KALI IN HINDU MYTHOLOGY
There is a common belief among Hindus that time since creation is divided into 4 major parts called Yugas. The first yuga is Kriyuga, the second Treta, third Dwapara and the fourth Kaliyuga. The basis of this belief is description in puranic and vedic texts. But it has been a practice among ancient composers that they expressed facts in a veiled manner. Let us see here how they have veiled the real meaning of Kali. In puranic texts, it is almost a universal context that Kali hid himself in the dice or play of dice. And this statement forms the key to understand Kali. As has been pointed out by Dr. Lakshmi Narayana Dhoot, the play of Dice is symbolic of the chance of an event in this nature. Any event in this nature is governed by chance. In Sanskrit language, the dice are called AKSHA. AKSHA in terms of language of modern science means axis. In the terminology of ancient composers, axis was considered mainly of a chariot. But now in terms of modern science, we know that axis in electrical and magnetic terms is one where all the lines of forces get concentrated. One can take the example of iron rod. All the magnetic lines of forces deviate from their path in the atmosphere to enter iron rod. So iron rod is a real axis. But if the iron metal is somehow impure, this quality is destroyed. The reason behind is that the magnet of iron rod is made of small – small magnets of iron atoms. These small magnets have the ability to align themselves in parallel to make a big magnet. But if impurity is added to iron, this property is lost. So, when puranic texts say that Kali entered into axis, it means that Kali has made the metal impure. Now axis can not be formed. But the question is what this example has to do with chance theory prevalent in nature? The answer is that when small magnets have aligned themselves, they have formed a big union, and chance theory applies the least over a union. Chance theory is generally true only when events are taking place in isolation. In spiritual context, one can say that when one loses concentration, he becomes a subject of Kali. Whatever has been said above to understand Kali, can be supported by the aphorism of Yaska which explains word Kali on the basis of root Krii – deviation or deflection. This is further supported by the wordings of Kaleya Sama which seeks to create a wider union.
कलि
