ESOTERIC ASPECT OF ARMOUR
Nature has provided various armours for our body. But these armours are very slow and often it becomes desirable to enhance this process. All types of antibodies in our body can be called the natural armours. In the realm of consciousness also, some armours are prescribed, just like a soldier wears armour in the battlefield for his defence. In Hindu mythology, these armours are called KAVACHA and VARMA. Puranic texts are full of details of various types of armours attributed to different gods. Any ritual can not be performed unless one has worn one or the other esoteric armour. Armours have got their origin from Atharva-veda where there are often mentions of SHARMA(literal meaning peace) and VARMA together. The process of Sharma falls under a Brahmin and Varma under a warrior. It is considered that every part of human body is procted by a particular god and when these god disappear from their place for some reason, armour is required.
In puraanic texts, Lord Vishnu etc. often deceive the devotees and demons by demanding the armour from a person involved in fighting. One explanation of it can be that there are various armours at various levels and a person often gets confined to one level only, practicing his particular armour. This is not acceptable to supreme lord and therefore an act of deceit is done.
कवच
टिप्पणी : वैदिक साहित्य में कवच शब्द बहुत कम प्रकट हुआ है । कवच के बदले वर्म और परिधि शब्दों का प्रयोग किया गया है । लेकिन तैत्तिरीय संहिता ४.५.६.२, शुक्ल यजुर्वेद १६.३५ आदि में कवची और वर्मी शब्द साथ - साथ आते हैं । अतः कवच और वर्म शब्दों के अर्थों में सूक्ष्म अन्तर होना चाहिए जो भविष्य में अन्वेषणीय है । वर्म शत्रु से युद्ध में शरीर की रक्षा के लिए धारण करने वाले कठोर वस्त्र को कहते हैं । सूक्ष्म दृष्टि से सोचें तो हमारी देह में बहुत से रस, प्रतिविष कण, एण्टीबांडी उत्पन्न होते हैं जो देह के स्तर के शत्रुओं वायरस, बैक्टीरिया आदि से हमारी रक्षा करते हैं । अतः इन रसों को या कणों को वर्म कहा जा सकता है । लेकिन इस संदर्भ में यह ध्यान देने योग्य है कि आज हम आधुनिक विज्ञान के माध्यम से यह जान रहे हैं कि प्रतिविष कण होते हैं । क्या प्राचीन आयुर्वेद में भी प्रतिविषों का उल्लेख आता है ? आयुर्वेद में काया कल्प के संदर्भ में कृमियों का उल्लेख आता है जिनसे कायाकल्प के द्वारा मुक्ति पाई जा सकती है । अन्यथा सारा आयुर्वेद ओषधियों द्वारा वात, पित्त और कफ की विकृतियों को दूर करने पर ही केन्द्रित प्रतीत होता है । अब सार्वत्रिक रूप से किया जाने वाला प्रश्न यह है कि देह के स्तर पर प्रतिविषों की मात्रा में कैसे वृद्धि की जाए । तीर्थंकर महावीर, मीरा तथा अन्य योगियों के विषय में तो कहा जाता है कि उन पर विष का कोई प्रभाव नहीं होता । जैसा कि अन्य शब्दों की टिप्पणियों में भी कहा जा चुका है, विष के प्रतीकार के लिए प्रतिविष कणों को उत्पन्न करने की दर बहुत तेज होनी चाहिए, जबकि वास्तविक स्थिति यह है कि यह बहुत धीमी है । अतःआधुनिक चिकित्सा विज्ञान में विष के प्रतीकार के लिए पहले से ही तैयार प्रतिविष कणों का इन्जvक्शन दिया जाता है । प्रतिविषों, जिन्हें वर्तमान टिप्पणी के लिए देह के कवच या वर्म नाम दिया गया है, के उत्पन्न होने की दर को कैसे अधिक किया जा सकता है ? इसका उत्तर वैदिक साहित्य के आधार पर देने का प्रयास किया जा सकता है । अथर्ववेद १९.१९ सूक्त में मित्र, वायु, सूर्य, चन्द्रमा, सोम, यज्ञ, समुद्र, ब्रह्म, इन्द्र, देव और प्रजापति आदि देवता अपने - अपने स्थानों से तिरोहित हो जाते हैं । ऐसी स्थिति में प्रत्येक देवता द्वारा रिक्त स्थान पर शर्म, वर्म का निर्माण करना पडता है । इससे यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि वर्म का निर्माण बहुत से स्तरों पर करना होता है ।
