धनुष
टिप्पणी – जैसा कि मन्यु शब्द की टिप्पणी में कहा जा चुका है, हमारे शरीर में अगणित धनुषों की कल्पना की जा सकती है । जहां भी तनाव उपस्थित होगा, वह देह के तन्तुओं से मिलकर उनको धनुष के दण्ड की भांति झुका देगा । यह आशा की जा सकती है कि वैदिक और पौराणिक साहित्य का धनुष किसी आदर्श स्थिति की करता होगा । इसका एक प्रमाण अथर्ववेद ७.५२.९ (७.५०.९) का निम्नलिखित मन्त्र है –
अक्षाः फलवतीं द्युवं दत्त गां क्षीरिणीमिव ।
सं मा कृतस्य धारया धनुः स्नाव्नेव नह्यत ।।
यह मन्त्र कितववध सूक्त का है । इस मन्त्र में कामना की गई है कि जो पांसे कृत अर्थात् जीत लिए गए हैं, उनकी धारा मुझे ऐसे बांध दे जैसे धनुष को स्नायु बांधता है । स्नायु से तात्पर्य धनुष दण्ड पर बंधने वाली डोरी से है जिसे ज्या कहा जाता है । मन्त्र में कहा जा रहा है कि ज्या कृत की धारा से बनी हो । अक्षों में द्यूत या चांस विद्यमान रहता है । जब धारा बन जाएगी तो आशा की जानी चाहिए कि द्यूत या चांस समाप्त हो जाएगा ।
अथर्ववेद ५.१८.८ का मन्त्र निम्नलिखित है –
जिह्वा ज्या भवति कुल्मलं वाङ् नाडीका दन्तास्तपसाभिदिग्धाः।
तेभिर्ब्रह्मा विध्यति देवपीयून् हृद्बलैर्धनुभिर्देवजूतैः ।।
इस मन्त्र में हृद्बलों को धनुष कहा जा रहा है । इन धनुषों में जिह्वा को ज्या कहा गया है और वाक् को धनुष दण्ड । दांतों को नालीक नामक इषु विशेष कहा गया है । जिह्वा का गुण रसों का आस्वादन करना होता है लेकिन इससे मिलने वाला सुख क्षणिक् होता है । यह द्यूत या चांस की स्थिति है । आवश्यकता इस बात की है कि जिह्वा सतत् रूप से रसों का आस्वादन करे । सामान्य रूप से रस की अनुभूति केवल जिह्वाग्र पर होती है । लेकिन अनशन के पश्चात् भोजन करने पर रस की अनुभूति जिह्वा के मूल में भी की जा सकती है ।
स्कन्द पुराण के ब्राह्म खण्ड का प्रथम भाग रामेश्वर सेतु माहात्म्य है । ऐसा प्रतीत होता है कि सेतु से तात्पर्य धनुष की ज्या से है । जैसा कि अथर्ववेद ७.५२.९ के मन्त्र में उल्लेख किया गया है, ज्या बनाने के लिए अक्षों के कृत होने तथा कृत से कृत की धारा बनना अभीष्ट है । सेतु निर्माण में प्रतीत होता है कि अक्षों को पाषाण कहा गया है। इन पाषाणों से सेतु बनाने का कार्य नल और नील द्वारा किया जाता है । पाषाणों के बीच में कौन सा आकर्षण हो कि यह परस्पर जुड जाएं । लोकभाषा में कहा जाता है कि उन पाषाणों पर राम और सीता लिख दिया गया जिससे वह जुड गए और सेतु बन गया । राम और सीता पुरुष व सात्विक प्रकृति के प्रतीक हो सकते हैं । स्कन्द पुराण ३.१.४९.३० के आधार पर यह कहा जा सकता है कि देश, काल, दिक् भेदों के रूप में जो भिन्नता विद्यमान है तथा अविद्या के रूप में जो भिन्नता विद्यमान है, उसके अपनयन पर सेतु बन सकता है ।
पौराणिक साहित्य यह इंगित करता है कि देह में मुख्य धनुष कौन से हो सकते हैं । एक धनुष के बारे में विष्णुधर्मोत्तर पुराण ३.३७.१० में कहा गया है कि चक्रवर्तियों की भौंहें चापाकृति होती हैं । भागवत पुराण ५.२.७ में इन भौंहों की कल्पना बिना ज्या वाले धनुष से की गई है । डा. फतहसिंह कहा करते थे कि भौंहें और कान ज्योति द्वारा परस्पर मिल जाते हैं । भौंहों के इस धनुष में तृतीय चक्षु का स्थान धनुर्मुष्टि का स्थान होना चाहिए और दो कान धनुष की दो कोटियां हो सकते हैं । ऋग्वेद ६.७५.३ में ज्या देवता की ऋचा निम्नलिखित है –
वक्ष्यन्ती वेदा गनीगन्ति कर्णं प्रियं सखायं परिषस्वजाना ।
योषेव शिङ्क्ते वितताधि धन्वञ्ज्या इयं समने पारयन्ती ।।
इस ऋचा में ज्या को वेदों की अभिव्यक्ति करने वाली, कर्ण को ? करने वाली, सखा का आलिंगन करने वाली योषा या पत्नी की भांति कहा जा रहा है । स्पष्ट है कि इस ऋचा में कर्णों से निर्मित किसी ज्या की कल्पना की जा रही है ।
हृदय से निर्मित धनुष का उल्लेख ऊपर किया जा चुका है । इसके अतिरिक्त नाभि से निर्मित होने वाले धनुष के अस्तित्त्व की भी संभावना है । अथर्ववेद ६.१०१.२ में पसः या शिश्न को धनुष की ज्या कहा गया है(आहं तनोमि ते पसो अधि ज्यामिव धन्वनि) जबकि अथर्ववेद ४.४.६ में पसः को स्वयं धनुष ही कहा गया है(अद्यास्य ब्रह्मणस्पते धनुरिवा तानया पसः ॥)।
धनु शब्द की निरुक्ति के संदर्भ में यह सोचा जा सकता है कि जो तन्त्र, जो प्राण ऋण अवस्था से धन अवस्था की ओर ले जाता हो, वह धनु है । लेकिन इस निरुक्ति का कोई प्रमाण नहीं मिलता । दक्षतापूर्वक किया गया कार्य धनात्मकता उत्पन्न करता है, अतः यज्ञ को धनुष कहा गया है , आत्मा को शर और ब्रह्म को लक्ष्य । धनुर्वेद संहिता १.१२४ में प्रकट होने वाला एक श्लोक निम्नलिखित है –
पुष्पवद्धारयेद्बाणं सर्पवत्पीडयेद्धनुः। धनवच्चिन्तयेल्लक्ष्यं यदीच्छेत्सिद्धिमात्मनः।।
महाभारत शान्ति २६.२७ में यज्ञ के यूप और और यूप के परितः लिपटी हुई रशना का साम्य धनुष व शर से कहा गया है।
महाभारत शान्ति पर्व २८९.१८ में पिनाक धनुष की उत्पत्ति के संदर्भ में दी गई कथा रोचक है । उशना कवि कुबेर के अन्दर प्रवेश करके देवों की धनात्मकता का हरण कर रहे थे । देवों की प्रार्थना पर शिव आ गए । शिव को क्रोधित देख उशना छिपने के लिए स्थान ढूंढने लगे और स्वयं शिव के शूलाग्र में ही स्थित हो गए । शिव ने शूल को पाणि से झुकाकर उशना को अपने मुख से निगल लिया । कालान्तर में उशना को मूत्र मार्ग से बाहर निकाला । पाणि से झुका हुआ त्रिशूल ही पिनाक धनुष कहलाया । पाणि से आनत करने से उसका नाम पिनाक हुआ ।
