Word Kalaa can be understood on the basis of concept of phase of waves in modern science. When two waves meet each other, the resultant of the two depends on their initial phase. The two waves may meet each other in a destructive or constructive manner depending on their initial phase. Sanskrit word Kalaa can not be exactly equated with the word phase. Instead, Kalaa seems to indicate constructive interference of two waves. The destructive interference has been incorporated in the word Kalahaa, one who creates quarrel. There are stories where such type of tendencies have to be reformed for constructive ones. There is one interesting possibility that this type of interference in vedic and puraanic literature takes place between eternal waves and mortal waves. Or, this interference takes place in waves produced due to reverberation of eternal wave at mortal level.
There is universal statement of existence of 16 phases of moon, out of which 15 phases are mortal while the 16th one is immortal. 16th phase becomes the naval for other 15 phases. It has also been mentioned that out of 16, 8 phase are involved in inducement and the other 8 phases are involved in transformation into action. The resultant is 17th which is the essence, the juice, the ultimate. This puzzle of 16 phases of moon can be solved on the basis of about 51 letters of Sanskrit vocabulary, out of which there are 16 vowels and the rest are consonants. Consonants represent the grosser level of consciousness, while the vowels represent pure consciousness and these also form the 16 phases of moon. These vowels also represent the chakra of neck. Other chakras are represented by other consonants of the Sanskrit vocabulary.
It has been stated that for those involved in penances God appears along with phases, while those involved in knowledge, God appears without phases. But deep faith is essential in both conditions.
There is coming a new aspect of phase of basic electrical particles in modern physics. Particles like electrons have been stated to be having two opposite phases which are related with each other. If one phase is disturbed, the other gets disturbed automatically and simultaneously. This fact is being used to transmit information at very fast speed. The same fact can be transformed to explain the facts of puraanic stories. Kalaa has been stated to be the wife of sage Mareechi. Mareechi may be a type of sun ray involved in searching. This searching can be done easily with the help of Kalaa, the phase.
Regarding Kalasha/pitcher, it’s literal meaning is to transform an eternal, immortal event into a mortal one, where there is interference in it’s waves. Every article/matter, living or nonliving in this world is attracting world energy by acting itself as a Kalasha. Vedic mantras talk of transforming immortal soma into mortal soma by purifying it.
