Today, in common parlance, Bhadra is taken to mean noble. Vedic literature indicates that Bhadra is a state opposite to sin. The previous attempts to interpret vedic word Bhadra can be found on website SAKSIVC. Website Iranian.com traces the origin of English word Better in Sanskrit word Bhadra through Persian word Behtar. Word bhadra has frequently appeared in vedic verses and Shri Kaapaali Shaastri has tried to derive it’s true meaning on the basis of it’s appearance in different verses. But this is not a successful attempt. The real meaning can be grasped from Agni Puraana and Kathaasaritsaagara. Agni Puraana states that a Bhadra type of palace is one which does not have a front or side terrace . On the other hand, a JaiShree type of palace is one which does not have the back terrace . Here the front and side terrace may mean those disturbances which may appear at the start of one’s penances or during the penances. This type of disturbances are well documented for the penances of Lord Gautam Buddha in Buddhist literature. The disturbances at the start may be frightening etc. The disturbances during the penances may be various types of joys or achievements, siddhis etc. On the other hand, the absence of back terrace in JaiShree palace may mean the absence of unconscious mind. There are references in vedic literature where bhadra has been equated with Shree. One Vedic verse states the descend of the horses of sun to the back state. In the story of Kathaasaritsaagara, sage Kanva curses Bhadra and Shubha/auspicious to become a boar and an elephant. Subsequently the two gain their original states and then their dead bodies are converted into a sword and a shield.
The relation of Bhadra and Shree can also be applied for explanation of the worship of lord Ganesha and goddess Lakshmi/Shree at Deepaavali festival. The worship of the two together has yet remained an unsolved mystery. Here the elephant – headed lord Ganesha may represent the state of Bhadra while Shree is Shree. There are several references in vedic literature where one is supposed to proceed to Shree from Bhadra state. But the procedure of converting Bhadra into Shree seems to have been discussed only indirectly.
One puraanic story indicates that in Bhadra state, the eternal play of dice in nature still remains predominant. One vedic mantra states that the bird/omen should speak bhadra for us from everywhere and should speak pious from inside. When the bird remains silent, it should be able to increase our wisdom. From this statement it appears as if Bhadra is concerned only with the state of outside/everywhere, when our senses are outwardly. But there are other verses which contradict it and it has to be clearly decided.
Puraanic stories profusely discuss the character of Balabhadra, elder brother of lord Krishna. It seems that in this word, Bala is symbolic of the aura surrounding the body and the whole word may signify that this aura should not be afflicted with sins, it should be Bhadra. Vedic mantras seem to discuss the same fact with the mention of clothes of goddess Ushaa. The change of clothes at the time of initiation has been stated to be a change from a state of sin to a state of no – sin.
It appears that whatever fact has been expressed by the story of slaying of a boar by king Vikramaaditya, the same fact has been expressed by the long anecdote of disruption of the sacrifice of Daksha by Veerabhadra. In vedic and puraanic language, a boar has been depicted as representative of sacrifice, the yaga. Every body part of a sacrificial boar is made up of some vessel used in the yaaga. The yaaga of Daksha is for increasing efficiency of an engine, of any work in this world. But it is well know in science that efficiency can not be 100 percent. Some part of the work goes waste. This is called noise. Vedic literature says that this noise is due to presence of sin. Therefore, the first requirement for achievement of efficiency is to remove sin. The removal of sin has been placed in west direction, achieving efficiency in south and to receive primordial impulse for work in east. There are few references where Bhadra has been placed in east.
भद्र
टिप्पणी : लौकिक भाषा में भद्र शब्द भद्र पुरुष, सज्जन पुरुष के रूप में प्रतिष्ठित है । इसी प्रकार वैदिक साहित्य में भी भद्र शब्द प्रकट होता है लेकिन कहीं भी स्पष्ट रूप से इस शब्द की निरुक्ति नहीं मिल पाती । अथर्ववेद १३.७.१४( १३.४.४२) मन्त्र से प्रतीत होता है कि पाप से मुक्ति ही भद्रता की प्राप्ति है । अथर्ववेद २०.२०.६ व २०.५७.९ में भद्र का स्थान पुर: और अघ का पश्चात् कहा गया है । पौराणिक साहित्य में इस शब्द की निरुक्ति के प्रयास किए गए हैं । सबसे स्पष्ट प्रयास अग्नि पुराण में प्रकट होता है जहां भद्र प्रासाद और श्रीजय प्रासाद के बीच भेद का कथन है । कहा गया है कि भद्र प्रासाद में वीथी के समान द्वारवीथी होती है । द्वारवीथी में वीथी का अग्रभाग नहीं होता । भद्र प्रासाद की द्वारवीथी में वीथी के पार्श्वभाग नहीं होते । पार्श्व से तात्पर्य साधना में प्रकट होने वाले पार्श्व लक्षणों जैसे हर्ष, शोक, संगीत आदि से लिया जा सकता है। श्रीजय नामक प्रासाद की द्वारवीथी में वीथी का पृष्ठभाग नहीं होता । पृष्ठ से तात्पर्य अचेतन, अर्धचेतन मन से लिया जा सकता है। कथासरित्सागर १८.४.९२ की कथा में राजा विक्रमादित्य एक शूकर को पांच बाण मारते हैं । इसके पश्चात् वेताल उस शूकर का पेट फाड देता है जिस पर उसमें से एक पुरुष प्रकट होता है जो कहता है कि मेरा नाम भद्र है । इतने में एक विशालकाय हाथी प्रकट हो जाता है जिसे विक्रमादित्य एक बाण द्वारा धराशायी करते हैं । वेताल उसका भी पेट फाडता है । उसमें से एक पुरुष प्रकट होता है जो कहता है कि उसका नाम शुभ है । यह भद्र और शुभ शूकर और हाथी का रूप धारण करके कण्व ऋषि को डरा रहे थे जिस पर कण्व ने उन्हें शाप देकर शूकर और हाथी बना दिया । विक्रमादित्य द्वारा मृत शूकर का कण्ठ स्पर्श करने पर वह कृपाण बन गया और मृत हाथी के पृष्ठ का स्पर्श करने पर वह चर्म/ढाल बन गया । भद्र और श्री के सामञ्जस्य का उल्लेख ऐतरेय ब्राह्मण १.१३, तैत्तिरीय संहिता १.२.३.३, ३.१.१.४, ५.७.२.४, ५.७.२.५, अथर्ववेद ७.९.१( ७.८.१) आदि में भी है जहां भद्र से श्री की प्राप्ति का निर्देश है । जैमिनीय ब्राह्मण २.१०३ में भी भद्रश्रेयसी का उल्लेख है जहां भद्र द्वारा देव भद्र बने और श्रेयस् से श्री को प्राप्त हुए । जैमिनीय ब्राह्मण ३.१७२ में भी श्री को ही भद्र कहा गया है । शतपथ ब्राह्मण १२.७.३.२२ में भी पयोग्रह के संदर्भ में भद्र और श्री का तादात्म्य कहा गया है । ऋग्वेद १०.७१.२ तथा नारायण पूर्वतापिन्युपनिषद ४.९ में भद्रा लक्ष्मी का उल्लेख आया है । अथर्ववेद १२.१.६३ में भूमि माता से प्रार्थना की गई है कि भद्र के द्वारा सुप्रतिष्ठित की प्राप्ति और दिव: कवि ( सूर्य? ) के सहयोग से श्री व भूति की प्राप्ति हो । अथर्ववेद ७.९.१( ७.८.१) में भद्र से श्रेयः की प्राप्ति का उल्लेख है । तैत्तिरीय ब्राह्मण २.६.५.४ में शिर को श्री व जिह्वा को भद्र कहा गया है । लेकिन भद्र और श्री में अन्तर केवल अग्नि पुराण और कथासरित्सागर द्वारा ही समझा जा सकता है जहां कहा गया है कि भद्र में अग्र और पार्श्व नहीं होते । इसका तात्पर्य यह हो सकता है कि साधना की आरम्भिक स्थिति में बहुत सी भयानक स्थितियां प्रकट होती हैं जो साधना से विरत करने का प्रयास करती हैं । गौतम बुद्ध की साधना के आरम्भ में प्रकट हुई बाधाओं का विवरण बौद्ध साहित्य में भली प्रकार उपलब्ध है । यह अग्र हो सकता है । पार्श्व से अर्थ है साधना के फलस्वरूप प्रकट होने वाले हर्ष, शकुन आदि आदि । भद्र स्थिति में इनका भी निषेध है । स्कन्द पुराण ७.३.८ में शिव का गण भद्रकर्ण नमुचि असुर का वध करता है । नमुचि का अर्थ होता है ऐसा हर्ष जो एक बार आरम्भ होकर पीछा ही न छोडे । इससे संकेत मिलता है कि साधना का लक्ष्य ऐसी शक्ति प्राप्त करना है जिससे दुर्गुण समाप्त हों । ऐसा न हो कि साधक साधना से उत्पन्न हर्ष आदि में उलझ कर रह जाए । दूसरी ओर श्री के संदर्भ में अग्नि पुराण में कहा गया है कि उसमें पृष्ठ नहीं होता । पृष्ठ से तात्पर्य अचेतन मन से लिया जा सकता है । पौराणिक कथाओं में प्रायः भद्र और ध्यान, समाधि आदि में सम्बन्धों का उल्लेख आता है । स्कन्द पुराण ३.१.३२ में सिंह बने भद्र यक्ष का उद्धार तभी हो पाता है जब उसका ध्यानकाष्ठ ऋषि से संवाद होता है । ऋग्वेद १.११५.३ में सूर्य के भद्र हरित अश्वों का उल्लेख है जो द्युलोक से पृष्ठ पर आकर स्थापित हो गए । इस ऋचा का अर्थ पौराणिक व्याख्या द्वारा स्पष्ट हो सकता है ।