महाभारत द्रोण पर्व २३.९१ में पाण्डवों के धनुषों के अलग – अलग देवताओं का नाम है जैसे विष्णु, शिव, अश्विनौ, वरुण, यम, अग्नि आदि । विष्णु के धनुष को शृङ्गों से निर्मित शार्ङ धनुष कहा जाता है ।
वराह पुराण २१.३५ में गायत्री के धनुष, ओंकार के ज्या तथा ७ स्वरों के शर बनने का उल्लेख है । यह कथन महाभारत सौप्तिक पर्व १८.७ में यज्ञ के धनुष और वषट्कार के ज्या होने के कथन से तुलनीय है । गायत्री का धनुष तभी बन सकता है जब सारी स्थूलता समाप्त हो गई हो । ७ स्वरों के शर बनने का कथन यह इंगित करता है कि यह कोई गात्र वीणा की स्थिति तो नहीं है । वीणा और धनुष भी तुलनीय हैं । वीणा में वीणा दण्ड होता है और तार कसे रहते हैं । जब वषट्कार को धनुष की ज्या कहा जाता है तो यह विचारणीय है कि वषट्कार क्या होता है । ब्राह्मण में कहा गया है - असौ वै वौ ऋतवो षट् । इसका अर्थ यह हो सकता है कि जब सूर्य का प्रवेश ६ ऋतुओं में, जीवन्त प्रकृति में हो जाता है तो वषट्कार बन जाता है । ऋतुएं, क्या होती हैं, इसका वर्णन वैदिक साहित्य में भिन्न – भिन्न रूप से मिलता है । ६ ऋतुओं में सूर्य की स्थिति होने पर क्या परिवर्तन हो सकते हैं, इसका अनुमान अथर्ववेद १५.२ सूक्त के आधार पर लगाया जा सकता है । इस सूक्त में वसन्त आदि ऋतुओं की कल्पना प्राची, दक्षिण, प्रतीची व उदीची दिशाओं के रूप में की गई है । प्राची दिशा से भूत – भविष्य का ज्ञान, दक्षिण दिशा से अमावास्या – पौर्णमासी का ज्ञान, प्रतीची से अह और रात्रि का ज्ञान तथा उदीची दिशा से श्रुत – विश्रुत का ज्ञान होता है । ऐसा प्रतीत होता है कि इस प्रकार काल के सभी अवयवों का ज्ञान होकर संवत्सर बन जाता है । स्कन्द पुराण ३.१.३ में सुदर्शन नामक जिस चक्र तीर्थ का वर्णन है, वह यह संवत्सर चक्र हो सकता है ।
देवीभागवत पुराण ७.३६.६, मुण्डकोपनिषद २.२.३ इत्यादि में प्रकट सार्वत्रिक श्लोक निम्नलिखित है –
प्रणवो धनुः शरो ह्यात्मा ब्रह्म तल्लक्ष्यमुच्यते । अप्रमत्तेन वेद्धव्यं शरवत्तन्मयो भवेत् ।।
इस मन्त्र में प्रणव को धनुष कहा जा रहा है । प्रणव की वास्तविक प्रकृति का ज्ञान न होने से प्रणव रूपी धनुष की प्रकृति का ज्ञान नहीं लगाया जा सकता । तैत्तिरीय संहिता ६.५.५.१ तथा शतपथ ब्राह्मण ४.३.३.६ में सोमयाग माध्यन्दिन सवन में मरुत्वतीय ग्रह के संदर्भ में तीन यजुओं का उल्लेख है । वृत्र का वध करने के लिए इन्द्र ने यह उचित समझा कि विशः या प्रजा रूपी मरुतों की सहायता ली जाए, उनको अपना सहायक बनाया जाए । मरुतों ने इस सहायता के बदले यज्ञ में अपना भाग मरुत्वतीय ग्रह के रूप में प्राप्त किया । तैत्तिरीय संहिता में कहा गया है कि प्रथम यजु धनुष है, द्वितीय यजु ज्या है और तृतीय यजु इषु है । इसी संदर्भ में आगे कहा गया है कि इन्द्र ने प्रथम यजु द्वारा प्राण का शोधन? किया, द्वितीय यजु द्वारा अपान का और तृतीय यजु द्वारा आत्मा का । शतपथ ब्राह्मण में कहा गया है कि इन्द्र के पास आते समय मरुद्गण अपना ओज छोड आए थे । तृतीय यजु द्वारा मरुद्गण अपने ओज को भी इन्द्र के पास ले आए । प्राण को धनुष और अपान को ज्या कहने से संकेत मिलता है कि धनुष अमर्त्य स्तर का प्रतीक है जबकि ज्या मर्त्य स्तर का । इन दोनों के सम्मिलन से इषु का निर्माण होना है । इषु को किसी प्रकार ओज से सम्बद्ध किया गया है । जैसा कि ओज शब्द की टिप्पणी में कहा गया है, ओ कोई अनुनाद की, ऊर्जा की किसी साम्यावस्था की सूचक है और ज इस साम्यावस्था से ऊर्जा के ग्रहण करने को इंगित करता है । यह वैसे ही है जैसे आधुनिक विज्ञान में रेजोनेन्ट केविटी से ऊर्जा का ग्रहण किया जाता है । इस अवस्था को वेद में इषु कहा जा रहा है । उपरोक्त तीन यजुएं निम्नलिखित हैं –
१. इन्द्र मरुत्व इह पाहि सोमं यथा शार्यातेऽपिबः सुतस्य । तव प्रणीती तव शूर शर्मन्ना विवासन्ति कवयः सुयज्ञाः । उपयामगृहीतोऽसीन्द्राय त्वा मरुत्वतऽएष ते योनिरिन्द्राय त्वा मरुत्वते ।
२.मरुत्वन्तं वृषभं वावृधानमकवारिं दिव्यं शासमिन्द्रम् । विश्वासाहमवसे नूतनायोग्रं सहोदामिह तं हुवेम । उपयामगृहीतोऽसीन्द्राय त्वा मरुत्वते, एष ते योनिरिन्द्राय त्वा मरुत्वते(वाजसनेयि माध्यन्दिन संहिता ७.३६)।
संहिताभेद से इस यजु का एक रूपान्तर निम्नलिखित है –
मरुत्वाँ इन्द्र वृषभो रणाय पिबा सोममनुष्वधं मदाय । आ सिञ्चस्व जठरे मध्व ऊर्मिं त्वँ राजासि प्रदिवः सुतानाम् । उपयामगृहीतोऽसीन्द्राय त्वा मरुत्वते, एष ते योनिरिन्द्राय त्वा मरुत्वते(तैत्तिरीय संहिता १.४.१९)।
३.उपयामगृहीतोऽसि मरुतां त्वौजसे ।
उपरोक्त यजुओं का विश्लेषण भविष्य में अपेक्षित है । प्रथम यजु में मरुत्वान् इन्द्र सोम का पान इस प्रकार कर रहा है जैसे उसने शर्याति के यज्ञ में किया था । दूसरी यजु में वह सोमपान स्वधा के अनुदिश कर रहा है । यजु १ में कवि शब्द प्रकट हुआ है जबकि यजु २ में अकवारि, अर्थात् अकवि, जो अनुभूति को व्यक्त करने में असमर्थ हो गया हो, इतना आह्लाद ।
सोमयाग में दक्षिणाग्नि या अन्वाहार्यपचन अग्नि का स्वरूप भी धनुषाकार होता है और इसका देवता नल नैषध है । यह अन्वेषणीय है कि धनुष या सेतु और अन्वाहार्यपचन अग्नि में कितनी समानताएं - असमानताएं हैं ।
