CHHANDA
It is a well known fact in modern sciences that whatever work is done, it leads to increase in entropy, the degree of disorder. In vedic and puraanic literature, this increase in entropy has been given the name of ‘sin’. It has been stated in sacred texts that if one adheres to Chhandas, the verses, then one can avoid this increase in entropy. There are different statements regarding definition of chhanda. At one place, the juice has been called chhanda. At another place, praana, In puraanic literature, when different types of milks are milked from a divine cow, then chhandas become the vessels. The description of a sacrificial place can be helpful in understanding chhandas. As has been shown in the picture, there are mainly three types of fires. The most sacred fire is situated in the east and it’s chhanda is Gaayatri. The middle fire’s chhanda is Trishtup and that of 3rd fire, the homely one, is Jagati. The nature of middle fire provides a chance to connect these with the laws of thermodynamics. Dr. Lakshmi Narayan Dhoot has explained in his paper that the middle fire is connected with chance, the play of dice, one’s luck. Einsteen says that God does not play dice. The law of physics says that no system is perfect enough to convert one type of energy into another with 100% efficiency. Some part of it is lost in noise, heat etc. If there can be any system which can have 100% efficiency, it will go against the second law of thermodynamics. This statement makes it possible to understand Trishtup and Jagati chhandas. Trishtup is connected with efficiency. Then the lowest efficiency of Trishtup is that every event in this world is a chance, the play of dice.
The part of energy which is lost in heat, noise etc. while performing work, leads to increase in entropy, increase in degree of disorder. Jagati chhanda deals with this part. This chhanda is connected with lord Yama who delivers from all types of sins.
The most important key to understand chhanda is provided by one text Shatapatha Braahmana 8.2.4.16 where the gradual approach to chhanda is mentioned. The first stage is animal. The vedic trait of an animal is that it can have only a limited view of the world. It's senses are not wide. The second stage is a bird. A bird can fly in the sky. Bird's view of the world is more wide. Then comes the stage of chhanda. This stage belongs to gods.
Can chhanda be compared to formation of bands in modern theory of solids? When atoms come together, the charge sphere around them interacts with each other and creates attractive and repulsive forces. This leads to formation of bands and band gaps. The property of a band is that it allows free motion of charge in it. The motion of charge is forbidden in band gap. As will be discussed in connection with Stoma, the formation of chhanda in the realm of consciousness can not be compared with formation of bands and band gaps because the particles forming bands and band gaps obey different types of statistical rules called Fermi - Dirac statistics. On the other hand, it seems that formation of chhanda is limited to Bose - Einsteen statistics only.
Paper presented at World Congress on Vedic Sciences, Bangalore, 9-13 August, 2004
Revised : 27-12-2008 AD( Pausha amaavaasyaa , Vikrama samvat 2065)
छन्द
छन्दों का सामान्य परिचय और उनका भौतिक विज्ञान से सम्बन्ध :
अब छन्दों पर आते हैं । कहा गया है कि छन्द छादन करके पाप कर्मों से बचाते हैं, इसलिए इन्हें छन्द कहा जाता है । इस तथ्य की विज्ञान के आधार पर भी व्याख्या कर सकते हैं । जो भी कर्म हो रहा है, उससे अव्यवस्था में वृद्धि हो रही है, एण्ट्रांपी में वृद्धि हो रही है । इसे ही पाप कह सकते हैं । कहा गया है कि यदि छन्दों का आश्रय लिया जाए तो अव्यवस्था की इस वृद्धि से, पाप से बचा जा सकता है । शतपथ ब्राह्मण ७.३.१.३७ आदि में रस को छन्द कहा गया है ( इसके विपरीत, कौशीतकि ब्राह्मण ७.९.११ व ८.१७.२ में प्राण को छन्द कहा गया है । पुराणों में विराज गौ से विभिन्न प्रकार के दुग्धों के दोहन के संदर्भ में छन्दों को पात्र कहा गया है ) । यदि छन्द रस हैं तो एक रस में से दूसरे रस का सम्भरण करना एण्ट्रांपी को कम करना कहा जा सकता है ।
छन्दों को समझने के लिए विभिन्न वैदिक व पौराणिक संदर्भ यह प्रतीक्षा कर रहे हैं कि पहले मेरी बारी आएगी, पहले मेरी, क्योंकि सभी संदर्भ एक से एक बढकर महत्त्वपूर्ण हैं और एक संदर्भ को समझने के लिए दूसरे संदर्भ को समझना आवश्यक है । छन्दों को समझने के क्रम का आरम्भ वैदिक यज्ञों में ३ प्रकार की अग्नियों के लिए बनाए गए ३ खरों से करते हैं क्योंकि लगता है कि आधुनिक विज्ञान में जो तथ्य एण्ट्रांपी में वृद्धि या ह्रास के माध्यम से कहे जा रहे हैं, उनकी अभिव्यक्ति प्राचीन काल में यज्ञों के माध्यम से हुई है । जैसा कि चित्र १ में दिखाया गया है, सबसे पूर्व दिशा में आहवनीय अग्नि का स्थान होता है, उसके पश्चिम में दक्षिणाग्नि या अन्वाहार्यपचन अग्नि का और उसके भी पश्चिम में गार्हपत्य अग्नि का स्थान होता है, वैसे ही जैसे देह में मुख, हृदय और उदर होते हैं । दक्षिणाग्नि का अधिपति नैषध नल कहा गया है और गार्हपत्य अग्नि का यम । यदि दक्षिणाग्नि को समझना हो तो पुराणों में प्रकट होने वाली नल - दमयन्ती के पूरे आख्यान को ध्यान में रखना होगा । इसी प्रकार यदि गार्हपत्य अग्नि को समझना हो तो यम से सम्बन्धित सभी आख्यानों को ध्यान में रखना होगा । आहवनीय अग्नि देवों की अग्नि है । आहवनीय अग्नि का गायत्री छन्द है, दक्षिणाग्नि का त्रिष्टुप् और गार्हपत्य का जगती । नल और यम के आख्यानों के कारण इन छन्दों को भौतिक विज्ञान के तापगतिकी के नियमों के साथ जोडना सम्भव हो जाता है । डा. लक्ष्मीनारायण धूत ने अपने प्रपत्र में यह स्पष्ट किया है कि नल के आख्यान में जिस द्यूत क्रीडा या अक्ष विद्या का वर्णन आता है, वह वास्तव में वर्तमान काल की भाषा में चांस थ्योरी है, भाग्य का नियम है । कोई सिक्का ऊपर उछाला, वह किस तरफ गिरेगा, यह केवल चांस है, किसी नियम में बद्ध नहीं है । आईन्स्टीन का विचार है कि ईश्वर जुआ नहीं खेलता । उसे अपने सारे जीवन भर एक ऐसा सिद्धान्त विकसित करने की धुन रही जो इस चांस से परे हो और संसार की घटनाओं की व्याख्या करता हो । अब हम पुनः भौतिक विज्ञान में प्रवेश करते हैं । वहां यह एक आधारभूत सिद्धान्त है कि एक तन्त्र की दक्षता १०० प्रतिशत नहीं हो सकती । यहां तन्त्र से तात्पर्य है एक प्रकार की ऊर्जा का दूसरे प्रकार की ऊर्जा में रूपान्तरण करने वाला । उदाहरण के लिए, आजकल धातु के तार की कुण्डली द्वारा विद्युत ऊर्जा का रूपान्तरण यान्त्रिक ऊर्जा में किया जाता है । भौतिकी के नियम का कहना है कि विद्युत ऊर्जा का रूपान्तरण १०० प्रतिशत यान्त्रिक ऊर्जा में नहीं किया जा सकता, ऊर्जा के कुछ भाग का क्षय ऊष्मा आदि के रूप में अवश्य होगा । यदि कोई तन्त्र ऊर्जा को १०० प्रतिशत रूपान्तरित कर सके तो यह तापगतिकी के दूसरे नियम के विपरीत जाएगा, ऐसा भौतिक विज्ञान में सिद्ध किया जाता है । भौतिक विज्ञान का यह द्रष्टान्त त्रिष्टुप् व जगती छन्दों को समझने का कार्य सरल कर देता है । त्रिष्टुप् छन्द को दक्षता से सम्बद्ध किया जाता है । तो त्रिष्टुप् छन्द की सबसे निकृष्ट रूप में दक्षता यह है कि इस संसार में प्रकृति का प्रत्येक कार्य चांस के अनुसार, द्यूत के अनुसार चल रहा है । यही नल के आख्यान के संदर्भ में द्यूत विद्या, अक्ष विद्या है । इस दक्षता में अपरिमित रूप से वृद्धि की जा सकती है जो आगे चलकर देखेंगे ।
जैसा कि ऊपर कहा गया है, भौतिक विज्ञान के अनुसार कोई भी तन्त्र ऊर्जा का रूपान्तरण १०० प्रतिशत करने में समर्थ नहीं है । ऊर्जा का एक भाग अवश्य ही अनावश्यक प्रकार की ऊर्जा में नष्ट हो जाता है । या यह कहा जा सकता है कि ऊर्जा का एक भाग उच्च एण्ट्रांपी की स्थिति को प्राप्त हो जाता है । इस घटना को सरलता से जगती छन्द के साथ सम्बद्ध किया जा सकता है क्योंकि जगती छन्द गार्हपत्य अग्नि से और गार्हपत्य अग्नि यम से सम्बन्धित है । यम सभी प्रकार के पापों से नरक की यातनाओं के माध्यम से मुक्ति दिलाने वाला है । और जगती छन्द ऊर्जा के नष्ट हुए भाग से, उच्च एण्ट्रांपी वाले भाग से सम्बन्धित है, इसका सबसे बडा प्रमाण सोमयाग में मिलता है जहां तृतीय सवन में सोम की प्राप्ति के लिए ऋजीष का उपयोग किया जाता है ।
Gaayatri: It can be said that one which provides initial impulse to start the functioning of a system is Gaayatri chhanda. According to Newton’s law of motion, a system will not change it’s speed until some outer force is applied on it. This law seems to be too trivial, but it’s importance becomes evident as the principle of cause and effect has developed out of it. In vedic sciences also, Gaayatri may be said to be connected with cause and Jagati with effect. At another place, Gaayatri has been stated as praana and Trishtup as aatmaa. With reference to seasons, Gaayatri has been stated to be the autumn. The quality of autumn has been stated to be Samit. According to Dr. Fatah Singh, One is Sabhaa and one is Samiti. In Sabhaa, every member may have different views, but in a Samiti, every member has resonance.
Ushnik : One text states Ushnik chhanda as the neck. It seems that it works as a neck for Gaayatri as a head. Savitaa has been stated to be it’s presiding deity.
Trishtup : Trishtup chhanda has been universally stated to be the thunderbolt of Indra, the might. Trishtup has been assigned the task of achieving efficiency. The climax of efficiency is in becoming the weapons of gods. In puraanic texts, different weapons of goddess are formed out of the aura of gods. This aura is the extra energy which has to be given either the shape of weapons of gods or it will go waste. On the basis of qualities of seer Bhardwaaja, it can also be said that the development of clairvoyance is the climax of Trishtup.
Jagati : One vedic text associates Jagati chhanda with a class of gods called Vishwedevah – a cluster of all gods. These gods can be said to be an evolved state of manes/pitris. It can be said that those praanas whose entropy has gone high are pitris. Therefore, the main function of Jagati chhanda should be to lower the entropy of a system which has reached in a stated of high entropy.
Anushtup : One vedic text states that Gaayatri, Trishtup and Jagati chhandas are true, while the fourth Anushtup chhanda is of true – untrue nature. Anushtup has been universally called as speech. There are four stages of speech – the first which lies at the innermost level and the last which we all speak. Normally, our speech does not unravel truth, but if it is connected with the innermost level, then it can speak truth. One texts states Jagati as god mitra/friend and Anushtup as Varuna, the god of true and false. The other statement is that Anushtup is the chhanda which removed death from yaaga. This indicates that the function of god Varuna through Anushtup is to remove death away. There is a continuous competition between life and death from the gross level to the finest level – who is to dominate. The nature of Anushtup is different from the earlier 3 chhandas. This is indicated by the yaaga procedure. There, in case of Gaayatri, the clarified butter is transferred by the vessel Juhuu, in case of Trishtup and Jagati by the vessel Upabhrit, and in case of Anushtup, by the vessel named Dhruvaa.
Pankti : It has been stated about Pankti chhanda that this is indicator of progress in upward direction. There are 5 lines in a Pankti chhanda and it is possible that these may be symbolic of hair, skin, flesh, bone and bone marrow. Pankti has been stated to be the wife of yaaga.
Connection of chhandas with seasons : Gaayatri, Trishtup, Jagati, Anushtup and Pankti have been connected with 5 seasons – autumn, summer, rain, winter and chill/frost respectively. Thus each chhanda should reflect the characteristics of that particular season. To how much extent this is true, it will be examined later.
Connection of chhandas with directions : As has been stated elsewhere also, east is connected with the birth of original cause, west with how to nullify the fruits of actions, south with achieving efficiency and on lower side, with chance. North is connected with definiteness, above chance. Gaayatri is connected with east, Trishtup with south, Jagati with west and Anushtup with north. Anushtup has also been stated to be connected with downward direction, Dhruvaa.
Understanding chhanda through Somayaaga :In somayaaga, there are mainly two sections of the sacred sacrificial place – the initial and final. Regarding chhandas, the final place can provide much insight. It may be expected that whatever is the shape of the final place, whatever are the characteristics of the final place, these may be existing in the initial place in seed form. It is expected that for achievement of the final place, one should have realization of a year. In mythology, an year is formed by the association of the trio of sun, earth and moon. In outer world, the earth is automatically moving around the sun. But in spirituality, one has to make efforts that his earth moves around its axis as well as around the sun. Similarly for moon also. Sun, earth and moon are supposed to represent praana/life, body and mind. The most important fact to note at the final place is the presence of a wooden post at the far east boundary. This can be taken to be indicating the cause of all causes. There is a statement in sacred texts that gods, after fulfilling their purpose, put it upside down so that nobody may be able to succeed.
Gaayatri in somayaaga : One important aspect of Gaayatri chhanda which appears in somayaaga is the silent chanting by a priest at dawn in eastward direction. It has been stated that this chanting of mantras should be done when no bird has started it’s chirping. It means that Gaayatri affects at the innermost level. The chirping of birds can be taken as our inner voice. It has been stated in a sacred text that one has to inter Gaayatri through hair, Trishtup throughl skin, Jagati through flesh, Anushtup through bone and Pankti through bone marrow. This statement exists with variations in other texts. The noticeable thing is that hair on animal body have been equated with herbs on the earth. And the important characteristic of herbs is that these grow against the direction of gravitational force of the earth. One line out of three of Gaayatri chhanda has 8 letters in it and it can be said that the attracting force gradually develops from the first letter to the 8th one.
Gaayatri has been called as the mouth in the body. The function of mouth is to taste the food, to develop taste in food. Just as there exist conscious and unconscious minds, in the same way the taste may be connected with conscious factor of a particular food.