दीपावली पर्व पर गणेश और लक्ष्मी की पूजा एक साथ करने का विधान है । यह एक जिज्ञासा ही रही है कि इस पर्व पर गणेश और श्री की एक साथ पूजा के पीछे क्या रहस्य हो सकता है, क्योंकि पूरे वैदिक और पौराणिक साहित्य में इस सम्बन्ध में प्रत्यक्ष रूप से कोई प्रकाश नहीं डाला गया है, जबकि दीपावली के कृत्य में इसका महत्त्व सर्वविदित है । । ऐसा प्रतीत होता है कि इस संदर्भ में भद्र को गज - मुख गणेश का स्थान दे दिया गया है जबकि श्री को लक्ष्मी का । ऋग्वेद ८.९३.२८ में शतक्रतु इन्द्र से प्रार्थना की गई है कि वह हमारे लिए भद्र – अभद्र (भद्रंभद्रं) इष - ऊर्ज का भरण करे । दीपावली पर गणेश लक्ष्मी की अर्चना इस ऋचा की व्याख्या हो सकती है क्योंकि आश्विन् - कार्तिक मासों का नाम क्रमशः इष व ऊर्ज है । इसके अतिरिक्त, चातुर्मास यज्ञ के अन्त में शुनासीर यज्ञ होता है(शतपथ २.६.३.२) जिसके सम्बन्ध में कहा गया है कि इसका एक अग्र शुनम् है जो श्री का रूप है और जिसकी प्राप्ति साकमेध याग से होती है। दूसरा अग्र सीर है जो प्रजित संवत्सर का रस है। तैत्तिरीय संहिता ४.७.३.१ में वसुधारा के संदर्भ में दिए गए उल्लेख से प्रतीत होता है कि शुनम् से आरम्भ करके श्री तक पहुंचने की लम्बी प्रक्रिया है क्योंकि वसुधारा के उल्लेख में क्रमशः शम्, मयः, प्रिय, अनुकाम, काम, सौमनस्, भद्र और श्री का उल्लेख है और ऐसा प्रतीत होता है कि यह क्रमिक अवस्थाएं हो सकती हैं । ऋग्वेद ६.१.१२ में पूर्वी इष: द्वारा अघ/पाप समाप्त करने की कामना की गई है जिससे भद्र सौश्रवस प्राप्त हों ।
यद्यपि वैदिक साहित्य में सार्वत्रिक रूप से भद्र और श्री के बीच सम्बन्धों का उल्लेख आता है, फिर भी भद्र से श्रेयस् की प्राप्ति कैसे हो सकती है, इसका उल्लेख परोक्ष रूप में ही किया गया है । जैसा कि ऊपर उल्लेख किया जा चुका है, भद्र में पृष्ठ या अचेतन मन विद्यमान रहता है जिसका पाक करके उसे श्री में रूपान्तरित करना है । अग्नि के समिद्ध होने से भद्रता की प्राप्ति होती है ( ऋग्वेद १.९४.१४) । सोमयाग के कर्मकाण्ड में ओदन पाक का कार्य अन्वाहार्यपचन नामक अग्नि पर किया जाता है । अन्वाहार्यपचन को दक्षिणाग्नि भी कहते हैं ( अन्वाहार्यपचन पर टिप्पणी द्रष्टव्य है ) । अन्वाहार्यपचन की कुछ विशेषताएं हैं जैसे इसका अधिपति नल नैषध है । जो विशेषताएं पुराणों में राजा नल के चरित्र में प्रदर्शित हैं, वही इस अग्नि के विषय में भी समझनी चाहिएं । इस अग्नि का स्थान द्युलोक और भूलोक के बीच में अन्तरिक्ष लोक होता है । भूलोक में कोई भी कार्य प्रकृति के नियमों के अन्तर्गत, चांस पर, आकस्मिक रूप में होता है जबकि अन्वाहार्यपचन अग्नि पर आकस्मिक स्वरूप की तीव्रता कम हो जाती है । कहा जा सकता है कि यह शकुनि के बदले शकुन बन जाता है । तैत्तिरीय ब्राह्मण १.१.४.४-६ में अग्नि के आधान के संदर्भ में कहा गया है कि असुरों ने पहले आहवनीय अग्नि का आधान किया, फिर गार्हपत्य का, फिर अन्वाहार्यपचन का । इससे उन्हें जिस श्री की प्राप्ति हुई, वह प्रतीची को चली गई व नष्ट हो गई । जब देवों ने अग्नि का आधान किया तो उन्होंने पहले अन्वाहार्यपचन का, फिर गार्हपत्य का और फिर आहवनीय का आधान किया । इससे उनकी श्री प्राची दिशा को गई । लेकिन प्रजा की प्राप्ति न हुई । फिर मनुष्यों ने अग्नि का आधान किया । - - - - - । इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि यदि श्री की प्राप्ति करनी है तो इन तीनों अग्नियों का आधान अनिवार्य है । तैत्तिरीय ब्राह्मण ३.४.९.१ में उल्लेख है कि भद्र के लिए गृहप की व श्री के लिए वित्तप(वित्त की रक्षा करने वाले) की प्राप्ति करे । ऐसा लगता है कि यह कथन आत्मा और उसकी कलाओं के विषय में हो सकता है । कहा गया है कि आत्मा १६वी कला है और शेष १५ कलाएं उसका वित्त हैं । चूंकि चन्द्रमा की १५ कलाओं में क्षीणता व वृद्धि होती रहती है, अतः हो सकता है कि इस रोग से मुक्ति पाना ही श्री की प्राप्ति हो । कौशीतकि ब्राह्मणोपनिषद १.५ में प्राण रूपी एक पर्यङ्क /पलंग की कल्पना की गई है जिसके शीर्ष भद्र - यज्ञायज्ञीय हैं । यहां यह उल्लेखनीय है कि सोमयाग में तृतीय सवन में यज्ञायज्ञीय सामगान ( यज्ञायज्ञा वो अग्नये गिरा गिरा च दक्षसे । प्र प्र वयं अमृतं जातवेदसं - - - - -) के पश्चात् ही यजमान में वरदान देने की सामर्थ्य आती है । यहां यज्ञायज्ञीय भी श्री का रूप हो सकता है । अन्यत्र यज्ञायज्ञीय साम को पुच्छ कहा गया है । तैत्तिरीय संहिता ३.१.१.४ में यज्ञ में दीक्षा ग्रहण के समय भद्रादभि श्रेयः प्रेहीति मन्त्र का उच्चारण यह संकेत करता है कि दीक्षा द्वारा भी भद्र से श्री की प्राप्ति हो सकती है । दीक्षा द्वारा यजमान माता के गर्भ की भांति आचार्य का गर्भ बन जाता है ।
पद्म पुराण ६.१५२.१५ में सूर्य बाला नामक कन्या को पाक हेतु ५ बदर देते हैं जिन्हें पकाने के लिए वह अपनी सारी देह को अग्नि का इन्धन बना देती है लेकिन बदरों का पाचन नहीं हो पाता । ऐसी ही कथा महाभारत शल्य पर्व ४८ में आती है जहां भरद्वाज - कन्या श्रुतावती इन्द्र से पाक हेतु ५ बदर प्राप्त करती है और अन्त में अपनी देह को ही अग्नि का इन्धन बना देती है । यहां यह संदेह होता है कि क्या बदर भी किसी प्रकार से भद्र का ही रूप हैं ?
गर्ग संहिता ७.३२.५ में राजा भद्रश्रवा प्रद्युम्न से शकुनि असुर के वध की प्रार्थना करता है और प्रद्युम्न द्वारा शकुनि के वध हेतु पहले एक शुक का वध किया जाता है जिसमें शकुनि के प्राण निहित हैं और फिर शकुनि को अन्तरिक्ष में उठाकर बाणों द्वारा अन्तरिक्ष में ही मारा जाता है क्योंकि शकुनि को वरदान है कि वह भूमि का स्पर्श पाते ही जी उठेगा । यह कथा संकेत करती है कि भद्र स्थिति में शकुनि स्थिति का प्राबल्य होता है ( महाभारत में मायावी शकुनि को द्यूत विद्या में निपुण कहा गया है ) । ऋग्वेद २.४३.२ में शकुन/पक्षी से प्रार्थना की गई है कि वह हमारे लिए सर्व से (सर्वतो) भद्र बोले तथा कि वह हमारे लिए विश्व से पुण्य बोले । इसके पश्चात् कहा गया है कि जब शकुन बोले तो वह भद्र बोले और जब चुप रहे तो वह हमारी सुमति का वर्धन करे । डा. फतहसिंह के अनुसार जब हमारी इन्द्रियां बहिर्मुखी हैं तो वह सर्व स्थिति है । जब यह अन्तर्मुखी हो जाती हैं तो वह विश्व स्थिति है । उपरोक्त ऋचा से तो यह संकेत मिलता है कि भद्र का सम्बन्ध सर्व स्थिति से है । लेकिन इसके विपरीत प्रमाण ऋग्वेद १.१६६.९, २.२३.१९, २.२४.१६, २.३६.१५, ५.८२.५ से प्राप्त होते हैं जहां विश्व भद्रों के उल्लेख आते हैं ।
पुराणों में बलभद्र के उल्लेखों के संदर्भ में ऐसा प्रतीत होता है कि शरीर के परितः आभामण्डल/वाल का भद्र बनना आवश्यक है । ऋग्वेद १.१३४.४, ३.३९.२ (धी), ५.२९.१५, ९.९७.२, १०.८५.६(सूर्या) आदि में उषा द्वारा भद्र वस्त्र प्रदान करने अथवा उषा का भद्र वस्त्र होने के उल्लेख आते हैं । पौराणिक कथा में गौतम ऋषि निर्वस्त्र भद्र यक्ष को शाप देकर सिंह बना देते हैं । ऐसा संभव है कि वेद की ऋचाओं में वाल को ही वस्त्र का रूप दिया गया हो । शतपथ ब्राह्मण ३.१.२.२० में दीक्षा संस्कार में वस्त्र परिधान के संदर्भ में कहा गया है कि अदीक्षित होने के समय पाप वर्ण की पुष्टि होती है जबकि दीक्षित हो जाने पर भद्र वर्ण की । पुराणों में असुर राजा बलि के उपवाह्य के रूप में भद्र हस्ती का उल्लेख आया है । राजा बलि भी वाल का, आभामण्डल का प्रतीक हो सकता है ।
ऋग्वेद १.८९.१, १.१२३.१३, ४.१०.१, ४.१०.२, १०.२५.१, १०.३०.१२, तैत्तिरीय संहिता ४.३.१३.१ आदि में भद्र क्रतु का उल्लेख आया है जिसमें ऋग्वेद ४.१०.२, १०.२५.१ आदि में क्रतु के साथ दक्ष व ऋत शब्द भी प्रकट हुए हैं । ऐसा लगता है कि कथासरित्सागर में जो कथा विक्रमादित्य द्वारा शूकर के वध के रूप में कही गई है, वही तथ्य पुराणों में वीरभद्र द्वारा दक्ष यज्ञ/क्रतु के विध्वंस द्वारा प्रकट किया गया है । वैदिक तथा पौराणिक साहित्य में यज्ञ को एक वराह का रूप दिया गया है जिसके सभी अङ्ग यज्ञ के विभिन्न पात्रों से निर्मित हैं । यज्ञ को क्रतु में परिणत करने पर ऋग्वेद ४.१०.२ आदि से लगता है कि यह सत्य की अपेक्षा ऋत की अवस्था हो जाती है । फिर क्रतु को भद्र भी बनाना होता है । यह कहा जा सकता है कि दक्ष का यज्ञ यज्ञ नहीं, अपितु क्रतु है । क्रतु में पाप विद्यमान है जिसे निकाल कर उसे भद्र बनाना है । दक्ष क्रतु का अर्थ होगा वह जीवन यज्ञ जिसमें अधिकतम दक्षता प्राप्त करनी है और रव को न्यूनतम बनाना है । आधुनिक विज्ञान के अनुसार कोई कार्य करते समय उस कार्य में कुछ न कुछ रव अवश्य उत्पन्न होता है । पौराणिक व वैदिक साहित्य का कहना है कि रव उत्पन्न होने का कारण पाप की विद्यमानता है । अतः भद्र दक्ष क्रतु वह होगा जिसमें रव विद्यमान न हो । यह उल्लेखनीय है कि वैदिक साहित्य में दक्षता की प्राप्ति को दक्षिण दिशा में स्थान दिया गया है । पाप के शमन को पश्चिम दिशा में स्थान दिया गया है और किसी कार्य को करने से पहले उसकी प्रेरणा प्राप्ति को पूर्व दिशा में स्थान दिया गया है । वायु पुराण ४१.८४ में पृथिवी को ४ महाद्वीपों में विभाजित किया गया है जिसमें पश्चिम दिशा में केतुमाल द्वीप की स्थिति कही गई है । इस कथन के अनुसार भद्र पूर्व दिशा में, भरत दक्षिण दिशा में व उत्तरकुरु उत्तर दिशा में होने चाहिएं ।
Mr. Chari I must correct you here. There are five Main Badris -Badrinath, Bhavishya Badri near joshimath, Yogdhyan Badri at Pandukesar, Ad-badri near Karanprayag and Bridha Badri near Helang. However, there are two other badris like Narsingh Badri at Joshimath and Preeth Badri at Urgam, but these are not counted in the list of five. Likewise, there are five Prayagas while going to Badrinath. These are - the main prayag is Dev Prayag, then Rudraprayag, Karanprayag, Nandaprayag and lastly Vishnu Prayag . Similarly, there are five shilas around Badri Dham - Narad Shila, Varah Shila, Garud Shila, Markendey Shila and Narsingh Shila. There are also five Dharas (Water Falls) - Urvashi Dhara, Prahalad Dhara, Indra Dhara, Bhrigu Dhara & Kurma Dhara.
