KASHYAPA
There are few hymns in Rigveda and Atharvaveda attributed to seer Kashyapa and there is a one – verse hymn in Atharvaveda whose god/devataa is Kashyapa. But puraanic texts have crossed all limits in giving importance to Kashyapa. Whether it be the genesis of demons or the incarnation of gods, their father will almost always be Kashyapa. Let us try to unfold the mystery of Kashyapa here with the help of sacred puraanic and vedic texts.
Puraanic texts interpret Kashyapa as one who can drink wine. Wine here may mean some sort of bliss, happiness. At the same time, it has been said that mind and Vaak/higher-senses/expression can be converted into kasha, wine. It seems that the root word in word Kashyapa is Kaasha, light. And the word kashaa in vedic literature is supposed to be related to some thrilling experience because it is said that electricity in sky travels like a kashaa, a thread. All our body functions run at a very slow speed – all the movement in the body is through ions whose speed is very slow. On the other hand, velocity of electricity and light is much much higher. Therefore, when it is said that let one make mind and Vaak kashya, it may indicate a conversion from slow to fast movement, fast experience as in thrilling. And then Kashyapa will mean one who can have control over these thrilling experiences.
Is there any proof for what has been suggested above? In a particular type of somayaga called Dwaadashaaha, a sacrifice running for 12 days, the first 6 days are considered to be of hard penances. When the demon blurring our senses dies on 6th day, then a state of bliss starts from seventh day which runs upto 9th day. Then 10th day is a state when nothing can be expressed. These 3 days of bliss are called seas of bliss and one has to cross this sea of bliss also to go even beyond that. It has been stated in vedic texts that only Akuupaara Kashyapa is able to swim this sea. How does Kashyapa will control this sea of happiness? He will transfer the extra energy he is receiving in transforming the gross matter and also in taking the developed consciousness to a new height. That is why Kashyapa is depicted in puraanic texts as giving birth to both demons and gods.
There are 3 main entities in vedic literature – mind, praana and vaak. Out of these, Kashyapa can be said to be related with praana. The highest state of praana is sun. And in puraanic texts, Kashyapa has been depicted as one of the suns also. When vedic texts refer to Kashyapa, they quote him as the son of Mareechi. In ordinary sense, sun ray is called mareechi. With reference to Kashyapa, it seems that mareechi is the first sign of conscious element in gross matter. Thus mareechi will create a mortal state because it is not developed. The second stage of development of consciousness may be Kashyapa. In the first stage, our senses will provide us a blurred signal which is called mriga mareechikaa. In the second stage, the consciousness may see the real aspect of the world. That is why vedic texts cry loudly that Kashyapa becomes Pashyaka, or the real seer in trance. Dr. Fatah Singh says that Pashyaka is the state of trance and Kashyapa is the state of coming out of trance.