कला
टिप्पणी : कला शब्द के निहितार्थ को समझने का सबसे अच्छा उपाय आधुनिक विज्ञान में ध्वनि या विद्युत - चुम्बकीय तरंगों के विज्ञान को समझना हो सकता है । यदि किसी एक क्षण पर उत्पन्न ध्वनि की तरंग को दूसरे क्षण पर उत्पन्न हुई तरंग के साथ मिलाया जाता है, तो यह दोनों तरंगें मिलकर एक तीसरी तरंग का निर्माण करती हैं । ध्वनि की तरंग जब किसी पदार्थ के माध्यम से चलती है, जैसे वायु में या किसी ठोस में, तो उस पदार्थ के अणुओं का अपनी सामान्य स्थिति से विचलन होता है । दो तरंगों द्वारा एक ही अणु पर उत्पन्न विचलन अलग - अलग प्रकार का हो सकता है । एक तरंग अणु को एक दिशा में विस्थापित करेगी तो दूसरी तरंग उसी क्षण पर उससे उलटी दिशा में विस्थापित कर सकती है जो विनाशक स्थिति होगी । अथवा यह भी संभव है कि दूसरी तरंग पहली तरंग की दिशा में ही विस्थापित करे जो दोनों तरंगों का सहयोग कहा जाएगा । पौराणिक साहित्य में कलह या कलहा शब्द आता है । उदाहरण के लिए, धर्मदत्त विप्र ने कलहा का उद्धार किया था जिससे अगले जन्म में धर्मदत्त राजा दशरथ बना और कलहा उसकी पत्नी कैकेयी । कलहा वही स्थिति हो सकती है जब दो तरंगें मिलकर परस्पर विनाशक बनती हैं । यदि वह परस्पर सहयोग करने वाली बन जाती हैं तो उससे कैकेयी का जन्म होगा । डा. लक्ष्मीनारायण धूत के अनुसार कैकेयी शब्द कै - काय से बना है । कै धातु शब्द करने के अर्थ में प्रयुक्त होती है और काय यह काया रूपी वीणा है जिसमें यह शब्द झंकृत होता है । यह कै शब्द किस प्रकार का शब्द होगा, इस बारे में अनुमान है कि यह स्मृति के स्तर का शब्द है - श्रुति की प्रतिध्वनि । यह प्रतिध्वनि तभी संभव हो सकती है जब मर्त्य स्तर पर तरंगों को विनाशक संयोग से बचाया जाए, उन्हें परस्पर सहयोगी बनाया जाए ।
पद्म पुराण २.४१ में कृकल वैश्य की पत्नी सुकला की कथा आती है जिसमें कृकल तीर्थ यात्रा के लिए जाता है लेकिन पत्नी को साथ नहीं ले जाता । सती पत्नी सुकला अपने शरीर को सुखा डालती है । इन्द्र उसको अपने साथ रमण करने के लिए प्रलोभन देता है लेकिन धर्म सुकला की रक्षा करता है । इस कथा में कृकल को समझने के लिए कृकलास शब्द पर टिप्पणी द्रष्टव्य है । यास्काचार्य ने कृकवाकु, मुर्गे का उल्लेख किया है । कृकवाक् का अर्थ है जो ध्वनि प्रतिध्वनि से उत्पन्न हो रही हो, दूसरे शब्दों में हमारी मर्त्य स्तर की स्मृति । इस स्मृति स्तर की वाक् की रक्षा करने वाले को कृकल कहा जा सकता है । कृकल शब्द के अर्थ की पुष्टि के लिए राजा नृग द्वारा शाप के कारण कृकलास बनने की कथा पठनीय है । राजा नृग दान की गई गौ का पुनः दान करने से शाप के कारण कूप में कृकलास बने । दान - पुनः दान ध्वनि - प्रतिध्वनि का ही संकेत करता है । इन कथाओं के आधार पर यह कहा जा सकता है कि सुकला व कृकल की कथा में सुकला मर्त्य स्तर पर प्राणों की प्रतिध्वनि को सुरक्षित रखने से सम्बन्धित है, स्मृति को सुरक्षित रखने से सम्बन्धित है । तैत्तिरीय आरण्यक १०.१.२ में विद्युत पुरुष से निमेष, कला, मुहूर्त, काष्ठा, अहोरात्र आदि संवत्सर के अवयवों की उत्पत्ति का उल्लेख है । इस कथन में विद्युत पुरुष श्रुति का और निमेष, कला आदि स्मृति का प्रतीक हो सकते हैं । यहां यह भी संकेत मिलता है कि विद्युत पुरुष में काल/समय की स्थिति नहीं है ।
