपने सारथी के रूप में शल्य का चयन करता है और सारथी शल्य कर्ण को उसके दोषों के प्रति सचेत करता रहता है, उसे शल्य चुभाता रहता है और कर्ण इससे बहुत व्यथित होता है ।
जैमिनीय ब्राह्मण १.१०४ आदि में जगती छन्द को श्रोत्र से सम्बद्ध किया गया है और इस प्रक्रिया में जिन सामों का गायन होता है, उनके अन्त में इडा शब्द का उच्चारण किया जाता है जिसे साम का निधन कहते हैं । जगती को वर्षा ऋतु का छन्द भी कहा जाता है और वर्षा के कारण पृथिवी पर इरा उत्पन्न होती है । ब्राह्मण ग्रन्थों का कहना है कि जगती की प्रकृति इस प्रकार है कि ऊपर से एक बूंद चलती है और नीचे आते आते वह हजार बूंदों में परिणत हो जाती है, वैसे ही जैसे आधुनिक नाभिकीय विज्ञान में एक शक्तिशाली ऊर्जा कण सूर्य से यात्रा आरम्भ करता है और पृथिवी पर आकर सहस्रधा विभाजित हो जाता है । अध्यात्म में यह आनन्द की, रोमाञ्च की स्थिति हो सकती है । इस रोमाञ्च का लाभ इडा को मिलता है, ऐसा प्रतीत होता है ।
वैदिक साहित्य में सार्वत्रिक रूप से(ऋग्वेद १.८९.८, तैत्तिरीय आरण्यक १.१.१, १.२१.३, १.३२.२ आदि)कर्णों द्वारा भद्र श्रवण की कामना की गई है । लेकिन भद्र श्रवण क्या है , इसकी कहीं व्याख्या उपलब्ध नहीं है । स्कन्द पुराण ७.३.८ में शिव का भद्रकर्ण नामक गण त्रिनेत्र शिव की आराधना करता है और नमुचि असुर(न मुञ्चति इति, ऐसा हर्ष जो पीछा ही न छोडे)का वध करता है । वैदिक साहित्य में ऐसे बहुत कम परोक्ष उल्लेख होंगे जहां कर्ण का सम्बन्ध तीसरे नेत्र से भी कहा गया हो(शतपथ ब्राह्मण १०.१.१.८ में कर्णों को पुरुष और भ्रुवों को स्त्री कहा गया है)। डा. फतहसिंह का मानना है कि एक स्थिति में ज्योति के माध्यम से चक्षु और कर्ण एक हो जाते हैं , जैसा कि मूर्ति कला में कुछ गणों के चक्षुओं को कर्णों तक फैले दिखाया जाता है ।
भागवत ५.१८ तथा देवीभागवत ८.८ में भद्राश्व वर्ष का अधिपति भद्रश्रवा हयशीर्ष नामक विष्णु का आराधक है । हयशीर्ष विष्णु ने असुर द्वारा अपहृत वेदों का जल से उद्धार किया था ।
कर्ण शब्द की व्युत्पत्ति उणादि कोश में कॄ - विक्षेपे धातु के आधार पर की गई है । इसके अतिरिक्त, कण धातु शब्द करने और चमकने, दीप्ति के अर्थों में प्रयुक्त होती है । लेकिन महाभारत के अनुसार वसुसेन का कर्ण नाम इसलिए पडा कि उसने अपने कवच का छेदन कर इन्द्र को दान कर दिया था(कर्ण - छेदने)। वैदिक साहित्य में तो कर्णों का आन्तरिक छेदन किया जाता है जिससे वह श्रुति को सुन सके ।
ऐतरेय ब्राह्मण ५.२२ में पृष्ठ्य षडह यज्ञ को कर्ण की भांति, पृष्ठ्य षडह के पश्चात् के ३ दिनों के छन्दोमों को कर्ण के अन्तर की भांति और छन्दोमों के पश्चात् दशम दिन के यज्ञ को, जो अविवाक्य होता है, जिसमें संभवतः आनन्द के अतिरेक के कारण बोलना संभव ही नहीं हो पाता, उसके तुल्य कहा गया है जिसके द्वारा कर्ण सुनते हैं । पृष्ठ्य षडह यज्ञ वृत्र को समाप्त करने की एक प्रक्रिया है ।
वैदिक साहित्य में सार्वत्रिक रूप से कर्ण के श्रोत्र बनने तथा श्रोत्र के दिशाएं बनने के उल्लेख आते हैं जिसकी व्याख्या अपेक्षित है । तैत्तिरीय ब्राह्मण २.६.१४.२ में श्रोत्र की तुलना कर्णों के यश से की गई है । ऋग्वेद १०.१६३.१, अथर्ववेद २.३३.१, ६.१२७.३, ९.१३.२ आदि में सार्वत्रिक रूप से कर्णों के यक्ष्म - गृहीत होने के उल्लेख हैं । हो सकता है कि यश की एकान्तिक स्थिति को यक्ष्म नाम दिया गया हो ।
