नवरात्रे देव्याः कवचे प्रतिपदातिथौ शैलपुत्रीदेव्याः अर्चनस्य निर्देशमस्ति। द्वितीयातिथौ ब्रह्मचारिणीदेव्याः अर्चनस्य निर्देशमस्ति। सृष्टिक्रमे प्रतिपदातिथिः अतीव अव्यवस्थायाः कालः अस्ति यत्र बाह्यावस्थितेभ्यः कारणेभ्यः(पर्वतेभ्यः) नियन्त्रणस्य आवश्यकता भवति। या द्वितीया तिथिरस्ति, तत्र प्रकृतिः पुरुषेण साकं विकासहेतु प्रतिस्पर्द्धा करोति। कार्तिकशुक्ल यमद्वितीयातिथौ यमी स्वभ्राता यमेन साकं विवाहस्य प्रस्तावं करोति यं यमः अस्वीकरोति। देव्याः कवचतः अयं प्रतीयते यत् आदर्शस्थितिः सा अस्ति यत्र प्रकृतिः स्वान्तरे परिपूर्णा भवति, सा समितिः भवति यस्य परिपूर्णता हेतु बाह्यकारणस्य, पुरुषस्य आवश्यकता न भवति। अथर्ववेद ११.७ सूक्तं ब्रह्मचर्यसूक्तमस्ति। वैदिकवाङ्मये ब्रह्मचारीभ्यः सतत् रूपेण समित् आहरणस्य निर्देशाः सन्ति (उदा. शतपथब्राह्मणम् माश ११,३,३,१)


      ब्रह्मचर्य

      १. तमेतं ( आत्मानम् ) वेदानुवचनेन विविदिषन्ति ब्रह्मचर्येण तपसा श्रद्धया यज्ञेनानाशकेन चेति माण्डूकेयः । शांआ १३, १ ।

      २. तस्मा एतत्प्रोवाचाष्टाचत्वारिंशद्वर्षं सर्ववेदब्रह्मचर्य्यं तच्चतुर्धा वेदेषु व्यूह्य द्वादशवर्षं ब्रह्मचर्यं द्वादश वर्षाण्यवरार्द्धमपि स्तायंश्चरेद्यथाशक्त्यपरम् । गो १, २, ५ ।

      ३. ब्रह्मैका (कामदुघा) तां ब्रह्मचर्येण (अन्विच्छन्ति)। जै २,८४ ।

      ४. श्वेतकेतुं हारुणेयं ब्रह्मचर्यं चरन्तं किलासो जग्राह। तमश्विनावूचतुः । मधुमांसौ किल ते भैषज्यमिति । स होवाच ब्रह्मचर्यमानी कथं मध्वश्नीयामिति । तौ होचतुः । यदा चात्मना पुरुषो जीवति, अथान्यत् सुकृतं करोमीत्यात्मानं ह्येव सर्वतो गोपायेत् । लु १०५ (तु. माश ११,५,४,१८)।

      ब्रह्म-चारिन्

      १. अथ हैतद्देवानां परिषूतं यद्ब्रह्मचारी। गो १,२, ७ ।

      २. अथास्मै ( ब्रह्मचारिण आचार्यः) सावित्रीमन्वाह । माश ११, ५, ४, ६ ।

      ३. अध एवासीत, अधः ( ब्रह्मचारी ) शयीत, अधस्तिष्ठेदधोव्रजेदेवं ह स्म वै तत्पूर्वे ब्राह्मणा ब्रह्मचर्य्यं चरन्ति । गो १, २, ४ ।

      ४. अहीर्भूत्वा (ब्रह्मचारी ) भिक्षते य एवास्य मृत्यौ पादस्तमेव तेन परिक्रीणाति तꣳ

      संस्कृत्यात्मन्धत्ते । माश ११, ३, ३, ५ ।

      ५. एतेषां वेदानाम् ( ब्रह्मचारी ) एकं द्वौ त्रीन्त्सर्वान्वा ( अधीते ) । काठसंक ४७ : ६ ।