Kashyapa happens to be a name for tortoise also. The similarity in the two seems to be that both know how to make their senses inward.
In puraanic texts, Kashyapa has been depicted as receiving this earth from warriors etc. as a donation/dakshinaa. Lord Parashurama donated the whole earth to Kashyapa after killing all the warriors on it. But the nature of Kashyapa is that he gives shelter to both Brahmins and warriors, or knowledge and action.
कश्यप
टिप्पणी शब्दकल्पद्रुम व पुराणों आदि में कश्यप शब्द की निरुक्ति कश्य - पः अर्थात् मद्य का पान करने वाला तथा कश्य अर्थात् अज्ञान का पान, शोषण आदि करने वाले के रूप में की गई है । यदि विवेकपूर्वक विचार किया जाए तो चेतन तत्त्व रूप कश्यप ही हमारी इन्द्रियों के माध्यम से सांसारिक विषय वासनाओं रूपी मद्य का सतत् पान करता रहता है । कभी यह नेत्रों के माध्यम से रूप - रस का पान करता है तो कभी कर्ण इन्द्रिय के संयोग से संगीत का आनन्द लेता है । इसी प्रकार अन्य इन्द्रियों के विषय में भी समझना चाहिए । चेतन तत्त्व के अभाव में इन्द्रियां किसी भी विषय का रसास्वादन करने में समर्थ नहीं हो सकती । जैसे मद्य तात्कालिक सुख ही प्रदान करता है, ठीक उसी प्रकार विषय वासनाओं का रस भी सुख की क्षणिक अनुभूति ही कराता है । मद्यपान के समान यह चेतन तत्त्व अज्ञान का पान भी करता है । जब यह चेतन तत्त्व द्रष्टा चेतन होता है, तब अज्ञान का शोषक बन जाता है । तैत्तिरीय आरण्यक १.८.८ में कहा गया है कि कश्यपो पश्यको भवति अर्थात् कश्यप पश्यक होता है ।
कश्यप शब्द की निरुक्तियां केवल पौराणिक साहित्य में ही उपलब्ध हैं, वैदिक साहित्य में नहीं । वायु पुराण आदि में कश्यप की निरुक्ति मद और हास का पान करने वाले के रूप में की गई है । ब्रह्माण्ड पुराण २.३.१.१२१ में मद और हास पर आधारित निरुक्ति के अतिरिक्त मन और वाक् को कश्य कहा गया है जिनका परित्राण कश्यप कर सकता है । इन निरुक्तियों को सम्यक रूप में समझने के लिए वैदिक साहित्य का आश्रय लेना होगा । जैमिनीय ब्राह्मण ३.२७३ में द्वादशाह नामक यज्ञ में ६ दिनों के पश्चात् छन्दोम नामक ३ दिनों के संदर्भ में कहा गया है कि अकूपार नामक कश्यप ने समुद्र में प्रतिष्ठा की इच्छा की और समुद्र में इस पृथिवी को प्रतिष्ठा के रूप में प्राप्त किया । यहां कहा गया है कि समुद्र ही छन्दोम हैं और कश्यप ही समुद्र को पार करने में समर्थ है । जैसा कि अन्य टिप्पणियों में भी उल्लेख किया गया है, ऐसा प्रतीत होता है कि द्वादशाह में प्रथम ६ दिन एकान्तिक साधना के हैं और उसके पश्चात् के छन्दोम कहे जाने वाले ३ दिन भक्ति में प्राप्त आनन्द के, मद के, हास के हैं । इसके पश्चात् १०वां दिन अविवाक्य, वाक् से रहित होता है । सार्वत्रिक साधना रूपी छन्दोमों में प्राप्त इस आनन्द को समुद्र, समुद कहा गया है । इस मोद का सम्यक् उपयोग कैसे किया जाए, इसके लिए कश्यप की आवश्यकता पडती है । शतपथ ब्राह्मण १३.७.१.१५ में सर्वमेध के संदर्भ में कहा गया है कि विश्वकर्मा भौवन ने यह यज्ञ किया और विश्वकर्मा ने कश्यप को भूमि दान करनी चाही तो भूमि ने कहा कि मर्त्य कश्यप के पास जाने की अपेक्षा वह अपने को जल में डुबा लेगी । ऐसा ही कथन ऐतरेय ब्राह्मण ८.२१ में भी है । महाभारत वनपर्व ११४ में इस कथन का आगे विस्तार किया गया है कि तब कश्यप ने अपने तप से पृथिवी को प्रसन्न किया । इसके अतिरिक्त, महाभारत में यह उल्लेख भी महत्त्वपूर्ण है कि कश्यप को जिस पृथिवी के दान का उल्लेख आता है, वह साधारण पृथिवी नहीं है, अपितु स्वर्णिम वेदी है, यज्ञ की वेदी है, अग्नि है, पृथिवी की ज्योति है । महाभारत शान्तिपर्व ४९.