ESOTERIC ASPECTS OF EGO THROUGH STORY OF BALI AND VAMANA
- Radha Gupta
In the eighth canto of Bhaagavata puraana, there is a famous story of Bali and Vaamana. This story is related with ego and describes all the aspects of it’s origination and liberation.
The story says that a person forgets his real self in the long journey of births and deaths. He thinks himself a body and in the body consciousness he remains attached with his roles, thinking himself as the real actor. This transformation from soul to body brings him pain and he gets hurt again and again. This attachment to a wrong image of himself is called ego symbolized as Bali.
Amongst all vices, ego is very powerful, as ego is closely connected with the deep rooted impressions of the past lives in the subconscious mind. These impressions play very important role in affecting the present thoughts lying in conscious mind. As a result, a person deeply indulges in body consciousness and it becomes very difficult to get rid of this ego.
Ego is very harmful as all the divinity of personality disappears in it’s presence and a person feels void.
The story says that the purity of mind never overcomes this vice. A strong approach is needed for this purpose. On the very first step of this approach, three qualities are required. First, a deep desire to realize his self. Second, living in harmony of body and self. Third, constant remembering of the self. These three qualities combined together make a person able in producing a new powerful thought of being a soul called as Vaamana.
This thought appears very tiny in the beginning, but as soon as it strengthens, the whole process of feelings, attitude, actions, habit and perception changes. This change is so powerful that a transformation from body to soul takes place which weakens the impressions accumulated in subconscious mind.
Now the thought of being a soul immerges, and if implemented properly, first ruins the castle of ego and at last ego itself is surrendered. These three steps of immersion, implementation and surrender are symbolized as the three steps of Vaamana.
Surrender of ego does not mean it’s cease. It indicates it’s controlled situation. Previously, living in body consciousness a person was controlled by his ego, but now ego is totally controlled by him and a person starts living in bliss.
A wonderful change also takes place on the impression level. Previously, the thoughts were controlled by body impressions, but now impressions are controlled by this beautiful thought that I am a pure, peaceful, powerful, happy, loveable and blissful being and every human being is like me.
बलि - वामन की कथा के माध्यम से अहंकार की प्रबलता एवं अहंकार से मुक्त होने के उपाय का दिग्दर्शन
- राधा गुप्ता
श्रीमद्भागवत पुराण के अष्टम स्कन्ध में अध्याय १५ से २३ तक ९ अध्यायों में बलि - वामन कथा विस्तार से वर्णित है ।
कथा का संक्षिप्त स्वरूप
एक बार देवासुर संग्राम में जब इन्द्र ने बलि को पराजित करके उसकी सम्पत्ति छीन ली और उसके प्राण भी ले लिए, तब भृगुनन्दन शुक्राचार्य ने उसे अपनी संजीवनी विद्या से जीवित कर दिया । इस पर शुक्राचार्य के शिष्य बलि ने अपना सर्वस्व उनके चरणों पर चढा दिया और वह तन - मन से गुरु जी के साथ ही समस्त भृगुवंशी ब्राह्मणों की सेवा करने लगा । इससे प्रभावशाली भृगुवंशी ब्राह्मण उन पर बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने स्वर्ग पर विजय प्राप्ति की इच्छा वाले बलि से विश्वजित् यज्ञ कराया । यज्ञ से प्राप्त युद्ध सामग्री से सुसज्जित होकर बलि ने इन्द्र पर चढाई की परन्तु इन्द्र आदि सभी देवता अपने गुरु बृहस्पति के निर्देशानुसार स्वर्ग छोडकर पहले ही कहीं छिप गए । अतः बलि ने स्वर्ग पर अधिकार करके तीनों लोकों को जीत लिया ।
बलि के स्वर्ग पर अधिष्ठित हो जाने और देवताओं के भागकर छिप जाने से देवों की माता अदिति को बहुत दुःख हुआ और वे अनाथ सी हो गई । बहुत दिनों के बाद जब प्रभावशाली कश्यप मुनि की समाधि टूटी और वे पत्नी अदिति के आश्रम पर आए, तब उन्होंने देखा कि न तो वहां सुख - शान्ति है और न किसी प्रकार का उत्साह या सजावट ही । कश्यप द्वारा पूछने पर उदास अदिति ने देवों के स्वर्ग - च्युत होकर छिप जाने का वृत्तान्त बताते हुए जब कल्याण हेतु कोई उपाय बतलाने की प्रार्थना की तब कश्यप मुनि ने अदिति को पयोव्रत के अनुष्ठान का उपदेश दिया ।
कश्यप जी के उपदेशानुसार अदिति ने पयोव्रत का अनुष्ठान किया । उन्होंने अपने मन को सर्वात्मा पुरुषोत्तम के चिन्तन में लगा दिया । प्रसन्न भगवान् ने अदिति को स्वयं पुत्र रूप में अवतरित होकर उसके अभिलषित कार्य को सम्पन्न करने का वचन दिया । यथासमय भगवान् के प्रकट होने पर समस्त प्रकृति निर्मल हो गई । भगवान् के चतुर्भुज स्वरूप को देखकर कश्यप और अदिति परम आनन्दित हुए परन्तु अभीष्ट कार्य की सिद्धि हेतु भगवान् ने कश्यप और अदिति के देखते - देखते वामन ब्रह्मचारी का रूप धारण कर लिया । वामन ब्रह्मचारी को सविता ने गायत्री का उपदेश किया, बृहस्पति ने यज्ञोपवीत, कश्यप ने मेखला, पृथ्वी ने कृष्णमृगचर्म, चन्द्रमा ने दण्ड, माता अदिति ने कौपीन और कटिवस्त्र, द्यौ ने छत्र, ब्रह्मा जी ने कमण्डलु, सप्तर्षियों ने कुश, सरस्वती ने अक्षमाला, यक्षराज कुबेर ने भिक्षापात्र और भगवती उमा ने भिक्षा दी । इस प्रकार सम्मानित, सुसज्जित हुए वामन भगवान् ने नर्मदा नदी के उत्तर तट पर स्थित बलि की उस यज्ञशाला में प्रवेश किया जिसमें बलि के भृगुवंशी ऋत्विज बलि का अश्वमेध यज्ञ करा रहे थे । वामन भगवान् के तेज से सभी ऋत्विज, सदस्य और यजमान प्रभाहीन हो गए । बलि ने वामन ब्रह्मचारी का स्वागत - सत्कार करके स्वयं को कृतकृत्य माना और उनकी किसी भी मांग को पूरा करने का आश्वासन दिया ।
