The story is related with the development and process of human consciousness. It states that there exists a large potential in every person which brings heights to him. But this potential lies in sleeping state and it’s awakening depends on the capability of that person in the form of his goal joining with pure mental power.
Therefore, first of all, a person should have a definite goal of self development. He should take keen interest in that goal, should be concentrated on that goal and should be prayerful for the accomplishment of that goal.
This goal – centered consciousness(Kardama) attracts our divine thought power(Devahooti) and these two faculties joining together produce many special characteristics (daughters of Kardama and Devahooti) helpful in achieving that goal.
These special characteristics later on meet with that potential hidden deeply inside to produce much more. This whole process occurs automatically. The story also indicates that in long run, one more special incident takes place . Our own divine thought power, helping in the attainment of our goal, transforms in self – realization. The entity which endows with this transformation is called Kapila.
Here seers like Mareechi, Atri, Angiraa, Pulastya, Pulah, Kratu, Bhringu, Vasishtha and Atharva symbolize a consciousness having a definite goal of self – development. Devahooti symbolizes our divine thinking power and daughters of Kardama and Devahooti symbolize as harmony, love, faith, divinity, motion, action, fame, support and peace. Kapila is one who shakes and showers it’s grace.
कर्दम - देवहूति कथा - एक विवेचन
- राधा गुप्ता
श्रीमद्भागवत महापुराण के तृतीय स्कन्ध में अध्याय २१ से २४ तक कर्दम - देवहूति कथा विस्तार से वर्णित है । कथा का संक्षिप्त स्वरूप इस प्रकार है -
कथा का संक्षिप्त स्वरूप
ब्रह्मा जी ने भगवान कर्दम को सन्तान - उत्पत्ति के लिए आज्ञा दी । अतः कर्दम जी ने अन्तर्मुख होकर सरस्वती नदी के तट पर स्थित बिन्दुसर तीर्थ में दस हजार वर्षों तक तपस्या की । एकाग्रचित्त से श्रीहरि की आराधना करने पर श्रीहरि ने उन्हें दर्शन दिए। कर्दम जी ने ब्रह्मा जी की आज्ञा का स्मरण करते हुए श्रीहरि के समक्ष अपने अनुरूप स्वभाव वाली शीलवती कन्या से विवाह की इच्छा प्रकट की । श्रीहरि ने कर्दम जी की इच्छा का सम्मान तथा अनुमोदन करते हुए उन्हें स्वायम्भुव मनु की कन्या देवहूति के साथ शीघ्र ही विवाह होने का आश्वासन दिया और कहा कि देवहूति के संयोग से उन्हें ९ कन्याएं प्राप्त होंगी और उन कन्याओं के साथ विवाह करके मरीचि प्रभृति ऋषि सन्तान उत्पन्न करेंगे । श्रीहरि ने यह भी कहा कि तुम शुद्धचित्त से आत्म - ज्ञान प्राप्त करोगे तथा मैं भी तुम्हारे वीर्य का आश्रय ग्रहण कर अपने अंश कला रूप से तुम्हारी पत्नी देवहूति के गर्भ से अवतीर्ण होकर तत्त्व - संहिता का निर्माण करूंगा ।
