विष्णुधर्मोत्तर पुराणे १.२०२ आख्यानमस्ति यत् सिन्धुनद्याः द्वयोः कूलयोः शैलूषस्य गन्धर्वस्य राज्यमासीत्। भरतस्य मातुलं युधाजितं अयं न रोचते। अनेन कारणेन भरतः शैलूषेण गन्धर्वेण सह युद्धं करोति एवं तस्य राज्यध्वंसनं कृत्वा सिन्धोः द्वयोः कूलयोः स्वपुत्रयोः तक्ष एवं पुष्कलस्य राज्याभिषेकं करोति। मत्स्य ५१.८ एवं वायु २९.७ पुराणेषु उल्लेखमस्ति यत् भरताग्निः ब्रह्मौदनमस्ति। ब्रह्मौदनं किं भवति, अस्मिन् संदर्भे डा. दयानन्द भार्गवस्य विचारः एवमस्ति –
यज्ञ का अर्थ है-आदान-प्रदान। हम किसी से कुछ लें तो किसी को कुछ दें भी। जब हम लेते हैं तो हम अग्नि हैं, जब हम देते हैं तो हम सोम हैं। दोनों के मिश्रण से यज्ञ होता है। प्रश्न होता है कितना लें और कितना दें। उत्तर है कि अपना अस्तित्व बनाये रखने के लिए जितना आवश्यक है उतना लें, शेष बचा हुआ दूसरों को दें। अपनी आवश्यकता पूरी करने पर बच जाता है उसे वेद ने उच्छिष्ट कहा है। इसे यज्ञशेष भी कहा जाता है। आज की भाषा में इसे प्रसाद कहते हैं। अपने लिए जो आवश्यक है, ब्राह्मण ग्रंथ उसे ब्रह्मौदन कहते हैं, जो बच जाए उसे प्रवर्ग्य कहते हैं। एक का प्रवर्ग्य दूसरे का ब्रह्मौदन बने-यह अहिंसक जीवन शैली का मार्ग है। हम दूसरे का ब्रह्मौदन छीनें, यह हिंसक जीवन शैली है।
एक उदाहरण लें। पेड़ कार्बनडाइआक्साईड लेता है, वह उसका ब्रह्मौदन है, वह जो ऑक्सीजन छोड़ता है, यह उसका प्रवर्ग्य है। पेड़ का वह प्रवर्ग्य ऑक्सीजन हमारा ब्रह्मौदन बन जाता है और हमारे द्वारा छोड़ा गया कार्बनडाइआक्साईड पेड़ का ब्रह्मौदन बन जाता है। प्राकृतिक जीवन शैली का यही अहिंसक आधार है कि एक का प्रवर्ग्य दूसरा का ब्रह्मौदन बनता रहे और आदान-प्रदान रूप यज्ञ चलता रहे।
शैलूषस्य किमर्थं भवति, अस्मिन् संदर्भे ऋग्वेद १०.१२६ सूक्तं उल्लेखनीयमस्ति। अस्य सूक्तस्य ऋषिः शिलूष-पुत्रः कुल्मलबर्हिः अथवा वामदेवस्य पुत्रः अंहोमुक् अस्ति। देवता विश्वे देवाः सन्ति। अस्मिन् सूक्ते मित्र-वरुण-अर्यमा देवत्रयेभ्यः प्रार्थना अस्ति यत् ते द्वेषतः मोचनं कुर्वन्तु इत्यादि। भागवतपुराणस्य ११.२.४६ श्लोकमस्ति –
ईश्वरे तदधीनेषु बालिशेषु द्विषत्सु च।
प्रेम मैत्री कृपोपेक्षा यः करोति स मध्यमः।।
अर्थात् मध्यमस्य कोट्याः भक्तस्य लक्षणमयमस्ति यत् सः ईश्वरे, तस्य भक्तैः सह, बालिशेषु एवं द्विषत्सु सह क्रमशः प्रेम, मैत्री, कृपा एवं उपेक्षया सम्बन्धं स्थापितं करोति। ऋग्वेद १०.१२६ सूक्ते मित्र(मैत्री), वरुण(कृपा) एवं अर्यमा(द्वेषः) देवतानां उल्लेखमस्ति(न तमंहो न दुरितं देवासो अष्ट मर्त्यम् । सजोषसो यमर्यमा मित्रो नयन्ति वरुणो अति द्विषः ॥)। किन्तु प्रेम्णः देवस्य उल्लेखं नास्ति। प्रेम एव ब्रह्मौदनस्य सृष्टिं करिष्यति। प्रेम्णः सृष्टिः भरतस्य माध्यमेन भविष्यति, अयं प्रस्तावः।
