KAAMA
A practical and theoretical aspect of Kaaama is presented here. Word Kaama of Hindu mythology is translated as sex in English language. Kaama is an integral part of everybody’s life. This is the highest grade of bliss provided by God to every creature. But old as well as modern thinkers say that this is not the highest bliss. One can go even higher. Take for example Rajneesha who professed going towards trance starting from sex. Every ancient society found ways and means to circumvent kaama to go to a higher stage. Let us see what is the basis of all these concepts about kaama.
One can guess that every cell of the body is like a small magnet which has got power to attract. In ordinary iron, atoms are arranged in a haphazard way so that the axial direction of the magnet becomes disordered. In disordered state, cells of different parts of the body respond to different types of stimulations which is called sex. Some cell respond to touch, some to pressure etc. When these atoms are made to order by some means, it becomes a powerful magnet. There is a possibility that our body cells also can be axially oriented like a powerful magnet or a powerful ferroelectric material. It is supposed that naturally, they are already aligned. The only requirement is that these should not get disturbed by the intake of external material or food. This aim has been accomplished by several means. There are reports about people who have controlled sex. They are supposed to take their intake of food in a dry form as far as possible. This is one way to disturb our own cells to a minimum extent. The second point is that our breath should be able to touch the whole body, at least the sacrum part. As soon as the intake of food becomes in excess, this connection is lost. To regain this connection, yogis have prescribed postures upside down and trying to drink air like water, to fill the stomach with air. If anyhow kaama is controlled, then it is said that the consciousness develops to higher stages.
Has the concept of magnet behind Kaama got some support from sacred texts? Puraanic texts term Rati as the wife of Kaama. Rati in Sanskrit is nothing but attraction.
As Dr. Fatah Singh has pointed out, the origin of vedic view of Kaama lies in the hymn which says that eye should become the weight and Kaama should become the vessel in which rice has to be de-husked or pounded. The word for vessel is Uluukhalam. Normally, Uluukhalam is a wooden ware with it’s mouth engraved to make it empty to fill un - husked rice in it. The rice pounded in it is later used for sacrificial rituals. The word Uluukhalam is important. This can be taken as Uruukaram, which means making wider, broader. As has been pointed out above, Kaama has got this property of becoming broad like a magnet. The pound has been called the eye. In the absence of practical experience, only puraanic stories of Lord Shiva annihilating Kaama with his third eye can be taken to it’s face value.
काम
टिप्पणी : सारी प्रकृति में विभिन्न दिशाओं में, विभिन्न दृष्टिकोणों से पराकाष्ठा को पहुंचने की कामना विद्यमान है । लेकिन यह कामना पूर्ण नहीं होती । इसका कारण यह है कि काम की पराकाष्ठा आने से पहले ही उसका कहीं न कहीं कार्य करने में उपयोग हो जाता है । उदाहरण के लिए, प्रत्येक परमाणु में विद्युत, चुम्बकत्व आदि गुण विद्यमान हैं । लेकिन यह परमाणु परस्पर इस प्रकार मिल जाते हैं कि इस विद्युत व चुम्बकत्व का कुल योग लगभग शून्य होता है । परस्पर मिलने का नाम पुराणों में रति है जो काम की पत्नी है । चुम्बकत्व की पराकाष्ठा देखने के लिए लौह धातु को स्वच्छ करना पडता है और उसके पश्चात् भी जिस पराकाष्ठा का अनुमान लगाया गया है , वह प्राप्त नहीं हो सकी है । चेतना के क्षेत्र में प्राणी के प्रत्येक कोश में काम विद्यमान रहता है । आधुनिक चिकित्सा विज्ञान की इस विषय पर सीमित जानकारी होने के कारण अनुमान यह है कि जीव के कोशों में विद्यमान काम की वही स्थिति है जो लौह धातु में चुम्बकत्व की । इस काम को पराकाष्ठा की ओर ले जाने की आवश्यकता है । टुकडों में बिखरा काम बहुत सी विकृतियां उत्पन्न करता है । जीव में खण्डित काम की अनुभूति पादतल आदि स्थानों पर स्पर्श से गुदगुदी उठनेv से होती है । शरीर में कुछ कोश तो ऐसे हैं जिनका जीव की चेतना से सरलता से सम्पर्क बना रहता है । उनका काम एक इकाई बन सकता है । शेष कोश