CREATE AS YOU IMAGINE

      In puraanic texts, there are often references and stories of a celestial tree under which one immediately achieves whatever he imagines. This can be called a unique imagination of puraanic texts because this concept does not exist in vedic texts. But, true to their purpose, puranic texts have expounded in an interesting way only whatever has been mentioned in a complex way in vedic texts. The concept behind creation with imagination seems to be that if one wants to create something by doing any kind of work for it, then there will be increase in entropy, or the degree of disorder. This is not allowed in heavenly world. So, vedic texts have devised ways through which one can create without increase in entropy. And these ways seem to be, in the language of vedic texts - Yagna. Yagna is nothing but to perform some work in a best possible manner, those manners with which we are not yet familier, the method of resonance.

      Kalpa is one of those words which have been often used by vedic texts. This multiplicity of different kinds of kalpas of vedic texts has been summarized in about 34 kalpas by puranic texts. At first glance, it appears as if kalpa is measure of time in puraanic texts. But as we go deeper and take vedic texts as the base, it becomes clear that the classification of kalpas in puraanic texts is aimed at illustrationg their different properties according to vedic texts.


      कल्प

      टिप्पणी लोक व्यवहार में किसी विशिष्ट वस्तु के निर्माण को कल्पन कहा जाता है, जैसे चित्र का कल्पन । कल्पन में पहले किसी स्वरूप की मन से कल्पना की जाती है और फिर उसे कर्म द्वारा वास्तविक स्वरूप प्रदान किया जाता है । लेकिन पुराणों और वेदों में कल्प शब्द का क्या स्वरूप है, यह समझना होगा । धातु शास्त्र के अनुसार कल्प, क्लृप्ति आदि शब्द कृपू या क्लृप् - सामर्थ्ये से बने हैं और वेद मन्त्रों में जहां भी क्लृप्ति, कल्प आदि शब्द प्रकट हुए हैं, सायणाचार्य द्वारा उनका अर्थ समर्थ होना ही किया गया है । जैसी कल्पना मन से की जाए, उसको वास्तविक रूप देने में समर्थ होना इस धातु का अर्थ हो सकता है । लेकिन पुराण और वेद इससे भी आगे जाकर कल्पन का अर्थ स्पष्ट करते हैं । भविष्य पुराण के अनुसार जब कर्मभूमि का लय हो जाता है, जब कल्पना को बिना कर्म किए ही, केवल ज्ञान द्वारा ही मूर्त्त रूप मिल जाता है, वह कल्पन कहलाता है । इसकी पुष्टि का संकेत ऋग्वेद १०.२.३ से मिलता है जहां विद्वान् अग्नि अध्वरों व ऋतुओं का कल्पन करती है ।ऋग्वेद १०.५२.४ में विद्वान् अग्नि यज्ञ का कल्पन करती है । भविष्य पुराण इससे भी आगे जाकर कहता है कि महाकल्प में सर्वभूमि का लय हो जाता है । इसका अर्थ यह हो सकता है कि महाकल्प में कर्म के साथ - साथ ज्ञान का भी लय हो जाता होगा । कल्पन में कर्म अवांछित क्यों है, इसकी व्याख्या भौतिक विज्ञान के एण्ट्रापी के सिद्धान्त पर अन्यत्र टिप्पणियों में की जा चुकी है । संक्षेप में, कर्म से एण्ट्रापी में, संसार की अव्यवस्था में वृद्धि होती है, संसार की ऊर्जा अनुपयोगी होती जाती है, अतः कर्म अवांछित है । तैत्तिरीय ब्राह्मण ३.७.११.५ के अनुसार जो ज्ञात है और जो अनाज्ञात है, उसका भी कल्पन अग्नि द्वारा संभव है ।

      पुराणों में काल के अल्पतम विभाग से आरम्भ करके संवत्सर, युग, मन्वन्तर, कल्प आदि की कल्पना की गई है । एक कल्प के काल में १४ मनुओं का समय व्यतीत हो जाता है? यह विचित्र तथ्य है कि वैदिक साहित्य में कल्पन में मनुओं का नाम प्रत्यक्ष रूप से कहीं नहीं आता । शतपथ ब्राह्मण ८.१.४.८ तथा तैत्तिरीय ब्राह्मण ३.७.५.७, तैत्तिरीय आरण्यक ४.१९.१ में अहोरात्रों, मासों, अर्धमासों,ऋतुओं तथा संवत्सर द्वारा आहवनीय अग्नि रूपी सुपर्ण का कल्पन किया गया है । लेकिन संवत्सर से आगे काल का कल्पन नहीं किया गया है । उपनिषदों में मन, प्राण और वाक् को एक साथ लिया जाता है । इनमें से वाक् के कल्पन के संदर्भ में तैत्तिरीय ब्राह्मण २.३.२.२, ३.६.५.१, ३.७.४.१७ उल्लेखनीय हैं । वाक् की क्लृप्ति इसलिए आवश्यक है कि वाक् द्वारा क्षुधा आदि का ज्ञान होता है । प्राणों के कल्पन के संदर्भ में शतपथ ब्राह्मण ८.२.३.३, ९.३.३.१२, १४.८.१४.३, तैत्तिरीय ब्राह्मण १.६.७.४, २.३.२.२, गोपथ ब्राह्मण १.४.६, २.६.८ उल्लेखनीय हैं । तैत्तिरीय संहिता ४.७.१०.१ में वसुधारा होम के संदर्भ में मन, प्राण और वाक् तीनों तथा इसके अतिरिक्त आयु, चक्षु आदि का यज्ञ के द्वारा कल्पन करने का उल्लेख है, लेकिन शतपथ ब्राह्मण ५.२.१.४ में मन, प्राण और वाक् में केवल प्राणों का ही उल्लेख है । तैत्तिरीय ब्राह्मण १.२.१.१८ में समनस अग्नियों द्वारा वसन्तऋतु के कल्पन तथा तैत्तिरीय ब्राह्मण २.६.३.४ में समान समनस पितरों के कारण यज्ञ के देवों हेतु कल्पन का उल्लेख है । पुराणों में मनु अथवा मन्वन्तरों के कल्पों से सम्बन्ध के संदर्भ में यह कहा जा सकता है कि मन से साथ उ या ॐ जोडने से मनु शब्द बनता है । अथर्ववेद १.२४.५ में उ सु की साधना द्वारा रूप के कल्पन का उल्लेख आता है ।ऋग्वेद १०.२.३ में अध्वरों व ऋतुओं का कल्पन करने वाली अग्नि को ॐ होता कहा गया है । ॐ एक तादात्म्य की, अंग्रेजी में रेजोनेन्स की स्थिति हो सकती है ।

      वसुधारा होम के संदर्भ में तैत्तिरीय संहिता ४.७.१०.१ आदि में यज्ञ द्वारा आयु, प्राण, वाक्, मन, चक्षु, श्रोत्र आदि के कल्पन का सार्वत्रिक उल्लेख आता है । यहां यज्ञ द्वारा कल्पन के तथ्य की व्याख्या यह हो सकती है कि यज्ञ कर्म करने की एक ऐसी व्यवस्था है जिसमें एण्ट्रापी में वृद्धि न्यूनतम होती है अथवा बिल्कुल नहीं होती । लेकिन छन्दों व सामों, स्तोमों आदि के द्वारा स्वयं यज्ञ का कल्पन कैसे करना होगा, इस सम्बन्ध में जैमिनीय ब्राह्मण आदि में प्रचुर सामग्री उपलब्ध है ।ऋग्वेद १०.५२.४ तथा अथर्ववेद ४.२३.२, १९.५९.३ में विद्वान् अग्नि द्वारा तथा १०.१५७.२ में आदित्य व इन्द्र द्वारा यज्ञ के कल्पन का उल्लेख है । शतपथ ब्राह्मण ९.३.२.६ के अनुसार यज्ञेन कल्पताम् कहने से तात्पर्य आत्मना कल्पताम् से है ।

      वायु पुराण में भवादि ३४ कल्पों के नाम दिए गए हैं । वैदिक ऋचाओं में जितने प्रकार के कल्पनों का उल्लेख मिलता है, उनमें से बहुतों का समावेश इन ३४ कल्पों के नामों में कर दिया गया है । उदाहरण के लिए, ऋग्वेद १०.२.३ में तथा अन्यत्र भी अग्नि द्वारा ऋतुओं के कल्पन के उल्लेख हैं । वायु पुराण में षष्ठम् कल्प के रूप में ऋतु कल्प का तथा षोडश कल्प के रूप में षड्-ज कल्प का उल्लेख है । अथर्ववेद ९.४.१४ में ऋषभ के कल्पन का उल्लेख है जिसे वायु पुराण में लगता है कि ऋषभ स्वर वाले १५वें कल्प के रूप में स्थान दिया गया है । अथर्ववेद ८.९.१० में विराज के कल्प का उल्लेख है । वायु पुराण में १९वें कल्प के रूप में वैराज कल्प का नाम है । अथर्ववेद १३.१.४६ व ५३ में रोहित सूर्य द्वारा भूमि का वेदि के रूप में कल्पन आदि का उल्लेख है । वायु पुराण में २९वें कल्प के रूप में श्वेत लोहित, ३०वें कल्प के रूप में रक्त, ३१वें कल्प के रूप में पीत, ३२वें कल्प के रूप में कृष्ण कल्पों के उल्लेख हैं । २३वें कल्प के रूप में चिन्तक / चिति कल्प का उल्लेख है । शतपथ ब्राह्मण ८.१.४.८ में सुपर्ण रूपी आहवनीय अग्नि का चिति रूप में कल्पन किया गया है । यह विचारणीय है कि प्रथम तथा परवर्ती अन्य कल्पों को भव, भुव: आदि नाम किस प्रकार दिए गए हैं ।

      अन्यत्र पुराणों में प्रथम महाकल्प के रूप में श्वेत वाराह कल्प का उल्लेख मिलता है । अथर्ववेद १३.१.४६ व ५३ में भूमि का वेदि के रूप में कल्पन का उल्लेख है । अतः यह संभव है कि श्वेत यज्ञ वाराह की कल्पना भूमि को वेदी बनाने के लिए की गई हो । लेकिन अन्य महाकल्पों के नामों के रूप में नृसिंह, राम, कृष्ण आदि की कल्पना पुराणों में कैसे की गई है, यह अन्वेषणीय है ।

      भागवत पुराण में ध्रुव व भ्रमि के पुत्र कल्प के उल्लेख के संदर्भ में अथर्ववेद ६.८८.३ के ध्रुव सूक्त में संमनस दिशाओं द्वारा ध्रुव के लिए समिति के कल्पन का उल्लेख है । डा. फतहसिंह के अनुसार समिति वह है जहां सभी सभासदों के विचार एक से हो जाते हैं, जबकि सभा में विचारों में भिन्नता हो सकती है ।

      वैदिक साहित्य में सार्वत्रिक रूप से(अथर्ववेद १२.१.५५, १३.२.३३, १८.४.७, तैत्तिरीय आरण्यक ५.६.५, तैत्तिरीय ब्राह्मण ३.७.५.७, शतपथ ब्राह्मण ५.४.४.६ आदि) दिशाओं के कल्पन अथवा दिशाओं द्वारा कल्पन के उल्लेख आते हैं । यह आश्चर्यजनक है कि दिशाओं के कल्पन का इतना व्यापक उल्लेख होते हुए भी पौराणिक साहित्य में दिशाओं के कल्पन का प्रत्यक्ष रूप में कोई उल्लेख नहीं है । तैत्तिरीय आरण्यक ५.६.५ मेंऋतुओं का दिशाओं के सापेक्ष कल्पन करने का उल्लेख है और इस कारण हो सकता है कि पुराणों में दिशाओं का प्रत्यक्ष उल्लेख न करके उनके गुणों का ग्रहण किया गया हो ।

      भविष्य पुराण में कल्प आख्यान के अन्तर्गत १२ मासों के १२ आदित्यों, ११ रुद्रों व ८ वसुओं का वर्णन आता है । इस संदर्भ में तैत्तिरीय आरण्यक के वर्णन से प्रतीत होता है कि ८ वसु वसन्त ऋतु से, ११ रुद्र ग्रीष्म ऋतु से तथा १२ आदित्य वर्षा ऋतु से सम्बन्धित हैं । अतः इन देवताओं के कल्पन से ऋतुओं का कल्पन संभव हो सकता है । यज्ञ में वसन्त ऋतु प्रातःसवन, ग्रीष्म माध्यन्दिन सवन और वर्षा तृतीय सवन का प्रतिनिधित्व कर सकती हैं ।

      अथर्ववेद ९.५.४, ९.५.१३, १०.९.४, ११.३.२१ के आधार पर ऐसा प्रतीत होता है कि कल्पन प्रक्रिया उदान प्राण से, ओदन से, घर्म से संभव हो सकती है । तैत्तिरीय आरण्यक में भी जहां ऋतुओं का दिशाओं के सापेक्ष कल्पन किया गया है, वह वर्णन महावीर या प्रवर्ग्य प्रक्रिया के लिए है । वैदिक साहित्य में सार्वत्रिक रूप से अग्नि द्वारा कल्पन के जो निर्देश हैं, इस संदर्भ में अग्नि को भी पृथिवी की ज्योvति, पृथिवी का रस कहा जाता है । और महत्त्वपूर्ण तथ्य यह है कि वसुधारा होम के संदर्भ में प्राण, अपान और व्यान का तो कल्पन यज्ञ के द्वारा करने के उल्लेख हैं, लेकिन उदान और समान प्राणों का वहां उल्लेख नहीं है । अतः ऐसा लगता है कि कल्पन की पूरी प्रक्रिया इस उदान प्राण से ही सम्बन्धित है ।