वामन भगवान् ने बलि के धर्माचरण का अभिनन्दन करते हुए उनके गुरु शुक्राचार्य, भृगुवंशीय ब्राह्मणों तथा प्रह्लाद, हिरण्यकशिपु, हिरण्याक्ष एवं विरोचन आदि पूर्वजों की प्रशंसा की और अपने पैरों से तीन पद पृथ्वी की मांग की । शुक्राचार्य जी भगवान् की इस लीला को जानते थे, इसलिए बलि ने जैसे ही तीन पद भूमि देने का संकल्प करने के लिए जलपात्र उठाया, शुक्राचार्य जी ने उन्हें रोकना चाहा और कहा कि ये विश्वव्यापक भगवान् दो ही पद में पृथ्वी और स्वर्ग को माप लेंगे । तब तुम इनके तीसरे पद के संकल्प को पूरा नहीं कर सकोगे ।
बलि ने शुक्राचार्य जी के वचनों का आदर नहीं किया , अतः शुक्राचार्य जी ने बलि को लक्ष्मी खो देने का शाप दे दिया । बलि ने अपनी पत्नी विन्ध्यावली के सहयोग से वामन भगवान् के चरण पखारे और तीन पद भूमि देने का संकल्प कर दिया । वामन भगवान् ने विराट रूप होकर एक पद से पृथ्वी तथा दूसरे पद से स्वर्ग को माप लिया । बलि के कुछ सेवकों ने स्वामी के प्रति अनुराग होने के कारण वामन भगवान् को मारना चाहा परन्तु विष्णु भगवान् के भेजे हुए पार्षद असुर सेना का ही संहार करने लगे । अन्त में बलि ने शुक्राचार्य के शाप का स्मरण करके दैत्यों को युद्ध करने से रोक दिया और वे सब दैत्य रसातल को चले गए । इसी समय भगवान् विष्णु के आदेशानुसार पक्षिराज गरुड ने बलि को वरुण के पाश से बांध दिया और वामन भगवान् ने तीन पद भूमि देने की प्रतिज्ञा पूरी न करने के कारण बलि को नरक में जाने का आदेश दिया ।
बलि ने वामन भगवान् से तीसरा पद अपने सिर पर रखने के लिए प्रार्थना की और भक्तिभाव से उनकी स्तुति की । इसी समय प्रह्लाद जी भी वहां आ पहुंचे और उन्होंने भी भगवान् को नमस्कार किया । भगवान् ने मोहरहित हुए बलि की प्रशंसा करते हुए उन्हें सुतल लोक में रहने का आदेश दिया । वरुण के पाश से मुक्त होकर बलि ने प्रह्लाद जी के साथ सुतल लोक की यात्रा की और वामन भगवान् स्वयं उनके प्रहरी(दुर्गपाल) बन गए । भगवान् के आदेश से शुक्राचार्य जी ने बलि के अपूर्ण यज्ञ को पूर्ण किया । ब्रह्मा जी ने सम्पूर्ण लोक एवं लोकपालों के पद पर वामन भगवान् का अभिषेक करके इन्द्र को स्वर्ग का राज्य प्रदान किया ।
कथा की प्रतीकात्मकता
१- बलि - मनुष्य में काम, क्रोध, मोह आदि जितने भी विकार विद्यमान हैं, उनमें सबसे प्रबल है - अहंकार । प्रबलता के कारण ही अहंकार को यहां बलि कहकर इंगित किया गया है । अहंकार का अर्थ है - अपने वास्तविक आत्म स्वरूप की स्मृति न रहने के कारण अपनी विभिन्न भूमिकाओं, अपने विषय में निर्मित किए गए किसी स्वरूप, अपने किसी विचार अथवा अपनी किसी वस्तु के प्रति आसक्त हो जाना और फिर उस भूमिका, स्वरूप, विचार अथवा वस्तु को किसी भी बाह्य स्थिति - परिस्थिति से जरा सी भी चोट पडने पर स्वयं को ही चोट लगा हुआ अनुभव करना जिसे वर्तमान भाषा में ego-hurt कहा जाता है ।
उदाहरण के लिए, जब मनुष्य एक पिता की भूमिका में होता है, तब पिता की भूमिका को भूमिका न समझकर उसे ही अपना वास्तविक स्वरूप समझ लेता है और फिर उस भूमिका के प्रति आसक्त होने के कारण किसी भी बाह्य स्थिति में उस भूमिका को चोट पडते ही स्वयं को आहत महसूस करता है ।
यही स्थिति अपने विषय में निर्मित किसी स्वरूप अथवा पद के साथ भी घटित होती है । मनुष्य अपने विषय में निर्मित किए गए किसी स्वरूप(जैसे - मैं बहुत गंभीर हूं) अथवा डाक्टर, इंजीनियर आदि किसी पद के प्रति आसक्त होकर उसे ही अपना वास्तविक स्वरूप समझ लेता है और फिर उस स्वरूप अथवा पद के विषय में किसी के कुछ कह देने पर आहत अनुभव करने लगता है ।
कभी - कभी मनुष्य अपने किसी विचार के प्रति ही आसक्त हो जाता है और फिर किसी अन्य विचार के प्रस्तुत होने एवं अपने विचार के अस्वीकृत हो जाने पर स्वयं को आहत अनुभव करता है ।
स्थूल वस्तु के प्रति आसक्त होना और वस्तु के खो जाने पर आहत हो जाना अहंकार का सबसे स्थूल स्वरूप है ।
कथा में कहा गया है कि इन्द्र द्वारा बलि के प्राण ले लिए जाने पर भी शुक्राचार्य ने अपनी संजीवनी विद्या के द्वारा बलि को जीवित कर दिया । प्रस्तुत कथन अहंकार के साथ चित्तगत संस्कार के प्रगाढ सम्बन्ध को सूचित करता है । स्वयं के देहरूप होने (मैं देह हूं ) का जो प्रबल संस्कार मनुष्य के चित्त में पडा हुआ है - वही मनुष्य के मन में स्थित देहभाव(बलि ) को मरने नहीं देता और यदि कभी मनुष्य का शुद्ध मन(इन्द्र ) प्रयत्नपूर्वक इस देह - भाव से वियुक्त होकर आत्मभाव( मैं शुद्ध शान्तस्वरूप आत्मा हूं) से संयुक्त होता भी है, तब यही चित्त में संग्रहीत देहभाव का संस्कार अर्थात् शुक्राचार्य उसे पुनः जीवित कर देता है ।
कथा में शुक्राचार्य को भृगु - नन्दन (भृगु का पुत्र ) कहा गया है । भृगु का अर्थ है - कर्मफलों को भून देने वाला । आत्म-ज्ञान ही मनुष्य के कर्मफलों को भूनता है । परन्तु यही आत्मज्ञान शनैः - शनैः जन्मों - जन्मों की एक लम्बी यात्रा के कारण विस्मृत होकर देह - ज्ञान में रूपान्तरित हो जाता है । अतः आत्मज्ञान रूप भृगु से देहज्ञान रूप शुक्राचार्य के उत्पन्न होने के कारण शुक्राचार्य को भृगु - नन्दन कहना उचित ही है । वास्तव में शुक्राचार्य के साथ भृगुनन्दन विशेषण लगाना शुक्राचार्य के अर्थ को सही रूप में ग्रहण कराने का ही एक पौराणिक प्रयास है ।
