टिप्पणी : बर्हि को समझने के लिए अथर्ववेद के निम्नलिखित श्लोक को कुंजी के रूप में लिया जा सकता है –
*वेदि॑ष्टे॒ चर्म॑ भवतु ब॒र्हिर्लोमा॑नि॒ यानि॑ ते। - अथर्ववेद १०.९.२
पुराणों के अनुसार यज्ञवराह के जो लोम पृथिवी पर गिरे, उनसे कुश, कुशा आदि उत्पन्न हुए और कुश आदि बर्हि के रूप हैं। यह संकेत करता है कि हमें कोई भी अनुभूति हो, कोई भी कांटा चुभे, दुःख हो, उसका विस्तार होना चाहिए, वह सारे शरीर में फैल जाना चाहिए। वही बर्हि कहलाएगा। अथर्ववेद ८.१.१६ में जिह्वा को बर्हि कहा गया है जिसको मृत्यु से बचाना है। इसका अर्थ होगा कि जिह्वा जिस स्वाद का अनुभव करती है, उस स्वाद की अनुभूति सारे शरीर में होनी चाहिए। तभी वह बर्हि कहलाने योग्य बनेगी।
देव और पितर, दोनों ही बर्हि पर विराजमान होते हैं। ब्राह्मण ग्रन्थों में उल्लेख है कि पितरों की बर्हि उपमूल सहित होती है जबकि देवों की मूलरहित(मैत्रायणी संहिता १.१०.१७)। यह मूल कौन सा होता है, यह अन्वेषणीय है। हो सकता है कि जब किसी अनुभूति ने बर्हि का रूप ग्रहण न किया हो, वह उपमूल हो। यम प्रस्तर पर विराजमान होता है(इ॒मं य॑म प्रस्त॒रमा हि रोह – अथर्ववेद १८.१.६०), जबकि पितर बर्हि पर। यम क्षत्र है, पितर प्रजा।
प्रथम लेखन : ८-३-२०१३ई.(फाल्गुन कृष्ण एकादशी, विक्रम संवत् २०६९)
In order to achieve the oneness of Indra and Indu, one has to spread the Barhi/kusha grass( In somayaaga, the whole place is covered with kusha grass on several occasions). Barhi bears the adjective 'earlier one' when it is spread by Pavamaana Soma and it is this pavamaana soma which remains active in different divine powers. Suns sit over this barhi. The more is the descending of divine soma or Indu from the highest level of bliss, the more is spread of barhi. The reason for calling it Praacheenabarhi(the earlier one) is that it's extension in eastern direction, which is the direction of 'knowledge of work' in mythology, imparts it efficiency. Barhi is derived from the same root from which word Brahma is derived. Therefore, different levels of barhi are denoted by word 'brahmaani'. All this activity is performed to attract divine powers. In spirituality, barhi can be called our thinking faculty(mind, wisdom, unconscious mind/chitta, ego). Normally, it's extension remains limited to grosser levels of individuality. With penances, it starts spreading to higher levels also.
