Symbolism of Waters in Veda
Sukarma Pal Singh Tomar
(A thesis accepted by Chaudhary Charan Singh University, Meerut, 1995)
Ekata, Dvita and Trita
Ekata, Dvita and Trita happen to be seers of hymns of vedas. In order to understand Ekata, Dvita and Trita, it is necessary to understand the concept of past, present and future in veda. These words further involve in themselves two words – vishwa and sarva. Both of these are translated as having the same meaning – the whole world. Sarva is concerned with future. It involves in itself active life forces. But it is under control of a demon. It’s advantage can be gained only by freeing it from the demon. This can be done by penances. On the other hand, vishwa is connected with past. It involves those life forces which penetrate inside. Ekata is symbolized by ‘sarva’, while Trita is symbolized by ‘vishwa’. In between the two comes the word ‘bhuwanam’ which involves both past and present, or sarva and vishwa. Dvita is connected with this bhuwanam.
These three have been stated to have born out of waters/life forces. Ekata is born of waters of the nature of sarva. Dvita from the waters have nature of both savra and vishwa. Trita is born of waters having nature of vishwa. Trita is the highest state out of three, where the duality involved in Ekata vanishes. But in normal life, this Trita happen to be lying in a dark well, swallowed by a dark nature serpant. This serpent may be our ego. It is necessary to free Trita from these vices. When Trita is able to overcome these demonical forces, he is able to handle all the past, present and future. The story says that all the wealth of Trita has been usurped by Ekata and Dvita. It means that when Trita is lying in the dark well, his wealth can be usurped either by Dvita(present) who is worried about both past and future, or by Ekata who has eye only on future. Therefore, Trita, who is supposed to foresee past, present and future, is lying in a dark well. And the reason for this state of Trita is that he accepted the demand of Ekata and Dvita to quench their thirst and fall in the well. This individuality itself is called Trita.
वेद में उदक का प्रतीकवाद
- सुकर्मपाल सिंह तोमर
(चौधरी चरणसिंह विश्वविद्यालय द्वारा १९९५ में स्वीकृत शोध प्रबन्ध )
एकत, द्वित और त्रित को समझने से पूर्व भुवनं, भूतं और भविष्यत् शब्दों को समझ लेना उपयुक्त होगा । इनमें से 'भुवनं' शब्द प्रायः 'विश्वं' शब्द के साथ प्रयुक्त हुआ है( ऋग्वेद २.२७.४), जबकि 'भविष्यत् ' तथा 'भूतं' के साथ 'विश्वं' का प्रयोग कहीं नहीं हुआ है । भाव विकार परक 'भुवनं' का सम्बन्ध 'विश्व' और 'सर्व' दोनों से है, जबकि भूतं और भविष्यत् में से प्रथम (भूतं) अस्ति - भवति के द्वन्द्व से परे है, और भविष्यत् केवल 'भू' धातु से संकेतित परिवर्तनशील सत्ता का सूचक होने से सृ धातु से निष्पन्न सार्थक सर्व ही है । भूतं वह प्राण है जिसका पालक क: प्रजापति अथवा हिरण्यगर्भ नामक प्राणोदक है और जिसकी छायास्वरूप मृत्यु और अमृत का द्वन्द्व ( ऋ. १०.