पञ्चवटी में लक्ष्मण द्वारा निर्मित पर्णशाला में शूर्पणखा का आगमन, लक्ष्मण द्वारा शूर्पणखा के नाक-कान का छेदन, राम द्वारा खर-दूषण-त्रिशिरा का सेना सहित विनाश
- राधा गुप्ता
कथा का संक्षिप्त स्वरूप
कथा में कहा गया है कि जब राम लक्ष्मण और सीता के साथ पञ्चवटी में पर्णशाला बनाकर रहने लगे, तब किसी दिन अकस्मात् शूर्पणखा नामक एक राक्षसी वहाँ आई और राम की पत्नी बन जाने की इच्छा प्रकट करने लगी। शूर्पणखा के जिद करने पर राम द्वारा प्रेरित लक्ष्मण ने उसके नाक-कान काट लिए जिससे वह राक्षसी चीत्कार करती हुई वन में ही भाग गई। शूर्पणखा के भाई खर तथा दूषणण उसी जनस्थान में रहते थे। बहन की दुर्दशा से क्रोधित होकर वे राम के साथ युद्ध करने के लिए आए, परन्तु राम ने उनका तथा उनकी समस्त सेना का वध कर दिया(अरण्यकाण्ड अध्याय 17 से 30)।
कथा का तात्पर्य
प्रस्तुत कथा के माध्यम से इस आध्यात्मिक सत्य को प्रतिपादित किया गया है कि स्वयं को शरीर समझने वाला मनुष्य जब व्यवहार क्षेत्र अर्थात् सम्बन्ध-सम्पर्क में आता है, तब अपनी भूमिकाओं को ही अपना आप यही मैं हूं समझकर उन भूमिकाओं से चिपक जाता है और उस भूमिका के प्रति किसी के भी कुछ कहने पर अपने आप को ही चोट खाया हुआ महसूस करता है। चूंकि दिन में हर समय मनुष्य किसी न किसी सम्बन्ध – सम्पर्क में रहता ही है, अतः देहासक्ति अथवा भूमिका के प्रति आसक्ति रूप कोई न कोई परिस्थिति उसके ऊपर हावी रहती है।
इसके विपरीत आत्मस्मृति। आत्मज्ञान अथवा आत्मस्वरूप में स्थित होने पर मनुष्य अपने समान दूसरे को भी आत्मस्वरूप ही समझता है। वह अपनी विभिन्न भूमिकाओं का सम्यक् निर्वाह करता है परन्तु यह भूमिका ही मैं हूं – ऐसा नहीं समझता। अतः सम्बन्ध – सम्पर्क में रहते हुए देहासक्ति अथवा भूमिका के प्रति आसक्ति रूप परिस्थिति को अपने ऊपर हावी नहीं होने देता। देहासक्ति से सम्बन्धित कोई परिस्थिति यदि हावी होने का प्रयास करती भी है, तब स्वस्वरूप/आत्मस्वरूप में स्थित मनुष्य अपने विचारों का निर्माता और नियन्ता होने के कारण ज्ञानयुक्त विचारों का सहारा लेकर उस परिस्थिति के ऊपर ही हावी हो जाता है।
देहासक्ति अथवा भूमिका के प्रति आसक्ति रूप परिस्थिति को अपने ऊपर हावी होने देना ही परिस्थिति का शक्तिशाली होना है। इसके विपरीत ज्ञान के सहारे परिस्थिति के ऊपर हावी होकर अपनी स्थिति को मजबूत बनाए रखना परिस्थिति की शक्ति को कमजोर बना देना है।
देहासक्ति रूप परिस्थिति के प्रभाव में आने वाला मनुष्य अनेक प्रकार के व्यर्थ, अनुपयोगी, दूषित विचारों से घिरा रहता है। इसके विपरीत, अपनी स्थिति को मजबूत रखकर देहासक्ति रूप परिस्थिति को कमजोर बना देने वाला मनुष्य व्यर्थ-दूषित विचारों तथा उन विचारों के सूक्ष्म स्पन्दनों का भी विनाश कर देता है।
कथा की प्रतीकात्मकता
अब हम कथा के एक-एक प्रतीक को समझने का प्रयास करें –
1 – पञ्चवटी – पञ्चवटी शब्द पाँच ज्ञानेन्द्रियों – आंख, नाक, कान, मुख तथा त्वचा को इंगित करता है।
2-पर्णशाला – पर्णशाला शब्द के द्वारा पणशाला को संकेतित किया गया है। पण का अर्थ है – व्यापार करना, लेनदेन करना। अतः वह स्थान या शाला, जहाँ से व्यापार या लेन – देन किया जा रहा है।
3 लक्ष्मण – लक्ष्मण का अर्थ है – संकल्पों की रचयिता शक्ति अर्थात् मन। लक्ष्मण पञ्चवटी के भीतर पर्णशाला का निर्माण करते हैं। इसका तात्पर्य यह है कि मन जीवन का सारा व्यवहार (लेन-देन) इन पाँच ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से ही करता है।