पुराणों और ब्राह्मण ग्रन्थों में सार्वत्रिक रूप से एक आख्यान मिलता है कि विष्णु धनुष की ज्या पर अपना सिर रख कर सोए हुए थे । देवताओं की प्रेरणा से वम्रियों या दीमकों ने धनुष की ज्या को खा लिया जिससे धनुष दण्ड सीधा हो गया । धनुष की ऊपर की कोटि या नोक से विष्णु का सिर कट गया । फिर विष्णु की देह पर, जो यज्ञ का प्रतीक है, दूसरे सिर का सन्धान किया गया । ताण्ड्य ब्राह्मण ७.५.६ तथा तैत्तिरीय आरण्यक ५.१.२ में इस आख्यान का एक रूपान्तर प्राप्त होता है । देवों को यश की आवश्यकता थी और मख को वह यश पहले प्राप्त हो गया लेकिन उसने उस यश का देवों में वितरण नहीं किया । उस मख के सव्य या वाम भाग से धनु की उत्पत्ति हुई और दक्षिण से इषुओं की । वह धनुष का सहारा लेकर बैठ गया । दीमकों ने उस धनुष की ज्या को छिन्न कर दिया और इससे उस मख का सिर कट गया । वह सिर द्यावापृथिवी में फैल गया (प्रावर्तत)। यह फैलना प्रवर्ग्य कहलाया । यज्ञ के सिर को पुनः जोडने के लिए इस फैले हुए सिर के तेज को एकत्र किया जाता है । सोमयाग में सोमलता से सोम का निष्पादन करने से पूर्व प्रवर्ग्य और उपसद इष्टियों का सम्पादन किया जाता है । इसके पश्चात् ही सोमलता से सोम का निष्पादन किया जा सकता है । प्रवर्ग्य इष्टि को पूरे संवत्सर में संपन्न करना होता है और इसके प्रतीक रूप में संवत्सर के १२ मासों या २४ अर्धमासों के प्रतीक रूप १२ या २४ प्रवर्ग्य इष्टियां सम्पन्न करनी होती हैं । कर्मकाण्ड में प्रवर्ग्य इष्टि का स्वरूप यह है कि मृत्तिका के एक पात्र में, जिसे महावीर पात्र कहते हैं, घृत भरकर अग्नि में पकाया जाता है और फिर पकते हुए घृत में गौ पयः तथा अज पयः का क्रमशः प्रक्षेप किया जाता है । इससे बहुत ऊंची ज्वाला निकलती है । यह कर्म सायं - प्रातः १२ या २४ बार दोहराया जाता है । इस कर्मकाण्ड की अवधि में सामगान किया जाता है । सामों का संकेत किस ओर है, यह अभी तक स्पष्ट नहीं हो पाया है । ऐसा प्रतीत होता है कि यह संकेत चन्द्र स्थिति का निर्माण करने की ओर है । किसी को पता नहीं है कि यह प्रवर्ग्य कर्म क्या है । प्रवर्ग्य शब्द को प्र – वृ के आधार पर समझा जा सकता है, अर्थात् प्रकृष्ट रूप से वरण करना, एकत्र करना । एकत्र किस वस्तु को करना है, यह इस पर निर्भर करता है कि किस प्रकार के सिर का निर्माण करना है । आन्तरिक चेतना जिस प्रकार की होगी, वैसे ही सिर का निर्माण देह पर होगा । वैदिक ऋषि किस प्रकार के सिर की अपेक्षा रखते हैं, इसका एक रूप जैमिनीय ब्राह्मण २.२६ से स्पष्ट होता है जिसका विवेचन विषयान्तर और विस्तारभय से यहां नहीं किया जा रहा है ।
तैत्तिरीय ब्राह्मण १.५.१ में धनुष को शिशिर ऋतु से सम्बद्ध किया गया लगता है । कहा गया है कि आरुणकेतुक अग्नि के धनुष की एक कोटि द्युलोक में है जबकि दूसरी कोटि पृथिवी में । इन्द्र ने वम्रिरूप होकर इस धनुष की ज्या को छिन्न कर दिया ।
ऋग्वेद १०.१८.९ की ऋचा में मृतक के हाथ से धनुष ले लेने का उल्लेख है –
धनुर्हस्तादाददानो मृतस्याऽस्मे क्षत्राय वर्चसे बलाय ।
अत्रैव त्वमिह वयं सुवीरा विश्वाः स्पृधो अभिमातीर्जयेम ।।
इस ऋचा का निहितार्थ क्या है, यह अन्वेषणीय है । तैत्तिरीय आरण्यक ६.१.३ में इस ऋचा का थोडा और विस्तार मिलता है कि मृत ब्राह्मण के हाथ से सुवर्ण लेना है, क्षत्रिय के हाथ से धनु और वैश्य के हाथ से मणि ।
शतपथ ब्राह्मण ५.३.५.२७ में धनुष को यजमान की बाहुओं से निर्मित कहा गया है और इन बाहुओं में से एक मित्र की बाहु है, एक वरुण की । यजमान को तीन इषु दिए जाते हैं जिनमें प्रथम इषु का नाम दृबा, द्वितीय का रुजा और तृतीय का क्षुमा है । प्रथम इषु से पृथिवी की, द्वितीय से अन्तरिक्ष की और तृतीय से द्युलोक की जय की जाती है । कात्यायन श्रौत सूत्र के कर्क भाष्य में बाहु – द्वय को धनुष की दो कोटियां कहा गया है ।
मैत्रायणी उपनिषत् ६.२८ में संन्यासी के धनुष का निर्माण दो प्रकार से किया गया है । ज्या क्रोध, प्रलोभ दण्ड तथा इच्छामय इषुओं से निर्मित एक धनुष द्वारा भूतों का हनन करने का निर्देश है । प्रव्रज्या ज्या, धृति दण्ड तथा अनभिमानमय इषु से निर्मित धनुष से ब्रह्मद्वारपार के हनन का निर्देश है ।
मन्यु और धनुष -
अथर्ववेद ६.४२.१ के मन्यु सूक्त का प्रथम मन्त्र है –
अव ज्यामिव धन्वनो मन्युं तनोमि ते हृदः ।
यथा संमनसो भूत्वा सखायाविव सचावहै ।।
अर्थात् मैं तेरे हृदय से मन्यु का अवतनन इस प्रकार करता हूं जैसे धनुष पर से ज्या का अवरोपण किया जाता है । ऐसा करने से हम दोनों एक मन हो सकेंगे और सखाओं की भांति व्यवहार कर सकेंगे । इस मन्त्र से संकेत मिलता है कि हृदय में स्थित प्राण उन प्राणों में से हैं जिन पर मन का आरोपण करके, उन्हें मन द्वारा सममिति प्रदान करके मन्यु बनाया जा सकता है । लेकिन इस मन्यु को भी हटाना है । अथर्ववेद ५.१८.८ का मन्त्र है –
जिह्वा ज्या भवति कुल्मलं वाङ्नाडीका दन्तास्तपसाभिदिग्धाः।
तेभिर्ब्रह्मा विध्यति देवपीयून् हृद्बलैर्धनुभिर्देवजूतैः।।