      इस टिप्पणी के लेखन में उपनिषदों का उपयोग नहीं किया जा सका है ।


      कल्पवृक्ष

      टिप्पणी जैसा कि कल्प की टिप्पणी से स्पष्ट है, वैदिक साहित्य में कल्प वृक्ष जैसी कोई वस्तु नहीं है । जिस वस्तु का कल्पन करना हो, उसे यज्ञ का, ऋतुओं का, पृथिवी की ज्योvति अग्नि का, प्राणों का, चक्षु, श्रोत्र, आयु, मन, वाक् आदि का कल्पन करके, उनमें साम उत्पन्न करके प्राप्त किया जाता है । लेकिन शतपथ ब्राह्मण १२.१.१.१०, १३.१.४.३, १३.१.९.१०, तैत्तिरीय ब्राह्मण ३.३.३.४, ३.९.१३.३ में योगक्षेम के कल्पन का उल्लेख आता है । योग को प्रातःकाल इष्टि से और क्षेम को सायंकाल धृती से प्राप्त किया जाता है । योग आत्मा के अनुदिश और क्षेम प्रजा के अनुदिश है ।ऋग्वेद १.१७०.२ में इन्द्र को परामर्श दिया गया है कि इन्द्र मरुतों रूपी अपनी प्रजाओं से साथ साधु कल्पन करे । तैत्तिरीय संहिता ६.१.५.३ में उल्लेख है कि जैसे देवों की प्रजा के लिए कल्पन किया जाता है, वैसे ही मनुष्य की प्रजाओं के लिए । तैत्तिरीय संहिता ७.२.४.१ के अनुसार जो लोक अकलृप्त रह जाएंगे, कल्प बनने से वंचित रह जाएंगे, वही प्रजा की क्षुधा का कारण बन जाएंगे, प्रजा की क्षुधा उन्हीं लोकों में निवास करेगी ।

      मार्कण्डेय पुराण में कल्पवृक्ष के अनुरूप शालाओं के निर्माण के संदर्भ में अथर्ववेद में शाला को ध्रुवा बनाने की कामना की गई है । अथर्ववेद ६.८८.३ में ध्रुव के लिए दिशाएं समिति का कल्पन करती हैं ।


      संदर्भ

      कल्प

      *किं न इन्द्र जिघांससि भ्रातरो मरुतस्तव। तेभिः कल्पस्व साधुया मा नः समरणे वधीः। - ऋग्वेद १.१७०.२

      *यमृत्विजो बहुधा कल्पयन्तः सचेतसो यज्ञमिमं वहन्ति। यो अनूचानो ब्राह्मणो युक्त आसीत् का स्वित् तत्र यजमानस्य संवित्॥ - ऋ. ८.५८.१

      *अवा कल्पेषु नः पुमस्तमांसि सोम योध्या। तानि पुनान जङ्घनः ॥ - ऋ. ९.९.७

      *आ देवानामपि पन्थामगन्म यच्छक्नवाम तदनु प्रवोळ्हुम्। अग्निर्विद्वान् त्स यजात् सेदु होता सो अध्वरान् त्स ऋतून् कल्पयाति। - ऋ. १०.२.३

      *यद्वो वयं प्रमिनाम व्रतानि विदुषां देवा अविदुष्टरासः। अग्निष्टद्विश्वमा पृणाति विद्वान् येभिर्देवाँ ऋतुभिः कल्पयाति ॥ - ऋ. १०.२.४

      *न वा उ ते तन्वा तन्वं सं पपृच्यां पापमाहुर्यः स्वसारं निगच्छात्। अन्येन मत् प्रमुदः कल्पयस्व न ते भ्राता सुभगे वष्ट्येतत् ॥ - ऋ. १०.१०.१२

      *ये अग्निदग्धा ये अनग्निदग्धा मध्ये दिवः स्वधया मादयन्ते। तेभिः स्वराळसुनीतिमेतां यथावशं तन्वं कल्पयस्व ॥ - ऋ. १०.१५.१४

      *यथाहान्यनुपूर्वं भवन्ति यथ ऋतव ऋतुभिर्यन्ति साधु। यथा न पूर्वमपरो जहात्येवा धातरायूंषि कल्पयैषाम् ॥ - ऋ. १०.१८.५

      *मां देवा दधिरे हव्यवाहमपम्लुक्तं बहु कृच्छ्रा चरन्तम्। अग्निर्विद्वान् यज्ञं नः कल्पयाति पञ्चयामं त्रिवृतं सप्ततन्तुम् ॥ - ऋ. १०.५२.४

      *पुनरेहि वृषाकपे सुविता कल्पयावहै। य एष स्वप्ननंशनो ऽस्तमेषि पथा पुनर्विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥ - ऋ.१०.८६.२१

      *नाभ्या आसीदन्तरिक्षं शीर्ष्णो द्यौः समवर्तत। पद्भ्यां भूमिर्दिशः श्रोत्रात् तथा लोकाँ अकल्पयन् ॥ - ऋ. १०.९०.१४

      *सुपर्णं विप्राः कवयो वचोभिरेकं सन्तं बहुधा कल्पयन्ति। छन्दांसि च दधतो अध्वरेषु ग्रहान्त्सोमस्य मिमते द्वादश ॥ - ऋ. १०.११४.५

      *षट्त्रिंशाँश्च चतुरः कल्पयन्तश्छन्दांसि च दधत आद्वादशम्। यज्ञं विमाय कवयो मनीष ऋक्सामाभ्यां प्र रथं वर्तयन्ति ॥ - ऋ. १०.११४.६

      *विराण्मित्रावरुणयोरभिश्रीरिन्द्रस्य त्रिष्टुबिह भागो अह्नः। विश्वान् देवाञ्जगत्या विवेश तेन चाक्लृप्र ऋषयो मनुष्याः ॥ - ऋ. १०.१३०.५

      *चाक्लृप्रे तेन ऋषयो मनुष्या यज्ञे जाते पितरो नः पुराणे। पश्यन् मन्ये मनसा चक्षसा तान् य इमं यज्ञमयजन्त पूर्वे ॥ - ऋ. १०.१३०.६

      *इमा नु कं भुवना सीषदामेन्द्रश्च विश्वे च देवाः। यज्ञं च नस्तन्वं च प्रजां चाऽऽदित्यैरिन्द्रः सह चीक्लृपाति ॥ - ऋ. १०.१५७.२

      *विष्णुर्योनिं कल्पयतु त्वष्टा रूपाणि पिंशतु। आ सिञ्चतु प्रजापतिर्धाता गर्भं दधातु ते ॥ - ऋ. १०.१८४.१

      *सूर्याचन्द्रमसौ धाता यथापूर्वमकल्पयत्। दिवं च पृथिवीं चाऽन्तरिक्षमथो स्वः ॥ - ऋ. १०.१९०.३

      *श्यामा सरूपंकरणी पृथिव्या अध्युद्भृता। इदमू षु प्र साधय पुना रूपाणि कल्पय ॥ - अथर्ववेद १.२४.४

      *इन्द्रेन्द्र मनुष्याः परेहि सं ह्यज्ञास्था वरुणैः संविदानः। स त्वायमह्वत् स्वे सधस्थे स देवान् यक्षत् स उ कल्पयात् विशः ॥ - अ. ३.४.६

      *आ यातु मित्र ऋतुभिः कल्पमानः संवेशयन् पृथिवीमुस्रियाभिः। अथास्मभ्यं वरुणो वायुरग्निर्बृहद् राष्ट्रं संवेश्यं दधातु ॥ - अ. ३.८.१

      *यथा हव्यं वहसि जातवेदो यथा यज्ञं कल्पयसि प्रजानन्। एवा देवेभ्यः सुमतिं न आ वह स नो मुञ्चत्वंहसः ॥ - अ. ४.२३.२

      *न वर्षं मैत्रावरुणं ब्रह्मज्यमभि वर्षति। नास्मै समितिः कल्पते न मित्रं नयते वशम् ॥ - अ. ५५.१९.१५

      *विष्णुर्योनिं कल्पयतु त्वष्टा रूपाणि पिंशतु। आ सिञ्चतु प्रजापतिर्धाता गर्भं दधातु ते ॥ - अ. ५.२५.५

      *प्रजापतिरनुमतिः सिनीवाल्यचीक्लृपत्। स्त्रैषूयमन्यत्र दधत् पुमांसमु दधदिह ॥ - अ. ६.११.३

      *वैश्वानरोऽङ्गिरसां स्तोममुक्थं च चाक्लृपत्। ऐषु द्युम्नं स्वर्यमत् ॥ - अ. ६.३५.३

      *ध्रुवोऽच्युतः प्र मृणीहि शत्रून्छत्रूयतोऽधरान् पादयस्व। सर्वा दिशः संमनसः सध्रीचीर्ध्रुवाय ते समितिः कल्पतामिह ॥ - अ. ६.८८.३

      *यो अग्नौ यो अप्स्वन्तर्य ओषधीर्वीरुध आविवेश। य इमा विश्वा भुवनानि चाक्लृपे तस्मै रुद्राय नमो अस्त्वग्नये॥ - अ. ७.९२.१

      *पुनर्मैत्विन्द्रियं पुनरात्मा द्रविणं ब्राह्मणं च। पुनरग्नयो धिष्ण्या यथास्थाम कल्पयन्तामिहैव ॥ - अ. ७.६९.१

      *कः पृश्निं धेनुं वरुणेन दत्तामथर्वणे सुदुघां नित्यवत्साम्। बृहस्पतिना सख्यं जुषाणो यथावशं तन्वः कल्पयाति ॥ - अ. ७.१०९.१

      *को विराजो मिथुनत्वं प्र वेद क ऋतून् क उ कल्पमस्याः। क्रमान् को अस्याः कतिधा विदुग्धान् को अस्या धाम कतिधा व्युष्टीः ॥ - अ. ८.९.१०

      *अग्नीषोमावदधुर्या तुरीयासीद् यज्ञस्य पक्षावृषयः कल्पयन्तः। गायत्रीं त्रिष्टुभं जगतीमनुष्टुभं बृहदर्कां यजमानाय स्वराभरन्तीम् ॥ - अ. ८.९.१४

      *पञ्च व्युष्टीरनु पञ्च दोहा गां पञ्चनाम्नीमृतवोऽनु पञ्च। पञ्च दिशः पञ्चदशेन कलpप्तास्ता एकमूर्ध्नीरभि लोकमेकम् ॥ - अ. ८.९.१५

      *कथं गायत्री त्रिवृतं व्याप कथं त्रिष्टुप् पञ्चदशेन कल्पते। त्रयस्त्रिंशेन जगती कथमनुष्टुप् कथमेकविंशः ॥ - अ. ८.९.२०

      *गुदा आसन्त्सिनीवाल्याः सूर्यायास्त्वचमब्रुवन्। उत्थातुरब्रुवन् पद ऋषभं यदकल्पयन् ॥ - अ. ९.४.१४

      *अनु च्छ्य श्यामेन त्वचमेतां विशस्तर्यथापर्व१सिना माभि मंस्थाः। माभि द्रुहः परुशः कल्पयैनं तृतीये नाके अधि वि श्रयैनम् ॥ - अ. ९.५.४

      *अजो ह्यग्नेरजनिष्ट शोकाद् विप्रो विप्रस्य सहसो विपश्चित्। इष्टं पूर्तमभिपूर्तं वषट्कृतं तद् देवा ऋतुशः कल्पयन्तु ॥ - अ. ९.५.१३

      *यदावसथान् कल्पयन्ति सदोहविर्धानान्येव तत् कल्पयन्ति। - अ. ९.६.७

      *ऋचः पदं मात्रया कल्पयन्तोऽर्धर्चेन चाक्लृपुर्विश्वमेजत्। त्रिपाद् ब्रह्म पुरुरूपं वि तष्ठे तेन जीवन्ति प्रदिशश्चतस्रः ॥ - अ. ९.१५.१९

      *यां कल्पयन्ति वहतौ वधूमिव विश्वरूपां हस्तकृतां चिकित्सवः। सारादेत्वप नुदाम एनाम् ॥ - अ. १०.१.१

      *को अस्मै वासः पर्यदधात् को अस्यायुरकल्पयत्। बलं को अस्मै प्रायच्छत् को अस्याकल्पयज्जवम् ॥ - अ. १०.२.१५

      *यः शतौदनां पचति कामप्रेण स कल्पते। प्रीता ह्यस्यर्त्विजः सर्वे यन्ति यथायथम् ॥ - अ. १०.९.४

      *सर्वे गर्भादवेपन्त जायमानादसूस्वः। ससूव हि तामाहुर्वशेति ब्रह्मभिः क्लृप्तः स ह्यस्या बन्धुः ॥ - अ. १०.१०.२३

      *समाचिनुष्वानुसंप्रयाह्यग्ने पथः कल्पय देवयानान्। एतैः सुकृतैरनु गच्छेम यज्ञं नाके तिष्ठन्तमधि सप्तरश्मौ ॥। - अ. ११.१.३६

      *यस्य देवा अकल्पन्तोच्छिष्टे षडशीतयः। तं त्वौदनस्य पृच्छामि यो अस्य महिमा महान् ॥ - अ. ११.३.२१

      *चक्षुः श्रोत्रं यशो अस्मासु धेह्यन्नं रेतो लोहितमुदरम्। तानि कल्पद् ब्रह्मचारी सलिलस्य पृष्ठे तपोऽतिष्ठत् तप्यमानः समुद्रे। स स्नातो बभ्रुः पिङ्गलः पृथिव्यां बहु रोचते ॥ - अ. ११.७.२६

      *अदो यद्देवि प्रथमाना पुरस्ताद् देवैरुक्ता व्यसर्पो महित्वम्। आ त्वा सुभूतमविशत् तदानीमकल्पयथाः प्रदिशश्चतस्रः ॥ - अ. १२.१.५५