६४ तथा अन्यत्र पुराणों में सार्वत्रिक रूप से परशुराम द्वारा पृथिवी पर क्षत्रिय नाश के पश्चात् मध्य भूमि को कश्यप को दान में देने तथा कश्यप द्वारा परशुराम को भूमि त्याग के निर्देश का वर्णन है । इस संदर्भ में यह कहना उचित होगा कि परशुराम द्वारा क्षत्रिय नाश के पश्चात् पृथिवी का कश्यप को दान तथा वैदिक साहित्य में ६ठें दिन वृत्र नाश की एकान्तिक साधना के पश्चात् ७वें दिन कश्यप द्वारा समुद्र में भूमि की प्राप्ति एक ही तथ्य का २ अलग - अलग प्रकार से कथन है । महाभारत के वर्णन के अनुसार कश्यप उस पृथिवी पर पुनः क्षत्रियों को वास करने की सुविधा देते हैं और क्षत्रिय पुनः उपद्रव करते हैं । महाभारत शान्ति पर्व ७३ में कश्यप पुरूरवा को उपदेश रूप में क्षत्रिय और ब्राह्मण द्वारा एक दूसरे को सहयोग करने की शिक्षा देते हैं । यह कहा जा सकता है कि ब्राह्मण ज्ञान पक्ष और क्षत्रिय कर्म पक्ष का प्रतीक है और कश्यप अपनी पृथिवी पर इन दोनों के सहयोग की अपेक्षा करते हैं । महाभारत शान्तिपर्व २०८.८ में कश्यप को अरिष्टनेमि कहा गया है, अरिष्टनेमि वह है जिसने अपने चारों ओर दुर्गुणों को नष्ट कर दिया हो, शत्रु रहित हो गया हो ( द्र. अरिष्टनेमि शब्द पर टिप्पणी ) ।
ब्रह्माण्ड पुराण में मन और वाक् को कश्य कहा गया है और इनका परित्राण करने वाला कश्यप है । तैत्तिरीय आरण्यक १.७.२ तथा १.८.६ में कश्यप को ८वां सूर्य कहा गया है जो पहले सात सूर्यों को ज्योति प्रदान करता है । वैदिक साहित्य में सूर्य को प्राण का विकसित रूप कहा गया है, पृथिवी का विकसित रूप अग्नि और मन का विकसित रूप चन्द्रमा है । अतः यहां यह कहा जा सकता है कि विकसित प्राण रूपी कश्यप वाक् रूपी पृथिवी को मन को धारण करने योग्य बनाता है, जड प्रकृति को चेतना को धारण करने योग्य बनाता है । दूसरे शब्दों में, यह कहा जा सकता है कि प्राण रूपी सूर्य को जो अतिरिक्त ऊर्जा मद या हास के रूप में प्राप्त हो रही है, उसका विकास वह अपनी जड पडी हुई प्रकृति में प्राण व मन का समावेश करने में, उसे स्वर्णिम वेदी बनाने में कर सकता है । पुराणों में सार्वत्रिक रूप से कश्यप द्वारा अपनी १३ भार्याओं से सृष्टि करने का कथन है जिसको इसी रूप में समझा जा सकता है । वैदिक साहित्य में तो केवल पृथिवी की ज्योति अग्नि, अन्तरिक्ष की वायु, द्युलोक की सूर्य व नक्षत्रों की चन्द्रमा होने का उल्लेख आता है । लेकिन लगता है कि पुराणकार इतने उल्लेख से संतुष्ट नहीं है और वह पृथिवी को उसकी कद्रू, सुरसा आदि प्रवृत्तियों में विभाजित कर उनकी प्रजाओं के रूप में अग्नि का विकास प्रदर्शित करता है । पुराणों में कश्यप की भार्याओं के दक्ष की दुहिता होने के संदर्भ में, केवल ऋग्वेद १०.१३७.२ में कश्यप ऋषि की ऋचा में दक्ष शब्द आता है और इसका निहितार्थ अन्वेषणीय है ।
पुराणों और ब्राह्मण ग्रन्थों में जिस भूमि को कश्यप को दान के उल्लेख मिलते हैं, लगता है कि अथर्ववेद १०.१० व १२.४ में उस भूमि का चित्रण एक वशा गौ के रूप में किया गया है । वशा वन्ध्या गौ को कहा जाता है तथा सूक्तों में वशा के पालनकर्ता द्वारा ब्राह्मण को वशा दान करने तथा वशा का स्वयं उपभोग न करने के निर्देश हैं । श्री श्रीकण्ठ शास्त्री कृत अथर्ववेद के हिन्दी अनुवाद में वशा को ऐसी गौ कहा गया है जो बिना वत्स उत्पन्न किये ही जीवन भर दुग्ध का सिंचन करती रहती है । अथर्ववेद १२.५ - १२.७ सूक्तों के ऋषि कश्यप व देवता ब्रह्मगवी है ।