ऐसे हैं , जैसे पादों के या मूलाधार के कोश, जो सीधी चेतना से बहुत दूर हैं । अतः उनका काम खण्डित अवस्था में रहता है । चेतना से यहां अर्थ है कि हम अपने श्वास के साथ अपने शरीर के कितने कोशों का तादात्म्य स्थापित कर सकते हैं । काम की खण्डित अवस्था को आधुनिक पदार्थ विज्ञान द्वारा प्रस्तुत जानकारी के आधार पर समझ सकते हैं । जड पदार्थ विशेष में, जिसे डाइइलेक्ट्रिक कहते हैं, एक छोटे से क्षेत्र में विद्युत एक इकाई के रूप में होती है । इस छोटे से क्षेत्र को खण्डित क्षेत्र घेरे रहता है जिसे कण की सीमा या ग्रेन बाउण्ड्री कहते हैं । इस प्रकार छोटी - छोटी इकाइयों से पूरा पदार्थ बनता है । चेतना के क्षेत्र में यदि हम किसी प्रकार से, किसी प्रकार के सफल प्राणायाम से अपनी चेतना का विस्तार मूलाधार कोश तक कर लें तो काम की खण्डित इकाईयां मिलकर एक इकाई बन जाती हैं । ऋग्वेद १.१७९.४ में नाद की स्थिति में माया के रुद्ध होने पर काम की उत्पत्ति का उल्लेख है । यह नाद या रेजोनन्स केवल ध्वनि के नाद तक सीमित नहीं है । यह विद्युत, चुम्बकत्व आदि किसी भी क्षेत्र में हो सकता है । जिस क्षेत्र का नाद होगा, उसी प्रकार का काम उत्पन्न होगा । आधुनिक विज्ञान की भाषा में काम को पोटेंशियल, विभव कह सकते हैं । प्रत्येक पदार्थ में एक निश्चत् परिमाण का काम, विभव होता है । उसी के अनुसार वह अपना परिवेश निर्मित करता है । यदि हम पदार्थ विशेष के काम के परिमाण का अपने काम से अतिक्रमण कर सके, तो पदार्थ की चेतना में प्रवेश किया जा सकताहै, ऐसा प्रतीत होता है । ऐसा लगता है कि वैदिक साहित्य का काम एक इकाई वाले काम से आरम्भ होता है । अन्य क्षुद्र कामों के लिए वैदिक मन्त्रों में बहुवचन, कामा: का प्रयोग किया गया है । ऋग्वेद १०.११६.८ तथा तैत्तिरीय ब्राह्मण ३.१२.२.३ में यजमान के कामों के सत्य होने की कामना की गई है ।
अथर्ववेद ११.३.३ में ब्रह्मौदन को पकाने के संदर्भ में धान को उलूखल में डालकर मुसल से कूटा जाता है । कहा गया है कि काम उलूखल है और चक्षु मुसल है । इस कूटने से जो तण्डुल प्राप्त होता है, वह गौ, कण अश्व तथा भूसी मशक या मच्छर का रूप है । यहां काम को उलूखल, उरूकरं, उरू करने वाला कहा गया है । यह हो सकता है कि इस उलूखल रूपी काम में जो धान को कूटने की बात कही गई है, वह हमारा वीर्य, उदान प्राण हो जिससे गौ, अश्व तथा मशक रूप प्राप्त होते हैं । लेकिन ऋग्वेद में सोम के गौ, अश्व व हिरण्य आदि रूपों का उल्लेख आता है । अतः काम द्वारा सोम का पवन सम्भव है । और जिस प्रकार का सोम होगा, उसी प्रकार का काम होना चाहिए । ऋग्वेद ९.८.१ में सोमों द्वारा इन्द्र के काम का क्षरण करने की कामना की गई है । ऋग्वेद ३.३०.२० तथा ३.५०.४ में इन्द्र द्वारा गौ, अश्व तथा चन्द्रवत् राधसों से काम का पप्रथन करने का उल्लेख है जिसका अनुवाद गौ, अश्व आदि से काम का पूरण करना किया जाता है । लेकिन यह विचारणीय है कि क्या गौ आदि से काम का प्रथन, विस्तार करना भी संभव है ? ऋग्वेद ८.७८.९ में यव्यु, गव्यु, हिरण्ययु, अश्वयु काम का उल्लेख है । ऋग्वेद ६.४५.२१ व १.१६.९ में इन्द्र द्वारा वाजों, अश्वियों, गायों आदि द्वारा काम का पूरण करने का उल्लेख है । ऋग्वेद १०.२५.२ में कामों के वसुओं से युक्त होकर फैलने का उल्लेख है । ऋग्वेद ३.३०.१९ में इन्द्र से ऊर्व/बडवानल की भांति विस्तीर्ण हुए काम को वसुओं द्वारा पूरित करने की प्रार्थना की गई है । ऋग्वेद ३.४९.१ में सोमपान को आतुर सारी कृष्टियां / इन्द्रियां इन्द्र को प्राप्त करके ही काम की पूर्ति करती हैं । ऋग्वेद ४.१६.१५ में वसु की इच्छा वाले कामों के इन्द्र को जाने का उल्लेख है । ऋग्वेद ४.२३.५ में मर्त्यों द्वारा अपने काम का इन्द्र में विस्तार करने का उल्लेख है । इन ऋचाओं के आधार पर यह अन्वेषणीय है कि पुराणों में शिव रूपी सर्वोच्च इन्द्र द्वारा अपने काम को अग्नि आदि में स्थापित कर देने से क्या तात्पर्य है । काम के अवतार के रूप में कुमार कार्तिकेय की शिव से उत्पत्ति की कथा के कुछ अंश विचारणीय हैं । शुक रूप धारी अग्नि द्वारा शिव - पार्वती की रति में विघ्न करने पर शिव अपने वीर्य को अग्नि के मुख में उडेल देते हैं । यह शुक रूपी अग्नि शुचि अग्नि, आहवनीय अग्नि है जिसमें देवों को प्राप्त होने वाली आहुतियां दी जाती हैं । इस संदर्भ में आश्वलायन श्रौत सूत्र २.२.४, आपस्तम्ब श्रौत सूत्र ६.१.८, शतपथ ब्राह्मण १.६.२.७ व १२.८.३.३० द्रष्टव्य हैं । आहवनीय अग्नि रूपी मुख में दी गई आहुति सब देवताओं को प्राप्त होती है और काम को भी सर्वदेवत्य कहा गया है । प्राणाग्निहोत्र उपनिषद् में मुख को आहवनीय अग्नि का रूप कहा गया है । अग्नि के मुख में शिव का वीर्य आते ही अग्नि का वर्ण हिरण्मय हो गया । आगे अग्नि द्वारा शिव के वीर्य को गङ्गा में डालने, गङ्गा द्वारा शर वन में डालने, शर वन के हिरण्मय होने आदि का वर्णन आता है । इस कथा में तथा ऋग्वेद में काम को यव्यु, गव्यु, अश्वयु, हिरण्ययु कहने में कोई सम्बन्ध है या नहीं, यह अन्वेषणीय है । ऋग्वेद १०.९७.१८ में अरं कामाय शं हृदे का उल्लेख है । इसका उपयोग काम के अवतार प्रद्युम्न की कथा में प्रद्युम्न द्वारा शम्बर/शम्भर असुर को मारने के संदर्भ में किया जा सकता है या नहीं, यह विचारणीय है ।