ऋग्वेद १०.१२६ सूक्तस्य ऋषिः कुल्मल-बर्हिः अस्ति। कुल्मलस्य किं अर्थं अस्ति, अयं विचारणीयः। अथर्ववेदे उल्लेखमस्ति – जिह्वा ज्या कुल्मलं वाङ् - -- । अन्यत्र कुल्मलं पापमस्ति। कुल्मलस्य अन्य शब्दार्थानां हेतु शब्दकोशः द्रष्टव्यमस्ति।
विष्णुधर्मोत्तरे ३.१२१.५ निर्देशमस्ति यत् अयोध्यायां रामस्य अर्चना करणीयमस्ति एवं केकयदेशे भरतस्य। केकय शब्दस्य किमर्थं भवति। पुराणेषु उल्लेखं अस्ति यत् ऋषीणामाश्रमेषु मन्त्रध्वनिं श्रुत्वा मयूराः केका ध्वनिं कुर्वन्ति। केका अर्थात् कय-कय। कय-शब्दे। अयं ध्वनिः प्रतिध्वनिरस्ति। मनुष्यस्य जीवनं द्वि-तन्त्रयोः योगमस्ति – श्रुत्याः एवं स्मृत्याः। श्रुति अर्थात् ईश्वरीय वाण्याः श्रवणे कोपि रोधं नास्ति। लौकिक भाषायाम् – कोपि कार्यः आत्मनः आवाजानुसारेण एव भविष्यति। स्मृति अर्थात् इदानीं श्रुत्याः, ईश्वरवाण्याः श्रवणं सम्भवं नास्ति। कदाचित् कस्मिंश्चित् काले यः श्रुतमासीत्, तस्य सम्यक् संरक्षणेन एव, स्मृत्या एव, आर्ष पुरुषाणां कथनानुसारेण कार्यं करणीयमस्ति। रामायणे कैकेयी अयोध्यायां अपि भरतस्य राज्यं स्थापयितुं यत्नं करोति। किन्तु अन्ततः सफला न भवति। कारणं – अयोध्या श्रुत्याः स्थानं भवति। अष्टचक्रा नवद्वारा देवानां पूरयोध्या। स्मृत्याः स्तरे ईश्वरस्य कृपायाः ग्रहणं कठिनं भवति। अनेन कारणेन भरतस्य, भरणकस्य आवश्यकता भवति।
भरत मन्दिरम्
ऋषिकेश नगरे भरतसंज्ञकः मन्दिरमस्ति किन्तु अत्र पूजनीय देवता भगवान् हृषीकेशः अस्ति, न राम – भ्राता भरतः। अस्य रहस्यस्य व्याख्या एवंप्रकारेण कर्तुं शक्यन्ते। पद्मपुराणे ६.२४२.९४ उल्लेखमस्ति यत् राम-भ्राता भरतः पाञ्चजन्यस्य शंखस्य अवतारः अस्ति(शत्रुघ्नः चक्रस्य)। भगवद्गीतायां १.१५ उल्लेखमस्ति –
पाञ्चजन्यं हृषीकेशो देवदत्तं धनञ्जयः।
पौण्ड्रं दध्मौ महाशंखं भीमकर्मा वृकोदरः।।
पाञ्चजन्यस्य किमर्थं भवितुं शक्यते, अयं विचारणीयः। अस्माभिः कोपि हवं, अभीप्सा भवेत्, अस्य सफलीभवनाय अयं आवश्यकं अस्ति यत् अभीप्सायाः जननं देहस्य पञ्च धातुभ्यः – लोम, असृग्, मांस, अस्थि एवं मज्जातः युगपद् एव भवेत्(द्र. ऋ. ३.५३.१६)। हृषीकेश संज्ञकस्य विष्णोः विशेषता अस्ति यत् तस्य नियन्त्रणं स्वकृष्टिषु उपरि भवति। हृषीकाणि – इन्द्रियाणि। अतएव यदा गीतायां उल्लेखमस्ति यत् हृषीकेशेन पाञ्चजन्यस्य शङ्खस्य वादनमभवत्, अयं उचितमेव। ऋषिकेश नगरस्य भरतमन्दिरस्य विषये कथनमस्ति यत् अक्षयतृतीयां तिथौ यः देवस्य १०८ परिक्रमाः करोति, तस्य कामना सफलं भवति।
लेखनम् – ज्येष्ठ शुक्ल तृतीया, विक्रम संवत् २०७४(२८ मई, २०१७ई.)