गायत्री :
यह कहा जा सकता है कि एक तन्त्र को, इंजन को आरम्भ करने वाला, उसे निर्देश देने वाला गायत्री छन्द है । तापगतिकी के प्रथम नियम के अनुसार कोई भौतिक वस्तु अपनी गति तब तक नहीं बदलेगी जब तक उस पर बाहरी बल न लगाया जाए । यदि वह स्थिर है तो स्थिर ही रहेगी और यदि गति में है तो गति में ही रहेगी । आभासी रूप में यह नियम अनावश्यक कथन प्रतीत होता है, लेकिन इस आधार पर भौतिक विज्ञान में कारण और कार्य, काज एण्ड इफेक्ट का सिद्धान्त विकसित हुआ है । वैदिक विज्ञान के संदर्भ में भी, जैसा कि इस प्रपत्र में आगे ध्यान दिया जाएगा, गायत्री कारण से और जगती कार्य से सम्बन्धित है । ऐतरेय ब्राह्मण ३.४७ व ३.४८ में अनुमति संज्ञक पूर्णिमा व द्यौ को गायत्री कहा गया है । अनुमति का अर्थ यह लिया जा सकता है कि जहां किसी कार्य को करने के लिए एक तन्त्र के कण - कण से अनुमति मिल रही हो । यह उल्लेखनीय है कि शतपथ ब्राह्मण ६.२.१.२४ में प्राण को गायत्री और आत्मा को त्रिष्टुप् कहा गया है जिसकी सम्यक् व्याख्या अपेक्षित है । आत्मा के साथ अन्य अङ्ग जुडे होते हैं । यदि ऋतुओं के संदर्भ में गायत्री पर विचार किया जाए तो गायत्री वसन्त ऋतु से सम्बन्धित है और इस कारण गायत्री छन्द का सबसे प्रमुख गुण समित् , समिति का निर्माण करना होना चाहिए । डा. फतहसिंह द्वारा अथर्ववेद के एक सूक्त की व्याख्या के अनुसार एक सभा होती है, एक समिति । सभा में प्रत्येक सदस्य के विचार अलग - अलग हो सकते हैं । लेकिन समिति में सबके एक जैसे । यज्ञ में अग्नि के समिन्धन के लिए समित् का ही प्रयोग किया जाता है ।
उष्णिक् : शतपथ ब्राह्मण १०.३.२.२ में उष्णिक् को ग्रीवा कहा गया है । लगता है कि यह छन्द शिर रूपी गायत्री की प्रतिष्ठा के लिए ग्रीवा का कार्य करता है । सविता को इस छन्द का देवता कहा गया है । उष्णिक् छन्द के विषय में उष्णिक् शब्द पर टिप्पणी द्रष्टव्य है ।
माध्यन्दिन संहिता २८.२५ में ''होता यक्षत्तनूनपातमुद्भिदं इति'' यजु में उष्णिहा छन्द को इन्द्रिय से सम्बद्ध किया गया है । इस कथन को भागवत पुराण के इस श्लोक के आधार पर समझा जा सकता है कि--
'ऊष्माणं इन्द्रियाण्याहुरन्तस्था बलमात्मनः' - भागवत ३.१२.४७
कहने का अभिप्राय यह है कि वर्णमाला में श, ष और स वर्ण ऊष्माण वर्ण कहलाते हैं क्योंकि इनके उच्चारण में ऊष्मा का उत्सर्जन होता है । इसका अनुभव शब्दों की सन्धियों में प्रकट श वर्ण द्वारा किया जा सकता है । उदाहरण के लिए, क: + चित् = कश्चित् । दूसरी ओर य, र, ल और व वर्ण हैं जिन्हें अन्तस्थ वर्ण कहा जाता है क्योंकि इनके उच्चारण में ऊष्मा का अवशोषण होता है । भागवत पुराण का कथन है कि श , ष आदि के द्वारा उत्पन्न ऊष्मा इन्द्रियों को प्राप्त होती है जिससे वह अपना कार्य करती हैं । दूसरी ओर, जिस ऊष्मा का अवशोषण य, र, ल आदि द्वारा होता है, वह आत्मा को पहुंचती है, आत्मा को बल प्रदान करती है । भागवत पुराण के कथन को और विस्तृत बनाते हुए, यह कहा जा सकता है कि ऊष्माण वर्णों के द्वारा जनित ऊष्मा को उष्णिक् अथवा उष्णिहा छन्द से जोडा जा सकता है, जबकि अन्तस्थ वर्णों में अवशोषित ऊष्मा को त्रिष्टुप् छन्द से सम्बद्ध किया जा सकता है ।
त्रिष्टुप् :
त्रिष्टुप् छन्द क्षत्र, बल, वीर्य, ओज प्राप्ति से, शत्रुओं का प्रतिरोध करने से, इन्द्र से, इन्द्र के वज्र से सम्बन्धित है । शतपथ ब्राह्मण १०.३.१.१ के अनुसार प्रजनन प्राण त्रिष्टुप् से सम्बन्धित हैं । यह उल्लेख संकेत करते हैं कि मनुष्य में जो ओज, वीर्य उत्पन्न होता है, उसकी चरम परिणति इन्द्र का वज्र बनने में है । पुराणों में देवों के तेजों से देवी के विभिन्न अङ्गों व आयुधों के निर्माण के वर्णन आते हैं । लगता है यह सब वीर्य, बल की चरम परिणति दिखाने के लिए हैं जो त्रिष्टुप् के, दक्षता प्राप्ति के अन्तर्गत रखा गया है । जब अतिरिक्त ऊर्जा या वीर्य या प्रजनन प्राण देवों के आयुधों का रूप धारण कर लेंगे, अन्य शब्दों में अक्ष बन जाएंगे, तभी वह अमृत बन सकेंगे । अन्यथा वह नष्ट हो जाएंगे । भौतिक विज्ञान के उदाहरण में इंजन की दक्षता की प्राप्ति त्रिष्टुप् छन्द के द्वारा की जा सकती है । ओज, बल आदि जितने पुष्ट होंगे, दक्षता उतनी ही अधिक होगी । ऐतरेय ब्राह्मण ३.४७ व ३.४८ में त्रिष्टुप् को उषा व राका पूर्णिमा से सम्बद्ध किया गया है । उषा काल में सोए हुए प्राण जाग जाते हैं । या यह कहा जा सकता है कि जितनी भी ऊर्जा उपलब्ध है, उसका चेतन जगत को सक्रिय करने में उपयोग आरम्भ हो जाता है । चूंकि त्रिष्टुप् छन्द को भरद्वाज ऋषि के साथ सम्बद्ध किया गया है, अतः भरद्वाज की विशेषताओं के आधार पर यह भी कहा जा सकता है कि परामानसिक चेतना, अंग्रेजी भाषा में क्लेयरवाएंस का सर्वोच्च विकास ही त्रिष्टुप् की चरम परिणति है ।
त्रिष्टुप् छन्द के त्रिष्टुप् नाम का क्या रहस्य हो सकता है, इस संदर्भ में जैमिनीय ब्राह्मण १.३२४ का कथन है कि मैं तीन बार स्तुप् हूं , अतः त्रिष्टुप् नाम सार्थक है । ३ शुक्ल, कृष्ण व पुरुष हो सकते हैं । अथवा जाग्रत, स्वप्न व सुषुप्ति हो सकते हैं।
त्रिष्टुप् छन्द को और अधिक स्पष्ट रूप में समझने के लिए हम स्तोभ शब्द पर ध्यान देते हैं । कहा गया है कि भ आदित्य का तेज रूप है तथा कि चक्षु ही स्तोभ का स्तोभ है ( जैमिनीय ब्राह्मण ३.३७० )और रथन्तर साम का गान करते हुए स्तोभ उच्चारण करते हुए इस आदित्य रूपी वत्स को मुख में धारण कर लिया जाता है । यह भ जलाए नहीं, अतः इसको ग्रहण करने के लिए, इसे शान्त करने के लिए विशेष प्रबन्ध करना होता है । ऋग्वेद की ऋचाओं में मरुत इन्द्र का परिस्तोभन करते हैं । जैमिनीय ब्राह्मण ३.७० में ३ पूर्व स्तोभों और ३ उत्तर स्तोभों प्राण, अपान और व्यान का उल्लेख है ।
त्रिष्टुप् छन्द को उष्णिक् छन्द के उपरोक्त वर्णन के आधार पर भी समझा जा सकता है । जैसा कि उष्णिक् छन्द के संदर्भ में कहा जा चुका है, संभावना यह है कि जिन अभिक्रियाओं में ऊर्जा का अवशोषण होता हो, वह त्रिष्टुप् छन्द से सम्बद्ध हो सकती हैं । भागवत पुराण में केवल इतना उल्लेख है कि अन्तस्थ वर्ण आत्मा का बल हैं । दूसरी ओर, ब्राह्मण ग्रन्थों में त्रिष्टुप् को बल, वीर्य से सम्बद्ध कहा गया है । लेकिन यह रहस्य ही बना रहता है कि यह बल कौन सा है । यह आत्मा का बल हो सकता है ।
जगती :
यह कहा जा सकता है कि जगती छन्द पुष्टि करने से सम्बन्धित है । गायत्री छन्द की चरम परिणति मुख के रूप में होती है, त्रिष्टुप् की चक्षु में और जगती की श्रोत्र में । चक्षु का कार्य प्रकाश का संवेदन करना है और वैदिक भाषा में सत्य और अनृत की परीक्षा करना है ।
जगती छन्द की चरम परिणति श्रोत्र में होती है । जगती छन्द पुष्टि से सम्बन्धित है और मांस भी पुष्टि से । लेकिन जगती का एक और पक्ष भी है । श्रोत्र को जगती कहा गया है और जैसा का ऊपर उल्लेख किया जा चुका है, वैदिक साहित्य में श्रोत्र की उत्पत्ति वम्रि या दीमक द्वारा तन्तुओं को काटने से, उनके काटने से उत्पन्न हुए रिक्त स्थान से होती है । दूसरे शब्दों में, वम्रि स्थान विशेष के रस को ऊर्ध्वमुखी बना देती है, उसे न्यून एण्ट्रांपी की स्थिति में ला देती है । अपने शरीर के स्तर पर इस कथन का सत्यापन कैसे हो सकता है, यह अन्वेषणीय है । शतपथ ब्राह्मण ६.३.१.३९ में अभ्रि द्वारा भूमि का खनन करके मृदा सम्भरण के संदर्भ में जगती के संदर्भ में कहा गया है कि जगती द्वारा हम खनन में समर्थ हों । शतपथ ब्राह्मण ११.५.९.७ में जगती छन्द को विश्वेदेवों से सम्बद्ध किया गया है । विश्वेदेवों को पुराणों में पितरों का देवरूप कहा गया है । और आधुनिक विज्ञान के संदर्भ में पितरों के बारे में यह कहा जा सकता है कि जिन प्राणों की अव्यवस्था उच्च हो गई है, जिन प्राणों की एण्ट्रांपी में वृद्धि हो गई है, वह पितर कहलाते हैं । आधुनिक विज्ञान में यदि एक तन्त्र के लिए कोई ऊर्जा स्रोत किसी उपयोगी कार्य करने के लिए व्यर्थ हो गया है तो उसे फिर से क्रियाशील बनाने के लिए उसका शोधन करने की आवश्यकता होती है, उसकी एण्ट्रांपी को कम करने की आवश्यकता होती है । यही बात पितरों के संदर्भ में है । प्राणों का कोई भी भाग व्यर्थ नहीं जाने देना है । पितरों को विश्वेदेवों में रूपान्तरित करना है । शतपथ ब्राह्मण १०.३.१.१ में अवाङ् प्राणों को जगती से सम्बद्ध किया गया है । शतपथ ब्राह्मण ८.६.२.८ में ३१ छन्दस्य इष्टकाओं की स्थापना के संदर्भ में पुरुष शरीर में श्रोणी को जगती कहा गया है ।
ब्राह्मण ग्रन्थों का कहना है कि सूर्य द्युलोक में जगती छन्द में गति करता है । ऐतरेय ब्राह्मण ३.४७ व ३.४८ में जगती को सिनीवाली अमावास्या व गौ कहा गया है । डा. लक्ष्मीश्वर झा द्वारा दी गई सूचना के अनुसार गौ सूर्य की किरण को कहते हैं और ब्रह्माण्ड में जो भी पदार्थ सूर्य की किरणों को ग्रहण करता है, उसे भी गौ कह दिया गया है । इसी कारण से पृथिवी को भी गौ कहा जाता है । यदि ऐसा है तो यह कहा जा सकता है कि जगती छन्द की स्थिति में एण्ट्रांपी में कमी लाने के लिए सूर्य की ऊर्जा का उपयोग किया जा रहा है । अनुष्टुप् छन्द की स्थिति में ऐसा नहीं होता ।
अनुष्टुप् : अनुष्टुप् छन्द को सार्वत्रिक रूप से वाक् कहा गया है । वैदिक साहित्य में वाक् के ४ स्तर होते हैं - परा, पश्यन्ती, मध्यमा व वैखरी । वैखरी वाक् वह है जो हमें मर्त्य स्तर पर शकुनों के रूप में सुनाई देती है । अनुष्टुप् छन्द का प्रभाव यह हो सकता है कि परा वाक् का अवतरण वैखरी के स्तर तक हो जाए । तैत्तिरीय ब्राह्मण १.७.१०.४ का कथन है कि गायत्री से लेकर जगती तक तीन छन्द तो सत्य हैं, जबकि अनुष्टुप् छन्द जो वरुण से सम्बन्धित है, सत्यानृत धर्म वाला है । तैत्तिरीय ब्राह्मण १.७.१०.४ में जगती को मित्र और अनुष्टुप् को वरुण कहा गया है । ऐतरेय ब्राह्मण ३.१३ का कथन है कि प्रजापति का अपना अनुष्टुप् छन्द अच्छावाक् ऋत्विज को प्राप्त हुआ जिससे अनुष्टुप् को अप्रसन्नता हुई। यह प्रसंग परोक्ष रूप से यह संकेत करता है कि गायत्री छन्द होता ऋत्विज से सम्बन्धित है, त्रिष्टुप् मैत्रावरुण और जगती ब्राह्मणाच्छंसी ऋत्विज से। होता का व्यवहार प्रेम से है, मैत्रावरुण का मैत्री से, ब्राह्मणाच्छंसी का कृपा से और अच्छावाक् का द्वेष से- भागवतपुराण ११.२.४६। शतपथ ब्राह्मण १.७.३.१८ का कथन है कि वास्तु अनुष्टुप् है । वास्तु स्विष्टकृत् है । वास्तु अवीर्य है । इसमें त्रिष्टुप् द्वारा वीर्य रखा जाता है । शतपथ ब्राह्मण ४.५.३.५ का कथन है कि अनुष्टुप् द्वारा भ्रातृव्य के वीर्य का ग्रहण किया जाता है । इन कथनों से ऐसा प्रतीत होता है कि वरुण का सत्यानृत धर्म अव्यवस्थित ऊर्जा की स्थिति की अन्तिम अवस्था है । उससे ऊपर केवल मृत्यु ही शेष बचती है । प्राणियों के शरीर में कोशिकाओं के बनने में सतत् रूप से एक जूआ चल रहा है कि मृत्यु जीते या जीवन जीते । जहां जीवनी शक्ति दुर्बल हुई कि मृत्यु अपना ग्रास बना लेती है । चेतना के स्तर पर मृत्यु को ही अनृत अवस्था कहा जा सकता है । वाक् के स्तर पर अनृत वाक् हो सकती है । भौतिक जगत के स्तर पर यह आधुनिक विज्ञान का ब्लैक होल हो सकता है, ऐसा सूर्य जिसकी सारी ऊर्जा अव्यवस्थित हो चुकी है । लेकिन यह प्रश्न अभी भी अनुत्तरित है कि अनुष्टुप् छन्द भ्रातृव्य व शत्रु के वीर्य का हरण किस प्रकार कर सकता है । शतपथ ब्राह्मण १.३.२.१६ में आज्य ग्रहण विभिन्न पात्रों द्वारा किया जाता है । गायत्री के संदर्भ में जुहू पात्र से, त्रिष्टुप् व जगती के संदर्भ में उपभृत पात्र से और अनुष्टुप् के संदर्भ में ध्रुवा द्वारा किया जाता है । शतपथ ब्राह्मण ११.५.९.७ में सोमयाग के तीन सवनों को गायत्री आदि तीन सवनों से सम्बद्ध किया गया है और सवनों से ऊपर जो कुछ है, उसे अनुष्टुप् कहा गया है । ऐतरेय ब्राह्मण ३.४७ व ३.४८ में गायत्री को द्यौ व अनुमति संज्ञक पूर्णिमा से, त्रिष्टुप् को उषा व राका पूर्णिमा से, जगती को गौ व सिनीवाली संज्ञक अमावास्या से और अनुष्टुप् को पृथिवी व कुहू नामक अमावास्या से सम्बद्ध किया गया है । शतपथ ब्राह्मण १३.२.२.१९ में अश्व को आनुष्टुभ कहा गया है । जगती को गौ कहा गया है, जबकि अनुष्टुप् को पृथिवी । जैमिनीय ब्राह्मण १.२७० आदि के अनुसार वाक् मनुष्यधू है जबकि पृथिवी देवधू , वैसे ही जैसे श्रोत्र मनुष्यधू का देवधू रूप दिशाएं हैं, चक्षु का आदित्य है आदि । दूसरे, जब सोम पक्ष पर आते हैं, तो पूर्णिमा को चेतन मन का रूप समझा जा सकता है, चन्द्रमा का वह पक्ष जो प्रत्यक्ष है । दूसरी ओर अमावास्या को अचेतन मन समझा जा सकता है, चन्द्रमा का वह पक्ष जो पृथिवी से परोक्ष दिशा में रहता है । शतपथ ब्राह्मण ६.३.१.३८ में अभ्रि द्वारा खनन करके मृदा सम्भरण के संदर्भ में मृदा के पृथिवी से सम्भरण का कार्य अनुष्टुप् द्वारा सम्पन्न करने का निर्देश है (अन्य तीन छन्दों गायत्री, त्रिष्टुप्, जगती का विनियोग भी द्रष्टव्य है)। शतपथ ब्राह्मण ७.२.४.१४ में ओषधि वपन का कार्य अनुष्टुप् छन्द द्वारा सम्पादित करने का निर्देश है । ऐतरेय ब्राह्मण ३.१५ के अनुसार वृत्र वध के पश्चात् इन्द्र वृत्र वध की अनिश्चितता को देखते हुए अनुष्टुप् में छिप गया और कि अनुष्टुप् ही परा परावत है । इससे यह संकेत माना जा सकता है कि वृत्र वध के पश्चात् ही अनुष्टुप् परा गुण वाला बन सकता है ।