ऐसा कहा जा सकता है कि काम की पराकाष्ठा इन्द्र का काम बनने में है । ऋग्वेद ७.३२.२ आदि में कहा गया है कि जैसे रथ में पद रखा जाता है, ऐसे ही वसु की इच्छा करने वालों ने काम को इन्द्र में रख दिया । ऐसा अनुमान है कि पुराणों में तप करने पर इन्द्र द्वारा काम के माध्यम से विघ्न उपस्थित करने का मूल यही तथ्य है । तप करने पर एक स्थिति में काम स्वयं पराकाष्ठा को प्राप्त कर लेता होगा ।
काम - पत्नी रति के संदर्भ में, रति का प्रत्यक्ष अर्थ मिलन होता है । लेकिन ऐसा भी हो सकता है कि पुराणों में राति को परोक्ष रूप में रति का रूप दे दिया गया हो । वेदों में राति, रायः तथा रयि नामक तीन शब्दों का प्रयोग धन के अर्थ में किया जाता है और डा. फतहसिंह के अनुसार यह स्थूल आदि तीन स्तरों पर किसी वैदिक धन के सूचक हैं । ऋग्वेद १.१७.३, ६.५.७, ७.२०.९, ७.९७.४, ८.९९.४ में काम के साथ राति, रायः या रयि शब्दों के उल्लेख हैं । निहितार्थ अन्वेषणीय है । यह उल्लेखनीय है कि शम्बर असुर रति का उपयोग केवल माया प्राप्त करने के लिए ही करता है ।
अथर्ववेद ४.३९.२ में अग्नि वत्स द्वारा पृथिवी रूपी धेनु से इष, ऊर्ज व काम का दोहन करने का उल्लेख है । अथर्ववेद १३.१.५ में द्यावापृथिवी रूपी धेनु से रेवती व शक्वरी की सहायता से काम का दोहन करने की कामना की गई है । शतपथ ब्राह्मण ९.३.२.४, ९.२.३.३८ आदि में वसुधारा होम के संदर्भ में सहस्रधारा से सब कामों का दोहन करने का वर्णन है । शतपथ ब्राह्मण ६.५.२.१६ में उखा रूपी धेनु के स्तनों से सर्व कामों के दोहन का कथन है । शतपथ ब्राह्मण ५.३.१.४ में महिषी रत्न रूपी धेनु से सब कामों के दोहन करने का उल्लेख है । यह विचारणीय है कि काम के पूरण या दोहन से अर्थ काम की पराकाष्ठा पर पहुंचना है या कामों का पूरण करना ।
अथर्ववेद ३.२९.७ के मन्त्र क इदं कस्मा अदात् । काम: कामायादात् । कामो दाता काम: प्रतिग्रहीता इत्यादि मन्त्र का वैदिक साहित्य में तथा विवाह आदि अवसरों पर सार्वत्रिक रूप से विनियोग किया जाता है ( आश्वलायन श्रौत सूत्र ५.१३.१५, आपस्तम्ब श्रौत सूत्र १४.११.२ आदि ) । लेकिन यह दाता काम तथा प्रतिग्रहीता काम कौन से हैं , यह अभी स्पष्ट नहीं है । अथर्ववेद ३.२१.४ में इसका उत्तर देने का प्रयास किया गया है । शतपथ ब्राह्मण ९.३.२.७ के अनुसार आत्मा द्वारा ही कामों का प्रतिग्रहण होता है । यज्ञ ही देवों की आत्मा है । आश्वलायन श्रौत सूत्र ५.१३.१५ के अनुसार द्यौ दाता है और पृथिवी प्रतिग्रहीता । आपस्तम्ब श्रौत सूत्र १४.११.२ में प्राणिज व अप्राणिज द्रव्यों के प्रतिग्रहण में इस मन्त्र का विनियोग किया गया है और अप्राणिज द्रव्यों छत्र, शय्या आदि को उत्तान अङ्गिरस हेतु ग्रहण करने का निर्देश दिया गया है । यज्ञ में ऋत्विज दक्षिणाग्नि पर पकाया गया ओदन भक्षण करते समय भी इस मन्त्र का विनियोग करते हैं ।
अथर्ववेद ४.३९.२ में पृथिवी, अन्तरिक्ष, द्यु तथा दिशा रूपी धेनुओं से काम आदि के दोहन का उल्लेख है । अथर्ववेद ६.३७.३ में अग्नि को भूत और भव्य का काम कहा गया है । अथर्ववेद ६.१३९.५ में काम की तुलना अहि को विच्छिन्न करने वाले नकुल से की गई है । अथर्ववेद ९.२ सूक्त का देवता काम है जिसमें काम से शत्रुओं को तथा दु:स्वप्न आदि को नष्ट करने की प्रार्थना की गई है । इसी सूक्त के अन्तिम २५वें मन्त्र में काम के शिव भद्र तनुओं की कामना की गई है जो पुराणों में शिव द्वारा काम को उत्पन्न करने का मूल हो सकता है । दु:स्वप्न से अर्थ है कि हम जिस रूप में जगत को अपने अनुकूल देखना चाहते हैं, वैसा दिखाई न पडना । यही हमारी अशान्ति का कारण है । शम्बरासुर संभवतः काम - पत्नी रति का मायावती के रूप में उपयोग अपने दु:स्वप्नों को पूरा करने के लिए ही करता है । लेकिन वास्तविक शं का भरण तो काम के अवतार कृष्ण - पुत्र प्रद्युम्न द्वारा ही हो सकता है । ऋग्वेद की ऋचा के आधार पर ऐसा लगता है कि द्युम्न पृथिवी के ऊपर फैली हुई कोई ज्योति हो जो इसकी क्षति से रक्षा करती हो ।
अथर्ववेद १३.१.५ में द्यावापृथिवी द्वारा रेवतियों व शक्वरियों की सहायता से काम प्रदान का उल्लेख है । रेवती व शक्वरी संभवतः नाम - रूप से सम्बन्धित हैं, अतः नाम - रूप द्वारा किस काम का दोहन होगा, यह अन्वेषणीय है । अन्यत्र प्रिय के संदर्भ में इन्द्र के काम के क्षरण का उल्लेख है । इससे आगे अस्ति व भाति स्तर के कामों का उल्लेख कहां - कहां है, यह अन्वेषणीय है । अथर्ववेद १९.५३ सूक्त का देवता काम है । १९.५२.४ में हृदय से हृदय में काम के आने का उल्लेख है । पुराणों में ब्रह्मा के हृदय से काम की उत्पत्ति का उल्लेख आता है । यह विचारणीय है कि क्या यह हृदय से उत्पन्न काम अस्ति स्तर का काम हो सकता है ?
