KALKI
In puraanic texts, there is a universal mention of an incarnation of Lord Vishnu named KALKI at the end of the present period Kaliyuga. This story about Kalki can be taken on its face value or one can go beyond the apparent facts to understand the reality what puraanic texts want to convey. The root of word Kalki can be traced to root krika or karka. Authority Yaska has interpreted the word krikavaku as having the meaning to translate, but in deeper sense as reverberations. Whenever there is a reference of Sanskrit word karka or English word Cancer, the meaning is the same – reverberation, to produce a copy of the original. The cells of our body are constantly being reproduced automatically. But in reproduction, there is an inside hidden story also. It is not the case that a cell all at once reproduces his exact copy. There may be going a constant process of reproduction and destruction, and after production, only those cells are allowed to live which are almost exact copy. Others are killed. Whenever this killing process gets weakened, one catches Cancer disease.
In the realm of consciousness, puraanic texts seem to talk of a situation when one is unable to have the contact with his highest level of consciousness. In that case, one has to carry on with what he had learnt when he was having that contact. This is called Shruti and the other situation is called Smriti. Smriti is the reverberation of Shruti. So, Kaliyuga is a period of Smriti only. No Shruti will be heard now. How to utilize this period best? Puraanic text suggest that let there be an incarnation of Vishnu called Kalki sitting on a horse name Devadatta. In Hindu mythology, Devadatta is the situation of a broader consciousness which is not the highest level but higher than mind or manas. Let all our actions be governed by that Kalki. It is important that the phenomenon of chance is prevalent in Kaliyuga, but this gets weakened by the incarnation of Kalki.
कल्कि
टिप्पणी : कल्कि के संदर्भ में अथर्ववेद ४.३८.६ व ७ में कर्की वत्सा गौ का उल्लेख आता है और कर्की के सम्बन्ध में वैदिक साहित्य में यही एकमात्र उल्लेख है । इस सूक्त के आरम्भ में अप्सराओं से ग्लह/द्यूत में अक्षों को कृत करने की प्रार्थना की गई है । फिर सूक्त के अन्त में कर्की वत्सा की रक्षा करने का उल्लेख है । पुराणों में कल्कि को कलियुग का अन्त करने वाले, म्लेच्छों का वध करने वाले के रूप में प्रदर्शित किया गया है । कल्कि को समझने के लिए कर्क शब्द को समझना उपयुक्त होगा । कर्क शब्द की स्पष्ट निरुक्ति उपलब्ध नहीं है । उणादि कोश ३.