      *यथाहान्यनुपूर्वं भवन्ति यथर्तव ऋतुभिर्यन्ति साकम्। यथा न पूर्वमपरो जहात्येवा धातरायूंषि कल्पयैषाम् ॥ - अ. १२.२.२५

      *उर्वीरासन् परिधयो वेदिर्भूमिरकल्पत। तत्रैतावग्नी आधत्त हिमं घ्रंसं च रोहितः। . १३.१.४६

      *वेदिं भूमिं कल्पयित्वा दिवं कृत्वा दक्षिणाम्। घ्रंसं तदग्निं कृत्वा चकार विश्वमात्मन्वद् वर्षेणाज्येन रोहितः ॥ वर्षमाज्यं घ्रंसो अग्निर्वेदिर्भूमिरकल्पत। तत्रैवान् पर्वतानग्निर्गीर्भिरूर्ध्वाँ अकल्पयत् ॥ गीर्भिरूर्ध्वान् कल्पयित्वा रोहितो भूमिमब्रवीत्। त्वयीदं सर्वं जायतां यद्भूतं यच्च भाव्यम् ॥ - अ. १३.१.५२-५४

      *तिग्मो विभ्राजन् तन्वं शिशानोऽरंगमासः प्रवतो रराणः। ज्योतिष्मान् पक्षी महिषो वयोधा विश्वा आस्थात् प्रदिशः कल्पमानः ॥ - अ. १३.२.३३

      *अभ्यन्यदेति पर्यन्यदस्यतेऽहोरात्राभ्यां महिषः कल्पमानः। सूर्यं वयं रजसि क्षियन्तं गातुविदं हवामहे नाधमानाः ॥ - अ. १३.२.४३

      *न ते नाथं यम्यत्राहमस्मि न ते तनूं तन्वा सं पपृच्याम्। अन्येन मत् प्रमुदः कल्पयस्व न ते भ्राता सुभगे वष्ट्येतत् ॥ - अ. १८.१.१३

      *ये न पितुः पितरो ये पितामहा य आविविशुरुर्वन्तरिक्षम्। तेभ्यः स्वराडसुनीतिर्नो अद्य यथावशं तन्वः कल्पयाति ॥ - अ. १८.२.५९

      *तीथैrस्तरन्ति प्रवतो महीरिति यज्ञकृतः सुकृतो येन यन्ति। अत्रादधुर्यजमानाय लोकं दिशो भूतानि यदकल्पयन्त ॥ - अ. १८.४.७

      *यज्ञ एति विततः कल्पमान ईजानमभि लोकं स्वर्गम्। तमग्नयः सर्वहुतं जुषन्तां प्राजापत्यं मेध्यं जातवेदसः। शृतं कृण्वन्त इह माव चिक्षिपन् ॥ - अ. १८.४.१३

      *एदं बर्हिरसदो मेध्योऽभूः प्रति त्वा जानन्तु पितरः परेतम्। यथापरु तन्वं सं भरस्व गात्राणि ते ब्रह्मणा कल्पयामि ॥ - अ. १८.४.५२

      *नाभ्या आसीदन्तरिक्षं शीर्ष्णो द्यौः समवर्तत। पद्भ्यां भूमिर्दिशः श्रोत्रात् तथा लोकाँ अकल्पयन् ॥ - अ. १९.६.८

      *त्रीन्नाकांस्त्रीन्त्समुद्रांस्त्रीन् ब्रध्नांस्त्रीन् वैष्टपान्। त्रीन् मातरिश्वनस्त्रीन्त्सूर्यान् गोप्तॄन् कल्पयामि ते ॥ - अ. १९.२७.४

      *आ देवानामपि पन्थामगन्म यच्छक्नवाम तदनुप्रवोढुम्। अग्निर्विद्वान्त्स यजात् स इद्धोता सोऽध्वरान्त्स ऋतून् कल्पयाति ॥ - अ. १९.५९.३

      *इमा नु कं भुवना सीषधामेन्द्रश्च विश्वे च देवाः। यज्ञं च नस्तन्वं च प्रजां चादित्यैरिन्द्रः सह चीक्लृपाति ॥ - अ. २०.६३.१, २०.१२४.४

      *पुनरेहि वृषाकपे सुविता कल्पयावहै। य एष स्वप्ननंशनोस्तमेषि पथा पुनर्विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥ - अ.२०.१२६.२१

      *यः सभेयो विदथ्यः सुत्वा यज्वाथ पूरुषः। सूर्यं चामू रिशादसस्तद् देवाः प्रागकल्पयन् ॥ - अ. २०.१२८.१

      *योनाक्ताक्षो अनभ्यक्तो अमणिवो अहिरण्यवः। अब्रह्मा ब्रह्मणः पुत्रस्तोता कल्पेषु संमितः ॥ य आक्ताक्षः सुभ्यक्तः सुमणिः सुहिरण्यवः। सुब्रह्मा ब्रह्मणः पुत्रस्तोता कल्पेषु संमिता ॥ अप्रपाणा च वेशन्ता रेवाँ अप्रतिदिश्ययः। अयभ्या कन्या कल्याणी तोता कल्पेषु संमिता ॥ सुप्रपाणा च वेशन्ता रेवान्त्सुप्रतिदिश्ययः। सुयभ्या कन्या कल्याणी तोता कल्पेषु संमिता ॥ परिवृक्ता च महिषी स्वस्त्या च युधिंगमः। अनाशुरश्चायामी तोता कल्पेषु संमिता ॥ वावाता च महिषी स्वस्त्या च युधिंगमः। श्वाशुरश्चायामी तोता कल्पेषु संमिता ॥ यदिन्द्रादो दाशराज्ञे मानुषं वि गाहथाः। विरूपः सर्वस्मा आसीत् सह यक्षाय कल्पते ॥ - अ. २०.१२८.६-१२

      *योषा वा आपः, वृषाग्निः - मिथुनमेवैतत्प्रजननं क्रियते एवमिव हि मिथुनं क्लृप्तम् - उत्तरतो हि स्त्री पुमांसमुपशेते ॥ - शतपथ ब्राह्मण १.१.१.२०

      *ततो देवा एतां दर्शपूर्णमासयोर्दक्षिणामकल्पयन् - यदन्वाहार्यम्। नेददक्षिणं हविरसदिति। - श.ब्रा. १.२.३.५

      *यच्छृतानि हवींषि, क्लृप्ता वेदिस्तेनावमर्शमचारिष्ट तस्मात्पापीयांसोऽभूत। - श.ब्रा. १.२.५.२६

      *एवं वा एष देवानां यज्ञो भवति - यच्छृतानि हवींषि, क्लृप्ता वेदिः, तेषामेतान्येव पात्राणि - यत्स्रुचः। - श.ब्रा. १.३.१.२

      *अथाग्निं कल्पयति। शिरो वै यज्ञस्याहवनीयः। पूर्वाद्धोr वै शिरः - पूर्वार्द्धमेवैतद्यज्ञस्य कल्पयति। उपर्युपरि प्रस्तरं धारयन् कल्पयति। अयं वै स्तुपः प्रस्तरः। एतमेवास्मिन्नेतत् प्रतिदधाति। तस्मादुपर्युपरि प्रस्तरं धारयन् कल्पयति। - श.ब्रा. १.३.३.१२

      *पञ्च प्रयाजयागाः :-स यत्र हैवमृत्विजः संविदाना यज्ञेन चरन्ति - सर्वमेव तत्र कल्पते, न मुह्यति। - श.ब्रा. १.५.२.१५

      *स्विष्टकृदाहुतिः :-ते देवा अब्रुवन् - मा विस्रक्षीरिति। ते वै मा यज्ञान्मान्तर्गत, आहुतिं मे कल्पयतेति। तथेति।- - - - - ते देवा अब्रुवन् - यावन्ति नो हवींषि गृहीतान्यभूवन्, सर्वेषां तेषां हुतमुपजानीत, यथास्मा आहुतिं कल्पयाम। - श.ब्रा. १.७.३.४

      *यक्षदग्नेर्होतुः प्रिया धामानि - इति तदग्निं होतारमाह। तदस्मा एतां देवा आहुतिं कल्पयित्वाथैनेनैतद्भूयः समशाम्यन्। - श.ब्रा. १.७.३.११

      *अनुयाज कर्म : अथात्र यथायथं देवाश्छन्दांस्यकल्पयन् - अनुयाजेषु, नेत् पापवस्यसम् असद् इति। - श.ब्रा. १.८.२.१०

      *अनुयाज कर्म : गायत्री वा अग्निः, तद्गायत्रीमुत्तमामकुर्वन्। एवं यथायथेन क्लृप्तेन छन्दांसि प्रत्यतिष्ठन्, तस्मादिदमपापवस्यसम्। - श.ब्रा. १.८.२.१३

      *समिष्टयजुः :- स यमेवैभ्यो देवा भागमकल्पयन् - तमेवैभ्य एष एतद्भागं करोति। - श.ब्रा. १.९.३.३५

      *आग्रयण इष्टिः :- यज्ञेन ह स्म वै तद्देवाः कल्पयन्ते यदेषां कल्प्यमास, ऋषयश्च। - श.ब्रा.२.४.३.३

      *यमु चैव देवा भागमकल्पयन्त - तमु चैवैभ्य एष एतद्भागं करोति। - श.ब्रा. २.४.३.१२

      *तेभ्य एतं भागमकल्पयत् - एतं मारुतं सप्तकपालं पुरोडाशम्। - श.ब्रा. २.५.१.१३

      *वरुणप्रघास :-स उत्तरस्यामेव पयस्यायां मेषीमवदधाति, दक्षिणस्यां मेषम्। एवमिव हि मिथुनं क्लृप्तम्। - श.ब्रा. २.५.२.१७

      *उत्सन्नयज्ञ इव वा एषः - यच्चातुर्मास्यानि। अथैष क्लृप्तः प्रतिष्ठितो यज्ञो यत् पौर्णमासम्। तत् क्लृप्तेनैवैतद्यज्ञेनान्ततः प्रतितिष्ठति - तस्मादुदवस्यति। - श.ब्रा. २.५.२.४८

      *पितृpयज्ञः :-इति न्वेवैष एतत् करोति - यमु चैवैभ्यो देवा भागमकल्पयन्। - श.ब्रा. २.६.१.३

      *साकमेधपर्वणि त्र्यम्बकयागः :-अथैष क्लृप्तः प्रतिष्ठितो यज्ञो यत् पौर्णमासम्। तत् क्लृप्तेनैवैतद्यज्ञेनान्ततः प्रतितिष्ठति। - श.ब्रा. २.६.२.१९

      *प्रायणीयेष्टिः :-सा (अदितिः) होवाच - मय्येव यज्ञं तन्वाना मां यज्ञादन्तरगात, सा वोऽहमेव यज्ञममूमुहम्, भागं नु मे कल्पयत - अथ यज्ञं द्रक्ष्यथ - अथ प्रज्ञास्यथेति। - श.ब्रा. ३.२.३.५

      *अथानु व्यूहति। सिंह्यसि सपत्नसाही देवेभ्यः कल्पस्व इति। - - - -योषा वाऽउत्तरवेदिस्तामेवैतद्देवेभ्यः कल्पयति। - श.ब्रा. ३.५.१.३३

      *हविर्धान कर्म : अथ वाचयति - प्राची प्रेतमध्वरं कल्पयन्ती इति। अध्वरो वै यज्ञः। प्राची प्रेतं यज्ञं कल्पयन्ती इत्येवैतदाह। - श.ब्रा. ३.५.३.१७

      *पात्नीवत ग्रहः :-उत्तरार्द्धे जुहोति। या इतरा आहुतयस्ते देवाः, अथैता पत्न्यः। एवमिव हि मिथुनं क्लृप्तम्। - श.ब्रा. ४.४.२.१६

      *वाजपेयः :- यऽ एवमेतं यज्ञं क्लृप्तं विद्युः - ऋक्तो यजुष्टः सामतः, ते प्रजज्ञयः तऽ एनं याजयेयुः। - श.ब्रा. ५.१.१.१०

      *यूपारोहणम् : अथ षट् कलpप्तीर्जुहोति वा वाचयति वा। - - - - - स वाचयति - आयुर्यज्ञेन कल्पताम्, प्राणो यज्ञेन कल्पताम्, चक्षुर्यज्ञेन कल्पताम्, श्रोत्रं यज्ञेन कल्पताम्, पृष्ठं यज्ञेन कल्पताम्, यज्ञो यज्ञेन कल्पताम् इति। एताः षट् क्लृप्तीर्वाचयति। षड्वाऽऋतवः सम्वत्सरस्य। - - - -तद् यैवास्य क्लृप्तिः, या सम्पत् - तामेवैतदुज्जयति। - श.ब्रा. ५.२.१.४

      *अथास्मै पञ्चाक्षान् पाणावावपति - अभिभूरस्येतास्ते पञ्च दिशः कल्पन्ताम् इति। एष वाऽअयानभिभूः - यत्कलिः - एष हि सर्वानयानभिभवति। - - - एतास्ते पञ्च दिश कल्पन्तामिति। पञ्च वै दिशः। तदस्मै सर्वा एव दिशः कल्पयति। - श.ब्रा. ५.४.४.६

      *पञ्चपशुशीर्षेष्टकोपधानम् : अग्निमीडे पूर्वचित्तिं नमोभिः इति। आग्नेयो वै गौः। -- - - - - स पर्वभिर्ऋतुशः कल्पमानः इति। यत्रऽएष चीयते - तदेष पर्वभिर्ऋतुशः कल्पते। - श.ब्रा. ७.५.२.१९