कर्दम ऋषि से इस प्रकार सम्भाषण करके श्रीहरि अपने लोक को चले गए । स्वायम्भुव मनु पत्नी शतरूपा के साथ अपनी पुत्री देवहूति को लेकर कर्दम ऋषि के समीप पहुंचे । स्वायम्भुव मनु तथा कर्दम ऋषि ने एक दूसरे का यथोचित सम्मान किया तथा परस्पर बातचीत के पश्चात् मनु जी ने देवहूति को प्रसन्नतापूर्वक कर्दम ऋषि को दान कर दिया । स्वायम्भुव मनु एवं शतरूपा अपनी राजधानी बर्हिष्मती पुरी में लौट आए और देवहूति अपने पति कर्दम जी की सेवा में संलग्न हो गई । कर्दम जी ने देवहूति के साथ विहार करने के लिए एक श्रेष्ठ विमान की रचना की परन्तु देवहूति ने उस विमान को प्रसन्न चित्त से नहीं देखा । कर्दम जी देवहूति के हृदय का भाव समझ गए थे, अतः देवहूति को बिन्दु सरोवर में स्नान करने का निर्देश दिया । कर्दम जी के निर्देशानुसार देवहूति ने बिन्दु सरोवर में स्नान कर अत्यन्त निर्मलता प्राप्त की और अनुरागपूर्वक कर्दम जी के साथ विहार किया । आश्रम में लौटकर कर्दम जी ने भगवान के कथन का स्मरण कर स्वयं को नौ रूपों में विभक्त करके देवहूति के गर्भ में वीर्य स्थापित किया जिससे एक साथ नौ कन्याएं उत्पन्न हुई ।
इसी समय ब्रह्मा जी मरीचि आदि ऋषियों को साथ लिए कर्दम जी के आश्रम पर आए और कर्दम जी को अपनी नौ कन्याएं मरीचि आदि नौ ऋषियों को उनके स्वभाव और रुचि के अनुसार समर्पित करने का आदेश देकर चले गए । कर्दम जी ने ब्रह्मा जी की आज्ञानुसार अपनी कला नाम की कन्या मरीचि ऋषि को, अनसूया अत्रि ऋषि को, श्रद्धा अङ्गिरा ऋषि को, हविर्भू पुलस्त्य ऋषि को, गति पुलह ऋषि को, क्रिया क्रतु ऋषि को, ख्याति भृगु ऋषि को, अरुन्धती वसिष्ठ ऋषि को तथा शान्ति अथर्वा ऋषि को प्रदान कर दी । सभी ऋषि अपनी - अपनी पत्नियों को साथ लेकर अपने - अपने आश्रम लौट गए ।
देवहूति ने स्वयं भगवान् को ही गर्भ में धारण किया जो कपिल रूप में अवतीर्ण हुए । कर्दम जी ने भगवान् कपिल की स्तुति करके उनकी आज्ञा से वन को प्रस्थान किया और भगवद् भक्ति से सम्पन्न होकर परमपद को प्राप्त किया । देवहूति भी कपिल जी से तत्त्वज्ञान का उपदेश प्राप्त करके मोक्ष पद को प्राप्त हो गई ।
कथा का मूल भाव
प्रस्तुत कथा प्रतीक शैली में है और इस सामान्य से परन्तु महत्त्वपूर्ण तथ्य को इंगित करती है कि प्रत्येक मनुष्य अपने भीतर उन अनेक ध्रुव सम्भावनाओं, शक्तियों अथवा सामर्थ्य को समाहित किए हुए है जो उसे आध्यात्मिक उत्कर्ष तथा श्रेष्ठ व्यक्तित्व प्रदान करती हैं । ये ध्रुव सम्भावनाएं अथवा शक्तियां ईश्वर - प्रदत्त ही हैं, परन्तु अजाग्रत तथा अप्रकट हैं । यह मनुष्य की स्वयं की साधना तथा क्षमता पर निर्भर करता है कि वह स्वयं में निहित इन सम्भावनाओं को जाग्रत तथा प्रकट कर पाता है या नहीं । कर्दम - देवहूति कथा में इन सम्भावनाओं अथवा शक्तियों को मरीचि, अत्रि, अङ्गिरा, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु, भृगु, वसिष्ठ तथा अथर्वा ऋषि कहकर इंगित किया गया है ।
स्वयं में निहित इन सम्भावनाओं अथवा सामर्थ्य को जाग्रत अथवा प्रकट करने के लिए यह आवश्यक है कि मनुष्य सर्वप्रथम श्रेष्ठ व्यक्तित्व की प्राप्ति हेतु लक्ष्यनिष्ठ हो । उसी लक्ष्य में रसपूर्ण हो, उसी में एकाग्र हो तथा उसी की प्राप्ति हेतु ईश्वर के प्रति प्रार्थना के भाव से भरा हो । ऐसी स्थिति होने पर ही लक्ष्य - प्राप्ति में सहायक साधन स्वतः सिमटते चले आते हैं । फिर एक न एक दिन मनुष्य उस लक्ष्य - प्राप्ति में सहायक एक ऐसी ज्ञानशक्ति अथवा विचारशक्ति से संयुक्त हो जाता है जो उसी के शुद्ध, ऊर्ध्वमुखी मन के फलस्वरूप उद्भूत होती है तथा दिव्यता को आमन्त्रित करने की अद्भुत सामर्थ्य रखती है । ऐसी ज्ञानशक्ति से सम्पन्न हुए उस