इस मन्त्र के स्वामी गंगेश्वरानन्द कृत भाष्य में कहा गया है कि ब्रह्मा देवपीयुओं अर्थात् देवों को हानि पहुंचाने वालों का वेधन इस प्रकार करता है कि हृद्बल उसके धनुष बन जाते हैं, जिह्वा ज्या बन जाती है, वाक् कुल्मल अर्थात् धनुर्दण्ड बन जाती है, दन्त नालीक नामक आयुध बन जाते हैं । इस मन्त्र से संकेत मिलता है कि जब हृदय धनुष हो तो जिह्वा उसकी ज्या हो सकती है । पैप्पलाद संहिता १.९२.४ में जिह्वाग्र पर स्थित किसी मन्यु का उल्लेख है –
जिह्वाया अग्रे यो वो मन्युस् तं वो वि नयामसि ।।
जिह्वाग्र पर रसों का आस्वादन करने वाले तन्तु विद्यमान होते हैं । शिश्नाग्र और जिह्वाग्र का परस्पर सम्बन्ध कहा जाता है । और तो और, जिस टेस्टोस्टेरोन का ऊपर उल्लेख किया गया है, चिकित्सा साहित्य में कहा गया है कि उसके कारण अतिरिक्त जिह्वाग्र तन्तुओं का विकास भी किया जा सकता है । इसका यह तात्पर्य भी हो सकता है कि जब किसी रुग्णता के कारण मुख का स्वाद खराब हो जाता है, उसमें भी यही हारमोन उत्तरदायी हो सकता है ।
धनुष और उसकी ज्या के इन उल्लेखों को तब समझा जा सकता है जब यह ज्ञान हो कि अध्यात्म में धनुष और उसकी ज्या से क्या तात्पर्य हो सकता है । जब कुण्डलिनी शक्ति जाग्रत होकर ऊर्ध्वमुखी हो जाती है, उस समय की कुण्डलिनी की अवस्था को ज्या और शरीर को धनुष का नाम दिया जा सकता है । ज्या को गुण भी कहते हैं । अतः जब धनुष ज्यारहित होता है तो उसका अर्थ होगा कि वह सत्, रज व तम नामक तीन गुणों से रहित अवस्था में है । महाभारत सौप्तिक पर्व १८.७ में यज्ञों को धनुष और वषट्कार को उसकी ज्या कहा गया है । वषट्कार को इस प्रकार समझ सकते हैं कि सोमयाग में सोम की आहुति प्रायः जोर से वौ३षट् का उच्चारण करने के पश्चात् दी जाती है, वैसे ही जैसे साधारण रूप से आहुति देते समय स्वाहा शब्द का उच्चारण किया जाता है । कहा गया है कि वौषट् के उच्चारण से आकाश में जो मेघ वर्षा के लिए तैयार रहते हैं, वह बरस पडते हैं । मेघों के संप्लावन, विद्युत का चमकना आदि कार्य अन्य शब्दों द्वारा सम्पन्न किए जाते हैं । वौषट् का उच्चारण पूरा जोर लगाकर किया जाता है । इसे एक अभिचार समझा जाता है जो शत्रुओं का नाश करता है । वौषट् की दूसरी निरुक्ति इस प्रकार की गई है कि सूर्य वौ है और छह ऋतुएं षट् हैं । इस प्रकार वौषट् का उच्चारण करके पृथिवी पर ऋतुओं में सूर्य की प्रतिष्ठा की जाती है । वौषट् को मन्यु की स्थिति ही माना जा सकता है । अन्तर इतना है कि मन्यु की स्थिति प्राण में मन की प्रतिष्ठा होनी चाहिए, लेकिन वौषट् में सूर्य रूपी प्राण की प्रतिष्ठा ऋतुओं में की जा रही है । वौषट् से हम यह भी अनुमान लगा सकते हैं कि मनुष्य में टेस्टोस्टेरोन की पराकाष्ठा क्या हो सकती है ।
धनुष और उसकी ज्या का एक स्वरूप नाग रूप में भी है । लेकिन मन्यु के इस रूप में विष विद्यमान रहेगा जिससे मुक्ति अपेक्षित है ।
अथर्ववेद ५.१३.६ का मन्त्र है –
असितस्य तैमातस्य बभ्रोरपोदकस्य च ।
सत्रासाहस्याहं मन्योरव ज्यामिव धन्वना वि मुञ्चामि रथाँ इव ।।
इस मन्त्र में कहा जा रहा है कि मैं असित आदि विभिन्न सर्पों के मन्युओं से तुझे वैसे ही मुक्त करता हूं जैसे धनुष से ज्या का मोचन किया जाता है अथवा जैसे रथों से अश्वों को अलग किया जाता है ।
अथर्ववेद ८.३.१२ तथा १०.५.४८ के मन्त्रों का दूसरा पद निम्नलिखित है –
मन्योर्मनसः शरव्या जायते या तया विध्य हृदये यातुधानान् ।।
अर्थात् मन्यु युक्त मन से जो शरव्या या शर उत्पन्न होता है, उससे यातुधानों के हृदय का वेधन करो । इस प्रकार मन्यु के इन मन्त्रों में किसी न किसी प्रकार से हृदय का उल्लेख आ रहा है । यह भी स्पष्ट हो रहा है कि जहां मन्यु विद्यमान होगा, वहां वह धनुष की ज्या की भांति काम करेगा । यदि देह में स्थित मन्यु की बात करें तो वह प्रत्येक तन्तु में तनाव उत्पन्न करके उसको धनुष का स्वरूप देगा । अतः यह अपेक्षित है कि जहां जहां भी दूषित मन्यु के कारण धनुष बना हुआ है, उसे दूर करके सत्य मन्यु की, स्तोत्र की प्रतिष्ठा की जाए ।
धनुष के पद
पौराणिक साहित्य में सावर्त्रिक रूप से धनुर्वेद को चार पादों वाला कहा गया है। वसिष्ठधनुर्वेदसंहिता १.२ के अनुसार यह चार पाद दीक्षा, संग्रह, सिद्धप्रयोग व प्रयोगविधि हैं। चूंकि धनुष की तुलना सार्वत्रिक रूप से प्रणव से की गई है, अतः यह विचारणीय है कि प्रणव के अ, उ, म तथा अर्धमात्रा से धनुष के चार पादों का कितना साम्य है (द्र. ओंकार पर टिप्पणी)। विष्णुधर्मोत्तरपुराण २.१७८.२ में धनुर्वेद के पादों के रूप में रथ, नाग, अश्व, पत्ति का उल्लेख है।
प्रथम प्रकाशित – १३-११-२०१० ई.( कार्तिक शुक्ल सप्तमी, विक्रम संवत् २०६७)
There is a verse in Atharva veda which states that the string of a bow is composed of a stream of those dices which have been won. This statement has to be kept in mind always when one thinks about the vedic meaning of bow. In puraanic literature, this bow seems to have been represented by a bridge, like the bridge fabricated by lord Rama over the ocean. The stones of a bridge can be equated with dices of a dice play. For making a bridge, it is necessary that two stones should get connected with each other. In general parlance, this was achieved by writing the names Rama and Sita on the stones. In sprituality, this adhesion can be achieved by removal of ignorance etc.