पौराणिक साहित्य में सार्वत्रिक रूप से चन्द्रमा को १६ कलाओं वाला कहा जाता है । इनमें से १५ कलाएं तो १५ तिथियां हैं जिनकी क्षय - वृद्धि होती रहती है और १६वी कला अक्षर है जिसके कारण क्षय को प्राप्त हुआ चन्द्रमा पुनः उत्पन्न हो जाता है । व्यावहारिक रूप में यह कथन अभी तक एक पहेली ही बना हुआ है । इस तथ्य का रहस्योद्घाटन अग्नि पुराण अध्याय ८४ तथा शिव पुराण में कला अध्वा के वर्णन से होता है । कला अध्वा में निवृत्ति, प्रतिष्ठा, विद्या, शान्ति और शान्त्यतीत नामक ५ कलाओं का शोधन किया जाता है । वर्णमाला के अक्षरों का इन कलाओं में विभाजन इस प्रकार किया गया है कि क वर्ण निवृत्ति कला का प्रतिनिधित्व करता है । ख से य तक के वर्ण प्रतिष्ठा कला के अन्तर्गत आते हैं । र, ल, व, श, ष, स वर्ण विद्या कला के अन्तर्गत आते हैं । ह और क्ष वर्ण शान्ति कला के अन्तर्गत आते हैं । अ से लेकर विसर्ग तक के अक्षर शान्त्यतीत कला के अन्तर्गत आते हैं । इन कलाओं के लिए इडा, पिङ्गला आदि नाडियों, रुद्रों, भुवनों, प्राण - अपान आदि प्राणों के नामों का उल्लेख है । इसके अतिरिक्त, पहली कला के लिए ब्रह्मा को कारण कहा गया है, दूसरी के लिए विष्णु को, तीसरी के लिए रुद्र को और चौथी के लिए स्वयं ईश को । पांचवी कला का कारण स्पष्ट नहीं है । अतः यह कहा जा सकता है कि कलाओं की स्थिति में कारण विद्यमान रहता है, चाहे वह कितने भी सूक्ष्म स्तर पर क्यों न हो । इन पांच कलाओं को क्रमशः जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति, तुरीय और तुरीयातीत कहा गया है । विशेष ध्यान देने योग्य तथ्य यह है कि सर्वोच्च कला शान्त्यतीत कला के लिए स्वर संज्ञक अक्षरों को प्रतिनिधि बनाया गया है । स्वरों की स्थिति विशुद्धि चक्र में, कण्ठ के चक्र में होती है जहां चेतना की स्थूलता समाप्त हो जाती है और एक प्राणी की चेतना दूसरे प्राणी की चेतना में सरलता से विलीन हो सकती है ( द्र. रजनीश - कृत कुण्डलिनी और सात शरीर) । ऐसा प्रतीत होता है कि जब पुराणों और वैदिक साहित्य में १६ कलाओं का उल्लेख किया जाता है तो उससे तात्पर्य इन्हीं सर्वोच्च १६ कलाओं से है जिनमें स्थूलता विद्यमान नहीं है । यह अन्वेषणीय है कि १६ कलाओं का १६ तिथियों, सोमयाग के १६ ऋत्विजों आदि के रूप में जो उल्लेख मिलता है, उससे १६ कलाओं के स्थूलता से रहित होने की पुष्टि होती है या नहीं ।
शतपथ ब्राह्मण १०.४.१.१६ का कथन है कि संवत्सर प्रजापति अग्नि है । उसकी ८ कलाएं सावित्र( प्रेरणा देने वाली) हैं और ८ कलाएं विश्वकर्मा प्रकृति की हैं । इन दोनों के मिलने से जो कर्म किया जाता है, उससे १७वें प्रजापति की उत्पत्ति होती है । कहा गया है कि जो रस उत्पन्न होता है, जो आहुतियों को आहूत किया जाता है, वही १७वां अन्न रूप प्रजापति है । १६ कलाओं को सोमयाग के १६ ऋत्विजों का रूप दे दिया गया है । साथ ही, लोम, त्वक्, असृक्, मेद, मांस, स्नायु, अस्थि व मज्जा के २ -२ अक्षरों को मिलाने से जो १६ अक्षर बनते हैं, उन्हें १६ कलाओं का रूप कहा गया है ।
छान्दोग्य उपनिषद ४.५ - ४.८ में १६ कलाओं के रूप में ४ दिशाएं, पृथिवी, अन्तरिक्ष, द्यौ व समुद्र, अग्नि, सूर्य, चन्द्र व विद्युत्, प्राण, चक्षु, श्रोत्र व मन का कथन है ।