लक्ष्यनिष्ठ मनुष्य में शनैः शनैः उन शक्तियों का प्रादुर्भाव होता है जो उसके अन्तस् में निष्क्रिय अथवा अजाग्रत पडी विभिन्न सम्भावनाओं (चैतन्य स्थितियों ) को क्रियाशील तथा जाग्रत बनाकर व्यक्तित्व को श्रेष्ठत्व प्रदान करती हैं । व्यक्तित्व के इस श्रेष्ठत्व प्राप्ति रूप लक्ष्य के पूर्ण हो जाने पर कालान्तर में मनुष्य के भीतर एक ऐसी चैतन्य शक्ति का भी अवतरण हो जाता है जो उसकी दिव्य विचार शक्ति को ही तत्त्वज्ञान से परिपूरित करके आत्म - साक्षात्कार में रूपान्तरित कर देती है ।
कथा की प्रतीकात्मकता
अब हम कथा के प्रतीकों को समझने का प्रयास करें ।
कर्दम - कर्दम ऋषि श्रेष्ठ व्यक्तित्व की प्राप्ति रूप लक्ष्य - निष्ठ चैतन्य(जीवात्मा) का प्रतीक है । 'कर्द' का अर्थ है - कूडा अथवा कीचड तथा 'म' का अर्थ है - मार्जन करने वाला । चूंकि लक्ष्य निष्ठ चैतन्य से युक्त मनुष्य ही लक्ष्येतर कूडे को हटाकर स्व लक्ष्य में स्थित होता है, इसलिए उसका कर्दम नाम युक्तियुक्त ही है ।
देवहूति - देवहूति ऊर्ध्वमुखी उच्च मन(स्वायम्भुव मनु ) से उत्पन्न हुई ज्ञानशक्ति की प्रतीक है । यह ज्ञानशक्ति दिव्यता को आमन्त्रित करती है, इसलिए देव + हूति कहलाती है । देव का अर्थ है - दिव्यता तथा हूति का अर्थ है - आमन्त्रित करने वाली ।
सरस्वती - इस शब्द का अर्थ है - स + रस +वती अर्थात् रस से युक्त । कर्दम ऋषि का सरस्वती के तट पर स्थित होना लक्ष्य के प्रति चैतन्य की रसपूर्ण स्थिति को इंगित करता है ।
बिन्दु सर - बिन्दु का अर्थ है - चेतना का चारों ओर से सिमटकर बिन्दुमात्र अर्थात् एकाग्र हो जाना । कर्दम ऋषि का बिन्दुसर तीर्थ में निवास चैतन्य की लक्ष्य में एकाग्रता को इंगित करता है ।
स्वायम्भुव मनु - जैसा कि पूर्व लेख में कहा जा चुका है, स्वायम्भुव मनु ऊर्ध्वमुखी उच्च मन का प्रतीक है ।
बर्हिष्मती - बर्हिष्मती (बर्हि +मती) में बर्हि शब्द बृह धातु से बना है । बृह का अर्थ है - वर्धन तथा मती का अर्थ है - युक्त । अतः बर्हिष्मती का अर्थ हुआ - वर्धन युक्त । स्वायम्भुव मनु का बर्हिष्मती नामक राजधानी में निवास करने का अर्थ हुआ - ऊर्ध्वमुखी उच्च मन का सतत् वर्धन से युक्त होना ।
विमान - कथा में कहा गया है कि कर्दम जी ने श्रेष्ठ विमान की रचना करके देवहूति के साथ उसमें विहार किया । चूंकि कर्दम लक्ष्य - निष्ठ चेतना का प्रतीक है, अतः लक्ष्य - निष्ठ चेतना अपने लक्ष्य को पूरा करने के लिए जिस श्रेष्ठ चिन्तन तथा संकल्प पर सतत् आरूढ रहती है - उस श्रेष्ठ चिन्तन अथवा संकल्प को ही यहां विमान कहकर इंगित किया गया प्रतीत होता है ।
कर्दम एवं देवहूति की कन्याएं - लक्ष्य - निष्ठ चैतन्य जब उच्च मन से प्रसूत देवहूति रूपी ज्ञानशक्ति से सम्यक रूपेण संयुक्त होता है, तब मनुष्य की प्रकृति कतिपय विशिष्ट शक्तियों को धारण कर लेती है, उन्हें ही यहां कर्दम - देवहूति की कन्याएं कहा गया है । ये कन्याएं हैं - कला, अनसूया, श्रद्धा, हविर्भू, गति, क्रिया, ख्याति, अरुन्धती तथा शान्ति ।
मरीचि आदि ऋषि - मरीचि आदि ऋषि चैतन्य की विशिष्ट स्थितियों को इंगित करते हैं । यहां उनका मात्र परिचयात्मक स्वरूप ही प्रस्तुत है -