The shape of a bow resembles the shape of Anvaahaaryapachan fire in soma yaaga. Any similarity or dissimilarity between the two is yet to be investigated.
संदर्भ
धन्वना गा धन्वनाजिं जयेम धन्वना तीव्राः समदो जयेम । धनुः शत्रोरपकामं कृणोति धन्वना सर्वाः प्रदिशो जयेम ॥ऋ ६.७५.२॥
पीवानं
मेषमपचन्त
वीरा
न्युप्ता
अक्षा
अनु
दीव
आसन्
।
द्वा
धनुं
बृहतीमप्स्वन्तः
पवित्रवन्ता
चरतः
पुनन्ता
॥ऋ
१०.२७.१७॥
*पित्र्यमंशमुपवीतलक्षणं मातृकं च धनुरूर्जितं दधत् – रघुवंश ११.६४, कु. ६.६, शि.१.७, मनु. २.४४, २.६४, ४.३६
राम द्वारा शिव-धनुष भंग के माध्यम से आत्म-ज्ञान द्वारा अभिमान के विनाश का चित्रण
- राधा गुप्ता
वाल्मीकि रामायण (बालकाण्ड, सर्ग 66-67) में वर्णित शिव धनुष भंग की कथा इस प्रकार है --
कथा का संक्षिप्त स्वरूप
एक बार राम और लक्ष्मण विश्वामित्र के साथ जनक के यज्ञ को देखने के लिए मिथिलापुरी में गए। वहाँ उन्होंने शिवधनुष को देखने की इच्छा प्रकट की। तदनुसार मोटे ताजे 5 हजार वीर उस मंजूषा को किसी तरह ठेलकर ले आए, जिसमें वह धनुष रखा हुआ था। वह मंजूषा लोहे की बनी थी और उसमें आठ पहिए थे। राम ने राजा जनक और विश्वामित्र की आज्ञा लेकर उस धनुष को बीच से पकडकर उठा लिया और उस पर प्रत्यंचा चढा दी। परन्तु उन्होंने जैसे ही उस धनुष को कान तक खींचा, वैसे ही वह धनुष बीच से टूट गया। जनक प्रसन्न हो गए क्योंकि उन्होंने यह घोषणा की थी कि जो भी वीर शिवधनुष को उठाकर उस पर प्रत्यंचा चढा देगा, वही उनकी अयोनिजा कन्या सीता से विवाह कर सकेगा। अनेक राजाओं ने सीता को प्राप्त करने के लिए शिव - धनुष को उठाने का प्रयत्न किया था, परन्तु कोई भी राजा उस धनुष को उठाने में समर्थ नहीं हो सका था।
धनुष के विषय में कहा गया है कि पूर्वकाल में दक्षयज्ञ के समय देवों ने जब शिव को उनका भाग नहीं दिया था, तब क्रुद्ध शिव ने पहले तो दक्ष - यज्ञ का विध्वंस किया था और फिर अपने धनुष को उठाकर देवों से कहा था कि मैं इस धनुष से तुम्हारे श्रेष्ठ अंगों( मस्तकों) को काट डालूँगा। परन्तु देवों ने जब शिव को प्रसन्न किया तब शिव ने वह धनुष देवों को ही अर्पण कर दिया था। बाद में उसी धनुष को देवों ने निमि के ज्येष्ठ पुत्र देवरात के पास धरोहर के रूप में रख दिया था।
कथा की प्रतीकात्मकता
सबसे पहले कथा के प्रतीकों को समझना उपयोगी होगा।
शिव - धनुष - धनुष नामक शस्त्र एक ऐसा आधार है जिसके ऊपर बाण रखकर लक्ष्य का वेधन किया जाता है। अध्यात्म के स्तर पर मनुष्य की चेतना भी एक धनुष की तरह है जिसको आधार बनाकर और उस आधार पर संकल्प रूपी बाण को रखकर मनुष्य अपने लक्ष्य को प्राप्त करता है। मनुष्य की चेतना रूपी यह आधार दो प्रकार का है। एक है - स्वयं को शरीर मानने के कारण अभिमान रूप आधार और दूसरा है - स्वयं को आत्म - स्वरूप मानने के कारण आत्मज्ञान रूप आधार जिसे उपनिषदों में ओंकार रूप आधार (प्रणवो धनुः) कहा गया है। इन दो प्रकार के आधारों - अभिमान तथा आत्मज्ञान को प्रतीक शैली में दो प्रकार के धनुष कहा गया है। अभिमान रूप आधार को शिव - धनुष और आत्मज्ञान रूप आधार को विष्णु - धनुष। पौराणिक साहित्य में शिव और विष्णु को क्रमशः संहार और पालन के देवता कहा गया है। चूंकि अभिमान और आत्मज्ञान भी क्रमशः संहार और पालन की शक्तियाँ हैं, सम्भवतः इसीलिए अभिमान रूपी धनुष के साथ शिव और आत्मज्ञान रूपी धनुष के साथ विष्णु शब्द को जोड दिया गया है। रामायण महाकाव्य में दोनों ही प्रकार के धनुषों का वर्णन प्राप्त होता है।
अभिमान का तात्पर्य -- अपने वास्तविक स्वरूप - चिदानन्द स्वरूप को भूल जाने के कारण जब मनुष्य स्वयं को शरीर ही समझने लगता है, तब शरीर से सम्बन्ध रखने वाली अपनी विभिन्न भूमिकाओं को ही अपना वास्तविक स्वरूप समझने लगता है। वह समझता है कि मैं पिता हूँ, मैं भाई हूँ, मैं बेटा हूँ आदि आदि। अपनी इन भूमिकाओं को भूमिका न समझकर यही मैं हूँ - ऐसा समझ लेना और उनमें आसक्त हो जाना, उनसे जुडाव बना लेना मनुष्य का सबसे पहला अभिमान है क्योंकि वह विभिन्न भूमिकाओं को निभाने वाला तो है परन्तु स्वयं भूमिका नहीं है। जैसे एक अभिनेता सिनेमा में अनेक प्रकार की भूमिकाओं का निर्वाह करता है, परन्तु वह स्वयं भूमिका नहीं होता। वह भूमिका का निर्वाह करने वाला, भूमिका से अलग एक अभिनेता ही होता है। उसी प्रकार मनुष्य भी भूमिकाओं से अलग, भूमिकाओं का निर्वाह करनेवाला एक चैतन्य शक्ति आत्मा है।
भूमिका को ही अपना स्वरूप समझने के समान कभी कभी मनुष्य अपने पद को ही अपना स्वरूप समझ लेता है। आजीविका के लिए मनुष्य जिन विभिन्न पदों का सहारा लेता है - उन पदों के आधार पर उसे डाक्टर, इंजीनियर आदि कहा जाता है। ये केवल मनुष्य को प्राप्त हुए पद हैं। परन्तु मैं डाक्टर हूं, मैं इंजीनियर हूँ, ऐसा समझकर मनुष्य इन पदों से भी ऐसा आसक्त हो जाता है कि पद को कही गई जरा सी बात उसे आहत कर देती है।