कथा में कहा गया है कि जब बलि वामन भगवान् को तीन पग भूमि देने का संकल्प करने को उद्धत हुए, तब शुक्राचार्य ने उन्हें रोकने की चेष्टा की परन्तु बलि के द्वारा शुक्राचार्य के आदेश का पालन न किए जाने पर शुक्राचार्य ने बलि को लक्ष्मी खो देने का शाप दे दिया ।
शाप शब्द अवश्य भवितव्यता(होने) और लक्ष्मी शब्द अहंकार - सम्पत्ति को इंगित करता है । अहंकार की सम्पत्ति है - स्वार्थपरक रागद्वेषादिपूर्ण नकारात्मक विचार, भाव, दृष्टिकोण, कर्म आदि । प्रस्तुत कथन अहंकार के साथ चित्त में संग्रहीत हुए देह - संस्कार के सम्बन्ध - विच्छेद को सूचित करता है । अज्ञान के कारण जब तक मनुष्य सहज रूप से देहभाव के संस्कारों से अनुप्राणित होता रहता है, तब तक अहंकार की सम्पत्ति सर्वथा सुरक्षित बनी रहती है । तात्पर्य यह है कि मनुष्य में विद्यमान अहंकार(देहभाव) तथा अहंकार - सम्पत्ति(देहभाव के कारण उत्पन्न हुई स्वार्थपरता और नकारात्मकता) उसके चित्तगत संस्कारों से घनिष्ठ संबंध रखते हैं । चित्तगत संस्कार अहंकार को अनुप्राणित भी करते हैं और चित्तगत संस्कारों से सम्बन्ध विच्छेद अहंकार तथा अहंकार - सम्पत्ति की समाप्ति का प्रमुख माध्यम भी बनते हैं ।
४- भृगुवंशी ब्राह्मण - भृगुवंशी ब्राह्मण भी देहपरक संस्कारों को ही इंगित करते हैं । बलि द्वारा भृगुवंशी ब्राह्मणों की सेवा करने का अर्थ है - मनुष्य के (चेतन) मन में विद्यमान देहभाव का चित्त(अथवा अचेतन मन ) में विद्यमान संस्कारों के साथ प्रगाढ सम्बन्ध । भृगुवंशी ब्राह्मणों द्वारा बलि को विश्वजित् यज्ञ कराना और यज्ञ से प्राप्त युद्ध सामग्री की सहायता से बलि(देहभाव) का स्वर्ग(मन) पर अधिकार कर लेना भी देहपरक संस्कारों के प्रभुत्व को ही इंगित करता है । इसीलिए कथा में इन भृगुवंशी ब्राह्मणों को परम प्रभावशाली कहा गया है ।
५ - कश्यप - कश्यप शब्द कशं + प = पिबति से बना है । कशं का अर्थ है - प्रकाश और पिबति का अर्थ है - पान करना । आत्मा (चैतन्य) आकाश रूप है । अतः जो मनश्चेतना इस आत्मा रूप प्रकाश का पान करने वाली है - वह कश्यप है । आत्मा रूप प्रकाश को पान करने का अर्थ है - आत्मस्थ होने की इच्छा से युक्त होना । अहंकार से मुक्त होने के लिए मनुष्य चेतना का आत्मस्थ होने की इच्छा से युक्त होना अनिवार्य है । इस इच्छा से युक्त होने को ही कथा में कश्यप की समाधि का टूटना और अदिति के आश्रम पर जाना कहकर इंगित किया गया है ।
६- अदिति - अदिति मनुष्य की अखण्डित चेतना को इंगित करती है । अखण्डित चेतना का अर्थ है - आत्मा और शरीर( पुरुष और प्रकृति ) के योग में स्थित होना । आत्मा रूप चैतन्य जड शरीर के माध्यम से अभिव्यक्त होता है और जड शरीर आत्मा रूप चैतन्य की सत्ता से ही क्रियाशील होता है । अतः आत्मा और शरीर के योग में स्थित रहना एक संतुलन है । यह अखण्डित चेतना (अथवा संतुलन) ही कश्यप से संयुक्त होकर व्यक्तित्व में दिव्यता का आधान करती है, इसीलिए आदित्य देवों को अदिति का पुत्र कहकर इंगित किया गया है ।
७- देवों का छिपना - देवों का छिप जाना व्यक्तित्व में निहित दिव्यता के छिप जाने को इंगित करता है । यह दिव्यता व्यक्तित्व में अनेक रूपों में विद्यमान रहती है । मनुष्य का वासनारहित(विवस्वान्) होकर स्वीकार भाव(धाता) से युक्त होना, सबका पोषण करते हुए(पूषा) मित्रभाव(मित्र) से रहना, सत्य अहिंसा अस्तेय अपरिग्रह आदि गुणों का स्वाभाविक रूप से व्यक्तित्व में विद्यमान होना( अर्यमा) तथा धैर्य, संतोष, सरलता आदि ऐसी अनेक विशेषताएं हैं जो व्यक्तित्व को दिव्य बनाती हैं । परन्तु अहंकार से युक्त होने पर अर्थात् आत्मचेतना को भूलकर देहभाव में स्थित होने पर यही दिव्यता अप्रकट हो जाती है ।
८- पयोव्रत - आनन्दमय कोष की चेतना पयः कहलाती है, अतः पयोव्रत का अर्थ है - आत्म - स्मृति में स्थित होना ।
तात्पर्य यह है कि मन में आत्मस्थ होने की प्रगाढ इच्छा हो, दबी पडी, दीन - हीन अखण्डित चेतना प्रकट हो जाए और आत्म - स्मृति में मनुष्य की सतत् स्थिति हो - तभी अर्थात् इन तीनों की समन्वित स्थिति में ही मनुष्य के भीतर यह दृढ विचार उत्पन्न हो पाता है कि मैं एक शुद्ध, शान्तस्वरूप आत्मा हूं और मेरे ही समान सभी आत्मस्वरूप हैं । इसे ही कथा में वामन भगवान् का प्रकट होना कहकर इंगित किया गया है ।
९ - वामन - वामन शब्द वा+ मन से बना है । वा एक विकल्प बोधक अव्यय है जिसका अर्थ है - या, अथवा । अध्यात्म के क्षेत्र में 'मन' शब्द यद्यपि मनःशक्ति और विचार दोनों अर्थों में प्रयुक्त हुआ है, परन्तु वामन शब्द में मन शब्द विचार का ही वाचक है । मनुष्य का मन मूल रूप से दो प्रकार के विचारों को रचता है । देह चेतना में रहते हुए मन देह आधारित विचार की स्वाभाविक रूप से रचना करता है, परन्तु आत्म चेतना में रहने पर वह दूसरे प्रकार के आत्म आधारित विचारों को रचता है । इस दूसरे प्रकार को इंगित करने के लिए ही वामन शब्द में मन के साथ 'वा' अव्यय का प्रयोग किया गया है । अतः वामन का अर्थ है - यह विचार कि मैं आत्मा हूं और मेरे समान सभी आत्मस्वरूप हैं ।
वामन का एक अर्थ है - बौना या छोटा । कथा में यह वामन धीरे - धीरे विराट् रूप धारण कर लेता है । 'मैं' एक आत्मा हूं और मेरे समान सभी आत्मस्वरूप हैं' - यह एक छोटा सा विचार भी क्रमशः मनुष्य के भाव, दृष्टिकोण, कर्म, आदत तथा दृष्टि की सम्पूर्ण शृङ्खला में स्थित होता हुआ विराट रूप धारण कर लेता है ।