      *आहवनीयाग्निचित्यायां पञ्चचितिकायां प्रथमा चितिः :- संवत्सरोऽसि, परिवत्सरोऽसि, इदावत्सरोऽसि, इद्वत्सरोऽसि, वत्सरोऽसि, उषसस्ते कल्पन्ताम्। अहोरात्रास्ते कल्पन्ताम्। अर्धमासास्ते कल्पन्ताम्। मासास्ते कल्पन्ताम्। ऋतवस्ते कल्पन्ताम्। संवत्सरस्ते कल्पताम्। प्रेत्यै, एत्यै, सं चाञ्च। प्र च सारय। - - - - - श.ब्रा. ८.१.४.८

      *पञ्चप्राणभृदिष्टकोपधानम् : प्राणं मे पाहि, अपानं मे पाहि, व्यानं मे पाहि, चक्षुर्मऽउर्व्या विभाहि, श्रोत्रं मे श्लोकय इति। एतानेवास्वेतत् (प्रजासु) क्लृप्तान्प्राणान्दधाति। - श.ब्रा. ८.२.३.३

      *पञ्चप्राणभृदिष्टकोपधानम् : अपः पिन्व, ओषधीर्जिन्व, द्विपादव, चतुष्पात्पाहि, दिवो वृष्टिमेरय इति। एता एवैष्वेतत्क्लpप्ता अपो दधाति। - श.ब्रा. ८.२.३.६

      *द्वयोर्ऋतव्येष्टकयोरुपधानम् : - - - - - संवत्सरमेवैतदृतुभिः संतनोति, सन्दधाति। कल्पेतां द्यावापृथिवी, कल्पन्तामाप ओषधयः इति। इदमेवैतत्सर्वमृतुभिः कल्पयति। कल्पन्तामग्नयः पृथङ्मम ज्यैष्ठ्याय सव्रताः इति। अग्नयो हैते पृथग् - यदेता इष्टकाः, ते यथाऽनयोर्ऋत्वोर्ज्यैष्ठ्या कल्पेरन् - एवमेतदाह। - श.ब्रा. ८.७.१.६

      *वसोर्धाराहोमः :- यथा व्योकसौ संयुञ्ज्याद् - एवं यज्ञेन कल्पन्तामिति। - - - यज्ञो वै देवानामात्मा। - - - स यदाह - यज्ञेन कल्पन्ताम् इति। आत्मना मे कल्पन्तामित्येवैतदाह। द्वादशसु कल्पयति। द्वादश मासाः संवत्सरः - - - - चतुर्दशसु कल्पयति, अष्टासु कल्पयति, दशसु कल्पयति, त्रयोदशसु कल्पयति। - श.ब्रा. ९.३.२.६

      *अथ कल्पाञ्जुहोति। प्राणा वै कल्पाः। प्राणानेवास्मिन्नेतद्दधाति। आयुर्यज्ञेन कल्पताम्, प्राणो यज्ञेन कल्पताम् इति। एतानेवास्मिन्नेतत्क्लृप्तान्प्राणान्दधाति। - श.ब्रा. ९.३.३.१२

      *द्वादश कल्पाञ्जुहोति। द्वादश मासाः सम्वत्सरः। सम्वत्सरोऽग्निः। यावानग्निर्यावत्यस्य मात्रा - तावतैवास्मिन्नेतत्क्लृप्तान्प्राणान्दधाति। यद्वेव कल्पाञ्जुहोति। प्राणा वै कल्पाः। अमृतमु वै प्राणाः। - श.ब्रा. ९.३.३.१३

      *गवामयन ब्राह्मणम् : अथाध्वर्यवे प्रतिप्रस्थातारं नेष्टा दीक्षयति। तं हि सोऽनु। एतेषां वै नवानां क्लृप्तिमन्वितरे कल्पन्ते। नव वै प्राणाः। प्राणानेवैष्वेतद्दधाति। - श.ब्रा. १२.१.१.७

      *गवामयन ब्राह्मणम् : अथाध्वर्यवे प्रतिप्रस्थातारं नेष्टा दीक्षयति। तं हि सोऽनु। एतेषां वै नवानां क्लृप्तिमन्वितरे कल्पन्ते। नव वै प्राणाः। प्राणानेवैष्वेतद्दधाति। - श.ब्रा. १२.१.१.७

      *गवामयन ब्राह्मणम् : स यत्र हैवं विद्वांसो दीक्षन्ते। दीक्षमाणा हैव ते यज्ञं कल्पयन्ति। यज्ञस्य क्लृप्तिमनु सत्रिणां योगक्षेमः कल्पते। सत्रिणां योगक्षेमस्य क्लृप्तिमन्वपि तस्यार्द्धस्य योगक्षेमः कल्पते। - श.ब्रा. १२.१.१.१०

      *यदूर्ध्वाः स्तोमा अनुयन्ति यज्ञमभ्यावर्तं सामभिः कल्पमानाः। कथं स्वित्ते पुरुषमाविशन्ति कथं प्राणैः सयुजो भवन्ति ॥ - श.ब्रा. १२.३.१.२

      *अभिजिता स्वरसामानोऽभिक्लृप्ता उभयतो विषुवन्तमुपयन्ति। कथं स्वित्ते पुरुषमाविशन्ति कथं प्राणैः सयुजो भवन्ति ॥ त्रिवृत्प्रायाः सप्तदशाभिक्लृप्तास्त्रयस्त्रिंशांताश्चतुरुत्तरेण। कथं स्वित्ते पुरुषमाविशन्ति कथं प्राणैः सयुजो भवन्ति ॥ शिरस्त्रिवृत् पंचदशोऽस्य ग्रीवा उर आहुः सप्तदशाभिक्लृप्तम्। एकविंशमुदरं कल्पयन्ति पार्श्वे पर्शूस्त्रिणवेनाभिक्लृप्ते ॥ अभिप्लवा उभयतोऽस्य बाहू पृष्ठ्यं पृष्ठ्य इति धीरा वदन्ति। अनूकमस्य चतुरुत्तरेण संवत्सरे ब्राह्मणाः कल्पयन्ति ॥ कर्णावस्याभिजिद्विश्वजिच्चाक्ष्या बाहुःस्वरसामाऽभिक्लृप्ते। नस्यं प्राणं विषुवन्तमाहुर्गोआयुषी प्राणावेताववांचौ ॥ अङ्गान्यस्य दशरात्रमाहुर्मुखं महाव्रतं संवत्सरे ब्राह्मणाः कल्पयन्ति। सर्वस्तोमं सर्वसामानमेतं संवत्सरमध्यात्मं प्रविष्टम्। समं धीर आत्मना कल्पयित्वा ब्रध्नस्यास्ते विष्टपेऽजातशोकः ॥ - श.ब्रा. १२.३.१.४- ९

      *स जुहोति। ये समानाः समनसः पितरो यमराज्ये। तेषां लोकः स्वधा नमो यज्ञो देवेषु कल्पताम् इति। पितृqनेव यमे परिदधाति। - श.ब्रा. १२.८.१.१९

      *अश्वमेधः :- यद्वेव सायं धृतीर्जुहोति। प्रातरिष्टिभिर्यजते। योगक्षेममेव तद्यजमानः कल्पयते। तस्माद्यत्रैतेन यज्ञेन यजन्ते। क्लृप्तः प्रजानां योगक्षेमो भवति। - श.ब्रा. १३.१.४.३

      *फलवत्यो न ओषधयः पच्यन्ताम् इति। योगक्षेमो नः कल्पताम् इति। योगक्षेमो वै तत्र कल्पते। यत्रैतेन यज्ञेन यजन्ते। तस्माद्यत्रैतेन यज्ञेन यजन्ते। क्लृप्तः प्रजानां योगक्षेमो भवति। - श.ब्रा. १३.१.९.१०

      *अन्नहोमब्राह्मणम् : ते देवाः प्रजापतिमब्रुवन्। एष वै यज्ञः यदश्वमेधः। अपि नोऽत्रास्तु भाग इति। तेभ्य एतान् अन्नहोमान् अकल्पयत्। - श.ब्रा. १३.२.१.१

      *अश्वमेधः :- यदसिपथान् कल्पयन्ति। सेतुमेव तं संक्रमणं यजमानः कुरुते। स्वर्गस्य लोकस्य समष्ट्यै। - श.ब्रा. १३.२.१०.१

      *त्रय्यः सूच्यो भवन्ति। लोहमय्यो रजता हरिण्यः। दिशो वै लोहमय्यः। अवान्तरदिशो रजताः। ऊर्ध्वा हरिण्यः। ताभिरेवैनं कल्पयन्ति। - श.ब्रा. १३.२.१०.३

      *एष वै क्लृप्तिर्नाम यज्ञः। यत्रैतेन यज्ञेन यजन्ते। सर्वमेव क्लृप्तं भवति। - श.ब्रा. १३.३.७.११

      *सावित्रीष्टिः :- नित्ये संयाज्ये। नेद्यज्ञपथादयानीति। क्लृप्त एव यज्ञेऽन्ततः प्रतितिष्ठति। - श.ब्रा. १३.४.२.१३

      *यश्च बार्हते प्रउगे कामः। य उ च माधुच्छन्दसे। तयोरुभयोः कामयोराप्त्यै। क्लृप्तं प्रातःसवनम्। - श.ब्रा. १३.५.१.८

      *अथैनं यथाङ्गं कल्पयति - - - - - - - कल्पयन्तां ते दिशः तुभ्यमापः शिवतमाः तुभ्यं भवंतु सिंधवः। अंतरिक्षं शिवं तुभ्यं कल्पंतां ते दिशः सर्वाः इति। एतदेवास्मै सर्वं कल्पयति। एतदस्मै शिवं करोति। - श.ब्रा. १३.८.३.५

      *प्राणोपासना ब्राह्मणम् : प्राणो वै साम - - - -सम्यंचि हास्मिन् सर्वाणि भूतानि श्रैष्ठ्याय कल्पन्ते। - श.ब्रा. १४.८.१४.३

      *पुत्रमन्थकर्मब्राह्मणम् : स ह प्रजापतिरीक्षांचक्रे हन्त अस्मै प्रतिष्ठां कल्पयानीति। स स्त्रियं ससृजे। - श.ब्रा. १४.९.४.२

      *पुनर्मा मैत्विन्द्रियं पुनस्तेजः पुनर्भगः। पुनरग्नयो धिष्ण्या यथास्थानं कल्पन्ताम् इति। अनामिकांगुष्ठाभ्यामादाय अन्तरेण स्तनौ वा भ्रुवौ वा निमृञ्ज्यात्। - श.ब्रा. १४.९.४.५

      *गर्भाधानम् : त्रिरेनामनुलोमामनुमार्ष्टि - विष्णुर्योनिं कल्पयतु त्वष्टा रूपाणि पिंशतु। आसिंचतु प्रजापतिर्धाता गर्भं दधातु ते। - श.ब्रा. १४.९.४.२०

      *शुक्रामन्थि ग्रह प्रचारार्थ मन्त्राः :- तौ देवौ शुक्रामन्थिनौ। कल्पयतं दैवीर्विशः। कल्पयतं मानुषीः। इषमूर्जमस्मासु धत्तम्। प्राणान्पशुषु। प्रजां मयि च यजमाने च। - तैत्तिरीय ब्राह्मणम् १.१.१.४

      *क्लृप्तिसामनसीभ्यामग्नीन्यजमान उपतिष्ठते :- कल्पेतां द्यावापृथिवी। कल्पन्तामाप ओषधीः। कल्पन्तामग्नयः पृथक्। मम ज्यैष्ठ्याय सव्रताः ॥ येऽग्नयः समनसः। अन्तरा द्यावापृथिवी। वासन्तिकावृतू अभिकल्पमानाः। इन्द्रमिव देवा अभिसंविशन्तु। - तै.ब्रा. १.२.१.१८

      *वाजपेय मन्त्र ब्राह्मणम् : दशभिः कल्पै रोहति। नव वै पुरुष प्राणाः। नाभिर्दशमी। प्राणानेव यथास्थानं कल्पयित्वा सुवर्गं लोकमेति। - तै.ब्रा. १.३.७.४

      *राजसूये वैश्वदेव हविषां प्रशंसा : - - - - स एतं प्रजापतिर्मारुतं सप्तकपालमपश्यत्। तं निरवपत्। ततो वै प्रजाभ्योऽकल्पत। यन्मारुतो निरूप्यते। यज्ञस्य क्लृप्त्यै। प्रजानामघाताय। सप्तकपालो भवति। सप्त गणा वै मरुतः। गणश एवास्मै विशं कल्पयति। - तै.ब्रा. १.६.२.३

      *राजसूयानुब्राह्मणम्। अभिषेक विधिः :- नैयग्रोधेन जन्यः। मित्राण्येवास्मै कल्पयति। अथो प्रतिष्ठित्यै। - तै.ब्रा. १.७.८.७

      *ते सप्तहोतारं यज्ञं विधायायास्यम्। आङ्गीरसं प्राहिण्वन्। एतेनामुत्र कल्पयेति। तस्य वा इयं क्लृप्तिः। यदिदं किंच। य एवं वेद। कल्पतेऽस्मै। स वा अयं मनुष्येषु यज्ञः सप्तहोता। - तै.ब्रा. २.२.७.३

      *सोऽकामयतर्तवो मे कल्पेरन्निति। स पञ्चहोतुः षड्ढोतारं निरमिमीत। तं प्रायुङ्क्त। तस्य प्रयुक्त्यृतवोऽस्मा अकल्पन्त। यः कामयेतर्तवो मे कल्पेरन्निति। स षड्ढोतारं प्रयुञ्जीत। कल्पन्तेऽस्मा ऋतवः। - तै.ब्रा. २.२.११.३