१- मरीचि - मरीचि शब्द मृ धातु में ईचि प्रत्यय लगने पर बना है जिसका अर्थ है - मि|यतेऽसौ मरीचि:, अर्थात् जो मृत अवस्था में है, वह मरीचि है । इसका तात्पर्य यह है कि उद्भूत चैतन्य के उद्भव से पूर्व जो मृत अवस्था है - वह मरीचि है । मरीचि को कला नामक कन्या प्रदान की गई । कला का अर्थ है - स्थूल - सूक्ष्म शरीर की सामञ्जस्य पूर्ण अवस्था । इस कला नामक अवस्था विशेष की सहायता से ही मरीचि रूप मृत अवस्था का विकास सम्भव होता है, जिसका प्राथमिक रूप कश्यप तथा चरम रूप पूर्णिमा कहलाता है ।
२- अत्रि - अत्रि शब्द अ तथा त्रि नामक दो वर्णों के योग से बना है । अ का अर्थ है - नहीं तथा त्रि का अर्थ है - सत्, रज तथा तम नामक तीन गुण । जब तक मनुष्य की चेतना मनोमय कोश तक सीमित रहती है, तब तक ये तीन गुण पृथक् - पृथक् अवस्था में विद्यमान रहते हैं परन्तु जब चेतना मनोमय कोश से ऊपर उठकर विज्ञानमय कोश में पहुंचती है, तब ये तीनों गुण सिमटकर एकाकारता को प्राप्त हो जाते हैं । यह एकत्व स्थिति ही चैतन्य की अत्रि अवस्था है । अत्रि ऋषि को अनसूया नामक कन्या प्रदान की गई । अनसूया शब्द की निरुक्ति दो प्रकार से की जा सकती है । प्रथम प्रकार में अन +सूया तथा द्वितीय प्रकार में अन् + असूया ।
३- अङ्गिरा - मानुषी त्रिलोकी अर्थात् अन्नमय, प्राणमय तथा मनोमय कोशों के अंग - अंग में बसी हुई चेतना के समुच्चय को अङ्गिरा ऋषि कहा जाता है । अङ्गिरा ऋषि को श्रद्धा नामक कन्या प्रदान की गई । श्रद्धा शब्द शृत् + धा से बना है । शृत् एक अव्यय है जो 'धा' क्रिया में विशिष्टता लाता है । और धा का अर्थ है - धारण करना । अतः श्रद्धा का अर्थ हुआ - विशिष्ट को, गुणों को धारण करना । मानुषी त्रिलोकी की निम्नतर चेतना के लिए गुणों का संधारण आवश्यक है ।
४ - पुलस्त्य - पुलस्त्य शब्द वास्तव में पुरस्त्य है । 'पुर' शब्द में फैलना अर्थ वाली 'स्त्य' धातु के योग से यह बना है, जिसका अर्थ है - पुर अर्थात् मन - बुद्धि का फैलाव जो चैतन्य की बहिर्मुखता को इंगित करता है । पुलस्त्य ऋषि को हविर्भू नामक कन्या प्रदान की गई । हविर्भू(हवि: + भू) का अर्थ है - देवों को दिए जाने वाले दिव्य अन्न(हवि) से उत्पन्न । हविर्भू ही मन - बुद्धि रूपी पुर के फैलाव को नियन्त्रित करने में समर्थ हो सकती है ।
५- पुलह - ऐसा प्रतीत होता है कि पुलस्त्य की विपरीत स्थिति ही पुलह(पुर+ह ) है । पुर के फैलाव के विपरीत चैतन्य की वह स्थिति जिसमें पुर का हनन अथवा ह्रास हो - पुलह कहलाती है । अर्थात् चैतन्य की अन्तर्मुखता ही पुलह है । पुलह ऋषि को गति नाम की कन्या प्रदान करने का अर्थ है - चेतना की अन्तर्मुखता में सतत् गति बनी रहे ।
६ - क्रतु - क्रतु ऋषि का अर्थ है - वह कर्म या यज्ञ जो फल उत्पन्न नहीं करता । क्रतु ऋषि को क्रिया नामक कन्या प्रदान करने का अर्थ है - फल का अनुत्पादक कर्म सतत् बना रहे ।
७- भृगु - भृगु ऋषि का अर्थ है - कर्म फलों को दग्ध करने वाली चैतन्य स्थिति । भृगु को ख्याति नाम की कन्या प्रदान की गई । ख्याति का अर्थ है - प्रसिद्धि । भृगु जैसी उच्च स्थिति के साथ ख्याति का जुडना स्वाभाविक ही है ।
८- वसिष्ठ - निरन्तर ऊर्ध्व दिशा की ओर अग्रसर चेतना वसिष्ठ कहलाती है । वसिष्ठ को अरुन्धती नामक कन्या प्रदान की गई । अरुन्धती (अ+रुन्धती) का अर्थ है - रुकावट का न होना । ऊर्ध्व दिशा में गतिशील रहने के लिए अरुन्धती का होना अनिवार्य है ।
९- अथर्वा - विज्ञानमय कोश गत चैतन्य जब निम्नतर कोशों में अवरोहण करता है, तब अथर्वा कहलाता है । अथर्वा को शान्ति नामक कन्या प्रदान की गई । तात्पर्य यह है कि शुद्ध, निर्मल चैतन्य का निम्नतर कोशों में अवतरण शान्ति के माध्यम से ही परिलक्षित हो पाता है ।