पंक्ति : पंक्ति छन्द के विषय में कहा गया है कि पंक्ति छन्द में ५ पंक्तियां होती हैं और यह ऊर्ध्व दिशा में आध्यात्मिक प्रगति का सूचक है । इसे इस प्रकार लिया जाता है कि लोम, त्वक्, मांस, अस्थि और मज्जा में एक साथ प्रगति हो । तैत्तिरीय संहिता ५.६.१०.२ में पृथिवी, अन्तरिक्ष, द्यौ, यज्ञ व यजमान नामक ५ चितियों का कथन है जिसमें प्रत्येक चिति के लिए एक पुरीष/बालुका है । पहली चिति के लिए ओषधि - वनस्पतियां, दूसरी के लिए वयांसि या पक्षी, तीसरी के लिए नक्षत्र, चतुर्थी के लिए दक्षिणा व पांचवी के लिए प्रजा पुरीष हैं । इस स्थिति को वास्तविक रूप में प्राप्त करना महत्त्वपूर्ण है । चिति को एण्ट्रांपी का उल्टा कहा जा सकता है । शतपथ ब्राह्मण के काण्ड ६ से ९ तक अग्निचयन या चिति से ही सम्बन्धित हैं । तैत्तिरीय संहिता ४.१.५.४ में कामना की गई है कि उखा के बिल या आकाश स्थान को अदिति पंक्ति छन्द द्वारा ग्रहण करे । यहां बिल का क्या अर्थ हो सकता है, यह अन्वेषणीय है । पंक्ति का आयतन श्रेष्ठ माना गया है क्योंकि पंक्ति पृथु जैसी होती है । शुक्ल यजुर्वेद १३.५८ आदि में पंक्ति छन्द को ऊर्ध्व दिशा व मति से सम्बद्ध किया गया है । तैत्तिरीय आरण्यक ३.९.२ में पंक्ति को यज्ञ की पत्नी कहा गया है । अभिप्लव नामक सोमयाग का पंचम अह पंक्ति छन्द से सम्बद्ध होता है ( शतपथ १२.२.४.६) । शतपथ १०.३.२.१० में मरुतों को पंक्ति छन्द के साथ सम्बद्ध किया गया है ।
छन्दों के संदर्भ में बौधायन श्रौत सूत्र १०.४५ में एक महत्त्वपूर्ण तथ्य मिलता है । इस संदर्भ में गायत्री , त्रिष्टुप् आदि छन्दों का ४ दिशाओं से सम्बन्ध बताया गया है जो अन्य संदर्भों के समान ही है । लेकिन इससे भी आगे जाकर इस संदर्भ में उष्णिक् का सम्बन्ध पूर्व दिशा से, पंक्ति का दक्षिण से, अक्षरपंक्ति का पश्चिम दिशा से, अतिच्छन्दा का उत्तर दिशा से व द्विपदा का मध्य दिशा से सम्बन्ध कहा गया है । एक विकल्प यह भी दिया गया है कि अतिच्छन्दा मध्य में हो और द्विपदा उत्तर में । पूर्व दिशा के गायत्री और उष्णिक् छन्द युगल के सम्बन्ध पर इस प्रपत्र में अन्य स्थल पर प्रकाश डाला गया है । अन्य छन्द युगलों का दिशाओं से तादात्म्य अन्वेषणीय है ।
छन्द व ऋतुएं : गायत्री, त्रिष्टुप्, जगती, अनुष्टुप् व पंक्ति छन्दों को क्रमशः वसन्त, ग्रीष्म, वर्षा, शरद् व हेमन्त ऋतुओं से सम्बद्ध किया गया है और प्रत्येक ऋतु के प्रभाव उस - उस छन्द में भी अभिलक्षित होने चाहिएं । होते हैं या नहीं, इसकी परीक्षा आगे की जाएगी । इसी प्रकार गायत्री से आरम्भ होने वाले ४ छन्दों को पूर्व आदि ४ दिशाओं से सम्बद्ध किया गया है ।
छन्दों का दिशाओं से सम्बन्ध : जैसा कि विज्ञान भारती प्रदीपिका को प्रकाशन के लिए प्रस्तुत किए गए दो अन्य प्रपत्रों में कारण व कार्य के सम्बन्ध में स्पष्ट किया गया है, पूर्व दिशा मूल कारण की उत्पत्ति से सम्बन्धित है, पश्चिम दिशा कर्मों के फल को अस्त करने की, उनका क्षय या प्रायश्चित्त करने की दिशा है । दक्षिण दिशा दक्षता प्राप्त करने की, दक्षिणा प्राप्त करने की दिशा है । जगती पश्चिम दिशा से सम्बद्ध है । योगवासिष्ठ का कथन है कि पश्चिम काया को ऐसा बना देना चाहिए कि उस स्थिति में किसी भी कर्म के फल का अंकुरण न हो, सब कर्म रूपी बीज भुन जाएं । जगती छन्द आधुनिक विज्ञान में तापगतिकी के द्वितीय नियम के संदर्भ में नष्ट हुई ऊर्जा से सम्बन्धित हो सकता है, उसका यह दूसरा उदाहरण है । अनुष्टुप् उत्तर दिशा से । उत्तर दिशा सब प्रकार के द्वन्दों से, द्यूत से, संभावनाओं से, चांस से ऊपर उठकर निश्चितता की, प्रतिष्ठा की दिशा है । अनुष्टुप् को ध्रुवा दिशा से भी सम्बद्ध किया गया है ।
छन्दों के संदर्भ में सोमयाग का महत्त्व तथा सोमयाग की वेदी के निर्माण में पृथिवी द्वारा सूर्य की परिक्रमा का महत्त्व :
सोमयाग की वेदी में आकर जिस प्रकार यज्ञ के कृत्य सम्पन्न किए जाते हैं, उससे यह अनुमान होता है कि इस स्थिति में आकर छन्द अपनी पूर्णता को प्राप्त करते हैं । सोमयाग की वेदी के २ भाग होते हैं - प्राग्वंश ( चित्र १) और महावेदी या उत्तरवेदी ( चित्र २) । सोमयाग के संदर्भ में यह जान लेना सबसे महत्त्वपूर्ण होगा कि वहां प्राग्वंश और महावेदी में सैद्धान्तिक रूप में क्या अन्तर है । ऐसा अनुमान है कि प्राग्वंश में, जहां केवल हविर्यज्ञ अग्निहोत्र, दर्शपूर्णमास आदि सम्पन्न होते हैं, पृथिवी के केवल अपनी धुरी पर परिक्रमा करने का महत्त्व है जिसके कारण दिन व रात होते हैं और जिसके अनुसार अग्निहोत्र सम्पन्न होता है । महावेदी में पूर्व दिशा गायत्री छन्द से सम्बन्धित हो सकती है । महावेदी में सबसे पूर्व में यूप गडा होता है जिससे यजमान रूपी पशु को बांधा जाता है । यूप के पश्चिम में उत्तरवेदी या आहवनीय अग्नि का स्थान होता है, उससे पश्चिम में हविर्धान मण्डप होता है और सबसे पश्चिम में सदोमण्डप होता है । यूप, हविर्धान मण्डप व सदोमण्डप प्राग्वंश में नहीं होते, अथवा यह कहा जा सकता है कि अविकसित अवस्था में होते हैं । यूप संवत्सर का प्रतीक है जिसे कहा गया है कि देवों ने उल्टा कर दिया है । संवत्सर से तात्पर्य यह निकलता है कि पृथिवी सूर्य के चारों ओर भ्रमण करती है ( चित्र ३) और इस कारण दिन, पक्ष, मास, ऋतु, अयन आदि रूप में संवत्सर का जन्म होता है । भौतिक पृथिवी भौतिक सूर्य की परिक्रमा करती है, यहां तक तो ठीक है । लेकिन जब चेतना के क्षेत्र में प्रवेश करते हैं तो यह ठीक हो भी सकता है, नहीं भी । सामान्य स्थिति तो यही है कि चेतना की पृथिवी सूर्य की परिक्रमा नहीं करती । चेतना रूपी पृथिवी से यह अपेक्षा है कि वह सूर्य की परिक्रमा करे, चेतना के कार्य किसी चेतन सूर्य द्वारा नियन्त्रित हों । तभी महावेदी का साक्षात्कार संभव हो सकता है । भौतिक पृथिवी सूर्य की परिक्रमा में जिस पथ का निर्माण करती है, आधुनिक विज्ञान उसे परवलयाकार बताता है(चित्र ३) । कुछ आकाशीय पिण्डों का भ्रमण इस प्रकार भी होता है कि उनका पथ अतिपरवलयाकार ( हाईपरबोलिक ) बनता है ( चित्र ४) । अतिपरवलय में पिण्ड बारम्बार परिक्रमा नहीं कर सकता, एक बार ही कर सकता है । लगता है सामान्य चेतना रूपी पृथिवी के लिए यह पथ अधिक उपयुक्त है । अथवा यह हो सकता है कि सामान्य चेतना कईं भागों में विभाजित होकर सूर्य की परिक्रमा कर रही है, जिससे कि फलित ज्योतिष का जन्म हुआ है । आधुनिक विज्ञान के अनुसार इस ब्रह्माण्ड में ऐसा हो रहा है कि कारण कार्य को नियन्त्रित करता है, कार्य कारण को नहीं । प्राग्वंश की स्थिति में यूप जैसा कोई नियन्त्रक कारण नहीं है और वहां भौतिक जगत के कार्य - कारण लागू होने चाहिएं ।
जब चेतना रूपी पृथिवी चेतन सूर्य की परिक्रमा करती है तो संभवतः पुराणों में उसे अदिति आदि नाम दिए गए हैं । त्रिष्टुप्, जगती आदि दिति, खण्डित शक्तियों के अन्तर्गत आते हैं, यद्यपि इन्हें भी गायत्री की भांति ही पृथिवी कहा गया है ।
सोमयाग में गायत्री छन्द : सोमयाग में प्रातःसवन को गायत्री से, माध्यन्दिन सवन को त्रिष्टुप् से और तृतीय सवन को जगती से व उसके पश्चात् सम्पादित होने वाले अग्निष्टोम सामगान को अनुष्टुप् से सम्बद्ध किया गया है । इन तीन सवनों में जो कृत्य सम्पादित होते हैं, उनसे तीन छन्दों की प्रकृति का उद्घाटन होना चाहिए ।
छन्दों को समझने के लिए ब्राह्मणों में कुछ एक कथन उपयोगी हो सकते हैं । काठक संहिता ३८.१४ का कथन है कि लोमों से गायत्री में प्रवेश करता हूं, त्वचा से त्रिष्टुप् में, मांस से जगती में, अनुष्टुप् से अस्थि में, मज्जा से पंक्ति में । पुराणों का कथन है कि यह जो हमारे शरीर में लोम हैं, यह पृथिवी पर उगी ओषधियों - वनस्पतियों का प्रतीक हैं । पृथिवी की उर्वरा शक्ति ओषधियों आदि के रूप में गुरुत्वाकर्षण से उलटी दिशा में प्रकट होती है और कहा गया है कि पृथिवी से इस शक्ति को निकालने का कार्य गायत्री करती है । इसी प्रकार यह हो सकता है कि हमारे शरीर से शक्ति को बाहर निकालने का कार्य भी गायत्री छन्द द्वारा सम्पन्न होता हो । लेकिन अन्तर यह है कि पृथिवी से निकली ओषधि आदि जीवन युक्त होती हैं, जबकि हमारे शरीर से निकलने वाले केश, नख आदि जीवनरहित होते हैं, मल रूप होते हैं । अतः पुराणों के कथन को बहुत सावधानी से समझने की आवश्यकता है । सोमयाग में दीक्षा कृत्य में शरीर के सभी अङ्गों के लोमों व केशों का वपन किया जाता है । केश आदि मृत होते हैं और दीक्षा के पश्चात् यह अपेक्षित है कि शरीर में किसी मृत तत्त्व का निर्माण न हो । शरीर में केश निर्माण की प्रक्रिया के रुकने के तथ्य को आधुनिक चिकित्सा शास्त्र में कैंसर रोग में कैमोथिरेपी के काल में केश निर्माण की क्रिया के कुछ समय के लिए रुकने द्वारा भी समझा जा सकता है । कैमोथिरेपी में एक बार कुछ काल के लिए शरीर के सभी अङ्गों में नवनिर्माण का कार्य बिल्कुल रोक दिया जाता है और फिर प्राण नई शक्ति पाकर नवनिर्माण करते हैं जो कैंसर रोग से रहित होता है । इसी प्रक्रिया को गायत्री छन्द पर भी लागू करने की आवश्यकता है । यह भी ध्यान देने योग्य है कि मनुष्य की देह लोमरहित होती है जबकि पशुओं की लोम सहित । इसी प्रकार वनस्पति जगत व पशुओं में मोटी त्वचा का निर्माण होता है, जबकि मनुष्यों आदि में त्वचा बहुत पतली होती है । समझा जाता है कि मनुष्य में मन का विकास इसी कारण से हुआ है कि वह लोमों व मोटी त्वचा से मुक्त हो सका । ब्राह्मणों के आख्यान के अनुसार दीक्षा जगती छन्द से जुड गई है, गायत्री से नहीं । ऐतरेय आरण्यक २.१.६ में उपरोक्त तथ्य को थोडे भिन्न प्रकार से कहा गया है । वहां प्राण को बृहती कहा गया है और लोम को उष्णिक्, त्वचा को गायत्री, मांस को त्रिष्टुप्, स्नायु को अनुष्टुप्, अस्थि को जगती और मज्जा को पंक्ति ।
सोमयाग में प्रातःसवन गायत्री छन्द से सम्बद्ध होता है और इस सवन में जो कृत्य किए जाते हैं, वह अन्य सवनों के लिए बीज रूप बनते हैं । वैदिक साहित्य की भाषा में इसे रेतः सिंचन कहा गया है । यह अन्वेषणीय है कि गायत्री छन्द के रहस्यों को प्रातः सवन के माध्यम से किस प्रकार उद्घाटित किया जा सकता है । प्रातःसवन में एक कृत्य प्रातरनुवाक होता है जिसमें होता ऋत्विज महावेदी में हविर्धान मण्डप के पूर्व द्वार पर बैठकर अग्नि, उषा व अश्विनौ देवताओं के लिए ७ - ७ छन्दों वाली ऋचाओं का जप करता है । शतपथ ब्राह्मण का कथन है कि यह जप रात्रि में उस काल में होना चाहिए जब पशु - पक्षियों ने बोलना भी आरम्भ न किया हो । इसका अर्थ होगा कि प्रातरनुवाक सबसे पहली, शकुन से भी पहली अन्त:प्रेरणा है । नारायणोपनिषद में गायत्री छन्द का देवता सविता कहा गया है । वैदिक साहित्य में सविता प्रसविता कहा जाता है । वैदिक कर्मकाण्ड में कार्य सम्पादन से पूर्व सवितु: प्रसविताभ्यां, अश्विनोर्बाहुभ्यां, पूष्णो हस्ताभ्यां इत्यादि मन्त्र का वाचन किया जाता है ।