पुराणों में कश्यप द्वारा विष्णु के अवतार वामन को उत्पन्न करने के आख्यान के संदर्भ में, अथर्ववेद ८.९ सूक्त अथर्वा ऋषि का है जिसका देवता कश्यप है और एकमात्र यही सूक्त ऐसा है जिसका देवता कश्यप है । इसमें विराट् का वर्णन है । क्या इस सूक्त के आधार पर पौराणिक वामन की व्याख्या की जा सकती है, यह अन्वेषणीय है । ऋग्वेद ९.६४, ९.६७.४-६, ९.९१, ९.९२, ९.११३, ९.११४ सूक्तों के ऋषि कश्यपो मारीच: तथा देवता पवमान सोम हैं । महाभारत शान्तिपर्व ९३.८६ में कश्यप नाम की निरुक्ति निम्न प्रकार से की गई है : कुलं कुलं च कुवम: कुवम: कश्यपो द्विज: । काश्य: काशनिकाशत्वादेतन्मे नाम धारय ।। इस निरुक्ति में कु - पृथिवी और वम - वमन अर्थ में हो सकता है । क्या यह निरुक्ति वामन के संदर्भ में उपयोगी हो सकती है, यह विचारणीय है ।
ऋग्वेद खिल ५.३.५ की ऋचा उद्धृत करने योग्य है - अजो यत्तेजो ददृशे शुक्रं ज्योति: परो गुहा । तदृषि: कश्यपः स्तौति सत्यं ब्रह्म चराचरं ध्रुवं ब्रह्म चराचरं ।। इस ऋचा से लगता है कि कश्यप ऋषि केवल सत्य, ध्रुव ब्रह्म के उपासक हैं । जैमिनीय ब्राह्मण ३.२०३ में अकूपार कश्यप को महद् यक्ष कहा गया है जिसके दर्शन के लिए ऋषि गण लालायित हैं और इस हेतु इन्द्र की स्तुति करते हैं । यक्ष की प्रकृति एकान्तिक प्रकार की समझी जाती है जो कश्यप की ऊपर वर्णित प्रकृति के विपरीत प्रतीत होती है । ऋग्वेद में कश्यप ऋषि के सूक्तों में सत्य के साथ ऋत् के भी उल्लेख आते हैं । अथर्ववेद १७.१.२७ में कश्यप की ज्योति तथा वर्चस की विशिष्टता का उल्लेख है । बृहदारण्यक उपनिषद ६.५.३ में हरित कश्यप, शिल्प कश्यप और निध्रुवि कश्यप, इन तीन प्रकार के कश्यपों का उल्लेख आता है जो एक से सुनकर दूसरे को सुनाते हैं । वैदिक साहित्य में कश्यप के शिल्प का ही विशिष्ट रूप से उल्लेख मिलता है - यत्ते शिल्पं कश्यप रोचनावद् ( तैत्तिरीय ब्राह्मण २.७.१५.३, तैत्तिरीय आरण्यक १.७.१ ) । अथर्ववेद १३.३.१० में इस मन्त्र का रूपान्तर यत्ते चन्द्रं कश्यप रोचनावद् किया गया है । ऋग्वेद ८.२९ सूक्त मारीच कश्यप ऋषि का है जिसका विनियोग छन्दोम दिवस में तृतीय सवन में होता है । संभवतः यह सूक्त शिल्प से सम्बन्धित है । सामान्य रूप से शिल्प आनन्द के अतिरेक की अवस्था से सम्बन्धित होता है और उसका तात्पर्य होता है कि जब ज्योति का अत्यधिक विकास हो जाए तो उस ज्योति को काट - छांट कर एक सुन्दर रूप प्रदान कर दिया जाए ( द्र. वास्तुसूत्रोपनिषद ) ।
ऋग्वेद के सूक्तों में कश्यप को मरीचि का पुत्र कहा गया है । उणादिकोश ४.७० में मरीचि की निरुक्ति मृ में ईचि प्रत्यय द्वारा की गई है - मि|यते ऽसौ मरीचि: दीप्तिर्महर्षिर्वा । अर्थात् जो मृत अवस्था में है, वह मरीचि है । यह कहा जा सकता है कि प्रथम उद्भूत चेतन की ही जड के भीतर मृत अवस्था मरीचि है । चूंकि उसी से प्रथम चेतन उद्भूत हुआ, अतः चेतन रूप कश्यप को मरीचि का पुत्र कहा गया है । अथर्ववेद ७.६४/७.६२ का एक मन्त्र का सूक्त कश्यप - पुत्र मरीचि का है जबकि अथर्ववेद ७.६५/७.६३ का एक मन्त्र का सूक्त मरीचि - पुत्र कश्यप का है । इन्द्रियों में प्राप्त शक्ति से मृग मरीचिका उत्पन्न होती कही जाती है । इस आधार पर कश्यप का मारीच होने का क्या तात्पर्य है, यह अन्वेषणीय है ।
ऋग्वेद १.९९ सूक्त ( जातवेदसे सुनवाम सोमम् इत्यादि ) कश्यप ऋषि का है जो केवल एक ऋचा वाला ऋग्वेद का एकमात्र सूक्त है । शतपथ ब्राह्मण ७.५.१.५ में कश्यप को कूर्म कहा गया है । कूर्म व कश्यप में क्या अन्तर है, यह विचारणीय है । जैसा कि पुराणों में कूर्म के संदर्भ में कहा गया है, कूर्म की उत्पत्ति ब्रह्मा के तामसी तनु से हुई है, जबकि कश्यप की राजसी तनु से । लेकिन कश्यप व कूर्म, दोनों ही अपनी इन्द्रियों को अन्तर्मुखी या बहिर्मुखी करना जानते हैं । पुराणों में कश्यप द्वारा अर्थ संचय की निन्दा का इन्द्रियों के संदर्भ में क्या अर्थ हो सकता है, यह विचारणीय है ।
प्रथम लेखनः- ११.२.२००५ई.