वेद में उदक का प्रतीकवाद
- सुकर्मपाल सिंह तोमर
(चौधरी चरणसिंह विश्वविद्यालय द्वारा १९९५ में स्वीकृत शोधप्रबन्ध)
बर्हि
इन्द्र और इन्दु के अभेदपद की प्राप्ति के लिए साधक को पहले बर्हि स्तीर्ण करनी पडती है । उस बर्हि को प्राचीन बर्हि कहा जाता है जिसको वस्तुतः पवमान सोम ही अपने ओज के द्वारा स्तीर्ण करता हुआ विभिन्न देवशक्तियों में गतिशील रहता है -
बर्हि: प्राचीनमोजसा पवमान: स्तृणन् हरि: । देवेषु देव ईयते ।। - ऋग्वेद ९.५.४
इस प्राचीन बर्हि: को 'सहस्रवीर' भी कहते हैं जिस पर आदित्यगण विराजमान होते हैं ( प्राचीनं बर्हिरोजसा सहस्रवीरमस्तृणन् । यत्रादित्या विराजथ ।। - ऋ. १०.१८८.४ ) । इसका अभिप्राय है कि आनन्दमय कोश से जिस अनुपात में परब्रह्म के आनन्द रस रूपी सोम अथवा इन्दु का अवतरण होता है, उसी अनुपात में यह बर्हि स्तीर्ण होने लगती है । यह प्राची नामक कार्यज्ञान की दिशा की ओर उन्मुख होकर दक्षशील होती है, अतएव इसको 'प्राचीन बर्हि:' कहा जाता है । बर्हि: शब्द उद्यमानार्थक, वृद्ध्यर्थक बृह~ धातु से निष्पन्न होने के कारण ऊपर की ओर वर्धमान अथवा गतिशील तत्त्व है । इसके उत्तरोत्तर स्तरों को सूचित करने वाला ब्रह्माणि शब्द भी उसी बृह~ धातु से निष्पन्न है । आन्तरिक ध्यान यज्ञ की प्रक्रिया के अन्तर्गत देवशक्तियों को आकर्षित करने वाली तथा शुद्धिकरण के फलस्वरूप उसको मेघरूप देने वाली यह समस्त गतिविधि परमेश्वर इन्द्र के आह्वान के लिए की जाती है, जैसा कि निम्नलिखित मन्त्र में संकेतित है -
अयं यज्ञो देवया अयं मियेध इमा ब्रह्माण्ययमिन्द्र सोम: । स्तीर्णं बर्हिरा तु शक्र प्र याहि पिबा निषद्य वि मुचा हरी इह ।। - ऋग्वेद १.१७७.४
यह बर्हि वस्तुतः साधक का अन्त:करण है । अतएव बर्हि: को अन्तरिक्ष नामों में भी सम्मिलित किया गया है । वही अन्त:करण रूपी बर्हि: देवव्यचा कही जाती है, क्योंकि यही वह ऊर्ध्वगातु है जो अध्वर नामक आन्तरिक यज्ञ में बनाया जाता है और जिसके परिणामस्वरूप देदीप्यमान रज:कणों का प्रारम्भ होने लगता है तथा हमारा ज्ञानाग्नि रूपी होता मनोमय आकाश के केन्द्र में आसीन हो जाता है ( ऊर्ध्वो वां गातुरध्वरे अकार्यूर्ध्वा शोचींषि प्रस्थिता रजांसि । दिवो वा नाभा न्यसादि होता स्तृणीमहि देवव्यचा वि बर्हि: ।। - ऋ. ३.४.४) । बर्हि: के इसी स्वरूप के सम्बन्ध में साधक के प्राण परिबृंहण करने लगते हैं तो उनको भी बृह~ धातु से निष्पन्न बृहन्ता कहा जाता है ( ऋग्वेद २.११.१६) । इसी प्रकार साधक का मनोमय कोश रूपी द्यौ तथा प्राणान्नमय रूपी पृथिवी की संयुक्त इकाई द्यावापृथिवी भी बृहती कही जाती है ( ऋग्वेद १.