प्राग्वंश में गार्हपत्य अग्नि के चयन के पश्चात् और उत्तरवेदी में आहवनीय अग्नि के चयन से पूर्व सोमक्रयण नाम का कृत्य सम्पादित किया जाता है जिसमें ऋत्विजगण व यजमान शूद्र से सोम क्रय करते हैं । यह सोम एक ग्रन्थि में बंधा हुआ प्राग्वंश की आहवनीय अग्नि के दक्षिण में रखा रहता है । वहां इसकी अतिथि रूप में पूजा भी की जाती है । जब प्राग्वंश में प्रवर्ग्य संभरण का कार्य पूरा हो जाता है, अथवा यह कहें कि संवत्सर की ६ ऋतुओं का निर्माण हो जाता है तो इस सोम को महावेदी में स्थान्तरित करते हैं और वहां हविर्धान मण्डप में इसका रस निकाला जाता है और उसे देवों को अर्पित किया जाता है । यहां ब्राह्मणों में दिये गए इस आख्यान का उल्लेख महत्त्वपूर्ण है कि जगती, त्रिष्टुप व गायत्री सोम आहरण के लिए द्युलोक में गए लेकिन उनमें से केवल गायत्री ही सोम को लाने में समर्थ हो सकी । जैसा कि ऊपर कहा गया है, यह आवश्यक नहीं है कि हमारी चेतना रूपी पृथिवी चेतन सूर्य के परितः भ्रमण करे ही । ऐसे ही यह आवश्यक नहीं है कि भौतिक रूप में जो चन्द्रमा पृथिवी का परिभ्रमण करता रहता है, वह घटना स्वाभाविक रूप से चेतना के स्तर पर भी सत्य हो । उसे सत्य बनाने के लिए विशेष प्रयास की आवश्यकता होगी और लगता है कि यह कार्य गायत्री द्वारा सम्पन्न हो सकता है । प्राग्वंश में आहवनीय के दक्षिण में सोम बंधा हुआ रखा रहता है, उसका उपयोग नहीं किया जा सकता । महावेदी के हविर्धान मण्डप में उसका मुक्त रूप से उपयोग किया जाता है । यहां गायत्री निहित होनी चाहिए क्योंकि वही पृथिवी पर सोम के उपयोग को सम्भव बनाती है । सोम से क्या तात्पर्य हो सकता है ? मन के विकसित रूप को चन्द्रमा कहा गया है ( चन्द्रमा मनसो जातः इत्यादि ) । अतः आधुनिक विचारकों की भाषा में यह कहा जा सकता है कि प्राग्वंश में सोम के बंधे होने, उपयोग न हो पाने से तात्पर्य अचेतन मन से है, वह मन जो अचेतन रूप में हमारे जीवन के सभी कार्यों को सम्पादित कर रहा है । इस अचेतन मन को चेतन बनाने की आवश्यकता है । यह कार्य महावेदी में हो जाता है । गायत्री को शरीर में मुख रूप कहा जाता है । मुख का कार्य रस का आस्वादन करना होता है । भोजन से पुष्टि आदि का कार्य तो जठर आदि में होता है । अतः यह कहा जा सकता है कि रस उत्पन्न करने का कार्य गायत्री द्वारा सम्पन्न होना चाहिए । पृथिवी पर बहुत से भोज्य पदार्थों में रस होता है, बहुतों में नहीं । यह कहा जा सकता है कि जिन पदार्थोंमें रस विकसित हुआ है, वह गायत्री का कार्य है और यह रस एक प्रकार से उस पदार्थ के चेतन मन का रूप है । गायत्री को शरीर में मुख रूप कहने से दूसरा तात्पर्य यह हो सकता है कि हमारे शरीर में अंगों की स्थूलता तथा चेतनता के बहुत से स्तर हैं । पाद भाग सबसे स्थूल होता है । एडियों को सुप्त चक्षु रूप कहा जाता है । फिर यह चक्षु अण्डकोशों को रूप में विकसित होते हैं, फिर स्तनद्वय के रूप में और फिर मुख पर चक्षु रूप में ।अतः अंग विकसित होते - होते मुख पर आकर सबसे अधिक विकसित रूप में होते हैं । अतः जहां भी विकास की पराकाष्ठा हो, उसे गायत्री का रूप समझना चाहिए ।
सोमयाग में प्रातःसवन में आज्यस्तोत्र और आज्य शस्त्रों का वाचन होता है । आज्य उस घृत को कहते हैं जो स्वतःस्फूर्त मन्थन से उत्पन्न हो जाता है, परिश्रम से नहीं । आध्यात्मिक रूप में मन्थन किसी हर्ष आदि से हो सकता है । आज्य को वैदिक साहित्य में बहुत प्रकार से समझाने का प्रयास किया गया है लेकिन इसको सहज रूप में समझना सबसे सरल होगा । डा. फतहसिंह का कहना है कि अज वह स्थिति होती है जब कोई विचार आदि उत्पन्न न हो, बिल्कुल शान्त स्थिति, अ - जन्म । यह गायत्री की स्थिति है । त्रिष्टुप् में तो क्षोभ उत्पन्न हो सकता है ।
शतपथ ब्राह्मण ६.१.३.६ में अग्निचयन के संदर्भ में कहा गया है कि आपः के मन्थन से फेन उत्पन्न होता है, फेन से मृदा, मृदा से सिकता, सिकता से शर्करा, शर्करा से अश्मा, अश्मा से अयः और अयः से हिरण्य । कहा गया है कि यह ८ रूप गायत्री के ८ अक्षर हैं । इस पहेली के संदर्भ में यह सुझाव है कि आपः से तात्पर्य मनुष्य के आभा मण्डल से हो सकता है । अथवा यह प्राण और अपान की सन्धि हो सकती है । इस आभा मण्डल में वायु का प्रवेश कराने पर, वायु द्वारा मन्थन करने पर फेन उत्पन्न होता है, फेन से मृदा, मृदा से सिकता आदि । इनमें उत्तरोत्तर रूप में कर्षण शक्ति का विकास होता जाता है । हमारे शरीर रूपी पृथिवी में यह न्यूनता है कि उसमें कर्षण शक्ति पर्याप्त नहीं है । मस्तिष्क किसी अङ्ग के रोग को जान भी सकता है, नहीं भी । लेकिन यदि कर्षण पर्याप्त रूप से प्रबल हो जाए तो स्थिति अन्यथा होगी । यह एक व्यावहारिक विषय है । इससे आगे शतपथ ब्राह्मण ६.१.३.९ में कुमार के ८ नामों रुद्र, शर्व, पशुपति, उग्र, अशनि, भव, महादेव व चन्द्रमा को गायत्री के ८ अक्षर कहा गया है । यह संभव है कि पहले ८ अक्षर गायत्री के प्रथम पद के लिए और दूसरे गायत्री के अन्तरिक्ष स्थानीय द्वितीय पद के लिए हों । यह उल्लेखनीय है कि पुराणों में सार्वत्रिक रूप से शिव के ८ नामों के अन्तर्गत भव, शर्व आदि का उल्लेख आता है ।
शतपथ ब्राह्मण १४.८.-- - के अनुसार गायत्री वह है जो गय प्राणों का त्राण करती हो । जैसा कि गय शब्द की टिप्पणी में कहा जा चुका है, गय प्राण वह प्राण हो सकते हैं जो मनुष्य की मृत्यु के पश्चात् ब्रह्माण्ड में विभिन्न रूपों में बिखर जाते हैं - पशु के रूप में, वनस्पतियों के रूप में आदि । गायत्री इन प्राणों को फिर से पिण्ड रूप देने में समर्थ होती है ।
Trishtup in somayaaga : Trishtup chhanda is associated with tapas/penances, summer season, seeing with a difference, thunderbolt, efficiency etc. The procedure of somayaaga throws much light on the nature of trishtup. Regarding efficiency, in the first stage of somayaaga, there is a fire called the fire of south, the fire of efficiency. The presiding deity of this fire is Nala Naishadha. From puraanic literature, we are familiar that king Nala does not know the art of gambling, but he is perfect in the art of tending horses. He loses in the game of gambling. Dr. Lakshmi Narayana Dhoot has rightly pointed out that what is gambling in mythology, that is the play of dice/chance in nature. In nature, nothing is definite, everything is a chance. So, in the first stage of somayaaga, chance is dominant. When one goes to the second stage of somayaaga, there this chance changes into more definiteness. There, south direction is the direction of efficiency, and as a proof of this, in this direction, the yaaga performer gives his senses to the priests as fee for yaaga and the priests return his senses to him after making these more efficient. Moreover, it seems that the south of first stage gets changed into north of second stage. In north, there is plenty of definiteness. Regarding south, there is famous story of demon king Raavana who was killed by lord Raama. The word Raavana itself seems to be symbolic of ‘rava’, the noise. Therefore, the main aspect of south direction is to increase efficiency by decrease in noise. The other name of Raavana is Dashaanana, one who is having 10 heads. The earlier form of word ‘dasha’/ten is ‘daksha’, efficiency. The game of gambling is also called Aksha vidya/the play of dice. This aksha symbolizes in modern sciences how the energy of the universe can be made to flow through a particular object. For example, take iron which makes all the magnetic forces around itself flow through it. When one is able to form an aksha, he can use it to plough a barren field. It seems that this act is symbolized in mythology by eyes, which are also called Akshi. Not only this, one is supposed to draw his eyes for inward seeing. This is symbolized in somayaaga by blindfolding a priest. How summer season can be correlated with trishtup, is yet to be investigated properly.
Jagati in Somayaaga : Jagati chhanda has been associated with rainy season, 3rd session of somayaaga, west direction, initiation, ears etc. Let us start from the gaarhpatya/home fire in the first stage. The presiding deity of this fire is god Yama, the ruler of hell. This home fire gets converted in the second stage into a place of sitting of priests. This place is also equivalent to stomach in the body. The duty of Yama is to rectify the noise which has cropped up while performing a work, to decrease the entropy of noise. The west direction has been associated with roasting the seeds of action, so that these may not fructify in future. How this can be done, is only a guess. May be this can be done by the act of initiation where a person sits in the womb of his preceptors, like in the womb of a mother. Thus he is protected from all sides. Before initiation, one is supposed to clean all his hair. This may mean that his aspiration for become introvert should be so strong that even hair do not grow, just as in the chemotherapy in the treatment of cancer where all hair fall. Moreover, it seems that one is supposed to leave the cruelty and become non- cruel. In puraanic stories of Akruura, it has been stated that rain takes place wherever he goes. Therefore, when rainy season is associated with jagati chhanda, it may mean that one has to leave cruelty to get rain of bliss. And this cruelty is nothing but that noise which has been generated while performing a work. When jagati chhanda is said to be associated with ears, it may mean that at this stage, the direct flow of inner voice has stopped and one has to do with whatever has been heard earlier, or whatever heard by others. This is called Shruti and Smriti. The association of Jagati with the third session of somayaaga is justified on this basis because in this session, the yaaga is completed from the leftover of earlier two sessions. And in this third session, curd is also mixed with leftover soma. The curd may be symbolic of an enzyme which may make it easier to digest the leftover.
सोमयाग में त्रिष्टुप् छन्द : महावेदी में दक्षिण की मार्जालीय अग्नि का अपना विशेष महत्त्व होता है । प्राग्वंश में दक्षिण की अग्नि का नाम अन्वाहार्यपचन अग्नि है जो अर्धचन्द्राकार होती है और जिस पर ऋत्विजों हेतु ओदन आदि का पाक किया जाता है । इसका अधिपति नल होता है जो द्यूत में इतना पारङ्गत नहीं है । वह द्यूत में हार जाता है । कहा गया है कि नल अश्व विद्या जानता है, लेकिन अक्ष विद्या नहीं जानता, इसलिए द्यूत में हार जाता है । लेकिन नल भोजन पाक में, भोजन में रस उत्पन्न करने में समर्थ है । यह अक्ष विद्या क्या है, यह अन्यत्र ( विज्ञान भारती प्रदीपिका ) स्पष्ट किया जा चुका है । आधुनिक विज्ञान में अक्ष को चुम्बक के माध्यम से समझ सकते हैं । लोहे से बने चुम्बक में आसपास की सारी चुम्बकीय धारा केन्द्रित हो जाती है । यदि किसी लोहे की छड पर धातु का तार लपेट कर उसमें विद्युत का प्रवाह किया जाए तो लोहा चुम्बक बन जाता है, अक्ष बन जाता है, उसमें आसपास की धारा को खींचने की क्षमता विकसित हो जाती है । इस चुम्बक से बहुत से कार्य लिए जा सकते हैं, जैसा कि आजकल विज्ञान में किया जा रहा है । इसके विपरीत अश्व विद्या फैलने की विद्या है ।
महावेदी में स्थित मार्जालीय अग्नि इसी अन्वाहार्यपचन का रूप है या कोई अन्य विशिष्ट अग्नि है, यह अन्वेषणीय है । लेकिन सोमयाग की प्रक्रिया से ऐसा लगता है कि प्राग्वंश में गार्हपत्य अग्नि के उत्तर कोण में प्रवर्ग्य हेतु जो अग्नि का खर बनाया जाता है, प्रवर्ग्य प्रक्रिया समाप्त होने के पश्चात् इस खर की मृदा को उठाकर मार्जालीय धिष्ण्य में डालते हैं । अतः यह अनुमान लगाना चाहिए कि मार्जालीय अग्नि में प्रवर्ग्य खर के गुण होते हैं । संक्षेप में, प्रवर्ग्य इष्टि में प्रवर्ग्य खर पर महावीर संज्ञक मृत्तिका पात्र में उबलते हुए घृत में अज व गौ के दुग्ध का सिंचन करते हैं जिससे बडी ऊंची ज्वालाएं उठती हैं । इस अग्नि की स्तुति की जाती है । यह प्रवर्ग्य संभवतः शरीर के रस के घर्म रूप, ज्वाला रूप बनने का प्रतीक है और स्तुति में इसे सूर्य व चन्द्र दोनों रूप दिए गए हैं । जब त्रिष्टुप् छन्द के विषय में कहा जाता है कि यह ग्रीष्म ऋतु से, तप से, वज्र से सम्बन्धित है, तो यहां तप का तात्पर्य घर्म उत्पन्न करने से लिया जा सकता है । त्रिष्टुप् को चक्षु रूप कहा गया है । कहा गया है कि जो सुना है, वह सत्य नहीं होता, जो आंख से देखा गया है, वह सत्य है ( तैत्तिरीय ब्राह्मण )। वैदिक साहित्य में चक्षण से तात्पर्य संभवतः सूर्य और चन्द्रमा, २ प्रकार के चक्षण से है ( जैमिनीय ब्राह्मण १.७० का कथन है कि वाग् समुद्र है और मन समुद्र का चक्षण करता है । मन को चन्द्रमा से सम्बद्ध किया जाता है ) । लेकिन चक्षण के संदर्भ में उपरोक्त कथन संतुष्टि के लिए पर्याप्त नहीं लगते । इससे आगे के रहस्यों को जानने के लिए माध्यन्दिन सवन के कृत्यों पर दृष्टि डालनी होगी । माध्यन्दिन सवन में सोमाभिषव के पश्चात् ग्रावस्तुत नामक ऋत्विज अपनी आंखों पर पट्टी बांधकर सोम का स्तवन करता है । कहा गया है कि यदि वह बिना पट्टी बांधे स्तवन करे तो उससे देवताओं में विष का संचार होता है । यह आंखों पर पट्टी बांधना सम्यक् चक्षण के लिए अन्तर्मुखी होना हो सकता है । एक अन्य महत्त्वपूर्ण कृत्य वैश्वसृज होम या यजमान द्वारा ऋत्विजों को दक्षिणा दान है । दक्षता प्राप्त करने का काम अभी भी मार्जालीय अग्नि से लिया जाता है । इसीलिए माध्यन्दिन सवन में जब यजमान अपने अङ्गों को निकाल कर ऋत्विजों को दक्षिणा रूप में देता है तो यह कार्य मार्जालीय अग्नि के समीप ही सम्पन्न होता है । दक्षता प्राप्ति के संदर्भ में पुराणों में दक्ष यज्ञ के विध्वंस की कथा उल्लेखनीय है ।