संदर्भ
*जातवेदसे सुनवाम सोममरातीयतो नि दहाति वेदः। स नः पर्षदति दुर्गाणि विश्वा नावेव सिन्धुं दुरितात्यग्निः ॥(ऋषिः - कश्यपो मारीचः) - ऋग्वेद १.९९.१
*बभ्रुरेको विषुणः सूनरो युवाञ्ज्यङ्क्ते हिरण्ययम्। योनिमेक आ ससाद द्योतनो ऽन्तर्देवेषु मेधिरः। इत्यादि(ऋषिः कश्यपो मारीचः) - ऋ. ८.२९
*वृषा सोम द्युमाँ असि वृषा देव वृषव्रतः। वृषा धर्माणि दधिषे ॥ इत्यादि(ऋषिः - कश्यपो मारीचः) - ऋ. ९.६४
*इन्दुर्हिन्वानो अर्षति तिरो वाराण्यव्यया। हरिर्वाजमचिक्रदत् ॥ इन्दो व्यव्यमर्षसि वि श्रवांसि वि सौभगा। वि वाजान् त्सोम गोमतः ॥ आ न इन्दो शतग्विनं रयिं गोमन्तमश्विनम्। भरा सोम सहस्रिणम् ॥इत्यादि(ऋषिः कश्यपो मारीचः) - ऋ. ९.६७.४-६
*असर्जि वक्वा रथ्ये यथाजौ धिया मनोता प्रथमो मनीषी। दश स्वसारो अधि सानो अव्ये ऽजन्ति वह्निं सदनान्यच्छ ॥ इत्यादि(ऋषिः - कश्यपो मारीचः) - ऋ. ९.९१
*परि सुवानो हरिरंशुः पवित्रे रथो न सर्जि सनये हियानः। आपच्छ्लोकमिन्द्रियं पूयमानः प्रति देवाँ अजुषत प्रयोभिः ॥ इत्यादि(ऋषिः कश्यपो मारीचः) - ऋ. ९.९२
*शर्यणावति सोममिन्द्रः पिबतु वृत्रहा। बलं दधान आत्मनि करिष्यन् वीर्यं महदिन्द्रायेन्दो परि स्रव ॥ इत्यादि(ऋषिः कश्यपो मारीचः) - ऋ. ९.११३
*य इन्दोः पवमानस्याऽनु धामान्यक्रमीत्। तमाहुः सुप्रजा इति यस्ते सोमाविधन्मन इन्द्रायेन्दो परि स्रव ॥ ऋषे मन्त्रकृतां स्तोमैः कश्यपोद्वर्धयन् गिरः। सोमं नमस्य राजानं यो जज्ञे वीरुधां पतिरिन्द्रायेन्दो परि स्रव ॥ इत्यादि(ऋषिः कश्यपो मारीचः) - ऋ. ९.११४
*द्वाविमौ वातौ वात आ सिन्धोरा परावतः। दक्षं ते अन्य आ वातु परान्यो वातु यद्रपः ॥(ऋषिःकश्यपः) - ऋ. १०.१३७.२
*अजो यत्तेजो ददृशे शुक्रं ज्योतिः परो गुहा। तदृषिः कश्यपः स्तौति सत्यं ब्रह्म चराचरं ध्रुवं ब्रह्म चराचरम् ॥ - ऋग्वेद खिल ५.३.५
*असितस्य ते ब्रह्मणा कश्यपस्य गयस्य च। अन्तःकोशमिव जामयोऽपि नह्यामि ते भगम् ॥ - अथर्ववेद १.१४.४
*अङ्गेअङ्गे लोम्निलोम्नि यस्ते पर्वणिपर्वणि। यक्ष्मं त्वचस्यं ते वयं कश्यपस्य वीबर्हेण विष्वञ्चं वि वृहामसि ॥ - अ. २.३३.७
*कश्यपस्य चक्षुरसि शुन्याश्च चतुरक्ष्याः। वीध्रे सूर्यमिव सर्पन्तं मा पिशाचं तिरस्करः ॥ - अ. ४.२०.७
*यावङ्गिरसमवथो यावगस्तिं मित्रावरुणा जमदग्निमत्रिम्। यौ कश्यपमवथो यौ वसिष्ठं तौ नो मुञ्चतमंहसः ॥ - अ. ४.२९.३
*त्वया पूर्वमथर्वाणो जघ्नू रक्षांस्योषधे। त्वया जघान कश्यपस्त्वया कण्वो अगस्त्यः ॥ - अ. ४.३७.१
*त्र्यायुषं जमदग्नेः कश्यपस्य त्र्यायुषम्। त्रेधामृतस्य चक्षणं त्रीण्यायूंषि तेऽकरम् ॥ - अ. ५.२८.७