टिप्पणी : पुराणों के अनुसार हम सब कलियुग में रहते हैं । अतः कलि एक व्यावहारिक विषय है जिसकी प्रकृति को समझने की आवश्यकता है । यास्क के निरुक्त ११.१२ में कलि की निरुक्ति कॄ - विक्षेपे के आधार पर की गई है ( कलिश्च कलाश्च किरते-र्विकीर्णमात्राः । किरते – कॄ- विक्षेपे)जो सारे वैदिक साहित्य में एकमात्र निरुक्ति है । पुराणों में कलियुग में धर्म की दुर्दशा और अधर्म की प्रतिष्ठा का अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन किया गया है जबकि वैदिक साहित्य में तो प्रत्यक्ष रूप से ऐसा कोई संकेत नहीं मिलता ( केवल ऋग्वेद ८.६६.१५ में कलियों द्वारा भयभीत न करने का उल्लेख है ) । नीचे पंक्तियों में हम यह जानने का प्रयास करेंगे कि पुराणों ने कलि के संदर्भ में वैदिक सूत्र वचनों की किस प्रकार व्याख्या की है । पहले हम यास्क की निरुक्ति और पुराणों के आधार को लेते हैं । कलि की निरुक्ति के लिए कॄ - विक्षेप को आधार बनाना कितना तर्कसंगत हो सकता है ? इसके लिए पुराणों की व्याख्या को आधार बनाना पडेगा । महाभारत वनपर्व नलोपाख्यान आदि में कलि द्यूत के अक्षों/पांसों में प्रवेश कर जाता है जिससे पुष्कर नल को द्यूत क्रीडा में हरा देता है । इसके पश्चात् कथा आती है कि नल ने कर्कोटक नाग की अग्नि से रक्षा की, अतःकर्कोटक नाग ने नल को डस कर काला बना दिया और कलि के भय से रहित कर दिया । फिर कथा में आगे जब राजा ऋतुपर्ण ने नल को अक्ष विद्या सिखा दी तो कलि नल के शरीर से निकल कर बाहर खडा हो गया । एक प्रकार से कहा जाए तो पुराणों में ऐसी कथाएं प्रचुर संख्या में हैं जिनमें कलि द्यूत के अक्षों में प्रवेश कर जाता है और वर्तमान काल में तो द्यूत का वर्जन ही कर दिया गया है । अक्ष क्या होते हैं, यह अक्ष शब्द की टिप्पणी में स्पष्ट किया गया है । वर्तमान भौतिक विज्ञान के युग में उससे भी आगे बढकर अक्ष को समझा जा सकता है । पहले अक्ष को समझाने के लिए गाडी के अक्ष के प्रतीक का सहारा लिया जाता था जिसके दोनों ओर २ चक्र घूमते हैं । वर्तमान विज्ञान में अक्ष या एक्सिस उसे कह सकते हैं जिसके अन्दर ऊर्जा का प्रवाहित होना सरल हो गया हो और ब्रह्माण्ड की सारी ऊर्जा उस अक्ष के माध्यम से प्रवाहित होने लगी हो । उदाहरण के लिए, जब लोहा चुम्बक बन जाता है तो ब्रह्माण्ड की सारी चुम्बकीय ऊर्जा उसके माध्यम से प्रवाहित होने का प्रयत्न करती है । धातु के तार से विद्युतीय ऊर्जा का प्रवाह होता है आदि आदि । लोहा चुम्बकीय अक्ष कैसे बनता है ? लोहे के अणुओं में यह गुण है कि वह अपने आप में सुई के आकार के छोटे - छोटे चुम्बक होते हैं जो अव्यवस्थित रूप से बिखरे पडे रहते हैं । इन सूच्याकार चुम्बकों को यदि किसी प्रकार से एक दिशा में व्यवस्थित कर दिया जाए तो उनके लघु शक्ति वाले चुम्बक मिल कर बहुत शक्तिशाली चुम्बक बन जाते हैं । अब यदि कोई ऐसी बाधा आए कि चुम्बक का निर्माण करने वाले अणु फिर अव्यवस्थित हो जाएं, एक दिशा में