      ६. तदाहुः । न ब्रह्मचारी सन्मध्वश्नीयादोषधीनां वा ऽएष परमो रसो यन्मधु नेदन्नाद्यस्यान्तं गच्छानीत्यथ ह स्माह श्वेतकेतुरारुणेयो ब्रह्मचारी सन्मध्वश्नंस्त्रय्यै वा ऽ एतद्विद्यायै शिष्टं यन्मधु... यथा ह वाऽ ऋचं वा यजुर्वा साम वाभिव्याहरेत्तादृक्तद्य एवं विद्वान्ब्रह्मचारी सन्मध्वश्नाति तस्मादु काममेवाश्नीयात् । माश ११, ५, ४, १८ ।

      ७. तस्मादुत ब्रह्मचारी मधु नाऽश्नीयाद्वेदस्य पलाव इति । कामं ह त्वाचार्यदत्तमश्नीयात् । जैउ १,१७,२,१।

      ८. तस्माद् ब्रह्मचारिण आचार्यं गोपायन्ति । गृहान्पशून्नेन्नोऽपहरानिति । माश ३, ६, २, १५ ।

      ९. न श्मशानमातिष्ठेत् (ब्रह्मचारी) स चेदभितिष्ठेदुदकं हस्ते कृत्वा । गो १,२,७ । १०. नोपरिशायी (ब्रह्मचारी) स्यान्न गायनो न नर्त्तनो न सरणो न निष्ठीवेत् । गो १,२,७ ।

      ११. पञ्च ह वा एते ब्रह्मचारिण्यग्नयो धीयन्ते द्वौ पृथग्घस्तयोर्मुखे हृदय उपस्थ एव पञ्चमः । __गो १, २, ४ ।

      १२. ब्रह्मचारी (योऽग्निमाधत्ते सः) भवत्यात्मनो गोपीथाय । काठसंक १३:४-५ ।

      १३. ब्रह्मचारी भैक्षं चरति । सं ५।

      १४. ब्रह्म वै मृत्यवे प्रजाः प्रायच्छत् । तस्मै ब्रह्मचारिणमेव न प्रायच्छत्सो ( मृत्युः) ऽब्रवीदस्तु मह्यमप्येतस्मिन्भाग इति यामेव रात्रिꣳ समिधं नाहराताऽ इति तस्माद्यां रात्रिं ब्रह्मचारी समिधं नाहरत्यायुष एव तामवदाय वसति तस्माद् ब्रह्मचारी समिधमाहरेन्नेदायुषोऽवदाय वसानीति । माश ११,३,३,१।

      १५ ब्रह्म ह वै प्रजा मृत्यवे सम्प्रायच्छत् ब्रह्मचारिणमेव न सम्प्रददौ, स होवाचाश्यामस्मिन्निति किमिति यां रात्रीं समिधमनाहृत्य वसेत्तामायुषो ऽवरुन्धीयेति, तस्माद् ब्रह्मचार्यहरहः समिध आहृत्य सायंप्रातरग्निं परिचरेत् । गो १,२,६।

      १६. स (ब्रह्मचारी) एव विद्वान्यस्या एव भूयिष्ठꣳ श्लाघेत तां भिक्षतेत्याहुस्तल्लोक्यमिति स (ब्रह्मचारी) यद्यन्यां भिक्षितव्यां न विन्देदपि स्वामेवाचार्यजायां भिक्षेताथो स्वां मातरं नैनं (ब्रह्मचारिणम् ) सप्तमी (रात्रिः) अभिक्षितातीयात्तमेवं विद्वाꣳसमेवं चरन्तꣳ सर्वे वेदा आविशन्ति यथा ह वाऽअग्निः समिद्धो रोचतऽ एवꣳ ह वै स स्नात्वा रोचते य एवं विद्वान् ब्रह्मचर्यं चरति । माश ११, ३, ३, ७ ।

      १७. सप्तमीं नातिनयेत् , सप्तमीमतिनयन्न ब्रह्मचारी भवति, समिद्भैक्षे सप्तरात्रमचरितवान् ब्रह्मचारी पुनरुपनेयो भवति । गो १,२,६ ।