अथर्ववेद १८.४.९ में आहवनीय और गार्हपत्य अग्नियों द्वारा शं करने तथा दक्षिणाग्नि द्वारा शर्म और वर्म करने का उल्लेख है । इस संदर्भ से प्रतीत होता है कि वर्म बनाने का सारा कार्य दक्षिणाग्नि का ही है । आहवनीय अग्नि प्राण से और गार्हपत्य अग्नि अपान से सम्बन्धित कही जाती है । प्राण और अपान के बीच के अन्तराल में, जब प्राण अस्त हो गए हों और अपान का उदय न हुआ हो, व्यान का जन्म होता है जो दक्षिणाग्नि से सम्बन्धित हो सकता है । व्यान मन से भी सम्बन्धित है । दक्षिणाग्नि रस उत्पन्न करने वाला माना जाता है । जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है, रस से तात्पर्य केवल खट्टे, मीठे रसों से ही नहीं हो सकता, अपितु हमारी देह में जितने एन्जाइम आदि रस उत्पन्न होते हैं, जो हमारे शरीर को नियन्त्रित करते हैं, जो देह के लिए वर्म का कार्य करते हैं, उनसे हो सकता है । दक्षिणाग्नि पर नल नैषध का आधिपत्य है जो रस उत्पन्न करने में विशेषज्ञ है ।
शतपथ ब्राह्मण १.३.३.१३, तैत्तिरीय संहिता २.६.६.२, ६.२.८.६, काठक संहिता २५.७ आदि में सार्वत्रिक रूप से एक आख्यान आता है कि भुव:पति/भूपति, भुवनपति और भूतपति नामक तीन अग्नियां तो देवों के लिए हवि वहन करते - करते मर गई । तब देवों ने चौथी अग्नि भूत को, जो पहली तीन अग्नियों का कनिष्ठ भ्राता है, हवि वहन करने के लिए चुनना चाहा । भूत अग्नि अपने तीन ज्येष्ठ भ्राताओं की मृत्यु देख कर वेणु आदि में छिप गया और अपने छिपने कि लिए वेणु में ग्रन्थियां और पर्व बना लिए(शतपथ ब्राह्मण ६.३.१.३१ आदि) । देवों ने किसी प्रकार उसे ढूंढ लिया । अग्नि ने इस शर्त पर हवि वहन करना स्वीकार किया कि उसके तीन मृत भ्राता उसकी परिधियां बनेंगे और स्वयं उसे इन्द्र के वज्र रूपी वषट्कार(ओ श्रावय, अस्तु श्रौषट्, यज, ये यजामहे, वौषट्) का, शत्रुओं को दूर करने के लिए वज्र का सामना करना नहीं पडेगा, अपितु यह कार्य परिधि अग्नियों के जिम्मे होगा । इन तीन परिधि अग्नियों को मध्यम, दक्षिण और उत्तर परिधियां कहा जाता है जिनके विशिष्ट लक्षण मिलते हैं, जैसे मध्यम परिधि विश्वावसु गन्धर्व से, दक्षिण इन्द्र की बाहु से और उत्तर मित्रावरुण से सम्बन्धित हैं(शतपथ ब्राह्मण १.३.४.२) । शतपथ ब्राह्मण ९.४.४.२ में इन तीन परिधियों को एक सुपर्ण का रूप दिया गया है जिसमें मध्यम परिधि सुपर्ण की आत्मा और शेष २ उसके २ पक्ष हैं । कहा गया है कि तीन परिधियों की अग्नियां मनुष्यों से सम्बन्धित हैं, मनुष्यों के लिए हवि वहन करती हैं । यह भी कहा गया है कि मनुष्य अग्नियां केवल तृतीय सवन में जाग्रत होती हैं, अन्य सवनों में यह सोती रहती हैं, वैसे ही जैसे मनुष्य सोते रहते हैं(तृतीय सवन में ऋभु आदि मनुष्य देवताओं का महत्त्व सर्वविदित है) । इस प्रकार यह निष्कर्ष निकलता है कि परिधि या वर्म रूपी ३ अग्नियां देवताओं के लिए हवि वहन करने वाली अग्नि की सहायक मात्र हैं ।
ऋग्वेद ६.७५.१ में रथ पर वर्म आदि के साथ युद्ध के लिए जाते हुए राजा की उपमा जीमूत या मेघ से की गई है(पुराणों में जीमूत की निरुक्ति जीव की रक्षा करने वाले के रूप में की गई है) । प्रश्न उठता है कि वर्मी बनने की चरम परिणति क्या है ? इसका संकेत ऋग्वेद ६.७५.८ से मिलता है जिसमें कहा गया है कि युद्ध से जो धन जीत कर रथ में रख कर लाया जाता है, वह हवि है । यह संकेत करता है कि वर्मी बनने का पहला लाभ तो यह है कि जीव को जीवन शक्ति मिलती है । दूसरे, देवों को हवि वहन करने वाली अग्नि, चेतना सशक्त बनती है । सूक्त का अन्त ब्रह्म वर्म ममान्तरम् पद से होता है । ब्रह्म वर्म का उल्लेख अथर्ववेद में अन्य स्थानों जैसे १.१९.४, ५.८.६, ८.२.१०, ९.२.१६, ११.९.१७, १७.१.२७-२८ में भी मिलता है । क्या यह सर्वोच्च ब्रह्म के वर्म बनने का प्रतीक है ? । अथर्ववेद ८.२.१० में ब्रह्म की शक्ति ब्रह्मचारी का उल्लेख है । यह विचारणीय है कि पुराणों में जो शिव कवच, नारायण कवच, कृष्ण कवच आदि मिलते हैं, क्या वे इसी ब्रह्म वर्म के प्रतीक हैं या वर्म के क्रमिक स्तरों के ? महाभारत द्रोण पर्व १०२ में अर्जुन द्वारा मानवास्त्र से ब्रह्मा द्वारा दुर्योधन को प्रदत्त वर्म को छिन्न करने के प्रयास का वर्णन आता है । अथर्ववेद में फालमणि(१०.६.२), स्राक्त्य मणि(८.५), अज पञ्चौदन के दान से उत्पन्न(९.५.२६), दर्भ मणि आदि द्वारा उत्पन्न वर्मों के उल्लेख मिलते हैं और यह विचारणीय है कि क्या यह चरम स्तर के ब्रह्म वर्म के बीच के स्तर हैं या स्वतन्त्र रूप से कोई वर्म हैं ?