कथा में वामन को एक ब्रह्मचारी का स्वरूप प्रदान किया गया है और विभिन्न शक्तियों द्वारा उन्हें विभिन्न उपहार समर्पित किए गए हैं । यह चित्रण वास्तव में मनुष्य में वामन चेतना का प्राकट्य होने पर उसकी(मनुष्य की ) प्रकृति( मन, बुद्धि, इन्द्रियां आदि ) द्वारा धारण किए गए विशिष्ट स्वरूप से वामनचेतना के शोभायमान हो जाने की ओर संकेत करता है अर्थात् मनुष्य में जब वामन चेतना का प्रादुर्भाव होता है, तब उसकी सम्पूर्ण प्रकृति विशिष्ट गुणवत्ता को धारण कर लेती है ।
१० - वामन के तीन पद -
११- विष्णु - प्रेषित गरुड द्वारा बलि का वरुण पाश से बन्धन एवं मुक्ति - कथा में कहा गया है कि वामन भगवान् ने जब दो पदों द्वारा बलि के सम्पूर्ण साम्राज्य को माप लिया, तब विष्णु के आदेशानुसार पक्षिराज गरुड ने बलि को वरुण पाश से बांध दिया परन्तु तीसरे पद में बलि के समर्पित हो जाने पर बलि उस वरुण पाश से मुक्त हो गए । इस कथन द्वारा एक महत्त्वपूर्ण तथ्य की ओर संकेत किया गया है । यहां गरुड उच्च विचार अथवा संकल्प को इंगित करता है । वरुण पाश से बलि को बांधने का अर्थ है - अहंकार को सुरक्षा कवच से युक्त कर देना । कथन का अभिप्राय यह है कि वामन चेतना(आत्म चेतना) में स्थित होने पर मनुष्य के मन में अकस्मात् यह उच्च विचार (गरुड) भी उदित होता है कि ''वैसे तो चैतन्य के स्तर पर सभी मेरे समान आत्मस्वरूप हैं, परन्तु शरीर के स्तर पर सभी की यात्रा भिन्न - भिन्न प्रकार से चल रही है । प्रत्येक मनुष्य अपनी यात्रा में चलते हुए अपने शरीर(मन - बुद्धि) के स्तर के अनुरूप ही व्यवहार कर रहा है । अतः उसका कोई भी व्यवहार मेरी दृष्टि से गलत हो सकता है परन्तु उसकी अपनी दृष्टि से तो वह बिल्कुल ठीक ही है । '' यह उच्च विचार मनुष्य के अपने अहंकार के चारों ओर एक सुरक्षा कवच के रूप में स्थित हो जाता है जो उसे किसी भी प्रकार की स्थिति - परिस्थिति से आहत नहीं होने देता ।
यहां यह स्मरणीय है कि इस सुरक्षा कवच का निर्माण उस समय होता है जब मनुष्य के भीतर अहंकार का साम्राज्य तो समाप्त हो जाता है, परन्तु अहंकार अभी विद्यमान ही होता है । अहंकार के विद्यमान होते हुए भी यह सुरक्षा कवच अहंकार को आहत होने से बचा लेता है । यहां यह भी स्मरण रखना महत्त्वपूर्ण है कि कोई भी बाह्य स्थिति अथवा परिस्थिति उत्तेजक अथवा प्रेरक की भूमिका अवश्य निभाती है परन्तु अहंकार के विद्यमान होने तक मनुष्य स्वयं ही स्वयं को आहत करता है । अतः मनुष्य के मन में विद्यमान अहंकार जब तक पूर्णतः विगलित नहीं हो जाता, तब तक यही उच्च विचार रूपी सुरक्षा कवच उसकी रक्षा करता रहता है । अन्त में अहंकार के विगलित हो जाने पर तो इस सुरक्षा कवच की आवश्यकता ही नहीं रहती, इसीलिए कथा में कहा गया है कि वामन भगवान् ने जब तीसरा पद बलि के सिर पर रख दिया, तब बलि वरुण के पाश से मुक्त हो गए ।
१२ - बलि का सुतल लोक में निवास - कथा में कहा गया है कि वामन भगवान् ने बलि को सुतल लोक में निवास करने की आज्ञा दी । सुतल(सु+तल) शब्द में सु का अर्थ है - सम्यक् और तल का अर्थ है - नीचे । लोक का अर्थ है - अवलोकन अर्थात् दृष्टि । इस आधार पर सुतल लोक में रहने का अर्थ हुआ - सम्यक् दृष्टि के नीचे रहना अर्थात् सम्यक् नियन्त्रण में रहना । तात्पर्य यह है कि आत्म स्वरूप में अवस्थित होने पर मनुष्य जिस - जिस भूमिका में रहता है - उस - उस भूमिका का उत्तम रीति से निर्वाह करता हुआ भी उस भूमिका को अपने सम्यक् नियन्त्रण में रखता है और उस भूमिका में प्राप्त हुए सुख - दुःख को अपने शान्त - शुद्ध - प्रेमपूर्ण आत्मस्वरूप पर हावी नहीं होने देता । उदाहरण के लिए मां की भूमिका में रहते हुए यदि मनुष्य भूमिका को ही अपना वास्तविक स्वरूप समझ लेता है, तब सन्तान के पीडित अथवा दु:खी होने पर स्वयं भी पीडित अथवा दु:खी हो जाता है परन्तु आत्मस्वरूप में अवस्थित होने पर मनुष्य पूर्णतः शान्त और स्थिर रहकर सन्तान की पीडा से पीडित और उद्विग्न न होकर सन्तान को पीडा मुक्त करने का सार्थक प्रयास करता है । अतः वामन द्वारा बलि को सुतल लोक में निवास करने की आज्ञा देने का अर्थ हुआ - आत्मस्थ मनुष्य द्वारा अपनी प्रत्येक भूमिका, पद, विचार अथवा वस्तु पर अनासक्त भाव से पूर्ण नियन्त्रण रखना । अभिप्राय यह है कि शरीर भाव में स्थित होने पर जहां मनुष्य अपने अहंकार (भूमिका, पद, विचार, वस्तु) द्वारा नियन्त्रित रहता है, वहीं आत्मस्थ हो जाने पर अहंकार मनुष्य के नियन्त्रण में आ जाता है ।
१३- कथा में आए कतिपय अन्य प्रतीक -
I - कथा में कहा गया है कि इन्द्र द्वारा मारे जाने पर दैत्य बलि को अस्तगिरि पर ले गए और वहां शुक्राचार्य ने उनको जीवित कर दिया । ( ८.११.४७) गिरि शब्द विज्ञानमय कोश का प्रतीक है । अतः अस्तगिरि का अर्थ है - ज्ञान जहां अस्त हो गया हो । अर्थात् अज्ञान की स्थिति में ही अहंकार का अस्तित्व है ।
II - कथा में कहा गया है कि बलि के अश्वमेध यज्ञ की यज्ञशाला नर्मदा नदी के उत्तर तट पर स्थित है । नर्मदा नदी निचले स्तर का आनन्द देने वाली नदी का प्रतीक है । देहचेतना में स्थित होने पर मनुष्य के भीतर अहंकार का जो यज्ञ चल रहा है, वह भी मनुष्य को इन्द्रिय सुखों में ही ले जाता है, अतीन्द्रिय सुख (bliss) में नहीं ।
III - बलि की पत्नी विन्ध्यावली का अवतरण बलि की अहंकाररूपता को पुष्ट करने के लिए ही है । विन्ध्य का अर्थ है - बींधने योग्य अर्थात् अहंकार ।
IV - कथा में कहा गया है कि वामन भगवान् ने जब अपना तीसरा पद बलि के सिर पर रखा और बलि ने वामन भगवान् की स्तुति की, तब प्रह्लाद आ गए और उन्होंने भी भगवान् को नमस्कार किया ।