अथर्ववेद १५.१८.३ में दक्षिण कर्ण को अग्नि तथा सव्य कर्ण को पवमान कहा गया है । पवमान नाम अग्नि विशेष का भी है और पवमान सोम विशेष का नाम भी है । महाभारत के अनुसार कर्ण तब तक युद्ध, प्रतिस्पर्द्धा आदि नहीं कर सकता जब तक वह राजा/सोम न बन जाए । उसे दुर्योधन अङ्ग देश का राजा बनाता है ।
शतपथ ब्राह्मण ११.२.६.४ में दर्शपूर्ण मास यज्ञ के संदर्भ में दक्षिण कर्ण को चतुर्थ प्रयाज और सव्य कर्ण को पञ्चम प्रयाज कहा गया है । ५ प्रयाज कर्मों के बारे में कहा गया है कि देवों ने इनके द्वारा असुरों पर प्रजय की, अतः परोक्ष रूप में इन्हें प्रयाज कहा जाता है । ५ प्रयाजों को ५ ऋतुएं कहा गया है । इनमें चतुर्थ प्रयाज शरद ऋतु है जिसमें पृथ्वी पर बर्हि/घास की वृद्धि हो जाती है । बर्हि रोमाञ्च के फैलने की स्थिति हो सकती है । पञ्चम प्रयाज शिशिर व हेमन्त ऋतु है जिसको स्वाहा कहा जाता है । अन्यत्र(शतपथ ब्राह्मण १२.२.४.१५, १२.३.१.८ आदि)दक्षिण कर्ण को अभिजित् तथा सव्य कर्ण को विश्वजित् कहा गया है ।
ऋग्वेद ६.७५.३ में धनुष की ज्या के शब्द से कर्ण को आनन्द प्रदान करने का उल्लेख है और इस ऋचा का व्यापक विनियोग इसके महत्त्व की ओर इङ्गित करता है । वैदिक साहित्य में सार्वत्रिक रूप से(तैत्तिरीय ब्राह्मण १.८.५.२, शतपथ ब्राह्मण ५.५.४.१० आदि)सौत्रामणी यज्ञ में इन्द्र द्वारा बलात् सोमपान करने और फलस्वरूप कर्णों से स्रवित सोम से वृक की उत्पत्ति का उल्लेख आता है जिसकी व्याख्या अपेक्षित है ।
प्रथम लेखनः- १४.११.२००७ई.
संदर्भ
*आश्रुत्कर्ण श्रुधी हवं नू चिद्दधिष्व मे गिरः। इन्द्र स्तोममिमं मम कृष्वा युजश्चिदन्तरम् ॥ - ऋ. १.१०.९
*श्रुधि श्रुत्कर्ण वह्निभिर्देवैरग्ने सयावभिः। आ सीदन्तु बर्हिषि मित्रो अर्यमा प्रातर्यावाणो अध्वरम् ॥ - ऋ. १.४४.१३
*नि त्वा होतारमृत्विजं दधिरे वसुवित्तमम्। श्रुत्कर्णं सप्रथस्तमं विप्रा अग्ने दिविष्टिषु ॥ - ऋ. १.४५.७
*भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवा भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः। स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवांसस्तनूभिर्व्यशेम दिवहितं यदायुः॥ - ऋ. १.८९.८
*हिरण्यकर्णं मणिग्रीवमर्णस्तन्नो विश्वे वरिवस्यन्तु देवाः। अर्यो गिरः सद्य आ जग्मुषीरो- स्राश्चाकन्तूभयेष्वस्मे ॥ - ऋ. १.१२२.१४
*अस्मे ऊ षु वृषणा मादयेथामुत् पणीँर्हतमूर्म्या मदन्ता। श्रुतं मे अच्छोक्तिभिर्मतीनामेष्टा नरा निचेतारा च कर्णैः ॥ - ऋ. १.१८४.२
*ऋतज्येन क्षिप्रेण ब्रह्मणस्पतिर्यत्र वष्टि प्र तदश्नोति धन्वना। तस्य साध्वीरिषवो याभिरस्यति नृचक्षसो दृशये कर्णयोनयः ॥ - ऋ. २.२४.८
*उक्षन्ते अश्वाँ अत्याँ इवाजिषु नदस्य कर्णैस्तुरयन्त आशुभिः। हिरण्यशिप्रा मरुतो दविध्वतः पृक्षं याथ पृषतीभिः समन्यवः ॥ - ऋ. २.३४.३
*ओष्ठाविव मध्वास्ने वदन्ता स्तनाविव पिप्यतं जीवसे नः। नासेव नस्तन्वो रक्षितारा कर्णाविव सुश्रुता भूतमस्मे ॥ - ऋ. २.३९.६
*ऋतस्य हि शुरुधः सन्ति पूर्वीर्ऋतस्य धीतिर्वृजिनानि हन्ति। ऋतस्य श्लोको बधिरा ततर्द कर्णा बुधानः शुचमान आयोः ॥ - ऋ. ४.२३.८
*श्रावयेदस्य कर्णा वाजयध्यै जुष्टामनु प्र दिशं मन्दयध्यै। उद्वावृषाणो राधसे तुविष्मान् करन्न इन्द्रः सुतीर्थाभयं च ॥ - ऋ. ४.२९.३
*इन्द्राकुत्सा वहमाना रथेनाऽऽवामत्या अपि कर्णे वहन्तु। निः षीमद्भ्यो धमथो निः षधस्थान् मघोनो हृदो वरथस्तमांसि ॥ - ऋ. ५.३१.९
स्तोत्राणि कृणोति करोतीति कर्णः स्तोता यजमानो वा । - सा.भा.