ब्राह्मण ग्रन्थों का सार्वत्रिक कथन है ( शतपथ ब्राह्मण १४.४.३.२२ आदि ) कि संवत्सर पुरुष १६ कलाओं वाला है जिसमें १६वीं कला आत्मा है तथा १५ कलाएं इस पुरुष का वित्त हैं । आत्मा रूपी कला नाभि है तथा शेष १५ कलाएं इसकी परिधि हैं । पुराणों में चन्द्रमा की अमावास्या तिथि को प्राप्त होने वाली षोडशी कला की महिमा का अत्यधिक गुणगान किया गया है तथा ब्राह्मण ग्रन्थों में १५ को वज्र तथा १६ को वज्र को धारण करने वाला कहा गया है ( शतपथ ब्राह्मण ८.५.१.१० आदि ) । निष्कर्ष यह है कि १५ कलाओं का महत्त्व तभी है जब १६वीं कला रूपी नाभि से सम्बन्ध जुड जाए ।
षड्-विंश ब्राह्मण ४.६.२ के अनुसार कृष्ण पक्ष में देवगण चन्द्रमा की कलाओं का क्रमशः भक्षण करते हैं । उनके पास भक्षण के लिए तीन पात्र हैं - पृथिवी, अन्तरिक्ष और द्यौ । द्यु रूपी पात्र द्वारा आदित्य गण पहली पांच कलाओं का भक्षण करते हैं, अन्तरिक्ष पात्र द्वारा रुद्रगण द्वितीय पांच कलाओं का और पृथिवी पात्र द्वारा वसुगण तीसरी पांच कलाओं का । १६वीं कला जो अवशिष्ट रह जाती है, उसके द्वारा चन्द्रमा ओषधियों, वनस्पतियों, गौ, पशु, आदित्य, ब्रह्म, ब्राह्मण आदि में प्रवेश करता है ।
स्कन्द पुराण ५.१.६.४-७ में सकल और निष्कल देव के दर्शन का कथन है :
'त्रिविधो दर्शनोपायस्तस्य देवस्य सर्वदा । श्रद्धा ज्ञानेन तपसा योगेनैव निगद्यते ।। सकलं निष्कलं चापि देवा: पश्यन्ति योगिनः । तपस्विनस्तु सकलं ज्ञानिनो निष्कलं परम् । समुत्पन्नेऽपि विज्ञाने मन्दश्रद्धो न पश्यति । भक्त्या परमयोपेता: परं पश्यन्ति योगिनः । द्रष्टव्यो निर्विकारोऽसौ प्रधानपुरुषेश्वर: ।।'
इसका अर्थ हुआ कि तपस्वी गण सकल ब्रह्म का दर्शन करते हैं और ज्ञानी गण निष्कल ब्रह्म का । लेकिन दोनों स्थितियों में श्रद्धा होना आवश्यक है । सकल के संदर्भ में तप का क्या अर्थ हो सकता है, यह अन्वेषणीय है लेकिन सामान्य रूप से तप द्वारा वही कार्य किया जाता है जो लोक में अग्नि के द्वारा किया जाता है - कच्ची वस्तु को पकाना । श्रद्धा का भी मूल शृत - पकी हुई ही है । कैवल्योपनिषद १३ का कथन है कि सुषुप्तिकाल में सकल विलीन हो जाता है । मुण्डकोपनिषद २.२.९ के अनुसार परम कोश हिरण्मय कोश में निष्कल विरज ब्रह्म के दर्शन होते हैं ।
पुराणों में कला को मरीचि ऋषि की पत्नी कहा गया है । मरीचि शब्द मृ धातु से बनता है (उणादि कोश ४.७०) । मृ धातु मरण, गति, दीप्ति? आदि के अर्थों में है । मरीचि का अर्थ मृगयण, खोजना भी हो सकता है । संभवतः इसीलिए पुराणादि में मारीच राक्षस को मृग रूप धारण करते दिखाया गया है । अतः कला का कार्य मृगयण में, खोज में मरीचि की सहायता करना हो सकता है । यदि मरीचि अनुपस्थित रहेंगे तो कला मरीचि - शिष्य वरूथ के पास चली जाएगी । वरूथ रक्षा कवच को कहते हैं । हमारी सहज वृत्तियां लोभ, भय आदि हमारी रक्षा के लिए हैं । यही हमारे वरूथ हो सकते हैं । लेकिन पुराणों का कहना है कि इससे कला और वरूथ दोनों नष्ट हो जाते हैं । इनको नष्ट होने से बचाने का एक उपाय यह है कि एकादशी व्रत किया जाए । एकादशी व्रत में १० प्राणों को एकादशी तिथि रूपी आत्मा से जोड दिया जाता है । जैसा कि ऊपर संकेत किया जा चुका है, कला का उद्धार तभी संभव है जब वह श्रुति से जुड जाए । अतः एकादशी तिथि भी किसी प्रकार श्रुति से सम्बन्धित होनी चाहिए ।