प्रह्लाद शब्द आत्मा अथवा आत्मा के गुण आनन्द का वाचक है । देहभाव के कारण जब तक मनुष्य अहंकार से ग्रसित रहता है, तब तक आत्मानन्द प्रकट नहीं होता । परन्तु आत्मभाव के उदित होने और अहंकार के विसर्जित होने पर यह प्रह्लाद रूपी आत्मानन्द प्रकट हो जाता है ।
Puraanic texts have illustrated what the word Bali in vedic texts may mean. Word Bali may have been derived from Bala, the power. All our power is going waste through our senses. Bali may mean one who has capacity to minimize this waste and convert it into the power of soul. According to principles of modern sciences, this conversion can not be made hundred percent efficient. But here comes the metaphysics. Bali complains to his chief priest that how is it that gods are reaching higher realms. His priest tells him that gods know how to perform a work with mantras. That is how they are able to reach higher realms. Bali also starts performing sacrifices with the help of his chief priest( it is not mentioned whether with mantras or without mantras). The crux of his sacrifice is the appearance of lord Vaamana, the dwarf one, who assumes a huge bright form shortly afterwards. Bali is put into bondage. His food is also specified : the sacrifice which has been performed without Dakshinaa/fee, oblations offered to manes without faith, a work done with an impure state of self etc. Clearly, these things which are absent in the food of Bali make the conversion of energy hundred percent efficient.
Vedic texts mention offering of bali/oblation for Kubera. Just as king Bali of puraanas has plenty of wealth, the same way, Kubera also has plenty of wealth. He is the lord of wealth. But there is a big difference between king Bali and Kubera. Puraanic texts instruct playing dice on the day when Bali is on throne. On the other hand, Kubera lives in Alakaapuri, the city which is free from luck, free from chance. This fact can be a key to understand the vedic word Bali.
There is mention in puraanic texts that after bondage, Bali was allowed to reside in Sutala realm. Here tala may be taken in the sense that there is a possibility of transforming the form on this earth into higher states and ultimately give them the form of constellations in the sky. More than that, one is supposed to transform those forms which are lying in dormant state in gross matter. This has been given the name Bali, the tax which a king, our soul is supposed to collect from his subjects. Moreover, there are forces lying scattered in the universe, for example electromagnetic force. One is supposed to receive it in concentrated form.
According to one vedic mantra, it can be said that whatever is measurable in this universe, it will receive bali only, not dakshinaa.
One is supposed to investigate within self at different stages who is receiving the bali from whom.
बलि - वामन कथा का वैदिक स्वरूप
- विपिन कुमार
वैदिक साहित्य में कहीं भी यह स्पष्ट नहीं है कि बलि से क्या तात्पर्य है । पुराणों ने बलि के तात्पर्य को स्पष्ट किया है । जैसा कि बल शब्द की टिप्पणी में उल्लेख किया जा चुका है, भागवत पुराण ३.१२.४७ के श्लोक ''ऊष्माणमिन्द्रियाण्याहु: अन्तस्था बलमात्मनः'' के आधार पर यह कहा जा सकता है कि ऊष्मा का क्षय इन्द्रियों के माध्यम से हो रहा है । यदि इस क्षय को किसी प्रकार रोका जा सके तो यह आत्मा का बल बन सकता है । बलि को विरोचन का पुत्र कहा गया है । विरोचन का अर्थ हमारी इन्द्रियां हो सकता है क्योंकि इन्हीं में विविध प्रकार का रोचन होता है । ब्रह्म पुराण १.११.२८ में बलि को सुतपा का पुत्र कहा गया है । इससे संकेत मिलता है कि पुराणों के बलि के चरित्र में यह विशेषता है कि वह ऊष्मा को, ताप/सुतपा को उपयोगी कार्य में, बल में बदल सकता है । सारे आधुनिक विज्ञान का आधार यही है । लेकिन आधुनिक विज्ञान के अनुसार ऊष्मा के बल में रूपान्तरण में एक दोष है । वह यह कि ऐसा कभी संभव नहीं है कि ऊष्मा का शत - प्रतिशत रूपान्तरण बल में किया जा सके ( इसे विज्ञान में कार्नट इंजन चक्र के माध्यम से प्रदर्शित किया जाता है ) । फिर, शक्ति के रूपान्तरण में एण्ट्रांपी में, संसार की अव्यवस्था में भी वृद्धि होती है । इसे तापगतिकी का दूसरा नियम कहते हैं जिसके अनुसार इस संसार की ऊर्जा प्रतिक्षण अव्यवस्थित होती जा रही है । एक क्षण ऐसा आएगा कि सारी की सारी ऊर्जा इतनी अव्यवस्थित हो जाएगी कि उससे कोई भी उपयोगी कार्य कराना संभव नहीं रह जाएगा । लगता है कि पुराणकार इस तथ्य को स्वीकार करते हैं और इसी कारण ब्रह्मवैवर्त्त पुराण ४.९६.३५ में बलि को अतिचिरञ्जीवियों में से एक कहा गया है । लेकिन पुराणों के बलि की यह आकांक्षा है कि देवगण जिन लोकों का उपभोग करते हैं, उनका उपभोग हम भी करे । वह अपनी इच्छा अपने पुरोहित शुक्राचार्य से व्यक्त करता है और शुक्राचार्य इसका उत्तर यह देते हैं कि देवगण समन्त्रक यज्ञ करना जानते हैं जिसके माध्यम से वह उच्चतर लोकों पर विजय प्राप्त कर लेते हैं । तब बलि ने भी शुक्राचार्य के पौरोहित्य में यज्ञ का आरम्भ किया जिसकी परिणति वामन के प्राकट्य के रूप में हुई । फिर वामन अपने विराट् स्वरूप में प्रकट होते हैं और बलि का बन्धन कर देते हैं । देवीभागवत पुराण ९.