वैदिक मन्त्रों में प्रायः शर्म और वर्म शब्द साथ - साथ प्रकट होते हैं(उदाहरण के लिए, ऋग्वेद १.११४.५) । वर्तमान काल में ब्राह्मण वर्ण के मनुष्यों के नामों में शर्मा और क्षत्रिय वर्ण के मनुष्यों के नामों में वर्मा जुडा रहता है । इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि शर्म ब्राह्मणत्व तथा वर्म क्षत्रियत्व से सम्बन्धित है । शतपथ ब्राह्मण ६.४.१.१० में यज्ञ हेतु खोदी गई मृदा को कृष्णाजिन पर रख कर उस पर पुष्करपर्ण रखते हैं । इन्हें क्रमशः शर्म व वर्म कहा गया है । एक भूमि है, दूसरा द्युलोक ।
ऐतरेय ब्राह्मण १.२५ तथा तैत्तिरीय संहिता २.६.१.५ में प्रयाजों व अनुयाजों को देववर्म कहा गया है । ब्राह्मण ग्रन्थों में शीर्ष प्राणों, ऋतुओं आदि को प्रयाज कहा गया है । इनके द्वारा शत्रुओं पर प्र - जय की जाती है, अतः इन्हें परोक्ष रूप में प्रयाज कहा जाता है । प्रयाज काल में आ श्रावय, अस्तु श्रौषट्, यज, ये यजामहे, वौषट् नामक व्याहृतियों का उच्चारण किया जाता है जिनके निहितार्थों की व्याख्या की गई है । जैसा की इस टिप्पणी में कहा जा चुका है, देवताओं की हवि का वहन करने वाली अग्नि के लिए वषट्कार का निषेध है, वर्म बनाने वाली अग्नियों के लिए ही वषट्कार विहित है । तैत्तिरीय संहिता ५.७.७.२, शतपथ ब्राह्मण १.८.३.२५ आदि में प्रस्तर शब्द के साथ परिधि, बर्हि शब्दों का उल्लेख आता है जिससे संकेत मिलता है कि केन्द्रीय चेतना जिसे भूत नाम दिया गया है, वह प्रस्तर भी हो सकती है । कपिष्ठल कठ संहिता ३०.८ तथा ४७.१५ में भूत का उल्लेख आता है । भू व्याहृति से भूत को प्रजापति कहा गया है । भूत को भूतकाल भी कहा जा सकता है और भू के अनुसार यह वर्तमान काल भी हो सकता है । यह विचारणीय है कि क्या भविष्य काल भूत का वर्म रूप है ? भूतपति अग्नि, जो तृतीय परिधि का नाम है, सूर्य का वाचक कहा गया है ।
पौराणिक कवचों में किसी कवच में १२, किसी में २४, किसी में ३५, ४५, ४८ नामों द्वारा कवच का निर्माण किया गया है । दुर्गा सप्तशती के आरम्भ में पाए जाने वाले कवच में तो ९० देवियों के नाम हैं । शतपथ ब्राह्मण ६.३.३.२५ में अग्नि का वर्म बनाते समय गायत्री, अनुष्टुप् व त्रिष्टुप् छन्दों द्वारा त्रिपुर का निर्माण किया जाता है । यह अन्वेषणीय है कि पौराणिक कवचों में नामों की संख्या क्या किसी प्रकार से छन्दों के वर्णों की संख्या द्वारा नियन्त्रित होती है ? किसी भी अनुष्ठान से पूर्व कवच का अभ्यास अनिवार्य है । वर्तमान समय में कवच का सम्यक् उपयोग तभी सम्भव है जब कृष्ण, शिव आदि के जिन नामों का कवचों में उपयोग किया गया है, उन नामों के अर्थ और निहितार्थ ज्ञात हों ।
पौराणिक साहित्य में देवताओं द्वारा कर्ण, शङ्खचूड असुर आदि के वध के उपायों के रूप में उनके कवचों के हरण की कथाओं का वर्णन आता है । इन कथाओं का क्या तात्पर्य हो सकता है ? ऐसा विचार है कि प्रत्येक व्यक्ति नैसर्गिक रूप से कोई न कोई कवच धारण करके उत्पन्न होता है । लेकिन उसकी चेतना उसी कवच तक सीमित रहना चाहती है, आगे विकास नहीं करना चाहती । वैदिक साहित्य में अग्नि के वेणु में छिपने और वहां छिपने के लिए ग्रन्थियों व पर्वों का निर्माण करने आदि के उल्लेख आते हैं । सम्यक् ज्ञान के अभाव में चेतना का किसी एक कवच में, कोश में अटक जाना ही ग्रन्थि हो सकता है । और वेणु के पर्व हमारे अन्नमयादि कोश हो सकते हैं । हमारी चेतना अन्नमयादि किसी भी कोश में घुस कर बैठ जाती है और उसी को अपना सुरक्षा कवच बना लेती है । चेतना को आगे बढाने के लिए यह आवश्यक हो जाता है कि उसके इस सुरक्षा कवच को तोडा जाए । भारतीय वाङ्मय में वर्णित कर्म योग, ज्ञान योग और भक्ति योग हमारी तत्तद् कोश में अटकी हुई चेतना को आगे बढाने तथा उसकी सुरक्षा ग्रन्थि को तोडने के ही विभिन्न उपाय हैं । पुराणों में उल्लेख आते हैं कि विष्णु ने ब्राह्मण का रूप धारण कर कवच धारी व्यक्ति से उसका रक्षा कवच मांग लिया और कवच रहित होने के कारण वह मृत्यु को प्राप्त हो गया । स्थूल दृष्टि से देखने पर तो विष्णु का यह कृत्य छल प्रतीत होता है, परन्तु तात्त्विक दृष्टि से देखने पर पता चलता है कि यह कोश विशेष में अटकी हुई चेतना को आगे की ओर अग्रसर करने के लिए ईश्वर द्वारा किया गया एक कृपापूर्ण कृत्य है । जब चेतना प्रयत्नपूर्वक उपर्युक्त उपायों का आश्रय नहीं ले पाती, तब विष्णु का छल रूप उपाय ही चेतना को गतिमान करता है ।
प्रथम लेखनः- ९.१.२००२ई.