४० में कृ के आधार पर निरुक्ति का प्रयत्न किया गया है । वैदिक पदानुक्रम कोश में कर्कृ धातु का सुझाव दिया गया है । लेकिन व्यवहार के आधार पर कर्क शब्द की निरुक्ति कृक के आधार पर की जा सकती है । यास्क ने कृकवाकु शब्द की व्याख्या अनु-वाद या प्रतिध्वनि रूप में की है । जब सूर्य कर्क राशि पर आता है तो दक्षिणायन का आरम्भ होता है । दक्षिणायन के अधिकांश काल में देव शक्तियां सोई रहती हैं और उनसे सीधे शक्ति प्राप्त नहीं होती । अपितु संचित शक्ति से ही काम चलाना पडता है । और देवों से प्राप्त शक्ति को अधिकतम रूप में संचित कैसे किया जाए, इसका प्रबन्ध करना पडता है । दूसरे शब्दों में, कर्क राशि में सूर्य के आने पर श्रुति समाप्त हो जाती है और स्मृति का साम्राज्य हो जाता है । श्रुति को आपात् काल में अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए यह आवश्यक है कि उसकी प्रतिध्वनि लगातार होती रहे, वह स्मृति रूप में बनी रहे । सामान्य रूप से होता यह है कि प्रतिध्वनि आरम्भ में तो बहुत तीव्र होती है, फिर मन्द पडती जाती है । भौतिक जगत के इस उदाहरण का प्रतिरूप हम अपनी देह में भी खोज सकते हैं । चक्रों रूपी ऊर्जा के स्तरों पर विभाजित शरीर के जो चक्र जाग्रत रहते हैं, उनमें तो प्रतिध्वनि हो सकती है, लेकिन मूलाधार जैसे चक्र जिनकी प्रकृति अधिकांश में जड होती है और जो हमारी देह के पाद आदि अधोभाग को नियन्त्रित करते हैं, में प्रतिध्वनि की आशा कठिनता से ही की जा सकती है । और इस संदर्भ में डा. श्रीकान्त एग्बोटे द्वारा दी गई सूचना का उल्लेख करना उपयोगी होगा कि विभिन्न प्रसिद्ध संगीतज्ञों के विभिन्न चक्र नैसर्गिक रूप में जाग्रत कहे जाते हैं, जैसे लता मंहोशकर का विशुद्धि चक्र जाग्रत कहा जाता है, स्वामी हरिदास का मूलाधार चक्र जाग्रत था आदि ।
यह बहुत महत्त्वपूर्ण है कि कर्क शब्द की व्याख्या में अनु-वाद या प्रतिध्वनि का कोई साधारण अर्थ नहीं है । वर्तमान चिकित्सा विज्ञान के अनुसार हमारे शरीर की कुछ कोशिकाएं, जैसे मस्तिष्क की, तो ऐसी होती हैं जो जन्म समय में जैसी उत्पन्न हुई थी, अन्त तक वही रहती हैं, नई उत्पन्न नहीं होती । इसके विपरीत, शरीर की अधिकांश कोशिकाएं २७ - २८ बार अपनी प्रतिकृति बनाती हैं और तब नष्ट हो जाती हैं । २७ - २८ बार विभाजन में यह आश्चर्यजनक है कि प्रत्येक बार एक कोशिका ठीक अपने जैसी कोशिका का ही निर्माण करती है, उसमें जरा भी चूक नहीं होती । जहां चूक हुई कि कैंसर रोग उत्पन्न हो जाता है । डा. एस.टी. लक्ष्मीकुमार ने सूचित किया है कि यही स्थिति स्त्री - पुरुष के समागम से उत्पन्न भ्रूण की भी होती है । एक भ्रूण माता के गर्भ में स्थापित होने से पूर्व बहुत सा द्यूत चलता है और जब तक भ्रूण का बिल्कुल ठीक प्रतिरूप तैयार न हो जाए, गर्भ उसका निष्कासन करता रहता है जिसे गर्भपात कहते हैं । ४ में से लगभग तीन बार गर्भ भ्रूण को अनायास निष्कासित कर देता है । और यह विचित्र ही है कि अंग्रेजी भाषा का कैंसर और संस्कृत का कर्क एक ही अर्थ और एक ही निहितार्थ रखते हैं । अभी हाल में कृत्रिम भ्रूण से एक भेड का निर्माण किया गया है जिसको अल्पायु में ही गठिया हो गई है । कहा जा रहा है कि जहां सामान्य स्थिति में एक कोशिका २७ - २८ बार अपनी प्रतिकृति बनाती है, इस भेड में कोशिकाएं केवल १७ - १८ बार ही ऐसा कर पाती हैं । इसका निहितार्थ यह हुआ कि भविष्य में यह व्यवस्था भी संभव हो सकती है कि एक कोशिका अपने अनन्त प्रतिरूप बनाने में समर्थ हो जाए । और हो सकता है कि भारतीय संस्कृति में जो योगियों की दीर्घायु के उल्लेख आते हैं, उनका मूल भी यही हो ( ऋग्वेद १०.