४५.६६ और नारद पुराण १.११.१९० में बन्धन - ग्रस्त बलि के भोजन हेतु द्रव्यों का निर्धारण किया गया है । जो कर्म(यज्ञ) दक्षिणा से हीन हो, जो श्राद्ध श्रद्धा से रहित हो, इत्यादि भोजन बलि के लिए नियत है । देवों का यज्ञ दक्षिणा से युक्त होता है, उसमें दक्षता प्राप्त होती है । सोमयाग में यजमान चक्षु आदि अपने अंगों को अपनी देह से निकाल कर ऋत्विजों को दक्षिणा में दे देता है और ऋत्विज गण उन अंगों को विकाररहित बनाकर गौ के बदले उन्हें पुनः यजमान को वापस दे देते हैं । इस प्रकार बलि के भोजन में जिन अवयवों का अभाव है - जैसे दक्षिणा, श्रद्धा, शौच आदि, वही सब देवयज्ञ के लिए आवश्यक हैं । इसका अर्थ यह हुआ कि बलि का यज्ञ वैसा ही हुआ जैसा आधुनिक विज्ञान में चल रहा है । इस यज्ञ की परिणति वामन के प्राकट्य के रूप में होती है । वामन का सामान्य अर्थ तो बौना होता है । वामन पुराण ७८ में वामन को एक और नाम भी दिया गया है - गतिभास । वामन के बडे भाई को नेत्रभास नाम दिया गया है और वामन के पिता को प्रभास नाम दिया गया है । वामन का बडा भाई नेत्रभास अपने अनुज को नदी के जल में फेंक देता है और जब बलि ने वामन/गतिभास की जल से रक्षा की, तब तक गतिभास को जल में डूबते - उतराते एक संवत्सर का समय बीत चुका था । यहां नेत्रभास और गतिभास का क्या अर्थ हो सकता है, यह अन्वेषणीय है । रामायण के अनुसार बालि जिसे देख लेता था, उसके आधे बल का हरण कर लेता था । इसलिए राम को छिपकर उसे मारना पडा । यह नेत्रभास का उदाहरण हो सकता है । वैदिक साहित्य में गति शब्द ज्ञान के अर्थ में भी आता है । वामन पुराण ९० में पूर्व जन्म की स्मृति के आभास, प्रत्याभास के उल्लेख आए हैं । ताण्ड्य ब्राह्मण १४.११.१७ के अनुसार स्वर्भानु असुर ने आदित्य को तम से आविद्ध कर दिया । तब अत्रि ने भास साम द्वारा आदित्य को तम से मुक्त किया । वह पुनः भा - युक्त हो गया । यह भास का भासत्व है । स्वयं बलि के एक पुत्र का नाम मन्दगति है ( गर्ग संहिता ५.११.१३) जो त्रित मुनि के शाप से कुवलयपीड हाथी बनता है । वैदिक साहित्य में अंगिरस गण की प्रगति मन्द गति से होती है, आदित्य की प्रगति तीव्र गति से होती है, वैसे ही जैसे मनुष्य का मस्तिष्क मन्द गति से कार्य करता है, कम्प्यूटर तीव्र गति से । पद्म पुराण १.३० में बलि का बाष्कलि नाम प्रकट हुआ है जो भास्कर शब्द का रूपान्तर हो सकता है ।
तैत्तिरीय आरण्यक १.३१.१ में वैश्रवण कुबेर से प्रार्थना की गई है कि वह हमारी बलि स्वीकार करने के लिए बहुत चक्रों वाले, हजार अश्वों वाले रथ पर आरूढ होकर आए । कुबेर के लिए भूत धन, गौ, हस्तिहिरण्य आदि का आवहन करते हैं । कहा गया है कि वैश्रवण क्षत्र है, हम ब्राह्मण हैं, वैश्रवण हमारी रक्षा करे, हमारी हिंसा न करे । वैदिक साहित्य में बलि के साथ कोई नाम विशेष बहुत ही कम प्रकट हुआ है । अतः कुबेर को बलि प्रदान करने के उल्लेख के संदर्भ में कुबेर की प्रकृति पर विचार करने से पुराणों के राजा बलि के चरित्र पर प्रकाश पड सकता है । कुबेर अलका पुरी का राजा है । रावण की पुरी लंका/लका/लक - अंग्रेजी भाषा के लक, भाग्य वाली है । जहां भाग्य अथवा चांस अथवा द्यूत समाप्त हो जाए, वह कुबेर की अलका पुरी है । वामन पुराण ८५ में कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा के दिन बलि के राज्य का उत्सव मनाने का निर्देश है । कहा गया है कि इस दिन गायों/धेनुओं और उनके वत्सों को मुक्त कर दे । वत्सों को क्रीडा के लिए खिलौने दे । द्यूत का भी विधान है । इस संदर्भ में धेनुएं हमारी इन्द्रियां प्रतीत होती हैं और उनके वत्स हमारे प्राण, मन आदि हो सकते हैं जिनका वह पालन कर रही हैं । अतः हमारे सामने दो प्रकार की बलियों के उदाहरण हैं - एक जहां द्यूत विद्यमान है और एक जहां द्यूत विद्यमान नहीं है । कुबेर यक्ष है । यक्ष अन्तर्द्धान विद्या जानते हैं , अर्थात् वह बहिर्मुखी भी हो सकते हैं, अन्तर्मुखी भी । ऐसा प्रतीत होता है कि राजा बलि और कुबेर के चरित्रों में यह अन्तर वैदिक साहित्य में बलि शब्द के रहस्य का उद्घाटन करने के लिए कुंजी बन सकता है । इसके अतिरिक्त, इस संदर्भ में यह संकेत भी दिया गया है कि क्षत्रिय राजा अपनी प्रजा से बलि प्राप्त करता है । लेकिन ब्राह्मणत्व के स्तर पर बलि व्यर्थ है । वहां तो दक्षिणा काम देती है । दक्षिणा से अर्थ है क्षत्रिय को दक्ष बनाने के पश्चात् क्षत्रिय ब्राह्मण को जो दान देता है, वह । बलि - वामन कथा के प्रसंग में यह तथ्य महत्त्वपूर्ण है ।
वामन द्वारा बलि के निग्रह के बाद उसे सुतल लोक में भेज देने के उल्लेख के संदर्भ में, ऐसा प्रतीत होता है कि तल का अर्थ तैत्तिरीय ब्राह्मण के आधार पर चित्र का तारण करने से लिया जा सकता है । इस पृथिवी पर जो भी चित्र रूप है, उसका तारण करके उसको तारका का, नक्षत्र का रूप देना है । त्वष्टा को रूप का निर्माता कहा जाता है । पुराणों में पृथिवी के नीचे जो लोक हैं, उनके नाम अतल, वितल, सुतल, रसातल, तलातल आदि हैं । अतल में केवल माया का साम्राज्य है ।
ब्रह्माण्ड में कुछ शक्तियां तो ऐसी हो सकती हैं जो बिखरी पडी हैं, उनको एकत्र करना है । उदाहरण के लिए चुम्बकीय या वैद्युत - चुम्बकीय बल । दूसरी शक्तियां ऐसी हैं जो केवल सुप्त अवस्था में पांच भूतों के रूप में विद्यमान हैं । इन पांच भूतों से तन्मात्राओं का, सूक्ष्म शक्तियों का जनन करके उनका आहरण करना है । वैदिक साहित्य में भूतों से बलि प्राप्त करने के उल्लेख आते हैं ( शतपथ ब्राह्मण ११.५.६.२, तैत्तिरीय आरण्यक २.१०.१, तैत्तिरीय आरण्यक परिशिष्ट ६७) ।
