CAUSE AND EFFECT IN MODERN AND ANCIENT SCIENCES
Vipin Kumar, National Physical Laboratory, New Delhi - 110012
&
Radha Gupta, J-178, HIG Colony, Indore - 452011
ABSTRACT
Modern science explains cause and effect relationship on two facts :, one, that the entropy of this world is increasing with time, and two, that a phenomenon taking place at a level of lower entropy can affect a phenomenon taking place at higher entropy. Thus, effect can not affect cause according to modern science. These facts have been made the basis to explain facts occurring at the level of consciousness and moreover, it has been explained how effect can affect cause at the level of consciousness.
आधुनिक और प्राचीन विज्ञानों में कारण - कार्य सम्बन्ध
विपिन कुमार
राष्ट्रीय भौतिक प्रयोगशाला, नई दिल्ली - ११००१२
व
राधा गुप्ता,
जे - १७८, एच आई जी कालोनी, इन्दौर - ४५२०११
सारांश
कारण व कार्य के सम्बन्ध की व्याख्या आधुनिक विज्ञान में इन २ तथ्यों के आधार पर की जाती है कि एक तो इस जगत की एण्ट्रांपी में समय के साथ वृद्धि हो रही है और दूसरे, कम एण्ट्रांपी पर घट रही घटना अधिक एण्ट्रांपी के स्तर पर घटित घटना को प्रभावित कर सकती है । इस प्रकार आधुनिक विज्ञान में कार्य कारण को प्रभावित नहीं कर सकता । आधुनिक विज्ञान के इन तथ्यों का उपयोग चेतना के स्तर पर घटित हो रही घटनाओं की व्याख्या के लिए किया गया है और यह भी स्पष्ट किया गया है कि जड जगत के विपरीत चेतन जगत में कार्य कारण को कैसे प्रभावित कर सकता है ।
इन्टरनेट से प्राप्त सूचनाओं के अनुसार आधुनिक विज्ञान में कारण और कार्य में निम्नलिखित सम्बन्ध है : १, कारण और कार्य में समय का अन्तराल है, २, कारण और कार्य में स्थान या दिक् या स्पेस का अन्तराल है । कारण और कार्य में समय का अन्तराल कहने का तात्पर्य यह है कि कारण पहले घटित होता है, कार्य बाद में । ऐसा नहीं हो सकता कि पहले कार्य हो और उसके पश्चात् कारण । दूसरे शब्दों में, क्या ऐसा हो सकता है कि भविष्य की घटनाएं अतीत की घटनाओं पर प्रभाव डालें ? इस संदर्भ में कहा गया है कि ऐसा होना संभव नहीं है । इसका आधारभूत कारण यह दिया गया है कि भौतिक विज्ञान में अनुभव के आधार पर यह मान लिया गया है कि इस विश्व की एन्ट्रांपी बढ रही है । इसे तापगतिकी का दूसरा सिद्धान्त कहा जाता है । एन्ट्रांपी बढने को ऐसे समझा जा सकता है कि इस विश्व की ऊर्जा काल के साथ अव्यवस्था की ओर बढ रही है । एण्ट्रांपी बढने के उदाहरण के रूप में, जब तक वाष्प इंजन के बांयलर में बंद है, उसके अणु सीमित स्थान में गति करने के लिए बाध्य हैं, असीमित आयतन में गति नहीं कर सकते, उससे कोई भी उपयोगी कार्य लिया जा सकता है । जब उसे वायुमण्डल में मुक्त छोड दिया जाता है तो वह कार्य करने के अनुपयोगी हो जाती है, उसकी अव्यवस्था में वृद्धि हो जाती है, वाष्प के अणु अव्यवस्थित होकर विचरण करने लगते हैं । एण्ट्रांपी के आधार पर कारण और कार्य के बारे में ऐसा कहा जा सकता है कि केवल कम एण्ट्रांपी की घटना ही अधिक एण्ट्रांपी की घटना का कारण बन सकती है । प्रायः यह प्रश्न किया जाता है कि यदि कारण कार्य को प्रभावित करता है तो क्या कार्य कारण को प्रभावित नहीं कर सकता ? व्यावहारिक रूप में यह एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न है कि क्या व्यक्ति अपने अतीत को प्रभावित कर सकता है? इसका उत्तर यही हो सकता है कि यदि कार्य की एण्ट्रांपी किसी प्रकार से कम की जा सके तो वह कारण को प्रभावित कर सकता है । किसी ऐसे काल की कल्पना की जाए जहां एण्ट्रांपी में वृद्धि न होती हो तो न कारण होगा न कार्य ।
भारतीय दर्शनों में लगता है कि कारण और कार्य के सम्बन्ध में विभिन्न दृष्टिकोण प्रस्तुत किए गए हैं । एक सार्वत्रिक मत के अनुसार जो कर्म किया गया है, उसका फल तो भोगना ही पडेगा । दूसरे मत के अनुसार, जिसका योगवासिष्ठ दृढतापूर्वक प्रतिपादन करता है, कारण और कार्य बीज और बीज के अंकुरण जैसे हैं । यदि बीज को किसी प्रकार से अग्नि में भून दिया जाए तो वह अंकुरित नहीं होता । इसी प्रकार यदि कर्मों से बने बीजों को किसी प्रकार से ज्ञान आदि की अग्नि में भूना जा सके तो उनसे फल नहीं बन सकेगा । पौराणिक कथाएं इस तथ्य को आलंकारिक ढंग से प्रस्तुत करती हैं । दुर्गा सप्तशती आदि में रक्तबीज की कल्पना की गई है जिसे समाप्त करना एक कठिन कार्य है ।