१४४.६) । अन्त:करण रूपी बर्हि: का विस्तार मनीषी लोग वहां तक करते हैं जहां तक वह बर्हि आनन्द रूपी घृत से सराबोर होकर घृतपृष्ठ कही जाती है और जहां ब्रह्म के अमृतत्व का साक्षात्कार हो जाता है ( स्तृणीत बर्हिरानुषग् घृतपृष्ठं मनीषिण: । यत्रामृतस्य चक्षणम् ।। - ऋ. १.१३.५) । सम्भवतः इसी स्तर को वह बर्हि पद कहा जाता है जिसके कारण इस शब्द की गणना पद नामों में की गई है । इसी बर्हि पर उस दैव्य जन को आसीन किया जाना साधना का लक्ष्य है जिसे हम परमेश्वर इन्द्र अथवा परब्रह्म कह सकते हैं ( ऋ. १.४५.९) ।
बर्हि के स्तरण को ही, एक दृष्टि से अनावरण भी कहा जा सकता है, क्योंकि वस्तुतः बर्हि की यह बर्हण - प्रक्रिया अहंकार के प्रभाव में आवृत तथा बद्ध रहती है, जो कि साधना के फलस्वरूप अनावृत्त तथा मुक्त होकर स्तीर्ण होने लगती है, जिसके फलस्वरूप आपः भी मुक्त होकर अपने पद को ग्रहण करते हैं, अर्थात् प्रवाहित होने लगते हैं ( ऋ. ८.१०२.१४) । यहां यह भी स्मरणीय है कि इस बर्हि को त्रिधातु कहा जाता है, क्योंकि अहंकार के प्रभाव में वह केवल अन्नमय, प्राणमय और मनोमय कोश की शक्तियों से ही सम्बन्ध रखती है और अहंकार से मुक्त होने पर वह विज्ञानमय कोश की ओर भी गतिशील होती है । इसी दृष्टि से, अग्नि से प्रार्थना की जाती है कि वह आनन्दमय कोश रूपी दिव से और विज्ञानमय कोश रूपी अन्तरिक्ष से वरुण और इन्द्र को ले आए और सब देवों को उक्त त्रिधातु पर आसीन करे ( ऋ. १०.७०.११) । अन्तरिक्ष रूपी बर्हि के सम्बन्ध से ही पवमान सोम को बर्हि: कहा गया प्रतीत होता है ( प्र तु द्रव परिकोशं नि षीद नृभि: पुनानो अभि वाजमर्ष । अश्वं न त्वा वाजिनं मर्जयन्तो ऽच्छा बर्ही रशनाभिर्नयन्ति - ऋ. ९.८७.१) । पवमान सोम तथा इन्द्र के प्रभाव से ही शुष्ण कुयव जैसा सहस्रों आसुरी शक्तियों का वर्धन(या बर्हण) रुक जाता है । अतः उस आसुरी शक्ति को रोकने के लिए 'निबर्ह:' क्रिया का प्रयोग किया जाता है, जो उसी धातु से निष्पन्न है जिससे कि बर्हि: ।
संदर्भ
५,०६२.०५ अनु श्रुताममतिं वर्धदुर्वीं बर्हिरिव यजुषा रक्षमाणा ।
५,०६२.०५ नमस्वन्ता धृतदक्षाधि गर्ते मित्रासाथे वरुणेळास्वन्तः ॥
७,०११.०२ त्वामीळते अजिरं दूत्याय हविष्मन्तः सदमिन्मानुषासः ।
७,०११.०२ यस्य देवैरासदो बर्हिरग्नेऽहान्यस्मै सुदिना भवन्ति ॥
८,०२७.०१ अग्निरुक्थे पुरोहितो ग्रावाणो बर्हिरध्वरे ।
८,०२७.०१ ऋचा यामि मरुतो ब्रह्मणस्पतिं देवाँ अवो वरेण्यम् ॥
८,०४४.१४ स नो मित्रमहस्त्वमग्ने शुक्रेण शोचिषा ।
८,०४४.१४ देवैरा सत्सि बर्हिषि ॥
९,०९५.०२ हरिः सृजानः पथ्यामृतस्येयर्ति वाचमरितेव नावम् ।