३९.८ में अश्विनौ द्वारा कलि को युवावस्था प्रदान करने का उल्लेख है ) । इस संदर्भ में यह उल्लेखनीय है कि नयी कोशिकाओं के बनने में हमारी अस्थियों के अन्दर स्थित मज्जा की भूमिका विशेष रूप से महत्त्वपूर्ण होती है । मज्जा पर नियन्त्रण करके नयी कोशिकाओं के जन्म को बिल्कुल रोका जा सकता है, जैसा कि आजकल कैंसर व्याधि की चिकित्सा में किया जाता है । अथर्ववेद ७.११४.१/७.१०९.१ में घृत द्वारा कलि को शिक्षा देने का उल्लेख है । घृत भी मज्जा का ही रूप है क्योंकि गरुड पुराण में मज्जा में घृत सागर की स्थिति कही गई है । घृत या मज्जा जितनी सशक्त होगी, कलि या द्यूत या विक्षेप की संभावना उतनी ही कम होगी ।
अथर्ववेद १०.१०.१३ में वशा गौ का उल्लेख है जो समुद्र के बीच से कलि गन्धर्वों के साथ उठ खडी हुई है । वशा उस गौ को कहते हैं जो वत्स उत्पन्न नहीं करती, बांझ गौ । दूसरी ओर, अथर्ववेद ४.३८.६-७ में कर्की गौ सवत्सा है । क्या इन मन्त्रों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि जब कलि या द्यूत की स्थिति हो तो गौ का वशा होना ही श्रेयस्कर है और जब कर्की स्थिति हो तो उसका सवत्सा होना उपयुक्त है ? वत्स को गौ की संसार में अभिव्यक्ति मान सकते हैं ।
कर्क अवस्था को कैसे विकसित किया जाए, इसका समाधान पुराणों ने कल्कि को प्रमति विष्णु का अवतार कह कर दिया है । एक अनुमति है, एक प्रमति । अनुमति के लिए अनुमति शब्द पर टिप्पणी द्रष्टव्य है । संक्षेप में, किसी कार्य को करने से पूर्व हमें स्वयं से पूछना चाहिए कि हम उसे करने के लिए कितने प्रतिशत तैयार हैं । अच्छे से अच्छा काम करने में भी हम कुछ समय के पश्चात् थक कर वह कार्य छोड देते हैं । इसका अर्थ हुआ कि हमारा सारा व्यक्तित्व हमें उस कार्य को करने की अनुमति नहीं दे रहा है । या यह कहा जा सकता है कि हमारा सारा व्यक्तित्व खण्डों में बंटा है और प्रत्येक की अपनी एक मति है । सब मतियां मिलकर अनुमति नहीं बन पाती । फिर, अनुमति प्राप्त करने में धोखा भी हो सकता है । उदाहरण के लिए, यदि हम फीकी दाल - रोटी खाने बैठें तो सारा व्यक्तित्व उसके विरुद्ध विद्रोह करता है लेकिन जब वही वस्तु हम नमक मिला कर ग्रहण करते हैं तो व्यक्तित्व तुरन्त उसे स्वीकार करने की अनुमति दे देता है । विद्रोह वास्तविक था कि वह वस्तु वर्तमान समय में हमारे व्यक्तित्व के अनुकूल नहीं है । लेकिन इस विद्रोह को दबाने की युक्ति हमें ज्ञात है । और जब सम्यक् अनुमति के बिना हम अपने व्यक्तित्व के लिए कोई वस्तु स्वीकार करेंगे, तो वह कलि का, विक्षेप का वर्धन करेगी, हमारे अक्ष रूपी व्यक्तित्व में विक्षेप उत्पन्न करेगी । दूसरी ओर प्रमति है जिसके संदर्भ में ऋग्वेद १.९४.१ में कहा गया है कि संसद में प्रमति भद्र हो । डा. फतहसिंह के अनुसार एक सभा होती है जिसमें प्रत्येक सदस्य के विचार भिन्न भी हो सकते हैं । लेकिन सं-संद में प्रत्येक सदस्य का विचार एक जैसा होता है । ऋग्वेद १.५३.५ में देवी, गोअग्रा, अश्वावती प्रमति का उल्लेख है । अथर्ववेद ७.२१ सूक्त अनुमति का है जिसके ५वें मन्त्र में प्रमति का भी उल्लेख है ।