१२१.१-२) माना गया है । इसका तात्पर्य है कि 'भूतं' नामक प्राणोदक 'भवति' और 'अस्ति' के सापेक्ष - द्वन्द्व से परे है । इसके विपरीत, 'सर्वम्' गतिशील प्राण का बोधक है । अतः 'सर्वं ' अपने में वृजिन तथा साधु के द्वन्द्व को समेटे हुए कहा गया है, जबकि द्वन्द्वातीत अवस्था को 'परमा' कहा गया है ( ऋग्वेद २.२७.३) । द्वन्द्व के कारण 'सर्वम्' परिक्रोश रूप है जिसका त्याग अथवा विनाश वाञ्छनीय है ( ऋ. १.२९.७) । 'सर्वं ' पणि का वह 'भोजन' है जो भावरूप अश्व और ज्ञानरूप गौ से युक्त एक 'पश्यक' होने से पशु कहलाता है, परन्तु उसे पणि नामक असुर के चंगुल से छुडाकर ही सम्यक् रूपेण प्राप्त किया जा सकता है ( ऋग्वेद १.८३.४) । द्वन्द्वातीत ज्ञानस्वरूप जातवेदस् अग्नि मर्त्यों के 'सर्व' को 'अमृतं' बना सकता है, क्योंकि वह प्रवेशार्थक विश धातु से निष्पन्न 'विश्व' संज्ञा वाली सत्ता है जो भीतर ही भीतर प्रविष्ट होने वाला पूर्वोक्त 'भूतं' संज्ञक प्राणोदक है ।
त्रित, द्वित और एकत
आपः नामक प्राणोदक से उद्भूत तीन आप्त्यों में से अन्यतम को त्रित नाम दिया गया है जिसमें उक्त 'सर्व' नामक प्राणोदक का समस्त द्वन्द्वात्मक 'दु:स्वप्न्यं' समाप्त हो जाता है ( ऋ. ८.४७.१५) । त्रित से भिन्न 'एकत' भविष्यत् 'सर्व' का द्योतक है( यजुर्वेद ३४.४, अथर्व ४.११.२ इत्यादि ) । द्वित उस 'भुवनं' का सूचक है जो उक्त 'विश्वं' तथा 'सर्वं' दोने से सम्बन्ध रखने वाले वर्तमान प्राणोदक का प्रतीक है ।
मनुष्य सामान्यतः वर्तमान(विश्वं भुवनं ) के अन्धकार में छिपा हुआ अर्थात् दीर्घं तम: रूप अहि द्वारा निगला हुआ होता है जिसे पूर्वोक्त 'स्व:' रूप में आविर्भूत करना परमावश्यक है ( ऋग्वेद १०.८८.२) । अन्धकार - निगलित 'विश्वं भुवनं ' ही ऋग्वेद १.१०५ में 'कूपस्थित ' त्रित के रूप में कल्पित हुआ है । अन्धकारमय कूप से वह तभी बाहर निकलता है जब वह वृत्र का वध करने में समर्थ होता है । वृत्रवध की यह सामर्थ्य ही वह दक्षिणा( दक्षता) है जो साधक को न केवल 'विश्वं भुवनं' को ईम् ( व्यक्त प्राणोदक) के वर्तमान रूप में प्रदान करती है, अपितु उस स्व: नामक प्राणोदक को भी जो 'भविष्यत् ' है ( ऋग्वेद १०.१०७.८) । इस प्रकार वृत्रवध की सामर्थ्य होने पर जो त्रिकाल स्थित त्रित अन्धकार रूप कूप में था, वह प्रकट होकर भूतं, भुवनं( वर्तमान ) तथा भविष्यत् तीनों को संभालने में समर्थ हो जाता है । ये ही वे 'भुवनानि ' हैं जिनको देखता हुआ सविता हिरण्ययकोशीय ज्योति रूप रथ द्वारा आता हुआ, मर्त्य और अमृत नामक दोनों स्तरों को निवेशित करता हुआ, कर्षण - रहित 'रज:' द्वारा वर्तमान होता है ( ऋ. १.३५.२) । मानव जीवन के त्रिकाल का यह आदर्श सुविकसित रूप है जिसकी प्राप्ति त्रित जीवात्मा को उक्त दीर्घं तम: रूप कूप से बाहर आने पर होती है ।
त्रित का रहस्य
इस प्रकार त्रित के पूर्वोक्त आख्यान का रहस्य और अधिक स्पष्ट होता है । तदनुसार अहंकार रूप अहि के प्रभाव में पडा हुआ प्राण( आत्मा) का त्रित रूप वह 'विश्वं भुवनं' है जो अपने भूत, भविष्यत् और वर्तमान तीनों रूपों को संभालने में असमर्थ है क्योंकि उसकी सारी आध्यात्मिक शक्ति या तो 'विश्वं' (भूतं) और 'सर्वं' (भविष्यत्) के द्वन्द्व की चिन्ता करने वाले द्वित 'भुवनं' ( वर्तमान ) ने हडप ली है, अथवा एकमात्र 'सर्वम् ' (भविष्यत् ) पर दृष्टि रखने वाले एकत ने हथिया ली है जिसके परिणामस्वरूप त्रित अपने त्रिकालात्मक सनातन