व्यवस्थित होने के बदले सब दिशाओं में बिखर जाएं तो चुम्बकीय अक्ष समाप्त हो जाएगा । कॄ - विक्षेपे का यही अर्थ हो सकता है कि वह अक्ष को समाप्त करने का प्रयास करे । और जब पुराण कहते हैं कि अक्षों में कलि का प्रवेश हो गया, तो उसका यही अर्थ हो सकता है । भौतिक जगत में विक्षेप को समझने के पश्चात् अपनी देह में भी विक्षेप को समझने का प्रयत्न किया जा सकता है । रजनीश, अरविन्द आदि आधुनिक चिन्तकों ने मन को दो भागों में बांटा है - चेतन मन और अचेतन मन । रजनीश ने विपश्यना ध्यान के महत्त्व को समझाने का प्रयास इस आधार पर किया है कि जो कार्य हम अचेतन मन के द्वारा कर रहे हैं, उन्हें चेतन मन के स्तर पर करना सीखें, किसी प्रकार से अचेतन मन पर से कार्य का बोझ हटा दें तो अचेतन मन फिर अपनी शक्ति का उपयोग ऊर्ध्वमुखी विकास में लगा सकता है । देह के स्तर पर कॄ - विक्षेपे के संदर्भ में कहा जा सकता है कि यह विक्षेप चेतन मन से अचेतन मन की ओर है । और यदि मन को बीच में न लाएं, तो चेतन से अचेतन की ओर है , अमृत से मृत्यु की ओर है । अचेतन जितना बढता जाएगा, मृत्यु उतनी ही निकट आती जाएगी । पुराणों में जब यह कहा जाता है कि कलियुग में धर्म की दुर्दशा और अधर्म की प्रतिष्ठा हो जाती है तो इसका अर्थ यह लिया जा सकता है कि जो कार्य ज्ञानपूर्वक किया जाता है, वह धर्म में प्रतिष्ठित होता है, जो अज्ञानपूर्वक किया जाता है, वह अधर्म में । किसी कार्य को करने का क्या विज्ञान है, यह धर्म है, उससे विपरीत अधर्म ।
जैसा कि अक्ष शब्द की टिप्पणी में कहा जा चुका है, वैदिक साहित्य में २ प्रकार के अक्ष हैं - एक कृत प्रकार के और दूसरे कलि प्रकार के । कृत प्रकार के अक्षों द्वारा धन को जीत कर यजमान ऋत्विजों को भोजन कराता है । दूसरी ओर पुराणों में कलि से युक्त अक्ष हैं जो सदा हराते ही हैं । डा.लक्ष्मीनारायण धूत ने स्पष्ट किया है कि सारे वैदिक और पौराणिक साहित्य में जो द्यूत शब्द है, वह अंग्रेजी भाषा के चांस शब्द के समकक्ष है । हमने कोई कार्य किया, उसमें सफलता भी मिल सकती है, असफलता भी । यह चांस है । और पूरी प्रकृति में द्यूत ही द्यूत है । लेकिन वैदिक साहित्य का कथन है कि यदि अक्षों में से कलि निकल जाए तो यह चांस बहुत कम हो जाता है, वह कृत बन जाता है, या यों कहें कि अब तो काम बन ही गया ।
ऐसा प्रतीत होता है कि वैदिक साहित्य में कलि के २ रूप हैं - एक बहुवचन में ( जैसे ऋग्वेद ८.६६.१५ तथा अथर्ववेद १०.१०.१३) तथा दूसरा एक वचन में । डा. फतहसिंह की विचारधारा के अनुसार एक वचन का रूप श्रेयस्कर होता है । एक वचन के कलि का उदाहरण अथर्ववेद ७.११४.१ है । इसके अतिरिक्त, ऋग्वेद सूक्त ८.६६ प्रगाथ के पुत्र कलि ऋषि का है और इसकी प्रथम २ ऋचाओं के आधार पर सामवेद में कालेय साम की रचना की गई है और सोमयाग आदि यज्ञों में कालेय साम गान बहुत महत्त्वपूर्ण है । कालेय साम का गान नौधस नामक ब्रह्मसाम के पश्चात् तृतीय सवन के आरम्भ होने से पूर्व किया जाता है । ताण्ड्य ब्राह्मण ८.