पुराणों में कल्कि को देवदत्त नामक श्वेत अश्व पर सवार होते कहा गया है जिस पर आरूढ होकर वह सारे म्लेच्छों का संहार करता है । अश्व के संदर्भ में देवदत्त का उल्लेख कोई साधारण उल्लेख नहीं है । भगवद्गीता में युद्ध के आरम्भ में अर्जुन को देवदत्त नामक शंख बजाते कहा गया है । ब्रह्मविद्योपनिषद ६७ में ज्ञानेन्द्रियों को नियन्त्रित करने वाली ५ प्राण वायुओं नाग, कृकल, कूर्म, देवदत्त व धनञ्जय का उल्लेख है ( जबकि अन्य ५ वायुएं प्राण, अपान आदि कर्मेन्द्रियों से सम्बन्धित कही गई हैं ) । इनमें सामान्य रूप से देवदत्त वायु को निद्रादि ( त्रिशिखब्राह्मणोपनिषद २.७७ ), तन्द्रा ( जाबालदर्शनोपनिषद ४.३४), विजृम्भण( योगचूडामणि उपनिषद २३ ) से सम्बद्ध किया गया है लेकिन आत्माvपनिषद ७ में देवदत्त को स्पष्ट रूप से विज्ञान से सम्बन्धित कहा गया है । अतः कल्कि का वाहन विज्ञान रूपी अश्व है । स्वयं कल्कि शब्द का भी किसी प्रकार से कृकल वायु से, कृक या प्रतिध्वनि का लालन करने वाला, उसका नियन्त्रण करने वाला, से सम्बन्ध हो सकता है ।
पुराणों में कल्कि को सम्भल ग्राम में विष्णुयशा ब्राह्मण के घर में उत्पन्न कहा गया है । यहां यश शब्द महत्त्वपूर्ण है । अभि द्युम्नं बृहद् यशः इति मन्त्र में अभि द्युम्नं का सम्बन्ध तो कलि से जोडा जा चुका है । शेष बृहद् यशः को कलि का नाश करने वाले कल्कि से सम्बद्ध किया जा सकता है । यश की स्थित बृहत् की स्थिति है, चेतनाओं का समूहीकरण, अखण्डता । डा. लक्ष्मीनारायण धूत ने गीता ९.५ के इस संदर्भ की ओर ध्यान दिलाया है कि ईश्वर ने अपने को भूतों के रूप में छोटी - छोटी इकाइयों में बांट लिया । लेकिन क्या यह सब भूत मिलकर फिर उस ईश्वर की प्रतिकृति बन सकते हैं ? डा. धूत के अनुसार गीता ९.५ से यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि ऐसा संभव नहीं है । एक वैदिक मन्त्र(अथर्ववेद १४.२.६७) में सम्भल स्थान पर मल त्याग का तथा कम्बल में दुरित के त्याग का निर्देश है । सम्भल का शुद्ध रूप शम्भर होगा । ऐसा अनुमान है कि शं रोगों के, विष के शमन से सम्बन्धित है जबकि कम्बल कं, आनन्द के भरण से । हमारे शरीर में विष का शमन प्रतिविष द्रव्य(एण्टीबांडीज) द्वारा किया जाता है । सामान्य स्थिति यह है कि जितने प्रतिविष कणों की हमें आवश्यकता होती है, उतने उत्पन्न नहीं हो पाते । इसी कारण रोग हमें जकड लेते हैं । यदि सर्प काट ले तो उसके विष का शमन करने के लिए तुरन्त भारी मात्रा में प्रतिविष कणों की आवश्यकता होती है जिसकी पूर्ति आधुनिक चिकित्सा विज्ञान में घोडों के शरीर से निकाले गए प्रतिविष कणों द्वारा की जाती है । तीर्थंकर महावीर के बारे में उल्लेख आता है कि सर्प उन्हें काटता रहा और उन पर कोई प्रभाव नहीं हुआ । इसी प्रकार के कथन योगियों, मीरा आदि भक्तों के बारे में भी मिलते हैं ।
प्रथम लेखनः- १३.२.२००२ई.