९,०९५.०२ देवो देवानां गुह्यानि नामाविष्कृणोति बर्हिषि प्रवाचे ॥
१०,०६३.०१ परावतो ये दिधिषन्त आप्यं मनुप्रीतासो जनिमा विवस्वतः ।
१०,०६३.०१ ययातेर्ये नहुष्यस्य बर्हिषि देवा आसते ते अधि ब्रुवन्तु नः ॥
१०,१८८.०१ प्र नूनं जातवेदसमश्वं हिनोत वाजिनम् ।
१०,१८८.०१ इदं नो बर्हिरासदे ॥
*प्रा॒चीनं॑ ब॒र्हिः प्र॒दिशा॑ पृथि॒व्या वस्तो॑र॒स्या वृ॑ज्यते॒ अग्रे॒ अह्ना॑म्। - शौ.अ. ५.१२.४
*ति॒स्रो दे॒वीर्ब॒र्हिरेदं स्यो॒नं सर॑स्वतीः॒ स्वप॑सः सदन्ताम्॥ - शौ.अ. ५.१२.८
*वेदि॑र्ब॒र्हिः स॒मिधः॒ शोशु॑चाना॒ अप॒ द्वेषां॑स्यमु॒या भ॑वन्तु॥ - शौ.अ. ५.२२.१
*एयम॑गन् ब॒र्हिषा॒ प्रोक्ष॑णीभिर्य॒ज्ञं त॑न्वा॒नादि॑तिः॒ स्वाहा॑ ॥ - शौ.अ. ५.२६.२
*ति॒स्रो दे॒वीर्ब॒र्हिरेदं स॑दन्ता॒मिडा॒ सर॑स्वती म॒ही भार॑ती गृणा॒ना॥ - शौ.अ. ५.२७.९
*इन्द्रा॑वरुणा॒ मधु॑मत्तमस्य॒ वृष्णः॒ सोम॑स्य वृष॒णा वृ॑षेथाम्। इ॒दं वा॒मन्धः॒ परि॑षिक्तमा॒सद्या॒स्मिन् ब॒र्हिषि॑ मादयेथाम्॥ - शौ.अ. ७.६०.२
*सं ब॒र्हिर॒क्तं ह॒विषा॑ घृ॒तेन॒ समिन्द्रे॑ण॒ वसु॑ना॒ सं म॒रुद्भिः॑। सं दे॒वैर्वि॒श्वदे॑वेभिर॒क्तमिन्द्रं॑ गच्छतु ह॒विः स्वाहा॑॥ - शौ.अ. ७.१०३.१
*मा त्वा॑ ज॒म्भः संह॑नु॒र्मा तमो॑ विद॒न्मा जि॒ह्वा ब॒र्हिः प्र॑म॒युः क॒था स्याः॑। उत् त्वा॑दि॒त्या वस॑वो भर॒न्तूदि॑न्द्रा॒ग्नी स्व॒स्तये॑॥ - शौ.अ. ८.१.१६
*अ॒न्तरि॑क्षे॒ मन॑सा त्वा जुहोमि ब॒र्हिष्टे॒ द्यावा॑पृथि॒वी उ॒भे स्ता॑म्॥ - शौ.अ. ९.४.१०
*यदु॑पस्तृ॒णन्ति॑ ब॒र्हिरे॒व तत्॥ - शौ.अ. ९.६.८
*यां ते॑ ब॒र्हिषि॒ यां श्म॑शा॒ने क्षेत्रे॑ कृ॒त्यां व॑ल॒गं वा निच॒ख्नुः। अ॒ग्नौ वा॑ त्वा॒ गार्ह॑पत्येऽभिचे॒रुः पाकं॒ सन्तं॒ धीर॑तरा अना॒गस॑म्॥ - शौ.अ. १०.१.१८
*वेदि॑ष्टे॒ चर्म॑ भवतु ब॒र्हिर्लोमा॑नि॒ यानि॑ ते। ए॒षा त्वा॑ रश॒नाग्र॑भी॒द् ग्रावा॑ त्वै॒षोऽधि॑ नृत्यतु॥ - शौ.अ. १०.९.२
*त्रि॒षु पात्रे॑षु॒ तं सोम॒मा दे॒व्यहरद् व॒शा। अथ॑र्वा॒ यत्र॑ दीक्षि॒तो ब॒र्हिष्यास्त॑ हिर॒ण्यये॑॥ - शौ.अ. १०.१०.१२
*तद् भ॒द्राः सम॑गच्छन्त व॒शा देष्ट्र्यथो॑ स्व॒धा। अथ॑र्वा॒ यत्र॑ दीक्षि॒तो ब॒र्हिष्यास्त॑ हिर॒ण्यये॑॥ - शौ.अ. १०.१०.१७
*नवं॑ ब॒र्हिरो॑द॒नाय॑ स्तृणीत प्रि॒यं हृ॒दश्चक्षु॑षो व॒ल्ग्वस्तु। तस्मि॑न् दे॒वाः स॒ह दै॒वीर्विशन्त्वि॒मं प्राश्न॑न्त्वृ॒तुभि॑र्नि॒षद्य॑॥ - शौ.अ. १२.३.३२
*वन॑स्पते स्ती॒र्णमा सी॑द ब॒र्हिर॑ग्निष्टो॒मैः संमि॑तो दे॒वता॑भिः। - शौ.अ. १२.३.३३
*सर॑स्वतीं पि॒तरो॑ हवन्ते दक्षि॒णा य॒ज्ञम॑भि॒नक्ष॑माणाः। आ॒सद्या॒स्मिन् ब॒र्हिषि॑ मादयध्वमनमी॒वा इष॒ आ धे॑ह्य॒स्मे॥ - शौ.अ. १८.१.४२, १८.४.४६