३ में कहा गया है कि साध्य नामक देवगण तो यज्ञ में माध्यन्दिन सवन को सम्पन्न करने के पश्चात् ही देवलोक को चले गए, उन्हें शेष यज्ञ की आवश्यकता ही नहीं पडी । लेकिन अन्य देवों ने स्वर्ग प्राप्ति के लिए कालेय साम से आरम्भ करके तृतीय सवन को निष्पन्न किया । कालेय साम माध्यन्दिन सवन और तृतीय सवन के बीच सन्धि जैसा है । तृतीय सवन में मर्त्य स्तर की प्रतिष्ठा होती है, ऐसा कहा जा सकता है क्योंकि इसमें ऋभुओं की प्रतिष्ठा होती है जिन्होंने मनुष्य होते हुए भी देवत्व प्राप्त किया । कालेय साम का आरम्भ तरोभि: वो विदद्वसुम् इति शब्दों से होता है और इसकी व्याख्या में ताण्ड्य ब्राह्मण ८.३.३ में कहा गया है कि यहां तर: तो स्तोम हैं और विदद्वसु यज्ञ है ( जैमिनीय ब्राह्मण १.१५३ व १.१५५ में इससे उल्टा उल्लेख है । ऐसा क्यों है, यह अन्वेषणीय है ) । इस सूक्त का ऋषि प्रगाथ - पुत्र कलि है । प्रगाथ को शांखायन ब्राह्मण १५.४ व १८.२ में प्राणापानौ कहा गया है । प्रगाथ एक यज्ञ से बाहर की स्थिति कही जा सकती है, नृत्य की, आनन्द की स्थिति । यज्ञ में केवल श्रुति की प्रतिष्ठा होती है, यज्ञ के अन्त में किन्हीं अवसर विशेषों पर प्रगाथ की प्रतिष्ठा भी होती है । प्रगाथ को प्राणापानौ कहने से ऐसा प्रतीत होता है कि यह प्राण और अपान की सन्धि है । प्राण अपान में प्रवेश कर रहा है या अपान प्राण में । एकवचन वाले कलि को उत्पन्न करने के लिए यह सन्धि अनिवार्य है । अन्यथा बहुवचन वाले कलि ही उत्पन्न होते रहेंगे । योग में इस सन्धि की प्राप्ति के लिए बहुत से आसन व मुद्राएं आदि सुझाए गए हैं और यह एक व्यावहारिक विषय है । अपान का कार्य हमारी देह में भोजन को पचाना, उच्छिष्ट को बाहर निकालना आदि होते हैं । प्राण सूर्य है तो अपान अग्नि या पृथिवी । और सायं - प्रातः सन्ध्याकाल में अग्निहोत्र द्वारा प्राण की अपान में और अपान की प्राण में प्रतिष्ठा का कार्य सम्पन्न किया जाता है ( द्रष्टव्य : अग्निहोत्र शब्द पर टिप्पणी ) । यह यज्ञ की स्थिति है । मार्कण्डेय पुराण में कलि गन्धर्व और वरूथिनी अप्सरा की कथा अद्वितीय है । वरूथिनी अप्सरा अग्निहोत्री ब्राह्मण से समागम करना चाहती है लेकिन अग्निहोत्री इसके लिए तैयार नहीं है । दूसरी ओर, कलि गन्धर्व वरूथिनी अप्सरा का समागम चाहता है, लेकिन अप्सरा तैयार नहीं । अन्त में कलि अग्निहोत्री ब्राह्मण का रूप धारण कर वरूथिनी से समागम करता है । वरूथिनी अप्सरा को हमारी प्रकृति माना जा सकता है जो सदा सूर्य से प्राण रूपी ऊर्जा प्राप्त करके उसे संवर्धित करने को लालायित है । लेकिन उसे केवल छाया रूप में कलि ही प्राप्त हो पाता है । कलि और वरूथिनी के समागम से द्युतिमान्/स्वरोचि तथा स्वरोचि से स्वारोचिष मनु का जन्म होता है । स्वारोचिष मनु की पत्नी का नाम पुराणों