दक्षता प्राप्ति के संदर्भ में एक बार फिर हमें आधुनिक भौतिक विज्ञान के इंजन की उपमा पर जाना होगा । आधुनिक विज्ञान के अनुसार ऐसा कोई इंजन नहीं है जो एक प्रकार की ऊर्जा को दूसरे प्रकार की ऊर्जा में शत प्रतिशत बदल सके । उदाहरण के लिए, विद्युतीय ऊर्जा का रूपान्तरण यान्त्रिक ऊर्जा में किया जाता है । इस प्रक्रिया में ऐसा नहीं है कि विद्युतीय ऊर्जा १०० प्रतिशत यान्त्रिक ऊर्जा में बदल जाती हो । उसका एक भाग ऊष्मा के रूप में नष्ट हो जाता है । आवश्यकता इस बात की है कि इंजन की दक्षता में क्रमशः वृद्धि की जाए । वैदिक साहित्य में यह कार्य त्रिष्टुप् छन्द की क्रमिक प्रगति द्वारा दिखाया गया है । प्राग्वंश में दक्षिणाग्नि का अधिपति नल है जो जूए के कारण प्रसिद्ध है, वह जूआ भी खेलना नहीं जानता । डा. लक्ष्मीनारायण धूत के अनुसार जूए से तात्पर्य होता है कि इस संसार में जो घटनाएं घटित हो रही हैं, वह एक जूए के पांसों के रूप में हो रही हैं, वह घट भी सकती हैं, नहीं भी । लेकिन सोमयाग की महावेदी में आने पर दक्षता में वृद्धि हो जाती है । अतः किसी घटना का आकस्मिक रूप में घटित होना यहां समाप्तप्राय हो जाता है ।
सोमयाग में माध्यन्दिन सवन में ग्रावस्तुत ऋत्विज अपनी आंखों पर पट्टी बांधकर ऋचाओं द्वारा स्तुति करता है । ग्रावा सोम कूटने के पत्थरों को कहते हैं । वैदिक साहित्य में कहा गया है कि ग्रावाण: सोम कूटते समय शब्द करते हैं । एक ओर ग्रावाण: हैं तो दूसरी ओर रावण है । रव शोर को कहते हैं । हमारे अंदर कोई भी क्षोभ उत्पन्न हो, उसे रव कह सकते हैं । रव की दूसरी व्याख्या आधुनिक विज्ञान के आधार पर इस प्रकार कर सकते हैं कि कोई कार्य कितनी भी दक्षतापूर्वक क्यों न किया जाए, उसमें १०० प्रतिशत दक्षता नहीं लाई जा सकती । उस कार्य का कुछ न कुछ अंश बेकार चला जाता है । वह रव है । वह हमें अभिभूत कर लेता है । अपेक्षा इस बात की है कि वह रावा ग्रावा बने, सोम कूटने का पत्थर बने, वह व्यर्थ न जाने पाए । यही रावण का वध हो सकता है । यह दक्षता प्राप्त करने की दिशा है । रावण को सीता प्राप्त करने की कामना है । सीता पृथिवी का कर्षण करने से उत्पन्न होती है । जहां पृथिवी का प्राण रूपी हल से कर्षण किया जा सकता है, उसे ग्राम्य प्रदेश कहते हैं । जहां प्राण रूपी हल से पृथिवी का कर्षण नहीं किया जा सकता, उसे अरण्य कहते हैं ( शतपथ ब्राह्मण ) । राक्षस अरण्य में वास करते हैं । हल को वैदिक साहित्य में अक्षों में से एक कहा जाता है और त्रिष्टुप् छन्द की व्याख्या के संदर्भ में ऊपर उल्लेख किया जा चुका है, अक्ष विद्या नल की कथा के माध्यम से अन्वाहार्यपचन अग्नि से और अन्वाहार्यपचन अग्नि त्रिष्टुप् छन्द से जुडी है । लेकिन इससे भी आगे समस्या यह है कि वैदिक साहित्य में त्रिष्टुप् को चक्षु से सम्बद्ध किया गया है । वैदिक साहित्य में प्रायः कहा जाता है कि अक्षियों में चक्षु विकसित करना है, कर्ण में श्रोत्र आदि( तैत्तिरीय आरण्यक आदि )। अतः अक्ष और अक्षियों से भी आगे चक्षु का विकास कैसे होगा, यह एक विचारणीय विषय है ।
इस सवन में निष्पन्न किए जाने वाले कृत्यों में एक निष्केवल्य शस्त्र होता है और यह अनुमान लगा सकते हैं कि निष्केवल्य शस्त्र समाधि के समकक्ष कोई स्थिति हो सकती है । यह अनुमान लगाया जा सकता है कि माध्यन्दिन सवन में यजमान समाधि में प्रवेश और समाधि से व्युत्थान करता है और इस प्रकार उसे सम्यक् चक्षण की क्षमता प्राप्त होती है ।
सोमयाग में जगती छन्द : पश्चिम दिशा में ऋत्विजों व यजमान के बैठने का स्थान होता है जिसे सदोमण्डप कहते हैं । सदोमण्डप की ६ धिष्ण्य संज्ञक अग्नियां प्रायः बुझी हुई अवस्था में रहती हैं और जब कभी आवश्यकता होती है, आग्नीध्र नामक उत्तर दिशा का ऋत्विज उन्हें अपनी अग्नि से प्रज्वलित करता है । इन अग्नियों के अधिपति मर्त्य और अमर्त्य स्तर से सम्बन्धित २ नामों वाले गन्धर्व होते हैं जिन्हें यह शाप मिला हुआ है कि उन्हें सोम प्राप्त नहीं होगा, केवल घृत की आहुति ही प्राप्त होगी । यज्ञ में इन ६ धिष्ण्य अग्नियों का नियन्त्रण मैत्रावरुण, होता, नेष्टा, पोता, अच्छावाक् आदि ऋत्विज करते हैं । सदोमण्डप में ही एक औदुम्बरी स्तम्भ होता है जो पृथिवी से निकलने वाली ऊर्क् का प्रतीक है और यह ऊर्क् अन्न रूप है । स्वयं सदोमण्डप उदर रूप होता है और इस प्रकार इस सदोमण्डप रूपी उदर की पूर्ति ऊर्क रूपी अन्न से होती है । यह पश्चिम दिशा का बहुत अच्छा उदाहरण है ।
यह उल्लेखनीय है कि प्राग्वंश में उत्तर की अग्नि का अस्तित्व प्रायः नगण्य होता है । पूर्व में आहवनीय और पश्चिम में गार्हपत्य अग्नि होती है । गार्हपत्य अग्नि का अधिपति यम होता है और यम से स्पष्ट है कि प्राग्वंश की अवस्था में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है कि कर्मों के फल से बचा जा सके । यम द्वारा नियत कर्मों के फल को भोगना ही पडेगा ।
प्राग्वंश की गार्हपत्य अग्नि और उत्तरवेदी के सदोमण्डप की तुलना उल्लेखनीय है । लगता है कि गार्हपत्य अग्नि का परिष्कृत रूप ही सदोमण्डप बना है ( पुष्टि के लिए देखें शतपथ ब्राह्मण ७.१.१.१०) । सोमयाग के आरम्भ में यजमान द्वारा दीक्षा ग्रहण की जाती है और यह कार्य गार्हपत्य अग्नि पर किया जाता है । ऐतरेय ब्राह्मण आदि में आता है कि सबसे पहले जगती सोम प्राप्ति के लिए गई लेकिन उसे अपने ४ अक्षरों में से ३ को खोना पडा और उसके साथ में दीक्षा भी जुड गई । अतः दीक्षा जगती का पहला रूप है जो गार्हपत्य पर सम्पन्न होता है । दीक्षा कृत्य में सबसे पहले नापित यजमान के पूरे शरीर के केशों का क्षौर कर्म करता है । फिर यजमान विभिन्न प्रकार की दीक्षाएं ग्रहण करता है । दीक्षा क्रम में वह कृष्णाजिन दीक्षा भी ग्रहण करता है । दीक्षा के माध्यम से यजमान विभिन्न प्रकार की योनियों में गर्भ रूप बनता है जिससे उसे कोई हानि न पहुंचा सके । उदाहरण के लिए, द्यौ सूर्य रूपी यजमान को गर्भ में धारण करती है, अन्तरिक्ष वायु रूपी यजमान को, पृथिवी अग्नि को, दिशाएं चन्द्रमा को आदि ( तैत्तिरीय ब्राह्मण ३.७.७.२), पृथिवी सब भूतों को गर्भ में धारण करती है ( अथर्ववेद ५.२५) । गर्भ स्वयं की रक्षा करने में असमर्थ होता है, उसकी रक्षा अन्य करते हैं । दीक्षा क्रम में क्षौर कर्म से तात्पर्य अपनी चेतना को अन्तर्मुखी करने से हो सकता है - जहां केश, लोम भी बहिर्मुखी न होने पाएं । दीक्षा कर्म में पावमानी मन्त्रों का पाठ ( तैत्तिरीय ब्राह्मण १.४.८), गार्हपत्य अग्नि से विभिन्न पापों को दूर करने की प्रार्थना( तैत्तिरीय ब्राह्मण ३.७.१२ ), व अरिष्टनेमि तार्क्ष्य की स्तुति ( सामवेद १.४.१.५.१) उल्लेखनीय हैं । दीक्षा के संदर्भ में ही अथर्ववेद ६.८१ में अश्वत्थ द्वारा शमी में गर्भ स्थापित किया जाता है ।
द्वापर में कृष्ण द्वारा पश्चिम दिशा में द्वारका की स्थापना की कथा सर्वविदित है । द्वारका के संदर्भ में २ कथाएं महत्त्वपूर्ण हैं - एक तो अक्रूर द्वारा स्यमन्तक मणि का ग्रहण, अक्रूर के निवास से अनावृष्टि भय से मुक्ति व दूसरा मूसल द्वारा यादवों का नाश । अक्रूर के संदर्भ में वैदिक साहित्य में उल्लेख आता है कि अक्रूर चक्षु से देखे । यह स्थिति दीक्षा की स्थिति के लिए बहुत उपयुक्त है जहां गर्भ में स्थित हो जाने पर क्रूर चक्षु से देखने की संभावना नहीं रहती । जब तक क्रूरता रहेगी, आनन्द की वर्षा नहीं होगी । इसके पीछे रहस्य यह हो सकता है कि हमारे शरीर में मूत्र व स्वेद के नि:सरण को भी वृष्टि का रूप माना जाता है । और आयु की दृष्टि से यह दोनों कर्म क्रूर कर्म हैं, इनसे आयु की हानि होती है । अमृतत्व के लिए यह अपेक्षित है कि न स्वेद का नि:सरण हो ( हनुमान की भांति )और न मूत्र का । तभी वास्तविक वृष्टि का साक्षात्कार हो सकता है । मूसल द्वारा यादवों के नाश को कर्म फल के नष्ट न होने की स्थिति समझा जा सकता है । इसके अतिरिक्त क्रूर कर्म को यज्ञ के एक अन्य कृत्य से भी समझा जा सकता है । सोम का सोमशकट में वहन करते समय यजमान - पत्नी शकट के धुरे व चक्रों के बीच आज्य लगाती है जिससे उनके घर्षण से क्रूर वाक् न निकले । अक्ष के केवल मुख भाग ही ऐसे हो सकते हैं जहां से ऊर्जा बाहर निकल सकती है और इस ऊर्जा का उपयोग संसार रूपी चक्र में प्रवेश करने के लिए किया जाता है । इस सन्धि में क्रूरता नहीं आनी चाहिए । भौतिक विज्ञान के दक्षता के तन्त्र के उदाहरण में क्रूरता क्या है, यह ऊपर के वर्णन से सरलता से समझा जा सकता है । यह ऊर्जा रूपान्तरण में ऊर्जा का क्षय है ।
तृतीय सवन को आर्भव पवमान कहा जाता है और इसमें मनुष्य से देव बने ऋभु गण का प्राधान्य कहा गया है । ऋभुओं पर अन्यत्र लिखी एक टिप्पणी में यह संकेत किया गया है कि ऋभु संभवतः ऋत् की ओर संकेत करते हैं । एक सत्य होता है, एक ऋत् । मर्त्य स्तर पर सत्य का साक्षात्कार नहीं हो सकता, ऋत् का हो सकता है । ऋत् का साक्षात्कार प्रायः खराब - अच्छे शकुनों के रूप में होता है । तृतीय सवन जगती छन्द से सम्बद्ध होता है, अतः परोक्ष रूप में शकुन - अपशकुन भी जगती से सम्बन्धित होने चाहिएं । और जब वैदिक साहित्य में प्रायः कहा जाता है कि जगती श्रोत्र से सम्बन्धित है, तो उसका अभिप्राय भी यही हो सकता है कि यह श्रुत ज्ञान को स्मार्त्त ज्ञान में रूपान्तरित करने में समर्थ है । जैसा कि ऋभुओं पर लिखी गई टिप्पणी में कहा गया है, सोमयाग में तृतीय सवन का आर्भव पवमान नाम होते हुए भी कहीं ऋभुओं का नाम नहीं आता, केवल ऋग्वेद के सूक्तों में इनकी देवरूप में स्तुति मिलती है । अतः ऐसा प्रतीत होता है कि ऋभुओं की स्थिति प्राप्त करना जगती छन्द की पराकाष्ठा है । ऋभुगण तीन ( ऋभु, विभु व वाज ) क्यों हैं, यह एक अन्य महत्त्वपूर्ण प्रश्न है । हो सकता है कि ज्ञान, भावना व कर्म, या मन, प्राण और वाक् इन तीन स्तरों पर क्रूर ऊर्जा के अक्रूरता में बदलने की आवश्यकता पडती हो ।
पुराणों में दक्ष यज्ञ के आख्यान में दक्ष श्मशानवासी शिव का अनादर करता है । अतः उसका यज्ञ नष्ट हो जाता है । यह श्मशान भी जगती से सम्बद्ध होना चाहिए ।
जैसा कि त्रिष्टुप् के संदर्भ में ऊपर कहा गया है, एक इंजन द्वारा जब एक प्रकार की ऊर्जा का रूपान्तरण दूसरे प्रकार की ऊर्जा में होता है तो यह कार्य १०० प्रतिशत दक्षता वाला नहीं होता, ऊर्जा के कुछ भाग का क्षय ऊष्मा आदि के रूप में हो जाता है । जगती के संदर्भ में जगती को इस क्षय को प्राप्त हुई ऊर्जा माना जा सकता है जिसका किसी न किसी प्रकार से उद्धार करना है । ऐतरेय ब्राह्मण ३.४७ व ३.४८ के आधार पर यह माना जा सकता है कि चेतना के संदर्भ में चेतन मन से अचेतन मन की ओर जाना ही ऊर्जा का क्षय रूप है । जगती छन्द ऊर्जा के नष्ट हुए भाग से सम्बन्धित हो सकता है, इसका प्रमाण आर्भव पवमान नाम से पुकारे जाने वाले तृतीय सवन में मिलता है जो जगती छन्द से सम्बन्धित है । इस सवन में देवों को अर्पित करने के लिए सोम नहीं बचता, वह दूसरे सवन तक समाप्त हो जाता है । अतः सोमलता से सोम को निचोडने के बाद जो सोमलता या ऋजीष बचता है, उसमें मथित दधि मिलाकर उस जल का सोम के रूप में उपयोग किया जाता है । दधि मिलाने से क्या तात्पर्य हो सकता है, यह अन्वेषणीय है । कहा गया है कि दधाति इति दधि, अर्थात् जो ( घृत?) को धारण करता है, वह दधि है । शरीर के स्तर पर उदर में स्रवित होने वाला इन्सुलिन रस हमारे भोजन से प्राप्त अतिरिक्त ऊर्जा का भण्डारण कर देता है । अतः इसे भी दधि कहा जा सकता है । फिर जब हमारे शरीर को आवश्यकता होती है तो वह इस संचित ऊर्जा का उपयोग कर सकता है । इसी प्रकार यज्ञ के बारे में भी सोचा जा सकता है । वैदिक साहित्य में ऋजीष का बहुत महत्त्व है । ऋग्वेद की बहुत सी ऋचाओं में इन्द्र को ऋजीषी कहा गया है । ऋग्वेद ८.३२ सूक्त ऋजीषियों द्वारा किए जाने वाले कृत्यों का गुणगान करता है । सायण ने एक स्थान पर अपनी व्याख्या में इस शरीर को ही ऋजीष कहा है ।। इस शरीर को मृत्यु से बचाना और शरीर का पालन करना ही ऋजीष का कार्य है । सोमयाग के अन्त में ऋजीष को जल या आपः में प्रवाहित कर दिया जाता है । यहां प्रवाह महत्त्वपूर्ण है क्योंकि ऐसा अनुमान है कि प्रवाहमान वस्तु पर प्रकृति के द्यूत का नियम न्यूनतम रूप में लागू होता है ।