स्वरूप को भूलकर अज्ञानान्धकार रूपी कूप में पडा हुआ है । ऐसी स्थिति में एकत नामक आप्त्य अन्नमय कोश का सूचक हो जाता है जिसे अपने को भविष्य(सर्वं ) में सुरक्षित रखने की चिन्ता रह जाती है और द्वित आप्त्य उस प्राणमय 'सर्वं ' का द्योतक हो जाता है जो प्राणन और अपानन क्रिया के द्वारा विश्वं और सर्वं दोनों के लिए चिन्तित रहता है, जबकि त्रित आप्त्य उस मनोमय आत्मा की ओर संकेत करता है जो अपने त्रिकालातीत सनातन स्वरूप के हिरण्यनेमयः विद्युतः की यदाकदा झलक भले ही पा लेता हो, परन्तु उसके आपश्चन्द्रा: अथवा हिरण्यवर्णाः आपः से सर्वथा अपरिचित हो जाता है, जो उसके सनातन स्वरूप की विशेषता है । त्रित आप्त्य को इस अन्धकारमय कूप में गिराने वाले, उक्त वर्तमान और भविष्यत् पर ही दृष्टि रखने वाले क्रमशः द्वित और एकत नामक उसी के भाई हैं । उन्होंने उस मनोमय आत्मा रूप त्रित को अहंकार जनित अन्धकार के कूप में ढकेला है । त्रित आप्त्य की इस दुर्दशा का कारण यह है कि उसने प्राणमय द्वित और अन्नमय एकत की प्यास बुझाने के लिए उस कूप में गिरना स्वीकार कर लिया और इस बात को सर्वथा भुला दिया कि उसका वास्तविक स्वरूप त्रिकालात्मक सनातन है , जो स्व:, स्वस्ति तथा हिरण्ययी ज्योति से आलोकित रहता है
पूर्ण की उपलब्धि
त्रित, द्वित और एकत का उस समय कायापलट हो जाता है जब दीर्घंतम: कहलाने वाले अहंकार रूपी वृत्र का अन्त हो जाता है और त्रित की अन्धकार के कूप से बाहर निकलने की वह प्रार्थना स्वीकृत हो जाती है जिसे वह ऋग्वेद १.१०५ में बडे करुण स्वर से विलाप करता हुआ कर रहा था । उस सूक्त के प्रत्येक मन्त्र की टेक 'वित्तं मे अस्य रोदसी ' है । इसका अर्थ है कि हे रोदसी, मेरी इस अवस्था को जानो । रोदसी द्यावापृथिवी नामक उस चेतनायुग्म का नाम है जिसने प्रजापति को रुलाया था( तैत्तिरीय ब्राह्मण २.२.९.४) , क्योंकि अहंकार रूप अहि से आक्रान्त होने पर रोदसी की रुलाने वाली अवस्था हो जाती है । त्रित रोदसी से अपनी दशा को जानने के लिए इसीलिए कहता है, क्योंकि रोदसी ही वस्तुतः उसको भी रुलाने के लिए उत्तरदायी है ।
उसकी इस प्रार्थना को बृहस्पति सुन लेता है ( तच्छुश्राव बृहस्पति: - ऋ. १.१०५.१७) । बृहती नामक उदार बुद्धि का स्वामी होने से वह बृहस्पति कहलाता है । बृहस्पति द्वारा प्रार्थना सुने जाने का संकेत यह है कि अब उस अहंकार जन्य संकीर्णता और क्षुद्रता का अन्त होना संभव है, क्योंकि बृहती बुद्धि का स्वामी अब उसका पक्षधर होने वाला है । ऋग्वेद ८.४७ में त्रित पुनः सभी आदित्यों से निवेदन करता हुआ उनकी निष्पाप ऊतियों(रक्षणोपायों) की कामना करता हुआ प्रत्येक मन्त्र में 'अनेहसा व ऊतयः सुऊतयो व ऊतयः ' की टेक दोहराता है और अन्त में अपने समस्त दु:ष्वप्नों (दु:ष्वप्न्यं सर्वं ) से मुक्त होने के लिए उषा देवी से निवेदन करता है ( ऋग्वेद ८.४७.१६ - १८) । इन सब प्रार्थनाओं के फलस्वरूप त्रित को जो उपलब्धि होती है, उसकी झलक हमें उसके उन सूक्तों से मिलती है जो ऋग्वेद के नवें(ऋग्वेद ९.३३-९.३४) और दशम(ऋग्वेद १०.१-७) मण्डल में प्राप्य हैं । नवम मण्डल में उसे उस इन्दु(सोम) के पवमान रूप की प्राप्ति होती है जिसका उल्लेख हमें निघण्टु के उदकनामों में भी मिलता है । पूर्व प्रार्थना से त्रित के जो 'वन' नामक प्राणोदक उभरे थे, उनकी ओर ज्ञानमय सोम बिन्दुओं( सोमासो विपश्चितः ) की ऊर्मियां आने लगती हैं( ऋग्वेद ९.३३.