The puraanic story of Bhadraa starts from the birth of Vishti (similar to English word waste) from sun and his consort Shadow. Vishti was wicked and ugly, so nobody tried to marry her. At last, she was married to Vishvaroopa, the internal beauty. Few sons were born to them out of which Harshana, the joy was the youngest. Harshana worshipped lord Vishnu to make his father and mother beautiful. After that Vishti became Bhadraa, the noble one. In common parlance, the meaning of Vishti is waste, the work taken from a servant without paying for his services. This meaning can be understood in deeper sense. In this universe, so much energy is going waste. The reason is that when one type of energy is converted into another form of energy, say from electrical to mechanical, then it is not possible to get 100 percent result by any means. Some part of energy will go waste in the form of heat energy. If one thinks of getting 100 percent conversion, this goes against the established principle of second law of thermodynamics that the entropy of the universe is increasing. In modern sciences, there is no way to take care of wasted energy. But in mythology, a solution has been proposed : let this wasted energy be given a center around which it can revolve. Then it may become supportive for life. And the center seems to be to go into the inner self. In vedic literature, this energy has been given the shape of all pervading life forces at different levels of consciousness. The opposite meaning of waste does not appear in vedic literature. It may be noted that a year in mythology and science is formed out of the combined revolutions of sun, earth and moon. So, here the situation is benign. The same situation has to be created for waste energy, Vishti of puraanic texts also. It seems that Maayaa, the illusion in mythology is this Vishti. This Maayaa has craving for powers of gods. Vedic mantras talk of making this craving noble, Bhadraa. Five centers which exist in a person are his five senses like hearing, seeing, speaking etc. These five also seem to work as the central points for revolution of waste energy.
भद्रा
टिप्पणी : ब्रह्मपुराण आदि की कथाओं में भद्रा को छाया व मार्तण्ड की पुत्री विष्टि कहा गया है जिसका विवाह त्वष्टा - पुत्र विश्वरूप से हुआ और उसके कनिष्ठ पुत्र हर्षण ने विष्णु की आराधना आदि से अपने माता - पिता के लिए भद्रता प्राप्त की । शब्दकल्पद्रुम में विष्टि से तात्पर्य व्यर्थ, बेगार, अंग्रेजी भाषा का वेस्ट लिया गया है । लौकिक रूप में इस अर्थ में प्रयुक्त होने वाले विष्टि शब्द का मूल क्या है, यह अभी ज्ञात नहीं है । लेकिन यह अर्थ बहुत महत्त्वपूर्ण है । जैसा कि अन्यत्र टिप्पणियों में भी कहा जा चुका है, आधुनिक विज्ञान के अनुसार एक प्रकार की ऊर्जा को दूसरी प्रकार की ऊर्जा में १०० प्रतिशत रूपान्तरित करना संभव नहीं है । उस ऊर्जा का कुछ भाग अवश्य व्यर्थ हो जाएगा । भौतिक विज्ञान के सिद्धान्त के अनुसार ऐसा कोई यन्त्र बनाना संभव नहीं है जो एक प्रकार की ऊर्जा को १०० प्रतिशत दूसरी ऊर्जा में रूपान्तरित कर सके । उदाहरण के लिए, वैद्युतीय ऊर्जा का रूपान्तरण १०० प्रतिशत यान्त्रिक ऊर्जा में नहीं किया जा सकता । उसका कुछ भाग तापीय ऊर्जा को उत्पन्न करने में व्यय हो जाएगा । यदि यह मान लिया जाए कि ऐसा कोई यन्त्र बन सकता है जो एक प्रकार की ऊर्जा को दूसरे प्रकार की ऊर्जा में १०० प्रतिशत रूपान्तरित कर सके तो वह भौतिक विज्ञान के तापगतिकी के दूसरे सिद्धान्त के विपरीत होगा । इस सिद्धान्त के अनुसार विश्व की एण्ट्रांपी, अव्यवस्था की माप, में लगातार वृद्धि हो रही है । यदि उपरोक्त प्रकार के यन्त्र की कल्पना की जाए तो वह विश्व की एण्ट्रांपी को ह्रास की ओर ले जाएगा । हम यह कह सकते हैं कि जीव जगत में ऊर्जा का यह व्यर्थ जा रहा भाग ही विष्टि हो सकता है । आधुनिक चिकित्सा विज्ञान के अनुसार हम जो कार्य करते हैं, उस प्रक्रिया में ऊष्मा का जनन होता है जो व्यर्थ ही जाती है । आधुनिक विज्ञान में तो इस व्यर्थ हो रही ऊर्जा के उपयोग का अभी कोई प्रावधान नहीं है । लेकिन पौराणिक साहित्य में इसके सम्यक् उपयोग का प्रावधान है । पुराणों में कहा गया है कि इसका विवाह विश्वरूप से कर दो । उससे गण्ड, हर्षण आदि पुत्र उत्पन्न होंगे । वैदिक साहित्य में विश्वरूप क्या है, यह समझना आवश्यक होगा । ऋग्वेद ५.८१.२ में कहा गया है कि कवि विश्वा रूपों का मोचन करता है जिससे द्विपद व चतुष्पद को प्रेरणा प्राप्त होती है । शतपथ ब्राह्मण ६.७.२.४ में अग्नि के शिक्यपाश मोचन के संदर्भ में कहा गया है आदित्य ही कवि है । विश्वा रूपा शिक्य है । यह कहा जा सकता है कि यह समाधि से व्युत्थान की स्थिति है जिसमें क्रमिक रूप से जीव को संज्ञाएं प्राप्त होती हैं । सरस्वतीरहस्योपनिषद में इनका उल्लेख अस्ति, भाति, प्रिय, नाम और रूप द्वारा किया गया है जिनमें प्रथम तीन विश्व प्रकृति के हैं और शेष दो जगत प्रकृति के । अतः ब्रह्म पुराण आदि की कथा यह संकेत देती है कि व्यर्थ ऊर्जा का संयोग/ अस्ति, भाति, प्रिय आदि से कर दो । बृहज्जाबालोपनिषद १.१ में शिव के सद्योजात, वामदेव, अघोर आदि रूपों में वामदेव रूप के संदर्भ में कहा गया है कि वामदेव से उदक उत्पन्न हुआ । उससे प्रतिष्ठा । उससे कृष्णवर्णा भद्रा गौ । उसके गोमय/गोबर से भसित की उत्पत्ति हुई । इससे अगले रूप आघोर/अघोर में रक्तवर्णा गौ व भस्म की उत्पत्ति का उल्लेख है और यह भी बता दिया गया है कि भस्म से तात्पर्य सर्वाघभक्षण से है। यह कहा जा सकता है कि इस संदर्भ में भसित से तात्पर्य समाधि से व्युत्थान की उस स्थिति से है जिसमें बाह्य जगत का आभास मात्र उत्पन्न होता है, पूर्ण रूप का साक्षात्कार नहीं होता । डा. फतहसिंह के अनुसार वामदेव गर्भ जैसी स्थिति से सम्बन्धित है क्योंकि वामदेव गर्भ में ही बोलता है । यदि यह गर्भ जैसी स्थिति है तो दीक्षा भी गर्भ जैसी स्थिति होती है जिसमें शिष्य या यज्ञ का यजमान आचार्य के अन्दर गर्भ रूप धारण करते हैं जिससे बाह्य जगत के उद्वेगों से उसे कोई हानि न पहुंचे । वह गर्भ की भांति चारों ओर से सुरक्षित रहे ।