4 पञ्चवटी के समीप गोदावरी नदी का प्रवाहित होना – गोदावरी अर्थात् गो+दा+वरी का अर्थ है – चेतना(गो) के दान (दा) या बहने का सर्वश्रेष्ठ स्थान (वरी)। पञ्चवटी के पास गोदावरी नदी का बहना कहकर यह संकेतित किया गया है कि मनुष्य की चेतना का बहुत बडा भाग पाँच ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से प्रवाहमान हो रहा है।
5 शूर्पणखा – शूर्पणखा शप्द दो शब्दों से मिलकर बना है। एक शब्द है – शूर्प तथा दूसरा शब्द है – नखा। शूर्प के सम्बन्ध में वेद में कहा गया है कि दितिः शूर्पम् अदितिः शूर्पग्राही अर्थात् दिति शूर्प है और अदिति उस शूर्प को ग्रहण करने वाली है। दिति का अर्थ है - शरीर चेतना अथवा खण्डित चेतना अर्थात् शरीर को ही सब कुछ समझना। अतः शूर्प का भी अर्थ हुआ – शरीर चेतना या खण्डित चेतना। नखा श्द नहा शब्द का तद्भव रूप प्रतीत होता है और यह शब्द बन्धन अर्थ वाली नह् धातु से बना है। अतः शूर्पनहा/शूर्पनखा का अर्थ हुआ – बांधने वाली शरीर चेतना। दूसरे शब्दों में इसे देह तथा देह से सम्बन्ध रखने वाली विभिन्न भूमिकाओं के प्रति आसक्ति कहा जा सकता है। शरीर तथा शरीर से सम्बन्ध रखने वाली विभिन्न भूमिकाओं के प्रति आसक्ति ही मनुष्य को बन्धन में डालती है। चूंकि देहासक्ति एक नकारात्मक भाव है, इसीलिए इसे राक्षसी कहा गया है। कथा में शूर्पणखा को बूढी तथा राम को तरुण बतलाया गया है। चूंकि देहासक्ति मनुष्य की जीवनयात्रा में बहुत पुरानी है, इसलिए इसे बूढी कहना सार्थक ही है। इसके विपरीत आत्मस्मृति (राम) चेतना के स्तर पर नई-नई प्रकट हुई है, इसलिए तरुण है।
6- पञ्चवटी में शूर्पणखा का आगमन – पञ्चवटी में शूर्पणखा के आगमन द्वारा यह इंगित किया गया है कि अपने विचारों के निर्माता और नियन्ता होकर (लक्ष्मण) पवित्रतापूर्वक (सीता) स्वस्वरूप – आत्मस्वरूप में स्थित होकर (राम) जीवन में व्यवहार करते हुए भी (पणशाला में रहते हुए) किसी समय चित्त/अवचेतन मन में विद्यमान देहासक्ति (शूर्पणखा) का पुराना संस्कार सुन्दर स्वरूप धारण करके अर्थात् किसी भी भूमिका के माध्यम से मनुष्य के समक्ष उपस्थित हो जाता है।
7 लक्ष्मण द्वारा शूर्पणखा के नाक-कान का छेदन – स्वस्वरूप में स्थित मनुष्य अपने विचारों का निर्माता और नियन्ता होता है। अतः उसकी मनःशक्ति (लक्ष्मण) देहासक्ति रूप परिस्थिति का कभी अभिनन्दन नहीं करती, उसे अपने ऊपर अधिकार नहीं करने देती। परिस्थिति को कमजोर कर देना ही लक्ष्मण द्वारा शूर्पणखा के नाक-कान काटकर उसे शोभाविहीन कर देना है।
8 राम द्वारा खर-दूषण-त्रिशिरा का सेना सहित वध – यहां यह इंगित किया गया है कि आत्मस्वरूप में स्थित मनुष्य अपनी मनःशक्ति की सहायता से जब देहासक्ति रूप परिस्थिति को अपने अधिकार में कर लेता है, तब देहासक्ति से सम्बन्ध रखने वाले, देहासक्ति का पोषण करने वाले अनेकानेक तीखे, कटु, दुष्ट, विषैले नकारात्मक विचार भी चित्त/अवचेतन मन से बाहर निकलकर मनुष्य को पीडित करने का प्रयास करते हैं, परन्तु आत्मवान् मनुष्य के समक्ष स्वयं ही मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं।
9 खर – खर का अर्थ है – कठोर, तीक्ष्ण, कर्कश विचार और भाव।
10 दूषण – दूषण कलुष विचार अथवा भाव को इंगित करता है।
11त्रिशिरा – त्रिशिरा का अर्थ है – मानसिक, वाचिक और कायिक दुःख
12 जनस्थान – जनस्थान का अर्थ है – जनों के रहने का स्थान, अर्थात् जनसाधारण जिस मनश्चेतना में हर समय विद्यमान रहता है, उसमें तीक्ष्णता अथवा कर्कशता (खर) कलुषता(दूषण) मानसिक-वाचिक-कायिक क्लेश (त्रिशिरा) तथा इनके सहयोगी बहुत से नकारात्मक विचार, भाव या वृत्तियाँ बहुलता से विद्यमान रहते हैं।
प्रथम लेखन – 5-3-2014ई. (फाल्गुन शुक्ल पंचमी, विक्रम संवत् 2070)