In vedic literature, there is a two – way feed of energy – from sun to earth and from earth to sun. We are all familiar with energy feed from sun to earth. J.A. Gowan has proposed that the energy fed from sun compensates for lost symmetry of matter on the earth. But why and how should earth feed energy to sun or heaven or moon. It is stated that the black portion of moon is that part which has been fed by earth. So, this is a subject matter which requires further attention in future. We have to keep in mind that in vedic literature, it is well known that one should strive hard to feed gods in heaven by his oblations called ‘havi’. Now, regarding Bharata of puraanic literature, the question will be whether this Bharata feeds energy from sun to earth or from earth to sun? This can be both ways.
Puraanic literature mentions at least three names as fathers of Bharata. The first one is Dushyanta. The second is Rishabha and the third is Dasharatha. It seems from the analysis of names that there is similarity in these three names. Dushyanta is connected with satisfying all that which is creating ripples in us. These ripples can be of three kinds – of pious nature, of mixed nature and of bad nature. Only when one is able to satisfy these three types of ripples one is able to enter the realm of Bharata, the to – and – fro feeding. This fact is supported by visit of king Dushyanta in three types of forests before he meets divine girl Shakuntalaa. In the story when Bharata is son of Rishabha, the qualities of Rishabha have to be taken into account. Rishabha can provide 3 or 4 weapons for protection from our enemies. One is ash( of our previous deeds) to protect from enemies of bad nature. The second is a sword to protect from enemies of mixed nature. The third is an armor made of recitation of pious names of God to protect from enemies of pious nature. Rishabha also contains the seeds of why Bharata has been called the middle son of king Dasharatha. Risha root has been stated to mean to live into( ecstasy). When one lives in ecstasy, then the next step will be that his lower level will start getting it’s benefit. This has been shown as two sons Raama and Bharata of king Dasharatha.
Just like there is some sort of identity in three fathers of Bharata, in the same way the similarity in mothers should also exist. Bharata has three mothers – Shakuntalaa, Jayanti and Kaikeyi.
भरत