*अयमग्निः सत्पतिर्वृद्धवृष्णो रथीव पत्तीनजयत् पुरोहितः। नाभा पृथिव्यां निहितो दविद्युतदधस्पदं कृणुतां ये पृतन्यवः ॥ इत्यादि -(ऋषिः मरीचिः काश्यपः) - अ. ७.६४
*कश्यपस्त्वामसृजत कश्यपस्त्वा समैरयत्। अबिभस्त्वेन्द्रो मानुषे बिभ्रत् संश्रेषिणेऽजयत्। मणिं सहस्रवीर्यं वर्म देवा अकृण्वत ॥ - अ. ८.५.१४
*कुतस्तौ जातौ कतमः सो अर्धः कस्माल्लोकात् कतमस्याः पृथिव्याः। वत्सो विराजः
सलिलादुदैतां तौ त्वा पृच्छामि कतरेण दुग्धा ॥ इत्यादि - अ. ८.९(ऋषिः कश्यपः) - अ. ८.९
*षट् त्वा पृच्छाम ऋषयः कश्यपेमे त्वं हि युक्तं युयुक्षे योग्यं च। विराजमाहुर्ब्रह्मणः पितरं तां नो वि धेहि यतिधा सखिभ्यः ॥ - अ. ८.९.७
*नमस्ते जायमानायै जाताया उत ते नमः। बालेभ्यः शफेभ्यो रूपायाघ्न्ये ते नमः ॥ इत्यादि(ऋषिः कश्यपः, दे. वशा) - अ. १०.१०
*ददामीत्येव ब्रूयादनु चैनामभुत्सत। वशां ब्रह्मभ्यो याचद्भ्यस्तत् प्रजावदपत्यवत्॥ इत्यादि(ऋषिः कश्यपः, दे. वशा) - अ. १२.४
*श्रमेण तपसा सृष्टा ब्रह्मणा वित्तर्ते श्रिता सत्येनावृता श्रिया प्रावृता यशसा परीवृता। इत्यादि(ऋषिः कश्यपः, दे. ब्रह्मगवी) - अ. १२.५-११
*इदं सदो रोहिणी रोहितस्यासौ पन्थाः पृषती येन याति। तां गन्धर्वाः कश्यपा उन्नयन्ति तां रक्षन्ति कवयोऽप्रमादम् ॥ - अ. १३.१.२३
*यत् ते चन्द्रं कश्यप रोचनावद् यत् संहितं पुष्कलं चित्रभानु। यस्मिन्त्सूर्या आर्पिताः सप्त साकं तस्य देवस्य। क्रुद्धस्यैतदागो य एवं विद्वांसं ब्राह्मणं जिनाति। उद् वेपय रोहित प्र क्षिणीहि ब्रह्मज्यस्य प्रति मुञ्च पाशान् ॥ - अ. १३.३.१०
*प्रजापतेरावृतो ब्रह्मणा वर्मणाहं कश्यपस्य ज्योतिषा वर्चसा च। जरदष्टिः कृतवीर्यो विहायाः सहस्रायुः सुकृतश्चरेयम् ॥ परीवृतो ब्रह्मणा वर्मणाहं कश्यपस्य ज्योतिषा वर्चसा च। मा मा प्रापन्निषवो दैव्या या मा मानुषीरवसृष्टा वधाय ॥ - अ. १७.१.२७-२८
*कण्वः कक्षीवान् पुरुमीढो अगस्त्यः श्यावाश्वः सोभर्यर्चनानाः। विश्वामित्रोऽयं जमदग्निरत्रिरवन्तु नःकश्यपो वामदेवः ॥ - अ. १८.३.१५
*कालः प्रजा असृजत कालो अग्रे प्रजापतिम्। स्वयंभूः कश्यपः कालात् तपः कालादजायत ॥ - अ. १९.५३.१०
*अङ्गेअङ्गे लोम्निलोम्नि यस्ते पर्वणिपर्वणि। यक्ष्मं त्वचस्यं ते वयं कश्यपस्य वीबर्हेण विष्वञ्चं वि वृहामसि ॥ - अ. २०.९६.२३
*अश्वमेधशेषभूतषष्ठपशुसंघविधिः :- पृषतो वैश्वदेवः - - - - अन्यवापोऽर्धमासानां मासां कश्यपः क्वयिः कुटरुर्दात्यौहस्ते सिनीवाल्यै - - - तैत्तिरीय संहिता ५.५.१७.१
*हिरण्यवर्णाः शुचयः पावकाः यासु जातः कश्यपो यास्विन्द्रः। अग्निं या गर्भं दधिरे विरूपास्ता न आपः शं स्योना भवन्तु। - तैत्तिरीय संहिता ५.६.१.१