में बहुला आया है जिसका स्वभाव अपने पति के अनुकूल नहीं है और जिसे अनुकूल बनाने के लिए विशेष प्रयत्न करने पडते हैं । इतना कहने के पश्चात् हम पुनः कालेय साम की ओर लौटते हैं । कलि और वरूथिनी के समागम से द्युतिमान् का जन्म होता है, जो स्वयं चमकता है । वेद के एक मन्त्र में आता है - अभि द्युम्नं बृहद् यशः इति । अतः यह कहा जा सकता है कि द्युति की स्थिति अभि, एकान्तिक स्थिति है, बृहद् अवस्था का यश नहीं बनी है । इसको बृहद् यश बनाने की आवश्यकता है । कालेय साम में प्रथम ऋचा का तीसरा पद बृहद् गायन्त: सुतसोमे अध्वरे है । अतः लक्ष्य बृहत् की प्राप्ति करना है । वैसे भी इस साम की व्याख्या करते समय ब्राह्मण ग्रन्थों ने इसे बृहत् कहने के लिए कईं कारण गिनाएं हैं । बृहत् का यह लक्ष्य कैसे प्राप्त हो ? लगता है कि इसकी कुंजी प्रथम पद में तर: और विदद्वसुम् में छिपी है । तर: को पुराणों का तल शब्द कहा जा सकता ( जैमिनीय ब्राह्मण में तर: की व्याख्या गौ की तुरीया वाक् के रूप में की गई है जो वह अपने वत्स के लिए उत्पन्न करती है ) । पुराणों में पृथिवी के सात तल कहे जाते हैं जिनमें विभिन्न प्रकार के प्राणियों के निवास हैं । आधुनिक विज्ञान के अनुसार जड पदार्थ में ऊर्जा के २ प्रकार के तल या स्तर होते हैं । यदि जड पदार्थ के अकेले परमाणु के संदर्भ में सोचा जाए तो उसकी नाभि के परितः ऊर्जा के कुछ स्थिर स्तर पाए जाते हैं जहां परमाणु के इलेक्ट्रान नामक विद्युत कण अपनी ऊर्जा का क्षय किए बिना अनन्त समय तक रह सकते हैं । ऊर्जा के एक स्तर से दूसरे स्तर को संक्रमण करना प्रकाश की ऊर्जा की प्राप्ति के बिना संभव नहीं हो पाता । लेकिन जो इलेक्ट्रान नाभि से सबसे कम जुडे होते हैं, वह प्रकाश से ऊर्जा पाकर क्षणिक् रूप में परमाणु से बाहर निकल सकते हैं । यहां द्यूत है, चांस है । दूसरी ओर, बहुत से परमाणुओं के परस्पर सहयोग से बने ठोस पदार्थ की स्थिति है जिसमें परमाणु की नाभि से सबसे कम जुडे इलेक्ट्रान परस्पर मिलकर मुख्य रूप से ऊर्जा के २ तलों का निर्माण करते हैं और ऐसा कहा जा सकता है कि इन तलों के अस्तित्व से इलेक्ट्रानों का एकल व्यक्तित्व समाप्त हो जाता है, वह एक समूह का अङ्ग बन जाते हैं । जब तक अकेला व्यक्तित्व है, द्यूत की संभावना बहुत अधिक है । जब समूह बन गया, बृहत् व्यक्तित्व हो गया, तो वहां द्यूत बहुत सीमा तक समाप्त हो जाती है । अतः कहा जा सकता है कि जब तक खण्डित इकाई रहेगी, कलि या द्यूत विद्यमान रहेगा । जब खण्ड समाप्त हो अखण्ड बन जाएगा तो वह कृत या अद्यूत हो जाएगा । संभवतः इसी कारण लोक में कहा जाता है कि संघे शक्ति: कलियुगे । अब पुनः कालेय साम पर लौटते हैं । इसके प्रथम पद में तरोभिर् वो विदद्वसुम् में तर: /तल: को स्तोम कहा गया है तथा विदद्वसुम् को यज्ञ । सामगान में स्तोम का निहितार्थ क्या होता है, यह अभी स्पष्ट नहीं हो सका है । लेकिन कहा जाता है कि देवगण स्तोमों द्वारा प्रगति करते हैं, मर्त्य जन उक्थों द्वारा ( द्रष्टव्य : उक्थ शब्द पर टिप्पणी ) । स्तोमों को चेतनाओं के समूह से निष्पन्न कहा जा सकता है तथा उक्थों को एकल चेतना से । अतः