      *ते सप्तहोतारं यज्ञं विधायायास्यम्। आङ्गीरसं प्राहिण्वन्। एतेनामुत्र कल्पयेति। तस्य वा इयं क्लृप्तिः। यदिदं किंच। य एवं वेद। कल्पतेऽस्मै। स वा अयं मनुष्येषु यज्ञः सप्तहोता। - तै.ब्रा. २.२.११.६

      *सोमो वै चतुर्होता। अग्निः पञ्चहोता। धाता षड्ढोता। इन्द्रः सप्तहोता। प्रजापतिर्दशहोता। - - - - - य एषामेवं बन्धुतां वेद। बन्धुमान्भवति। य एषामेवं क्लृप्तिं वेद। कल्पतेऽस्मै। - तै.ब्रा. २.३.१.२

      *आग्नीध्र एव जुहुयाद्दशहोतारम्। चतुर्गृहीतेनाऽऽज्येन। पश्चात्प्राङ्गासीनः। अनुलोममविग्राहम्। प्राणानेवास्मै कल्पयति। - तै.ब्रा. २.३.२.२

      *प्रायश्चित्ती वाग्घोvतेत्यृतुमुख ऋतुमुखे जुहोति। ऋतूनेवास्मै कल्पयति। कल्पन्तेऽस्मा ऋतवः। क्लृप्ता अस्मा ऋतव आयन्ति। - तै.ब्रा. २.३.२.२

      *यत्षड्ढोतारः सत्रमासत। केन ते गृहपतिनाऽऽर्ध्नुवन्। केनर्तूनकल्पयन्तेति। धात्रा वै ते गृहपतिनाऽऽर्ध्नुवन्। तेनर्तूनकल्पयन्त। - तै.ब्रा. २.३.५.३

      *सीता सावित्री द्वारा सोम की कामना और सोम द्वारा श्रद्धा की कामना पर प्रजापति द्वारा सीता सावित्री के लिए उपाय : तस्या उ ह स्थागरमलंकारं कल्पयित्वा। दशहोतारं पुरस्ताद्व्याख्याय। चतुर्होतारं दक्षिणतः। - - - - तै.ब्रा. २.३.१०.२

      *स यः कामयेत प्रियः स्यामिति। यं वा कामयेत प्रियः स्यादिति। तस्मा एतं स्थागरमलंकारं कल्पयित्वा। दशहोतारं पुरस्ताद्व्याख्याय। - - - - - तै.ब्रा. २.३.१०.४

      *ये समानाः समनसः। पितरो यमराज्ये। तेषां लोकः स्वधा नमः। यज्ञो देवेषु कल्पताम्। (इति अध्वर्यु जुहोति)। ये सजाताः समनसः। जीवा जीवेषु मामकाः। तेषां श्रीर्मयि कल्पताम्। अस्मिँल्लोके शतं समाः (इति प्रतिप्रस्थाता जुहोति)। - तै.ब्रा. २.६.३.४

      *विष्णु के तीन क्रम :- त्रेधा विष्णुरुरुगायो विचक्रमे। महीं दिवं पृथिवीमन्तरिक्षम्। तच्छ्रोणैति श्रव इच्छमाना। पुण्यं श्लोकं यजमानाय कृण्वती। - तै.ब्रा. ३.१.२.६

      *तन्नो विश्वे उपशृण्वन्तु देवाः। तदषाढा अभिसंयन्तु यज्ञम्। तन्नक्षत्रं प्रथतां पशुभ्यः। कृषिर्वृष्टिर्यजमानाय कल्पताम्। - तै.ब्रा. ३.१.२.४

      *दर्शपूर्णमासेष्टि विषयक स्रुकसंमार्जनसम्बन्धि विधिः :- अग्रत एवोपरिष्टात्संमृज्यात्। मूलतोऽधस्तात्। तदनुपूर्वं कल्पते। वर्षुको भवतीति। - तै.ब्रा. ३.३.१.३

      *यद्योक्त्रम्। स योगः। यदास्ते। स क्षेमः। योगक्षेमस्य क्लृप्त्यै। - तै.ब्रा. ३.३.३.३

      *होतारं प्रति मैत्रावरुणप्रैषः :- अजैदग्निः। असनद्वाजं नि। देवो देवेभ्यो हव्यावाट्। प्राञ्जोभिर्हिन्वानः। धेनाभिः कल्पमानः। यज्ञस्याऽऽयुः प्रतिरन्। - तै.ब्रा. ३.६.५.१

      *मित्रो जनान्कल्पयति प्रजानन्। मित्रो दाधार पृथिवीमुत द्याम्। - - - - - सत्याय हव्यं घृतवज्जुहोतेति। मित्रेणैवैनत्कल्पयति। - तै.ब्रा. ३.७.२.३

      *अध्वर्योर्वाग्विसर्जनम् : बहु दुग्धीन्द्राय देवेभ्यः। हव्यमाप्यायतां पुनः। वत्सेभ्यो मनुष्येभ्यः। पुनर्दोहाय कल्पताम्। - तै.ब्रा. ३.७.४.१६

      *आहवनीयागारे गार्हपत्यागारे वा शयाने जप्यं मन्त्रं। पात्र्यामुपस्तरणमन्त्रम् :- स्योनं ते सदनं करोमि। घृतस्य धारया सुशेवं कल्पयामि। - तै.ब्रा. ३.७.५.२

      *बर्हिषदः पुरोडाशस्याभिमर्शने मन्त्रम् : ब्रध्न पिन्वस्व। ददतोv मे मा क्षायि। कुर्वतोv मे मोपदसत्। दिशां क्लृप्तिरसि। दिशो मे कल्पन्ताम्। कल्पन्तां मे दिशः। दैवीश्च मानुषीश्च। अहोरात्रे मे कल्पेताम्। अर्धमासा मे कल्पन्ताम्। मासा मे कल्पन्ताम्। ऋतवो मे कल्पन्ताम्। संवत्सरो मे कल्पताम्। क्लृप्तिरसि कल्पतां मे। - तै.ब्रा. ३.७.५.८

      *दर्शपूर्णमासाङ्गभूत नारिष्ठहोमार्थ मन्त्राः :- यं वां देवा अकल्पयन्। ऊर्जो भागं शतक्रतू। एतद्वां तेन प्रीणानि। तेन तृप्यतमंहहौ। - तै.ब्रा. ३.७.५.११

      *दार्शिकादौ प्रायश्चित्तमन्त्राः :- यज्ञः पर्वाणि प्रतिरन्नेति कल्पयन्। स्वाहाकृताऽऽहुतिरेतु देवान्। आश्रावितमत्याश्रावितम्। वषट्कृतमत्यनूक्तं च यज्ञे। अतिरिक्तं कर्मो यच्च हीनम्। यज्ञः पर्वाणि प्रतिरन्नेति कल्पयन्। - तै.ब्रा. ३.७.११.१

      *अनाज्ञातं यदाज्ञातम्। यज्ञस्य क्रियते मिथु। अग्ने तदस्य कल्पय। त्वं हि वेत्थ यथातथम्। पुरुषसंमितो यज्ञः। यज्ञः पुरुषसंमितः। अग्ने तदस्य कल्पय। त्वं हि वेत्थ यथातथम्। - तै.ब्रा. ३.७.११.५

      *तदाहुः। यज्ञमुखे यज्ञमुखे होतव्याः। यज्ञस्य क्लृप्त्यै। सुवर्गस्य लोकस्यानुख्यात्या इति। - तै.ब्रा.३.८.८.३

      *(वैश्वदेवमन्त्रेषु एकैकां देवतां) त्रेधा विभज्य देवतां जुहोति। त्र्यावतो वै देवाः। त्र्यावृत इमे लोकाः। एषां लोकानामाप्त्यै। एषां लोकानां क्लृप्त्यै। - तै.ब्रा. ३.८.१०.४

      *फलिन्यो न ओषधयः पच्यन्तामित्याह। फलिन्यो ह वै तत्रौषधयः पच्यन्ते। यत्रैतेन यज्ञेन यजन्ते। योगक्षेमो नः कल्पतामित्याह। कल्पते ह वै तत्र प्रजाभ्यो योगक्षेमः। यत्रैतेन यज्ञेन यजन्ते। - तै.ब्रा. ३.८.१३.३

      *भुवो देवानां कर्मणेत्यृतुदीक्षा जुहोति। ऋतूनेवास्मै कल्पयति। - तै.ब्रा. ३.८.१७.२

      *त्रयाणां त्रयाणां सह वपा जुहोति। त्र्यावृतो वै देवाः। त्र्यावृत इमे लोकाः। एषां लोकानामाप्त्यै। एषां लोकानां क्लृप्त्यै। - तै.ब्रा. ३.९.३.३

      *देवा वा अश्वमेधे पवमाने। सुवर्गं लोकं न प्राजानन्। तमश्वः प्राजानात्। यत्सूचीभिरसिपथान्कल्पयन्ति। सुवर्गस्य लोकस्य प्रज्ञात्यै। - तै.ब्रा. ३.९.६.४

      *त्रय्यः सूच्यो भवन्ति। अयस्मय्यो रजता हरिण्यः। अस्य वै लोकस्य रूपमयस्मय्यः। अन्तरिक्षस्य रजताः। दिवो हरिण्यः। दिशो वा अयस्मय्यः। अवान्तरदिशा रजताः। ऊर्ध्वा हरिण्यः। दिश एवास्मै कल्पयति। - तै.ब्रा. ३.९.६.५

      *यत्प्रातरिष्टिभिर्यजते सायंधृतीर्जुहोति। अहोरात्राभ्यामेवैनमविच्छति। अथो अहोरात्राभ्यामेवास्मै योगक्षेमं कल्पयति। - तै.ब्रा. ३.९.१३.३

      *अक्लॄप्ता वै एतस्यर्तव इत्याहुः। योऽश्वमेधेन यजत इति। तिस्रोऽन्यो गायति तिस्रोऽन्यः। षट्त्संपद्यन्ते । षड्वा ऋतवः। ऋतूनेवास्मै कल्पयतः। - तै.ब्रा. ३.९.१४.४

      *एष वै क्लृप्तो नाम यज्ञः। कल्पते ह वै तत्र प्रजाभ्यो योगक्षेमः। यत्रैतेन यज्ञेन यजन्ते। - तै.ब्रा. ३.९.१९.३

      *संज्ञानं विज्ञानं प्रज्ञानं जानदभिजानत्। संकल्पमानं प्रकल्पमानमुपकल्पमानमुपक्लृप्तं क्लृप्तम्। श्रेयो वसीय आयत्संभूतं भूतं। - तै.ब्रा. ३.१०.१.१

      *वैश्वसृजचयनाभिधानम् : वागेषां सुब्रह्मण्याऽऽसीत्। छन्दोयोगान्विजानती। कल्पतन्त्राणि तन्वानाऽहः। संस्थाश्च सर्वशः। - तै.ब्रा. ३.१२.९.६

      *पञ्च देवता यजति पाङ्क्तो यज्ञः सर्वा दिशः कल्पन्ते यज्ञोऽपि। तस्यै जनतायै कल्पते यत्रैवं विद्वान्होता भवति। - ऐतरेय ब्राह्मण १.८

      *देवविशः कल्पयितव्या इत्याहुस्ताः कल्पमानां अनु मनुष्यविशः कल्पन्त इति सर्वा विशः कल्पन्ते कल्पते यज्ञोऽपि। तस्यै जनतायै कल्पते यत्रैवं विद्वान्होता भवति। - - - - -मरुतो वै देवानां विशस्ता एवैतद्यज्ञमुखेऽचीक्लॄपत। - ऐ.ब्रा. १.९

      *नवकपालो (पुरोडाशो) भवति। नव वै प्राणाः। प्राणानां क्लॄप्त्यै प्राणानां प्रतिप्रज्ञात्यै। - ऐ.ब्रा. १.१५

      *वाक्च वा एष प्राणश्च ग्रहो यदेन्द्रवायवस्तदपि छन्दोभ्यां यथायथं क्लृप्स्येते। - - - - - - वायुर्हि प्राणोऽथ यैन्द्रवायवी तस्यै यदैन्द्रं पदं तेन वाचं कल्पयति वाग्घ्यैन्द्र्युपो तं काममाप्नोvति यः प्राणे च वाचि च न यज्ञे विषमं करोति। - ऐ.ब्रा. २.२६

      *यमु कामयेत सर्वमेवास्य यथापूर्वमृजुक्लृप्तं स्यादित्याह्वयेताथ निविदं दध्यादथ सूक्तं शंसेत्सो सर्वस्य क्लृप्तिः। - ऐ.ब्रा.२.३३

      *षट्पदं तूष्णींशंसं शंसति षड्वा ऋतव ऋतूनेव तत्कल्पयत्यृतूनप्येति। द्वादशपदां पुरोरुचं शंसति द्वादश वै मासा मासानेव तत्कल्पयति मासानप्येति। प्र वो देवायाग्नय इति शंसत्यन्तरिक्षं वै प्रान्तरिक्षं हीमानि सर्वाणि भूतान्यनुप्रयन्त्यन्तरिक्षमेव तत्कल्पयन्तरिक्षमप्येति। दीदिवांसमपूर्व्यमिति शंसत्यसौ वै दीदाय योऽसौ वपत्येतस्माद्धि न किंचन पूर्वमस्त्येतमेव तत्कल्पयत्येतमप्येति। स नः शर्माणि वीतय इति शंसत्यग्निर्वै शर्माण्यन्नाद्यानि यच्छत्यग्निमेव तत्कल्पयत्यग्निमप्येति। उत नो ब्रह्मन्नविष इति शंसति चन्द्रमा वै ब्रह्म चन्द्रमसमेव तत्कल्पयति चन्द्रमसमप्येति। स यन्ता विप्र एषामिति शंसति वायुर्वै यन्ता वायुना हीदं यतमन्तरिक्षं न समृच्छति वायुमेव तत्कल्पयति वायुमप्येति। ऋतावा यस्य रोदसी इति शंसति द्यावापृथिवी वै रोदसी द्यावापृथिवी एव तत्कल्पयति द्यावापृथिवीश्चाप्येति। नू नो रास्व सहस्रवत्तोक वत्पुष्टिमद्वस्वित्युत्तमया परिदधाति संवत्सरो वै समस्तः सहस्रवांस्तोकवान्पुष्टिमान्संवत्सरमेव तत्समस्तं कल्पयति संवत्सरं समस्तमप्येति। याज्यया यजति वृष्टिर्वै याज्या विद्युदेव विद्युद्धीदं वृष्टिमन्नाद्यं संप्रयच्छति विद्युतमेव तत्कल्पयति विद्युतमप्येति। - ऐ.ब्रा.२.४१