१) । ऋत धारा के साथ शुक्र और बभ्रु सोमलहरियां वाज नामक बल का क्षरण करने लगती हैं तथा इन्द्र, वरुण, विष्णु और मरुतों के लिए सोम प्रवाहित होने लगता है ( ऋग्वेद ९.३३.२-३) । इच्छाशक्ति, ज्ञानशक्ति और क्रियाशक्ति नामक 'तिस्रो वाच:' ऊपर उठने लगती है और वे 'ऋतस्य मातर: ' होकर सोम नाम दिव्य शिशु का परिमार्जन करने लगती हैं ( ऋग्वेद ९.३३.५) , परन्तु फिर भी त्रित सहस्री सोम(सहस्रार चक्र से प्राप्त होने वाले आनन्द रस) से प्रार्थना करता है कि वह हमारे लिए भीतर से(विश्वतः ) चार समुद्रों(विज्ञानमय, मनोमय, प्राणमय, अन्नमय कोशों) को भरने के लिए क्षरित हो ।
ऋग्वेद ९.३४ से ज्ञात होता है कि पवमान सोम ने यह प्रार्थना सुन ली है । अतः वह कहता है कि इन्दु गतिशील हो गया है और अपने ओज से अत्यन्त दृढ बाधाओं को भी नष्ट कर रहा है ( ऋग्वेद ९.३४.१) : अब इन्द्र, वायु, वरुण, मरुतों और विष्णु के निमित्त पयः नामक प्राणोदक शक्तिपूर्वक दुहा जा रहा है तथा विभिन्न रूपों में सम्यक् गतिशील होता हुआ, दुरित को हरण करने वाला हरि नामक सोम, जो त्रित के लिए अन्वेषणीय था, वह आत्मा रूपी इन्द्र के लिए मत्सर( मस्त, मद) करने वाला हो गया ( ऋ. ९.३४.४) । अब ईम् नामक प्राणोदक 'ऋतस्य विष्टपं' तथा 'चारु प्रियतमं हवि: ' हो गया, जिसका दोहन मरुत नामक प्राण कर रहे हैं ( ऋ. ९.३४.५) । इस प्रकार ब्रह्मानन्द रूप सोम की कृपा उपलब्ध होने पर त्रित अपने आध्यात्मिक विकास की उस चरम सीमा तक पहुंच जाता है जिसकी झलक ऋ. १०.१-७ में भली भांति प्राप्त होती है । ये सात सूक्त जिस अग्नि को सम्बोधित हैं, वह जातवेदस् अग्नि है जिसका विज्ञान विप्रों को मतियों के द्वारा (मतिभि: ) प्राप्त होता है ( ऋग्वेद १०.६.५), क्योंकि यह अग्नि आत्मा के उस रूप का द्योतक है जिसमें क्रियापरक इन्द्र ज्ञानपरक अग्नि में सोम को उदरस्थ किए हुए चित्रित किया जाता है ( अयं सो अग्निर्यस्मिन्त्सोममिन्द्र: सुतं दधे जठरे वावशानः । सहस्रिणं वाजमत्यं न सप्तिं ससवान्त्सन्त्स्तूयसे जातवेद: ।। - ऋग्वेद ३.२२.१) । इन्द्र, अग्नि और सोम नामक इन तीन पक्षों को ही त्रित के 'त्रीणि योजनानि' कहा गया है , जिनका निर्माण सुक्रतु सोम अपनी धारा से एक रयि के रूप में करता है ( ऋग्वेद ९.१०२.३) । वास्तव में इस त्रिविधता के कारण ही जीवात्मा को त्रित कहा जाता है, परन्तु उसकी यह त्रिविधता एकीभूत जातवेदस् का रूप तभी ग्रहण कर सकती है जब वह अहंकार जन्य कूप से बाहर निकल पाता है । आत्मा का यह एकीभूत रूप वह रयि है जिसे सभी आध्यात्मिक धनों का ध्रुव( ध्रुवो रयीणां ) कहा जाता है और जो उस जायमान इन्दु को जानता है जिसका वर्णन अब अहंबुद्धि, मन तथा पंच ज्ञानेन्द्रियों रूपी सप्त माताएं करती हैं ( ऋ. ९.१०२.४) ।
यह ब्रह्मानन्द रस रूप सोम ईम् नामक प्राणोदक का वह चारु गर्भ है जिसको वे विश्वेदेवा: ही जन्म दे पाते हैं जो उसके व्रती होने से द्रोहरहित, परस्पर प्रीति सम्पन्न होकर स्पृहणीय रमणीय और ऋत का वर्धन करने वाले कहे जाते हैं ( ऋ. ९.१०२.५) । अब यह अनुभूति द्वित की उस स्थिति से भिन्न है जिसमें वह त्रित की सारी सम्पत्ति का हरण करके उसे कूप में ढकेलने वाला बना था । अब प्राणमय आत्मा रूप द्वित आप्त्य भी अपने सूक्त(ऋ. ९.१०३) में अनुभव करता है कि मन और बुद्धि सहित पंच प्राण भी ऋषियों की सप्त वाणी बन गए हैं, क्योंकि अब पवमान सोम उसके (प्राणमय कोश के ) स्तर को भी मधुश्चुत(कोशं मधुश्चुतं ) बना रहा है और वह स्वयं मतियों का नेता ( नेता मतीनां ) तथा एक विश्वदेव हो गया है ( ऋ. ९.१०३.३) । फिर भी उसकी प्रार्थना है कि वह अमर्त्य इन्द्र के साथ सरथ होकर पवमान होता हुआ सर्वत्र व्याप्त हो जाए ( ऋ. ९.१०३.५-६) ।