*वि मे कर्णा पतयतो वि चक्षुर्वीदं ज्योतिर्हृदय आहितं यत्। वि मे मनश्चरति दूरआधीः किं स्विद् वक्ष्यामि किमु नू मनिष्ये ॥ - ऋ. ६.९.६
*दूराच्चिदा वसतो अस्य कर्णा घोषादिन्द्रस्य तन्यति ब्रुवाणः। एयमेनं देवहूतिर्ववृ- त्यान्मद्र्यगिन्द्रमियमृच्यमाना ॥ - ऋ. ६.३८.२
*आ मा पूषन्नुप द्रव शंसिषं नु ते अपिकर्ण आघृणे। अघा अर्यो अरातयः ॥ - ऋ. ६.४८.१६
*वक्ष्यन्तीवेदा गनीगन्ति कर्णं प्रियं सखायं परिषस्वजाना। योषेव शिङ्क्ते वितताधि धन्वञ्ज्या इयं समने पारयन्ती ॥ - ऋ. ६.७५.३
*श्रवच्छ्रुत्कर्ण ईयते वसूनां नू चिन्नो मर्धिषद् गिरः। सद्यश्चिद् यः सहस्राणि शता ददन्नकिर्दित्सन्तमा मिनत् ॥ - ऋ. ७.३२.५
*उत त्वाबधिरं वयं श्रुत्कर्णं सन्तमूतये। दूरादिह हवामहे ॥ - ऋ. ८.४५.१७
*कर्णगृह्या मघवा शौरदेव्यो वत्सं नस्त्रिभ्य आनयत्। अजां सूरिर्न धातवे ॥ - ऋ. ८.७०.१५
*गाव उपावतावतं मही यज्ञस्य रप्सुदा। उभा कर्णा हिरण्यया ॥ - ऋ. ८.७२.१२
*उत नः कर्णशोभना पुरूणि धृष्णवा भर। त्वं हि शृण्विषे वसो ॥ - ऋ. ८.७८.३
*नेमिं नमन्ति चक्षसा मेषं विप्रा अभिस्वरा। सुदीतयो वो अद्रुहो ऽपि कर्णे तरस्विनः समृक्वभिः ॥ - ऋ.८.९७.१२
*तक्षद्यदी मनसो वेनतो वाग् ज्येष्ठस्य वा धर्मणि क्षोरनीके। आदीमायन् वरमा वावशाना जुष्टं पतिं कलशे गाव इन्दुम् ॥ प्र दानुदो दिव्यो दानुपिन्व ऋतमृताय पवते सुमेधाः। धर्मा भुवद्वृजन्यस्य राजा प्र रश्मिभिर्दशभिर्भारि भूम ॥ पवित्रेभिः पवमानो नृचक्षा राजा देवानामुत मर्त्यानाम्। द्विता भुवद्रयिपती रयीणामृतं भरत् सुभृतं चार्विन्दुः ॥ (ऋ. कर्णश्रुद् वासिष्ठः) - ऋ. ९.९७.२२- २४
*न वा उ मां वृजने वारयन्ते न पर्वतासो यदहं मनस्ये। मम स्वनात् कृधुकर्णो भयात एवेदनु द्यून् किरणः समेजात् ॥ - ऋ. १०.२७.५
*इन्द्रेण युजा निः सृजन्त वाघतो व्रजं गोमन्तमश्विनम्। सहस्रं मे ददतो अष्टकर्ण्यः श्रवो देवेष्वक्रत ॥ - ऋ. १०.६२.७
*अक्षण्वन्तः कर्णवन्तः सखायो मनोजवेष्वसमा बभूवुः। आदघ्नास उपकक्षास उ त्वे ह्रदा इव स्नात्वा उ त्वे ददृश्रे ॥ - ऋ. १०.७१.७
*यमिमं त्वं वृषाकपिं प्रियमिन्द्राभिरक्षसि। श्वा न्वस्य जम्भिषदपि कर्णे वराहयुर्विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥ - ऋ. १०.८६.४
*बृहन्तेव गम्भरेषु प्रतिष्ठां पादेव गाधं तरते विदाथः। कर्णेव शासुरनु हि स्मराथोंऽशेव नो भजतं चित्रमप्नः ॥ - ऋ. १०.१०६.९
*ऋतावानं महिषं विश्वदर्शतमग्निं सुम्नाय दधिरे पुरो जनाः। श्रुत्कर्णं सप्रथस्तमं त्वा गिरा दैव्यं मानुषा युगा ॥ - ऋ. १०.१४०.६
*अक्षीभ्यां ते नासिकाभ्यां कर्णाभ्यां छुबुकादधि। यक्ष्मं शीर्षण्यं मस्तिष्काज्जिह्वाया वि वृहामि ते ॥ - ऋ.१०.१६३.१
*अक्षीभ्यां ते नासिकाभ्यां कर्णाभ्यां छुबुकादधि। यक्ष्मं शीर्षण्यं मस्तिष्काज्जिह्वाया वि वृहामि ते ॥ - अ.२.३३.१