टिप्पणी : वैदिक और पौराणिक साहित्य में भरण के दो रूप हैं - देवों को भरना और मर्त्य प्रजा का भरण करना । देवों को भरने के तथ्य को देवों को हवि प्रदान करना कहा जा सकता है । इसे इस प्रकार भी समझा जा सकता है कि चन्द्रमा में जो कृष्ण भाग दिखाई देता है, वह पृथिवी द्वारा चन्द्रमा में भरा गया भाग है । इस भरण से हमारा परिचय कम ही है । और प्रश्न उठ सकता है कि मर्त्य स्तर से जो हवि देवों को प्रदान की जाएगी, वह देवताओं के किस काम की होगी, उससे कौन सा स्वार्थ सिद्ध होता होगा । यह एक अन्वेषणीय विषय है । श्री जे.ए.गोवान ने अपनी वैबसाईट में यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया है कि पृथिवी की जो गुरुत्वाकर्षण शक्ति है, वह सूर्य की किरणों को आकर्षित करके उनको अनन्त ब्रह्माण्ड में फैलने से रोकती है । इससे प्रकृति की अव्यवस्था में, एण्ट्रांपी में जो वृद्धि हो रही है, उस पर अंकुश लगता है । देव जिस प्रकार मर्त्य प्रजा का देव भाग द्वारा भरण करते हैं, उससे तो हम परिचित ही हैं । वैदिक और पौराणिक साहित्य के भरत का कार्य देव और मर्त्य, दोनों स्तरों पर भरण को सम्पादित करना है ।
दुष्यन्त
और
भरत
:
पुराणों
में
भरत
को
दुष्यन्त
का
पुत्र
कहा
गया
है
जबकि
ऐतरेय
ब्राह्मण
८.२३(भरतस्यैष
दौःषन्तेरग्निः साचीगुणे
चितः ।
यस्मिन्सहस्रं
ब्राह्मणा बद्वशो गा विभेजिरे
।।
अष्टासप्ततिं
भरतो दौःषन्तिर्यमुनामनु।
गङ्गायां
वृत्रघ्नेऽबध्नात्पञ्चपञ्चाशतं
हयान्।।)
और
शतपथ
ब्राह्मण
१३.५.४.११
(एतद्विष्णोः
क्रान्तम् तेन हैतेन भरतो
दौःषन्तिरीजे तेनेष्ट्वेमां
व्यष्टिम्व्यानशे येयं भरतानां
तदेतद्गाथयाभिगीतम्
अष्टासप्ततिं
भरतो दौःष्यन्तिर्यमुनामनु
गङ्गायां वृत्रघ्नेऽबध्नात्पञ्चपञ्चाशतं
हयानिति)
में
भरत
को
'दौ:षन्ति,
दु:षन्त
का
पुत्र
कहा
गया
है
।
दुष्यन्त
का
अर्थ
हो
सकता
है
दूषित
करने
वाला
और
दु:षन्त
का
अर्थ
हो
सकता
है
दु:
अर्थात्
दुःख
का
शमन
करने
वाला
।
भरत के दु:षन्त - पुत्र होने के संदर्भ में, ऋग्वेद २.४१.८(न यत्परो नान्तर आदधर्षद्वृषण्वसू । दुःशंसो मर्त्यो रिपुः ॥), ७.९४.१२(ताविद्दुःशंसं मर्त्यं दुर्विद्वांसं रक्षस्विनम् । आभोगं हन्मना हतमुदधिं हन्मना हतम् ॥) व ८.१८.१४(समित्तमघमश्नवद्दुःशंसं मर्त्यं रिपुम् । यो अस्मत्रा दुर्हणावाँ उप द्वयुः ॥) में दु:शंस को मर्त्य रिपु कहा गया है जिसका प्रतिस्थापन सुशंस द्वारा करना है (मा नो दुःशंसो अभिदिप्सुरीशत प्र सुशंसा मतिभिस्तारिषीमहि ॥- ऋग्वेद २.२३.१०) । दु:शंस शब्द को ऋग्वेद १०.३३.१ व २ में दु:शासु शब्द के आधार पर समझा जा सकता है । दु:शासु के संदर्भ में कहा गया है कि - 'नि बाधते अमतिर्नग्नता जसुर्वेर्न वेवीयते मति: ।' अर्थात् अमति रूपी नग्नता बाधा उत्पन्न करती है और मति वे: - पक्षी की भांति चलायमान होती है । दु:शासु शब्द को पुराणों में दु:शासन द्वारा समझा जा सकता है । पद्म पुराण ६.