      *षळिति वषट्करोति षड्वा ऋतव ऋतूनेव तत्कल्पत्यृतून्प्रतिष्ठापयत्यृतून्वै प्रतितिष्ठत इदं सर्वमनु प्रतितिष्ठति यदिदं किंच। - ऐ.ब्रा. ३.६

      *देवविशः कल्पयितव्या इत्याहुश्छन्दश्छन्दसि प्रतिष्ठाप्यमिति शोंसावोमित्याह्वयते प्रातःसवने त्र्यक्षरेण शंसाऽऽमोदैवोमित्यध्वर्युः प्रतिगृणाति पञ्चाक्षरेण तदष्टाक्षरं संपद्यतेऽष्टाक्षरा वै गायत्री गायत्रीमेव तत्पुरस्तात्प्रातःसवनेऽचीक्लृपताम्। उक्थं वाचीत्याह शस्त्वा चतुरक्षरमोमुक्थशा इत्यध्वर्युश्चतुरक्षरं तदष्टाक्षरं संपद्यतेऽष्टाक्षरा वै गायत्री गायत्रीमेव तदुभयतः प्रातःसवनेऽचीक्लॄपताम्। अध्वर्यो शोंसावोमित्याह्वयते मध्यंदिने - - - - - - - - - - अगि|यो मुख्यो भवति श्रेष्ठतामश्नुते य एवं वेद। स्वे वै स तत्सोमेऽकल्पयत्तस्माद्यत्र क्व च यजमानवशो भवति कल्पत एव यज्ञोऽपि। तस्यै जनतायै कल्पते यत्रैवं विद्वान्यजमानो वशी यजते। - ऐ.ब्रा. ३.१२

      *ते वै पञ्चान्यद्भूत्वा पञ्चान्यद्भूत्वा कल्पेतामाहावश्च हिंकारश्च प्रस्तावश्च प्रथमा च ऋगुद्गीथश्च मध्यमा च प्रतिहारश्चोत्तमा च निधनं च वषट्कारश्च। ते यत्पञ्चान्यद्भूत्वा पञ्चान्यद्भूत्वा कल्पेतां तस्मादाहुः पाङ्क्तो यज्ञः पाङ्क्ताः पशवः। - ऐ.ब्रा. ३.२३

      *- - - - - - जगती गर्भमधत्त साऽतिच्छन्दसमसृजत तानि त्रीण्यन्यानि त्रीण्यन्यानि षट्छन्दांस्यासन्षट् पृष्ठानि तानि तथाऽकल्पन्त कल्पते यज्ञोपि। तस्यै जनतायै कल्पते यत्रैवमेतां छन्दसां च पृष्ठानां च क्लृप्तिं विद्वान्दीक्षते दीक्षते। - ऐ.ब्रा. ४.२८

      *न वै देवा अन्योन्यस्य गृहे वसन्ति नर्तुर्ऋतोर्गृहे वसतीत्याहुस्तद्यथायथमृत्विज ऋतुयाजान्यजन्त्यसंप्रदायं तद्यथर्वृतून्कल्पयन्ति यथायथं जनताः। - ऐ.ब्रा. ५.९

      *नाभानेदिष्ठेनैव रेतोऽसिञ्चत्तद्वालखिल्याभिर्व्यकरोत् - - - -तस्माज्ज्यायान्सन्गर्भः कनीयांसं सन्तं योनिं न हिनस्ति ब्रह्मणा हि स क्लृप्त एवयामरुतैतवै करोति तेनेदं सर्वमेतवै कृतमेति यदिदं किंच। - ऐ.ब्रा. ५.१५

      *ते देवा एवं क्लृप्तेन यज्ञेनापासुरान्पाप्मानमघ्नताजयन्स्वर्गं लोकम्। अप ह वै द्विषन्तं पाप्मानं भ्रातृव्यं हते जयति स्वर्गं लोकं य एवं वेद यश्चैवं विद्वान्सवनानि कल्पयति। - ऐ.ब्रा. ६.४

      *इन्द्रश्च ह वै विष्णुश्चासुरैर्युयुधाते तान्ह स्म जित्वोचतुः कल्पामहा इति ते ह तथेत्यसुरा ऊचुः - - - - - -ऐ.ब्रा. ६.१५

      *वालखिल्याः शंसति प्राणा वै वालखिल्याः प्राणानेवास्य तत्कल्पयति। - ऐ.ब्रा. ६.२८

      *ते हैके सह बृहत्यौ सह सतोबृहत्यौ विहरन्ति तदुपाप्तो विहारे कामो नेत्तु प्रगाथाः कल्पन्ते। अतिमर्शमेव विहरेत्तथा वै प्रगाथाः कल्पन्ते प्रगाथा वै वालखिल्याः - - - ऐ.ब्रा. ६.२८

      *तस्य मैत्रावरुणः प्राणान्कल्पयित्वा ब्राह्मणाच्छंसिने संप्रयच्छत्येतं त्वं प्रजनयेति। - ऐ.ब्रा. ६.२८

      *ब्राह्मणाच्छंसिनः शस्त्रं :- वृषाकपिं शंसत्यात्मा वै वृषाकपिरात्मानमेवास्य तत्कल्पयति। - ऐ.ब्रा. ६.२९

      *अच्छावाकस्य शस्त्रं :- एवयामरुतं शंसति प्रतिष्ठा वा एवयामरुत्प्रतिष्ठामेवास्य तत्कल्पयति। - ऐ.ब्रा. ६.३०

      *तदाहुर्यदस्मिन्विश्वजित्यतिरात्र एवं षष्ठेऽहनि कल्पते यज्ञः कल्पते यजमानस्य प्रजातिः कथमत्राशस्त एव नाभानेदिष्ठो भवति - - - ऐ.ब्रा. ६.३१

      *सर्वाणि चेत्समानेऽहन्क्रियेरन्कल्पत एव यज्ञः कल्पते यजमानस्य प्रजाति - ऐ.ब्रा. ६.३१

      *दिशांक्लृप्तीः शंसति दिश एव तत्कल्पयति। - - - - जनकल्पाः शंसति प्रजा वै जनकल्पा दिश एव तत्कल्पयित्वा तासु प्रजाः प्रतिष्ठापयति। - ऐ.ब्रा. ६.३२

      *स यद्येकस्मिन्नुन्नीते यदि द्वयोरेष एव कल्पस्तच्चेद्व्यपनयितुं शक्नुयान्निः षिच्यैतद्दुष्टमदुष्टमभिपर्यासिच्य - - - ऐ.ब्रा. ७.५

      *शुनःशेपविश्वामित्रयोर्वृत्तान्तं : ये के च भ्रातरः स्थ नास्मै ज्यैष्ठ्याय कल्पध्वमिति। - ऐ.ब्रा. ७.१७

      *ऐकाहिकं प्रातःसवनमैकाहिकं तृतीयसवनमेते वै शान्ते क्लृप्ते प्रतिष्ठिते सवने यदैकाहिके शान्त्यै क्लृप्त्यै प्रतिष्ठित्या अप्रच्युत्यै। - ऐ.ब्रा. ८.१

      *अन्नं वै रथंतरमन्नमेवास्मै तत्पुरस्तात्कल्पयत्यथेयं वै पृथिवी रथंतरमियं खलु वै प्रतिष्ठा प्रतिष्ठामेवास्मै तत्पुरस्तात्कल्पयति। - ऐ.ब्रा. ८.१

      *ऐकाहिका होत्रा एता वै शान्ताः क्लृप्ताः प्रतिष्ठिता होत्रा यदैकाहिकाः शान्त्यै क्लृप्त्यै प्रतिष्ठित्या अप्रच्युत्यै - ऐ.ब्रा. ८.४

      *आसन्द्यां क्षत्रियस्याऽऽरोहणं : कल्पते ह वा अस्मै योगक्षेम उत्तरोत्तरिणीं ह श्रियमश्नुते ह प्रजानामैश्वर्यमाधिपत्यं - - -ऐ.ब्रा.८.६

      *आधाय समिधं त्रीणि पदानि प्राङुदङ्ङभ्युत्क्रामति। क्लृप्तिरसि दिशां मयि देवेभ्यः कल्पत। कल्पतां मे योगक्षेमोऽभयं मेऽस्तु। इत्यपराजितां दिशमुपतिष्ठते - ऐ.ब्रा. ८.९

      *मरीचयः स्वायंभुवाः। ये शरीराण्यकल्पयन्। ते ते देहं कल्पयन्तु। मा च ते ख्या स्म तीरिषत्। - तैत्तिरीय आरण्यक १.२७.२

      *- - - - - सुदर्शने च क्रौञ्चे च। मैनागे च महागिरौ। सतद्वाट्टारगमन्ता। संहार्यं नगरं तव इति मन्त्राः। कल्पोऽत ऊर्ध्वम्। - तै.आ. १.३१.२

      *यद्ब्राह्मणानीतिहासान्पुराणानि कल्पान्गाथा नाराशंसीर्मेदाहुतयो देवानामभवन्तीभिः क्षुधं पाप्मानमपाघ्नन् -- - - - तै.आ. २.९.१

      *यद्ब्राह्मणानीतिहासान्पुराणानि कल्पान्गाथा नाराशंसीर्मेदसः कूल्या अस्य पितृqन्स्वधा अभिवहन्ति। - तै.आ. २.१०.१

      *यद्ब्राह्मणानीतिहासान्पुराणानि कल्पान्गाथा नाराशंसीर्मेदाहुतिभिरेव तद्देवांस्तर्पयति - तै.आ. २.१०.१

      *यत्सव्यं पाणिं पादौ प्रोक्षति यच्छिरश्चक्षुषी नासिके श्रोत्रे हृदयमालभते तेनाथर्वाङ्गिरसो ब्राह्मणानीतिहासान्पुराणानि कल्पान्गाथा नाराशंसीः प्रीणाति। - तै.आ. २.११.१

      *चन्द्रमा षड्ढोता। स ऋतून्कल्पयाति। स मे ददातु प्रजां पशून्पुष्टिं यशः। ऋतवश्च मे कल्पन्ताम्। - तै.आ. ३.७.३

      *येनर्तवः पञ्चधोत क्लृप्ताः। उत वा षड्धा मनसोत क्लृप्ताः। तं षड्ढोतारमृतुभिः कल्पमानम्। ऋतस्य पदे कवयो निपान्ति। - तै.आ. ३.११.५

      *नाभ्या आसीदन्तरिक्षम्। शीर्ष्णो द्यौः समवर्तत। पद्भ्यां भूमिर्दिशः श्रोत्रात्। तथा लोकां अकल्पयन्। - तै.आ. ३.१२.६

      *अग्निरसि वैश्वानरोऽसि। संवत्सरोऽसि। - - - - - तस्य ते मासाश्चार्धमासाश्च कल्पन्ताम्। ऋतवस्ते कल्पन्ताम्। संवत्सरस्ते कल्पताम्। अहोरात्राणि ते कल्पन्ताम्। - तै.आ. ४.१९.१

      *इयं वा ऋजुः। अन्तरिक्षं साधु। असौ सुक्षितिः। दिशो भूतिः। इमानेवास्मै लोकान्कल्पयति। - तै.आ. ५.३.७

      *प्राणा वै धवित्राणि। अव्यतिषङ्गं धून्वन्ति। प्राणानामव्यतिषङ्गाय क्लृप्त्यै। - तै.आ. ५.४.१३

      *अत्र प्राचीर्मधुमाध्वीभ्यां मधुमाधूचीभ्यामित्याह। वासन्तिकावेवास्मा ऋतू कल्पयति। समग्निरग्निना गतेत्याह। ग्रैष्मावेवास्मा ऋतू कल्पयति। - - - - - धर्ता दिवो विभासि रजसः पृथिव्या इत्याह। वार्षिकावेवास्मा ऋतू कल्पयति। हृदे त्वा मनसे त्वेत्याह। शारदावेवास्मा ऋतू कल्पयति।- - - - विश्वासां भुवां पत इत्याह। हैमन्तिकावेवास्मा ऋतू कल्पयति। देवश्रूस्त्वं देव घर्म देवान्पाहीत्याह। शैशिरावेवास्मा ऋतू कल्पयति। - तै.आ. ५.६.७

      *धियो हिन्वानो धिय इन्नो अव्यादित्याह। ऋतूनेवास्मै कल्पयति। प्राऽऽसां गन्धर्वो अमृतानि वोचदित्याह। प्राणा वा अमृताः। प्राणानेवास्मै कल्पयति। - तै.आ. ५.९.१०

      *शं वातः शं हि ते घृणिः शमु ते सन्त्वोषधीः। कल्पन्तां मे दिशः शग्माः। - तै.आ. ६.७.३