कालेय साम में जब कहा जाता है कि तरों से वसु/धन को जान लिया या प्राप्त कर लिया, तो अप्रत्यक्ष रूप में प्रगाथ - पुत्र कलि ऋषि यही कह रहा है कि चेतना को सामूहिक बनाकर द्यूत को समाप्त किया जा सकता है और धन को जीता जा सकता है । वसु को जानना या जीतना ही मर्त्य स्तर का यज्ञ है । इसी ऋषि के सूक्त की अन्तिम ऋचा में ऋषि कामना करता है कि इन्द्र के लिए सोम का सोतन हो और उसे कलि भयभीत न करे । लगता है कि पूरे वैदिक साहित्य में केवल यही एक पद ऐसा है जहां पुराणों के अनुरूप कलियों से भय प्राप्त होने का प्रत्यक्ष रूप से उल्लेख है ।
पुराणों में कालिय नाग को कलि का अंश कहा गया है और कालिय नाग के संदर्भ में सामवेद का कालेय साम कितना उपयुक्त है, यह विचारणीय है ।
तैत्तिरीय ब्राह्मण १.५.११.१ में ४ स्तोमों को कृत तथा पांच को कलि कहा गया है । राजसूय यज्ञ में यजमान के हाथों पर पांच अक्ष रखते हैं और कहते हैं कि अभिभूरसि एतास्ते पंच दिशः कल्पन्ताम् (शतपथ ब्राह्मण ५.४.४.६) । इसकी व्याख्या में कहा गया है कि कलि ही अयानों का अभिभवन करने वाला है । पांच अक्ष क्या पांच इन्द्रियों के प्रतीक हैं जिन्हें अक्ष बनाना है, अथवा ५ दिशाओं से कोई अन्य तात्पर्य है, यह विचारणीय विषय है । इस कथन की टीका में सायण का मत है कि जब पांच अक्ष/पांसे सीधे/उत्तान पडें तो वह स्थिति अयानःअभिभू: की होती है । पांच अक्ष कलि के लिए पांच दिशाओं के प्रतीक हैं । लेकिन स्वतन्त्र रूप से चिन्तन करने पर, उत्तान शब्द की टिप्पणी में अयानः को मनुष्य व्यक्तित्व पर ( तेज से ) निर्मित होने वाले छत्र आदि कहा गया है । जब तक प्राण और अपान की सन्धि बनी रहती है, यह अयानः स्थिर रहते हैं । जैसे ही भोजन आदि के कारण व्यवधान से प्राण और अपान की सन्धि भङ्ग होती है, तेज से बने अयानः का क्षय हो जाता है । यह कहा जा सकता है कि अयानः की रचना के लिए एक वचन वाले कलि का रूप उत्तरदायी है । कलि द्वारा अयानः के अभिभवन का क्या तात्पर्य है, यह अन्वेषणीय है ।
कलि
ॐविकिलेद् वि रोहतु वृकाम: कलित्य् अर्जुन । गिरिं गच्छ धूमकेतो ऋषेण मां स संदते । बृहत् त्वम् अग्ने रक्षो अधि सं जहि मध्यमम् उत्तमम् शृणीहि ।। - पैप्पलाद संहिता ४.२४.६
ॐउभौ हस्तौ प्रतिदीव्नो ब्रह्मणा रोम्भामसि । कलिर् एनं यथा हनद् आस्य वेदो भरामहै ।। आ भद्रं द्वापरम् उत त्रेतां परा कलिम् । कृतं मे हस्त आहितम् अमू सौमनसो सहा ।। - पै.सं. १.४९.२-३
ॐइदमुग्राय बभ्रवे नमो यो अक्षेषु तनूवशी । घृतेन कलिं शिक्षामि स नो मृडातीदृशे ।। - अथर्ववेद ७.११४.१ /७.१०९.१
ॐसं हि सोमेनागत समु सर्वेण पद्वता । वशा समुद्रमध्यष्ठाद् गन्धर्वै: कलिभि: सह ।। - अ. १०.१०.१३