काम का एक नाम स्मर भी है । तैत्तिरीय आरण्यक १०.६३.१ में चित्त से स्मृति, स्मृति से स्मर, स्मर से विज्ञान को प्राप्त करने का उल्लेख है । इस उल्लेख से ऐसा लगता है कि स्मृति के पठन का कार्य स्मर या काम का है ।
प्रथम लेखनः- ३०.११.२०००ई.
संदर्भ
*सेमं नः काममा पृण गोभिरश्वैः शतक्रतो। स्तवाम त्वा स्वाध्यः। - ऋग्वेद १.१६.९
*अनुकामं तर्पयेथामिन्द्रावरुण राय आ। ता वां नेदिष्ठमीमहे ॥ - ऋ. १.१७.३
*आ यद्दुवः शतक्रतवा कामं जरितॄणाम्। ऋणोरक्षं न शचीभिः ॥ - ऋ. १.३०.१५
*अतः संगृभ्याभिभूत आ भर मा त्वायतो जरितुः काममूनयीः ॥ - ऋ. १.५३.३
*तुभ्येदेते बहुला अद्रिदुग्धाश्चमूषदश्चमसा इन्द्रपानाः। व्यश्नुहि तर्पया काममेषामथा मनो वसुदेयाय कृष्व ॥ - ऋ. १.५४.९
*भूरि त इन्द्र वीर्यं तव स्मस्यस्य स्तोतुर्मघवन् काममा पृण। - ऋ. १.५७.५
*मादयस्व सुते सचा शवसे शूर राधसे। विद्मा हि त्वा पुरूवसुमुप कामान्त्ससृज्महे ऽथा नोऽविता भव ॥ - ऋ. १.८१.८
*आ गच्छन्तीमवसा चित्रभानवः कामं विप्रस्य तर्पयन्त धामभिः ॥ - ऋ. १.८५.११
*शशमानस्य वा नरः स्वेदस्य सत्यशवसः। विदा कामस्य वेनतः ॥ - ऋ. १.८६.८
*कुविन्नो अग्निरुचथस्य वीरसद् वसुष्कुविद् वसुभिः काममावरत्। - ऋ. १.१४३.६
*जिगृतमस्मे रेवतीः पुरंधीः कामप्रेणेव मनसा चरन्ता ॥ - ऋ. १.१५८.२
*मा नः कामं महयन्तमा धग्विश्वा ते अश्यां पर्याप आयोः ॥ - ऋ. १.१७८.१
*नदस्य मा रुधतः काम आगन्नित आजातो अमुतः कुतश्चित्। - ऋ. १.१७९.४
*कामी हि वीरः सदमस्य पीतिं जुहोत वृष्णे तदिदेष वष्टि ॥ - ऋ. २.१४.१
*तमु स्तुष इन्द्रं तं गृणीषे यस्मिन् पुरा वावृधुः शाशदुश्च। स वस्वः कामं पीपरदियानो ब्रह्मण्यतो नूतनस्यायोः ॥ - ऋ. २.२०.४
*समाववर्ति विष्ठितो जिगीषुर्विश्वेषां कामश्चरताममाभूत्। - ऋ. २.३८.६
*वयं ते अद्य ररिमा हि काममुत्तानहस्ता नमसोपसद्य। - ऋ. ३.१४.५
*ऊर्व इव पप्रथे कामो अस्मे तमा पृण वसुपते वसूनाम् ॥ - ऋ. ३.३०.१९
*इमं कामं मन्दया गोभिरश्वैश्चन्द्रवता राधसा पप्रथश्च। - ऋ. ३.३०.२०
*यज्जायथास्तदहरस्य कामेंऽशोः पीयूषमपिबो गिरिष्ठाम्। - ऋ. ३.४८.२
*शंसा महामिन्द्रं यस्मिन् विश्वा आ कृष्टयः सोमपाः काममव्यन्। - ऋ. ३.४९.१
*ओरुव्यचाः पृणतामेभिरन्नैरास्य हविस्तन्वः काममृध्याः ॥ - ऋ. ३.५०.१
*इमं कामं मन्दया गोभिरश्वैश्चन्द्रवता राधसा पप्रथश्च। - ऋ. ३.५०.४
*महि महे दिवे अर्चा पृथिव्यै कामो म इच्छञ्चरति प्रजानन्। - ऋ.३.५४.२
*वि मे पुरुत्रा पतयन्ति कामाः शम्यच्छा दीद्ये पूर्व्याणि। - ऋ. ३.५५.३
*इन्द्रं कामा वसूयन्तो अग्मन् त्स्वर्मीळ्हे न सवने चकानाः। ऋ. ४.१६.१५
*कथा कदस्य सख्यं सखिभ्यो ये अस्मिन् कामं सुयुजं ततस्रे ॥ - ऋ. ४.२३.५
*उरुष्यतं जरितारं युवं ह श्रितः कामो नासत्या युवद्रिक् ॥ - ऋ. ४.४३.७
*उरुष्यतं जरितारं युवं ह श्रितः कामो नासत्या युवद्रिक् ॥ - ऋ. ४.४४.७
*किं ते ब्रह्माणो गृहते सखायो ये त्वाया निदधुः काममिन्द्र ॥ - ऋ. ५.३२.१२
*कामो राये हवते मा स्वस्त्युप स्तुहि पृषदश्वाँ अयासः ॥ - ऋ. ५.४२.१५
*यतः पूर्वाँ इव सखीँरनु ह्वय गिरा गृणीहि कामिनः ॥ - ऋ. ५.५३.१६
*वि या जानाति जसुरिं वि तृष्यन्तं वि कामिनम्। देवत्रा कृणुते मनः ॥ - ऋ. ५.६१.७
*उत मे वोचतादिति सुतसोमे रथवीतौ। न कामो अप वेति मे ॥ - ऋ. ५.६१.१८
