कुरु
टिप्पणी : पुराणों में कुरु को तपती व संवरण का पुत्र कहा गया है। संवरण का अर्थ हो सकता है – अपनी इन्द्रियों को अन्तर्मुखी करना। और कुरु का अर्थ हो सकता है, इन्द्रियों की बहिर्मुखी स्थिति, कर्म करने को तत्पर। कुरु के महत्त्व को इस प्रकार आंका जा सकता है कि आधुनिक भौतिक विज्ञान के अनुसार किसी तन्त्र की स्थैतिक ऊर्जा और गतिज ऊर्जा का योग स्थिर रहता है। यदि गतिज ऊर्जा में वृद्धि होती है तो स्थैतिक ऊर्जा में ह्रास हो जाएगा। यदि स्थैतिक ऊर्जा में वृद्धि होती है तो गतिज ऊर्जा में ह्रास हो जाएगा। ऐसा प्रतीत होता है कि वैदिक साहित्य में एक और ऊर्जा है – प्रेम या भाव की ऊर्जा जिसका लेखा आधुनिक भौतिक विज्ञान में नहीं आ सकता। प्रेम का स्थान हृदय में कहा गया है और हृदय को आवृत करने वाली पर्शुकाएं/पसलियां इस स्थान की रक्षा करने वाली हैं। क्षत्रबल का नाश करने वाला परशुराम का परशु इन्हीं पर्शुकाओं से बनता है, ऐसा कहा जा सकता है। यदि प्रेम की और ज्ञान की ऊर्जा क्रिया या गतिज ऊर्जा में बदलेगी तो प्रेम और ज्ञान की ऊर्जाओं में ह्रास होगा। अतः यह अपेक्षित है कि बाहुओं को मिलने वाली क्षत्र ऊर्जा को न्यूनतम किया जाए। पुराणों में इस ऊर्जा को सुरक्षित रखने के रूप में क्षत्रियों के रक्त से पूरित पांच सरोवरों की कल्पना की गई है। इनका निर्माण परशुराम ने क्षत्रियों के रक्त से किया है। कुरु द्वारा इस क्रियात्मक ऊर्जा का उपयोग क्षेत्र के कर्षण के लिए कैसे किया गया है, यह अन्वेषणीय है। हो सकता है कि क्षेत्र से तात्पर्य क्षत्र से हो।
क्रिया शक्ति की पराकाष्ठा क्या है, इस संदर्भ में कहा जा सकता है कि आधुनिक विज्ञान के अनुसार किसी भी क्रिया को करने में अव्यवस्था में वृद्धि होती है जिसे एण्ट्रोपी में वृद्धि कहा जाता है। वैदिक साहित्य में क्रिया शक्ति की पराकाष्ठा यजु है जहां किसी कामना की पूर्ति कल्पवृक्ष बनकर की जाती है। कल्पवृक्ष की स्थिति में कोई कार्य करने की आवश्यकता नहीं पडती। इधर कामना हुई कि कार्य पूरा हो गया। केवल कथासरित्सागर में ही कुरुक्षेत्र में इन्दुप्रभ द्वारा प्रजा हेतु कल्पवृक्ष बनने का उल्लेख है।
जैसी स्थिति धर्म शब्द की व्याख्या में धर्मारण्य और धर्मक्षेत्र की कही गई है, वही स्थिति कुरुजाङ्गल और कुरुक्षेत्र की प्रतीत होती है। नारद पुराण 2.64.9 से प्रतीत होता है कि सरस्वती और दृषद्वती नदियों के बीच के प्रदेश को ब्रह्मावर्त कहते हैं। उस देश में सरस्वती तट पर वास करने से ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति होती है। जिस प्रदेश में ब्रह्म का अपने अन्दर दर्शन हो, उस प्रदेश को ही कुरुजाङ्गल कहते हैं। नारद पुराण 2.64.19 में उल्लेख है कि जब सरस्वती पश्चिम की ओर प्रस्थित हुई, तब कुरु ने उस क्षेत्र का जहां तक कर्षण किया, वह पांच योजन का क्षेत्र स्यमन्तपञ्चक तथा कुरुक्षेत्र कहलाता है। इस पांच योजन विस्तृत क्षेत्र का उद्भव दया, सत्य व क्षमा से हुआ है। वायु पुराण 33.44, विष्णु पुराण 2.1.22 आदि में आग्नीध्र के 9 पुत्रों में से एक कुरु को शृङ्गवान् के उत्तर का आधिपत्य प्राप्त होने का उल्लेख है। शृङ्गवान् स्थिति ब्रह्मज्ञान की स्थिति हो सकती है जिसकी उत्तर स्थित यह है कि इस ब्रह्मज्ञान को व्यावहारिक जीवन में उतारा जाए, व्यावहारिक जीवन में परिवर्तन किया जाए।
प्रथम लेखन : 20-5-2012ई.(ज्येष्ठ अमावास्या, विक्रम संवत् 2069)