सोमयाग में तृतीय सवन में अन्तिम कृत्य हारियोजन ग्रह होता है । इस कृत्य में उन्नेता नामक ऋत्विज द्रोणकलश में सोमरस डालकर वौषट् सहित उसकी आहुतियां महावेदी की आहवनीय अग्नि में देता है । फिर उस द्रोणकलश में धान पकाकर उसका सब ऋत्विजगण भक्षण करते हैं ( चूंकि धान हरियों के लिए होता है, अतः ऋत्विजों को हरियों का रूप होना चाहिए ) । इसमें प्रयुक्त होने वाले मन्त्रों में योजा नु इन्द्र ते हरी का उल्लेख आता है । कहा गया है कि ऋक् व साम ही इन्द्र के २ हरि हैं । ब्राह्मण ग्रन्थों में सार्वत्रिक रूप से यह उल्लेख आता है कि यत् कर्म क्रियमाणम् ऋग् अभिवदति - अर्थात् ऋक् वह है जो किसी कर्म का सम्पादन करने से पूर्व ही कर्म का आभास करा देती है । जगती के संदर्भ में उपरोक्त वर्णन से यह स्पष्ट हो जाता है ।
साहित्य में प्रायः गायत्री को पृथिवी व ८ वसुओं से, त्रिष्टुप् को अन्तरिक्ष व ११ रुद्रों से, जगती को द्युलोक व १२ आदित्यों से सम्बद्ध किया जाता है । हो सकता है कि यह उपरिवर्णित दिशाओं में भ्रमण की अपेक्षा ऊर्ध्वमुखी विकास की स्थिति हो । कहा गया है आदित्य जगती छन्द में भ्रमण करता है । इसका एक कारण यह दिया गया है कि चूंकि आदित्य के उदय होने पर जगत सक्रिय हो जाता है, जाग जाता है, इसलिए ऐसा कहा गया है । ऐसा संभव है कि कर्मों के फल का क्षय होने के पश्चात् ऐसी स्थिति उत्पन्न हो सकती हो जब आदित्य उदित होता हो । आदित्य के उदय से तात्पर्य यह हो सकता है कि मर्त्य स्तर पर जीवन का सारा व्यापार बहुत मन्द गति से अग्रसर होने वाली चेतना द्वारा सम्पन्न होता है । यदि पैर के अंगूठे में चोट लग जाए तो मस्तिष्क तक उसकी सूचना पहुंचने में बहुत समय लग जाता है । आदित्य के उदित होने पर जीवन का व्यापार विद्युत की गति से चलने लगता है । तृतीय सवन का कृत्य अङ्गिरसों के उत्थान के लिए है । अङ्गिरस बहुत धीमी गति से प्रगति करने वाले प्राण हैं । आदित्य इन अङ्गिरस प्राणों को तीव्र गति प्रदान कर सकते हैं । अन्य स्थान पर कहा गया है कि जगती में एक किरण? शतधा सहस्रधा विभाजित हो सकती है । जैमिनीय ब्राह्मण १.२७२ में जगती को भूमा कहा गया है । अन्यत्र सार्वत्रिक रूप से जगती को वर्षा ऋतु के साथ सम्बद्ध किया जाता है । यह वर्षा भी आनन्द की वर्षा होनी चाहिए जिसका संकेत भूमा शब्द में मिलता है । बाह्य जगत में वर्षा किस प्रकार होती है, इससे हम परिचित ही हैं, लेकिन वैदिक कर्मकाण्ड में वर्षा के ५ स्तर गिनाएं गए हैं - पुरोवात को उत्पन्न करना, मेघों का संप्लावन, मेघों का गर्जन, विद्युत का चमकना और अन्त में वौषट् द्वारा मेघों का वर्षण । इस प्रकार जिस प्रकार से इन पांच स्तरों का संपादन किया जाएगा, उसी प्रकार की वर्षा होगी ।
सोमयाग में अनुष्टुप् छन्द : सोमयाग के सदर्भ में अनुष्टुप् छन्द को समझने के लिए तृतीय सवन के पश्चात् यज्ञायज्ञीय स्तोत्र का गान उल्लेखनीय है । यद्यपि इस साम का मूल बृहती व सतोबृहती छन्दों में है, लेकिन जैमिनीय ब्राह्मण १.२८४ का कथन है कि सामगान के समय इसमें वाग् अक्षर जोड देने से यह अनुष्टुप् के समकक्ष बन जाता है । कहा जाता है कि यज्ञायज्ञीय गान के पश्चात् यजमान में वरदान देने की सामर्थ्य आ जाती है । अतः किसी की कामना पूर्ति का जो भी कार्य करना होता है, वह यजमान यज्ञायज्ञीय अग्निष्टोम साम के पश्चात् ही करता है । जैमिनीय ब्राह्मण १.२९९ का कथन है कि जहां गायत्र स्वारम् है, त्रैष्टुभ निधनवत् है, जागत साम ऐळम् है, वहीं आनुष्टुभ साम ऋक्सम प्राजापत्य है ।
ऐतरेय ब्राह्मण ३.१३ में सोमयाग में प्रजापति के अनुष्टुप् छन्द को तीनों सवनों से मृत्यु को हटाने वाला कहा गया है । ऐसा कैसे हो सकता है ? अदिति को ब्राह्मण ग्रन्थों में उभयतःशीर्ष्णी वाक् कहा गया है । उभयतः शीर्ष का अर्थ यह दिया गया है कि जिसका पर व अपर न हो, दोनों सिरे परस्पर जुडे हों । लगता है कि यह स्थिति तभी आ सकती है जब वाक् परिक्रमा कर रही हो । ऋग्वेद १०.१३०.४ में सोम को अनुष्टुप् व उक्थों द्वारा महस्वान् होते कहा गया है । सोमयाग में यज्ञायज्ञीय सामगान के पश्चात् उक्थ स्तोत्र होते हैं और उक्थ का अर्थ सोए हुए प्राणों को जगाना लिया जा सकता है । तैत्तिरीय आरण्यक ३.९.१ में अनुष्टुप् को विष्णु की पत्नी कहा गया है ।
ब्राह्मणों में छन्दों के सामूहिक कथन : यह जानना महत्त्वपूर्ण होगा कि छन्दों के सामूहिक रूप से उल्लेख ब्राह्मण ग्रन्थों में कहां - कहां आए हैं । इस संदर्भ में शतपथ १.२.५.६, १.३.२.१६, ६.३.१.३८, १०.३.१.१, ११.५.९.७, १२.२.४.२, १२.३.४.३, १४.३.१.४, तैत्तिरीय ब्राह्मण १.५.१२.५, १.७.१०.३, २.६.१७.१, २.७.१५.५, ३.८.१२.१, तैत्तिरीय आरण्यक ३.९.१, ४.११.१, ५.५.१, ५.१२.१ आदि उल्लेखनीय हैं । शतपथ ब्राह्मण ८.६.२.६ में छन्दस्य इष्टकाओं की स्थापना का वर्णन विशेष रूप से महत्त्वपूर्ण है । इसमें छन्दस्य इष्टकाओं की स्थापना पुरुषाकार रूप में की जाती है । शिर में गायत्री, ग्रीवा में उष्णिक्, उर में त्रिष्टुप्, मध्य में स्वयमातृण्णा, पर्शुओं में बृहती, कीकसा में ककुप्, उदर में अतिच्छन्दा, श्रोणी में जगती, सक्थियों में अनुष्टुप्, पक्षों में पंक्ति आदि । ग्रीवा में उष्णिक् रखने के महत्त्व को समझने की आवश्यकता है । शिर को ग्रीवा के माध्यम से शरीर के शेष भाग से पृथक् कर दिया गया है जिससे सिर की विशेष स्थिति सुरक्षित रहे । लगभग सभी छन्दस्य इष्टकाओं की स्थापना स्वयमातृण्णा, केन्द्रीय प्राण के सापेक्ष की जाती है । जगती छन्द को श्रोणी में स्थान देकर यह स्पष्ट किया गया है कि जगती का कार्य मल से ऊर्जा का सम्पादन करना है । अतिच्छन्दा को अत्तिछन्दा कहा गया है जो अन्न का भक्षण करता है ।
पुराणों के माध्यम से छन्दों की प्रकृति पर प्रकाश :
भागवत पुराण के १२ स्कन्धों में से प्रथम ६ के बारे में ऐसा अनुमान है कि यह द्वादशाह नामक सोमयाग के अभिप्लव षडह नामक प्रथम ६ दिवसों की व्याख्या हो सकते हैं । यह दिवस क्रमशः गायत्री, त्रिष्टुप्, जगती, विराट्, पंक्ति व अतिच्छन्दा छन्दों से सम्बद्ध कहे गए हैं ( शतपथ १२.२.४.२) । इससे आगे छन्दोम कहे जाने वाले ३ दिवस होते हैं जिन्हें क्रमशः गायत्री, त्रिष्टुप् व जगती से सम्बद्ध किया गया है ( जैमिनीय ब्राह्मण ) । भागवत पुराण के प्रथम स्कन्ध में परीक्षित् द्वारा कलि द्वारा धर्म रूपी वृषभ का ताडन, शृङ्गी ऋषि द्वारा परीक्षित् को उत्तर न देना, परीक्षित् द्वारा कलि के प्रभाव से शृङ्गी ऋषि के गले में मृत सर्प डालना, ऋषि - पुत्र द्वारा परीक्षित् को तक्षक सर्प के दंशन से मृत्यु का शाप, परीक्षित् द्वारा शुकदेव का साक्षात्कार करने की कथाएं हैं । यह परिक्षित् कौन हो सकता है ? ऋग्वेद का तो कथन है कि परिक्षिता: पितरा पूर्वजावरी, अर्थात् जो पूर्व और अवर पितर हैं, वही परिक्षित् हैं । सामान्य भाषा में कहें तो कह सकते हैं कि हमारी संसार में बिखरी हुई वृत्तियां ही परिक्षित् हैं जिनको गायत्री छन्द की सिद्धि के लिए समाप्त करना है । और सबसे महत्त्वपूर्ण तथ्य है परिक्षित् द्वारा शुक का साक्षात्कार । ब्राह्मण ग्रन्थों में जिसे अज कहा गया है, वही यहां शुक हो सकता है ।
भागवत के द्वितीय स्कन्ध में विष्णु के विराट रूप का तथा सृष्टि विषयक वर्णन हैं । यह स्कन्ध त्रिष्टुप् से सम्बन्धित है । विराट रूप से तात्पर्य है कि देह के किसी अङ्ग को दक्षता के द्वारा कितना विराट रूप दिया जा सकता है । नल के आख्यान में नल के साथ २ विद्याएं जुडी हैं - अश्व विद्या व अक्ष विद्या । ऊपर के वर्णन में अक्ष विद्या का उल्लेख तो आ चुका है लेकिन अश्व विद्या का नहीं । भागवत के इस स्कन्ध में त्रिष्टुप् छन्द के इस महत्वपूर्ण गुण को स्पष्ट किया गया है ।
भागवत के तृतीय स्कन्ध में यज्ञवराह द्वारा हिरण्याक्ष का वध करके पृथिवी का उद्धार, कर्दम व देवहूति का विवाह, देवहूति द्वारा तप करके कपिल मुनि को पुत्र रूप में प्राप्त करना और कपिल के उपदेश से देवहूति व कर्दम के मोक्ष की कथाएं हैं । तृतीय स्कन्ध जगती छन्द से सम्बन्धित है और जिस अक्ष का निर्माण त्रिष्टुप के संदर्भ में अपेक्षित होता है, वहीं जगती के संदर्भ में इसे पृथिवी का हरण करने वाला कहा जा रहा है । इसकी आगे व्याख्या भविष्य में अपेक्षित है । कर्दम, कीचड को वही क्रूर वाक्, क्रूर दृष्टि, ऊर्जा का क्षय कहा जा सकता है जिसको ऊपर जगती छन्द के संदर्भ में स्पष्ट किया जा चुका है । देवहूति से तात्पर्य दिव्य वर्षा की अभीप्सा करने वाला हो सकता है, जिस प्रकार मण्डूक को वर्षा की अभीप्सा करने वाला कहा जाता है ।
भागवत के चतुर्थ स्कन्ध में ध्रुव के तप का आख्यान, पुरञ्जन उपाख्यान, पृथु द्वारा विराज गौ रूपी पृथिवी को समतल बनाना, ब्रह्माण्ड के विभिन्न वर्गों द्वारा विराज गौ के दोहन की कथाएं हैं । यह स्कन्ध विराट् और संभवतः अनुष्टुप् छन्द से भी सम्बन्धित है । अनुष्टुप् छन्द की पहली आवश्यकता ध्रुव स्थिति का निर्माण है जिससे परा वाक् में उत्पन्न संकेत या शकुन वैखरी वाक् तक अवतरण करने में समर्थ हो सके । ध्रुव का अर्थ चञ्चलता, अव्यवस्था को समाप्त करना हो सकता है । यह विचारणीय विषय है कि भौतिक विज्ञान में यदि किसी संकेत का कम एण्ट्रांपी के तन्त्र से प्रेषण किया जाता है तो क्या वह उच्च एण्ट्रांपी के तन्त्र द्वारा ग्रहण किया जा सकता है ? अनुमान है कि ऐसी स्थिति में संकेत से महत्त्वपूर्ण सूचनाएं नष्ट हो जाएंगी । सोमयाग के संदर्भ में आग्नीध्र के पुर को अनुष्टुप् से सम्बद्ध कहा गया है जो आधा बहिर्वेदी में और आधा अन्तर्वेदी में होता है । पुर का निर्माण, एक निश्चितता का निर्माण, ब्राह्मण ग्रन्थों की भाषा में प्रतिष्ठा अनुष्टुप् की विशेषता है । पुर में कोई हानि नहीं हो सकती । भागवत का यह स्कन्ध पुर की अन्य प्रकार से व्याख्या करता है । फिर त्रिष्टुप् के संदर्भ में तो विराट् बनने की बात थी, यहां विराज गौ रूपी पृथिवी का दोहन करके उससे अभीप्सित फल प्राप्त करने की बात है । शतपथ ब्राह्मण ४.२.४.२२ का कथन है कि गायत्री यजमान के लिए सब कामों का दोहन करने के लिए तैयार रहती है । दोहन ध्रुव पात्र में किया जाता है । सोमयाग में भी यज्ञायज्ञीय अनुष्टुप् साम के पश्चात् अभीष्ट वरों की प्राप्ति की जाती है । यह कहा जा सकता है कि यह वाक् की दक्षता है । त्रिष्टुप् दक्षिण में है तो अनुष्टुप् उत्तर दिशा में ।
शतपथ ब्राह्मण में पांचवें छन्द पंक्ति छन्द के विषय में कहा गया है कि पंक्ति छन्द पृथु होता है । लेकिन पृथु की कथा भागवत पुराण के चतुर्थ स्कन्ध में आ चुकी है । अतः भागवत के अन्य स्कन्धों की व्याख्या भविष्य में अपेक्षित है । भागवत के सातवें, आठवें व नवम स्कन्ध फिर गायत्री, त्रिष्टुप् और जगती छन्दों से सम्बन्धित हैं और जैमिनीय ब्राह्मण के तृतीय काण्ड में द्वादशाह के संदर्भ में छन्दोमों की व्याख्या करते समय कहा गया है कि इन छन्दोम दिनों में छन्दों के सम्पूर्ण अक्षर मिलकर स्तोमों के समकक्ष प्रभाव वाले बन जाते हैं । इसे इस प्रकार समझा जा सकता है कि गायत्री पहले ४ अक्षरों वाली ही थी । फिर उसने त्रिष्टुप् के १ और जगती के ३ अक्षर ग्रहण कर लिए और वह ८ अक्षरों वाली बन गई । यदि गायत्री के तीनों पदों के अक्षरों को गिनें तो वह २४ होते हैं । इसी प्रकार अन्य छन्दों के विषय में भी कहा जा सकता है । यह छन्दों का क्रमशः विकसित होता हुआ रूप है ।
भागवत के नवम स्कन्ध में विभिन्न राजर्षियों के तप की कथाएं हैं । यह स्कन्ध जगती छन्द से सम्बन्धित है । इसमें भगीरथ द्वारा अपने पितरों की अस्थियों के उद्धार के लिए गङ्गा के अवतारण की कथा जगती के संदर्भ में बहुत महत्त्वपूर्ण है । ऐतरेय आरण्यक में जगती को अस्थि कहा गया है और इस आधार पर जगती की व्याख्या की जा सकती है । वैदिक साहित्य के अनुसार इस विश्व की २ प्रकार की स्थितियां हैं - एक गतिशील, स्वयं स्पन्दनशील और दूसरी ठहरी हुई, तस्थुष: । रात्रि ऐसी होती है जहां जगती की गति स्तम्भित हो जाती है ( ह्वयामि रात्रीं जगतो निवेशनीं - ऋग्वेद ) । जैसा के ऊपर के वर्णन से स्पष्ट है, जगती सबसे अधिक अव्यवस्थित ऊर्जा के साथ व्यवहार करता है । इस अव्यवस्था को चञ्चलता भी कह सकते हैं । अतः इस चञ्चलता को विराम देना अभीष्ट है । पुराणों में कथा आती है कि गौ ने सभी देवों को अपने शरीर में स्थान दिया लेकिन लक्ष्मी को नहीं दिया क्योंकि लक्ष्मी चञ्चल है । अन्त में लक्ष्मी को शकृत या गोबर में स्थान दिया गया । विष्णु जिस शेषनाग पर शयन करते हैं, वह शेष भी शेष ऊर्जा, ऊपर वर्णित वही चञ्चल ऊर्जा हो सकता है । विष्णु इस चञ्चल ऊर्जा को व्यवस्थित कैसे करते हैं, यह अन्वेषणीय है ।