उपर्युक्त वर्णित विशिष्ट चैतन्य स्थितियों (ऋषियों ) के साथ विशिष्ट प्रकृति - शक्तियों ( मन - बुद्धि की शक्तियों ) ने संयुक्त होकर विशिष्ट गुण रूपी सन्तानों को उत्पन्न किया । उन विशिष्ट गुण रूपी सन्तानों का वर्णन यद्यपि इस कथा प्रसंग में नहीं है, परन्तु इससे एक महत्त्वपूर्ण तथ्य इंगित होता है । तथ्य यह है कि अकेला चैतन्य विशिष्ट गुण रूपी सन्तान उत्पन्न करने में समर्थ नहीं हो सकता क्योंकि वह बीज स्वरूप अथवा वीर्य स्वरूप अथवा पुरुष स्वरूप है । गुण रूपी सन्तान की उत्पत्ति तो मन - बुद्धि रूपी प्रकृति के संयुक्त होने पर ही सम्भव है । लौकिक - अलौकिक अथवा पार्थिव - अपार्थिव दोनों ही धरातलों पर यह नियम समान रूप से क्रियाशील है कि विस्तार प्रक्रिया चैतन्य और प्रकृति के सम्मिलन से ही सम्भव है । यहां तक कि परमात्मा को भी सृष्टि सृजन में परमात्मिका शक्ति का आश्रय लेना पडता है । अतः प्रस्तुत कथा से यह तथ्य अत्यन्त स्पष्ट होता है कि मनुष्य के भीतर विभिन्न चैतन्य स्थितियों के विद्यमान होते हुए भी वे स्थितियां तब तक जाग्रत होकर उच्चतर स्थितियों का निर्माण नहीं कर पाती, जब तक मन - बुद्धि की शक्तियों का उनके साथ संयोग नहीं हो जाता । अतः मनुष्य के लिए मन - बुद्धि की शक्तियों का विकास अपरिहार्य है । शेष क्रियाएं तो स्वयमेव घटित होती हैं ।
कर्दम ऋषि लक्ष्य - निष्ठ चैतन्य को इंगित करते हैं । लक्ष्य के प्राप्त होने तक ही लक्ष्य - निष्ठ चैतन्य क्रियाशील रहता है, लक्ष्य की पूर्णता होने पर वह स्वाभाविक रूप से लक्ष्य - निवृत्त ही है । चैतन्य की इस नियम आधारित लक्ष्य - निवृत्ति को ही कथा में कर्दम ऋषि का भगवान् की आज्ञा से वन में चले जाना कहा गया है ।
उपर्युक्त प्रकार से घटित प्रक्रिया के पश्चात् मनुष्य के शुद्ध मन से प्रसूत हुई देवहूति रूपी ज्ञानशक्ति की वही स्थिति नहीं रहती जो प्रक्रिया के घटित होने से पूर्व थी । मनुष्य की इस देवहूति रूपी ज्ञानशक्ति में एक ऐसी विशिष्ट चेतना अवतरित हो जाती है जो उसके रोम - रोम को कम्पायमान कर देती है । फलस्वरूप देवहूति रूपी ज्ञानशक्ति रूपान्तरित होकर स्व - स्वरूप को जानने (परम तत्त्व का साक्षात्कार ) में समर्थ हो जाती है । कम्पायमान करने वाली विशिष्ट अवतरित चेतना को ही कथा में कपिल भगवान् कहा गया है । कपिल (कम्प~ +ल) शब्द का अर्थ ही है - कम्प लाने वाली ।
KARDAMA
Kardama is a word which has become famous because of the story of Kardama and Devahuuti in 3rd canto of Bhaagavata puraana. Otherwise, except for Sri Suktam and one or two other places, kardama word hardly appears in vedic texts. Kardama is the name of mud, dirt, filth, sins in Sanskrit language. At grosser level of consciousness, sweat, foul smell etc. can be called kardama or mud. At finer levels, our sins can be called kardama. And there is a reason why the story of Kardama and Devhooti has been inserted in the 3rd canto of Bhaagavata puraana. As has been explained in context with rishi-chhanda , this canto may be connected with explanation of how to burn our sins, how to get rid of our sins. Here a sin means that action which is leaving its mark after it’s performance. Hindu mythology does not leave scope for any sins to be left out. It suggests