      १८. स (ब्रह्मचारी) यन्मृगाजिनानि वस्ते..... स यदहरहराचार्य्याय कर्म करोति.... स यत् सुषुप्सुर्निद्रां निनयति ..... स यत् क्रुद्धो वाचा न कंचन हिनस्ति पुरुषात्पुरुषात्पापीयानिव मन्यमानः .... अथाद्भिः श्लाघमानो न स्नायात्.....तां ( कुमारीम् ) नग्नां नोदीक्षेतेति वेति वा मुखं विपरिधापयेत् ......तासां ( ओषधीनाम् ) पुण्यं गन्धं प्रच्छिद्य नोपजिघ्रेत् । गो १, २, २ ॥

      दम इति नियतं ब्रह्मचारिणः – तैआ १०.६२.१



      ब्रह्मचर्य

      टिप्पणी : ब्रह्मचर्य एक व्यावहारिक विषय है । ब्रह्मचर्य का शाब्दिक अर्थ होगा ब्रह्म में चर्या । शास्त्रों में ब्रह्मचर्य का चाहे जो अभिप्राय हो, लोक में ब्रह्मचर्य का अर्थ वीर्य क्षरण का निषेध लिया जाता है । प्रायः प्रश्न किया जाता है कि ब्रह्मचर्य एक प्राकृतिक स्थिति है या अप्राकृतिक, क्योंकि प्रकृति में हम देखते हैं कि सारी प्रकृति में मैथुनी सृष्टि हो रही है । इसका अर्थ यह हुआ कि जो लोग वीर्य को धारण करने की बात करते हैं, वह कोई अप्राकृतिक स्थिति है । वह कोई प्राकृतिक जीवन नहीं है । इस तर्क का उत्तर इस प्रकार दिया जा सकता है कि प्रकृति में उत्पन्न सभी जीव प्रकृति के विकास पर आश्रित हैं । जो भी साधन प्रकृति उनके जीवनयापन के लिए प्रस्तुत करती है, उसी के आधीन होकर जीवों को अपना जीवनयापन करना पडता है । यदि किसी कारण से अकाल पड गया या अन्य कोई प्राकृतिक विपदा आ गई तो जीव नष्ट हो जाते हैं । प्रकृति में मनुष्य ही एकमात्र ऐसा जीव उत्पन्न हुआ है जो प्रकृति के पूर्णतः आधीन नहीं है । मनुष्य प्रकृति से ऊपर विकास करने का प्रयत्न करता है । प्रकृति से ऊपर विकास करना ही ब्रह्मचर्य कहा जा सकता है । और मनुष्य ने इस पृथिवी पर अपने अस्तित्व के आरम्भ होने से अब तक वह विधियां खोज ली हैं जिनका अनुसरण करके वह प्रकृति से ऊपर उठ सकता है । लेकिन वह विधियां अभी तक भी सारे मनुष्य समाज द्वारा ग्राह्य नहीं हुई हैं, केवल गिने - चुने व्यक्तियों तक, योगियों तक ही सीमित रह गई हैं । जो विधियां प्रायः सुनने - देखने को मिलती हैं, वह निम्नलिखित हैं -

      ध्यान : जैसा कि श्री रजनीश ने अपने वक्तव्यों में पुनः - पुनः दोहराया है, गहरा ध्यान ब्रह्मचर्य के लिए आवश्यक है । गहरे ध्यान से तात्पर्य यह है कि हमारा श्वास हमारी देह के स्थूलतम स्तर को स्पर्श करे । मनुष्य का स्थूल स्तर उसका मूलाधार होता है जिसमें गुदा और शिश्न का भाग भी आता है । मूलाधार का स्थूलतम स्तर पैर होते हैं जिनमें संभवतः पादाङ्गुष्ठ स्थूलतम भाग है । अतः यह अपेक्षित है कि श्वास इस प्रकार का हो जो मूलाधार के अङ्गों का अधिकतम स्पर्श करने में सक्षम हो । हमें श्वास द्वारा अपने पदों को छूना है । यही अध्यात्म का चरण - स्पर्श है ।

