टिप्पणी : ब्रह्मवैवर्त्त पुराण में सुयज्ञ राजा और सुतपा विप्र का आख्यान कृतयुग शब्द की टिप्पणी के वर्णन को पुष्ट करता है । पुराणों के अनुसार कृतयुग में धर्म के चार पादों की स्थिति रहती है और त्रेतायुग आने पर इन चार पादों में से तप का लोप हो जाता है और यज्ञ अथवा क्रिया की प्रधानता हो जाती है । सुयज्ञ और सुतपा का यह आख्यान इस दृष्टिकोण से बहुत सार्थक है । लेकिन इस आख्यान में सामवेद के आधार पर कृतघ्न के जिन १६ भेदों और उनके उपभेदों का वर्णन किया गया है, उनका मूल वैदिक साहित्य में अन्वेषणीय है । यह कहा जा सकता है कि कृत को प्राप्त करने में जो भी स्थितियां बाधक बनती हैं, वह सब कृतघ्न से सम्बन्धित हैं ।
प्रथम लेखनः- २६.१.२००२)