केवल आसुरी यज्ञों से ही बलि का सम्बन्ध हो, ऐसा नहीं है । अथर्ववेद १०.७.३९ के आधार पर ऐसा कहा जा सकता है कि जहां भी अमित के विपरीत मित, सीमित स्थिति है, वहां बलि का ग्रहण किया जाएगा । ब्राह्मण ग्रन्थों में विभिन्न देवयज्ञों में भी होताओं द्वारा मुख्य होता के लिए बलि के आहरण के निर्देश प्राप्त होते हैं । होताओं में मुख्य होता कौन है, इसके लिए होताओं में प्रतिस्पर्द्धा के उल्लेख आते हैं । होता से अर्थ है जो ब्रह्माण्ड की शक्तियों को आहूत करने में, उनका आह्वान करने में समर्थ हो । वैदिक साहित्य में सार्वत्रिक रूप से अग्नि को होता कहा गया है (अग्निमीळे पुरोहितं होतारं विश्ववेदसम् - ऋग्वेद १.१.१) । दूसरी ओर, आदित्य को सर्वाधिक शक्तिशाली समझा जाता है जो सारे ब्रह्माण्ड से बलि का आहरण करने में समर्थ है । लेकिन आदित्य या अग्नि की गणना भी क्षत्रिय के स्तर पर ही होती है, ब्राह्मण स्तर पर नहीं ।
पुराणों के राजा बलि की भांति यद्यपि वैदिक साहित्य में किसी राजा का नाम नहीं आता जो बलि ग्रहण करता हो, लेकिन अप्रत्यक्ष रूप से इसे तैत्तिरीय ब्राह्मण २.३.६. के आधार पर समझा जा सकता है । कहा गया है कि पशु होता बनकर अग्नि के लिए बलि का आहरण करते हैं । बलि का आहरण पांच प्राणों से या लोम, त्वक्, मांस, अस्थि और मज्जा से होता है । यहां पांच प्राणों की पराकाष्ठा को लोम, त्वक् आदि समझना चाहिए । उदाहरण के लिए, त्वचा की पराकाष्ठा जिह्वा की भांति रस का आस्वादन करना है । यह कार्य चातुर्मास याग द्वारा सम्पन्न होता है । छह ऋतुएं होता बनकर धाता के लिए बलि का आहरण करती हैं । यह कार्य पशुबन्ध नामक याग द्वारा सम्पन्न होता है । छह ऋतुएं २ स्तन, २ अण्डकोश, शिश्न, निचले प्राण का दोहन करती हैं, ऐसा कहा गया है । यह ६ ऋतुएं सूर्य से आहरण करती है (वौषट्) । शीर्ष के सात प्राण होताओं के रूप में अर्यमा के लिए बलि का आहरण करते हैं । यह कार्य सोमयाग द्वारा सम्पन्न होता है । तप द्वारा दश इन्द्रिय रूपी दश होताओं से बलि का आहरण किया जाता है । यह कार्य गवामयन नामक संवत्सर सत्र द्वारा सम्पन्न होता है । लेकिन महाभारत आश्वमेधिक पर्व २१ में ब्राह्मण गीता के अन्तर्गत दशहोता, सप्तहोता, पञ्चहोता, चतुर्होता का एक आख्यान दिया गया है जो स्वयं भी अपने आप में दुर्बोध है । लेकिन यह दोनों आख्यान मिलकर अर्थ का स्पष्टीकरण करते हैं । महाभारत के आख्यान में चतुर्होता के रूप में करण( श्रोत्र, चक्षु, जिह्वा आदि ), कर्त्ता ( सुनने वाला, देखने वाला, आस्वादन करने वाला आदि ), कर्म ( शब्द, रूप, रस आदि ) और मोक्ष का उल्लेख है । कहा गया है कि जो करण हैं, यह केवल एक ही कार्य करना जानते हैं । श्रोत्र देखने का कार्य नहीं कर सकता । महाभारतकार का कथन है कि यह वास्तविक स्थिति नहीं है कि एक करण केवल एक ही कार्य करे । अच्छा यह होगा कि हमारे करण अपने - अपने कार्यों से मुक्त हो जाएं । यह चौथे होता मोक्ष की स्थिति होगी । फिर, इन करणों में एकता स्थापित हो जाए । श्रोत्र देखने आदि में भी समर्थ हो जाएं । डा. भूदेव शर्मा द्वारा दी गई सूचना के अनुसार योगी लोग ऐसा करने में समर्थ हो जाते हैं । तैत्तिरीय ब्राह्मण के आख्यान में चतुर्होता के लक्ष्य को दर्शपूर्णमास याग द्वारा प्राप्त किया गया है । यह अन्वेषणीय है कि क्या चन्द्रमा की स्थिति प्राप्त होने पर ऐसी एकता संभव हो जाती है ।
पञ्चहोता के रूप में महाभारत में पांच प्राणों - प्राण, अपान, व्यान, उदान और समान का उल्लेख है ( तैत्तिरीय ब्राह्मण में पशुओं के लोम, त्वक्, मांस, अस्थि व मज्जा का ) । कहा गया है कि इन पांचो में स्पर्द्धा हुई कि कौन श्रेष्ठ है । पांचों एक - एक करके देह से बाहर निकले लेकिन किसी के भी निकलने से देह का पात नहीं हुआ । कहा गया कि यदि प्राण देह से बाहर निकलते हैं तो उसके वश में केवल अपान है । वह व्यान, उदान, समान को प्रभावित नहीं कर सकता । इसी प्रकार व्यान, उदान और समान परस्पर सम्बन्धित हैं ।
वैदिक साहित्य में बलि का अर्थ कोई असुर व्यक्तित्व नहीं, अपितु कर से है । शतपथ ब्राह्मण १४.९.२.१३/बृहदारण्यक उपनिषद ६.२.१३ में एक आख्यान सार्वत्रिक रूप से प्रकट होता है कि देह की विभिन्न शक्तियों जैसे नेत्र, वाक्, श्रोत्र, प्राण आदि में स्पर्द्धा हुई कि कौन श्रेष्ठ है । एक - एक करके यह शक्तियां शरीर से बाहर निकली । इनके बाहर निकलने से शरीर किसी सीमा तक अशक्त तो हुआ लेकिन उसका अन्त नहीं हुआ । जब प्राण बाहर निकला तो उसका पात हो गया । तब प्राण ने अन्य शक्तियों से कहा कि मैं ही सबसे श्रेष्ठ हूं । अन्य सब शक्तियां मेरे लिए बलि का आहरण करे । अन्य शक्तियों ने ऐसा ही किया । अन्यत्र उल्लेख आते हैं (शतपथ ब्राह्मण १.३.२.१५) कि प्रजा या विशः क्षत्रिय राजा के लिए बलि प्रदान करती हैं ( यह बलि कर के रूप में होती है ) । एक अन्नाद बनता है, दूसरा अन्न । अथर्ववेद ११.६.१९/११.४.१९ में उल्लेख है कि हे प्राण, जैसे सारी प्रजा तेरे लिए बलि का आहरण करती है, उसी प्रकार तू उसके लिए बलि का आहरण कर जो तुझे सुश्रवा होकर सुनता है ।
अथर्ववेद १०.७.३९ में मानव देह की कल्पना एक वृक्ष के रूप में की गई है । इस मानव देह के मध्य एक महत् यक्ष विराजमान है । वृक्ष के स्कन्ध के परितः जो शाखाएं हैं, उनमें देव विराजमान हैं और यह देव हाथ, पांव, वाक्, श्रोत्र, चक्षु द्वारा उस विमित स्कम्भ के लिए बलि देते हैं । प्रश्न किया गया है कि इस विमित स्कम्भ का अमित रूप क्या होगा ? वह कौन है ?