कारण - कार्य का एक अन्य पक्ष योगवासिष्ठ ५.३३.२ तथा ५.३८.१९ में प्रस्तुत किया गया है । यहां प्रह्लाद को पश्चिम काया वाला कहा गया है । पश्चिम काया से तात्पर्य यह है कि पश्चिम दिशा में सूर्य अस्त होता है । इसी प्रकार हमें अपने व्यक्तित्व में वह स्थिति प्राप्त करनी है जहां कर्म बीजों का उदय न हो, अस्त ही हो ।
एक अनुमान यह है कि चेतन - अर्धचेतन जगत में मनुष्य ही सबसे अधिक कारण - कार्य से बंधा हुआ होता है और कर्म बीज का सिद्धान्त भी उसी पर लागू होता है । इसका कारण यह है कि वनस्पति जगत से लेकर मनुष्य जगत की उत्पत्ति से पूर्व तक जितना वनस्पति और प्राणी जगत विद्यमान है, उसमें मैं का भान नहीं है, अर्थात् उन योनियों में चेतन/आत्मा को अपने चेतन/आत्मा होने का कोई भान नहीं है । इस जगत में प्रकृति ही विकास कार्य को सम्पन्न करने वाली है, अतः प्रकृति ही कर्त्ता रहती है । इस वनस्पति या प्राणी जगत में मृत्यु के पश्चात् व्यष्टि चेतन समष्टि चेतन में विलीन हो जाता है, अतः वहां न कर्त्ता है, न कर्म है और न कर्म संस्कार हैं । लेकिन जब चेतना मनुष्य योनि में प्रवेश करती है तो मनुष्य योनिगत चेतन/आत्मा पशु योनिगत चेतन की तरह समष्टि चेतन के आधीन नहीं रहता । मनुष्य योनिगत चेतन अब जीवात्मा का नाम धारण कर लेता है, मनुष्य में मैं का भाव उत्पन्न हो जाता है और यह मैं का भाव अज्ञान से आवृत रहता है, अर्थात् मनुष्य प्रकृति द्वारा सम्पन्न किए जाने वाले कार्यों को स्वयं द्वारा सम्पन्न किया हुआ मान लेता है और कर्त्ता भाव से युक्त हो जाता है । कर्त्ता भाव से युक्त हुआ मनुष्य जो भी कर्म करता है, उन कर्मों के कर्मफलों और कर्म बीजों को भी संग्रह करने वाला हो जाता है । तत्पश्चात् कर्मबीजों के अनुसार अगला जन्म प्राप्त करता है । यह कर्त्ता, कर्म, कर्मफल और कर्मबीज की कभी न टूटने वाली एक शृङ्खला बन जाती है । यहीं से कार्य - कारण आरम्भ होता है, अथवा यों कहें कि जगत के विकास के क्रम में मनुष्य योनि में प्रकृति कारण - कार्य सम्बन्ध को उत्पन्न करने वाली हो जाती है ।
जगत विकास क्रम में मनुष्य योनि में ही एक उच्चतम विकसित अवस्था भी है जिसमें पहुंचा हुआ मनुष्य महामानव या महापुरुष कहलाता है । इस अवस्था में मनुष्य ज्ञानयुक्त हो जाता है, अतः देह में आत्मभाव नष्ट हो जाता है और वह आत्मस्वरूप मैं चेतनात्मा हूं में स्थित हो जाता है । अर्थात् व्यक्ति इस भाव में दृढ रूप से स्थित हो जाता है कि सम्पूर्ण कर्म प्रकृति द्वारा सम्पन्न हो रहे हैं, मैं तो चेतन द्रष्टा मात्र हूं । यह वह ज्ञानाग्नि है जिसके प्रज्वलित होने पर पूर्व अर्जित समस्त कर्मबीज जलकर भस्म हो जाते हैं और मनुष्य में कर्त्ता भाव समाप्त होने से नए कर्मबीजों का निर्माण भी सम्भव नहीं होता । इस अवस्था में प्रकृति में क्रियाशील कार्य - कारण सम्बन्ध का अभाव हो जाता है, अर्थात् मनुष्य योनि के प्रारम्भ होने पर जिस कार्य - कारण सम्बन्ध का आविर्भाव हुआ था, उसका सातत्य अब टूट जाता है । व्यष्टि - चेतन परमात्म - चेतन में एकाकार हो जाता है ।
यहां यह तथ्य दृष्टव्य है कि जगत विकास क्रम में प्राप्त हुए वनस्पति जगत से लेकर प्राणि जगत तक समस्त व्यष्टि चेतन समष्टि - चेतन में विलीन होता है तथा जगत विकास की उच्चतम विकसित अवस्था में भी व्यष्टि चेतन परमात्म चेतन में विलीन होता है, परन्तु दोनों की विलीनता में भिन्नता है । वनस्पति तथा प्राणि जगत का व्यष्टि चेतन पराधीन, मूर्च्छित, सुषुप्त चेतन है । वह समष्टि चेतन में विलीन होता है, परमात्म चेतन में नहीं, जबकि विकसित अवस्था का व्यष्टि चेतन पूर्णतः मुक्त, बोधयुक्त जाग्रत चेतन है और इस जाग्रत चेतन की व्यष्टि सत्ता का ही सर्वथा लोप होकर वह परमात्म सत्ता में एकाकारता को प्राप्त हो जाता है । परमात्म सत्ता को न्यूनतम एण्ट्रांपी की स्थिति कहा जा सकता है ।
प्रथम लेखनः- २३.१०.२००३, २२.१२.२००४ई.
संदर्भ
*दैवतसौविष्टकृतैडचातुर्धाकारणिकानामुत्तरमुत्तरं ज्यायः। - आप.श्रौ.सू. २.२१.४