*यो अङ्ग्यो यः कर्ण्यो यो अक्ष्योर्विसल्पकः। वि वृहामो विसल्पकं विद्रधं हृदयामयम्। परा तमज्ञातं यक्ष्ममधराञ्चं सुवामसि ॥ - अ. ६.१२७.३
*लोहितेन स्वधितिना मिथुनं कर्णयोः कृधि। अकर्तामश्विना लक्ष्म तदस्तु प्रजया बहु ॥ - अ. ६.१४१.२
*शृङ्गाभ्यां रक्ष ऋषत्यवर्तिं हन्ति चक्षुषा। शृणोति भद्रं कर्णाभ्यां गवां यः पतिरघ्न्यः ॥ - अ. ९.४.१७
*शीर्षक्तिं शीर्षामयं कर्णशूलं विलोहितम्। सर्वं शीर्षण्यं ते रोगं बहिर्निर्मन्त्रयामहे ॥ कर्णाभ्यां ते कङ्कूषेभ्यः कर्णशूलं विसल्पकम्। सर्वं शीर्षण्यं ते रोगं बहिर्निर्मन्त्रयामहे ॥ - अ. ९.१३.१-२
*यस्य हेतोः प्रच्यवते यक्ष्मः कर्णत आस्यतः। सर्वं शीर्षण्यं ते रोगं बहिर्निर्मन्त्रयामहे ॥ - अ. ९.१३.३
*शीर्षण्वती नस्वती कर्णिनी कृत्याकृता संभृता विश्वरूपा। सारादेत्वप नुदाम एनाम् ॥ - अ. १०.१.२
*कः सप्त खानि वि ततर्द शीर्षणि कर्णाविमौ नासिके चक्षणी मुखम्। येषां पुरुत्रा विजयस्य मह्मनि चतुष्पादो द्विपदो यन्ति यामम् ॥ - अ. १०.२.६
*यत् ते शिरो यत् ते मुखं यौ कर्णौ ये च ते हनू। आमिक्षां दुह्रतां दात्रे क्षीरं सर्पिरथो मधु ॥ - अ. १०.९.१३
*यो अस्याः कर्णावास्कुनोत्या स देवेषु वृश्चते। लक्ष्म कुर्व इति मन्यते कनीयः कृणुते स्वम् ॥ - अ. १२.४.६
*सर्वज्यानिः कर्णौ वरीवर्जयन्ती राजयक्ष्मो मेहन्ती। - अ. १२.७.२२
*योऽस्य दक्षिणः कर्णोऽयं सो अग्निर्योऽस्य सव्यः कर्णोऽयं स पवमानः ॥ - अ. १५.१८३
*सुश्रुतौ कर्णौ भद्रश्रुतौ कर्णौ भद्रं श्लोकं श्रूयासम्। - अ. १६.२.४
*वाङ् म आसन् नसोः प्राणश्चक्षुरक्ष्णोः श्रोत्रं कर्णयोः। अपलिताः केशा अशोणा दन्ता बहु बाह्वोर्बलम् ॥ - अ. १९.६०.१
*नेमिं नमन्ति चक्षसा मेषं विप्रा अभिस्वरा सुदीतयो वो अद्रुहोऽपि कर्णे तरस्विन; समृक्वभिः ॥ - अ. २०.५४.३
*अक्षीभ्यां ते नासिकाभ्यां कर्णाभ्यां छुबुकादधि। यक्ष्मं शीर्षण्यं मस्तिष्काज्जिह्वाया वि वृहामि ते ॥ - अ. २०.९६.१७
*यमिमं त्वं वृषाकपिं प्रियमिन्द्राभिरक्षसि। श्वा न्वस्य जम्भिषदपि कर्णे वराहयुर्विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥ - अ. २०.१२६.४
*निगृह्य कर्णकौ द्वौ निरायच्छसि मध्यमे। न वै कुमारि तत्तथा यथा कुमारि मन्यसे ॥ - अ. २०.१३३.३
*इन्धानास्त्वा शतम् हिमा इत्याहु शतायुः पुरुषः शतेन्द्रिय आयुष्येवेन्द्रिये प्रति तिष्ठत्येषा वै सूर्मी कर्णकावत्येतया ह स्म वै देवा असुराणां शततर्हांस्तृंहन्ति - तैत्तिरीय संहिता १.५.७.६
*राजसूयविषयाणां रत्निहविषामभिधानम् : आश्वत्थे पात्रे चतुःस्रक्तौ स्वयमवपन्नायै शाखायै कर्णांश्चाकर्णांश्च तण्डुलान्वि चिनुयाद्ये कर्णाः स पयसि बार्हस्पत्यो येऽकर्णाः स आज्यै मैत्रः - तै.सं. १.८.९.३
*वक्ष्यन्तीवेदा गनीगन्ति कर्णं प्रियं सखायं परिषस्वजाना। योषेव शिङ्क्ते वितताऽधि धन्वन् ज्या इयं समने पारयन्ती। - तै.सं. ४.६.६.१