*प्र च्यवानाज्जुजुरुषो वव्रिमत्कं न मुञ्चथः। युवा यदी कृथः पुनरा काममृण्वे वध्वः ॥ - ऋ. ५.७४.५
*अश्याम तं काममग्ने तवोती अश्याम रयिं रयिवः सुवीरम्। - ऋ. ६.५.७
*तव प्र यक्षि संदृशमुत क्रतुं सुदानवः। विश्वे जुषन्त कामिनः ॥ - ऋ. ६.१६.८
*स नो नियुद्भिरा पृण कामं वाजेभिरश्विभिः। गोमद्भिर्गोपते धृषत् ॥ - ऋ. ६.४५.२१
*रायस्कामो जरितारं त आगन् त्वमङ्ग शक्र वस्व आ शको नः ॥ - ऋ. ७.२०.९
*इन्द्रे कामं जरितारो वसूयवो रथे न पादमा दधुः ॥ - ऋ. ७.३२.२
*ररे हव्यं मतिभिर्यज्ञियानां नक्षत् कामं मर्त्यानामसिन्वन्। - ऋ. ७.३९.६
*अस्माकमद्य मरुतः सुते सचा विश्वे पिबत कामिनः ॥ - ऋ. ७.५९.३
*यच्छन्तु चन्द्रा उपमं नो अर्कमा नः कामं पूपुरन्तु स्तवानाः ॥ - ऋ. ७.६२.३
*कामो रायः सुवीर्यस्य तं दात् पर्षन्नो अति सश्चतो अरिष्टान् ॥ - ऋ. ७.९७.४
*गाथश्रवसं सत्पतिं श्रवस्कामं पुरुत्मानम्। कण्वासो गात वाजिनम् ॥ - ऋ. ८.२.३८
*य ऋते चिद् गास्पदेभ्यो दात् सखा नृभ्यः सखीवान्। ये अस्मिन् काममश्रियन् ॥ - ऋ. ८.२.३८
*त इद् वाजेभिर्जिग्युर्महद् धनं ये त्वे कामं न्येरिरे ॥ - ऋ. ८.१९.१८
*सन्ति कामासो हरिवो ददिष्ट्वं स्मो वयं सन्ति नो धियः ॥ - ऋ. ८.२१.६
*आ त्वा गोभिरिव व्रजं गीर्भिर्ऋणोम्यद्रिवः। आ स्मा कामं जरितुरा मनः पृण ॥ - ऋ. ८.२४.६
*तुभ्यं ता अङ्गिरस्तम विश्वाः सुक्षितयः पृथक्। अग्ने कामाय येमिरे ॥ - ऋ. ८.४३.१८
*वयमु त्वा दिवा सुते वयं नक्तं हवामहे। अस्माकं काममा पृण ॥ - ऋ. ८.६४.६
*त्वामिद्यवयुर्मम कामो गव्युर्हिरण्ययुः। त्वामश्वयुरेषते ॥ - ऋ. ८.७८.९
*अर्थिनो यन्ति चेदर्थं गच्छानिद्ददुषो रातिम्। ववृज्युस्तृष्यतः कामम् ॥ - ऋ. ८.७९.५
*त्वे सु पुत्र शवसो ऽवृत्रन् कामकातयः। न त्वामिन्द्राति रिच्यते ॥ - ऋ. ८.९२.१४
*अधा हीन्द्र गिर्वण उप त्वा कामान् महः ससृज्महे। उदेव यन्त उदभिः ॥ - ऋ. ८.९८.७
*एते सोमा अभि प्रियमिन्द्रस्य काममक्षरन्। वर्धन्तो अस्य वीर्यम् ॥ - ऋ. ९.८.१
*स्वर्चक्षा रथिरः सत्यशुष्मः कामो न यो देवयतामसर्जि ॥ - ऋ. ९.९७.४६
*यत्रानुकामं चरणं त्रिनाके त्रिदिवे दिवः। लोका यत्र ज्योतिष्मन्तस्तत्र माममृतं कृधीन्द्रायेन्दो परि स्रव ॥ यत्र कामा निकामाश्च यत्र ब्रध्नस्य विष्टपम्। स्वधा च यत्र तृप्तिश्च तत्र माममृतं कृधीन्द्रायेन्दो परि स्रव। यत्रानन्दाश्च मोदाश्च मुदः प्रमुद आसते। कामस्य यत्राप्ताः कामास्तत्र माममृतं कृधीन्द्रायेन्दो परि स्रव ॥ - ऋ. ९.११३.९
*यमस्य मा यम्यं काम आगन् त्समाने योनौ सहशेय्याय। - ऋ. १०.१०.७
*काममूता बह्वे तद्रपामि तन्वा मे तन्वं सं पिपृग्धि ॥ - ऋ. १०.१०.११
*अधा कामा इमे मम वि वो मदे वि तिष्ठन्ते वसूयवो विवक्षसे ॥ - ऋ. १०.२५.२
*प्रेरय सूरो अर्थं न पारं ये अस्य कामं जनिधा इव ग्मन्। - ऋ. १०.२९.५
*अक्षासो अस्य वि तिरन्ति कामं प्रतिदीव्ने दधत आ कृतानि ॥ - ऋ. १०.३४.६
*आ वामगन् त्सुमतिर्वाजिनीवसू न्यश्विना हृत्सु कामा अयंसत। - ऋ. १०.४०.१२
*यस्मिन् वयं दधिमा शंसमिन्द्र यः शिश्राय मघवा काममस्मे। - ऋ. १०.४२.६
*न घा त्वद्रिगप वेति मे मनस्त्वे इत् कामं पुरुहूत शिश्रय। - ऋ.१०.४३.२
*त्वं विश्वा दधिषे केवलानि यान्याविर्या च गुहा वसूनि। काममिन्मे मघवन् मा वि तारीस्त्वमाज्ञाता त्वमिन्द्रासि दाता ॥ - ऋ. १०.५४.५