संदर्भ
*त्वमग्ने प्रयतदक्षिणं नरं वर्मेव स्यूतं परि पासि विश्वतः। स्वादुक्षद्मा यो वसतौ स्योनकृज् जीवयाजं यजते सोपमा दिवः ॥ - ऋग्वेद १.३१.१५
*दिवो वराहमरुषं कपर्दिनं त्वेषं रूपं नमसा नि ह्वयामहे। हस्ते बिभ्रद् भेषजा वार्याणि शर्म वर्म च्छर्दिरस्मभ्यं यंसत् ॥ - ऋ. १.११४.५
*अस्माकमग्ने मघवत्सु दीदिह्यध श्वसीवान् वृषभो दमूनाः। अवास्या शिशुमतीरदीदेर्वर्मेव युत्सु परिजर्भुराणः ॥ - ऋ. १.१४०.१०
*त्रिंशच्छतं वर्मिण इन्द्र साकं यव्यावत्यां पुरुहूत श्रवस्या। वृचीवन्तः शरवे पत्यमानाः पात्रा भिन्दाना न्यर्थान्यायन् ॥ - ऋ. ६.२७.६
*जीमूतस्येव भवति प्रतीकं यद्वर्मी याति समदामुपस्थे। अनाविद्धया तन्वा जय त्वं स त्वा वर्मणो महिमा पिपर्तु ॥ - ऋ. ६.७५.१
*रथवाहनं हविरस्य नाम यत्रायुधं निहितमस्य वर्म। तत्रा रथमुप शग्मं सदेम विश्वाहा वयं सुमनस्यमानाः ॥ - ऋ. ६.७५.८
*मर्माणि ते वर्मणा छादयामि सोमस्त्वा राजामृतेनानु वस्ताम्। उरोर्वरीयो वरुणस्ते कृणोतु जयन्तं त्वानु देवा मदन्तु ॥ - ऋ. ६.७५.१८
*यो नः स्वो अरणो यश्च निष्ट्यो जिघांसति। देवास्तं सर्वे धूर्वन्तु ब्रह्म वर्म ममान्तरम् ॥ - ऋ. ६.७५.१९
*त्वं वर्मासि सप्रथः पुरोयोधश्च वृत्रहन्। त्वया प्रति ब्रुवे युजा ॥ - ऋ. ७.३१.६
*युष्मे देवा अपि ष्मसि युध्यन्त इव वर्मसु। यूयं महो न एनसो यूयमर्भादुरुष्यतानेहसो व ऊतयः सुऊतयो व ऊतयः ॥ - ऋ. ८.४७.८
*आ कलशेषु धावति श्येनो वर्म वि गाहते। अभि द्रोणा कनिक्रदत् ॥ - ऋ. ९.६७.१४
*परि ष्य सुवानो अव्ययं रथे न वर्माव्यत। इन्दुरभि द्रुणा हितो हियानो धाराभिरक्षाः ॥ - ऋ. ९.९८.२
*य उस्रिया अप्या अन्तरश्मनो निर्गा अकृन्तदोजसा। अभि व्रजं तत्निषे गव्यमश्व्यं वर्मीव धृष्णवा रुज ॥ - ऋ. ९.१०८.६
*अग्नेर्वर्म परि गोभिर्व्ययस्व सं प्रोर्णुष्व पीवसा मेदसा च। नेत् त्वा धृष्णुnर्हरसा जर्हृषाणो दधृग्विधक्ष्यन् पर्यङ्खयाते ॥ - ऋ. १०.१६.७
*वातासो न ये धुनयो जिगत्नवो ऽग्नीनां न जिह्वा विरोकिणः। वर्मण्वन्तो न योधाः शिमीवन्तः पितृqणां न शंसाः सुरातयः ॥(देवता- मरुतः) - ऋ. १०.७८.३
*व्रजं कृणुध्वं स हि वो नृपाणो वर्म सीव्यध्वं बहुला पृथूनि। पुरः कृणुध्वमायसीरधृष्टा मा वः सुस्रोच्चमसो दृंहता तम् ॥ - ऋ. १०.१०१.८
*दक्षिणाश्वं दक्षिणा गां ददाति दक्षिणा चन्द्रमुत यद्धिरण्यम्। दक्षिणान्नं वनुते यो न आत्मा दक्षिणां वर्म कृणुते विजानन् ॥ - ऋ. १०.१०७.७
*यः सपत्नो योऽसपत्नो यश्च द्विषन् छपाति नः। देवास्तं सर्वे धूर्वन्तु ब्रह्म वर्म ममान्तरम् ॥ - अथर्ववेद १.१९.४
*इन्द्रस्य शर्मासि। तं त्वा प्र पद्ये तं त्वा प्र विशामि सर्वगुः सर्वपूरिषः ॥ सर्वात्मा सर्वतनूः सह यन्मेऽस्ति तेन ॥ इन्द्रस्य वर्मासि। तं त्वा प्र पद्ये तं त्वा प्र विशामि सर्वगुः सर्वपूरुषः। सर्वात्मा सर्वतनूः सह यन्मेऽस्ति तेन ॥ इन्द्रस्य वरूथमसि। तं त्वा प्र पद्ये तं त्वा प्र विशामि सर्वगुः सर्वपूरुषः। सर्वात्मा सर्वतनूः सह यन्मेऽस्ति तेन ॥ - अ. ५.६.१२-१४