      *शं वातः शं हि ते घृणिः शमु ते सन्त्वोषधीः। कल्पन्तां ते दिशः सर्वाः। - तै.आ. ६.९.२

      *यथाऽहान्यनुपूर्वं भवन्ति यथर्तव ऋतुभिर्यन्ति क्लृप्ताः। यथा न पूर्वमपरो जहात्येवा धातरायूंषि कल्पयैषाम्। - तै.आ. ६.१०.१

      *- - - - कला मुहूर्ताः काष्ठाश्चाहोरात्राश्च सर्वशः। अर्धमासा मासा ऋतवः संवत्सरश्च कल्पताम्। स आपः प्रदुघे उभे इमे अन्तरिक्षमथो सुवः। - तै.आ. १०.१.२

      *सूर्याचन्द्रमसौ धाता यथापूर्वमकल्पयत्। दिवं च पृथिवीं चान्तरिक्षमथो सुवः। - तै.आ. १०.१.१३

      *गायत्रं वै प्रातःसवनं त्रैष्टुभं माध्यंदिनं सवनं जागतं तृतीयसवनं सवनान्येव तद्यथास्थानं यथारूपं कल्पयति ॥ - षड्विंश ब्राह्मण १.४.१२

      *अपि वाज्ञातं यदनाज्ञातं यज्ञस्य क्रियते मिथ्वग्ने कल्पय त्वम्। हि वेत्थ यथायथं स्वाहेति। - षड्.ब्रा. १.६.२०

      *यः कामयेत कल्पेरन् प्रजा यथादिष्टं यजमानः स्यादिति यथाज्यं गायेत्। कल्पन्ते प्रजा यथादिष्टं यजमानो भवति। - षड्.ब्रा. २.३.१४

      *को वर्ण इति पूर्वे प्रश्नाः। अथोत्तरे - मन्त्रः कल्पो ब्राह्मणमृग्यजुः साम? - गोपथ ब्राह्मण १.१.२४

      *मन्त्रः कल्पो ब्राह्मणमृग्यजुः सामाथर्वाणि। - गो.ब्रा. १.१.२७

      *त्रिधा बद्धो वृषभो रोरवीति मन्त्रः कल्पो ब्राह्मणम्। - गो.ब्रा. १.२.१६

      *सोऽश्वस्तुष्टो नमस्कारं चकार। नमः शंयुमाथर्वणाय, यो मा यज्ञियमचीक्लृपदिति। - गो.ब्रा. १.२.१८

      *तद् यथा कुम्भे लोष्टः प्रक्षिप्तो नैव शौचार्थाय कल्पते नैव शख्यं निर्वर्तयति, एवमेवायं ब्राह्मणो ऽनग्निकः ॥ - गो.ब्रा. १.२.२३

      *- - - -ऽवषट्कार्षीद् म इति होत्रे, देवयजनं मे ऽचीक्लृपद् ब्रह्मासादं मे ऽसीसृपद् - - - -इति ब्रह्मणे। - गो.ब्रा. १.३.४

      *एतेषां (ऋत्विजां) वै नवानां क्लृप्तिमन्वितरे कल्पन्ते। नव वै प्राणाः। प्राणैर्यज्ञस्तायते। - गो.ब्रा. १.४.६

      *सत्त्रिणां प्रायश्चित्तमनु तस्यार्धस्य योगक्षेमः कल्पते यस्मिन्नर्धे दीक्षन्त इति ब्राह्मणम्। - गो.ब्रा. १.४.६

      *प्रातःसवन एकविंशो गायत्रस्तोममित एक एव। माध्यंदिनः सप्तदशेन क्लृप्तस्त्रयस्त्रिंशेन सवनं तृतीयम्। - गो.ब्रा. १.५.२३

      *सन्ति चैषां समानाः मन्त्राः कल्पाश्च ब्राह्मणानि च। व्यवस्थानं तु तत् सर्वं पृथग् वेदेषु तत् स्मृतम् ॥ - गो.ब्रा. १.५.२५

      *देवविशः कल्पयितव्या इत्याहुः। - - शंसावोमित्याह्वयते प्रातःसवने त्र्यक्षरेण। - - - गायत्रीमेवैतत् पुरस्तात् प्रातःसवने ऽचीक्लृपताम्। - - - - गायत्रीमेवैतदुभयतः प्रातःसवने ऽचीक्लृपताम्। - - - - -त्रिष्टुभमेवैतत् पुरस्ताद् माध्यंदिने ऽचीक्लृपताम्। - - - - त्रिष्टुभमेवैतदुभयतो माध्यंदिने ऽचीक्लृपताम्। - - - - जगतीमेवैतत् पुरस्तात् तृतीयसवने ऽचीक्लृपताम्। - - - - जगतीमेवैतदुभयतस्तृतीयसवने ऽचीक्लृपतामिति। - गो.ब्रा. २.३.१०

      *द्वादशाक्षरा वै जगती। जगतीमेवैतदुभयतस्तृतीयसवने ऽचीक्लृपतामिति। - गो.ब्रा. २.३.१०

      *ते वै पञ्चान्यद्भूत्वा पञ्चान्यद्भूत्वाकल्पेताम् - आहावश्च हिंकारश्च - - - -। ते यत् पञ्चान्यद्भूत्वा पञ्चान्यद्भूत्वाकल्पेतां, तस्मादाहुः - पाङ्क्तो यज्ञः, पाङ्क्ताः पशवः इति। - गो.ब्रा. २.३.२०

      *आत्मा वै स्तोत्रियः स मध्यमया वाचा शंस्तव्यः। आत्मानमेवास्य तत् कल्पयति। - - - प्रजा वा अनुरूपः। - गो.ब्रा. २.३.२२

      *यदन्तरात्मंस्तद् निवित्। तदेवास्य तत् कल्पयति। - - - - अन्नं वै याज्या। अन्नाद्यमेवास्य तत् कल्पयति। - गो.ब्रा. २.३.२२

      *अथ यद्यजमानः स्तोत्रमुपासीदति, आत्मा वै यजमानः, आत्मानमेवास्य तत् कल्पयति। - गो.ब्रा.२.५.४

      *तं होता रेतोभूतं शस्त्वा मैत्रावरुणाय संप्रयच्छति - एतस्य त्वं प्राणान् कल्पय इति। - - - - प्राणा वै वालखिल्याः, प्राणानेवास्य तत् कल्पयति। - - - - - तदुपाप्तो विहरेत् कामो, नेतुर्वै प्रगाथाः कल्पन्ते। अतिमर्शमेव विहरेत्। तथा वै प्रागाथाः कल्पन्ते। - गो.ब्रा. २.६.८

      *तस्य मैत्रावरुणः प्राणान् कल्पयित्वा ब्राह्मणाच्छंसिने संप्रयच्छति - एतस्य तवं प्रजनयेति। - - - - आत्मा वै वृषाकपिः, आत्मानमेवास्य तत् कल्पयति। - - - स यावानेव पुरुषस्तावन्तं यजमानं संस्कृत्याच्छावाकाय संप्रयच्छति - एतस्य त्वं प्रतिष्ठां कल्पयेति। - गो.ब्रा.२.६.८

      *यथा षष्ठे पृष्ठ्याहनि कल्पत एव यज्ञः, कल्पते यजमानस्य प्रजातिः, कथमत्राशस्त एव नाभानेदिष्ठो भवति -- - गो.ब्रा. २.६.९

      *तद् यदृतून् कल्पयन्ति यथायथं जनिता - गो.ब्रा. २.६.१०

      *तद् यद्दिशां क्लृप्तीः पूर्वं शस्त्वा - यः सभेयो विदथ्यः इति जनकल्पा उत्तराः शंसति, ऋतूनेव तत् कल्पयति। - गो.ब्रा. २.६.१२

      *यत् प्राग् उद्द्रुतम् अमेध्यम् आपद्येत किं तत्र कर्म का प्रायश्चित्तिर् इति। तद् उ हैके होतव्यम् एव मन्यन्ते प्रेतम् एतन् नैतस्याहोमः कल्पत इति वदन्तः। - जैमिनीय ब्राह्मण १.५६

      *प्रजापतिं कल्पयित्वोद्गायेत्। यो ह वै प्रजापतिं कल्पयित्वोद्गायति कल्पते ऽस्मै दिशः प्रदिश आदिशो विदिश उद्दिशो दिश इति। दिशो वै प्रजापतिः। प्रजापतिम् एव तत् कल्पयित्वोद्गायति। कल्पते ऽस्मै य एवं वेद। - जै.ब्रा. १.८९

      *एतावन्ति ह खलु वै सामान्य् एतावती सामक्लृप्तिर् एतावान् उ सामबन्धुः।- - - - - - प्राणम् आत्मानं पशूंस् तान् एवैतत् संदधाति। सर्वयास्य सामक्लृप्त्या सर्वेण सामबन्धुना स्तुतं भवति य एवं वेद। - जै.ब्रा. १.१२३

      *अथ ह स क्लृप्त एव पवमानो यस्मिन्नावि त्रिणिधनं भवति सवनानाम् एव क्लृप्त्यै। - जै.ब्रा. १.१२४

      *तद् यद् इहेव चेहेव च पवमानेन स्तुवन्ति तद् एतस्यैव समतायै समं क्लृप्त्यै। - जै.ब्रा. १.१६६

      *तद् आहुर् यथापूर्वं यथाज्यैष्ठ्यं छन्दांसि विमुच्यानि छन्दसां क्लृप्तिं विमुक्तिम् अनु प्रजाः कल्पान्ता इति। - - - - छन्दसां क्लृप्तिं विमुक्तिम् अनु प्रजाः कल्पन्ते नापरामारी पूर्वी म्रियते। - जै.ब्रा. १.१७८

      *क्लृप्तं ह वै लोकं यजमानो ऽभिजायते। पशून् एव प्रथमस्य तृचस्य प्रथमया स्तोत्रियया जयति भूमिं द्वितीययाग्निं तृतीयया। - जै.ब्रा. १.२४५

      *यद्य् एनं बहिष्पवमाने ऽनुव्याहरेद् यज्ञस्य रेतस् सिक्तम् अचीक्लृपं यज्ञमारो ऽरेतस्का ते प्रजा भविष्यतीत्य् एनं ब्रूयात्। - जै.ब्रा. १.२५४

      *यद्य् एनम् आर्भवस्य पवमानस्य गायत्र्याम् अनुव्याहरेद् यज्ञस्य प्राणम् अचीक्लृपं यज्ञमारः प्राणस् त्वा हास्यतीत्य् एनं ब्रूयात्। - - - - -यद्य् एनम् उष्णिह्मùकुभोर् अनुव्याहरेद् यज्ञस्य चक्षुषी अचीक्लृपं यज्ञमारो बधिरो भविष्यसीत्य् एनं ब्रूयात्। - - - - - -जै.ब्रा. १.२५५

      *अथो हैवायुष्यैव क्लृप्तिः। आयुर् वै गायत्रं विश्वायू रथन्तरं समायुर् वामदेव्यं सर्वायुर् बृहद् अत्यायुर् यज्ञायज्ञीयम्। - जै.ब्रा. १.२९२

      *तद् उ ह स्माहेयपिस् सौमापो न बृहद्रथन्तरे यज्ञं कल्पयतः। उभे वै ते अन्तर्निधने वा बहिर्निधने वा। स्वारर्क्समे वाव यज्ञं कल्पयत इति। - जै.ब्रा. १.२९९

      *स यो हैवं विद्वान् जामि कल्पयत्य् अजाम्य् एवास्य तत् क्लृप्तं भवति। तत् तूपर्युपर्य् अजाम्य् एव चिकल्पिषेत्। - जै.ब्रा. १.३००

      *कान्य् उ ह वै यो जामि यथापूर्वं कल्पयेत्। - जै.ब्रा. १.३०७

      *तान्य् उ ह वै यो जामि यथापूर्वं कल्पयेद् राथन्तरम् एव प्रथमं कुर्याद् अथ बार्हतम् अथ राथन्तरबार्हतम् अथ बार्हतराथन्तरम्। - जै.ब्रा. १.३०८

      *तत् सुक्लृप्तिः। निधनवता गायत्रीम् आरभेत। - जै.ब्रा. १.३०९

      *अथ यौधाजयं त्रिणिधनं सवनानां क्लृप्त्यै। - जै.ब्रा. २.१४

      *तां विंशतिस् सप्तशतानि चाहुष् षट्त्रिंशिनीं बृहतीं कल्पमानाम्। सानुष्टुब् भूत्वा पशुभिस् सयोनिर् देवान् पितृqन् ददते मनुष्यांश् च। - - - षट्त्रिंशिनीं बृहतीं कल्पमानाम् इत्य् एवं ह तद् अहोभिष् षट्त्रिंशिनी बृहती कल्पते। - जै.ब्रा. २.३०

      *स यथा तैर् ऋतुभिः परिगृहीत एवम् एवानार्तस् संवत्सरस्योदृचं गच्छति। ऋतुर् ऋतुर् हैवंविदे कल्पते। - जै.ब्रा. २.५२

      *तस्मै यदेमां क्लृप्तिं प्रोवाचाभ्यूहम् अनुजगौ प्रस्तावप्रतिहारान् विदधाव् अथ हैनम् अनुशशास। - जै.ब्रा. २.५६

      *अथ यौधाजयं त्रिणिधनं सवनानां क्लृप्त्यै। - जै.ब्रा. २.१९४

      *ताभ्याम् एतां द्यावापृथिव्याम् उपालंभ्यास् अकल्पयत्। - जै.ब्रा. २.२३०

      *तस्माद् यां कां चन दिशं पशुमान् अयति, सर्वाम् एव जितां क्लृप्तां प्रतिष्ठिताम् अन्वेति। - जै.ब्रा. २.२९२