अपने को शरीर समझ लेने के कारण मनुष्य कभी अपनी सम्पत्ति (मैं धनवान हूँ) से, कभी जाति (मैं हिन्दू हूँ) से, कभी राष्ट्रीयता (मैं भारतीय हूँ) से, कभी अपने विषय में निर्मित की हुई किसी इमेज (मैं कर्तव्यपरायण हूं अथवा मैं समय का पाबन्द हूँ) से और कभी कभी तो अपने किसी विचार से ही इतना बंध जाता है कि इन्हीं को यही मैं हूँ - ऐसा समझ लेता है और किसी के द्वारा जरा सा भी कुछ कटु कह देने पर स्वयं को चोट लगा हुआ महसूस करता है। वर्तमान भाषा में इसे ही इगो हर्ट कहा जाता है।
उपर्युक्त वर्णित यह अभिमान एक प्रबल नकारात्मक ऊर्जा है और शनैः शनैः नकारात्मकता को ही जन्म देती है। इसलिए पवित्र सोच की प्राप्ति में वह अभिमान बहुत बडी बाधा है। तात्पर्य यह है कि अभिमानी मनुष्य जो भी मेरा है - उसे मैं समझकर उससे इतना जुडाव बना लेता है कि मेरा को कही हुई कोई भी बात अथवा मेरा को लगी हुई जरा सी चोट मनुष्य को अपने को कही हुई अथवा अपने को लगी हुई महसूस होने लगती है।
अतः यदि मनुष्य यह चाहता है कि उसे पवित्र सोच (सीता) की प्राप्ति हो अर्थात् उसके मन - बुद्धि सदैव पवित्र बने रहें - तब इस अभिमान रूप बाधा को हटाना अनिवार्य है जिसे कथा में धनुष को उठाना कहकर इंगित किया गया है।
कथा में वर्णित सभी संकेत शिवधनुष के उपर्युक्त वर्णित अर्थ को प्रकट करने में नितान्त सहायक हैं।
पहला संकेत -
पहले संकेत के रूप में कथा में कहा गया है कि शिवधनुष लोहे से बनी हुई, आठ पहियों वाली मंजूषा में विद्यमान है और उस मंजूषा को 5 हजार वीर किसी तरह ठेलकर लाते हैं।
प्रस्तुत संकेत की प्रतीकात्मकता --
1 - लौह मंजूषा -- पौराणिक साहित्य में लौह, रजत और स्वर्ण धातुओं का प्रयोग प्रतीक रूप में प्रचुरता से किया गया है। लौह और रजत धातुएँ समय और सम्पर्क के प्रभाव से विकारयुक्त (कलुषित) हो जाती हैं, इसलिए इन दोनों का प्रयोग परिवर्तनशीलता और अशुद्धता को इंगित करने के लिए किया गया है। इसके विपरीत, स्वर्ण धातु समय और सम्पर्क के प्रभाव से परिवर्तित और दूषित नहीं होती, इसलिए इसका प्रयोग शुद्धता को इंगित करने के लिए किया गया है। मंजूषा शब्द व्यक्तित्व का वाचक है। अतः लौह मंजूषा कहकर यहाँ परिवर्तनशील अशुद्ध व्यक्तित्व को इंगित किया गया है। इसी व्यक्तित्व के भीतर अभिमान रूप धनुष विद्यमान है।
2- लौह मंजूषा के आठ पहिये - अष्टधा प्रकृति अर्थात् पांच महाभूत(पृथ्वी. जल, तेज, वायु तथा आकाश) और मन, बुद्धि, अहंकार को ही लौह - मंजूषा रूपी अशुद्ध व्यक्तित्व के आठ पहिये कहा जा सकता है। जैसे पहिये मंजूषा का आधाररूप होते हैं, उसी प्रकार अष्टधा प्रकृति भी व्यक्तित्व का आधार रूप है।
3 - पाँच हजार वीरों द्वारा मँजूषा को ठेलकर लाना - पांच प्राणों (प्राण, अपान, समान, व्यान, उदान) तथा उनके सहस्रों व्यापारों को ही पांच हजार वीर कहा जा सकता है क्योंकि प्राण ही व्यक्तित्व को ठेलते अर्थात् क्रियाशील रखने में समर्थ हैं।
मँजूषा को ठेलकर लाना उसके भारीपन को संकेतित भी करता है। भारीपन सदैव अशुद्धता को और हल्कापन शुद्धता को इंगित करता है। मन जब नकारात्मक विचारों से घिरा रहता है, तब मनुष्य भारीपन का अनुभव करता है परन्तु शुद्ध सात्विक मन से मनुष्य सदैव हल्का बना रहता है। अतः मँजूषा का भारीपन भी व्यक्तित्व की अशुद्धता की ओर संकेत करता है।
चूंकि लौहमंजूषा में शिवधनुष विद्यमान है, अतः प्रस्तुत संकेत के द्ववारा मनुष्य - व्यक्तित्व में अभिमान की विद्यमानता को संकेतित किया गया है।
दूसरा संकेत -
दूसरे संकेत के रूप में कथा में कहा गया है कि पूर्वकाल में दक्षयज्ञ के समय देवों ने शिव को उनका भाग नहीं दिया। अतः क्रुद्ध शिव ने पहले तो दक्षयज्ञ का विध्वंस किया और फिर वे धनुष उठाकर देवों के महत्त्वपूर्ण अंगों को काटने के लिए उद्धत हुए। देवों के प्रार्थना करने पर शिव ने उनके अंगों(मस्तकों) को तो नहीं काटा परन्तु वह धनुष देवों को ही अर्पण कर दिया। बाद में देवों ने उस धनुष को जनक के पूर्वज निमि के ज्येष्ठ पुत्र देवरात के पास धरोहर के रूप में रख दिया।
प्रस्तुत संकेत की प्रतीकात्मकता -
1- दक्षयज्ञ - दक्ष यज्ञ दक्षता (कुशलता) प्राप्ति का यज्ञ है अर्थात् जब मनुष्य अपने जीवन में कुशलता प्राप्त करना चाहता है और उसके लिए यथायोग्य कर्म भी सम्पन्न करता है, तब उसका वह समस्त कर्म दक्षता के लिए किया गया यज्ञ बन जाता है।
2 - देव - मनुष्य शरीर में क्रियाशील विभिन्न शक्तियों को ही यहां देव कहा गया है। कुशलता प्राप्त करने के लिए मनुष्य अपनी सभी शक्तियों का यथायोग्य उपयोग करता है।
3- शिव - शिव शब्द यहाँ आत्मा का वाचक है। शिव को भाग न देना आत्मा के निरादर अर्थात् विस्मृति को सूचित करता है। मनुष्य कुशलता प्राप्ति के लिए बाह्य रूप से तो बहुत कुछ करता है परन्तु अपने ही स्वरूप (आत्मा) को भूल जाता है।