ब्रह्मवैवर्त्त पुराण में कृष्ण व रुक्मिणी के विवाह के वर्णन में सावित्री व गायत्री की हास्योक्तियां दी गई हैं । सावित्री अपनी हास्योक्ति में विदग्ध शब्द का प्रयोग करती है जबकि गायत्री अक्षोभ्य । गायत्री के संदर्भ में अक्षोभ्य व सावित्री के संदर्भ में विदग्ध शब्द महत्त्वपूर्ण हैं । सावित्र ग्रह की प्रतिष्ठा सोमयाग में तृतीय सवन में होती है जो जगती से सम्बन्धित है । गायत्री के संदर्भ में पहले ही कहा जा चुका है कि वह अज स्थिति से सम्बन्धित है ।
देवीभागवत पुराण के स्कन्ध १२ में गायत्री गौतम ऋषि को अक्षय अन्न पात्र प्रदान करती है । इसका व्यावहारिक रूप क्या होगा, यह अन्वेषणीय है । वैसे ब्रह्मवैवर्त्त पुराण में गायत्री के साथ अक्षोभ्य शब्द जोडने और देवीभागवत पुराण में अक्षय अन्न पात्र प्रदान करने में बहुत साम्य है । अक्षोभ्य स्थिति ही अक्षय अन्न पात्र हो सकती है ।
स्कन्द पुराण व पद्म पुराण आदि में ब्रह्मा के सोमयाग में इन्द्र द्वारा गायत्री को ब्रह्मा की पत्नी बनाने व यज्ञ के अन्त में सावित्री के शाप व गायत्री के उत्शापों का वर्णन है ।
छन्दों व ग्रहों का सम्बन्ध : ब्राह्मण ग्रन्थों में गायत्री छन्द को उपांशु ग्रह से, त्रिष्टुप् को अन्तर्याम ग्रह से(तैसं ३.१.६.२), जगती को शुक्र ग्रह से, अनुष्टुप् को मन्थी ग्रह से व पंक्ति को आग्रयण ग्रह से सम्बद्ध किया गया है । इसमें शुक्र ग्रह की व्याख्या महाभारत के एक स्थल के आधार पर की जा सकती है । शुक्र या शुक्ल वर्ण साधना की चरम परिणति है । इससे पूर्व कृष्ण, नील, हरित , पीत आदि वर्ण आते हैं । अतः जगती छन्द को शुक्र ग्रह के साथ सम्बद्ध करना उपयुक्त ही है क्योंकि जगती छन्द पापों के क्रमिक नाश से सम्बन्धित है । शुक्र ग्रह के लिए मन्त्र में कहा जाता है कि निरस्तो शण्ड: । शण्ड को पुराणों में शाण्डिल्य ऋषि के आधार पर समझ सकते हैं । पापों का नाश करके षण्ढ स्थिति को प्राप्त करना शाण्डिल्य ऋषि का प्रतीक हो सकता है । अनुष्टुप् छन्द के मन्थी ग्रह के संदर्भ में मन्त्र अयं वेनश्चोदयत् पृश्निगर्भा इत्यादि आता है । वेन की कथा भागवत के चतुर्थ स्कन्ध में आती है जिसके मन्थन से निषाद व पृथु की उत्पत्ति होती है । अनुमान है कि ऐसा कोई विचार जो सारे व्यक्तित्व का मन्थन करके रस दे, मन्थी ग्रह से सम्बन्धित हो सकता है । अन्य छन्दों के अन्य ग्रहों की व्याख्याएं अपेक्षित हैं ।
Paper presented at World Congress on Vedic Sciences, Bangalore, 9-13 August, 2004
Revised : 27-12-2008 AD( Pausha amaavaasyaa , Vikrama samvat 2065)
छन्दस्
१. अति वा एषो अन्यानि छन्दांसि यदतिच्छन्दाः । जै २, ३९२ ।
२. अद्भ्यः सोमꣳ व्यपिबच्छन्दोभिर्हꣳसः शुचिषत् । मै ३, ११, ६ ।
३. उखा निर्माणम् -- अष्टास्तनां करोति छन्दसां दोहाय । तैसं ५, १, ६, ४ ।
४. इन्द्रियं वीर्य्यं छन्दाꣳसि । तां ६, ९, २६ ।
५. उपबहर्णं ददाति । एतद्वै छन्दसां रूपम् । क ४४, ४ ।
६. ऋत्विजो वृणीते, छन्दाꣳ स्येव वृणीते, सप्त वृणीते, सप्त ग्राम्याः पशवः, सप्ताऽऽरण्याः, सप्त छन्दाꣳसि । तैसं ६, ३, ७, ५।
७. एकाक्षरं वै देवानामवमं छन्द आसीत्सप्ताक्षरं परमन्नवाक्षरमसुराणामवमं छन्द आसीत् पञ्चदशाक्षरं परमम् । तां १२,१३, २७ (तु. जै १,१९३; १९७) ।
८. छन्दसां वीर्यम् आदाय तद् वः प्र दास्यामीति स छन्दसां वीर्यम् आदाय तद् एभ्यः प्रायच्छत् ....एतद्वै छन्दसां वीर्यमाश्रावयास्तु श्रौषड् यज ये यजामहे वषट्कारः । तैसं ३, ३,७,२-३ ।
९. एतानि [एतावन्ति [काठ.] (गायत्री, त्रिष्टुप् , जगती, अनुष्टुभ् ) ] वै छन्दाꣳसि यज्ञं वहन्ति । मै १, ४, ११; काठ १२,६ ।
१०. कतम एते देवा इति छन्दाꣳसीति ब्रूयाद्गायत्रीं त्रिष्टुभं जगतीमिति । तैसं २, ६,९,३-४ ॥
११. कपालैश्छन्दाꣳसि (भ्रातृव्यस्याप्नोति)। काठ १०, १ ।
१२. गायत्रं छन्दो ऽनुप्रजायस्व त्रैष्टुभं जागतमित्येतावन्ति वै छन्दाꣳसि । काठ २६, ७; क ४१, ५।
१३. गायत्र्यै ... त्रिष्टुभे जगत्या अनुष्टुभे... एतावन्ति वै छन्दाꣳसि । काठ ३४, ४ ।
१४. चत्वारि छन्दांसि (+यज्ञवाहो गायत्री, त्रिष्टुब्जगत्यनुष्टुप् । जै.) । तैसं ५,१,१,४; २,१,२; ३,४; जै १,३००, २, ४३१ (तु मै ३, १, २, २,३; काठ १९, ४, २१, ८; क ३१, ३)।
१५. छन्दः प्रतिष्ठानो वै यज्ञः (+ छन्दःसु वावास्यैतद् यज्ञं प्रतिष्ठापयामकः [मै.1)। मै ३,६,५; काठ २३,२।
१६. छन्दसां वा एतन्निरूपꣳ यदुपबर्हणं सर्वसूत्रम् । मै १,६,४ ।
१७. छन्दसां वा एष रसो यद् वशा। तैसं २,१,७,२ ।
१८. छन्दसां धेनवः (रूपम् ) । काठ १२,४।
१९. छन्दाꣳसि खलु वा एतं नोपनमन्ति यं मेधा नोपनमति । तैसं ३,४,९,५।
२०. छन्दाꣳसि खलु वा एतमभिमन्यन्ते यस्य ज्योगामयति छन्दोभिरेवैनमगदं करोति । तैसं ३,४,९,३ ।
२१. छन्दाꣳसि खलु वै सोमस्य राज्ञः साम्राज्यो लोकः । तैसं ३,१,२,१ ।
२२. छन्दाꣳसि गच्छ स्वाहेत्याह, पशवो वै छन्दाꣳसि । तैसं ६,४,१,३ ।
२३. छन्दांसि छन्दयतीति वा। दै ३,१९।
२४. छन्दांसि जज्ञिरे तस्मात् (यज्ञात् )। काठसंक १०० : १८ ।
२५. छन्दाꣳसि देविकाः (देव्यः [मा श.])। काठ १२,८; माश ९, ५,१,३९ (तु. तैसं ३,४,९, १; मै ४, ३, ५; कौ १९, ७)।
२६. छन्दाꣳसि मीयमानः (सोमः) । काठ ३४,१४ ।
२७. छन्दांसि यदयजन्त तेषां बृहत्येवोदगायत् । जै ३,३६९ ।
२८. छन्दाꣳसि वरुणपाशाः (+वै वरुणस्य [मै.1) । मै २,३,३; काठ १२,६ ।
२९. छन्दाꣳसि वा अग्नेर्वासः । छन्दाꣳस्येष वस्ते (छन्दोभिरेवैनं परिदधाति [काठ..) । मै ३,१,५; काठ १९,५ (तु. क ३०,३)।
३०. छन्दाꣳसि वाऽ अस्य सप्त धाम प्रियाणि । माश ९,२,३,४४ ।
३१. छन्दाꣳसि (+वै [मै १,१०,९; काठ.]) वाक् । मै १,१०,९; ४,८,८; काठ ३६,३।
३२. छन्दांसि वाव देवानां गृहाः ।...गायत्र्यैव वसवो गृहिणः । त्रिष्टुभैव रुद्रा गृहिणः ।... जगत्यैवादित्या गृहिणः । अनुष्टुभैव विश्वेदेवाः । जै १,२८० ।
३३. देवा वै देवाश्वान् देवरथेषु युक्त्वेमान् लोकान् अभ्यारोहन्। छन्दांसि वाव देवाश्वा, स्तोमा देवरथाः । जै ३,३१३ ।
३४. छन्दांसि वृषगणा (सि वै दिशः [माश.)। जै ३,१७४; माश ८,३,१,१२, ९,५,१,३९ । ३५. छन्दाꣳसि वै देवाः प्रातर्यावाणः । मै ४,५,३; माश ३,९,३,८ ।
३६. छन्दाꣳसि वै देवानां वामं पशवः । तैसं ५,३,८,१ मै ३.२,६, ३,२ ।
३७. पञ्चवैश्वदेवेष्टकोपधानम्-- छन्दाꣳसि वै देवा वयोनाधाः । छन्दोभिहींदꣳ सर्वं वयुनं नद्धम् । माश ८, २, २, ८ !
३८. छन्दांसि वै दैवानि पवित्राणि तैर्द्रोणकलशं पावयन्ति। वसवस्त्वा गायत्रेण च्छन्दसा पुनन्तु .... । तां ६, ६, ६ ।
३९. छन्दांसि वै धुरः (विराट् [मै.J)। मै ३, ८,४; जै ३, २१० ।
४०. छन्दांसि वै पञ्च पञ्चजनाः । मै १, ४, ९, काठ ३२, ६ ।
४१. छन्दाꣳसि वै लोमानि । माश ६, ४,१, ६, ७, १, ६; ९, ३,४, १० ।
४२. छन्दांसि वै वाजिनः । मै १, १०,९; गो २,१,२०; तै १,६, ३, ९।
४३. छन्दाꣳसि वै व्रजो गोस्थानः । मै ४,१,१०; काठ ३१,८; तै ३,२,९,३ (तु. क. ४७,८)।
४४. छन्दाꣳसि वै संवेश उपवेशः । तैसं ३, १, ७, २; ७, ५,५, १; तै १, ४, ६, ४ ।
४५. छन्दांसि वै सर्वां देवताः (वाक् (जै २, ३०१ ) । जै १, ३४२, २,३०१ ।
४६. ते ह नाकम्महिमानः सचन्त यत्र पूर्वे साध्याः सन्ति देवा इति छन्दांसि वै साध्या देवास्ते ऽग्रे ऽग्निमयजन्त ते स्वर्गं लोकमायन् । ऐ १, १६।
४७. छन्दांसि वै स्वर्गो (स्वाराज्यो [जै २,३४७]) लोकः । जै २, २२४; ३४७; ३८१ ।
४८. पशवो वै देवानां छन्दांसि ।..... छन्दाꣳसि वै हारियोजन: ( ग्रहः ) । माश ४, ४, ३, २।।
४९. छन्दाꣳसि समिद्धानि देवेभ्यो यज्ञं वहन्ति । माश १, ३, ४,६ ।
५०. छन्दांसि सावित्री । गो १, १, ३३; जैउ ४,१२, १, ७ ॥
५१. छन्दाꣳसि (+वै [काठ.J) सौपर्णानि (सौपर्णेयाः ।तैसं.)। तैसं ६, १, ६, १; काठ २३,१; क ३७,१।
५२. छन्दाꣳसीव खलु वै पशवः । तैसं ३, ४, ९, १-२ ।
५३. छन्दाꣳसीव खलु वै प्रजाः ( रुक् [तैसं ३, ४, ९, ६ ] ) । तैसं ३, ४, ९, १; ६ ।
५४. आतिथ्येष्टिः--स मन्थति । गायत्रेण त्वा च्छन्दसा मन्थामि त्रैष्टुभेन त्वा च्छन्दसा मन्थामि जागतेन त्वा च्छन्दसा मन्थामीति तं वै च्छन्दोभिरेव मन्थति छन्दांसि मथ्यमानायान्वाह छन्दांस्येवैतद्यज्ञमन्वायातयति यथामुमादित्यं रश्मयो। माश ३,४,१,२३
५५. छन्दोभिर् (देवाः) अमुष्मिन् ( द्युलोक आर्ध्नुवन् ) । तैसं ५, २, १, ६।
५६. छन्दोभिरेव तद् रक्षः पाप्मानमपघ्नते। जै १, ८६।
५७. छन्दोभिरेव भ्रातृव्यमवबाधते । काठ २५, ९; क ४०, २॥
५८. छन्दोभिर् (+वै [तैसं.J) देवाः स्वर्गं ( सुवर्गं । तैसं. ] लोकमायन् । तैसं ५, २,३, ४; क ४६,५।
५९. छन्दोभिर्बृहस्पतिर्गणी । मै २, २, ३ ।
६०. छन्दोभिर्यज्ञस्तायते । जै २, ४३१ ।
६१. छन्दोभिर्वै देवा आदित्यꣳ स्वर्गं लोकमहरन् । तां १२, १०, ६ ।
६२. छन्दोभिर्हि स्वर्गं लोकं गच्छन्ति । माश ६, ५, ४, ७ ।
६३. ज्यैष्ठयं वै जगती छन्दसाम् । जै २, २८६।
६४. तं (सोमं देवाः) छन्दोभिरसुवन्त तच्छन्दसां छन्दस्त्वम् । तै २, २, ८, ७
६५. तद्यदेनान (देवान् ) छन्दांसि मृत्योः पाप्मनोऽछादयंस्तच्छन्दसां छन्दस्त्वम् । जै १,२८४ ।
६६. तव छन्दसेत्यग्निमब्रुवन् (देवाः) । जै १,२११ ।
६७. तानीमानि छन्दांस्यब्रुवन्नियं (गायत्री) वाव नश् श्रेष्ठेयं वीर्यवत्तमा या सोममाहार्षीत् या यज्ञं ततैताम् एवाप्ययामेति। तान् त्रिष्टुब्जगत्यौ सवनाभ्याम् अप्यैताम्।…. जै १,२८९।
६८. चतुष्चत्वारिंशच्छन्दस्येष्टकोपधानम्-- तान्यस्मा (प्रजापतये) अच्छदयंस्तानि यदस्माऽअच्छदयंस्तस्माच्छंदाꣳसि । माश ८,५, २,१।
६९. तान्यस्य (यजमानस्य छन्दांसि) प्रीतानि देवेभ्यो हव्यं वहन्ति । तैसं ५, १,१,११
७०. ते (देवाः) छन्दोभिरात्मानं छादयित्वोपायन् तच्छन्दसां छन्दस्त्वम् । तैसं ५,६,६,१ ।
७१. ते देवा अब्रुवन् या एवेमा देवताश्छन्दांसि पुरुषे प्रविष्टा एताभिरेवासुरान् धूर्वामैवेति । जै १,९८ ।
तेषां प्राणम् एव गायत्र्यावृञ्जत चक्षुस् त्रिष्टुभा श्रोत्रं जगत्या वाचम् अनुष्टुभा। अस्माद् एवैनान् लोकाद् गायत्र्यान्तरायन्न् अन्तरिक्षात् त्रिष्टुभामुष्माज् जगत्या पशुभ्यो ऽनुष्टुभा। तान् सर्वस्माद् एवान्तरायन्। ततो वै देवा अभवन् परासुराः। जै १.९९
७२. त्रीणि ह वै छन्दांसि यज्ञं वहन्ति गायत्री त्रिष्टुब् जगती। तद् एवानुष्टुब् आन्ताद् अन्वायत्ता। तया देवास् स्वर्गं लोकम् अजिगांसन्। तया न व्याप्नुवन्। तस्यां चतुष्पदः पशून् उपादधुर् गां चाश्वं चाजां चाविं च। तया व्याप्नुवन्। ते ऽब्रुवन् स्वर्गं लोकं गत्वा बृहती वा इयम् अभूद् ययेदं व्यापामेति। तद् एव बृहत्यै बृहतीत्वम्। जै १, १२०.
त्रीणि वाव छन्दांसि, त्रीणि सवनानि, त्रयः प्राणापानव्यानास्, त्रय इमे लोकाः। जै २,३६०
७३. देवा असुरान् हत्वा मृत्योरबिभयुस्ते छन्दाꣳस्यपश्यꣳस्तानि प्राविशꣳस्तेभ्यो
यद्यदछदयत्तेनात्मानमछादयन्त, तच्छन्दसां छन्दस्त्वम् । मै ३,४,७ ।
७४. देवा वै च्छन्दांस्यब्रुवन् युष्माभिः स्वर्ग्यंल्लोकमयामेति ते गायत्रीं प्रायुञ्जत तया न व्याप्नुवंस्त्रिष्टुभं प्रायुञ्जत तया न व्याप्नुवञ्जगतीं प्रायुञ्जत तया न व्याप्नुवन्ननुष्टुभं प्रायुञ्जत तयाल्पकादि न व्याप्नुवंस्त आसां दिशां रसान् प्रबृह्य चत्वार्यक्षराण्युपादधुः सा बृहत्यभवत् तयेमांल्लोकान् व्याप्नुवन्। तां ७,४,२।
७५. देवासुरा (छन्दस्सु) अधिसंयत्ता आसन् । जै १, १९६।
७६. न वा एकेनाक्षरेण छन्दांसि वियन्ति न द्वाभ्याम् । ऐ १,६, २,३७ ।
७७. नवाक्षरम् (छन्दः) असुराणामवममासीत् पञ्चदशाक्षरं परमम् । जै १,१९७ ।
७८. न ह्येकेनाक्षेरणान्यच्छन्दो भवति नो द्वाभ्याम् । कौ २७, १।
७९. नाक्षराच्छन्दो व्येत्येकस्मान्न द्वाभ्यां न स्तोत्रियया स्तोमः । माश १२,२,३,३।
८०. अतिरात्र-वाजपेयाप्तोर्यामादिषु वैशिष्ट्यम्-- पञ्च च्छन्दांसि रात्रौ शंसत्यनुष्टुभं गायत्रीमुष्णिहं त्रिष्टुभं जगतीमित्येतानि वै रात्रिच्छन्दांसि । कौ ३०, ११ ।
८१. अश्वमेधीयस्तोत्रसम्बन्धि ऋगाद्यभिधानम्-- परमा वा एषा छन्दसां यदनुष्टुक् परमश् चतुष्टोम स्तोमानाम् परमस् त्रिरात्रो यज्ञानाम् परमो ऽश्वः पशूनाम् । तैसं ५,४,१२,१।
८२. पशवश्छन्दाꣳसि । मै ४,३,५; काठ १२,८; १९, १०, क ३०, ८; ऐ ४, २१; कौ ११,५; तां १९,५,११ (तु. तैसं ५, २, ३, ५, ३,८,१; मै १,६,४; ३,२,८; ४,७,५; क ६१,१९, जै २,१०३; माश ७,५,२,४२, ८,३,१,१२)।
८३. पशवो वै देवानां छन्दाꣳसि तद्यथेदं पशवो युक्ता मनुष्येभ्यो वहन्त्येवं छन्दाꣳसि युक्तानि देवेभ्यो यज्ञं वहन्ति । माश १,८,२,८ ४,४,३,१।।
८४. प्रजापतिर् (प्राणा [कौ.) वै छन्दाꣳसि । मै ४,५,३; ७,५; कौ ७,९, ११,८, १७,२ ।
८५. प्रजापतेर्वा एतान्यङ्गानि यच्छन्दांसि । ऐ २, १८ ।
८६. अग्निचिति-ब्राह्मणम्-- प्राणा वा एतानीतराणि छन्दाꣳसि । वागनुष्टुप् । यदनुष्टुभा सप्तमं जुहोति वाचं वा एतत् प्राणेषूपसंदधाति- मै ३,१,९ ।
८७. बृहती छन्दसाꣳ स्वाराज्यं परीयाय । तैसं ५.३,२,४ ।।
८८.