द्वित के समान एकत आप्त्य भी परिवर्तित परिस्थियों में बदला हुआ दिखाई पडता है । अतः ऋग्वेद १०.१५७ के ऋषि के रूप में भुवन 'आप्त्यः साधनो वा भौवनः ' कहा जाता है । इसका तात्पर्य है कि अब वह सम्पूर्ण भुवनं का साधन रूप हो गया है और पहले जैसा स्वार्थी और क्षुद्र नहीं रहा । तदनुसार वह कामना करता है कि इन्द्र आदित्यों और मरुतों के साथ हम सब के तन्तुओं का (अस्माकं तन्तूनां ) रक्षक बने तथा जो भी असुर आएं, देव उनका हनन करके देवत्व की रक्षा करे ( ऋग्वेद १०.१५७.१- ३) । इससे स्पष्ट प्रतीत होता है कि यह भुवन आप्त्य अन्नमय शरीरों (तनूनां ) की रक्षा चाहने वाला वही एकत आप्त्य है जिसे हमने अन्नमय कोश का प्राण कहा था, परन्तु अब इसको एक बदली हुई मनोवृत्ति वाला व्यक्ति बतलाने के लिए देवों का हितचिन्तक तथा असुरत्व का विरोधी बताया गया है । इसी दृष्टि से उसकी यह भी प्रार्थना है कि देव लोग अपनी शक्तियों के द्वारा ( शचीभि: ) आरोहण करने वाले सूर्य को पुनः वापस लाएं और जिसके पश्चात् हम लोग अपनी एषणीय स्वधा(वृष्ट्युदक ) को सर्वत्र देखें ( ऋग्वेद १०.१५७.३) ।
इस प्रकार अहंकार रूप अहि के प्रभाव से मुक्त होने पर जो त्रित, द्वित और एकत क्रमशः अपने मनोमय, प्राणमय और अन्नमय कोश को अलग - अलग समझ रहे थे, अब वे सब एकीभूत होकर आनन्द सोम की उस दिव्य ऊधस् से सिंचित हो रहे हैं जिसको पूर्ण और सर्वताति अदिति कहा जाता है तथा जिसकी प्राप्ति होने पर सोम का अभिषवण करने वाले 'भद्रा प्रमति: ' के अधिकारी बन जाते हैं ( ऋ. १०.१००.११) । यहां उसे ऊधस् अदिति कहने से जहां उसकी अद्वैत अखण्डता का बोध होता है, वहीं सर्वताति कहने से उसकी बहुमुखी व्याप्ति की ओर संकेत होता है । इसका तात्पर्य है कि जब विश्वगत आन्तरिक अखण्डता के साथ - साथ सर्वगत व्याप्ति भी होती है, तभी मनुष्य व्यक्तित्व पूर्ण कुम्भ बनता है जिसे अमृतयुक्त धारा से पूर्ण माना जा सकता है ( अथर्व ३.१२.८) । इस प्रकार जब अवरोहण करता हुआ पवमान सोम आत्मा रूपी इन्द्र के निमित्त मनुष्य - व्यक्तित्व को एक पूर्ण चमस के रूप में परिवर्तित कर देता है, तभी इन्दु सर्वत: प्रवाहित होकर पुण्यात्मा व्यक्ति का भोजन बन जाता है ( अथर्व १८.३.५४) । दूसरे शब्दों में, जो परब्रह्म परमात्मा का पूर्ण ब्रह्मानन्द रस है, उस पूर्ण से संयुक्त होकर व्यष्टिगत आनन्द भी पूर्ण रूप में प्राप्त हो जाता है । इसी बात को लक्ष्य करके कहा जाता है कि पूर्ण से पूर्ण को प्राप्त किया जाता है, परन्तु फिर भी साधक की यह अभिलाषा रहती है कि हम उस स्रोत को जान सकें जिससे यह परिसिंचन हो रहा है -
पूर्णात् पूर्णमुदचति पूर्णं पूर्णेन सिंचति । उतो तदद्य विद्याम यतस्तत् परिषिच्यते - अथर्व १०.८.२९
संदर्भ
चन्द्रमा
अप्स्वन्तरा
सुपर्णो
धावते
दिवि
।
न
वो
हिरण्यनेमयः
पदं
विन्दन्ति
विद्युतो
वित्तं
मे
अस्य
रोदसी
॥१॥
अर्थमिद्वा
उ
अर्थिन
आ
जाया
युवते
पतिम्
।
तुञ्जाते
वृष्ण्यं
पयः
परिदाय
रसं
दुहे
वित्तं
मे
अस्य
रोदसी
॥२॥
मो
षु
देवा
अदः
स्वरव
पादि
दिवस्परि
।
मा
सोम्यस्य
शम्भुवः
शूने
भूम
कदा
चन
वित्तं
मे
अस्य
रोदसी
॥३॥
यज्ञं
पृच्छाम्यवमं
स
तद्दूतो
वि
वोचति
।
क्व
ऋतं
पूर्व्यं
गतं
कस्तद्बिभर्ति
नूतनो
वित्तं
मे