4- शिव द्वारा धनुष का धारण - मनुष्य के अवचेतन मन में अभिमान का संस्कार (मैं देह हूँ - यह संकल्प रूप अभिमान) प्रसु्प्त अवस्था में सदैव विद्यमान रहता है। आत्म - विस्मृति की स्थिति में वही अभिमान का संस्कार प्रकट हो जाता है जिसे कथा में शिव द्वारा धनुष को धारण करना कहा गया है।
6- देवों को धनुष का अर्पण - यहाँ यह संकेत किया गया है कि आत्म विस्मृति की स्थिति में शरीर में क्रियाशील सभी शक्तियाँ (मन, बुद्धि, इन्द्रिय तथा प्राण आदि) यद्यपि पूर्ववत् क्रियाशील तो रहती हैं परन्तु सभी शक्तियाँ अभिमान से ओतप्रोत अवश्य हो जाती हैं।
7- निमि के ज्येष्ठ पुत्र देवरात - निमि का अर्थ है - पलक झपकना और देवरात (देव - रात(देना अर्थ वाली दा धातु से निष्पन्न ) का अर्थ है - शक्ति का अनुदान। अतः निमि - पुत्र देवरात का अर्थ हुआ - पलक झपकने के रूप में शक्ति का अनुदान। तात्पर्य यह है कि पैदा होते ही शिशु का पलक झपकना इस बात का संकेत है कि शरीर को शक्ति का अनुदान प्राप्त हुआ।
8 - देवों का देवरात के पास धनुष को धरोहर के रूप में रखना - यह कथन संकेत करता है कि जैसे ही मनुष्य पैदा होता है, वैसे ही अर्थात् पलक झपकने के साथ ही उसे शक्तियों का जो अनुदान प्राप्त होता है - उन शक्तियों के कारण शरीर को क्रियाशील देखकर मनुष्य शरीर को ही सब कुछ समझ बैठता है परन्तु शरीर को क्रियाशील बनाने वाली चैतन्य शक्ति (आत्मबोध) के अदृश्य रहने के कारण उस चैतन्य - शक्ति (आत्मा) की ओर ध्यान ही नहीं जा पाता। अतः मैं शरीर हूं - यह अभिमान रूपी शिव धनुष प्रत्येक मनुष्य को मानो धरोहर के रूप में जन्म से ही प्राप्त हो जाता है।
तात्पर्य यह है कि अदृश्य रूप आत्मा की विस्मृति और दृश्यमान शरीर की क्रियाशीलता ही अभिमान के प्रकट होने का मूल हेतु है।
तीसरा संकेत -
तीसरे संकेत के रूप में कथा में कहा गया है कि जनक ने सीता की प्राप्ति के लिए शिवधनुष को उठाने और उस पर प्रत्यंचा चढाने की अनिवार्यता को घोषित किया था।
सीता का अर्थ है - पवित्र सोच अथवा मन - बुद्धि की पवित्रता। प्रस्तुत कथन यह संकेत करता है कि पवित्र सोच को प्राप्त करना सरल नहीं है। व्यक्तित्व में विद्यमान अभिमान ही सबसे बडी बाधा है। अभिमान का अर्थ है - वास्तविक मैं अर्थात् आत्मस्वरूपता को भूलकर मेरा अर्थात् शरीर, भूमिका, पद, सम्पत्ति आदि को ही मैं समझ लेना और फिर उस मेरा के साथ इतना जुडाव बना लेना कि मेरा को जरा सी खरौंच लगते ही मनुष्य का स्वयं को चोट लगा हुआ महसूस करना। यह अभिमान मनुष्य की सोच को अनेक प्रकार से अपवित्र बना देता है, इसलिए कथा में कहा गया है कि पवित्र सोच (सीता) की प्राप्ति के लिए इस अभिमान से मुक्त होना अनिवार्य है।
इस अभिमान से मुक्त होने को ही कथा में धनुष को उठाने के रूप में और जो भी मेरा है - उस मेरा के यथायोग्य उपयोग को ही धनुष के ऊपर प्रत्यंचा चढाने के रूप में संकेतित किया गया है।
चौथा संकेत --
चौथे संकेत के रूप में कथा में कहा गया है कि अनेक राजाओं ने लौह - मंजूषा में विद्यमान शिव धनुष को उठाने का प्रयत्न किया परन्तु कोई भी राजा धनुष उठाने में समर्थ नहीं हो सका।
मनुष्य व्यक्तित्व में विद्यमान अनेकानेक गुणों को ही यहाँ राजा कहकर सम्बोधित किया गया है। यहाँ यह स्पष्ट किया गया है कि व्यक्तित्व में विद्यमान सहयोग, सेवा, संकल्प, समर्पण, स्वीकार, दया, करुणा, परोपकार जैसे श्रेष्ठ गुणों में से कोई भी गुण निश्चित रूप से व्यक्तित्व को शोभाशाली तो बना सकता है परन्तु व्यक्तित्व में विद्यमान अभिमान को व्यक्तित्व से बाहर नहीं निकाल सकता।
पाँचवा संकेत--
पाँचवें संकेत के रूप में कथा में कहा गया है कि राम ने लौह मंजूषा में विद्यमान शिव धनुष को सहज रूप में उठा लिया, प्रत्यंचा भी चढा दी परन्तु खींचते ही वह धनुष टूट गया।
राम का अर्थ है - आत्मज्ञान अर्थात् मैं अजर - अमर - अविनाशी चैतन्यशक्ति आत्मा हूँ - इस ज्ञान में मनुष्य की स्थिति।
प्रस्तुत कथन द्वारा यह संकेत किया गया है कि स्वस्वरूप की सही पहचान में स्थित मनुष्य ही अपने अभिमान को देखने, समझने और विचार करने में समर्थ है। उसके लिए अभिमान को हटाना प्रयत्नसाध्य न होकर सहज है, स्वाभाविक है। अथवा ऐसा कहना अधिक युक्तिसंगत है कि आत्म ज्ञान में स्थित रहने पर अभिमान अपने आप ही विदा हो जाता है।
कथा का अभिप्राय
प्रस्तुत कथा अभिमान से सम्बन्धित है जिसे शिवधनुष कहकर संकेतित किया गया है। अभिमान का अर्थ है - मनुष्य का अपने वास्तविक स्वरूप - चिदानन्दस्वरूप को भूल जाना और उपकरण स्वरूप शरीर को ही अपना वास्तविक स्वरूप मानकर शरीर से सम्बन्ध रखने वाली अपनी भूमिकाओं, पदों तथा सम्पत्ति आदि में आसक्त हो जाना। कथा में अभिमान से सम्बन्ध रखने वाले पाँच तथ्यों का वर्णन निम्न रूप में किया गया है।