१९१ में गीता के १७वें अध्याय के माहात्म्य के संदर्भ में एक कथा दी गई है । एक राजा का दु:शासन नामक भृत्य था जो हाथी द्वारा मार दिए जाने पर दु:शासन नामक हाथी बना । एक बार वह हाथी बहुत रुग्ण हो गया । तब उस हाथी ने संकेत दिया कि गीता के १७वें अध्याय के श्रवण से उसे मुक्ति मिल जाएगी । ऐसा ही हुआ भी । गीता के १७वें अध्याय में श्रद्धा, भक्ति आदि को ३ भागों में विभाजित किया गया है - सात्त्विक, राजसिक और तामसिक । इसका अर्थ होगा कि वास्तविक जीवन में यदि हम किसी राजसिक दोष का उपचार सात्त्विक उपायों से करना चाहें तो वह सफल नहीं होगा । वह दु:शासन कहलाएगा । यही तथ्य भरत - पिता दुष्यन्त के संदर्भ में भी लागू होती है । जैसा कि श्रीमती राधा ने शकुन्तला पर टिप्पणी के संदर्भ में ध्यान दिलाया है, राजा दुष्यन्त ने शकुन्तला तक पहुंचने के लिए तीन वनों को पार किया । पहले वन में उसने हिंसक जन्तुओं का वध किया । दूसरा वन मरुस्थल था और तीसरा वन हरा - भरा कण्व ऋषि का आश्रम था । अतः शकुन्तला की प्राप्ति और शकुन्तला से भरत का जन्म सात्त्विक स्तर पर होता है । अन्य दो स्तरों पर वह शकुन्तला को भूले रहता है । यह उल्लेखनीय है कि दुष्यन्त इलिन व रथन्तरी का पुत्र है । रथन्तरी का अर्थ होता है वह पृथिवी जो अपना भाग देवों में स्थापित करने में समर्थ होती है ।
अथर्ववेद में कईं सूक्तों के ऋषि के रूप में शन्ताति - शं की तति अर्थात् विस्तार करने वाला - का उल्लेख हुआ है । यह शन्ताति भी दु:षन्त के तुल्य हो सकता है ।
भरत व ऋषभ : भागवत पुराण के पांचवें स्कन्ध में भरत को ऋषभ का पुत्र और नाभि का पौत्र कहा गया है । भरत को समझने के लिए ऋषभ को समझना महत्त्वपूर्ण होगा । स्कन्द पुराण ३.३.१० तथा शिव पुराण ३.४ में ऋषभ योगी की एक कथा दी गई है जिसमें पिंगला वेश्या और उसका पति मन्दार ब्राह्मण ऋषभ योगी की सेवा करते हैं जिससे पिंगला अगले जन्म में रानी बनती है और उसका पति उसका पुत्र । लेकिन पूर्व जन्म के पाप से वह कुष्ठग्रस्त होते हैं । कालान्तर में भद्रायु नामक इस पुत्र का निधन हो जाता है और वह ऋषभ योगी की कृपा से पुनः जीवित होता है । ऋषभ योगी उसे चार दिव्य वस्तुएं प्रदान करता है - शंख, खड्ग, कवच और भस्म जिससे वह अपने शत्रुओं को परास्त करता है । इस कथा में भस्म को तामसिक शत्रुओं को नाश करने वाले अस्त्र के रूप में लिया जा सकता है जबकि खड्ग व कवच को क्रमशः राजसिक और सात्त्विक शत्रुओं का नियन्त्रण करने वाले अस्त्रों के रूप में । अतः यह कहा जा सकता है कि भरत के दोनों पिताओं - ऋषभ और दु:षन्ति में साम्य है । ऋग्वेद १.९६.१२ में भरत को ऊर्ज - पुत्र कहा गया है -
तमीळत
प्रथमं यज्ञसाधं विश
आरीराहुतमृञ्जसानम् ।
ऊर्जः
पुत्रं भरतं सृप्रदानुं देवा
अग्निं धारयन्द्रविणोदाम्
॥३॥
डा. फतहसिंह के अनुसार ऊर्ज वह ऊर्जा है जो पृथिवी के गुरुत्वाकर्षण से विपरीत दिशा में गति करती है ।
ऋषभ के संदर्भ में संगीत के ऋषभ स्वर का उल्लेख भी उपयुक्त होगा । भरतकोश ( सम्पादक - रामकृष्ण कवि, प्रकाशक - मुन्शीराम मनोहरलाल, दिल्ली) में जगदेक: को उद्धृत करते हुए निम्नलिखित श्लोक दिया गया है -
तिस्रो धमन्यो वर्धन्यो मज्जाया नाभिमाश्रिता: । तस्माद्धात्वाश्रितत्वेन ऋषभस्त्रिश्रुतिर्भवेत् ।।
ऋषभ स्वर का स्थान शाकद्वीप कहा गया है । इससे संकेत मिलता है कि हृदय की धमनियों और नाभि की मज्जा के किसी प्रकार मिलन से ऋषभ स्वर का जन्म होता है ।