*यदि प्रेयुर्देवपुरा ब्रह्म वर्माणि चक्रिरे। तनूपानं परिपाणं कृण्वाना यदुपोचिरे सर्वं तदरसं कृधि ॥ - अ. ५.८.६
*मर्माणि ते वर्मणा छादयामि सोमस्त्वा राजामृतेनानु वस्ताम्। उरोर्वरीयो वरुणस्ते कृणोतु जयन्तं त्वानु देवा मदन्तु ॥ - अ. ७.१२३.१/७.११८.१
*यत् ते नियानं रजसं मृत्यो अनवधर्ष्यम्। पथ इमं तस्माद् रक्षन्तो ब्रह्मास्मै वर्म कृण्मसि ॥ - अ.८.२.१०
*ये स्राक्त्यं मणिं जना वर्माणि कृण्वते। सूर्य इव दिवमारुह्य वि कृत्या बाधते वशी ॥ - अ. ८.५.७
*अस्मै मणिं वर्म बध्नन्तु देवा इन्द्रो विष्णुः सविता रुद्रो अग्निः। प्रजापतिः परमेष्ठी विराड् वैश्वानर ऋषयश्च सर्वे ॥ - अ. ८.५.१०
*कश्यपस्त्वामसृजत कश्यपस्त्वा समैरयत्। अबिभस्त्वेन्द्रो मानुषे बिभ्रत् संश्रेषिणेऽजयत्। मणिं सहस्रवीर्यं वर्म देवा अकृण्वत ॥ - अ. ८.५.१४
*वर्म मे द्यावापृथिवी वर्माहर्वर्म सूर्यः। वर्म म इन्द्रश्चाग्निश्च वर्म धाता दधातु मे ॥ - अ. ८.५.१८
*ऐन्द्राग्नं वर्म बहुलं यदुग्रं विश्वे देवा नाति विध्यन्ति सर्वे। तन्मे तन्वं त्रायतां सर्वतोv बृहदायुष्मां जरदष्टिर्यथासानि ॥ - अ. ८.५.१९
*यत् ते काम शर्म त्रिवरूथमुद्भु ब्रह्म वर्म विततमनतिव्याध्यं कृतम्। तेन सपत्नान् परि वृङ्ग्धि ये मम पर्येनान् प्राणः पशवो जीवनं वृणक्तु ॥ - अ. ९.२.१६
*पञ्च रुक्मा ज्योतिरस्मै भवन्ति वर्म वासांसि तन्वे भवन्ति। स्वर्गं लोकमश्नुते यो३जं पञ्चौदनं दक्षिणाज्योतिषं ददाति ॥ - अ. ९.५.२६
*वर्म मह्यमयं मणिः फालाज्जातः करिष्यति। पूर्णो मन्थेन मागमद् रसेन सह वर्चसा ॥ - अ. १०.६.२
*यदि प्रेयुर्देवपुरा ब्रह्म वर्माणि चक्रिरे। तनूपानं परिपाणं कृण्वाना यदुपोचिरे सर्वं तदरसं कृधि ॥ - अ. ११.९.१७
*यश्च कवची यश्चाकवचो३मित्रो यश्चाज्मनि। ज्यापाशैः कवचपाशैरज्मनाभिहतः शयाम् ॥ ये वर्मिणो येऽवर्माणो अमित्रा ये च वर्मिणः। सर्वांस्ताँ अर्बुदे हतांछ्वानोऽदन्तु भूम्याम् ॥ - अ. ११.९.२२-२३
*शर्म वर्मैतदा हरास्यै नार्या उपस्तरे। सिनीवालि प्र जायतां भगस्य सुमतावसत् ॥ - अ. १४.२.२१
*प्रजापतेरावृतो ब्रह्मणा वर्मणाहं कश्यपस्य ज्योतिषा वर्चसा च। जरदष्टिः कृतवीर्यो विहायाः सहस्रायुः सुकृतश्चरेयम् ॥ परीवृतो ब्रह्मणा वर्मणाहं कश्यपस्य ज्योतिषा वर्चसा च। मा मा प्रापन्निषवो दैव्या या मा मानुषीरवसृष्टा वधाय ॥ - अ. १७.१.२७-२८
*अग्नेर्वर्म परि गोभिर्व्ययस्व सं प्रोर्णुष्व मेदसा पीवसा च। नेत् त्वा धृष्णुर्हरसा जर्हृषाणो दधृग् विधक्षन् परीङ्खयातै। - अ. १८.२.५८
*पूर्वो अग्निष्ट्वा तपतु शं पुरस्ताच्छं पश्चात् तपतु गार्हपत्यः। दक्षिणाग्निष्टे तपतु शर्म वर्मोत्तरतो मध्यतो अन्तरिक्षाद् दिशोदिशो ॥ - अ. १८.४.९
*इन्द्राग्नी रक्षतां मा पुरस्तादश्विनावभितः शर्म यच्छताम्। तिरश्चीनघ्न्या रक्षतु जातवेदा भूतकृतो मे सर्वतः सन्तु वर्म ॥ - अ. १९.१६.२