      भोजन : ध्यान की अपेक्षित ऊंचाईयों को छूने के लिए यह अपेक्षित है कि भोजन में सुधार किया जाए । आजकल इण्टरनेट पर जो सामग्री उपलब्ध है, उसके अनुसार जहां साधारण जीवन यापन के लिए प्रोटीन युक्त भोजन अपेक्षित है, वहीं एक योगयुक्त जीवनचर्या के लिए न्यूनतम प्रोटीन युक्त भोजन अपेक्षित है । इस नियम के अनुसार प्रोटीन युक्त भोजन में सबसे ऊपर मांस आता है, उसके पश्चात् अण्डा, उसके पश्चात् दुग्ध, उसके पश्चात् अन्न, उसके पश्चात् फल ।

      लेकिन सभी विकसित सभ्यताओं में नियमबद्ध जीवन वाले व्यक्तियों ने इससे भी ऊपर उठकर अपने अनुभव किए हैं । उनमें से एक अनुभव है शुष्क भोजन । कहा जाता है कि तीर्थङ्कर महावीर शुष्क भोजन करते थे । शुष्क भोजन की परम्परा सूफियों में भी प्रचलित है । शुष्क भोजन से अभिप्राय है - रोटी को बिना दाल लगाये खाना । दाल अलग से खाना । इस क्रिया द्वारा वीर्य क्षरण को सौ प्रतिशत रोका जा सकता है या नहीं, इस संदर्भ में सूफियों के अलग - अलग अनुभव हैं । कुछ सूफियों के बारे में ऐसा उल्लेख मिलता है कि उन्हें ऊर्ध्वरेता बनने के लिए नीबू का सेवन भी करना पडता था । उनके लिए शुष्क भोजन ग्रहण करना ही पर्याप्त नहीं था । शुष्क भोजन के अन्तर्गत शुष्क बनाए गए फलों को भी लिया जा सकता है । शुष्क भोजन में ऐसी क्या विशेषता है जिसके कारण वह वीर्य को स्थिर कर सकता है, सभी रोगों का निवारण कर सकता है ? आधुनिक चिकित्सा विज्ञान के अनुसार हमारी मुख की लार भोजन के साथ मिलकर भोजन के स्टार्च भाग का पाचन करती है । स्टार्च का पाचन मुख की लार से ही प्रारम्भ होता है । भोजन के साथ जितनी लार मिल जाएगी, भोजन का पाचन पेट में उतना ही अधिक सुगम हो जाएगा और हमारी अचेतन चेतना का व्यय भोजन को पचाने में न्यूनतम होगा ।

      नियमबद्ध जीवनयापन करने वाले व्यक्तियों का एक वर्ग कच्चे आहार ग्रहण द्वारा ऊर्ध्वरेता बनने का प्रयास करता है ।


      Celibacy

      It is generally asked whether celibacy is natural or unnatural? On one hand, we advocate living natural life. On the other hand, we advocate living a celibate life, while in nature we find that there is no place for celibacy. All life is based on copulation and ultimate destruction. The answer may be that the life of all living beings is controlled by development of nature. If there is some natural calamity, life is dead at once. But a life in the form of human being has developed which is not fully under control of nature. Man tries to rise above nature. And to rise above nature can be called celibacy. Since the start of human life on the earth, man has developed methods by which he can rise above nature. This life can be called celibacy. But these methods have largely remained confined to few people only. These have not become part of the whole society. Let us ponder over these methods:

      Meditation : As Shri Rajneesh has time and again stressed in his lectures, one has to take his breath deep into his body, to the depth where it touches the sacral chakra portion of of our body. The parts which can be called at gross level of consciousness in our body fall under sacral chakra, like annus and pennies. Even more grosser parts are the extremities of legs such as toe. One is supposed to touch his feet by his breath. This is the real touching of feet in Indian culture.

      Food : In order to attain the heights of meditation, it is necessary to improve the quality of food. The material which is available on internet in this regard, stresses a less – protein diet. High protein diet has been classified gradually as follows – meat, egg, milk, cereals, fruit. But those adept in the matter have felt that this much is not enough for celibacy. They have advocated taking dry food, dry bread, dry fruit etc. Some are able to control their sexual desires by this method, while some have to use lemon additionally. Some people use raw food – cereals, dried fruits etc.