*चितौ वह्निक्षेपविधिः :-प्रेद्धो अग्ने दीदिहि पुरो न इत्यौदुम्बरीमा दधात्येषा वै सूर्मी कर्णकावत्येतया ह स्म वै देवा असुराणां शततर्हांस्तृंहन्ति - तै.सं. ५.४.७.३
*आहुत्याभिधानम् : वाङ्म आसन्नसोः प्राणोऽक्ष्योश्चक्षुः कर्णयोः श्रोत्रं बाहुवोर्बलमूरु-वोरोजोऽरिष्टा विश्वान्यङ्गानि - तै.सं. ५.५.९.२
*कर्णास्त्रयो यामाः सौम्यास्त्रयः श्वितिङ्गा - - तै.सं. ५.६.१५.१
*अरुणया सोमक्रयप्रकाराभिधानम् : यत्कर्णगृहीता वार्त्रघ्नी स्यात्स वाऽन्यं जिनीयात्तं वाऽन्यो जिनीयान्मित्रस्त्वा पदि बध्नात्वित्याह मित्रो वै शिवो देवानां - तै.सं. ६.१.७.६
*सहस्रतम्याभिधानम् : तस्या उपोत्थाय कर्णमा जपेदिडे रन्तेऽदिते सरस्वति प्रिये प्रेयसि महि विश्रुत्येतानि ते अघ्निये नामानि - तै.सं. ७.१.६.८
*अश्वमेधगतमन्त्रकथनम् : - - - - -ऽक्षीभ्यां स्वाहा कर्णाभ्यां स्वाहा पार इक्षवोऽवार्येभ्यः पक्ष्मभ्यःस्वाहा - तै.सं. ७.३.१६.१
*ऽक्षण्वते स्वाहाऽनक्षिकाय स्वाहा कर्णिने स्वाहाऽकर्णकाय स्वाहा - - - - तै.सं. ७.५.११.१
*ग्रावाणेव तदिदर्थं जरेथे इति सूक्तमक्षी इव कर्णाविव नासेवेत्यङ्गसमाख्याऽयमेवा- स्मिंस्तदिन्द्रियाणि१ दधाति - ऐतरेय ब्राह्मण १.२१
*महादिवाकीर्त्यं पृष्ठं भवति विकर्णं ब्रह्मसाम भासमग्निष्टोमसाम - ऐ.ब्रा. ४.१९
*यथा वै कर्ण एवं पृष्ठ्यः षळहस्तद्यथाऽन्तरं कर्णस्यैवं छन्दोमा अथ येनैव शृणोति तद्दशममहः। श्रीर्वै दशममहः श्रियं वा एत आगच्छन्ति ये दशममहरागच्छन्ति तस्माद्दशमम- हरविवाक्यं भवति - ऐ.ब्रा. ५.२२
*- - - -आदित्यश्चक्षुर्भूत्वाक्षिणी प्राविशद्दिशः श्रोत्रं भूत्वा कर्णौ प्राविशन्नोषधिवनस्पतयो लोमानि भूत्वा त्वचं प्राविशः - - - - ऐतरेय आरण्यक २.४.२
*कर्णौ निरभिद्येतां कर्णाभ्यां श्रोत्रं श्रोत्राद्दिशः। - ऐ.आ. २.४.१
*अथाप्यपिधाय कर्णा उपशृणुयात्स एषो अग्नेरिव प्रज्वलतो रथस्येवोपब्दिस्तं यदा न शृणुयात्तदप्येवमेव विद्यात् - ऐ.आ. ३.२.४
*विषुवत् अह्नि साम्नां विधिः :-महादिवाकीर्त्यम् होतुः पृष्ठम्। विकर्णं ब्रह्मसाम। भासोऽग्निष्टोमः। - तैत्तिरीय ब्राह्मण १.२.४.३
*सौत्रामणियाग विधिः :- - - - - - यत्कर्णयोः। स वृकः। य ऊर्ध्वः। स सोमः। - तै.ब्रा. १.८.५.२
*सौत्रामणेः कौकिल्याभिधानम्। षोडशोपहोममन्त्राः :- इन्द्रस्य रूपमृषभो बलाय। कर्णाभ्यां श्रोत्रममृतं ग्रहाभ्याम्। यवा न बर्हिर्भ्रुवि केसराणि। कर्कन्धु जज्ञे मधु सारघं मुखात् ॥ - तै.ब्रा. २.६.४.५
*कौकिल सौत्रामण्यां अनुयाजानां मैत्रावरुण प्रैषाः :- देवी जोष्ट्री अश्विना। सुत्रामेन्द्रे सरस्वती। श्रोत्रं न कर्णयोर्यशः। जोष्ट्रीभ्यां दधुरिन्द्रियम्। वसुवने वसुदेयस्य वियन्तु यज। - तै.ब्रा. २.६.१४.२
*माहेन्द्रग्रहस्य पुरोरुक् : श्रुधि श्रुत्कर्ण वह्निभिः। देवैरग्ने सयावभिः। आ सीदन्तु बर्हिषि। मित्रो वरुणो अर्यमा। प्रातर्यावाणो अध्वरम्। - तै.ब्रा. २.७.१२.५