अस्य
रोदसी
॥४॥
अमी
ये
देवा
स्थन
त्रिष्वा
रोचने
दिवः
।
कद्व
ऋतं
कदनृतं
क्व
प्रत्ना
व
आहुतिर्वित्तं
मे
अस्य
रोदसी
॥५॥
कद्व
ऋतस्य
धर्णसि
कद्वरुणस्य
चक्षणम्
।
कदर्यम्णो
महस्पथाति
क्रामेम
दूढ्यो
वित्तं
मे
अस्य
रोदसी
॥६॥
अहं
सो
अस्मि
यः
पुरा
सुते
वदामि
कानि
चित्
।
तं
मा
व्यन्त्याध्यो
वृको
न
तृष्णजं
मृगं
वित्तं
मे
अस्य
रोदसी
॥७॥
सं
मा
तपन्त्यभितः
सपत्नीरिव
पर्शवः
।
मूषो
न
शिश्ना
व्यदन्ति
माध्य
स्तोतारं
ते
शतक्रतो
वित्तं
मे
अस्य
रोदसी
॥८॥
अमी
ये
सप्त
रश्मयस्तत्रा
मे
नाभिरातता
।
त्रितस्तद्वेदाप्त्यः
स
जामित्वाय
रेभति
वित्तं
मे
अस्य
रोदसी
॥९॥
अमी
ये
पञ्चोक्षणो
मध्ये
तस्थुर्महो
दिवः
।
देवत्रा
नु
प्रवाच्यं
सध्रीचीना
नि
वावृतुर्वित्तं
मे
अस्य
रोदसी
॥१०॥
सुपर्णा
एत
आसते
मध्य
आरोधने
दिवः
।
ते
सेधन्ति
पथो
वृकं
तरन्तं
यह्वतीरपो
वित्तं
मे
अस्य
रोदसी
॥११॥*
नव्यं
तदुक्थ्यं
हितं
देवासः
सुप्रवाचनम्
।
ऋतमर्षन्ति
सिन्धवः
सत्यं
तातान
सूर्यो
वित्तं
मे
अस्य
रोदसी
॥१२॥
अग्ने
तव
त्यदुक्थ्यं
देवेष्वस्त्याप्यम्
।
स
नः
सत्तो
मनुष्वदा
देवान्यक्षि
विदुष्टरो
वित्तं
मे
अस्य
रोदसी
॥१३॥
सत्तो
होता
मनुष्वदा
देवाँ
अच्छा
विदुष्टरः
।
अग्निर्हव्या
सुषूदति
देवो
देवेषु
मेधिरो
वित्तं
मे
अस्य
रोदसी
॥१४॥
ब्रह्मा
कृणोति
वरुणो
गातुविदं
तमीमहे
।
व्यूर्णोति
हृदा
मतिं
नव्यो
जायतामृतं
वित्तं
मे
अस्य
रोदसी
॥१५॥
असौ
यः
पन्था
आदित्यो
दिवि
प्रवाच्यं
कृतः
।
न
स
देवा
अतिक्रमे
तं
मर्तासो
न
पश्यथ
वित्तं
मे
अस्य
रोदसी
॥१६॥
त्रितः
कूपेऽवहितो
देवान्हवत
ऊतये
।
तच्छुश्राव
बृहस्पतिः
कृण्वन्नंहूरणादुरु
वित्तं
मे
अस्य
रोदसी
॥१७॥
अरुणो
मा
सकृद्वृकः
पथा
यन्तं
ददर्श
हि
।
उज्जिहीते
निचाय्या
तष्टेव
पृष्ट्यामयी
वित्तं
मे
अस्य
रोदसी
॥१८॥
एनाङ्गूषेण
वयमिन्द्रवन्तोऽभि
ष्याम
वृजने
सर्ववीराः
।
तन्नो
मित्रो
वरुणो
मामहन्तामदितिः
सिन्धुः
पृथिवी
उत
द्यौः
॥१.१०५.१९॥
यमेन दत्तं त्रित एनमायुनगिन्द्र एणं प्रथमो अध्यतिष्ठत् ।
गन्धर्वो अस्य रशनामगृभ्णात्सूरादश्वं वसवो निरतष्ट ॥ - १,१६३.०२
सनेम ये त ऊतिभिस्तरन्तो विश्वा स्पृध आर्येण दस्यून् ।
अस्मभ्यं तत्त्वाष्ट्रं विश्वरूपमरन्धयः साख्यस्य त्रिताय ॥ - २,०११.१९
उत वः शंसमुशिजामिव श्मस्यहिर्बुध्न्योऽज एकपादुत ।
त्रित ऋभुक्षाः सविता चनो दधेऽपां नपादाशुहेमा धिया शमि ॥ - २,०३१.०६
अयमकृणोदुषसः सुपत्नीरयं सूर्ये अदधाज्ज्योतिरन्तः ।
अयं त्रिधातु दिवि रोचनेषु त्रितेषु विन्ददमृतं निगूळ्हम् ॥ - ६,०४४.२३
अनु त्रितस्य युध्यतः शुष्ममावन्नुत क्रतुम् ।
अन्विन्द्रं वृत्रतूर्ये ॥ - ८,००७.२४
यत्सोममिन्द्र विष्णवि यद्वा घ त्रित आप्त्ये ।
यद्वा मरुत्सु मन्दसे समिन्दुभिः ॥ - ८,०१२.१६
यस्मिन्विश्वानि काव्या चक्रे नाभिरिव श्रिता ।
त्रितं जूती सपर्यत व्रजे गावो न संयुजे युजे अश्वां अयुक्षत । नभन्तामन्यके समे ॥ - ८,०४१.०६
महि
वो
महतामवो
वरुण
मित्र
दाशुषे
।
यमादित्या
अभि
द्रुहो
रक्षथा
नेमघं
नशदनेहसो
व
ऊतयः
सुऊतयो
व
ऊतयः
॥१॥
विदा
देवा
अघानामादित्यासो
अपाकृतिम्
।
पक्षा
वयो
यथोपरि
व्यस्मे
शर्म
यच्छतानेहसो
व
ऊतयः
सुऊतयो
व
ऊतयः
॥२॥
व्यस्मे
अधि
शर्म
तत्पक्षा
वयो
न
यन्तन
।
विश्वानि
विश्ववेदसो
वरूथ्या
मनामहेऽनेहसो
व
ऊतयः
सुऊतयो
व
ऊतयः
॥३॥
यस्मा
अरासत
क्षयं
जीवातुं
च
प्रचेतसः
।
मनोर्विश्वस्य
घेदिम
आदित्या
राय
ईशतेऽनेहसो
व
ऊतयः
सुऊतयो
व
ऊतयः
॥४॥
परि
णो
वृणजन्नघा
दुर्गाणि
रथ्यो
यथा
।
स्यामेदिन्द्रस्य