*मित्रः पृथिव्योदक्रामत् तां पुरं प्र णयामि वः। तामा विशत तां प्र विशत सा वः शर्म च वर्म च यच्छतु ॥ वायुन्तरिक्षेणोदक्रामत् तां पुरं प्र णयामि वः। तामा - - - - -॥ सूर्यो दिवोदक्रामत् तां पुरं प्र णयामि वः। - - - - -॥ चन्द्रमा नक्षत्रैरुदक्रामत् तां पुरं प्र णयामि वः। - - - - -सोम ओषधीभिरुदक्रामत् तां पुरं प्र णयामि वः। - - - - -यज्ञो दक्षिणाभिरुदक्रामत् तां पुरं प्र णयामि वः। - - - - समुद्रो नदीभिरुदक्रामत् तां पुरं प्र णयामि वः। - - - - ब्रह्म ब्रह्मचारिभिरुदक्रामत् तां पुरं प्र णयामि वः। - - - - इन्द्रो वीर्येणोदक्रामत् तां पुरं प्र णयामि वः। - - - - देवा अमृतेनोदक्रामंस्तां पुरं प्र णयामि वः। - - - प्रजापतिः प्रजाभिरुदक्रामत् तां पुरं प्र णयामि वः। - - - - - - अथर्ववेद १९.१९.१-११
*यानि चकार भुवनस्य यस्पतिः प्रजापतिर्मातरिश्वा प्रजाभ्यः। प्रदिशो यानि वसते दिशश्च तानि मे वर्माणि बहुलानि सन्तु ॥ यत् ते तनूष्वनह्यन्त देवा द्युराजयो देहिनः। इन्द्रो यच्चक्रे वर्म तदस्मान् पातु विश्वतः ॥ वर्म मे द्यावापृथिवी वर्माहर्वर्म सूर्यः। विश्वे देवाः क्रन् मा मा प्रापत् प्रतीचिका ॥ - अ. १९.२०.२-४
*इन्द्राग्नी रक्षतां मा पुरस्तादश्विनावभितः शर्म यच्छताम्। तिरश्चीनघ्न्या रक्षतु जातवेदा भूतकृतो मे सर्वतः सन्तु वर्म ॥ - अ. १९.२७.१५
*यत् ते दर्भ जरामृत्युः शतं वर्मसु वर्म ते। तेनेमं वर्मिणं कृत्वा सपत्नां जहि वीर्यैः ॥ शतं ते दर्भ वर्माणि सहस्रं वीर्याणि ते। तमस्मै विश्वे त्वां देवा जरसे भर्तवा अदुः ॥ त्वामाहुर्देववर्म त्वां दर्भ ब्रह्मणस्पतिम्। त्वामिन्द्रस्याहुर्वर्म त्वं राष्ट्राणि रक्षसि ॥ - अ. १९.३०.१-३
*इन्द्रस्य त्वा वर्मणा परि धापयामो यो देवानामधिराजो बभूव। पुनस्त्वा देवाः प्र णयन्तु सर्वेऽस्तृतस्त्वाभि रक्षतु ॥ - अ. १९.४६.४
*व्रजं कृणुध्वं स हि वो नृपाणो वर्मा सीव्यध्वं बहुला पृथूनि। पुरः कृणुध्वमायसीरधृष्टा मा वः
सुस्रोच्चमसो दृंहता तम् ॥ - अ. १९.५८.४
*त्वं वर्मासि सप्रथः पुरोयोधश्च वृत्रहन्। त्वया प्रति ब्रुवे युजा ॥ - अ. २०.१८.६
*तं(अग्निं) देवा अनुविद्यानयन्निदं नो होता भविष्यसीति स प्रमयादबिभेत् तं भ्रातरः प्रमीता अब्रुवन् वयं त इतो वर्म भविष्यामो देवेषु नो भागधेयमिच्छेति तेऽब्रुवन् यत्किंच हविर्भूतं बहिष्परिधि स्कन्दात् तदेषां भागधेयमित्येते वाव ते परिधयो यदि हविर्भूतं बहिष्परिधि स्कन्देद्भूपतये स्वाहा भुवनपतये स्वाहा भूतानां पतये स्वाहेत्यनुमन्त्रयेत् - काठ. संहिता २५.७
*देवस्त्वा सविता मध्वानक्त्विति घृतं वै देवानां मधु मेध्यमेवैनं यज्ञियं करोत्योषधे त्रायस्वैनमिति वर्मेव करोति स्वधिते मैनँ हिँसीरिति वज्रो वै स्वधितिरहिंसायै - - - काठ.सं. २६.३
*उद्वाचमुन्मनीषाममित्येतानि वा अस्य निखनेत् तान्येवोद्धरत्यात्ममात्री वेदिर्भवत्यात्ममात्रँ हि वर्म यन्नात्ममात्री स्यान्नात्मने क्रियेतैतावती पृथिवी यावती वेदि - काठ.सं. ३७.१६