*अपश्यमहमेतान्त्सप्त सूर्यानिति। पञ्चकर्णो वात्स्यायनः। सप्तकर्णश्च प्लाक्षिः। आनुश्रविक एव नौ कश्यप इति। उभौ वेदयिते। न हि शेकुमिव महामेरुं गन्तुम्। - तैत्तिरीय आरण्यक १.७.२
*भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवाः। भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः। स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवांसस्तनूभिः। व्यशेम देवहितं यदायुः। - तै.आ. १.२१.२
*अरण्येऽधीयीरन्। भद्रं कर्णेभिरिति द्वे जपित्वा। महानाम्नीभिरुदकं संस्पृश्य। तमाचार्यो दद्यात्। - तै.आ. १.३२.२
*शरीरं मे विचर्षणम्। जिह्वा मे मधुमत्तमा। कर्णाभ्यां भूरि विश्रुवम्। ब्रह्मणः कोशोऽसि मेधयाऽपिहितः। श्रुतं मे गोपाय। - तै.आ. ७.४.१
*नमो ब्रह्मणे धारणं मे अस्त्वनिराकरणं धारयिता भूयासं कर्णयोः श्रुतं मा च्योढ्वं ममामुष्य ओम्। - तै.आ. १०.७.१
*वाङ्म आसन्। नसोः प्राणः। अक्ष्योश्चक्षुः। कर्णयोः श्रोत्रम्। बाहुवोर्बलम्। - - - - तै.आ. १०.७२.१
*वाग्वाऽएषा निदानेन - यत्सोमक्रयणी। - - - - सा स्यादवण्डाऽकूटाऽकाणाऽकर्णा- ऽलक्षिताऽसप्तशफ। सा ह्येकरूपा। एकरूपाहीयं वाक्। - शतपथ ब्राह्मण ३.३.१.१६
*तस्य (संज्ञप्यमानस्य पशोः) न कूटेन प्रघ्नन्ति। मानुषं हि तत्। नोऽएव पश्चात्कर्णम्। पितृदेवत्यं हि तत्। अपिगृह्य वैव मुखं तमयन्ति। - श.ब्रा. ३.८.१.१५
*संज्ञपनान्तरं भाविप्रयोगकथनं : श्रोत्रं ते शुन्धामि इति कर्णौ। - श.ब्रा. ३.८.२.६
*गर्गत्रिरात्रमहीनम् : अथ दक्षिणे कर्णऽआजपति - इडे रन्ते हव्ये काम्ये चन्द्रे ज्योतेऽदिति सरस्वति महि विश्रुति। एता तेऽअघ्न्ये नामानि देवेभ्यो मा सुकृतं ब्रूतात्। - श.ब्रा. ४.५.८.१०
*चरकसौत्रामणिः :- स यन्नस्तोऽद्रवत्- ततः सिंहः समभवत्। अथ यत्कर्णाभ्यामद्रवत्- ततो वृकःसमभवत्। - - - - - श.ब्रा. ५.५.४.१०
*लोगेष्टका : श्रुत्कर्णं सप्रथस्तमं त्वा गिरा दैव्यं मानुषा युगा इति। आशृण्वन्तं सप्रथस्तमं त्वा गिरा देवं मनुष्या हवामह इत्येतत्। - श.ब्रा. ७.३.१.३४
*अथ पुरीषं निवपति। तत्र विकर्णीं च स्वयमातृण्णां चोपदधाति। हिरण्यशकलैः प्रोक्षति। अग्निमभ्र्याधाति। सा सप्तमी चितिः, स सप्तम ऋतुः। ता उ वै षडेव। यद्धि विकर्णी च स्वयमातृण्णा च - षष्ठ्या एव तच्चितेः। - श.ब्रा. ८.५.४.१०
*पुरीष निवपनम् : यद्वेव विकर्णीमुपदधाति। यत्र वा अदोऽश्वं चितिमवघ्रापयन्ति - तदसावादित्य इमांल्लोकान्त्सूत्रे समावयते।तद् यत्तत्सूत्रम् - वायुः सः। स यः स वायुः - एषा सा विकर्णी। - - - - - यद्वेव विकर्णीं च स्वयमातृण्णां चोपदधाति। आयुर्वै विकर्णी, प्राणः स्वयमातृण्णा। - श.ब्रा. ८.७.३.१०
*अथौदुम्बरीमादधाति।ऊर्ग्वै रस उदुम्बरः। ऊर्जैवैनमेतद्रसेन प्रीणाति। कर्णकवती भवति। पशवो वै कर्णकाः। - - - यदि कर्णकवती न विन्देद् - दधिद्रप्समुपहत्याऽऽदध्यात्। - श.ब्रा. ९.२.३.४०