भागवत पुराण, नारद पुराण आदि में भरत के ब्राह्मण रूप का भी चित्रण किया गया है जिसका सम्यक उपयोग न होने से वह जड स्थिति में पडा रहता है । इस कथा में राजा रहूगण कौन हो सकता है? इसका संकेत ऋग्वेद के सूक्तों से मिलता है(द्र. रहूगण शब्द पर टिप्पणी) । ऋग्वेद ९.३७ – ९.३८ सूक्त आङ्गिरस अर्थात् अङ्गिरा/अङ्गिरस कुल में उत्पन्न रहूगण ऋषि के हैं । ऋग्वेद १.७३ - ९४ सूक्त रहूगण के पुत्र गौतम ऋषि के हैं । इससे संकेत मिलता है कि रहूगण अवस्था अङ्गिरस कुल की कोई अवस्था है । जैसा कि अङ्गिरस शब्द की टिप्पणी में कहा जा चुका है, आध्यात्मिक प्रगति की दो अवस्थाएं हैं - आदित्य और अङ्गिरस । आदित्य तीव्र गति से प्रगति करने वाले हैं । यह देवों का मार्ग है । अङ्गिरस मन्थर गति से प्रगति करने वाले हैं । यह मनुष्यों का मार्ग है । फिर रहूगण से गौतम - गौ के सर्वोच्च रूप का उत्पन्न होना कहा गया है । इससे संकेत मिलता है कि रहूगण अवस्था किसी प्रकार से गौ से भी सम्बन्धित है । भरत के संदर्भ में सार्वत्रिक रूप से यह उल्लेख मिलता है कि उसने अश्वमेध यज्ञ करके इन्द्र हेतु यज्ञीय अश्वों का बन्धन किया । यह कहा जा सकता है कि यह तो भरत का राजसिक रूप है जिसके द्वारा वह देवों को हवि प्रदान करता है । ब्राह्मण रूप में वह मर्त्य स्तर की प्रजा को शिक्षित करता है । अङ्गिरसों को दक्षिणा के रूप में अश्व नहीं दिया जा सकता, वह अश्व को नहीं संभाल सकते । उन्हें तो गौ ही दी जाती है । रहूगण शब्द के बारे में अनुमान लगाया जा सकता है कि या तो यह रथ के रंहण पर आधारित है( जब रथ राजमार्ग पर ठीक प्रकार से नहीं चलता, तो उसे रथ का रंहण कहते हैं?), अथवा यह शब्द रुह, आरोहण पर आधारित है ।
राम व भरत : रामायण में राम और भरत के जिस सम्बन्ध का व्याख्यान है, वह वैदिक साहित्य में प्रत्यक्ष रूप में उपलब्ध नहीं होता । लेकिन पुराणों के ऋषभ और भरत के सम्बन्ध का उपयोग राम और भरत के सम्बन्ध की व्याख्या के लिए भी किया जा सकता है । ब्रह्माण्ड पुराण १.२.१९.१२९ में वर्ष शब्द की निरुक्ति के संदर्भ में कहा गया है कि ऋष धातु रमणे अर्थ में है और वृष धातु रति या शक्ति के प्रबन्धन अर्थ में । यदि ऋष धातु रमणे अर्थ में है तो यह सीधे राम की ओर संकेत करती है । समाधि अवस्था में रमण और फिर समाधि से व्युत्थान की अवस्था में चेतना के निचले स्तरों का भरण । राम दशरथ का ज्येष्ठ पुत्र है और भरत मध्यम ।
भरत और ब्रह्मौदन : पुराणों में कुछ स्थानों पर भरत को ब्रह्मौदन अग्नि का रूप कहा गया है । गोपथ ब्राह्मण में वृष के दो शीर्ष कहे गए हैं - प्रवर्ग्य और ब्रह्मौदन । यह दोनों ही उदान प्राण के रूप कहे जा सकते हैं । उदान प्राण का अर्थ होगा वह ऊर्जा जो पृथिवी द्वारा द्युलोक में स्थापित की गई है । प्रवर्ग्य और ब्रह्मौदन में क्या अन्तर हो सकता है, इसके बारे में अनुमान लगाया जा सकता है कि प्रवर्ग्य उदान का वह भाग है जिसका सम्बन्ध द्युलोक में स्थापित होने के पश्चात् पृथिवी से छिन्न हो जाता है । इसके विपरीत, ब्रह्मौदन का सम्बन्ध पृथिवी से बना रहता है । दूसरे शब्दों में, यह समाधि की ओर प्रस्थान और व्युत्थान की प्रक्रिया हो सकती है । अथर्ववेद ११.