ways to use sins for our own advantage. It contemplates the rise of a lotus from mud on which Lord Brahmaa is sitting. Here kardama or mud can be called a state of higher entropy at the level of consciousness. Rise of lotus is symbolic of rise of a state of lower entropy. How this can be achieved? A web seems to have been fabricated by puraanic texts for this purposes. The first step is that let a particular type of new moon day called Sineevaali become the wife of Kardama. Then, let this new moon day wife Sineevaali be able to raise her voice for calling gods( Devahooti). Then the last step is the birth of Kapila, one who can control irregular motions, trembling etc(Kapi is connected with generating motion, generating consciousness in inanimate objects or gross matter. This word is made from the root kapah, trembling). Kapila may be nothing but the lowering of entropy of the system. Why a particular type of new moon day has been made the wife of Kardama? The possible reason may be that on new moon day, moon is said to be absorbed by herbs on the earth and therefore, it becomes invisible in the sky. The esoteric meaning of this statement may be that this may be connected with the state when no mind is left free to wander in the outer world, as in dreams. All the mind is absorbed in the function of the body, in the intellect. The day of attainment of Lord Buddha was the day when he did not see any dreams. The new moon day wife of Kardama is connected with a day when moon is not totally lost on the new moon day. Some part of it remains visible. All this indicates that in modern scientific terms, kardama or mud can be considered as a complex quantity, x+iy where x is real and y is imaginary part. X can be absorbed in herbs/intellelct, but y can not. One has to make efforts that the generation of imaginary part is minimum. Modern philosophers call this unconscious mind. And mind has also been called a kapi/monkey.Kapila can control it. The other explanation of the new moon day may be that the sun, which represents life or praana, completely absorbs moon on that day.
कर्दम
टिप्पणी : काठक संहिता २५.७ में एक उपाख्यान है कि चार अग्नियों में से भूत नामक अग्नि देवों के डर से समुद्र में छिप गया । उसने समुद्र में जो भस्म उत्पन्न की, उससे कर्दम उत्पन्न हुआ । शिव पुराण आदि में भस्म के सम्बन्ध में कहा गया है कि अग्नि और सोम के मिलन से भस्म उत्पन्न होती है । देह के विभिन्न अङ्गों में यह अग्नीषोमीय भस्म उत्पन्न हो सकती है । काठक संहिता के आधार पर तो ऐसा लगता है कि भस्म से कर्दम/पंक/कीचड उत्पन्न हुआ, लेकिन पौराणिक व अन्य वैदिक संदर्भों के आधार पर कर्दम को अधिक अच्छी प्रकार से समझा जा सकता है । पुराणों में कर्दम की तीन पत्नियों का उल्लेख आता है - सिनीवाली, श्रुति और देवहूति । यह उल्लेखनीय है कि वैदिक साहित्य में इस पौराणिक संदर्भ से निकटता रखने वाला कोई संदर्भ प्रत्यक्ष रूप में प्रतीत नहीं होता । सिनीवाली उस अमावास्या का नाम है जिसमें