वैदिक साहित्य में विष्टि शब्द के बदले विष्ट शब्द प्रकट हुआ है । विष्ट का अर्थ विशः - प्रवेशने धातु के आधार पर किया जा सकता है । ऐतरेय आरण्यक २.२.३ के अनुसार जो यह तपने वाला ( सूर्य) है, यह प्राण है और यह इस रूप में सर्वा दिशाओं में विष्ट है । जैमिनीय ब्राह्मण २.२२९ के अनुसार यह सारी प्रजा अर्क/अन्न के अभितः विष्ट है । जैमिनीय ब्राह्मण ३.३४८ में विभिन्न लोकों में विभिन्न प्रकार के विष्टों का उल्लेख है । उपोदक लोक है, अन्न में विष्ट है, मनुष्य गोप्ता हैं, अग्नि अधिपति है, अर्चियों का रूप रूप है, आपः में प्रतिष्ठा है । ऋतधामा लोक वयों द्वारा विष्ट है, गन्धर्वाप्सरस गोप्ता हैं, वायु अधिपति है, श्वेत रूप है, प्राण में प्रतिष्ठा है । अपराजित लोक नक्षत्रों द्वारा विष्ट है, चन्द्रमा गोप्ता है, आदित्य अधिपति है, सूर्य का जो उदय व अस्त के समय रूप होता है, वह रूप है, मन में प्रतिष्ठा है । अधिद्यु नामक लोक यज्ञ में विष्ट है, आदित्य गोप्ता हैं, वरुण अधिपति है, नील रूप है, पर्जन्य वर्षा के समय जो कृष्ण रूप होता है, वह नील है, या जो कार्तस्वर वाली मणि का रूप होता है, अनृत में प्रतिष्ठा है । प्रद्युर नामक लोक अमृत में विष्ट है, रुद्रगण गोप्ता हैं, मृत्यु अधिपति है, लोहित रूप है जो गौरवछदायै? का होता है या जो माहारोहण? वास का होता है, ऋत में प्रतिष्ठा है । रोचन लोक तप में विष्ट है, वसुगण गोप्ता हैं, यज्ञ अधिपति है, जो सुवर्ण हिरण्य का रूप होता है, वह रूप है, सत्य में प्रतिष्ठा है । जैमिनीय ब्राह्मण के इस वर्णन में प्रतीत होता है कि यहां विष्ट का जो रूप है, वह पुराणों की विष्टि से विपरीत अर्थ वाला है । पुराणों की विष्टि जहां व्यर्थ जा रही ऊर्जा से सम्बन्धित हो सकती है, वहीं जैमिनीय या ऐतरेय ब्राह्मण में प्रयुक्त विष्ट उस स्थिति का द्योतक हो सकता है जब व्यर्थ जा रही ऊर्जा को नियन्त्रित कर लिया गया है, उसे उपयोगी बना लिया गया है । लोक शब्द की तुलना अंग्रेजी भाषा के लुक, दर्शने से की जा सकती है । लोक में रूप है । दूसरी ओर पुराणों की कन्या विष्टि है जो कुरूप है, जिससे कोई भी विवाह करना पसंद नहीं करता ।
पौराणिक साहित्य में विष्टि से भद्रा में रूपान्तरण का जो वर्णन है, वैदिक साहित्य का वर्णन बिल्कुल अलग प्रकार का है । जहां पौराणिक साहित्य में भद्रा को एक व्यक्ति विशेष का रूप दे दिया गया है, वैदिक साहित्य में भद्रा शब्द एक विशेषण के रूप में प्रयुक्त हुआ है । प्रायः उषा के भद्रा विशेषण का उल्लेख आता है ( ऋग्वेद १.१२३.११-१२ , ६.५४.२, ७.४१.७, ७.८०.३, १०.११.३ ) । ऋग्वेद १.८३.३ में यजमान के लिए भद्रा शक्ति प्राप्त करने का उल्लेख है । ऋग्वेद १.८९.२, १.११४.९, ३.३०.७ व १०.२९.८ में सुमति को भद्रा कहा गया है जिसके द्वारा संग्राम में रथ का संचालन किया जाता है । ऋग्वेद १.९४.१ व १०.१००.११ में प्रमति को, ऋग्वेद १.१६३.५, तैत्तिरीय संहिता ४.६.७.२ में वाजी को नियन्त्रित करने वाली रशना को भद्रा कहा गया है, ऋग्वेद ५.८०.६ में उषा को योषा की भांति भद्रा कहा गया है । ऋग्वेद १०.१८.३, १०.५३.३, तैत्तिरीय संहिता १.३.१४.२ आदि में उल्लेख है कि यह जीव मृत द्वारा आवृत हैं और कि आज देवहूति हमारे लिए भद्रा हो गई है । ऋग्वेद १.१३२.२, ३.३०.७? में इन्द्र की राति, ऋग्वेद १.१६८.७ में मरुतों की राति, ऋग्वेद ६.४५.३२ व ८.१९.१९ में राति, ऋग्वेद ६.५८.१ व तैत्तिरीय संहिता ४.१.११.१ में पूषा की राति के भद्रा बनने की कामना की गई है । ऋग्वेद ८.६२ सूक्त में तो १२ ऋचाओं का अन्तिम पद भद्रा इन्द्रस्य रातयः ही है । अथर्ववेद ६.१०८.३ में भद्रा मेधा का उल्लेख है जिसे ऋषियों ने ज्ञात किया । महानारायणोपनिषद२.४१( १६.४) में मेधा देवी के विशेषणों के रूप में विश्वाची, भद्रा, सुमना का उल्लेख है । अथर्ववेद १०.१०.१४ में ज्योvतियों को धारण करती हुई भद्रा वशा गौ का उल्लेख है ।
उपरोक्त ऋचाओं के सारांश रूप में यह कहा जा सकता है कि लौकिक साहित्य में जिसे माया कहा जाता है, वह वास्तव में देवहूति है जो देवों का आह्वान करती है अथवा कर सकती है । यही सूर्य अथवा अग्नि रूपी अश्व को नियन्त्रित करने वाली रस्सी बन सकती है । अथवा ऐसा भी कहा जा सकता है कि प्रकृति में जो ऊर्जा अव्यवस्थित रूप में पडी है, उसका जितना भाग किसी केन्द्रीय सत्ता से, सूर्य से जुडता जाता है, उतना ही भाग भद्रा बनता जाता है ( देव्युपनिषद ३) । वह सूर्य को नियन्त्रित करने वाली रशना बन जाती है, वह ऋत का भाग बन जाती है । संवत्सर का अर्थ होता है जहां सूर्य, पृथिवी और चन्द्रमा परस्पर आकर्षण के अन्तर्गत गति कर रहे हैं । संवत्सर का निर्माण, ऋतुओं का निर्माण ऋत है । अतः भद्रा के सम्बन्ध में भी यह कहा जा सकता है कि पृथिवी का जो भाग संवत्सर के अन्तर्गत है, वह भद्रा है, जो नहीं है, वह विष्टि है ।
वैदिक ऋचाओं में जिस भद्रा राति का उल्लेख आता है, वह राति क्या है, यह अन्वेषणीय है । डा. फतहसिंह राति, रायः और रयि को स्थूल, सूक्ष्म व कारण स्तरों के तीन धन मानते हैं ( क्रम? ) । ऐसा भी हो सकता है कि अथर्ववेद १९.४७.२, १९.४९.२, १९.४९.८ में जिस भद्रा रात्रि का उल्लेख है, वह रात्रि ही राति हो । यह उल्लेखनीय है कि पूरे वैदिक साहित्य में अथर्ववेद १९.४९.८ मन्त्र ही ऐसा मिल पाया है जिसके पद 'भद्रासि रात्रि चमसो न विष्टो विष्वङ् गोरूपं युवतिर्बिभर्षि' में पुराणों के अनुरूप भद्रा के साथ विष्ट शब्द प्रकट हुआ है । यह मन्त्र यह भी संकेत देता है कि भद्रा होने पर वह गौ का रूप होता है जो सूर्य की ऊर्जा को अपने अन्दर अवशोषित करने में समर्थ होता है । अथर्ववेद १.१८.१ में अलक्ष्मीनाशन सूक्त में भद्रा अराति का भी उल्लेख है ।
पुराणों की कथाओं में तो भद्रा का विवाह विश्वरूप नाम वाले किसी व्यक्ति विशेष से हो जाता है । लेकिन वैदिक साहित्य में यदि भद्रा उषा आदि का विशेषण मात्र है तो यही स्थिति विश्वरूप के संदर्भ में भी होनी चाहिए और वहां विश्वरूप के बहुत से स्तर होने चाहिएं जिनसे विभिन्न प्रकार की भद्रा स्थितियों का विवाह हो सके । ऋग्वेद १.८९.१ की प्रसिद्ध ऋचा आ नो भद्रा: क्रतवो यन्तु विश्वतो इत्यादि है । ऋग्वेद १.१६६.९ में मरुतों के रथों में विश्वानि भद्रों की स्थिति का उल्लेख है । ऋग्वेद ५.८१.२ में कवि विश्व रूपों का मोचन करता है । ऋग्वेद ५.८२.५ में सविता देव विश्वानि दुरितानि को दूर करता है और भद्र की प्रसूति करता है ।
ऐतरेय आरण्यक १.३.८ के अनुसार चक्षु, श्रोत्र, मन, वाक् और प्राण के रूप में ५ देवता इस पुरुष में विष्ट हैं । यह विचारणीय है कि क्या व्यर्थ हो रही ऊर्जा का संयोग इन्हीं पांच से कराने की आवश्यकता है ?
संदर्भ
भद्र
*यस्या रुशन्तो अर्चयः प्रति भद्रा अदृक्षत। सा नो रयिं विश्ववारं सुपेशसमुषा ददातु सुग्म्यम् ॥ - ऋ. १.४८.१३
*उषो भद्रेभिरा गहि दिवश्चिद्रोचनादधि। वहन्त्वरुणप्सव उप त्वा सोमिनो गृहम् ॥ - ऋ. १.४९.१
*असंयत्तो व्रते ते क्षेति पुष्यति भद्रा शक्तिर्यजमानाय सुन्वते ॥ - (दे. इन्द्रः) - ऋ. १.८३.३
*आ नो भद्राः क्रतवो यन्तु विश्वतोऽदब्धासो अपरीतास उद्भिदः। - ऋ. १.८९.१
*देवानां भद्रा सुमतिर्ऋजूयतां देवानां रातिरभि नो नि वर्तताम् - ऋ. १.८९.२
*इमं स्तोममर्हते जातवेदसे रथमिव सं महेमा मनीषया। भद्रा हि नः प्रमतिरस्य संसद्यग्ने सख्ये मा रिषामा वयं तव ॥ - ऋ. १.९४.१
*तत्ते भद्रं यत्समिद्धः स्वे दमे। - ऋ. १.९४.१४
*यं भद्रेण शवसा चोदयासि प्रजावता राधसा ते स्याम ॥(दे. अदितिः) - ऋ. १.९४.१५
*उभे भद्रे जोषयेते न मेने गावो न वाश्रा उप तस्थुरेवैः। (दे. अग्निः) - ऋ. १.९५.६
*प्र यद्भन्दिष्ठ एषां प्रास्माकासश्च सूरयः। - ऋ. १.९७.३
*तावश्विना भद्रहस्ता सुपाणी आ धावतं मधुना पृङ्क्तमप्सु ॥ - ऋ. १.१०९.४
*चक्राथे हि सध्र्यङ्नाम भद्रं (दे. इन्द्राग्निः) - ऋ. १.१०८ .३
*यच्चित्रमप्न उषसो वहन्तीजानाय शशमानाय भद्रम्। - ऋ. १.११३.२०
*भद्रा हि ते सुमतिर्मृळयत्तमाथा वयमव इत्ते वृणीमहे ॥ (दे. रुद्रः) - ऋ. १.११४.९