*अङ्गि॑रोभिर्य॒ज्ञियै॒रा ग॑ही॒ह यम॑ वैरू॒पैरि॒ह मा॑दयस्व। विव॑स्वन्तं हुवे॒ यः पि॒ता ते॒ऽस्मिन् ब॒र्हिष्या नि॒षद्य॑॥ - शौ.अ. १८.१.५९
*ये अत्र॑यो॒ अङ्गि॑रसो॒ नव॑ग्वा इ॒ष्टाव॑न्तो राति॒षाचो॒ दधा॑नाः। दक्षि॑णावन्तः सु॒कृतो॒ य उ॒ स्थासद्या॒स्मिन् ब॒र्हिषि॑ मादयध्वम्॥ - शौ.अ. १८.३.२०
*अग्नि॑ष्वात्ताः पितर॒ एह ग॑च्छत॒ सदः॑सदः सदत सुप्रणीतयः। अ॒त्तो ह॒वींषि॒ प्रय॑तानि ब॒र्हिषि॑ र॒यिं च॑ नः॒ सर्व॑वीरं दधात॥ - शौ.अ. १८.३.४४
*उप॑हूता नः पि॒तरः॑ सो॒म्यासो॑ बर्हि॒ष्येषु नि॒धिषु॑ प्रि॒येषु॑। त आ ग॑मन्तु॒ त इ॒ह श्रु॑व॒न्त्वधि॑ ब्रुवन्तु॒ तेऽवन्त्व॒स्मान्॥ - शौ.अ. १८.३.४५
*इ॒दं पि॒तृभ्यः॒ प्र भ॑रामि ब॒र्हिर्जी॒वं दे॒वेभ्य॒ उत्त॑रं स्तृणामि। तदा रो॑ह पुरुष॒ मेध्यो॒ भव॒न् प्रति॑ त्वा जानन्तु पि॒तरः॒ परे॑तम्॥ - शौ.अ. १८.४.५१
*एदं ब॒र्हिर॑सदो॒ मेध्यो॑ऽभूः॒ प्रति॑ त्वा जानन्तु पि॒तरः॒ परे॑तम्। य॒था॒प॒रु त॒न्वं॑१॒ सं भ॑रस्व॒ गात्रा॑णि ते॒ ब्रह्म॑णा कल्पयामि॥ - शौ.अ. १८.४.५२
*ये॒३॒स्माकं॑ पि॒तर॒स्तेषां॑ ब॒र्हिर॑सि॥ - शौ.अ. १८.४.६८
*आ या॑हि सुषु॒मा हि त॒ इन्द्र॒ सोमं॒ पिबा॑ इ॒मम्। एदं ब॒र्हिः स॑दो॒ मम॑॥ - शौ.अ. २०.३.१, २०.३८.१, २०.४७.७
*अ॒यं त॑ इन्द्र॒ सोमो॒ निपू॑तो॒ अधि॑ ब॒र्हिषि॑। एही॑म॒स्य द्रवा॒ पिब॑॥ - शौ.अ. २०.५.५
*इन्द्र॒स्तुजो॑ ब॒र्हणा॒ आ वि॑वेश नृ॒वद् दधा॑नो॒ नर्या॑ पु॒रूणि॑। - शौ.अ. २०.११.५
*सीद॒ता ब॒र्हिरु॒रु वः॒ सद॑स्कृ॒तं मा॒दय॑ध्वं मरुतो॒ मध्वो॒ अन्ध॑सः॥ - शौ.अ. २०.१३.२
*न घा॑ त्व॒द्रिगप॑ वेति मे॒ मन॒स्त्वे इत् कामं॑ पुरुहूत शिश्रय। राजे॑व दस्म॒ नि ष॒दोऽधि॑ ब॒र्हिष्य॒स्मिन्त्सु सोमे॑व॒पान॑मस्तु ते॥ - शौ.अ. २०.१७.२
*ते त्वा॒ मदा॑ अमद॒न् तानि॒ वृष्ण्या॒ ते सोमा॑सो वृत्र॒हत्ये॑षु सत्पते। यत् का॒रवे॒ दश॑ वृ॒त्राण्य॑प्र॒ति ब॒र्हिष्म॑ते॒ नि स॒हस्रा॑णि ब॒र्हयः॑॥ - शौ.अ. २०.२१.६
*नम्या॒ यदि॑न्द्र॒ सख्या॑ परा॒वति॑ निब॒र्हयो॒ नमु॑चिं॒ नाम॑ मा॒यिन॑म्॥ - शौ.अ. २०.२१.७
*आ हर॑यः ससृज्रिरेऽरु॑षी॒रधि॑ ब॒र्हिषि॑। यत्रा॒भि सं॒नवा॑महे॥ - शौ.अ. २०.२२.५, २०.९२.२
*गम॑न्न॒स्मे वसू॒न्या हि शंसि॑षं स्वा॒शिषं॒ भर॒मा या॑हि सो॒मिनः॑। त्वमी॑शिषे॒ सास्मिन्ना स॑त्सि ब॒र्हिष्य॑नाधृ॒ष्या तव॒ पात्रा॑णि॒ धर्म॑णा॥ - शौ.अ. २०.९४.५
*स॒त्तो होता॑ न ऋ॒त्विय॑स्तिस्ति॒रे ब॒र्हिरा॑नु॒षक्। अयु॑ज्रन् प्रा॒तरद्र॑यः॥ इ॒मा ब्रह्म॑ ब्रह्मवाहः क्रि॒यन्त॒ आ ब॒र्हिः सी॑द। वी॒हि शू॑र पुरो॒लाश॑म्॥ - शौ.अ. २०.२३.२-३
*अ॒र्वाञ्चं॑ त्वा सु॒खे रथे॒ वह॑तामिन्द्र के॒शिना॑। घृ॒तस्नू॑ ब॒र्हिरा॒सदे॑॥ - शौ.अ. २०.२३.९
*ब॒र्हिर्वा॒ यत् स्व॑प॒त्याय वृ॒ज्यते॒ऽर्को वा॒ श्लोक॑मा॒घोष॑ते दि॒वि। - शौ.अ. २०.२५.६