*मलिम्लुचो नामासि त्रयोदशो मास इन्द्रस्य शर्मासीन्द्रस्य वर्मासीन्द्रस्य वरूथमसि तं त्वा प्रपद्ये सगुस्साश्वस्सपुरुषः। सह यन्मेऽस्ति तेन स मे शर्म च वर्म च भव गायत्रींल्लोमभिः प्रविशामि त्रिष्टुभं त्वचा प्रविशामि जगतीं माँसेन प्रविशाम्यनुष्टुभमस्थ्ना प्रविशामि पङ्क्तिं मज्ज्ञा प्रविशामि। ऐन्द्राग्नं वर्म बहुलं यदुग्रं विश्वे देवा नाति विध्यन्ति शूराः। तन्नस्त्रायतां तन्वस्सर्वतोv महदायुष्मन्तो जरामुपगच्छेम जीवाः। - काठ.सं. ३८.१४
*स्वाहोदपुरा नामास्यन्नेन विष्टा वसवो रक्षितारोऽग्निरधि वियत्तो अस्यां तां प्रपद्ये सा मे शर्म च वर्म च भव तया देवतयाङ्गिरस्वद् ध्रुवा सीद - काठ. सं. ३९.३
*अन्तरिक्षमधिद्यौर्ब्रह्मणा विष्टं रुद्रा रक्षितारो वायुरधिवियत्तो अस्यां तां त्वा प्रपद्ये सा मे शर्म च वर्म च भव तया देवतयाङ्गिरस्वद् ध्रुवा सीद - काठ. सं. ४०.३
*द्यौरपराजितामृतेन नष्टादित्या रक्षितारस्सूर्योऽधिवियत्तो अस्यां तां त्वा प्रपद्ये सा मे शर्म च वर्म च भव तया देवतयाङ्गिरस्वद् ध्रुवा सीद - काठ. सं. ४०.५
*उपसद कर्म : देववर्म वा एतद्यत्प्रयाजाश्चानुयाजाश्चाप्रयाजमननुयाजं भवतीष्वै संशित्या अप्रतिशराय - ऐतरेय ब्राह्मण १.२६
*पर्यूषु प्रधन्व वाजसातये परि वृत्रा भूब्रह्म प्राणममृतं प्रपद्यतेऽयमसौ शर्म वर्माभयं स्वस्तये। सह प्रजया सह पशुभिर्णि सक्षणिर्द्विषस्तरध्या ऋणया न ईयसे स्वाहा। अनु हि त्वा सुतं सोम मदामसि महे सम भुवो ब्रह्म प्राणममृतं प्रपद्यतेऽयमसौ शर्म वर्माभयं स्वस्तये। सह प्रजया सह पशुभिर्य राज्ये वाजाँ अभि पवमान प्रगाहसे स्वाहा। अजीजनो हि पवमान सूर्यं विधारे श स्वर्ब्रह्म प्राणममृतं प्रपद्यतेऽयमसौ शर्म वर्माभयं स्वस्तये। सह प्रजया सह पशुभिः क्मना पयो गोजीरया रम्भमाणः पुरं ध्या स्वाहेति। - ऐ.ब्रा. ८.११
*द्वादशाहे सप्तम अहः, आर्भव पवमानम् : य उस्रिया अपिया अन्तर् अश्मनि निर् गा अकृन्तद् ओजसा। अभि व्रजं तत्निषे गव्यम् अश्व्यं वर्मीव धृष्णव् आ रुजा ॥ - जैमिनीय ब्राह्मण ३.१९२
*- - - -तं प्रपद्ये देवान्प्रपद्ये देवपुरं प्रपद्ये परीवृतो वरीवृतो ब्रह्मणा वर्मणाऽहं तेजसा कश्यपस्य इति - तैत्तिरीय आरण्यक २.१९.१
*पितृpमेधः - अग्नेर्वर्म परि गोभिर्व्ययस्व संप्रोर्णुष्व मेदसा पीवसा च। नेत्त्वा धृष्णुर्हरसा जर्हृषाणो दधद्विधक्ष्यन्पर्यङ्खयातै(इति चर्मणा सशीर्षबालपादेनोत्तरलोम्ना प्रोर्णोति) - तैत्तिरीय आरण्यक ६.१.४
*अथा ब्रह्म वा ऋगुभयत एव तद्ब|ह्मार्धर्चो वर्म कुरुते तद्यत्र ऋचार्धर्चेन वा पादेन वोपरमेदेतद् ब्राह्मणम् - शांखायन ब्राह्मण ७.१०
*प्रयाज विधिः :- अथासुरा यज्ञमजिघांसन्ते देवा गायत्रीं व्यौहन्पञ्चाक्षराणि प्राचीनानि त्रीणि प्रतीचीनानि ततो वर्म यज्ञायाभवद्वर्म यजमानाय यत्प्रयाजानूयाजा इज्यन्ते वर्मेव तद्यज्ञाय क्रियते वर्म यजमानाय भ्रातृव्याभिभूत्यै तस्माद्वरूथं पुरस्तावर्षीयः पश्चाद्ध्रसीयो - तैत्तिरीय संहिता २.६.१.५