अमावास्या के दिन चन्द्रमा (सूर्योदय से पूर्व? ) पूर्णतः अस्त नहीं होता । उसका कुछ अंश शेष रह जाता है । सिनीवाली शब्द का अर्थ स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि सिनी - प्रकाश और वाल - बिखरा हुआ, अवशिष्ट । पुराणों में सिनीवाली को स्मृति व अङ्गिरस की कन्या कहा गया है ( दूसरी ओर, कर्दम की पत्नी के रूप में श्रुति के भी उल्लेख आते हैं ) । सिनीवाली को और अधिक समझने के लिए पूर्णिमा व अमावास्या को भली प्रकार समझना होगा । अमावास्या के दिन चन्द्रमा का पृथिवी पर दिखाई देने वाला भाग अदृश्य हो जाता है । इस दिन चन्द्रमा और सूर्य का, या मन और प्राण का मिलन होता है । चन्द्रमा और अग्नि या मन और वाक् का मिलन इस दिन बहुत अल्पप्राय रह जाता है । दूसरी ओर, पूर्णिमा को अग्नि और सोम या वाक् और मन का मिलन होता है और उसके परिणामस्वरूप जो ज्योvति निकलती है, वह भौतिक जगत में दृश्यमान् पूर्ण चन्द्र की भांति दिखाई देती है । अमावास्या को सूर्य पूर्ण रूप से चन्द्रमा से, या प्राण मन से मिलन करता है । ऐसा अनुमान है कि प्राण का कुछ अंश चन्द्रमा से या मन से मिलन से अछूता रह जाता है और उसे ही कर्दम नाम दिया गया है । इस अवशिष्ट प्राण के साथ पुराणों में सिनीवाली या अवशिष्ट वाक्, श्रुति तथा देवहूति को जोडा गया है । क्या यह कर्दम पाप के फलस्वरूप बना है? ऐतरेय ब्राह्मण ३.४७ व ३.४८ में अनुमति व राका पूर्णिमाओं को गायत्री व त्रिष्टुप् तथा सिनीवाली व कुहू अमावास्याओं को जगती व अनुष्टुप् कहा गया है । वर्षा ऋतु का सम्बन्ध जगती से तथा शरद् का अनुष्टुप् से कहा गया है ( द्र. - ऋतु पर टिप्पणी ) । तैत्तिरीय आरण्यक में वर्षा ऋतु को कर्म फलों के बीजों को अंकुरित करने वाली कहा गया है । पुराणों के अनुसार सिनीवाली ही जन्मान्तर में कर्दम - पत्नी देवहूति, देव तत्त्व का आह्वान करने वाली बनी । यह अन्वेषणीय है कि व्यावहारिक रूप में सिनीवाली वाक् देवहूति वाक् कैसे बन सकती है ?
कात्यायन श्रौत सूत्र २५.८.२ में अस्थि संचयन के समय श्मशान में शमी, पलाश व कर्दम रखने का निर्देश है । श्मशान कर्मों के फलों को जलाने का स्थान है( शिव श्मशानवासी हैं ) । इससे संकेत मिलता है कि कर्दम का सम्बन्ध किसी प्रकार से कर्मों के फलों को जलाकर अस्थि, अस्तित्व मात्र अवस्था प्राप्त करने से भी है । जब तक कर्म फल बने रहेंगे, अस्तित्व मात्र अवस्था में अस्थिरता बनी रहेगी । पुराणों में कर्दम की एक पत्नी श्रुति का उल्लेख आता है और हो सकता है कि यह श्रुति पत्नी अस्तित्व मात्र अवस्था से सम्बन्धित हो । अमावास्या के दिन चन्द्रमा की सोलहवी कला का भी अस्तित्व रहता है और श्रुति सोलहवी कला से सम्बन्धित हो सकती है । लेकिन कर्दम का सिनीवाली से सम्बन्ध उसको अस्तित्व मात्र तक, समाधि अवस्था तक ही सीमित नहीं रखता । सिनीवाली जड पदार्थ को चेतन बनाने वाली, जड पदार्थ में गति उत्पन्न करने वाली भी है ( समाधि अवस्था को भी जड अवस्था के तुल्य माना जा सकता है ) । इसका एक प्रमाण तो यह है कि तैत्तिरीय ब्राह्मण १.७.२.१ के अनुसार अनुमति व राका पूर्णिमाएं तो संवत्सर रूपी चन्द्रमा में गर्भ धारण कराती हैं, जबकि सिनीवाली गर्भ का जनन करती है और कुहू अमावास्या गर्भ को वाक् प्रदान करती है । जनन कर्म को गति प्रदान करने के तुल्य कहा जा सकता है । तैत्तिरीय संहिता ४.१.५.