1- मनुष्य के व्यक्तित्व में अभिमान विद्यमान है। अभिमान की विद्यमानता ही व्यक्तित्व को अशुद्ध् एवं विकारी बनाती है। इस तथ्य का संकेत कथा में यह कहकर किया गया है कि शिवधनुष जिस मंजूषा में विद्यमान है, वह मंजूषा लोहे की बनी हुई है।
2 - मनुष्य में अभिमान की उत्पत्ति का मूल कारण है - अपने आत्म स्वरूप को भूल जाना। इसका संकेत कथा में दक्ष - यज्ञ नामक एक अवान्तर कथा के अन्तर्गत शिव (आत्मा) के निरादर के रूप में किया गया है। अपने वास्तविक स्वरूप आत्मस्वरूप की विस्मृति से जो अभिमान उत्पन्न होता है, वह धीरे - धीरे प्रकट होता हुआ एक दिन इतना सुदृढ हो जाता है कि मनुष्य पैदा होने के साथ ही मानों धरोहर के रूप में इस अभिमान को प्राप्त कर लेता है। अर्थात् मनुष्य इसी स्मृति के साथ पैदा होता है कि वह एक शरीर है। कथा में निमि के ज्येष्ठ पुत्र देवरात के पास धरोहर के रूप में रखे गए शिव धनुष् के माध्यम से इसी तथ्य को संकेतित किया गया है।
2 - अभिमान को विनष्ट करना अनिवार्य है क्योंकि यही पवित्र सोच की प्राप्ति में सबसे बडी बाधा है। सीता की प्राप्ति के लिए धनुष को उठाने की अनिवार्यता कहकर इसी तथ्य को संकेतित किया गया है।
4 - अभिमान को विनष्ट करने में मनुष्य द्वारा धारण किया गया कोई भी गुण समर्थ नहीं है चाहे गुण कितना भी श्रेष्ठ अथवा बली हो। अर्थात् सेवा, समर्पण, सहयोग, स्वीकार जैसे श्रेष्ठ गुण भी अभिमन को व्यक्तित्व से बाहर निकालने में समर्थ नहीं हैं। धनुष को उठाने में राजाओं की असमर्थता कहकर इसी तथ्य को इंगित किया गया है।
5 - केवल आत्मज्ञान ही अभिमान के विनाश की सामर्थ्य रखता है जिसे कथा में राम द्वारा धनुष को उठाना कहकर इंगित किया गया है। आत्मज्ञान का अर्थ है - मनुष्य का अपने सही स्वरूप - आत्मस्वरूप में स्थित हो जाना अर्थात् मनुष्य का इस ज्ञान में, इस अहसास में स्थित हो जाना कि मैं चिदानन्द स्वरूप आत्मा हूँ। मैं (आत्मा) ही मन होकर अपने समस्त संकल्पों की रचना करता हूँ। मैं (आत्मा) ही अपने इस शरीर रूपी रथ का रथी होकर जिस दिशा में चाहूँ - उस दिशा में अपने रथ को गतिमान कर सकता हूँ। मेरे समन सभी आत्मस्वरूप हैं। कथा संकेत करती है कि आत्मज्ञान में स्थिति से अभिमान सहज रूप में विनष्ट हो जाता है। उसके लिए किसी विशेष प्रयास की आवश्यकता नहीं होती, ठीक उसी प्रकार जैसे दीये के जलने पर अन्धकार स्वतः विदा हो जाता है।
प्रथम प्रकाशित – 4-7-2014ई.(आषाढ शुक्ल सप्तमी, विक्रम संवत् 2071)
Breaking Shiva's bow by Rama means breaking Ego by Knowledge of Self
- Radha Gupta
In Balakanda chapter 66-67, there is a story related to Shiva's bow>
Once Rama and Lakshmana went to Mithila with rishi Vishvamitra> There they wished to see the bow> Five thousand warriors of Janak brought that iron box in which the bwo was ket. Rama asked permission to see that bow> He opened the iron box and picked up that bow. As soon as Rama puled its string, the bow broke from the middle. Janaka became very happy as he had announced that her daughter - Sita will be married to that person who will pick up the bow from the box.
As regards the bow, it is also said that in the yagna of Daksha, deities did not give due share to Shiva. Shiva got angry and destroyed the yagna. He also wished to cut he important organs ( say ) of deities. Deities prayed Shiva for their safety. Shiva did not cut their heads , rather gave them the bow itself. After some time deities passed on that bow to king Devaraata - oldest son of Nimi.
This story relates to ego symbolized as the bow of Shiva. Ego means - attachment to a wrong image about ond's self. The story describes five aspects of ego as under -
1. Every personality possessed with ego is impure symbolized asthe box made of iron in which the bow is kept.
2- Ego manifests itself when a person forgets his own real Self. This is symbolized as Shiva picking the bow when he receives disrespect in the yagna of Daksha. Once ego emerges, it slowly becomes dominant,the person starts thinking himself a body and finally he takes birth with this image that he is a body.
3- Its destruction is necessary because ego makes one's thinking impure or in other words, an egoistic person thinks impurely.
4 - A person's various qualities even are not capable enough to crush the ego symbolizes as the incapability of kungs in lifting the bow>
5 - Lastly, the knowledge of Self , i.e,, (Atmagyan) only is capable in its destruction symbolized as lifting and breaking of bow by Rama. Knowledge of Welf naturally breaks the ego,and no speial effort is necessary.