ॐश्रद्धा पुंश्चली मित्रो मागधो विज्ञानं वासोऽहरुष्णीषं रात्री केशा हरितौ प्रवर्तौ कल्मलिर्मणि: ।। - अ. १५.२.५
ॐउषा: पुंश्चली मन्त्रो मागधो विज्ञानं वासोऽहरुष्णीषं रात्री केशा हरितौ प्रवर्तौ कल्मणिर्मणि: ।। - अ. १५.२.१३
ॐयाभिर्वम्रं विपिपानमुपस्तुतं कलिं याभिर्वित्तजानिं दुवस्यथ: । याभिर्व्यश्वमुत पृथिमावतं ताभिरू षु ऊतिभिरश्विना गतम् ।। - ऋग्वेद १.११२.१५
ॐतरोभिर्वो विदद्वसुमिन्द्रं सबाध ऊतये । बृहद्गायन्त: सुतसोमे अध्वरे हुवे भरं न कारिणम् ।। - ऋ. ८.६६.१
ॐसोम इद्व: सुतो अस्तु कलयो मा बिभीतन । अपेदेष ध्वस्मायति स्वयं घैषो अपायति ।। - ऋ. ८.६६.१५
ॐयुवं विप्रस्य जरणामुपेयुष: पुनः कलेरकृणुतं युवद्वय: । युवं वन्दनमृश्यदादुदूपथुर्युवं सद्यो विश्पलामेतवे कृथ: । - ऋ. १०.३९.८
ॐतेभ्य ( देवेभ्य: ) एतत्साम प्रायच्छदेतेनैनान् ( असुरान् ) कालयिष्यध्वमिति तेनैनानेभ्यो लोकेभ्योऽकालयन्त यदकालयन्त तस्मात्कालेयं । - ताण्ड्य ब्राह्मण ८.३.१
ॐसाध्या वै नाम देवा आसँस्तेऽवछिद्य तृतीयसवनम्माध्यन्दिनेन सवनेन सह स्वर्गं लोकमायँस्तद्देवा: कालेयेन समतन्वन्यत्कालेयं भवति तृतीयसवनस्य सन्तत्यै । - तां.ब्रा. ८.३.५
ॐसर्व्वाणि वै रूपाणि कालेयं यत्पदप्रस्तावन्तेन राथन्तरं यद् बृहतो रोहान् रोहति तेन बार्हतं यत् स्तोभवान् प्रतिहारस्तेन बार्हतं यद्रवदिडन्तेन राथन्तरँ सर्वेष्वेव रूपेषु प्रतितिष्ठति । - तां.ब्रा. ८.३.७
ॐकालेयं पुरस्ताद्भवति सँहितमुपरिष्टादेताभ्याँ हि तृतीयसवनँ सन्तायते । - तां.ब्रा. ८.४.१०
ॐकालेयं भवति समानलोके वै कालेयञ्च रथन्तरञ्चेयं वै रथन्तरं पशव: कालेयमस्याञ्चैव पशुषु च प्रतिष्ठाय सत्रमासते । द्रवदिडं तथा ह्येतस्याह्नोरूपँ स्तोम: । - तां.ब्रा. ११.४.१०
ॐकालेयमच्छावाकसाम भवति । समानलोके वै कालेयञ्च रथन्तरञ्चेयं वै रथन्तरं पशव:
कालेयमस्याञ्चैव पशुषु च प्रतिष्ठायोत्तिष्ठन्ति स्तोम: । - तां.ब्रा. १५.१०.१५
ॐकालेयं प्रथमस्याह्णोच्छावाकसाम माधुच्छन्दसं द्वितीयस्य - - - - - तां.ब्रा. २१.९.१५
ॐ- - - - - - ते देवा नौधसम् । ते ऽसुरा: कालेयम् । तान् कालेय एवान्वभ्यवायन् । तान् कालेयेनैव कालेयाद् अकालयन्त । यद् अकालयन्त तत् कालेयस्य कालेयत्वम् । कालयते वै द्विषन्तं भ्रातृव्यं य एवं वेद । ते ( असुरा: ) दिशो व्युदसीदन् । तान् कालेयेनैवानुपर्यायम् अकालयन्त । यद् अनुपर्यायम् अकालयन्त तच~ चैव कालेयस्य कालेयत्वम् । अनुपर्यायम् एव द्विषन्तं भ्रातृव्यं कालयते य एवं वेद । तरो वै यज्ञस् स्तोमो विदद्वसु: । यज्ञेन च वाव ते तान् स्तोमेन चाकालयन्त । - जैमिनीय ब्राह्मण १.१५३