*मध्या यत् कर्त्वमभवदभीके कामं कृण्वाने पितरि युवत्याम्। - ऋ. १०.६१.६
*क्रतूयन्ति क्रतवो हृत्सु धीतयो वेनन्ति वेनाः पतयन्त्या दिशः। न मर्डिता विद्यते अन्य एभ्यो देवेषु मे अधि कामा अयंसत ॥ - ऋ. १०.६४.२
*प्रीता इव ज्ञातयः काममेत्याऽस्मे देवासोऽव धूनुता वसु ॥ - ऋ. १०.६६.१४
*अर्वद्भिर्यो हरिभिर्जोषमीयते सो अस्य कामं हरिवन्तमानशे ॥ - ऋ. १०.९६.७
*या ओषधीः सोमराज्ञीर्बह्वीः शतविचक्षणाः। तासां त्वमस्युत्तमारं कामाय शं हृदे ॥ - ऋ. १०.९७.१८
*यशो न पक्वं मधु गोष्वन्तरा भूतांशो अश्विनोः काममप्राः ॥ - ऋ. १०.१०६.११
*प्रयस्वन्तः प्रति हर्यामसि त्वा सत्याः सन्तु यजमानस्य कामाः ॥ - ऋ. १०.११६.८
*ममान्तरिक्षमुरुलोकमस्तु मह्यं वातः पवतां कामे अस्मिन् ॥ - ऋ. १०.१२८.२
*कामस्तदग्रे समवर्तताधि मनसो रेतः प्रथमं यदासीत्। - ऋ.१०.१२९.४
*अस्मै कामायोप कामिनीर्विश्वे वो देवा उपसंयन्तु ॥ - अथर्ववेद ३.८.४
*इन्द्रपुत्रे सोमपुत्रे दुहितासि प्रजापतेः। कामानस्माकं पूरय प्रति गृह्णाहि नो हविः ॥(दे. एकाष्टका) - अ. ३.१०.१३
*यो देवो विश्वाद् यमु काममाहुर्यं दातारं प्रतिगृह्णन्तमाहुः। यो धीरः शक्रः परिभूरदाभ्यस्तेभ्यो अग्निभ्यो हुतमस्त्वेतत् ॥ - अ. ३.२१.४
*उत्तुदस्त्वोत् तुदतु मा धृथाः शयने स्वे। इषुः कामस्य या भीमा तया विध्यामि त्वा हृदि ॥ आधीपर्णां कामशल्यामिषुं संकल्पकुल्मलाम्। तां सुसंनतां कृत्वा कामो विध्यतु त्वा हृदि ॥ या प्लीहानं शोषयति कामस्येषुः सुसंनता। प्राचीनपक्षा व्योषा तया विध्यामि त्वा हृदि।। - अ. ३.२५.२
*येस्यां स्थ दक्षिणायां दिश्यविष्यवो नाम देवास्तेषां वः काम इषवः। - अ. ३.२६.२
*सर्वान् कामान् पूरयत्याभवन् प्रभवन् भवन्। आकूतिप्रोऽविर्दत्तः शितिपान्नोप दस्यति ॥ - अ. ३.२९.२
*पृथिवी धेनुस्तस्या अग्निर्वत्सः। सा मेऽग्निना वत्सेनेषमूर्जं कामं दुहाम् ॥ - - - अन्तरिक्षं धेनुस्तस्या वायुर्वत्सः। सा मे वायुना वत्सेनेषमूर्जं कामं दुहाम् ॥ - - -द्यौर्धेनुस्तस्या आदित्यो वत्सः। सा म आदित्येन वत्सेनेषमूर्जं कामं दुहाम्। - - - - दिशो धेनवस्तासां चन्द्रो वत्सः। ता मे चन्द्रेण वत्सेनेषमूर्जं कामं दुहाम्। - अ. ४.३९.२
*ममान्तरिक्षमुरुलोकमस्तु मह्यं वातः पवतां कामायास्मै। - अ. ५.३.३
*न कामेन पुनर्मघो भवामि सं चक्षे कं पृश्निमेतामुपाजे। - अ. ५.११.२
*वाञ्छ मे तन्वं पादौ वाञ्छाक्ष्यौ वाञ्छ सक्थ्यौ। अक्ष्यौ वृषण्यन्त्याः केशा मां ते कामेन शुष्यन्तु ॥ - अ.६.९.१
*अग्निः परेषु धामसु कामो भूतस्य भव्यस्य। सम्राडेको वि राजति ॥ - अ. ६.३६.३
*शुष्यतु मयि ते हृदयमथो शुष्यत्वास्यम्। अथो नि शुष्य मां कामेनाथो शुष्कास्या चर ॥ - अ. ६.१३९.२
*यथोदकमपपुषोऽपशुष्यत्यास्यम्। एवा नि शुष्य मां कामेनाथो शुष्कास्या चर ॥ यथा नकुलो विच्छिद्य संदधात्यहिं पुनः। एवा कामस्य विच्छिन्नं सं धेहि वीर्यावति ॥ - अ. ६.१३९.४
*यामापीनामुपसीदन्त्यापः शाक्वरा वृषभा ये स्वराजः। ते वर्षन्ति ते वर्षयन्ति तद्विदे काममूर्जमापः ॥ - अ. ९.१.९