*अङ्गुष्ठा इति पुमांसः, अंगुलयः इति स्त्रियः। कर्णाविति पुमांसौ, भ्रुवाविति स्त्रियौ। - श.ब्रा. १०.१.१.८
*अथ पञ्चमीं चितिमुपधाय पुरीषं निवपति। तत्र विकर्णीं च स्वयमातृण्णां चोपदधाति। - श.ब्रा. १०.१.३.७
*अथ ह वै यत् तदुवाच - वेत्थार्कमिति - पुरुषं हैव तदुवाच। वेत्थार्कपर्णे इति - कर्णौ हैव तदुवाच - - - श.ब्रा. १०.३.४.५
*अथ यद्विकर्णी च स्वयमातृण्णा चाश्मा पृश्निः। यश्चितेऽग्निर्निधीयते - सा पञ्चत्रिंशी लोकम्पृणायै। - श.ब्रा. १०.५.४.१५
*पञ्च प्रयाजाः। - - - - दक्षिणः कर्णश्चतुर्थः। सव्यः कर्ण: पञ्चमः। अथ यच्चतुर्थे प्रयाजे समानयति। तस्मादिदं श्रोत्रमंतरतः संतृण्णम्। - श.ब्रा. ११.२.६.४
*गवामयनीय संवत्सरस्य पुरुषविधोपासनम् : अयमेव दक्षिणः कर्णोऽभिजित्। यदिदमक्ष्णः शुक्लम्। स प्रथमः स्वरसामा। - - - - अयमेवोत्तरः कर्णो विश्वजित्। उक्तौ पृष्ठ्याभिप्लवौ। - - - - श.ब्रा. १२.२.४.१५
*कर्णावस्याभिजिद्विविश्वजिच्चाक्ष्या बाहुः स्वरसामाऽभिक्लृप्ते। नस्यं प्राणं विषुवन्तमाहु- र्गोआयुषी प्राणावेताववांचौ ॥ - श.ब्रा. १२.३.१.८
*अप्रोषितस्य प्रेतस्य अग्निहोत्रिणोऽन्त्य कर्म : कर्णयोः प्राशित्रहरणे। - श.ब्रा. १२.५.२.७
*सौत्रामणीयज्ञात्पुरुषोत्पत्तिः :- चक्षुषी एवास्याश्विनौ ग्रहौ। …..श्रोत्रे एवास्यैन्द्रौ ग्रहौ। अथ यानि कर्णयोर्लोमानि। यानि च भ्रुवोः। तानि यवसक्तवश्च कर्कन्धुसक्तवश्च। - श.ब्रा. १२.९.१.५
*मन एवेन्द्रः। वाक् सरस्वती। श्रोत्रे अश्विनौ। यद्वै मनसा ध्यायति। तद्वाचा वदति। यद्वाचा वदति। तत् कर्णाभ्यां शृणोति। - श.ब्रा. १२.९.१.१३
*सावित्रीष्टिः :- एतस्यां संस्थितायाम्, उपोत्थायाध्वर्युश्च यजमानश्च अश्वस्य दक्षिणे कर्ण आजपतः। विभूर्मात्रा प्रभूः पित्रा इति। - श.ब्रा. १३.४.२.१५
*घर्मभेदे प्रायश्चित्तम् : श्रोत्राय स्वाहा श्रोत्राय स्वाहा इति। कर्णावेवास्मिन्नेतत् दधाति। सप्तैता आहुतयो भवन्ति। सप्त वा इमे शीर्षन्प्राणाः। - श.ब्रा. १४.३.२.१७
*जठरस्थवैश्वानरोपासनाब्राह्मणम् : अयमग्निर्वैश्वानरः। योऽयमन्तः पुरुषे। येनेदमन्नं पच्यते। यदिदमद्यते। तस्यैष घोषो भवति। यमेतत्कर्णावपिधाय शृणोति। स यदोत्क्रमिष्यन् भवति। नैतं घोषं शृणोति। - श.ब्रा. १४.८.१०.१
*जातकर्म : अथास्यायुष्यं करोति - दक्षिणं कर्णमभिनिधाय, वाग्वागिति त्रिः। अथास्य नामधेयं करोति - वेदोऽसि इति। - श.ब्रा. १४.९.४.२५
*- - - - - - - - कर्णयोः प्राशित्रहरणे उदरे पात्रीं संवर्तधानीम् - - - जैमिनीय ब्राह्मण १.४८
*जगत्यां प्रस्तुतायां गायत्रम् एव गायन् दिशः पशून् मनसा गच्छेत्। शुश्रूषेतैव कर्णाभ्याम्। इळा इति निधनं करोति। परोक्षेणैवैनान् तद् रूपेण गायति। - जै.ब्रा. १.१०४