शर्मण्यादित्यानामुतावस्यनेहसो
व
ऊतयः
सुऊतयो
व
ऊतयः
॥५॥
परिह्वृतेदना
जनो
युष्मादत्तस्य
वायति
।
देवा
अदभ्रमाश
वो
यमादित्या
अहेतनानेहसो
व
ऊतयः
सुऊतयो
व
ऊतयः
॥६॥
न
तं
तिग्मं
चन
त्यजो
न
द्रासदभि
तं
गुरु
।
यस्मा
उ
शर्म
सप्रथ
आदित्यासो
अराध्वमनेहसो
व
ऊतयः
सुऊतयो
व
ऊतयः
॥७॥
युष्मे
देवा
अपि
ष्मसि
युध्यन्त
इव
वर्मसु
।
यूयं
महो
न
एनसो
यूयमर्भादुरुष्यतानेहसो
व
ऊतयः
सुऊतयो
व
ऊतयः
॥८॥
अदितिर्न
उरुष्यत्वदितिः
शर्म
यच्छतु
।
माता
मित्रस्य
रेवतोऽर्यम्णो
वरुणस्य
चानेहसो
व
ऊतयः
सुऊतयो
व
ऊतयः
॥९॥
यद्देवाः
शर्म
शरणं
यद्भद्रं
यदनातुरम्
।
त्रिधातु
यद्वरूथ्यं
तदस्मासु
वि
यन्तनानेहसो
व
ऊतयः
सुऊतयो
व
ऊतयः
॥१०॥
आदित्या
अव
हि
ख्यताधि
कूलादिव
स्पशः
।
सुतीर्थमर्वतो
यथानु
नो
नेषथा
सुगमनेहसो
व
ऊतयः
सुऊतयो
व
ऊतयः
॥११॥
नेह
भद्रं
रक्षस्विने
नावयै
नोपया
उत
।
गवे
च
भद्रं
धेनवे
वीराय
च
श्रवस्यतेऽनेहसो
व
ऊतयः
सुऊतयो
व
ऊतयः
॥१२॥
यदाविर्यदपीच्यं
देवासो
अस्ति
दुष्कृतम्
।
त्रिते
तद्विश्वमाप्त्य
आरे
अस्मद्दधातनानेहसो
व
ऊतयः
सुऊतयो
व
ऊतयः
॥१३॥
यच्च
गोषु
दुष्वप्न्यं
यच्चास्मे
दुहितर्दिवः
।
त्रिताय
तद्विभावर्याप्त्याय
परा
वहानेहसो
व
ऊतयः
सुऊतयो
व
ऊतयः
॥१४॥
निष्कं
वा
घा
कृणवते
स्रजं
वा
दुहितर्दिवः
।
त्रिते
दुष्वप्न्यं
सर्वमाप्त्ये
परि
दद्मस्यनेहसो
व
ऊतयः
सुऊतयो
व
ऊतयः
॥१५॥
तदन्नाय
तदपसे
तं
भागमुपसेदुषे
।
त्रिताय
च
द्विताय
चोषो
दुष्वप्न्यं
वहानेहसो
व
ऊतयः
सुऊतयो
व
ऊतयः
॥१६॥
यथा
कलां
यथा
शफं
यथ
ऋणं
संनयामसि
।*
एवा
दुष्वप्न्यं
सर्वमाप्त्ये
सं
नयामस्यनेहसो
व
ऊतयः
सुऊतयो
व
ऊतयः
॥१७॥
अजैष्माद्यासनाम
चाभूमानागसो
वयम्
।
उषो
यस्माद्दुष्वप्न्यादभैष्माप
तदुच्छत्वनेहसो
व
ऊतयः
सुऊतयो
व
ऊतयः
॥८.४७.१८॥
यथा मनौ विवस्वति सोमं शक्रापिबः सुतम् ।
यथा त्रिते छन्द इन्द्र जुजोषस्यायौ मादयसे सचा ॥ - ८,०५२.०१
आदीं त्रितस्य योषणो हरिं हिन्वन्त्यद्रिभिः ।
इन्दुमिन्द्राय पीतये ॥ - ९,०३२.०२
स त्रितस्याधि सानवि पवमानो अरोचयत् ।
जामिभिः सूर्यं सह ॥ - ९,०३७.०४
एतं त्रितस्य योषणो हरिं हिन्वन्त्यद्रिभिः ।
इन्दुमिन्द्राय पीतये ॥ - ९,०३८.०२
मनीषिभिः पवते पूर्व्यः कविर्नृभिर्यतः परि कोशां अचिक्रदत् ।
त्रितस्य नाम जनयन्मधु क्षरदिन्द्रस्य वायोः सख्याय कर्तवे ॥ - ९,०८६.२०
तं
मर्मृजानं महिषं न सानावंशुं
दुहन्त्युक्षणं गिरिष्ठाम्
।
तं
वावशानं मतयः सचन्ते त्रितो
बिभर्ति वरुणं समुद्रे ॥९.९५.४॥
त्रितः त्रिषु स्थानेषु वर्तमान इन्द्रः “वरुणं शत्रूणां निवारकमेनं सोमं “समुद्रे अन्तरिक्षे “बिभर्ति शत्रुवधार्थं धारयति । यद्वा । त्रितस्त्रिषु स्थानेषु द्रोणाधवनीयपूतभृदाख्येषु कलशेषु ततो विततः सोमः शत्रूणां निवारकमिन्द्रं द्युलोके बिभर्ति पोषयति ॥
उप त्रितस्य पाष्योरभक्त यद्गुहा पदम् ।
यज्ञस्य सप्त धामभिरध प्रियम् ॥२।।
त्रीणि त्रितस्य धारया पृष्ठेष्वेरया रयिम् ।
मिमीते अस्य योजना वि सुक्रतुः ॥ - ९,१०२.०३
नि पस्त्यासु त्रित स्तभूयन्परिवीतो योनौ सीददन्तः ।
अतः संगृभ्या विशां दमूना विधर्मणायन्त्रैरीयते नॄन् ॥ - १०,०४६.०६
नरा वा शंसं पूषणमगोह्यमग्निं देवेद्धमभ्यर्चसे गिरा ।
सूर्यामासा चन्द्रमसा यमं दिवि त्रितं वातमुषसमक्तुमश्विना ॥ - १०,०६४.०३
वि यस्य ते ज्रयसानस्याजर धक्षोर्न वाताः परि सन्त्यच्युताः ।
आ रण्वासो युयुधयो न सत्वनं त्रितं नशन्त प्र शिषन्त इष्टये ॥ - १०,११५.०४