*सपत्नहनमृषभं घृतेन कामं शिक्षामि हविषाज्येन। नीचैः सपत्नान् मम पादय त्वमभिष्टुतो महता वीर्येण। यन्मे मनसो न प्रियं न चक्षुषो यन्मे बभस्ति नाभिनन्दति। तद् दुष्वप्न्यं प्रति मुञ्चामि सपत्ने कामं स्तुत्वोदहं भिदेयम् ॥ दुष्वप्न्यं काम दुरितं च कामाप्रजस्तामस्वगतामवर्तिम्। उग्र ईशानः प्रति मुञ्च तस्मिन् यो अस्मभ्यमंहूरणा चिकित्सात् ॥ नुदस्व काम प्र णुदस्व कामावर्तिं यन्तु मम ये सपत्नाः। तेषां नुत्तानामधमा तमांस्यग्ने वास्तूनि निर्दह त्वम् ॥ सा ते काम दुहिता धेनुरुच्यते यामाहुर्वाचं कवयो विराजम्। तया सपत्नान् परि वृङ्ग्धि ये मम पर्येनान् प्राणः पशवो जीवनं वृणक्तु ॥ कामस्येन्द्रस्य वरुणस्य राज्ञो विष्णोर्बलेन सवितुः सवेन। अग्नेर्होत्रेण प्र णुदे सपत्नांछम्बीव नावमुदकेषु धीरः ॥ अध्यक्षो वाजी मम काम उग्रः कृणोतु मह्यमसपत्नमेव। विश्वे देवा मम नाथं भवन्तु सर्वे देवा हवमा यन्तु म इमम् ॥ इदमाज्यं घृतवज्जुषाणाः कामज्येष्ठा इह मादयध्वम्। कृण्वन्तो मह्यमसपत्नमेव ॥ - - - - - जहि त्वं काम मम ये सपत्ना अन्धा तमांस्यव पादयैनान्। निरिन्द्रिया अरसाः सन्तु सर्वे मा ते जीविषुः कतमच्चनाहः ॥ अवधीत् कामो मम ये सपत्ना उरुं लोकमकरन्मह्यमेधतुम्। मह्यं नमन्तां प्रदिशश्चतस्रो मह्यं षडुर्वीर्घृतमा वहन्तु ॥ - अ. ९.२.१- ११
*यत् ते काम शर्म त्रिवरूथमुद्भु ब्रह्म वर्म विततमनतिव्याध्यं कृतम्। तेन सपत्नान् परि वृङ्ग्धि ये मम पर्येनान् प्राणः पशवो जीवनं वृणक्तु ॥ येन देवा असुरान् प्राणुदन्त येनेन्द्रो दस्यूनधमं तमो निनाय। तेन त्वं काम मम ये सपत्नास्तानस्माल्लोकात् प्र णुदस्व दूरम् ॥ यथा देवा असुरान् प्राणुदन्त यथेन्द्रो दस्यूनधमं तमो बबाधे। तथा त्वं काम मम ये सपत्नास्तानस्माल्लोकात् प्र णुदस्व दूरम् ॥ कामो जज्ञे प्रथमो नैनं देवा आपुः पितरो न मर्त्याः। ततस्त्वमसि ज्यायान् विश्वहा महांस्तस्मै ते काम नम इत् कृणोमि ॥ यावती द्यावापृथिवी वरिम्णा यावदापः सिष्यदुर्यावदग्निः। ततस्त्वमसि ज्यायान् विश्वहा महांस्तस्मै ते काम नम इत् कृणोमि ॥ यावतीर्दिशः प्रदिशो विषूचीर्यावतीराशा अभिचक्षणा दिवः। ततस्त्वमसि ज्यायान् विश्वहा महांस्तस्मै ते काम नम इत् कृणोमि ॥ यावतीर्भृङ्गा जत्वः कुरूरवो यावतीर्वघा वृक्षसर्प्यो बभूवुः। ततस्त्वमसि ज्यायान् विश्वहा महांस्तस्मै ते काम नम इत् कृणोमि ॥ ज्यायान् निमिषतोऽसि तिष्ठतो ज्यायान्त्समुद्रादसि काम मन्यो। ततस्त्वमसि ज्यायान् विश्वहा महांस्तस्मै ते काम नम इत् कृणोमि ॥ न वै वातश्चन काममाप्नोति नाग्निः सूर्यो नोत चन्द्रमाः। ततस्त्वमसि ज्यायान् विश्वहा महांस्तस्मै ते काम नम इत् कृणोमि ॥ यास्ते शिवास्तन्वः काम भद्रा याभिः सत्यं भवति यद् वृणीषे। ताभिष्ट्वमस्माँ अभिसंविशस्वान्यत्र पापीरप वेशया धियः ॥ - अ. ९.२.१६ - २५
*यः शतौदनां पचति कामप्रेण स कल्पते। प्रीता ह्यस्यर्त्विजः सर्वे यन्ति यथायथम् ॥ - अ. १०.९.४
*(तस्यौदनस्य) चक्षुर्मुसलं काम उलूखलम्। दितिः शूर्पमदितिः शूर्पग्राही वातोऽपाविनक्। - अ. ११.३.३
*अग्न्याधेयमथो दीक्षा कामप्रश्छन्दसा सह। उत्सन्ना यज्ञाः सत्त्राण्युच्छिष्टेऽधि समाहिताः ॥ - अ. ११.७.८
*सूनृता संनतिः क्षेमः स्वधोर्जामृतं सहः। उच्छिष्टे सर्वे प्रत्यञ्चः कामाः कामेन तातृपुः ॥ - अ. ११.७.१३
*सर्वान्त्समागा अभिजित्य लोकान् यावन्तः कामाः समतीतृपस्तान्। वि गाहेथामायवनं च दर्विरेकस्मिन् पात्रे अध्युद्धरैनम् ॥ - अ. १२.३.३६