*अथो आहुर् यावद् एव श्रोत्रं तावत्प्रावृत्योद्गायेद् इति। तद् उ वा आहुः कर्णाभ्यां वै शृणोत्य् अक्षिभ्यां पश्यति। - - - - - जै.ब्रा. १.१७४
*अधिकर्ण्या सोमं क्रीणन्ति। यथा ह वै कर्णेकर्णे अधिरूढम् एवं षोडशी स्तोत्राणाम्। सह वै षोडषिनं क्रीणीम इति वदन्तष् षोडशिनं क्रीणन्ति। यद् अधिकर्णी सोमक्रयणी भवति तैनैवैषां षोडशी क्रीतस् तेनावरुद्धः। अधिकर्ण्या सोमं क्रीणन्ति। सवनात्सवनात् सोमम् अतिरेचयन्ति। - - - - - यद् अधिकर्ण्या सोमं क्रीणन्ति यजमान एनं तेन प्रजनयति। - - - - जै.ब्रा. १.१९९
*अथ ह स्माह श्वेतकेतुर् आरुणेयो यथाश्वस्य श्वेतस्य कृष्णकर्णस्येत्थादानीतस्य रूपं स्याद् एवम् एवाहम् एतस्य स्तोमस्य रूपं वेद। - जै.ब्रा. १.२४९
*प्राण एव दिवाकीर्त्यम्। चक्षुषी भ्राजाभ्राजे। श्रोत्रं विकर्णम् (साम)। - जै.ब्रा. २.३७
*यद् अक्षिभ्यां तौ शार्दूलौ, यत् कर्णाभ्यां तौ वृकौ वैलूषौ, यद् उपपक्षाभ्यां ताव् अपाष्टिहौ। - जै.ब्रा. २.१५७
*अथैष शुनस्कर्णस्तोमः। शुनस्कर्णो ह वै वार्ष्ण्यकः पुष्यकृद् अपापकृद् आस। स ह चकमे - पुण्यम् एवास्मिन् लोके कृत्वापापंकृत्य स्वर्गं लोकं गच्छेयम् इति। - - - - - - - - - जै.ब्रा. २.१६७
*सा या सहस्रतमी स्यात् तस्यै कर्णम् आजपेद् इळे रन्ते महि विश्रुति शुक्रे चन्द्रे हव्ये काम्ये ऽदिते सरस्वत्य् एतानि ते ऽघ्न्ये नामानि, देवेषु नस् सुकृतो ब्रूताद् इति। - जै.ब्रा. २.२५१
*तस्य वा एतस्य ललाटाद् एव सिंहो ऽजायतोरसो ऽधि शार्दूल, - - - - - कर्णाभ्याम् अश्वकर्णौ, केसरेभ्य ऋक्षा ऋक्षीका, - -- - - - जै.ब्रा. २.२६७
*महादिवाकीर्त्यं पृष्ठं, विकर्णं ब्रह्मसाम। मध्यत एवास्य तत् तमो ऽपघ्नन्ति। - जै.ब्रा. २.३९०
*- - - - - प्लवस्व मेति होवाच न ते गाधा भविष्यामीति। सा (सरमा) हावाच्य कर्णौ प्लोष्यमाणा ससार। - - - - जै.ब्रा. २.४४१
*तासु कार्णश्रवसम्। इन्द्रो वृत्रं वज्रेणाध्यस्य नास्तृषीति मन्यमानस् स व्यस्मयत। तस्य कर्णौ समैषताम्। ताभ्यां नाशृणोत्। सो ऽकामयताबधिर स्यां, शृणुयां कर्णाभ्याम् इति। स एतत् सामापश्यत्। तेनास्तुत। ततो वै सो ऽबधिरो ऽभवद् , अशृणोत् कर्णाभ्याम्। सो ऽब्रवीद् अश्रौषं वै कर्णाभ्याम् इति। तद् एव कार्णश्रवसस्य कार्णश्रवसत्वम्। - जै.ब्रा. ३.१६३
*स ह वाव त्रिशोको यान् एवामूंस् त्रीञ् छोकान् अपाहन् सास्य त्रिशोकता। स ह स सद्य एवालोम्नो कर्णकान् पशून् अवारुन्द्ध। तद् एतत् पशव्यं साम। - जै.ब्रा. ३.१९८
*स त्रिशोकस् सद्य एवालोम्नो कर्णकान् पशून् उदसृजत। ते ऽत्राभ्यातप्ता न्यमृच्य न्यमहन्। सैषो प्राभवत्। - जै.ब्रा. ३.२३६
अध्वर्युयजमानौ दक्षिणेऽश्वकर्णे जपतो विभूर्मात्रेति कात्यायन श्रौतसूत्रम् २०.२.९
मथ्यमानश्चेन्न जायेत यमदूरात्पश्येत्तमाहृत्याभिजुहुयात् १ ब्राह्मणहस्ते वा २ वासानपनोदश्च ३ अजकर्णे वा दक्षिणे ४ – कात्यायन श्रौत सूत्रम् २५.४.४