त इन्द्रेण सह चेरुः । यथेदं ब्राह्मणो राजानमनुचरति स यत्र त्रिशीर्षाणं त्वाष्ट्रं विश्वरूपं जघान तस्य हैतेऽपि वध्यस्य विदाञ्चक्रुः शश्वद्धैनं त्रित एव जघानात्यह तदिन्द्रोऽमुच्यत देवो हि सः॥ त उ हैत ऊचुः । उपैवेम एनो गच्छन्तु येऽस्य वध्यस्यावेदिषुरिति किमिति यज्ञ एवैषु मृष्टामिति तदेष्वेतद्यज्ञो मृष्टे यदेभ्यः पात्रीनिर्णेजनमङ्गुलिप्रणेजनं निनयन्ति॥ त उ हाप्त्या ऊचुः । अत्येव वयमिदमस्मत्परो नयामेति कमभीति य एवादक्षिणेन हविषा यजाताऽइति तस्मान्नादक्षिणेन हविषा यजेताप्त्येषु ह यज्ञो मृष्ट आप्त्या उ ह तस्मिन्मृजते योऽदक्षिणेन हविषा यजते॥ ततो देवाः । एतां दर्शपूर्णमासयोः दक्षिणामकल्पन्यदन्वाहार्यं नेददक्षिणं हविरसदिति तन्नाना निनयति तथैभ्योऽसमदं करोति तदभितपति तथैषां शृतं भवति स निनयति त्रिताय त्वा द्विताय त्वैकताय त्वेति पशुर्ह वा एष आलभ्यते यत्पुरोडाशः॥ - मा.श्. 1.2.3.2-5
आज्यभागाभ्यामेव । सूर्याचन्द्रमसावाप्नोत्युपांशुयाजेनैवाहोरात्रे आप्नोति पुरोडाशेनैवार्धमासावाप्नोतीत्यु हैक आहुः । तदु होवाचासुरिः । आज्यभागाभ्यामेवातो यतमे वा यतमे वा द्वे आप्नोति उपांशुयाजेनैवातो ऽहोरात्रे आप्नोति पुरोडाशेनैवातोऽर्धमासावाप्नोति सर्वं म आप्तमसत्सर्वं जितं सर्वेण वृत्रं हनानि सर्वेण द्विषन्तं भ्रातृव्यं हनानीति तस्माद्वा एतावत्क्रियत इति – मा.श. 1.6.3.26
वैसर्जन होमः -- अथाप्तवे द्वितीयामाहुतिं जुहोति । जुषाणोऽ अप्तुराज्यस्य वेतु स्वाहेत्येष उ हैवैतदुवाच रक्षोभ्यो वै बिभेमि यथा माऽन्तरा नाष्ट्रा रक्षांसि न हिनसन्नेवं मा कनीयांसमेव वधात्कृत्वाऽतिनयत स्तोकमेव स्तोको ह्यप्तुरिति तमेतत् कनीयांसमेव वधात्कृत्वाऽत्यनयन्त्स्तोकमेव स्तोको ह्यप्तू रक्षोभ्यो भीषा तस्मादप्तवे द्वितीयामाहुतिं जुहोति – मा.श. 3.6.3.8
अप्तुः – सूक्ष्म रूपः सोमः। अन्तरा – प्रणयनकाले मध्यमार्गे शालामुखीय हविर्द्धानयोरन्तराले – सायण भाष्य
वपा पशुपुरोडाशः । तत्षष्टिः षष्टिर्मासस्याहोरात्राणि तन्मासमाप्नोति मास आप्त ऋतुमाप्नोत्यृतुः संवत्सरं तत्संवत्सरमग्निमाप्नोति ये च संवत्सरे कामा अथ यदतो ऽन्यद्यदेव संवत्सरेऽन्नं तत्तत् – मा.श. 6.2.2.35
इति नु कामयमानोऽथाकामयमानो योऽकामो निष्काम आत्मकाम आप्तकामो
भवति न तस्मात्प्राणा उत्क्रामन्त्य – मा.श. 14.7.2.8
अथो द्वयं वा इदं सर्वं स्नेहश् चैव तेजश् च अथ तद् अहोरात्राभ्याम् आप्तम् स्नेहतेजसोर् आप्त्यै – गो.ब्रा. 2.5.3
ता यद् आप्त्वायच्छद् अतो वा अप्तोर्यामा अथो प्रजा वा अप्तुर् इत्य् आहुः प्रजानां यमन इति हैवैतद् उक्तं ता बर्हिः प्रजा अश्नायेरन् तर्हि हैतैन यजते - गोपथ ब्रा. 2.5.9
उपो षु जातम् अप्तुरम् इति प्रजाकामः प्रतिपदं कुर्वीत। उपेव वा आत्मन् प्रजया पशुभिः प्रजायते। एताम् एवापरेद्युः प्रतिपदं कुर्वीत। अप्तुरम् इति ह्य् अस्या आप्त्वा श्रेयांसं वसीयान् आत्मना भवति। - जै.ब्रा. 1.90
तान् आश्विनेन क्रतुना पर्यगृह्णात्। तेषां परिगृहीतानां यथा क्षुद्रा मत्स्या अक्ष्योर् अक्ष्य् अतिशीयेरन्न् एवम् एव ये क्षुद्राः पशव आसुस् ते अतिशेरुः। तान् अकामयताप्त्वैनान् आत्मन् यच्छेयम् इति। स एतान्य् उपरिष्टाद् रात्रेश् चत्वारि स्तोत्राण्य् अपश्यत्। तैर् अस्तुत। तैर् एवैनान् आप्त्वात्मन्य् अयच्छत्। यद् आप्त्वात्मन्य् अयच्छत् तस्माद् अप्तोर्यामः। यद् व् एवाप्तश इव सोमस्य प्रभावयन् नन्वैतस्माद् अप्तोर्यामः॥जै.ब्रा 2.110॥
अथैतद्दशममहराप्तस्तोममाप्तच्छन्द आप्तविभक्तिकमनिरुक्तं प्राजापत्यम् – तां.ब्रा. 4.8.7