*यत्रा नरो देवयन्तो युगानि वितन्वते प्रति भद्राय भद्रम् ॥ - ऋ. १.११५.२
*भद्रा अश्वा हरितः सूर्यस्य चित्रा एतग्वा अनुमाद्यासः। नमस्यन्तो दिव आ पृष्ठमस्थुः परि द्यावापृथिवी यन्ति सद्यः ॥ - ऋ. १.११५.३
*भद्रा त्वमुषो वितरं व्युच्छ न तत्ते अन्या उषसो नशन्त ॥ - ऋ. १.१२३.११
*अश्वावतीर्गोमतीर्विश्ववारा यतमाना रश्मिभिः सूर्यस्य। परा च यन्ति पुनरा च यन्ति भद्रा नाम वहमाना उषासः ॥ - ऋ. १.१२३.१२
*ऋतस्य रश्मिमनुयच्छमाना भद्रंभद्रं क्रतुमस्मासु धेहि। उषो नो अद्य सुहवा व्युच्छास्मासु रायो मघवत्सु च स्युः ॥ - ऋ. १.१२३.१३
*अस्मत्रा ते सध्र्यक्सन्तु रातयो भद्रा भद्रस्य रातयः (दे. इन्द्रः) - ऋ. १.१३२.२
*तुभ्यमुषासः शुचयः परावति भद्रा वस्त्रा तन्वते दंसु रश्मिषु चित्रा नव्येषु रश्मिषु। (दे. वायुः) - ऋ. १.१३४.४
*इमा ते वाजिन्नवमार्जनानीमा शफानां सनितुर्निधाना। अत्रा ते भद्रा रशना अपश्यमृतस्य या अभिरक्षन्ति गोपाः ॥ - ऋ. १.१६३.५
*विश्वानि भद्रा मरुतो रथेषु वो मिथस्पृध्येव तविषाण्याहिता। - ऋ. १.१६६.९
*भूरीणि भद्रा नर्येषु बाहुषु वक्षःसु रुक्मा रभसासो अञ्जयः। - ऋ. १.१६६.१०
*भद्रा वो रातिः पृणतो न दक्षिणा पृथुज्रयी असुर्येव जञ्जती ॥(दे. मरुतः) - ऋ. १.१६८.७
*ये त्वा देवोस्रिकं मन्यमानाः पापा भद्रमुपजीवन्ति पज्राः। - ऋ. १.१९०.५
*विश्वं तद्भद्रं यदवन्ति देवा बृहद्वदेम विदथे सुवीराः ॥ - ऋ. २.२३.१९, २.२४.१६, २.३५.१५
*यजस्व वीर प्र विहि मनायतो भद्रं मनः कृणुष्व वृत्रतूर्ये। - ऋ.२.२६.२
*शृण्वतो वो वरुण मित्र देवा भद्रस्य विद्वां अवसे हुवे वः ॥ - ऋ.२.२९.१
*इन्द्रश्च मृळयाति नो न नः पश्चादघं नशत्। भद्रं भवाति नः पुरः ॥ - ऋ. २.४१.११
*पित्र्यामनु प्रदिशं कनिक्रदत्सुमङ्गलो भद्रवादी वदेह ॥ - ऋ. २.४२.२
*अव क्रन्द दक्षिणतो गृहाणां सुमङ्गलो भद्रवादी शकुन्ते। - ऋ. २.४२.३
*वृषेव वाजी शिशुमतीरपीत्या सर्वतो नः शकुने भद्रमा वद विश्वतो नः शकुने पुण्यमा वद ॥ - ऋ. २.४३.२
*आवदंस्त्वं शकुने भद्रमावद तूष्णीमासीनः सुमतिं चिकिद्धि नः। - ऋ.२.४३.३
*जन्मंजन्मन् निहितो जातवेदा विश्वामित्रेभिरिध्यते अजस्रः। तस्य वयं सुमतौ यज्ञियस्यापि भद्रे सौमनसे स्याम ॥ - ऋ. ३.१.२१
*तद्भद्रं तव दंसना पाकाय चिच्छयति (दे. अग्निः) - ऋ. ३.९.७
*भद्रा त इन्द्र सुमतिर्घृताची सहस्रदाना पुरुहूत रातिः ॥ - ऋ. ३.३०.७
*भद्रा वस्त्राण्यर्जुना वसाना सेयमस्मे सनजा पित्र्या धीः ॥ - ऋ. ३.३९.२
*आदित्यैर्नो अदितिः शृणोतु यच्छन्तु नो मरुतः शर्म भद्रम् ॥ - ऋ.३.५४.२०
*अयं मित्रो नमस्यः सुशेवो राजा सुक्षत्रो अजनिष्ट वेधाः। तस्य वयं सुमतौ यज्ञियस्यापि भद्रे सौमनसे स्याम ॥ - ऋ. ३.५९.४
*भद्रा ते अग्ने स्वनीक संदृग्घोरस्य सतो विषुणस्य चारुः। - ऋ. ४.६.६
*अग्ने तमद्याश्वं न स्तोमैः क्रतुं न भद्रं हृदिस्पृशम्। ऋध्यामा त ओहैः ॥ - ऋ. ४.१०.१
*अधा ह्यग्ने क्रतोर्भद्रस्य दक्षस्य साधोः। रथीर्ऋतस्य बृहतो बभूथ ॥ऋ. ४.१०.२
*भद्रं ते अग्ने सहसिन्ननीकमुपाक आ रोचते सूर्यस्य। - ऋ. ४.११.१
*भद्रा ते हस्ता सुकृतोत पाणी प्रयन्तारा स्तुवते राध इन्द्र। - ऋ. ४.२१.९
*दधिक्राव्ण इष ऊर्जो महो यदमन्महि मरुतां नाम भद्रम्। - ऋ. ४.३९.४
*ता घा ता भद्रा उषसः पुरासुरभिष्टिद्युम्ना ऋतजातसत्याः। - ऋ. ४.५१.७
*प्रति भद्रा अदृक्षत गवां सर्गा न रश्मयः। ओषा अप्रा उरु ज्रयः ॥ - ऋ. ४.५२.५
*अभ्यर्ष सुष्टुतिं गव्यमाजिमस्मासु भद्रा द्रविणानि धत्त। - ऋ. ४.५८.१०
*आ भन्दिष्ठस्य सुमतिं चिकिद्धि बृहत्ते अग्ने महि शर्म भद्रम् ॥ - ऋ. ५.१.१०
*वयं ते अग्न उक्थैर्विधेम वयं हव्यैः पावक भद्रशोचे। - ऋ. ५.४.७
*वस्त्रेव भद्रा सुकृता वसूयू रथं न धीरः स्वपा अतक्षम् ॥ (दे. इन्द्रः) - ऋ. ५.२९.१५
*भद्रमिदं रुशमा अग्ने अक्रन्गवां चत्वारि ददतः सहस्राः ॥ - ऋ. ५.३०.१२
*इन्द्रो विष्णुर्वरुणो मित्रो अग्निरहानि भद्रा जनयन्त दस्माः ॥ - ऋ. ५.४९.३
*परा वीरास एतन मर्यासो भद्रजानयः। अग्नितपो यथासथ ॥ - ऋ. ५.६१.४
*एषा प्रतीची दुहिता दिवो नॄन्योषेव भद्रा नि रिणीते अप्सः। (दे. उषा) - ऋ. ५.८०.६
*विश्वा रूपाणि प्रति मुञ्चते कविः प्रासावीद्भद्रं द्विपदे चतुष्पदे। वि नाकमख्यत्सविता वरेण्योऽनु प्रयाणमुषसो वि राजति ॥ - ऋ. ५.८१.२
*विश्वानि देव सवितर्दुरितानि परा सुव। यद्भद्रं तन्न आ सुव ॥ - ऋ. ५.८२.५
*नामानि चिद्दधिरे यज्ञियानि भद्रायां ते रणयन्त संदृष्टौ ॥ - ऋ. ६.१.४
*वेदी सूनो सहसो गीर्भिरुक्थैरा ते भद्रायां सुमतौ यतेम ॥ - ऋ. ६.१.१०
*पूर्वीरिषो बृहतीरारे अघा अस्मे भद्रा सौश्रवसानि सन्तु ॥ - ऋ. ६.१.१२
*आ गावो अग्मन्नुत भद्रमक्रन्त्सीदन्तु गोष्ठे रणयन्त्वस्मे। प्रजावतीः पुरुरूपा इह स्युरिन्द्राय पूर्वीरुषसो दुहानाः ॥ - ऋ. ६.२८.१
*यूयं गावो मेदयथा कृशं चिदश्रीरं चित्कृणुथा सुप्रतीकम्। भद्रं गृहं कृणुथ भद्रवाचो बृहद्वो वय उच्यते सभासु - ऋ. ६.२८.६
*यस्य वायोरिव द्रवद्भद्रा रातिः सहस्रिणी। सद्यो दानाय मंहते ॥ - ऋ. ६.४५.३२
*तस्य वयं सुमतौ यज्ञियस्यापि भद्रे सौमनसे स्याम। - ऋ. ६.४७.१३
*भद्रा ददृक्ष उर्विया वि भास्युत्ते शोचिर्भानवो द्यामपप्तन्। - ऋ. ६.६४.२
*शुक्रं ते अन्यद्यजतं ते अन्यद्विषुरूपे अहनी द्यौ१रिवासि। विश्वा हि माया अवसि स्वधावो भद्रा ते पूषन्निह रातिरस्तु ॥ - ऋ. ६.५८.१
*सोमारुद्रा वि वृहतं विषूचीममीवा या नो गयमाविवेश। आरे बाधेथां निर्ऋतिं पराचैरस्मे भद्रा सौश्रवसानि सन्तु ॥ - ऋ. ६.७४.२
*वयं घृतेनाध्वरस्य होतर्वयं देव हविषा भद्रशोचे ॥ - ऋ. ७.१४.२
*मिथस्तुरः ऊतयो यस्य पूर्वीरस्मे भद्राणि सश्चत प्रियाणि ॥ - ऋ. ७.२६.४
*अश्वावतीर्गोमतीर्न उषासो वीरवतीः सदमुच्छन्तु भद्राः। घृतं दुहाना विश्वतः प्रपीता यूयं पात स्वस्तिभिः सदा नः ॥ - ऋ. ७.४१.७, ७.८०.३
*यद्गोपावददितिः शर्म भद्रं मित्रो यच्छन्ति वरुणः सुदासे। तस्मिन्ना तोकं तनयं दधाना मा कर्म देवहेळनं तुरासः ॥ - ऋ. ७.६०.८
*भद्रमिद्भद्रा कृणवत्सरस्वत्यकवारी चेतति वाजिनीवती। गृणाना जमदग्निवत्स्तुवाना च वसिष्ठवत्॥ - ऋ. ७.९६.३
*ये पाकशंसं विहरन्त ऐवैर्ये वा भद्रं दूषयन्ति स्वधाभिः। अहये वा तान्प्रददातु सोम आ वा दधातु निर्ऋतेरुपस्थे ॥ - ऋ. ७.१०४.९
*त्वं हि स्तोमवर्धन इन्द्रास्युक्थवर्धनः। स्तोतॄणामुत भद्रकृत् ॥ - ऋ. ८.१४.११
*ते नो भद्रेण शर्मणा युष्माकं नावा वसवः। अति विश्वानि दुरिता पिपर्तन ॥ - ऋ. ८.१८.१७
*आभिप्लविकेषूक्थ्येषु तृतीयसवने प्रशास्तुः शस्त्रे प्रगाथः - भद्रो नो अग्निराहुतो भद्रा रातिः सुभग भद्रो अध्वरः। भद्रा उत प्रशस्तयः ॥ भद्रं मनः कृणुष्व वृत्रतूर्ये येना समत्सु सासहः। अव स्थिरा तनुहि भूरि शर्धतां वनेमा ते अभिष्टिभिः ॥ - ऋ. ८.१९.१९-२०
*यद्देवाः शर्म शरणं यद्भद्रं यदनातुरम्। त्रिधातु यद्वरूथ्यं तदस्मासु वि यन्तनानेहसो व ऊतयः सुऊतयो व ऊतयः ॥ - ऋ. ८.४७.१०
*नेह भद्रं रक्षस्विने नावयै नोपया उत। गवे च भद्रं धेनवे वीराय च श्रवस्यतेऽनेहसो व ऊतयः सुऊतयो व ऊतयः ॥ - ऋ. ८.४७.१२
*आ याहि कृणवाम त इन्द्र ब्रह्माणि वर्धना। येभिः शविष्ठ चाकनो भद्रमिह श्रवस्यते भद्रा इन्द्रस्य रातयः ॥ - ऋ. ८.६२.१
*पूर्वीरिति प्र वावृधे विश्वा जातान्योजसा भद्रा इन्द्रस्य रातयः ॥ - ऋ. ८.६२.२
*प्रवाच्यमिन्द्र तत्तव वीर्याणि करिष्यतो भद्रा इन्द्रस्य रातयः ॥ - ऋ. ८.६२.३
*येभिः शविष्ठ चाकनो भद्रमिह श्रवस्यते भद्रा इन्द्रस्य रातयः ॥ - ऋ. ८.६२.४