*दरदभ्नैनमा शये याचितां च न दित्सति। नास्मै कामाः समृध्यन्ते यामदत्त्वा चिकीर्षति ॥ - अ. १२.४.१९
*अग्नीषोमाभ्यां कामाय मित्राय वरुणाय च। तेभ्यो याचन्ति ब्राह्मणास्तेष्वा वृश्चतेऽददत् ॥ - अ. १२.४.२६
*पुरोडाशवत्सा सुदुघा लोकेऽस्मा उप तिष्ठति। सास्मै सर्वान् कामान् वशा प्रददुषे दुहे ॥ सर्वान् कामान् यमराज्ये वशा प्रददुषे दुहे। अथाहुर्नारकं लोकं निरुन्धानस्य याचिताम् ॥ - अ. १२.४.३५
*आ ते राष्ट्रमिह रोहितोऽहार्षीद् व्यास्थन्मृधो अभयं ते अभूत्। तस्मै ते द्यावापृथिवी रेवतीभिः कामं दुहाथामिह शक्वरीभिः ॥ - अ. १३.१.५
*आ वामगन्त्सुमतिर्वाजिनीवसू न्यश्विना हृत्सु कामा अरंसत। - अ. १४.२.५
*यमस्य मा यम्यं काम आगन्त्समाने योनौ सहशेय्याय। जायेव पत्ये तन्वं रिरिच्यां वि चिद् वृहेव रथ्येव चक्रा। - अ. १८.१.८
*किं भ्रातासद् यदनाथं भवाति किमु स्वसा यन्निर्ऋतिर्निगच्छात्। काममूता बह्वे तद् रपामि तन्वा मे तन्वं सं पिपृग्धि ॥ - अ. १८.१.१२
*प्रतीमां लोका घृतपृष्ठाः स्वर्गाः कामंकामं यजमानाय दुह्राम् ॥ - अ. १८.४.५
*बृहस्पतिर्म आकूतिमाङ्गिरसः प्रति जानातु वाचमेताम्। यस्य देवा देवताः संबभूवुः स सुप्रणीताः कामो अन्वेत्वस्मान् ॥ - अ. १९.४.४
*अंहोमुचे प्र भरे मनीषामा सुत्राव्णे सुमतिमावृणानः। इदमिन्द्र प्रति हव्यं गृभाय सत्याः सन्तु यजमानस्य कामाः ॥ - अ. १९.४२.३
*कामस्तदग्रे समवर्तत मनसो रेतः प्रथमं यदासीत्। स काम कामेन बृहता सयोनी रायस्पोषं यजमानाय धेहि। त्वं काम सहसासि प्रतिष्ठितो विभुर्विभावा सख आ सखीयते। त्वमुग्रः पृतनासु सासहिः सह ओजो यजमानाय धेहि। दूराच्चकमानाय प्रतिपाणायाक्षये। आस्मा अशृण्वन्नाशाः कामेनाजनयन्त्स्वः ॥ कामेन मा काम आगन् हृदयात्हृदयं परि। यदमीषामदो मनस्तदैतूप मामिह ॥ यत् काम कामयमाना इदं कृण्मसि ते हविः। तन्नः सर्वं समृध्यतामथैतस्य हविषो वीहि स्वाहा ॥ - अ. १९.५२.१-५
*भूरि त इन्द्र वीर्यं तव स्मस्यस्य स्तोतुर्मघवन् काममा पृण। अनु ते द्यौर्बृहती वीर्यं मम इयं च ते पृथिवी नेम ओजसे ॥ - अ. २०.१५.५
*न घा त्वद्रिगप वेति मे मनस्त्वे इत् कामं पुरुहूत शिश्रय। राजेव दस्म नि षदोऽधि बर्हिष्यस्मिन्त्सु सोमेवपानमस्तु ते ॥ - अ. २०.१७.२
*अतः संगृभ्याभिभूत आ भर मा त्वायतो जरितुः काममूनयीः ॥ - अ. २०.२१.३
*अरं कामाय हरयो दधन्विरे स्थिराय हिन्वन् हरयो हरी तुरा। अर्वद्भिर्यो हरिभिर्जोषमीयते सो अस्य कामं हरिवन्तमानशे ॥ - अ. २०.३१.२
*मादयस्व सुते सचा शवसे शूर राधसे। विद्मा हि त्वा पुरूवसुमुप कामान्त्ससृज्महेऽथा नोऽविता भव ॥ - अ. २०.५६.५
*अनर्शरातिं वसुदामुप स्तुहि भद्रा इन्द्रस्य रातयः। सो अस्य कामं विधतो न रोषति मनो दानाय चोदयन् ॥ - अ. २०.५८.२
*प्रेरय सूरो अर्थं न पारं ये अस्य कामं जनिधा इव ग्मन्। गिरश्च ये ते तुविजात पूर्वीर्नर इन्द्र प्रतिशिक्षन्त्यन्नैः ॥ - अ. २०.७६.५
*यस्मिन् वयं दधिमा शंसमिन्द्रे यः शिश्राय मघवा काममस्मे। - अ. २०.८९.६
*अधा हीन्द्र गिर्वण उप त्वा कामान् महः ससृज्महे। उदेव यन्त उदभिः ॥ - अ. २०.१००.१
*आ यद्दुवः शतक्रतवा कामं जरितॄणाम्। ऋणोरक्षं न शचीभिः ॥ - अ. २०.१२२.३
*उरुष्यतं जरितारं युवं ह श्रितः कामो नासत्या युवद्रिक् ॥ - अ. २०.१४३.७