३ आदि में सिनीवाली को सुकर्पदा आदि विशेषण दिए गए हैं जो अदिति को उखा प्रस्तुत करती है । सिनीवाली का सुकपर्दा विशेषण कपः, कम्प उत्पन्न करने, जड अवस्था में चेतना उत्पन्न करने का संकेत करता है । ऐसी सिनीवाली अदिति को उखा/उषा प्रदान करती है । उषा स्वयं जड अवस्था में चेतनता लाने वाली का प्रतीक है । लेकिन मुख्य तथ्य यह है कि चेतनता , कम्प उत्पन्न करने का यह कार्य सिनीवाली चन्द्रमा में ही करती है । अथर्ववेद १९.३१.१० में सिनीवाली को औदुम्बर मणि देने वाली कहा गया है । जैसा कि उदुम्बर शब्द की टिप्पणी में कहा गया है, उदुम्बर पापों से उबारने से सम्बन्धित है । अतः यह विचारणीय है कि सिनीवाली का कर्दम से सम्बन्ध किस सीमा तक पापों का नाश करने वाला है और कितनी सीमा तक जड स्थिति में चेतनता उत्पन्न करने वाला है । यह भी हो सकता है कि पापों का नाश करना और जड पदार्थ में चेतनता उत्पन्न करना एक ही घटना हो । जड पदार्थ में चेतनता उत्पन्न करने की चरम सीमा देवहूति कही जा सकती है । जैमिनीय ब्राह्मण १.२९६ में २ प्रकार की देवहूतियों का उल्लेख है - एक तो वह जो पृथिवी पर वनस्पति आदि के वर्धन के रूप में दिखाई पडती है, और दूसरी वह जो वृष्टि आदि के रूप में दिखाई देती है । एक को रथन्तर प्रकार की और दूसरी को बृहत् प्रकार की कहते हैं । लेकिन पौराणिक वर्णन इस संदर्भ में अद्वितीय है कि पुराणों में कर्दम और देवहूति के सम्बन्धों की चरम परिणति कपिल को जन्म देने के रूप में की गई है । कपिल - जो कपि को, जड पदार्थ में उत्पन्न चेतना को संयमित करे ।
वैदिक साहित्य में कर्दम शब्द बहुत कम प्रकट हुआ है । ऋग्वेद के खिल रूप श्रीसूक्त की ११वी व १७वी ऋचाओं में कर्दम को श्री या लक्ष्मी का पुत्र कहा गया है तथा प्रार्थना की गई है कि कर्दम हमारे अन्दर भी उत्पन्न हो । धातु कोश में कर्दम शब्द की व्युत्पत्ति कर्द - कुत्सिते, कुत्सित शब्दे से की गई है तथा इसे अपान वायु आदि से सम्बद्ध किया गया है । यद्यपि कर्दम को कीचड ही कहा जाता है, लेकिन कर्दम का अभिप्राय कर्द का मार्जन करने वाला भी लिया जा सकता है ।
स्कन्द पुराण ७.१.३५३ के वर्णन से कर्दम शब्द पर और अधिक प्रकाश पडता है । इस वर्णन के अनुसार वराह ने पृथिवी का उद्धार करने के लिए जब अपने दंष्ट्र पृथिवी में गडाए, उस भेदन से जल का प्रादुर्भाव हुआ । उस जल के फैलने से पृथिवी पर कर्दम बना । इस वर्णन में यह भी दिया गया है कि वराह/यज्ञवराह का दंष्ट्र किस का प्रतीक है । दंष्ट्र यज्ञ में यूप का प्रतीक है । यज्ञ में यूप का निर्माण किसी वृक्ष की शाखाओं का छेदन करके उसे दण्ड का रूप देकर किया जाता है । इस दण्ड की स्थापना वेदी के पूर्व में कर दी जाती है । इस यूप से पशुओं का संज्ञपन/वध करने से पूर्व उन्हें बांधा जाता है । इस यूप द्वारा पृथिवी का उद्धार करना संभव है । पुराणों में एक कथा आती है कि ब्रह्मा हंस पर बैठकर शिव के ज्योvतिस्तम्भ(यूप) के ऊपरी भाग के अन्त का अन्वेषण करने निकले और विष्णु वराह रूप होकर नीचे की ओर, लेकिन उन्हें अन्त का पता न लगा । वनस्पति वह प्राण है जिसका विकास पृथिवी से हुआ है । यह विकास ऊर्ध्वमुखी या अधोमुखी होना चाहिए, तिर्यक् दिशा में नहीं । जो विकास तिर्यक् दिशा में होता है, उसे कर्दम नाम दिया गया है । इसकी पुष्टि ऋग्वेद में श्रीसूक्त के अन्त के पश्चात् दिए गए एक श्लोक से होती है - 'आनन्द: कर्दम: श्रीतः चिक्लीत इव विश्रितः ।' अर्थात् कर्दम श्रित आनन्द का रूप है ।
प्रथम लेखनः- ९.९.२००८ई.