आधुनिक विज्ञान में कला का एक दूसरा पक्ष भी सामने आ रहा है । वह है इलेक्ट्रान आदि विद्युत के सूक्ष्म कणों का, प्रकाश के तथाकथित कण फोटोन का कलाओं से युक्त होना । ऐसा अनुमान है कि इलेक्ट्रान एक कण होते हुए भी दो विपरीत भागों का संयोग है । एक भाग को दूसरे से पृथक् नहीं किया जा सकता । यदि एक भाग के साथ किसी प्रकार की छेडछाड की जाती है, तो उसका प्रभाव काल के अनपेक्ष दूसरे भाग पर भी हो जाएगा । इस तथ्य का उपयोग आधुनिक कम्प्यूटर विज्ञान में करने का प्रयत्न चल रहा है कि सूचना भेजने के लिए ऐसी २ गेंदों का, २ कणों का उपयोग किया जाए जो परस्पर किसी स्प्रिंग से जुडी हों, दो होते हुए भी एक हों । इससे टैलीपैथी संभव हो सकेगी । यह पाया गया है कि प्रकाश का कण ( फोटोन ) एक होते हुए भी २ होते हैं, वह २ भिन्न - भिन्न स्पिन वाले क्वाण्टा से बनता है । हाल ही में इलेक्ट्रान नामक विद्युत कण में भी ऐसे ही गुण पाए गए हैं । अतः कला को पुरातन विज्ञान का क्वाण्टा कहा जा सकता है । यह आत्मा से जुडी कला मरीचि के मृगयण में सहायता कर सकती है ।
ऋग्वेद में केवल ८.४७.१७(यथा कलां यथा शफं इति) में कला शब्द आया है तथा इस ऋचा के विभिन्न रूपों की अथर्ववेद तथा ब्राह्मण ग्रन्थों में पुनरावृत्ति हुई है । इस ऋचा में कला आदि की भांति दु:स्वप्न को समाप्त करने की कामना की गई है । जैसा कि अन्यत्र भी कहा जा चुका है, दु:स्वप्न सम्यक् ज्ञान के अभाव में हमारी अपूर्ण कामनाएं हैं । जैसा हम चाहते हैं, वैसा ही हमें बाह्य संसार में देखने को नहीं मिलता, यह दु:स्वप्न है । यदि हमारे पास आत्मा से जुडी कला हो तो हमें दु:स्वप्न देखने की आवश्यकता ही नहीं पडेगी । कला के माध्यम से टैलीपैथी द्वारा हम आभास प्राप्त कर सकेंगे ।
शतपथ ब्राह्मण ३.३.३.१, तैत्तिरीय संहिता ६.१.१०.१ आदि में गौ के कला, शफ आदि से सोम के क्रीणन का प्रयत्न किया जाता है जो ऋग्वेद की उपरोक्त ऋचा(यथा कलां यथा शफं इति) की ओर संकेत करता है । सम्यक् अर्थ अन्वेषणीय है ।
वेदों और ब्राह्मणों में कलाओं के नाम नहीं आए हैं । उपनिषदों तथा पुराणों ने इस कमी को पूरा किया है । प्रश्नोपनिषद ६.४ तथा छान्दोग्य उपनिषद ४.५.२ में १६ कलाओं के नाम दिए गए हैं ।
शतपथ ब्राह्मण १०.४.१.१६ का कथन है कि देवों के लिए जो अक्षर है, वह मनुष्यों के लिए कला है । शिव पुराण आदि में निवृत्ति आदि कलाओं के संदर्भ में विभिन्न शरीर चक्रों के पद्म दलों में स्थित अक्षरों का भी उल्लेख है । कला को अ - क्षर कैसे बनाया जा सकता है, यह पुरातन विज्ञान तथा आधुनिक कम्प्यूटर विज्ञान दोनों के लिए महत्त्वपूर्ण है । विष्णु पुराण में विष्णु को मुहूर्त व लक्ष्मी को कला कहा गया है ।
पुराणों व ब्राह्मण ग्रन्थों में विश्वरूप के तीन शीर्षों के काटने पर कपिंजल, कलविंक और तित्तिरि पक्षियों की उत्पत्ति का उल्लेख है । कहा गया है कि विश्वरूप जिस मुख से सुरापान करता था, उससे कलविंक पक्षी उत्पन्न हुए । कलविंक शब्द में विकि धातु गति अर्थ में है लेकिन विंकति का अर्थ नश्यति किया गया है । कलविंक को अल्प मद, गुदगुदी कहा गया है । तैत्तिरीय आरण्यक ३.११.४ में स्वर्ण कोश को अमृत से पूर्ण कला कहा गया है ।
काशकृत्स्न धातु कोश में कल धातु संख्याने, धारणे, क्षेपे, गतौ अर्थों में प्रयुक्त हुई है ।
प्रथम लेखनः- २८.१०.२००७ई.