*खननाभिधानम् : अपां पृष्ठमसि सप्रथा उर्वग्निं भरिष्यदपरावपिष्ठम्। वर्धमानं मह आ च पुष्करं दिवो मात्रया वरिणा प्रथस्व। शर्म च स्थः वर्म च स्थो अच्छिद्रे बहुले उभे(इति द्वाभ्यामुत्तरेण मृत्खनं कृष्णाजिनं प्राचीनग्रीवमुत्तरलोमाऽऽस्तृणात्युपरिष्टात्पुष्करपर्णमुत्तानम् - तै.सं. ४.१.३.१
*सयुजादीष्टकाभिधानम् : पृथिव्युदपुरमन्नेन विष्टा मनुष्यास्ते गोप्तारोऽग्निर्वियत्तोऽस्यां तामहं प्र पद्ये सा मे शर्म च वर्म चास्त्वधिद्यौरन्तरिक्षं ब्रह्मणा विष्टा मरुतस्ते गोप्तारो वायुर्वियत्तोऽस्यां तामहं प्र पद्ये सा मे शर्म च वर्म चास्तु द्यौरपराजिताऽमृतेन विष्टाऽऽदित्यास्ते गोप्तारः सूर्यो वियत्तोऽस्यां तामहं प्र पद्ये सा मे शर्म च वर्म चास्तु। - तै.सं. ४.४.५.१-२
*- - - - नमः शूराय चावभिन्दते च नमो वर्मिणे च वरूथिने च नमो बिल्मिने च कवचिने च नमः श्रुताय च श्रुतसेनाय च। - तै.सं. ४.५.६.२
*अप्रतिरथसूक्ताभिधानम् : मर्माणि ते वर्मभिश्छादयामि सोमस्त्वा राजाऽमृतेनाभि वस्ताम्। - - तै.सं. ४.६.४.५
*अश्वमेधकर्तू रथसज्जीकरणभावि कवचस्वीकाराद्यङ्गाभिधानम् : रथवाहनं हविरस्य नाम यत्राऽऽयुधं निहितमस्य वर्म। तत्रा रथमुप शग्मं सदेम विश्वाहा वयं सुमनस्यमानाः। - तै.सं. ४.६.६.३
*वसोर्धाराद्यभिधानम् : - - - आत्मा च मे तनूश्च मे शर्म च मे वर्म च मेऽङ्गानि च मेऽस्थानि च मे परूंषि च मे शरीराणि च मे। - तै.सं. ४.७.१.२
*अथ परिधीन् परिदधाति। तद् यत्परिधीन् परिदधाति - यत्र वै देवा अग्रेऽग्निं होत्राय प्रावृणत, तद्धोवाच - न वा अहमिदमुत्सहे, यद्वो होता स्याम, यद्वो हव्यं वहेयम् , त्रीन पूर्वान् प्रावृढ्वम्। - - - - - - -तमेतैः पर्यदधुः। तन्न वज्रो वषट्कारः प्रावृणक्। तद्वर्मैवैतदग्नये नह्यति - यदेतैः परिदधाति। - - - - - - शतपथ ब्राह्मण १.३.३.१३
*सा(अभ्रिः) वैणवी स्यात्। अग्निर्देवेभ्य उदक्रामत्। स वेणुं प्राविशत्। तस्मात्स सुषिरः। स एतानि वर्माण्यभितोऽकुरुत - पर्वाणि - अननुप्रज्ञानाय। यत्र - यत्र निर्ददाह - तानि कल्माषाण्यभवन्। - श.ब्रा.६.३.१.३१
*परि वाजपतिः कविः। परि त्वाऽग्ने पुरं वयम्। त्वमग्ने द्युभिः इति। अग्निमेवास्माऽएतदुपस्तुत्य वर्म करोति। परिवतीभिः। परीव हि पुरः। - श.ब्रा. ६.३.३.२५
*भूमि खननम् : तदुत्तरं कृष्णाजिनादुपस्तृणाति। यज्ञो वै कृष्णाजिनम्। - - - - -अथैने(कृष्णाजिन - पुष्करपर्णम्) अभिमृशति। सञ्ज्ञामेवाभ्यामेतत्करोति। शर्म च स्थो वर्म च स्थः इति। शर्म च ह्यस्यैते वर्म च। अच्छिद्रे बहुलेऽउभे इति। - - - - श.ब्रा. ६.४.१.१०
*त्रयस्त्रिंशस्तोमेन शोणः सात्रासाह ईजे पांचालो राजा। तदेतद्गाथयाऽभिगीतम् - सात्रासाहे यजमानेऽश्वमेधेन तौर्वशाः। उदीरते त्रयस्त्रिंशाः षट्सहस्राणि वर्मिणाम्। अथ द्वितीयया - षट्षट्~ षड्ढ सहस्राणि यज्ञे कोकपितुस्तव। उदीरते त्रयस्त्रिंशाः षट्सहस्राणि वर्मिणाम् ॥ - श.ब्रा. १३.५.४.१६-१७