ॐदेवलोकम् एव देवा अभजन्त पितृलोकं पितरो मनुष्यलोकं मनुष्या: । तत् कलयो गन्धर्वा एत्याब्रुवन्न~ अनु न एषु लोकेष्व~ आभजतेति । नेत्य् अब्रुवन् । अनाद्रियमाणा वै यूयम् अचारिष्ट नेतरान् नेतरान् आद्रियमाणा इति । अथ वै वो मनसान्वासिष्मह इत्य् अब्रुवन्न~ अन्व~ एव न आभजतेति । नेत्य् अब्रुवन् । - - - - - - -तेभ्य एता कलिन्दा: प्रायच्छन्न~ एतासु श्राम्यतेति । तद् यत् कलिभ्य: कलिन्दा: प्रायच्छंस् तत् कलिन्दानां कलिन्दत्वम् । स एतत् कलिर् वैतदन्यस् सामापश्यत् । तेनास्तुत । तेनेमम् अवान्तरदेशं दुर्यन्तं लोकम् अपश्यत् । तम् अजयत् । - - - यद् उ कलिर् वैतदन्यो ऽपश्यत् तस्मात् कालेयम् इत्य् आख्यायते । - - - - - - सोमो ह खलु वै राजा कालेयम् । सदेवो हास्य यज्ञो भवति । यथा ह वा इदं बद्धवत्सा हिंकरी तुरीयत्य् एवं ह वाव तम् इन्द्रस् सोमम् आगच्छति यस्मिन् कालेयेन स्तुवन्ति । - जै.ब्रा. १.१५५
ॐअथ कालेयम् ऐळम् । पशवो वा इळान्नं पशव: । यद् एव जाताभ्यो ऽन्नाद्यं प्रतिधीयते तद् एवैतत् । - जै.ब्रा. १.३०५
ॐअथाकूपारम् । अकूपारो वै कश्यपः कलिभिस् सह समुद्रम् अभ्यवैषत् । तस्मिन् प्रतिष्ठाम् ऐच्छत् । - - - - ततो वै स समुद्रे प्रतिष्ठाम् अविन्दतेमाम् एव पृथिवीम् । ततो ह स्म वै तस्य कलयः पृष्ठ आसते । - जै.ब्रा. ३.२७३
ॐये वै चत्वार: स्तोमा: । कृतं तत् । अथ ये पञ्च । कलि: स: । तस्माच्चतुष्टोम: । - तैत्तिरीय ब्राह्मण १.५.११.१
ॐअक्षराजाय कितवम् । कृताय सभाविनम् । त्रेताय आदिनवदर्शम् । द्वापराय बहि:सदम् । कलये सभास्थाणुम् । - तै.ब्रा. ३.४.१६.१
ॐ- - -तम् ( रोहितं ) इन्द्र: पुरुषरूपेण पर्येत्योवाच - कलि: शयानो भवति संजिहानस्तु द्वापर: । उत्तिष्ठंस्त्रेता भवति कृतं संपद्यते चरंश्चरैवेति । - ऐतरेय ब्राह्मण ७.१५
ॐतस्मा( इन्द्राय ) एतामासन्दीं समभरन्नृचं नाम तस्यै बृहच्च रथंतरं पूर्वौ पादावकुर्वन्वैरूपं च वैराजं चापरौ शाक्वररैवते शीर्षण्ये नौधसं च कालेयं चानूच्ये - - - - ऐ.ब्रा. ८.१२
ॐकालेयमच्छावाकस्य तद्वा ऐलं बृहतीषु कुर्वन्ति पशवो वा इळा पशवो बृहतीर्बार्हताः पशव: पशूनामेवाऽऽप्त्या - शाङ्खायन ब्राह्मण २९.३
ॐकालेयमच्छावाकस्य तस्योक्तं ब्राह्मणं - शां.ब्रा. २९.७
ॐअथास्मै पञ्चाक्षान् पाणावावपति - अभिभूरस्येतास्ते पञ्च दिशः कल्पन्ताम् इति । एष वाऽअयानभिभू: - यत्कलि: - एष हि सर्वानयानभिभवति । - शतपथ ब्राह्मण ५.४.४.६
ॐएकविंशमच्छावाकस्य कालेयं च रैवतं च सामनी अन्यतरेणान्यतरत्परिष्टुवन्ति - बौधायन श्रौत सूत्र १८.१५
ॐअभिभूरित्यस्मै पञ्चाक्षान्पाणावाधाय पश्चादेनं यज्ञियवृक्षदण्डैः शनैस्तूष्णीं घ्नन्ति । - कात्यायन श्रौत सूत्र १५.७.५
ॐसजाताय कलिङ्गाम् - कात्यायन श्रौत सूत्र १५.७.१९
ॐकालेयमच्छावाकस्य । तरोभिर्वस्तरणिरित्सिषासतीति स्तोत्रियानुरूपौ प्रगाथौ - शाङ्खायन श्रौत सूत्र ७.२४.२
ॐकालेयं रैवतगर्भमच्छावाकस्य । गर्भं पूर्वं शंसेदिति हैक आहुरथात्मानमिति । आत्मानं त्वेव पूर्वं शंसेत् । आत्मानं वा अनु गर्भ: । - शां. श्रौ.सू. १५.७.५
ॐकलि: शयानः पुरुष: संजिहानस्तु द्वापर: । उत्थितस्त्रेता भवति कृतं संपद्यते चरन् । चरैव रोहितेति । - शां.श्रौ.सू. १५.१९.
प्रथम लेखनः- १३.२.२००२ई., संशोधनः- २४.१.२००५ई.