*यत्ते शिल्पं कश्यप रोचनावत्। इन्द्रियावत्पुष्कलं चित्रभानु। यस्मिन्त्सूर्या अर्पिता सप्त साकम्। तस्मिन्राजानमधिविश्रयेमम् ॥ - तैत्तिरीय ब्राह्मण २.७.१५.३
*होतुरध्रिगुप्रैषः :- कश्यपेवांसा - तैत्तिरीय ब्राह्मण ३.६.६.३
*कुसुर्विन्दो हौद्दालकिस् सोमानाम् उज्जगौ। तम् उ हासितमृगा कश्यपानां पुत्रा ऊचुः को ऽनु नो ऽयं नृशंसको ऽन्त उद्गायत्य् एतेमम् अनुव्याहरिष्याम इति। ते ऽनुव्याहरिष्यन्त आस्तावम् उपसेदुः। - - - - जैमिनीय ब्राह्मण १.७५
*अथैष उपशदः। कश्यपो वा अकामयत - उपोप मा प्रजा पशवः शीयेरन्न, उपोप प्रजया पशुभिः प्रजायेयेति। स एतं यज्ञम् (एकाहम्) अपश्यत्। तम आहरत्। तेनायजत। ततो वै तम् उपोप प्रजाःपशवो ऽशीयन्त, उपोप प्रजया पशुभिः प्रजायत। - - - जै.ब्रा. २.८१
*महाव्रतम् : - - - चैषीकी चापघाटलीका च वीणा च कश्यपी च भूमिदुन्दुभिश् - - - जै.ब्रा. २.४०४
*ऋषयो वै सत्राद् उत्थायायन्त आयुञ्जानाः। ते होचुर् एत किं चिद् एव यक्षं पश्यामेति। ते होचुर् - अकूपारो वा अयं कश्यपस् समुद्रे ऽन्तर् महद् यक्षम्। एत तं पश्यामेति। ते हान्वभ्यवेयुः। तेभ्यो ह नाविर् आस। ते होचुर् - एतेन्द्रम् एव स्तवाम। स वावास्येशे।- - - - - - जै.ब्रा. ३.२०३
*अथाकूपारम्(प्रति त्यं हर्यतं हरिं इति)। अकूपारो वै कश्यपः कलिभिस् सह समुद्रम् अभ्यवैषत्। तस्मिन् प्रतिष्ठाम् ऐच्छत्। स एतत् सामापश्यत्। तेनास्तुत। ततो वै स समुद्रे प्रतिष्ठाम् अविन्दतेमाम् एव पृथिवीम्। - - - - - - समुद्रो वै छन्दोमाः। कश्यपो वै समुद्रम् अतिपारयितुम् अर्हति। - जै.ब्रा. ३.२७३
*आरोगो भ्राजः पटरः पतङ्गः। स्वर्णरो ज्योतिषीमान्विभासः। ते अस्मै सर्वे दिवमातपन्ति। ऊर्जं दुहाना अनपस्फुरन्त इति। कश्यपोऽष्टमः। स महामेरुं न जहाति। तस्यैषा भवति। यत्ते शिल्पं कश्यप रोचनावत्। इन्द्रियावत्पुष्कलं चित्रभानु। यस्मिन्त्सूर्या अर्पिताः सप्त साकम्। तस्मिन्राजानमधिविश्रयेममिति। ते अस्मै सर्वे कश्यपाज्ज्योतिर्लभन्ते। तान्त्सोमः कश्यपादधिनर्धमति। भ्रस्ताकर्मकृदिवैवम्। प्राणो जीवानीन्द्रियजीवानि। सप्त शीर्षण्याः प्राणाः। सूर्या इत्याचार्याः। अपश्यमहमेतान्त्सप्त सूर्यानिति। पञ्चकर्णो वात्स्यायनः। सप्तकर्णश्च प्लाक्षिः। आनुश्रविक एव नौ कश्यप इति। - - - - तैत्तिरीय आरण्यक १.७.२
*कश्यपादुदिताः सूर्याः। पापान्निघ्नrन्ति सर्वदा। रोदस्योरन्तर्देशेषु। तत्र न्यस्यन्ते वासवैः। - - - - - -अपैतं मृत्युं जयति। य एवं वेद स खल्वैवंविद्ब्राह्मणः। दीर्घश्रुत्तमो भवति। कश्यपस्यातिथिः सिद्धगमनः सिद्धागमनः तस्यैषा भवति। - - - - - - -कश्यपः पश्यको भवति। यत्सर्वं परिपश्यतीति सौक्ष्म्यात्। - तैत्तिरीय आरण्यक १.८.७