*श॒क्रो वाच॒मधृ॑ष्णुहि॒ धाम॑धर्म॒न् विरा॑जति। विम॑दन् ब॒र्हिरा॒सर॑न्॥ - शौ.अ. २०.४९.३
*येन॒ ज्योतीं॑ष्या॒यवे॒ मन॑वे च वि॒वेदि॑थ। म॒न्दा॒नो अ॒स्य ब॒र्हिषो॒ वि रा॑जसि॥ - शौ.अ. २०.६१.२
*आ॒सद्या॑ ब॒र्हिर्भ॑रतस्य सूनवः पो॒त्रादा सोमं॑ पिबता दिवो नरः॥ - शौ.अ. २०.६७.४
*अग्न॒ आ या॑ह्य॒ग्निभि॒र्होता॑रं त्वा वृणमहे। आ त्वाम॑नक्तु॒ प्रय॑ता ह॒विष्म॑ती॒ यजि॑ष्ठं ब॒र्हिरा॒सदे॑॥ - शौ.अ. २०.१०३.२
*कु॒विद॒ङ्ग यव॑मन्तो॒ यवं॑ चि॒द् यथा॒ दान्त्य॑नुपू॒र्वं वि॒यूय॑। इ॒हेहै॑षां कृणुहि॒ भोज॑नानि॒ ये ब॒र्हिषो॒ नमो॑वृक्तिं॒ न ज॒ग्मुः॥ - शौ.अ. २०.१२५.२
*बर्हिषा बर्हिरिन्द्रियम् – वा.सं. १९.१७
*क्षत्रं वै प्रस्तरो विश इतरं बर्हिः – मा.श. १.३.४.१०
*अयं लोको बर्हिः – मा.श. १.४.१.२४, १.८.२.११, १.९.२.२९
*शरद्वै बर्हिरिति हि शरद् बर्हिर्या इमा ओषधयो ग्रीष्महेमन्ताभ्यां नित्यक्ता भवन्ति ता वर्षा वर्द्धन्ते ताः शरदि बर्हिषो रूपं प्रस्तीर्णाः शेरे तस्माच्छरद् बर्हिः – मा.श. १.५.३.१२
*भूमा वै बर्हिः – मा.श. १.५.४.४
*स यदि ग्राम्या ओषधीरश्नाति। पुरोडाशस्य मेधमश्नाति यद्यारण्या ओषधीरश्नाति बर्हिषो मेधमश्नाति – मा.श. ११.१.७.[२]
*द्यौर्बर्हिः – मा.श. १२.८.२.३६
*पशवो बर्हिः – मा.श. १२.९.१.११
*देव बर्हिश्शतवल्शं विरोह सहस्रवल्शा वि वयं रुहेम। काठ.सं. १.२, कपि.क.सं. १.२
*पशवो वै बर्हिः – काठ.सं. २६.७, कपि.क.सं. ४१.५, ऐ.ब्रा. २.४
*बर्हिषा वै प्रजापतिः प्रजा असृजत – काठ.सं. ३२.३
*पशवो बर्हिषि वेद्यां स्तीर्यमाणायाम् (अभिषुताः) – काठ.सं. ३४.१५
*बर्हिः प्रजाः – जै.ब्रा. १.८६
*बर्हिर्यजति शरदमेव, शरदि हि बर्हिष्ठा ओषधयो भवन्ति – कौ.ब्रा. ३.४
*ओषधयो बर्हिः – मै.सं. १.८.७, ऐ.ब्रा. ५.२८, तै.ब्रा. २.१.५.१, मा.श. १.३.३.९, १.८.२.११, १.९.२.२९
*आधीतं बर्हिः – मै.सं. १.९.१
*उपमूलं बर्हिर्दाति, तेन पितृणां यदृते मूलं तेन देवानाम् – मै.सं. १.१०.१७
*ओषधयो बर्हिषा (सहागच्छन्तु) – तै.आ. ३.८.१
*लोमानि बर्हिः – तै.आ. १०.६४.१
*बर्हिषो देवयज्यया प्रजावान् भूयासम् – तै.सं. १.६.४.१(तु. काठ.सं. ५.३)
*बर्हिर्यजति शरदमेवावरुन्धे – तै.सं. २.६.१.१
*प्रजा बर्हिः – तै.सं. २.६.१.२, मै.सं. ३.८.६
*बर्हिर्यजति, प्रजामेवावरुन्धे – तै.सं. २.६.१.२
*बर्हिर्यजति, य एव देवयानाः पन्थानस्तेष्वेव प्रतितिष्ठति – तै.सं. २.६.१.३
*प्रजा वै बर्हिः – तै.सं. २.६.५.२, ६.२.४.६, मै.सं. १.१०.१८, ४.१.२, ४.१.१३, ४.८.५, काठ.सं. २५.५, २९.९, ३१.१, ३६.४, कपि.क.सं. ३९.२, ४७.१, कौ.ब्रा. ५.७, १८.१०, तै.ब्रा. १.६.३.१०, मा.श. १.५.३.१६, २.६.१.२३, २.६.१.४४, ४.४.५.१४, गो.ब्रा. २.१.२४,