अथर्ववेद ६.११७.१ में उल्लेख है कि मैंने ऐसा ऋण ले रखा है जो अपमित( जिसका मापन न किया जा सके?) है, जिसे मैंने वापस नहीं किया है जिसके कारण से मुझे यम को बलि देनी पडती है । हे अग्नि, मैं इस ऋण से उदृण होता हूं । मेरे ऊपर जो पाश बंधे हैं, तू उन सब पाशों को काटना जानती है ।
अपमित्यमप्रतीत्तं यदस्मि यमस्य येन बलिना चरामि । इदं तदग्ने अनृणो भवामि त्वं पाशान् विचृतं वेत्थ सर्वान् ।।
इस मन्त्र का रूपान्तर तैत्तिरीय संहिता ३.३.८.२ में इस प्रकार प्राप्त होता है -
यत् कुसीदमप्रतीत्तं मयि येन यमस्य बलिना चरामि । इहैव सन्निरवदये तदेतत् तदग्ने अनृणो भवामि ।।
तैत्तिरीय संहिता के यजु का विनियोग याग में अवभृथ होम के पश्चात् वेदी पर बिखेरे गए बर्हि का उपोषण/दग्ध करने हेतु है । कहा गया है कि वेदी पर जो बर्हि रूपी ओषधि बिखेरी गई है, वह बर्हि अग्नि से ऋण रूप में प्राप्त की गई है । उसका उपोषण(उप - ऊषण) करके ऋण से मुक्त होना है । अथर्ववेद और तैत्तिरीय संहिता के मन्त्रों की तुलना से यह स्पष्ट होता है कि जो ऋण है, वह अपमित्य, मापन के अयोग्य है । आधुनिक विज्ञान के अनुसार ऋण उच्च एण्ट्रांपी की, अव्यवस्था की अवस्था होती है । आधुनिक विज्ञान के अनुसार अव्यवस्था वाले तन्त्र का मापन करना संभव है या नहीं, यह अन्वेषणीय है । वैदिक मन्त्र के अनुसार तो नहीं । इससे अगली अवस्था मापन की है और उससे भी अगली अवस्था अमित, अनन्त की है । पौराणिक कथा में वामन द्वारा तीन पग में ब्रह्माण्ड का मापन करने के संदर्भ में वामन द्वारा तीसरे पग से मापन में बलि का बन्धन करने का उल्लेख है और बाद में यह बन्धन खोल दिया जाता है । धातु कोश में बन्धन को भी मापन के अन्तर्गत ही रखा गया है । अतः इस वैदिक मन्त्र को पुराणों के बलि की कथा को समझने के लिए कुञ्जी कहा जा सकता है । जब यम हेतु बलि समाप्त हो जाएगी तभी देवों हेतु बलि का आरम्भ होगा जिसमें द्यूत विद्यमान नहीं होगा । यह उल्लेखनीय है कि यागों में बलि का प्रावधान अग्निहोत्र से आरम्भ होता है । अग्निहोत्र में आपः कुसिन्ध से बलि प्राप्त करते हैं । कुसिन्ध देह के निचले भाग को, शिर रहित भाग को कहते हैं । कुसिन्ध को तालाब के पानी में रख दिया जाता है और उस तालाब के जल व मृदा से इष्टका निर्माण किया जाता है जिनका उपयोग अग्निचयन के लिए, चिति बनाने के लिए किया जाता है । चिति ऋण से विपरीत अवस्था है - धनात्मक स्थिति । अतः यह कहा जा सकता है कि कुसीद और कुसिन्ध शब्द परस्पर सम्बन्धित हैं । मन्त्र में बर्हि को किस रूप में समझा जाए, यह अन्वेषणीय है । क्या यह पाश हैं जिनके उपोषण/जलने पर ऋणात्मक स्थिति समाप्त हो जाती है ?
शतपथ ब्राह्मण १.५.३.१८ में बलि और आहुति में अन्तर को जुहू और उपभृत् पात्रों के माध्यम से समझाया गया है । यागों में जब आज्य की आहुति देनी होती है, वह जुहू नामक पात्र द्वारा दी जाती है । पहले आज्य को उपभृत् नामक पात्र में ग्रहण किया जाता है और फिर उपभृत् से जुहू में । उपभृत् में आसुरी तत्त्व है । कहा गया है कि जुहू वाक्/बुद्धि? है और उपभृत् मन है । उपभृत् में जो कुछ ग्रहण किया जाता है, वह बलि है । उस बलि का उपयोग शोधन करके देवों को आहुति देने के लिए किया जाता है । यह अन्वेषणीय है कि बलि - वामन की कथा में जुहू - उपभृत् का संदर्भ कितना उपयुक्त है । वामन का एक अर्थ वा - मन, विकल्प से मन होता है । मन हो भी सकता है, नहीं भी । जुहू - उपभृत् के संदर्भ को मनुष्य की चेतना के ७ कोषों पर भी लागू किया जा सकता है । निचला कोश बलि ग्रहण करके उच्चतर कोश को आहुति देता है ।