*- - - - तस्यैतां प्रायश्चित्तिं विदांचकार सुदेवः काश्यपः - तै.आ. २.१८.१
*- - - परीवृतो वरीवृतो ब्रह्मणा वर्मणाऽहं तेजसा कश्यपस्य। - तैत्तिरीय आरण्यक २.१९.१
*स यत् कूर्मो नाम। एतद्वै रूपं कृत्वा प्रजापतिः प्रजा असृजत। यदसृजत - अकरोत् तत्। यदकरोत्। तस्मात्कूर्मः। कश्यपो वै कूर्मः। तस्मादाहुः - सर्वाः प्रजाः काश्यप्य इति। - शतपथ ब्राह्मण ७.५.१.५
*सर्वमेधः :- तं (विश्वकर्माणं) ह कश्यपो याजयांचकार। तदपि भूमिः श्लोकं जगौ - न मा मर्त्यः कश्चन दातुमर्हति विश्वकर्मन् भौवन मंद आसिथ। उपमंक्ष्यति स्या सलिलस्य मध्ये मृषैष ते संगरः कश्यपाय इति। - श.ब्रा. १३.७.१.१५
*अयमेव वसिष्ठः। अयं कश्यपः। वागेवात्त्रिः। - श.ब्रा. १४.५.२.६
*कश्यपेवांसौ - ऐतरेय ब्राह्मण २.६
*ते होत्थाप्यमाना रुरुविरे ये तेभ्यो भूतवीरेभ्योऽसितमृगाः कश्यपानां सोमपीथमभिजिग्युः पारिक्षितस्य जनमेजयस्य विकश्यपे यज्ञे तैस्ते तत्र वीरवन्त आसुः कः स्वित्सोऽस्माकास्ति वीरो य इमं सोमपीथमभिजेष्यतीति। अयमहस्मस्मि वो वीर इति होवाच रामो मार्गवेयः। - - - - - ऐतरेय ब्राह्मण ७.२७
*एतेन ह वा ऐन्द्रेण महाभिषेकेण कश्यपो विश्वकर्माणं भौवनमभिषिषेच तस्मादु विश्वकर्मा भौवनः समन्तं सर्वतः पृथिवीं जयन्परीयायाश्वेन च मेध्येनेजे। भूमिर्ह जगावित्युदाहरन्ति। न मा मर्त्यः कश्चन दातुमर्हति विश्वकर्मन्भौवन मां दिदासिथ। निमङ्क्ष्येऽहं सलिलस्य मध्ये मोघस्त एष कश्यपायाऽऽस संगर इति। - ऐतरेय ब्राह्मण ८.२१
*स्वयंभूः कश्यपः कश्यपतुङ्गे ऽभ्यतपत्। - - - - - -कश्यपतुङ्गदर्शनात् सरणवाटात् सिद्धिर्भवति। - गोपथ ब्राह्मण १.२.८
*अग्निष्टोम माध्यन्दिन सवनम् : दक्षिणतः सदस्यासीनेभ्यः प्रसर्पकेभ्यो ददाति। न बहिर्वेदि। न याचितः। न भीतः। न कण्वकश्यपेभ्यः। - आपस्तम्ब श्रौत सूत्र १३.७.१
*- - - - सप्तदशं(अक्षरं) काश्यपम् - गायत्रीरहस्योपनिषत् ४०७
*सर्वाण्येवमेवैनं ददामीति होवाच वृषादर्विस्तदिदमितिहासो ब्रह्मादित्यः पुरोगाय। पुरोगः काश्यपाय। काश्यपो भरद्वाजाय। - इतिहासोपनिषद १८
*कश्यपः पश्यको भवति। यत्सर्वं परिपश्यतीति सौक्ष्म्यात्। कश्यपादुदिताः सूर्याः पापान्निर्घ्नन्ति सर्वदा। - सूर्यतापिन्युपनिषद १.७
*कश्यपोलूखलः ख्यातो रज्जुर्माताऽदितिस्तथा। - कृष्णोपनिषद २०
*वार्षगणो हरितात्कश्यपाद्धरितः कश्यपः शिल्पात्कश्यपाच्छिल्पः कश्यपः कश्यपान्नैध्रुवेः नैध्रुविर्वाचो वागम्भिण्या - - - बृहदारण्यकोपनिषद ६.५.३
*इमावेव वसिष्ठकश्यपावयमेव वसिष्ठोऽयं कश्यपो वागेवात्रिः - बृहदारण्यकोपनिषद २.२.४