*तीव्रैः सोमैः सपर्यतो नमोभिः प्रतिभूषतो भद्रा इन्द्रस्य रातयः ॥ - ऋ. ८.६२.५
*जुष्ट्वी दक्षस्य सोमिनः सखायं कृणुते युजं भद्रा इन्द्रस्य रातयः ॥ - ऋ. ८.६२.६
*भुवो विश्वस्य गोपतिः पुरुष्टुत भद्रा इन्द्रस्य रातयः ॥ - ऋ. ८.६२.७
*यद्धंसि वृत्रमोजसा शचीपते भद्रा इन्द्रस्य रातयः ॥ - ऋ. ८.६२.८
*विदे तदिन्द्रश्चेतनमध श्रुतो भद्रा इन्द्रस्य रातयः ॥ - ऋ. ८.६२.९
*भूरिगो भूरि वावृधुर्मघवन्तव शर्मणि भद्रा इन्द्रस्य रातयः ॥ - ऋ. ८.६२.१०
*अरातीवा चिदद्रिवोऽनु नौ शूर मंसते भद्रा इन्द्रस्य रातयः ॥ - ऋ. ८.६२.११
*महाँ असुन्वतो वधो भूरि ज्योतींषि सुन्वतो भद्रा इन्द्रस्य रातयः ॥ - ऋ. ८.६२.१२
*स नो ऽश्वेभिर्देवेभिरूर्जो नपाद्भद्रशोचे। रयिं देहि विश्ववारम् ॥ - ऋ. ८.७१.३
*इन्द्र दृह्यस्व पूरसि भद्रा त एति निष्कृतम्। इयं धीर्ऋत्वियावती ॥ - ऋ. ८.८०.७
*भद्रंभद्रं न आ भरेषमूर्जं शतक्रतो। यदिन्द्र मृळयासि नः ॥ - ऋ. ८.९३.२८
*पदं देवस्य मीळ्हुषोऽनाधृष्टाभिरूतिभिः। भद्रा सूर्य इवोपदृक् (दे. अग्निः) - ऋ. ८.१०२.१५
*भद्रान्कृणवन्निन्द्रहवान्त्सखिभ्य आ सोमो वस्त्रा रभसानि दत्ते ॥ - ऋ. ९.९६.१
*भद्रा वस्त्रा समन्या३ वसानो महान् कविर्निवचनानि शंसन्। आ वच्यस्व चम्वोः पूयमानो विचक्षणो जागृविर्देववीतौ ॥ - ऋ. ९.९७.२
*भद्रो भद्रया सचमान आगात्स्वसारं जारो अभ्येति पश्चात्। सुप्रकेतैर्द्युभिरग्निर्वितिष्ठन्नुशद्भिर्वर्णैरभि राममस्थात् ॥(दे. अग्निः) - ऋ. १०.३.३
*सो चिन्नु भद्रा क्षुमती यशस्वत्युषा उवास मनवे स्वर्वती। यदीमुशन्तमुशतामनु क्रतुमग्निं होतारं विदथाय जीजनत् ॥ - ऋ. १०.११.३
*तेषां वयं सुमतौ यज्ञियानामपि भद्रे सौमनसे स्याम ॥ - ऋ. १०.१४.६
*तावस्मभ्यं दृशये सूर्याय पुनर्दातामसुमद्येह भद्रम् ॥ - ऋ. १०.१४.१२
*इमे जीवा वि मृतैराववृत्रन्नभूद्भद्रा देवहूतिर्नो अद्य। प्राञ्चो अगाम नृतये हसाय द्राघीय आयुः प्रतरं दधानाः ॥ - ऋ. १०.१८.३
*भद्रं नो अपि वातय मनः। - ऋ. १०.२०.१
*भद्रं नो अपि वातय मनो दक्षमुत क्रतुम्। अधा ते सख्ये अन्धसो वि वो मदे रणन् गावो न यवसे विवक्षसे ॥(दे. सोमः) - ऋ. १०.२५.१
*कियती योषा मर्यतो वधूयोः परिप्रीता पन्यसा वार्येण। भद्रा वधूर्भवति यत्सुपेशाः स्वयं सा मित्रं वनुते जने चित् ॥ - ऋ. १०.२७.१२
*व्यानळिन्द्रः पृतनाः स्वोजा आस्मै यतन्ते सख्याय पूर्वीः। आ स्मा रथं न पृतनासु तिष्ठ यं भद्रया सुमत्या चोदयासे ॥ - ऋ. १०.२९.८
*आपो रेवतीः क्षयथा हि वस्वः क्रतुं च भद्रं बिभृतामृतं च। रायश्च स्थ स्वपत्यस्य पत्नीः सरस्वती तद्गृणते वयो धात् ॥ - ऋ. १०.३०.१२
*जाया पतिं वहति वग्नुना सुमत्पुंस इद्भद्रो वहतुः परिष्कृतः ॥ -ऋ. १०.३२.३
*एतद्वै भद्रमनुशासनस्योत स्रुतिं विन्दत्यञ्जसीनाम्। - ऋ. १०.३२.७
*एतानि भद्रा कलश क्रियाम कुरुश्रवण ददतो मघानि। दान इद्वो मघवानः सो अस्त्वयं च सोमो हृदि यं बिभर्मि ॥ - ऋ. १०.३२.९
*अनागास्त्वं सूर्यमुषासमीमहे भद्रं सोमः सुवानो अद्या कृणोतु नः ॥ - ऋ. १०.३५.२
*भद्रा नो अद्य श्रवसे व्युच्छत स्वस्त्य१ग्निं समिधानमीमहे। - ऋ. १०.३५.५
*मा शूने भूम सूर्यस्य संदृशि भद्रं जीवन्तो जरणामशीमहि ॥ - ऋ. १०.३७.६
*यस्ते अद्य कृणवद्भद्रशोचेऽपूपं देव घृतवन्तमग्ने। प्र तं नय प्रतरं वस्यो अच्छाभि सुम्नं देवभक्तं यविष्ठ ॥ - ऋ. १०.४५.९
*भद्रव्रातम् विप्रवीरं स्वर्षामस्मभ्यं चित्रं वृषणं रयिं दाः। - ऋ. १०.४७.५
*ते मा भद्राय शवसे ततक्षुरपराजितमस्तृतमषाळ्हम् ॥ - ऋ. १०.४८.११
*साध्वीमकर्देववीतिं नो अद्य यज्ञस्य जिह्वामविदाम गुह्याम्। स आयुरागात्सुरभिर्वसानो भद्रामकर्देवहूतिं नो अद्य ॥ - ऋ. १०.५३.३
*ये यज्ञेन दक्षिणया समक्ता इन्द्रस्य सख्यममृतत्वमानश। तेभ्यो भद्रमङ्गिरसो वो अस्तु प्रति गृभ्णीत मानवं सुमेधसः ॥ - ऋ. १०.६२.१
*रण्वः संदृष्टौ पितुमाँ इव क्षयो भद्रा रुद्राणां मरुतामुपस्तुतिः। गोभिः स्याम यशसो जनेष्वा सदा देवास इळया सचेमहि ॥ - ऋ. १०.६४.११
*भद्रा अग्नेर्वध्र्यश्वस्य संदृशो वामी प्रणीतिः सुरणा उपेतयः। - ऋ. १०.६९.१
*सक्तुमिव तितउना पुनन्तो यत्र धीरा मनसा वाचमक्रत। यत्रा सखायः सख्यानि जानते भद्रैषां लक्ष्मीर्निहिताधि वाचि ॥ - ऋ. १०.७१.२
*अदितिर्ह्यजनिष्ट दक्ष या दुहिता तव। तां देवा अन्वजायन्त भद्रा अमृतबन्धवः ॥ - ऋ. १०.७२.५
*अग्नेरप्नसः समिदस्तु भद्राग्निर्मही रोदसी आ विवेश। - ऋ. १०.८०.२
*सूर्याया भद्रमिद्वासो गाथयैति परिष्कृतम् ॥ - ऋ. १०.८५.६
*पर्शुर्ह नाम मानवी साकं ससूव विंशतिम्। भद्रं भल त्यस्या अभूद्यस्या उदरमामयद्विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥ - ऋ. १०.८६.२३
*क्रतुप्रावा जरिता शश्वतामव इन्द्र इद्भद्रा प्रमतिः सुतावताम् ॥ - ऋ. १०.१००.११
*उभे यदिन्द्र रोदसी आपप्राथोषाइव। महान्तं त्वा महीनां सम्राजं चर्षणीनां देवी जनित्र्यजीजनद्भद्रा जनित्र्यजीजनत्। - ऋ. १०.१३४.१
*अधस्पदं तमी कृधि यो अस्माँ आदिदेशति देवी जनित्र्यजीजनद्भद्रा जनित्र्यजीजनत् ॥ - ऋ. १०.१३४.२
*शचीभिः शक्र धूनुहीन्द्र विश्वाभिरूतिभिर्देवी जनित्र्यजीजनद्भद्रा जनित्र्यजीजनत् ॥ - ऋ. १०.१३४.३
*रयिं न सुन्वते सचा सहस्रिणीभिरूतिभिर्देवी जनित्र्यजीजनद्भद्रा जनित्र्यजीजनत् ॥ - ऋ. १०.१३४.४
*दूर्वाया इव तन्तवो व्य१स्मदेतु दुर्मतिर्देवी जनित्र्यजीजनद्भद्रा जनित्र्यजीजनत् ॥ - ऋ. १०.१३४.५
*पूर्वेण मघवन्पदाजो वयां यथा यमो देवी जनित्र्यजीजनद्भद्रा जनित्र्यजीजनत् ॥ - ऋ. १०.१३४.६
*आ त्वागमं शंतातिभिरथो अरिष्टतातिभिः। दक्षं ते भद्रमाभार्षं परा यक्ष्मं सुवामि ते ॥ - ऋ. १०.१३७.४
*तस्य वयं सुमतौ यज्ञियस्यापि भद्रे सौमनसे स्याम्। - ऋ. १०.१३७.७
*अयमग्ने जरिता त्वे अभूदपि सहसः सूनो नह्य१न्यदस्त्याप्यम्। भद्रं हि शर्म त्रिवरूथमस्ति त आरे हिंसानामप दिद्युमा कृधि ॥ - ऋ. १०.१४२.१
*भद्रं वै वरं वृणते भद्रं युञ्जन्ति दक्षिणम्। भद्रं वैवस्वते चक्षुर्बहुत्रा जीवतो मनः ॥ - ऋ. १०.१६४.२
*निर्लक्ष्म्यं ललाम्यं१ निररातिं सुवामसि। अथ या भद्रा तानि नः प्रजाया अरातिं नयामसि ॥ (अलक्ष्मीनाशनम्) - अ. १.१८.१
*अहा अरातिमविदः स्योनमप्यभूर्भद्रे सुकृतस्य लोके। - अ. २.१०.७
*जरा त्वा भद्रा नेष्ट व्यन्ये यन्तु मृत्यवो यानाहुरितरान्छतम् ॥ - अ. ३.११.७
*यानि भद्राणि बीजान्यृषभा जनयन्ति च। तैस्त्वं पुत्रं विन्दस्व सा प्रसूर्धेनुका भव ॥ - अ. ३.२३.४
*मा भ्राता भ्रातरं द्विक्षन्मा स्वसारमुत स्वसा। सम्यञ्चः सव्रता भूत्वा वाचं वदत भद्रया ॥ - अ. ३.३०.३
*यदि वासि त्रैककुदं यदि यामुनमुच्यसे। उभे ते भद्रे नाम्नी ताभ्यां नः पाह्यञ्जनः ॥ - अ. ४.९.१०
*यत्ते रिष्टं यत्ते द्युत्तमस्ति पेष्ट्रं त आत्मनि। धाता तद्भद्रया पुनः सं दधत्परुषः परुः ॥ - अ. ४.१२.२
*यश्चकार न शशाक कर्तुं शश्रे पादमङ्गुरिम्। चकार भद्रमस्मभ्यमात्मने तपनं तु सः ॥ (अपामार्गः) - अ. ४.१८.६
*भद्रात्प्लक्षान्निस्तिष्ठसि अश्वत्थात्खदिराद्धवात्। भद्रान्न्यग्रोधात्पर्णात्सा न एह्यरुन्धति ॥ (लाक्षा) - अ. ५.५.५
*चकार भद्रमस्मभ्यमभगो भगवद्भ्यः ॥ - अ. ५.३१.११
*आ मा भद्रस्य लोके पाप्मन्धेह्यविह्रुतम् - अ. ६.२६.१
*तेषां वयं सुमतौ यज्ञियानामपि भद्रे सौमनसे स्याम ॥ - अ. ६.५५.३
*ऋषयो भद्रां मेधां यां विदुस्तां मय्या वेशयामसि ॥ - अ. ६.१०८.३
*भद्रादधि श्रेयः प्रेहि बृहस्पतिः पुरएता ते अस्तु। - अ. ७.९.१(७.८.१)