छन्दोभिधेष्टकाभिधानम्— गायत्रीः
पुरस्ताद्
उप
दधाति
तेजो
वै
गायत्री
तेज
एव
मुखतो
धत्ते
मूर्धन्वतीर्
भवन्ति
मूर्धानम्
एवैनꣳ
समानानां
करोति
त्रिष्टुभ
उप
दधाति
।
इन्द्रियं
वै
त्रिष्टुभ्
इन्द्रियम्
एव
मध्यतो
धत्ते
जगतीर्
उप
दधाति
जागता
वै
पशवः
पशून्
एवाव
रुन्द्धे
।
अनुष्टुभ
उप
दधाति
प्राणा
वा
अनुष्टुप्
प्राणानाम्
उत्सृष्ट्यै
-
तैसं
५,३,८,२-३
छन्दोभिधेष्टकाभिधानम्— बृहतीरुष्णिहाः पङ्क्तीरक्षरपङ्क्तीरिति विषुरूपाणि छन्दाꣳस्युपदधाति ... विषुरूपानेव पशूनवरुन्धे । तैसं ५,३,८,२-३ ।
८९. बृहती वाव (वै ।जै.) ) छन्दसां स्वराट् । जै ३, ५, तां १०, ३, ८ ।
९०. बृहस्पतिश् (यज्ञश् [काठ.1) छन्दाꣳसि । मै २, २, ३; काठ ३२, ६ ।
९१. बृहस्पतिश्छन्दोभिः ( उदक्रामत् ) । मै १,९, २, ८; काठ ९, १० ।
९२. ब्रह्म (ब्राह्मणा ।तैसं २, ६,९, ४]) वै छन्दाꣳसि। तैसं २, ६, ९,४, ५, ६, ६, १;
मै ३, १, २, ७, २,३, ३,५, ६,३ (तु. जै १, ३१३)।
९३. मुखं विराट् छन्दसाम् । जै ३, ३००।
९४. सावित्राहुत्यभ्रिस्वीकारयोरभिधानम्-- छन्दाꣳसि देवेभ्यो ऽपाक्रामन् न वो ऽभागानि हव्यं वक्ष्याम इति तेभ्य एतच् चतुर्गृहीतम् अधारयन् पुरोऽनुवाक्यायै याज्यायै देवतायै वषट्काराय यच् चतुर्गृहीतं जुहोति छन्दाꣳस्य् एव तत् प्रीणाति तान्य् अस्य प्रीतानि देवेभ्यो हव्यं वहन्ति । तैसं ५, १,१, १ ।
९५. तस्योष्णिग्लोमानि त्वग्गायत्री त्रिष्टुम्मांसमनुष्टुप्स्नावान्यस्थि जगती पङ्क्तिर्मज्जा प्राणो बृहती स च्छन्दोभिश्छन्नो यच्छन्दोभिश्छन्नस्तस्माच्छन्दांसीत्याचक्षते, इति । छादयन्ति ह वा एनं छन्दांसि पापात्कर्मणो यस्यां कस्यांचिद्दिशि कामयते य एवमेतच्छन्दसां छन्दस्त्वं वेद । ऐआ २,१,६ ।
९६. यदुपतिष्ठते, छन्दोभिर्वा एतत्पशूननुपश्यति, छन्दोभिरेनान् पुनरुपह्वयते । मै १, ५, १२।।
९७. अथ यत्समिधमभ्यादधाति । छन्दांस्येवैतत्समिन्द्धेऽथ यद्धोता प्रातरनुवाकमन्वाह छन्दांस्येवैतत्पुनराप्याययत्ययातयामानि करोति यातयामानि वै देवैश्छन्दांसि छन्दोभिर्हि देवाः स्वर्गं लोकं समाश्नुवत । माश ३, ९, ३, १० ।
९८. मरुत्स्तोमो वा एष यानि क्षुद्राणि छन्दांसि तानि मरुताम्। तां १७, १, ३ ।।
९९. याम् (दक्षिणाम् ) आर्षेयाय शुश्रुवुषे ददाति छन्दाꣳसि तया प्रीणाति । मै ४, ८,३ ।
१००. वाक् सुपर्णी, छन्दाꣳसि सौपर्णानि । गायत्री त्रिष्टुब् जगती । मै ३, ७, ३ । १०१. वाग् (रसो [माश.) वै छन्दाꣳसि । मै १, ११, ८, ३, ६, ५, काठ १४, ८; माश ७,३,१, ३७।
१०२. विराट् (+हि [तां. 1) छन्दसां ज्योतिः । तैसं ५, ३, २, ३, काठ २०, ११; क ३१, १३; तां १०, २, २ ।
१०३. विराड् वै सर्वाणि छन्दाꣳसि । मै ३, ४, ६ ।
१०४. विष्णुमुखा वै देवाश्छन्दोभिरिमांल्लोकाननपजय्यमभ्यजयन् ..... विष्णोः क्रमो ऽस्य् अभिमातिहेत्य् आह गायत्री वै पृथिवी त्रैष्ठुभम् अन्तरिक्षम् । जागती द्यौः । आनुष्टुभीर् दिशः ।। तैसं ५, २, १, १
१०५. वीर्यं वै छन्दाꣳसि । तैसं ५, १, ६, ४; तैआ ५, ३, ४ ।
१०६. श्रीर्वै यशश्छन्दसां बृहती। ऐ १,५।
१०७. इतः प्रथमं जज्ञे अग्निः स्वाद् योनेर् अधि जातवेदाः । स गायत्रिया त्रिष्टुभा जगत्या देवेभ्यो हव्यं वहतु प्रजानन्न् इति छन्दोभिर् एवैनꣳ स्वाद् योनेः प्र जनयत्य् । तैसं २,२,४,८ ।
१०८. सप्त चतुरुत्तराणि छन्दांसि । जै ३, ८६ ।
१०९. सप्त (षड् वै [मै ३, ४, ४; जै.) छन्दाꣳसि । तैसं २, ४,६,२, ५, १, ९, १; ७, २, २,१; मै ३,४,४, ७,६; जै १, ८६; १३१; माश ९, ५, २, ८ ।
११०. सप्त वै छन्दाꣳसि (+सप्त ग्राम्याः पशवः, सप्तारण्यास्तानेवैतदुभयान् प्रजनयति (माश.] ) । मै १, ११, ८, ३,१, ७, ३,५, ६,३, काठ १४, ८; क ३५,७; कौ १४,५; १७, २; जे २, १२७, २००; ३०१, ३४७; ४३१; माश ३, ८, ४, १६; शांआ २, ६ (तु. काश ४, ८, ४, ११)।
१११. सप्त वै पात्राणि पुनः प्रयोगमर्हन्ति । तानि हि बन्धुमन्ति सप्त छन्दाꣳसि । मै ४,८८ ।
११२. सप्त हस्तास इति, सप्त छन्दांसि, तस्मात् सप्तार्चिषः सप्त समिधः सप्त इमे लोका येषु चरन्ति प्राणा गुहाशया निहिताः सप्त सप्त । काठसंक २५ : २-४ ।
११३. सर्वाणि छन्दांसि बृहतीमभिसंपन्नानि । जै १, ३१६ ।
११४. सर्वैर्वै छन्दोभिरिष्ट्वा देवाः स्वर्गं लोकमजयन् । ऐ १, ९ ।
११५. साम वै देवाः प्रजाश्छन्दांसि । जै १, २७७ ।
११६. स्तोमाश्च ह खलु वै छन्दांसि च सर्वा देवताः । जै २, ३५० ।
११७. स्वाराज्यं छन्दसां बृहती । तां २४, ६, ३ ।
११८. हिरण्यममृतानि छन्दाꣳसि । माश ६, ३, १, ४२॥
यन् मृदा चाद्भिश् चाग्निश् चीयतेथ कस्माद् अग्निर् उच्यत इति यच् छन्दोभिश् चिनोत्य् अग्नयो वै छन्दाꣳसि तस्माद् अग्निर् उच्यते – तैसं ५.७.९.३
एषा वा अग्नेः प्रिया तनूर्यच्छन्दाꣳसि – काठ २०.१
छन्दाꣳसि खलु वा अग्नेः प्रिया तनूः- तैसं ५.१.५.३, २.१.२
छन्दोभिर्वा अग्निरुत्तरवेदिमानशे – काठ २०.५
छन्दाꣳस्यङ्गानि (सुपर्णस्य गरुत्मतः).... विष्णोः क्रमोऽसि सपत्नहा गायत्रं छन्द आरोह पृथिवीमनुविक्रमस्व विष्णोः क्रमोऽस्यभिमातिहा त्रैष्टुभं छन्द आरोहान्तरिक्षमनुविक्रमस्व विष्णोः क्रमोऽस्यरातीयतो हन्ता जागतं छन्द आरोह दिवमनुविक्रमस्व विष्णोः क्रमोऽसि शत्रूयतो हन्तानुष्टुभं छन्द आरोह दिशोऽनुविक्रमस्व ।। – मै २.७.८, काठ १६.८
अतिच्छन्दा वै सर्वाणि छन्दाꣳसि – तैसं ५.३.८.३, तै १.७.९.६, जै २.४८
वर्ष्म वा एषा छन्दसां यदतिछन्दाः – तैसं ५.२.१.५, ३.८.३, काठ २४.५, क ३७.६, तै १.७.९.६
सर्वाणि वै छन्दाꣳसि अतिछन्दाः – मै ३.७.४., ४.८.५, तां ४.९.२
अनुष्टुप् छन्दसाम् (एतमादित्यमानशे) – तां ४.६.७
अनुष्टुप् छन्दसां प्रतिष्ठा तैसं २.५.१०.३
अनुष्टुप् छन्दस्तदायुर्मित्रो देवता – मै २.१३.१४, काठ ३९.४
वागनुष्टभोत्तमं जुहोति वाग्वा अनुष्टुब् वाचमेवोत्तमां दधाति तस्माद्वाक् प्राणानामुत्तमा विहितं वदत्यनुष्टुब् वै सर्वाणि च्छन्दाँसि पशवश्छन्दाँस्यन्नं पशवः पशूनेवान्नाद्यमवरुन्द्धे-- काठ १९.१०, क ३०.८, तैसं ५.१.५.२, मै ३.१.४, ३.२, ४.५.१, काठ १९.३, क ३०.१
मरुत्वतीयशस्त्रम्-- आ त्वा रथम् यथा ऊतय इत्य् अनुष्टुभा मरुत्वतीयम् प्रतिपद्यते । पवमान उक्थम् वा एतद् यन् मरुत्वतीयम् । अनुष्टुप् सोमस्य छन्दः । उक्तम् पद विग्रहणस्य ब्राह्मणम् । गायत्रीः शंसति । प्राणो वै गायत्र्यः । प्राणम् एव तद् आत्मन् धत्ते ।– कौ १५.२,
वैश्वदेवशस्त्रम्-- तत् सवितुर् वृणीमह इत्य् अनुष्टुभा वैश्वदेवम् प्रतिपद्यते । पवमान उक्थम् वा एतद् यद् वैश्वदेवम् । अनुष्टुप् सोमस्य छन्दः ।-कौ १६.३
अन्तो वा अनुष्टुप् छन्दसाम् – तां १९.१२.८
अन्तो वा अनुष्टुप् – मै १.१०.८, काठ ३६.१२
प्रजापतिर्वा अभीवर्तः प्रजाश्छन्दांसि – जै २.३८०
कनीयाꣳसि (छन्दांसि) देवेष्वासन्, ज्यायाꣳस्यसुरेषु – मै ४.७.५
छन्दोभिर्वै देवा असुरानभ्यभवन् – जै १.३४२
छन्दाꣳसि वा ऋत्विजः- मै ३.९.८, काठ २६.९
छन्दांसि वै सर्वे कामाः – जै १.३३२
छन्दांसि केतवः – जै ३.५८
एते ह खलु वै छन्दसां वीर्यतमे यद् विराट् च गायत्री च – जै २.३३५
गायत्रीं सर्वाणि छन्दांस्यपियन्ति – जै १.२९०
राजसूयम् -- समिधमातिष्ठ गायत्री त्वा छन्दसावतु त्रिवृत्स्तोमो रथन्तरँ सामाग्निर्देवता ब्रह्म द्रविणमुग्रामातिष्ठ त्रिष्टुप्त्वा छन्दसावतु पञ्चदशस्स्तोमो बृहत् सामेन्द्रो देवता क्षत्रं द्रविणं प्राचीमातिष्ठ जगती त्वा छन्दसावतु सप्तदशस्स्तोमो वैरूपँ साम मरुतो देवता विड् द्रविणमुदीचीमातिष्ठानुष्टुप् त्वा छन्दसावत्वेकविंशस्स्तोमो वैराजँ साम मित्रावरुणौ देवता पुष्टं द्रविणमूर्वाष्मातिष्ठ पङ्क्तिस्त्वा छन्दसावतु ॥ त्रिणवत्रयस्त्रिंशौ स्तोमौ शाक्वररैवते सामनी बृहस्पतिर्देवता वर्चो द्रविणँ – काठ १५.७
गायत्री वै छन्दसामयातयाम्नी – जै ३.३०५
छन्दाꣳसि वा अमुष्माल्लोकात् सोममाहरन्, गायत्री श्येनो भूत्वा – काठ २४.१
मुखं गायत्री छन्दसाम् – जै २.१३
पृष्ठस्तोत्रीय छन्दोविशेषविधानं -- यातयामान्यन्यानि छन्दाꣳस्ययातयामा गायत्री। तां १३.१०.१( तु. जै ३.१५४)
छन्दाꣳसि वै ग्नाः- तैसं ५.१.७.२, काठ १९.७, क ३०.५, माश ६.५.४.७
छन्दाꣳसि वै ग्नाः देवीर्विश्वदेव्यवतीः – मै ३.१.८
छन्दाꣳसि वै ग्नाश्छन्दोभिर्हि स्वर्गं लोकं गच्छन्ति – माश १.३.१.१६, ५.२.५.१७
एता एव निर् वपेद् ग्रामकामश् छन्दाꣳसि वै देविकाश् छन्दाꣳसीव खलु वै ग्रामश् छन्दोभिर् एवास्मै ग्रामम् अव रुन्द्धे मध्यतो धातारं करोति मध्यत एवैनं ग्रामस्य दधाति । – तैसं ३.४.९.२
तेभ्य (छन्दोभ्यो देवाः) एतच्चतुर्गृहीतं प्रायच्छन्ननुवाक्यायै, याज्यायै, देवतायै, वषट्काराय। - काठ १८.१९
छन्दाꣳसि देवेभ्यो ऽपाक्रामन् न वो ऽभागानि हव्यं वक्ष्याम इति तेभ्य एतच् चतुरवत्तम् अधारयन् पुरोऽनुवाक्यायै याज्यायै देवतायै वषट्काराय यच् चतुरवत्तं जुहोति छन्दाꣳस्य् एव तत् प्रीणाति तान्य् अस्य प्रीतानि देवेभ्यो हव्यं वहन्ति । - तैसं २.६.३.२
अग्निर् देवता गायत्री छन्द उपाꣳशोः पात्रम् असि सोमो देवता त्रिष्टुप् छन्दो ऽन्तर्यामस्य पात्रम् असीन्द्रो देवता जगती छन्द इन्द्रवायुवोः पात्रम् असि बृहस्पतिर् देवतानुष्टुप् छन्दो मित्रावरुणयोः पात्रम् अस्य् अश्विनौ देवता पङ्क्तिश् छन्दो ऽश्विनोः पात्रम् असि सूर्यो देवता बृहती छन्दः शुक्रस्य पात्रम् असि चन्द्रमा देवता सतोबृहती छन्दो मन्थिनः पात्रम् असि विश्वे देवा देवतोष्णिहा छन्द आग्रयणस्य पात्रम् असीन्द्रो देवता ककुच् छन्द उक्थानाम् पात्रम् असि पृथिवी देवता विराट् छन्दो ध्रुवस्य पात्रम् असि ॥ - तैसं ३.१.६.२
१. अतिच्छन्दा वै छदिश्छन्दः सा हि सर्वाणि छन्दाꣳसि छादयति । माश ८,२, ४,५ ।
२. अन्तरिक्षं वै छदिश्छन्दः । माश ८, ५,२, ६ ।
३. सिंहो वयश्छदिश्छन्दः । तैसं ४, ३, ५, २; मै २, ८, २ ।
छन्दस्य, स्या
१. अन्नं वा एकञ्छन्दस्यमन्नꣳ ह्येकं भूतेभ्यश्छदयति । मं २, ६, १३ ।
२ पशवः (+ वै [तैसं., क.J) छन्दस्याः (इष्टकाः)। तैसं ५, २, १०, २; काठ २०, ९;
क ३१, ११ ॥