*अग्रं वा एतत् पशूनां यद् वपाग्रमोषधीनां बर्हिः – तै.सं. ६.३.९.५
*अश्विना नमुचेः सुतम्। सोमं शुक्रं परिस्रुता। सरस्वती तमाभरत्। बर्हिषेन्द्राय पातवे। - तै.ब्रा. २.६.१२.२
*होता यक्षद्बर्हिः सुष्टरीमोर्णम्रदाः। भिषङ् नासत्या। भिषजाऽश्विनाऽश्वा शिशुमती। भिषग्धेनुः सरस्वती। - तै.ब्रा. २.६.११.३
*देवं बर्हिर्वारितीनाम्। देवमिन्द्रमवर्धयत्। स्वासस्थमिन्द्रेणाऽऽसन्नम्। अन्या बर्हींष्यभ्यभूत। - तै.ब्रा. २.६.१०.६
*जुषाणो बर्हिर्हरिवान्न इन्द्रः। प्राचीनं सीदत्प्रदिशा पृथिव्याः। उरुव्यचाः प्रथमानं स्योनम्। आदित्यैरक्तं वसुभिः सजोषाः। - तै.ब्रा. २.६.८.२
*होता यक्षद्बर्हिषीन्द्रं निषद्वरान्। वृषभं नर्यापसम्। वसुभी रुद्रैरादित्यैः, सयुग्भि बर्हिरासदत्। - तै.ब्रा. २.६.७.२
*देवं बर्हिर्वारितीनां - - - - यश इन्द्रे वयो दधत्। - तै.ब्रा. २.६.२०.५
*देवं बर्हिरिन्द्रं वयोधसम्। - - - तेज इन्द्रे वयो दधत् – तै.ब्रा. २.६.२०.१
*होता यक्षत्सुबर्हिषदम्। पूषण्वन्तममर्त्यम्। - - - -अमृतेन्द्रं वयोधसम्। - तै.ब्रा. २.६.१७.३
*देवं बर्हिः सरस्वती। सुदेवमिन्द्रे अश्विना। तेजो न चक्षुरक्ष्योः। बर्हिषा दधुरिन्द्रियम्। - तै.ब्रा. २.६.१४.१
*देवं बर्हिर्वारितीनां। अध्वरे स्तीर्णमश्विभ्यां। ऊर्णम्रदाः सरस्वत्या। स्योनामिन्द्र ते सदः। ईशायै मन्युं राजानं बर्हिषा दधुरिन्द्रियं। - तै.ब्रा. २.६.१४.५
बर्हिषद
टिप्पणी : पितरों के एक रूप में बर्हिषद पितरों का उल्लेख यह संकेत करता है कि हमारे जो अनुभव बर्हि नहीं बने हैं, बृहत् नहीं बने हैं, वह पितर रूप, पालन करने वाले नहीं हो सकते। उदाहरण के लिए, हमने किसी स्वाद का अनुभव किया। जब तक वह स्वाद हमें अभिभूत न कर दे, हमारे अन्दर रोमांच न उत्पन्न कर दे, तब तक उसे बर्हि-सद, बृहत् के ऊपर विराजमान नहीं कहा जा सकता। शिव पुराण आदि में उल्लेख आता है कि स्वधा व बर्हिषद पितरों की मानसी कन्या धन्या सनकादि के शापवश सीरध्वज जनक की पत्नी बनी जिनके द्वारा हल से भूमि का कर्षण और उससे सीता की उत्पत्ति की कथा प्रसिद्ध है। सीरध्वज – हल जिसका ध्वज है। हल द्वारा अपने शरीर रूपी पृथिवी का कर्षण करना यह संकेत करता है कि यह बर्हि की स्थिति से नीचे की स्थिति है। अथवा हल भी बर्हि का एक विशेष रूप है जिसके द्वारा सारे शरीर का कर्षण किया जा सकता है।
प्रथम लेखन : १२-४-२०१३ई.(चैत्र शुक्ल द्वितीया, विक्रम संवत् २०७०)
संदर्भ
*आहं पि॒तॄन् त्सु॑वि॒दत्राँ अवित्सि॒ नपा॑तं च वि॒क्रम॑णं च॒ विष्णोः॑। ब॒र्हिषदो॒ ये स्व॒धया॑ सु॒तस्य॒ भज॑न्त पि॒त्वस्त इ॒हाग॑मिष्ठाः॥ - ऋ. १०.१५.३