*न घ्रंस्तताप न हिमो जघान प्रनभतां पृथिवी जीरदानुः। आपश्चिदस्मै घृतमित्क्षरन्ति यत्र सोमः सदमित्तत्र भद्रम् ॥ (वृष्टिः) - अ. ७.१९.२
*भद्रा ह्यस्याः प्रमतिर्बभूव सेमं यज्ञमवतु देवगोपा ॥(अनुमतिः) - अ. ७.२१.५
*ऐष्यामि भद्रेणा सह भूयांसो भवता मया ॥ (रम्यं गृहं) - अ. ७.६२.७
*अस्मै क्षत्राणि धारयन्तमग्रे युनज्मि त्वा ब्रह्मणा दैव्येन। दीदिह्य१स्मभ्यं द्रविणेह भद्रं प्रेमं वोचो हविर्दा देवतासु ॥ - अ. ७.८३.२(७.७८.२)
*अभ्यर्चित सुष्टुतिं गव्यमाजिमस्मासु भद्रा द्रविणानि दत्त। (अग्निः) - अ. ७.८७.१(७.८२.१)
*साहस्रस्त्वेष ऋषभः पयस्वान्विश्वा रूपाणि वक्षणासु बिभ्रत्। भद्रं दात्रे यजमानाय शिक्षन्बार्हस्पत्य उस्रियस्तन्तुमातान् ॥ - अ. ९.४.१
*य इन्द्र इव देवेषु गोष्वेति विवावदत्। तस्य ऋषभस्याङ्गानि ब्रह्मा सं स्तौतु भद्रया ॥ - अ. ९.४.११
*शृङ्गाभ्यां रक्ष ऋषत्यवर्तिं हन्ति चक्षुषा। शृणोति भद्रं कर्णाभ्यां गवां यः पतिरघ्न्यः ॥ - अ. ९.४.१७
*ऊधस्ते भद्रे पर्जन्यो विद्युतस्ते स्तना वशे ॥ - अ. १०.१०.७
*सं हि सूर्येणागत समु सर्वेण चक्षुषा। वशा समुद्रमत्यख्यद्भद्रा ज्योतींषि बिभ्रती ॥ - अ. १०.१०.१४
*वर्षेण भूमिः पृथिवी वृतावृता सा नो दधातु भद्रया प्रिये धामनिधामनि ॥ (वशा) - अ. १२.१.५२
*भूमे मातर्नि धेहि मा भद्रया सुप्रतिष्ठितम्। संविदाना दिवा कवे श्रियां मा धेहि भूत्याम् ॥ - अ. १२.१.६३
*इमे जीवा वि मृतैराववृत्रन्नभूद्भद्रा देवहूतिर्नो अद्य। प्राञ्चो अगाम नृतये हसाय सुवीरासो विदथमा वदेम ॥ - अ. १२.२.२२
*पापाय वा भद्राय वा पुरुषायासुराय वा। यत्र कृणोष्योषधीर्यद्वा वर्षसि भद्रया यत्र जन्यमवीवृधः ॥ - अ. १३.७.१४(१३.४.४२)
*यत्र कृणोष्योषधीर्यद्वा वर्षसि भद्रया यत्र जन्यमवीवृधः - अ. १३.७.१५(१३.४.४३)
*इदमहं रुशन्तं ग्राभं तनूदूषिमपोहामि। यो भद्रो रोचनस्तमुदचामि ॥ - अ. १४.१.३८
*सुश्रुतौ कर्णौ भद्रश्रुतौ कर्णौ भद्रं श्लोकं श्रूयासम् ॥ - अ. १६.२.४
*उरूणसावसुतृपा उदुम्बलौ यमस्य दूतौ चरतो जनाँ अनु। तावस्मभ्यं दृशये सूर्याय पुनर्दातामसुमद्येह भद्रम् ॥ (पितृमेधः) - अ. १८.२.१३
*अभि त्वोर्णोमि पृथिव्या मातुर्वस्त्रेण भद्रया। जीवेषु भद्रं तन्मयि स्वधा पितृषु सा त्वयि ॥ - अ. १८.२.५२
*परा यात पितर आ च यातायं वो यज्ञो मधुना समक्तः। दत्तो अस्मभ्यं द्रविणेह भद्रं रयिं च नः सर्ववीरं दधात ॥ - अ. १८.३.१४
*अकर्म ते स्वपसो अभूम ऋतमवस्रन्नुषसो विभातीः। विश्वं तद्भद्रं यदवन्ति देवा बृहद्वदेम विदधे सुवीराः ॥ - अ. १८.३.२४
*सुहवमग्ने कृत्तिका रोहिणी चास्तु भद्रं मृगशिरः शमार्द्रा। पुनर्वसु सूनृता चारु पुष्यो भानुराश्लेषा अयनं मघा मे ॥ - अ. १९.७.२
*भद्रमिच्छन्त ऋषयः स्वर्विदस्तपो दीक्षामुपनिषेदुरग्रे। ततो राष्ट्रं बलमोजश्च जातं तदस्मै देवा उपसंनमन्तु ॥ - अ. १९.४१.१
*आञ्जनं पृथिव्या जातं भद्रं पुरुषजीवनम्। कृणोत्वप्रमायुकं रथजूतिमनागसम् ॥ - अ. १९.४४.३
*अरिष्टासस्त उर्वि तमस्वति रात्रि पारमशीमहि भद्रे पारमशीमहि ॥ - अ. १९.४७.२
*माश्वानां भद्रे तस्करो मा नृणां यातुधान्यः। - अ. १९.४७.७
*उशती रात्र्यनु सा भद्राभि तिष्ठते मित्र इव स्वधाभिः। (रात्रिः) - अ. १९.४९.२
*भद्रासि रात्रि चमसो न विष्टो विष्वङ् गोरूपं युवतिर्बिभर्षि। चक्षुष्मती मे उशती वपूंषि प्रति त्वं दिव्या न क्षाममुक्थाः ॥ - अ. १९.४९.८
*देवानां पत्नीनां गर्भ यमस्य कर यो भद्रः स्वप्न। स मम यः पापस्तद् द्विषते प्र हिण्मः। मा तृष्टा नामासि कृष्णशकुनेर्मुखम् ॥ - अ. १९.५७.३
*भद्रा हि नः प्रमतिरस्य संसद्यग्ने सख्ये मा रिषामा वयं तव ॥ - अ. २०.१३.३
*इन्द्रश्च मृडयाति नो न नः पश्चादघं नशत्। भद्रं भवाति नः पुरः ॥ - अ. २०.२०.६, २०.५७.९
*असंयत्तो व्रते ते क्षेति पुष्यति भद्रा शक्तिर्यजमानाय सुन्वते ॥ - अ. २०.२५.३
*आ स्मा रथं न पृतनासु तिष्ठ यं भद्रया सुमत्या चोदयासे ॥ - अ. २०.७६.८
*अभी वस्वः प्र जिहीते यवः पक्वः पथो बिलम्। जनः स भद्रमेधते राष्ट्रे राज्ञः परिक्षितः ॥ - अ. २०.१२७.१०
*उप नो न रमसि सूक्तेन वचसा वयं भद्रेण वचसा वयम्। - अ. २०.१२७.१४
*यद्भद्रस्य पुरुषस्य पुत्रो भवति दाधृषिः। तद्विप्रो अब्रवीदु तद्गन्धर्वः काम्यं वचः ॥ - अ. २०.१२८.३
*वशा दुग्धामिमाङ्गुरिं प्रसृजतोग्रतं परे। महान्वै भद्रो यभ मामद्ध्यौदनम् ॥ - अ. २०.१३६.१३
*महान्वै भद्रो बिल्वो महान्भद्र उदुम्बरः। महाँ अभिक्त बाधते महतः साधुखोदनम् ॥ - अ. २०.१३६.१५
*सूक्तवाक - शंयुवाक - कर्मारम्भः :- इषिता दैव्या होतारः इति। दैव्या वै एते होतारो - यत्परिधयः, अग्नयो हीष्टा दैव्या होतारः।- - - - भद्रवाच्याय इति। स्वयं वा एतस्मै देवा युक्ता भवन्ति - यत् साधु वदेयुः - यत्साधु कुर्युः - तस्मादाह - भद्रवाच्यायेति। - श.ब्रा. १.८.३.१०
*अथ प्रतिपद्यते(होता वक्तुमारभत)। इदं द्यावापृथिवी भद्रमभूदिति। भद्रं ह्यभूद् - यो यज्ञस्य संस्थामगन्। - श.ब्रा. १.९.१.४
*अग्निहोत्र ब्राह्मणम् :- ते होचुः - भद्रं वा इदमजीजनामहि - ये गामजीजनामहि यज्ञो ह्येवेयम् , नो ह्यृते गोर्यज्ञस्तायते। - श.ब्रा. २.२.४.१३
*चातुर्मास्य यागाः - ता उभावेव सादयित्वा स्रुचो व्यूहतः। स्रुचो व्युह्य, परिधीन् समज्य परिधिमभिपद्य आश्राव्याध्वर्युरेवाह - इषिता दैव्या होतारो भद्रवाच्याय प्रेषितो मानुषः सूक्तवाकाय - श.ब्रा. २.५.२.४२, २.६.१.४५
*दीक्षासंस्कारे वस्त्र परिधानम् : तां त्वा शिवां शग्मां परिदधे।- - - - -भद्रं वर्णं पुष्यन् इति। पापं वा एषोऽग्रे वर्णं पुष्यति - यममुमदीक्षितः - भद्रं वर्णं पुष्यन् इति। पापं वा एषोऽग्रे वर्णं पुष्यति - यममुमदीक्षितः अथात्र भद्रम्। - श.ब्रा. ३.१.२.२०
*सोमानयनम् : अथ वायचयति - भद्रो मेऽसि प्रच्यवस्व भुवस्पते - श.ब्रा. ३.३.४.१४
*उपरव विधिः :- सो ऽध्वर्युः पृच्छति - यजमान ! किमत्रेति ? भद्रमित्याह। तन्नौ सह - इत्युपांश्वध्वर्युः। - श.ब्रा. ३.५.४.१६
*अथापरयोर्दक्षिणे ऽध्वर्युर्भवति। पूर्वयोरुत्तरे यजमानः। स यजमानः पृच्छति - अध्वर्यो! किमत्रेति ? भद्रमित्याह। तत् मऽइति यजमानः। - - - -अथ यत् पृष्टो भद्रमिति प्रत्याह - कल्याणमेवैतन्मानुष्यै वाचं वदति। - श.ब्रा. ३.५.४.१७
*प्रायश्चित्तम् :- यं कं च लोकमगन्यज्ञः। ततो मे भद्रमभूत् - श.ब्रा. ४.५.७.८
*द्वादशाहस्य दशममहः - अथाध्वर्योः प्रतिहारः। अरात्सुरिमे यजमानाः - भद्रमेभ्योऽभूदिति। - श.ब्रा. ४.६.९.१९
*वाजपेये अंशुग्रहः :- उपर्युपर्येवाक्षमध्वर्युः सोमग्रहं धारयति, अधोऽधोऽक्षं नेष्टा सुराग्रहम्। सम्पृचौ स्थः, सं मा भद्रेण पृङ्क्तम् इति। नेत्पापमिति ब्रवावेति। तौ पुनर्विहरतः। विपृचौ स्थो, वि मा पाप्मना पृङ्क्तम् इति। तद् यथेषीकां मुञ्जाद्विवृहदेवमेनं सर्वस्मात्पाप्मनो विवृहतः। - श.ब्रा. ५.१.२.१८
*अथ शिक्यपाशं प्रतिमुञ्चते। विश्वा रूपाणि प्रतिमुञ्चते कविः इति। असौ वा ऽआदित्यः कविः। विश्वा रूपा शिक्यम्। प्रासावीद्भद्रं द्विपदे चतुष्पदे इति। उद्यन्वाऽएष द्विपदे चतुष्पदे च भद्रं प्रसौति। - श.ब्रा. ६.७.२.४
*अग्ने तमद्याश्वं न स्तोमैः क्रतुं न भद्रं हृदिस्पृशम्। ऋध्यामा त ओहैः। - श.ब्रा. ९.२.३.४१
*संपृचः स्थ सं मा भद्रेण पृङ्क्त इति पयोग्रहान् संमृशति। श्रियैवैनं यशसा समर्द्धयति। विपृचः स्थ वि मा पाप्मना पृङ्क्त इति सुराग्रहान्। पाप्मनैवैनं व्यावर्तयति। - श.ब्रा. १२.७.३.२२