      *अथ य एनां तैस् समर्धयन्ति तान् एषा तृप्ता प्रीता ज्ञाता स्वा वाग् अभिवदत्य् अचीक्लृपन्न् ऋतून्, श्रद्दधाना अयक्षत नारात्सुर् इति। - जै.ब्रा. २.३८४

      *यद् व् अहम् इहाभविष्यम्, अन्यथातो विषुवन्तम् अकल्पयिष्यम् इति। कथं भगवो ऽकल्पयिष्य इति हैनं पुत्र उवाच - - - - - -जै.ब्रा. २.३८७

      *अथैष वैश्वानरः प्रायणीयो ऽतिरात्रः। तस्यैषोर्ध्वा क्लृप्ति स्वग्र्या। - - - - - -सैषोर्ध्वा क्लृप्ति स्वग्र्या। तया हैतया क्लृप्त्योर्ध्वं स्वर्गं लोकं रोहन्ति। अथो हैषाम् एतद् एव साम क्लृप्तं कृत्स्नं युक्तं यज्ञं वहति। - जै.ब्रा. २.४३२

      *अथो हैषायुष्यैव क्लृप्तिः। आयुर् वै गायत्रं, विश्वायू रथन्तरं, समायुर् वामदेव्यं - - -- - -जै.ब्रा. २.४३३

      *अथैतच् चतुर्विंशम् आरम्भणीयम् अहः। तस्यैषोर्ध्वा क्लृप्ति स्वग्र्या।- - - - - - - - -सैषा समीची क्लृप्ति स्वग्र्या। - जै.ब्रा. २.४३६

      *सैषा समीची क्लृप्ति स्वग्र्या। तया हैतया क्लृप्त्या सम्यञ्च एव स्वर्गं लोकं रोहन्ति। - जै.ब्रा. २.४३७

      *एते वै सर्वे यज्ञक्रतवो यद् अग्निष्टोम उक्थो ऽतिरात्रः। तान् एवैतेनाप्नोvति यो वा अग्निष्टोमेन दशाहं कल्पमानं वेद। कल्पते ऽस्मै प्रातस्सवनेनैव प्रथमस् त्रियहः, कल्पते माध्यन्दिनेन द्वितीयस्, तृतीयसवनेन तृतीयो, ऽग्निष्टोमसाम्नैव दशमम् अहः कल्पते। - जै.ब्रा. ३.८

      *त्रिवृतो य ईजानाः क्लृप्तं तेषाम् अथ ये ऽनीजाना अक्लृप्तं तेषाम्। - जै.ब्रा. ३.१०

      *तस्य तृचैर् अन्यान्य् अहान्य् अकल्पन्तैकर्चैर् एतत्। - जै.ब्रा. ३.१६

      *तिस्रो वाच ईरयति प्र वह्निर् इति त्रिष्टुभो ऽन्त्या भवन्ति तृतीयस्याह्नो रूपम्। तेनैव त्रीण्य् अहानि कल्पन्ते। - जै.ब्रा. ३.४६

      *तिस्रो वाच उद् ईरत इत्य् आर्भवस्य पवमानस्य गायत्र्यो भवन्ति तृतीयस्याह्नो रूपम्। तेनैव त्रीण्य् अहानि कल्पन्ते। - जै.ब्रा. ३.५१

      *अथ चतुर्णिधनम् आंगिरसं चतुर्थस्याह्नो रूपम्। अथो तेनैव चत्वार्य् अहानि कल्पन्ते। - जै.ब्रा. ३.६९

      *क्लृप्तिर् वा एषा शान्तिर् वा एषा प्रतिष्ठा वा एषैष वाव यज्ञो यद्वामदेव्यम्। तस्माद् येन येनाह्ना स्तुवन्ति तत् तद् अनुसर्पति कल्पयच् छमयत्। - जै.ब्रा. ३.११८

      *विपश्चित् तद् अभ्यजायत यज्ञस्यांगानि कल्पयन्। कथोदन्वः पणायसि इति। - जै.ब्रा. ३.२३९

      *यो वा अग्निष्टोमेन दशाहं कल्पमानं वेद कल्पते ऽस्मै प्रातस्सवनेनैव प्रथमस् त्र्यहः, कल्पते माध्यन्दिनेन द्वितीयस्, तृतीयसवनेन तृतीयो, ऽग्निष्टोमसाम्नैव दशमम् अहः कल्पते। कल्पते ऽस्मै य एवं वेद। - जै.ब्रा. ३.२८१

      *सा गायत्र्य~ अनुष्टुभम् असृजत। सा चतुर्थम् अहर् उदयच्छत्। तया चतुर्थम् अहर् अकल्पत। - - - - - -तया पञ्चमम् अहर् अकल्पत - - - - - -तया षष्ठम् अहर् अकल्पत्। तानि षट् पृष्ठान्य् आसन्, षट् छन्दांसि। तानि द्वन्द्वम् अकल्पन्त। - जै.ब्रा. ३.३१७

      *ते हैत आक्षित इव चैकितानेयाः। तानीमानि छन्दांसि स्तोमैर् अकल्पन्त। - जै.ब्रा. ३.३२४

      *त्रिवृता गायत्र्य् अकल्पत, पञ्चदशेन त्रिष्टुप, सप्तदशेन जगत्य्, एकविंशेनानुष्टुप्, त्रिणवेन पंक्तिस्, - -- - - - - - -जै.ब्रा. ३.३२५

      *काम्येष्टीनां याज्यापुरोनुवाक्यामन्त्राः :- अग्निर्विद्वान्त्स यजात् सेदु होता सो अध्वरान्त्स ऋतून्कल्पयाति। - तैत्तिरीय संहिता १.१.१४.४

      *उत्तरवेदिसमीपवर्तिहविर्धानाभिधानम् : प्राची प्रेतमध्वरं कल्पयन्ती - तै.सं. १.२.१३.२

      *यज्ञायुधसंभृत्यभिधानम् : यो वै दश यज्ञायुधानि वेद मुखतोऽस्य यज्ञः कल्पते स्फ्यः च कपालानि च - - - - - - -एतानि वै दश यज्ञायुधानि य एवं वेद मुखतोऽस्य यज्ञः कल्पते। - तै.सं. १.६.८.२

      *ऋतवो वै प्रयाजा ऋतूनेव प्रीणाति तेऽस्मै प्रीता यथापूर्वं कल्पन्ते कल्पन्तेऽस्मा ऋतवो य एवं वेद - तै.सं.१.६.११.५

      *वाजपेयविषययूपारोहणाभिधानम् : आयुर्यज्ञेन कल्पतां प्राणो यज्ञेन कल्पतामपानः यज्ञेन कल्पतां व्यानो यज्ञेन कल्पतां चक्षुर्यज्ञेन कल्पतां श्रोत्रं यज्ञेन कल्पतां मनो यज्ञेन कल्पतां वाग्यज्ञेन कल्पतामात्मा यज्ञेन कल्पतां यज्ञो यज्ञेन कल्पतां - तै.सं. १.७.९.२

      *ग्रामकामादीनामैन्द्रादीष्टिविधिः :- एतामेव निर्वपेद्यः कामयेत कल्पेरन्निति यथादेवतं यजेद्भागधेयेनैवैनान्यथायथं कल्पयति कल्पन्त एव - तै.सं. २.२.११.३

      *इडाप्राशित्रभक्षयोरभिधानम् : देवा वै यज्ञाद्रुद्रमन्तरायन्त्स यज्ञमविध्यत्तं देवा अभिसमगच्छन्त कल्पतां न इदमिति तेऽब्रुवन्त्स्विष्टं वै न इदं भविष्यति - तै.सं. २.६.८.३

      *आहुतयो वा एनस्याक्लृप्ता यस्य राष्ट्रं न कल्पते स्वरथस्य दक्षिणं चक्रं प्रवृह्य नाडीमभि जुहुयादाहुतीरेवास्य कल्पयति ता अस्य कल्पमाना राष्ट्रमनु कल्पते - तै.सं. ३.४.८.३

      *मध्यतो धातारं करोति मध्यतो वा एतस्याक्लृप्तं यस्य ज्योगामयति मध्यत एवास्य तेन कल्पयति - तै.सं. ३.४.९.३

      *व्युष्टिनामकेष्टकाभिधानम् : पञ्च दिशः पञ्चदशेन क्लृप्ताः - तै.सं. ४.३.११.४

      *वसोर्धाराभिधानम् : क्लृप्तं च मे क्लृप्तिश्च मे - - - - - तै.सं. ४.७.२.२

      *वसोर्धाराभिधानम् : -- - - - - शक्वरीरङ्गुलयो दिशश्च यज्ञेन कल्पन्ताम् - - - - - - - ऽहोरात्रयोर्वृष्ट्या बृहद्रथंतरे च मे यज्ञेन कल्पेताम् - तै.सं. ४.७.९.१

      *वसोर्धाराद्यभिधानम् : - - - - धेनुश्च मे आयुर्यज्ञेन कल्पतां प्राणो यज्ञेन कल्पतामपानो यज्ञेन कल्पतां व्यानो यज्ञेन कल्पतां चक्षुर्यज्ञेन कल्पतां श्रोत्रं यज्ञेन कल्पतां मनो यज्ञेन कल्पतां वाग्यज्ञेन कल्पतामात्मा यज्ञेन कल्पतां यज्ञो यज्ञेन कल्पताम्। - तै.सं. ४.७.१०.२

      *वाजप्रसवीयहोमाभिधानम् : वाजः पुरस्तादुत मध्यतो नो वाजो देवां ऋतुभिः कल्पयाति। - तै.सं. ४.७.१२.२

      *प्रथमचितावपस्याद्युपधानम् : य आसामेवं क्लृप्तं वेद कल्पते अस्मै - तै.सं.५.२.१०.५

      *द्वितीयचितिगताश्विन्यादीष्टकाचतुष्ट्याभिधानम् : ऋतव्या उप दधात्यृतूनां क्लृप्त्यै पञ्चोप दधाति पञ्च वा ऋतवो यावन्त एवर्तवस्तान्कल्पयति - तै.सं. ५.३.१.२

      *वसोर्धाराभिधानम् : कल्पान्जुहोत्यक्लृप्तस्य क्लृप्त्यै - तै.सं. ५.४.८.५

      *व्रतचरणाद्यभिधानम् : यो वा अग्निमृतुस्थां वेदर्तुर्ऋतुरस्मै कल्पमान एति प्रत्यव तिष्ठति संवत्सरो वा अग्निः ऋतुस्थास्तस्य वसन्तः शिरो - - - तै.सं. ५.७.६.५

      *प्रायणीयविधानम् : मरुतो वै देवानां विशो देवविशं खलु वै कल्पमानं मनुष्यविशमनु कल्पते यन्मारुतीमृचमन्वाह विशां क्लृप्त्यै - तै.सं. ६.१.५.३

      *व्याघारणविधिः :- प्राची प्रेतमध्वरं कल्पयन्ती इत्याह सुवर्गमेवैने लोकं गमयति - तै.सं. ६.२.९.३

      *यूपस्थापनाभिधानम् : वैष्णव्यर्चा कल्पयति वैष्णवो वै देवतया यूपः स्वयैवैनं देवतया कल्पयति द्वाभ्यां कल्पयति द्विपाद्यजमानः प्रतिष्ठित्यै - तै.सं. ६.३.४.३

      *गर्गत्रिरात्राभिधानम् : स इन्द्रोऽमन्यतानया वा इदं विष्णुः सहस्रं वर्क्ष्यत इति तस्यामकल्पेतां द्विभाग इन्द्रस्तृतीये विष्णुः - - - - द्विभागं ब्रह्मणे तृतीयमग्नीध ऐन्द्रो वै ब्रह्मा वैष्णवोऽग्नीद्यथैव तावकल्पेतामिति - तै.सं. ७.१.५.५

      *नवरात्रकथनम् : प्रजापतिः प्रजा असृजत ताः सृष्टाः क्षुधं न्यायन्त्स एतं नवरात्रमपश्यत्तमाऽहरत्तेनायजत ततो वै प्रजाभ्योऽकल्पत - - - - -इमे हि वा एतासां लोका अक्लृप्ता अथैताः क्षुधं नि गच्छन्तीमानेवाऽऽभ्यो लोकान्कल्पयति तानकल्पमानान्प्रजाभ्योऽनु कल्पते कल्पन्ते अस्मा इमे लोका ऊर्जं प्रजासु दधाति त्रिरात्रेणैवेमं लोकं कल्पयति - तै.सं. ७.२.४.१

      *द्वादशरात्रकथनम् : ऐन्द्रवायवाग्रान्गृह्णीयाद्यः कामयेत यथापूर्वं प्रजाः कल्पेरन्निति यज्ञस्य वै क्लृप्तिमनु प्रजाः कल्पन्त यज्ञस्याक्लृप्तिमनु न कल्पन्ते यथापूर्वमेव प्रजा कल्पयति - तै.सं. ७.२.७.१

      *त्रिंशद्रात्रकथनम् : ऽक्लृप्ता वा एते सुवर्गं लोकं यन्त्युच्चावचाह्नि स्तोमानुपयन्ति यदेत ऊर्ध्वाः क्लृप्ताः स्तोमा भवन्ति क्लृप्ता एव सुवर्गं लोकं यन्त्युभयोरेभ्यो लोकयोः कल्पते - तै.सं. ७.४.३.६

      *फलिन्यो न ओषधयः पच्यन्तां योगक्षेमो नः कल्पताम् - तै.सं. ७.५.१८.१

      *यथापूर्वमहोरात्रे पञ्चदशिनोऽर्धमासास्त्रिंशिनो मासाः क्लृप्ता ऋतवः शान्तः संवत्सरः - तै.सं. ७.५.२०.१