*बर्हि॑षदः पितर ऊ॒त्य१॒॑र्वागि॒मा वो॑ ह॒व्या च॑कृमा जु॒षध्व॑म्। त आ ग॒ताव॑सा॒ शंत॑मे॒नाऽथा॑ नः॒ शं योर॑र॒पो द॑धात॥ - ऋ. १०.१५.४
*उप॑हूताः पि॒तरः॑ सो॒म्यासो॑ बर्हि॒ष्येषु॑ नि॒धिषु॑ प्रि॒येषु॑। त आ ग॑मन्तु॒ त इ॒ह श्रु॑व॒न्त्वधि॑ ब्रुवन्तु॒ ते॑ऽवन्त्व॒स्मान्॥ - ऋ. १०.१५.५
*तं(पशुं) यत्र निहनिष्यन्तो भवन्ति तदध्वर्युर्बर्हिरधस्तादुपास्यति। यदेवैनमद आप्रीतं सन्तं पर्यग्निकृतं बहिर्वेदि नयन्ति बर्हिषदमेवैनं तत्कुर्वन्ति। - ऐ.ब्रा. २.११
*बर्हिषदो ये स्वधया सुतस्य इत्येतद्ध वा एषां प्रियं धाम यद्बर्हिषद इति, प्रियेणैवैनांस्तद्धाम्ना समर्धयति। - ऐ.ब्रा. ३.३७
*अथ यत्र प्रतिपद्यते(यत्र काले होता प्रतिपद्यते इडोपहूता इत्येतं निगदम्) – तच्चतुर्धा पुरोडाशं कृत्वा बर्हिषदं करोति। तदत्र पितॄणां भाजनेन। चतस्रो वा अवान्तरदिशः। अवान्तरदिशो वै पितरः। तस्माच्चतुर्धा पुरोडाशं कृत्वा बर्हिषदं करोति। - मा.श. १.८.१.४०
*अथ पितृभ्यो बर्हिषद्भ्यः अन्वाहार्यपचने धानाः कुर्वन्ति। ततोऽर्धाः पिंषन्ति, अर्धा इत्येव धाना अपिष्टा भवन्ति। ता धानाः पितृभ्यो बर्हिषद्भ्यः। - मा.श. २.६.१.५
*तद्ये सोमेनेजानाः – ते पितरः सोमवन्तः। अथ ये दत्तेन पक्वेन लोकं जयन्ति – ते पितरो बर्हिषदः। - मा.श. २.६.१.७
*अथाह – पितृभ्यो बर्हिषद्भ्योऽनुब्रूहि इति। स उपस्तृणीत आज्यम्। अथासां धानानामवद्यति। स तेनैव सह मन्थस्य तेन सह पुरोडाशस्य तत् सकृदवदधाति। अथोपरिष्टाद् द्विराज्यस्याभिघारयति। प्रत्यनक्त्यवदानानि। नातिक्रामति। इत एवोपोत्थाय, आश्राव्याह – पितॄन् बर्हिषदो यज इति। वषट्कृते जुहोति। - मा.श. २.६.१.२८
*शुक्रामन्थिनौ ग्रहौ – इमां त्वेव शुक्रस्य पुरोरुचं कुर्यात् – तं प्रत्नथा पूर्वथा विश्वथेमथा ज्येष्ठतातिं बर्हिषदं स्वर्विदम् इति। अत्ता ह्येतमनु। अत्ता हि ज्येष्ठः। तस्मादाह – ज्येष्ठतातिं बर्हिषदं स्वर्विदम्। - मा.श. ४.२.१.९
*नृषदे वेट् इति। प्राणो वै नृषत्, मनुष्या नरः। - - -अप्सुषदे वेट् इति। योऽप्स्वग्निः – तमेतत्प्रीणाति। बर्हिषदे वेट् इति। य ओषधिष्वग्निः – तमेतत्प्रीणाति। वनसदे वेट् इति। यो वनस्पतिष्वग्निः तमेतत्प्रीणाति। स्वर्विदे वेट् इति। अयमग्निः स्वर्विद्। - मा.श. ९.२.१.८
* स जुहोति – सुरावन्तं बर्हिषदँँ सुवीरम् इति। सुरावान्वा एष बर्हिषद्यज्ञो यत्सौत्रामणी। बर्हिषैवैनं यज्ञेन समर्द्धयति। - मा.श. १२.८.१.२
*मासा वै पितरो बर्हिषदः – तै.ब्रा. १.६.८.३
*यद् बर्हिषदो (यजति) यज्वनस्तद् (यजति) – मै.सं. १.१०.१८, काठ.सं. ३६.१३
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