*भूर् भुवस् स्वः। मधु करिष्यामि। मधु जनिष्यामि। मधु भविष्यति, भद्रंभद्रम्। इषम् ऊर्जम् इति। - - - भद्रंभद्रम् इति - यद्वै पुरुषस्य वित्तद् भद्रं गृहा भद्रं प्रजा भद्रं पशवो भद्रं। - जै.ब्रा. १.८८
*शततन्त्री वीणा : अथेन्द्रणतयाचेषीकया वेतसशाखया चोल्लिखति - मनो ज्योतिर् इति ; वाक् सत्यम् इति, मानो/मनो भद्र इति। तं प्रयच्छति। - जै.ब्रा. २.४५, २.४१८
*भद्रश्रेयसी भवतः। भद्रेण वै देवा भद्रा अभवञ् छ्रेयसा श्रियम् अगच्छन् - जै.ब्रा. २.१०३
*सुमन्मा वस्वी रन्ती सूनरी सुरूप वृषन्न् आगहि। इमौ भद्रौ धुर्याव् अभि ताव् इमा उपसर्पतः ॥ - जै.ब्रा. २.१४५
*महाव्रतम् : नेष्टैकविंशेन पुच्छेन भद्रेण स्तोष्यन् पत्नीनां मध्य उपविशत्य् - जै.ब्रा. २.४०६, २.४०८
*तस्मिन् भद्रं सामाध्यूहन्ति। प्रजा वै भद्रम्। पुच्छतो वै प्रजाः प्रजायन्ते। पुच्छत एवैतत् प्रजनने प्रजां दधते प्रजात्यै। तत्रापि श्रेयः कार्यम् आहुः। प्रजा वै भद्रं, प्रजायै या प्रजा सा श्रेयः।- जै.ब्रा. २.४१७
*ते देवा अकामयन्त वृञ्जीमह्य् असुराणां पशून् इति। त एतान् अंकान् अपश्यन्न् एता ऋचो - देवी जनित्र्य् अजीजनद् भद्रा जनित्र्य् अजीजनद् इति। एतद् अङ्कं रूपम् - जै.ब्रा. ३.१५७
*सर्वदैव गिरौ भद्रम् अपि पर्णेन जीवति। यदावसं न विन्दति तदाशा उपधावति ॥ - जै.ब्रा. ३.१६६
*तासु गोतमस्य भद्रम्। - - -तच् छ्रीर् वै भद्रम्। प्रजा वै भद्रम्। - जै.ब्रा. ३.१७२
*बृहत् : प्रतिभागं न दीधिमः अलर्षिरातिं वसुदाम् उप स्तुहि भद्रा इन्द्रस्य रातयः। यो अस्य कामं विधता न रोषति मनो दानाय चोदयन् ॥ - जै.ब्रा. ३.२६१
*दैवानीकम् : ते देवा अकामयन्ताग्निनैवानीकेनासुराञ् जयेमेति। त एतत् सामापश्यन्। भद्रो नो अग्निर् आहुत इत्य् अग्निम् एवानीकम् अकुरुत। भद्रा रातिम् सुभग भद्रो अध्वरः। भद्रा उत प्रशस्तयः। भद्रं मनः कृणुष्व वृत्रतूर्ये येना समत्सु सासहिः इति समत्स्व~ एवैनान् असहन्त - जै.ब्रा. ३.२७५
*सोमाय क्रीताय प्रोह्यमाणायानुब्रू३हीत्याहाध्वर्युः। भद्रादभि श्रेयः प्रेहीत्यन्वाह - ऐ.ब्रा. १.१३
*अयं वाव लोको भद्रस्तस्मादसावेव लोकः श्रेयान् स्वर्गमेव तल्लोकं यजमानं गमयति - ऐ.ब्रा. १.१३
*भद्रा शक्तिर्यजमानाय सुन्वत इत्याशिषमाशास्ते - ऐ.ब्रा. १.२९
*विश्वा रूपाणि प्रति मुञ्चते कविरिति विश्वरूपामन्वाह। भद्रा च कल्याणी च, भद्रा तत्सोमः, कल्याणी तत्पशवः। - ऐ.ब्रा. ५.२५
*देवी जनित्र्यजीजनद् भद्रा जनित्र्यजीजनत् - ऐ.ब्रा. ८.७
*अग्न्याधानम् -- देवा वै भद्राः सन्तो ऽग्निमाधित्सन्त तेषामनाहितोऽग्निरासीत्। - - - यः पुरा भद्रः सन्पापीयान्त्स्यात्। स पुनर्वस्वोरग्निमादधीत। पुनरेवैनं वामं वसूपावर्तते। भद्रो भवति। - तै.ब्रा. १.१.२.२
*इडा वै मानवी यज्ञानुकाशिन्यासीत्। साऽशृणोत्। असुरा अग्निमादधत इति। - - - त आहवनीयमग्र आदधत। अथ गार्हपत्यम्। अथान्वाहार्यपचनम्। साऽब्रवीत् प्रतीच्येषां श्रीरगात्। भद्रा भूत्वा पराभविष्यतीति। - तै.ब्रा. १.१.४.४
*साऽशृणोत्। देवा अग्निमादधत इति। तदगच्छत्। तेऽन्वाहार्यपचनम् अग्र आदधत। अथ गार्हपत्यम्। अथाऽऽहवनीयम्। साऽब्रवीत्। प्राच्येषां श्रीरगात्। भद्रा भूत्वा सुवर्गं लोकमेष्यन्ति। - - - प्रजां तु न विन्दते। - तै.ब्रा. १.१.४.६
*संपृचः स्थ सं मा भद्रेण पृङ्क्तेत्याह। अन्नं वै भद्रम्। अन्नाद्येनैवैनं संसृजति। अन्नस्य वा एतच्छमलम्। यत्सुरा। - - - - - -तैत्तिरीय ब्राह्मण १.३.३.६
*श्रोत्रेण भद्रमुत शृण्वन्ति सत्यम्। श्रोत्रेण वाचं बहुधोद्यमानाम्। - तै.ब्रा. २.५.१.३
*संपृचस्थ सं मा भद्रेण पृङ्क्त। विपृचस्थ वि मा पाप्मना पृङ्क्त। - तै.ब्रा. २.६.१.५
*सौत्रामणि - - शिरो मे श्रीः। - - - - जिह्वा मे भद्रम्। वाङ्महः। मनो मन्युः। स्वराड् भामः। मोदाः प्रमोदा अङ्गुलीरङ्गानि। - तै.ब्रा. २.६.५.४
*इषितश्च होतरसि भद्रवाच्याय प्रेषितो मानुषः सूक्तवाकाय सूक्ता ब्रूहि। - तै.ब्रा. २.६.१५.२, ३.६.१५.१
*ब्रह्मणस्पते त्वमस्य यन्ता। सूक्तस्य बोधि तनयं च जिन्व। विश्वं तद्भद्रं यदवन्ति देवाः। बृहद्वदेम विदथे सुवीराः। - तै.ब्रा. २.८.५.१
*पशोः सूक्ते वपाया पुरोनुवाक्या : सूर्यो देवीमुषसं रोचमाना मर्यः। न योषामभ्येति पश्चात्। यत्रा नरो देवयन्तो युगानि। वितन्वते प्रति भद्राय भद्रम् ॥ - तै.ब्रा.
*वपाया याज्या : भद्रा अश्वा हरितः सूर्यस्य। - - - - तै.ब्रा. २.८.७.१
*आ गावो अग्मन्नुत भद्रमक्रन् - तै.ब्रा. २.८.८.११
*अमूमिति नाम गृह्णाति। भद्रमेवाऽऽसां कर्माऽऽविष्करोति - तै.ब्रा. ३.२.३.७
*इषिता दैव्या होतार इत्याह इषितं हि कर्म क्रियते। भद्रवाच्याय प्रेषितो मानुषः सूक्तवाकाय सूक्ता ब्रूहीत्याह। आशिषमेवैतामाशास्ते - तै.ब्रा. ३.३.८.११
*भद्राय गृहपम्। श्रेयसे वित्तपम्। - तै.ब्रा. ३.४.९.१
*नर्माय भद्रवतीम्। - तै.ब्रा. ३.४.१५.१
*त्वं भद्रो असि क्रतुः। - तै.ब्रा. ३.५.६.१
*उद्यन्तमस्तं यन्तमादित्यमभिध्यायन्कुर्वन्ब्राह्मणो विद्वान्त्सकलं भद्रमश्नुतेऽसावादित्यो ब्रह्मेति - तै.आरण्यक् २.२.१
*भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवा भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः। स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवांसस्तनूभिर्व्यशेम देवहितं यदायुः ॥ - नृसिंह पूर्वतापिन्युपनिषद २.१५
*अथर्ववेद के उपनिषदों की शान्ति भद्रं कर्णेभिरिति - मुक्तिकोपनिषद १.२.५
*उग्रं वीरं महाविष्णुं ज्वलन्तं सर्वतोमुखम्। नृसिंहं भीषणं भद्रं मृत्युमृत्युं नमाम्यहम् ॥ - वज्रपञ्जरोपनिषद ३१२.११
*अधेनुं धेनुमित्येव ब्रूयात्भद्रमभद्रकम्। कपालं च भगालं स्यात्परमं मङ्गलं वदेत् ॥ - शिवोपनिषद ७.८१
*मेधा देवी जुषमाणा न आगाद्विश्वाची भद्रा सुमनस्यमाना। त्वया जुष्टा जुषमाणा दुरुक्तान् बृहद्वदेम विदथे सुवीराः ॥ - महानारायणोपनिषद २.४१/१६.४
*वामदेवादुदकम्। तस्मात्प्रतिष्ठा। तस्याः कृष्णवर्णा भद्रा। तद्गोमयेन भसितं जातम्। - बृहज्जाबालोपनिषद १.१
*अत्रा सखायः सख्यानि जानते भद्रैषां लक्ष्मीर्निहिताधि वाचि ॥ - नारायणपूर्वतापिन्युपनिषद ४.९
*या गौर्वरिष्ठा सहसोर्धरित्री वसुं वसुं वै वसुनीह भद्रा रेरीजयन्तो रजते रजते स्वाहा - पारमात्मिकोपनिषद १०.१
*अदितिर्ह्यजनिष्ट दक्ष या दुहिता तव। तां देवा अन्वजायन्त भद्रा अमृतबन्धवः ॥ - देव्युपनिषद १३
*नवानां चक्रा अधिनाथा स्योना भव भद्रा नव मुद्रा महीनाम् - त्रिपुरोपनिषद २
*भद्राय रघुवीराय दशास्यान्तकरूपिणे। रामभद्र महेष्वास रघुवीर नृपोत्तम ॥ - रामपूर्वतापिन्युपनिषद ४.६
*चन्द्राय नमो भद्राय नमः इत्यों - - - -रामोत्तरतापिन्युपनिषद १.२
*नमः प्रकृत्यै भद्रायै नियताः प्रणताः स्म ताम्। - देव्युपनिषद ८
*रायां पृतत्त्रे रयिमादधात्रे रायो बृहन्तं रयिमत्सुपुण्यं राराजिमन्तं रतये रमन्तं तं बिम्बवन्तं ककुदाय भद्रे स्वाहा। - पारमात्मिकोपनिषद ७.१०
*भद्रजाति विकट - हनुमान - लाङ्गूलोपनिषद २१३.१०, २१६.९
*द्वे वने स्तः कृष्णवनं भद्र वनं तयोरन्तर्द्वादश वनानि - गोपालोत्तरतापिन्युपनिषद २६(१३)
*सिद्धं पद्मं तथा सिंहं भद्रं चेति चतुष्टयम्। - योगतत्त्वोपनिषद २९
*भद्रासनं भवेदेतद्विषरोगविनाशनम् - जाबालदर्शनोपनिषद ३.७
*पर्यंकः स प्राणः तस्य भूतं च भविष्यच्च पूवौ पादौ श्रीश्चेरा चापरौ बृहद्रथन्तरे अनूच्ये भद्रयज्ञायज्ञीये शीर्षण्ये - कौषीतकि ब्राह्मणोपनिषद १.५