१ तथा ११.३ सूक्त ब्रह्मौदन देवता के हैं । इन सूक्तों में प्रश्न उठाया गया है कि ब्रह्मौदन की ऊर्जा को देह के विभिन्न अंग किस देवता के माध्यम से ग्रहण करें । यदि सामान्य स्तर पर ब्रह्मौदन की ऊर्जा को ग्रहण करने का प्रयास किया जाएगा तो वह अङ्ग नष्ट हो जाएगा । अतः जिस अंग का जो देवता है, उसका आह्वान करके ही ब्रह्मौदन की ऊर्जा को ग्रहण किया जाता है । लगता है कि भरत के संदर्भ में ब्राह्मण ग्रन्थों व पुराणों में जो अश्वमेधों के उल्लेख मिलते हैं, उनका सम्बन्ध इसी ब्रह्मौदन के भरण से है । यह उल्लेखनीय है कि भरत के संदर्भ में दो प्रकार के अश्वमेधों का उल्लेख मिलता है - ५५ अश्वमेध गङ्गा के तटों पर सम्पन्न किए गए और ७८ यमुना के तटों पर । निहितार्थ अन्वेषणीय है ।
पुराणों में भरत को विष्णु के शंख का अवतार कहा गया है । ऐसा प्रतीत होता है कि शंख का अर्थ शंस है जिसका मूल भरत - पिता दु:शंस/दुष्यन्त/दु:षन्त में छिपा है ।
जिस प्रकार भरत के पिताओं दुष्यन्त, ऋषभ व दशरथ में साम्य है, ऐसा ही साम्य क्या माताओं में भी उपलब्ध है, यह अन्वेषणीय है । ऋषभ पिता के संदर्भ में भरत की माता जयन्ती है, वह प्रकृति जहां द्यूत विद्यमान है लेकिन हार नहीं है, जीत है । दुष्यन्त पिता के संदर्भ में भरत की माता शकुन्तला है । शकुन की स्थिति भी प्रकृति की द्यूत स्थिति में होती है । शकुन भारी अव्यवस्था के बीच व्यवस्था की अल्पकालिक स्थिति उत्पन्न होने से प्रकट होते हैं । दशरथ पिता के संदर्भ में भरत की माता कैकेयी है जिसका जन्म केकय देश में हुआ है । जैसा कि डा. लक्ष्मीनारायण धूत ने कैकेयी की टिप्पणी में स्पष्ट किया है, केकय की एक निरुक्ति कय - कय - शब्दे के आधार पर की जा सकती है । अथवा केका शब्द को मयूर के शब्द के आधार पर लिया जा सकता है । पुराणों में कथन आता है कि ऋषियों के आश्रम में मयूर केका शब्द करते हैं । केका से अभिप्राय प्रतिध्वनि से हो सकता है क्योंकि मयूर द्वारा ध्वनि सुनकर उसकी प्रतिध्वनि करना सर्वविदित है । अतः जब मर्त्य स्तर पर श्रुति के स्तर की प्रतिध्वनि होने लगे, तब केकय देश उत्पन्न होता है । पहले जन्म में कैकेयी कलहा थी जिसे पुण्यदान मिलने से इस जन्म में वह कैकेयी रूप में पुण्यदाता की पत्नी के रूप में उत्पन्न हुई । पुराणों(विष्णुधर्मोत्तर ३.१२१.५) में निर्देश है कि केकय देश में भरत की आराधना करे । दूसरी ओर, अयोध्या में भरत को प्रतिष्ठित करने का प्रयत्न किया गया लेकिन वह असफल ही रहा । अयोध्या में राम की प्रतिष्ठा अपेक्षित है क्योंकि, अथर्ववेद १०.२.३१ के शब्दों में - 'अष्टचक्रा नवद्वारा देवानां पूरयोध्या'
भरत
-
पुत्र
:
सार्वत्रिक
रूप
से,
दशरथ
-
पुत्र
भरत
के
२
पुत्रों
का
उल्लेख
आता
है
-
तक्ष
व
पुष्कल
।
लेकिन
भागवत
पुराण
में
ऋषभ
-
पुत्र
भरत
द्वारा
पञ्चजनी
के
गर्भ
से
५
पुत्र
उत्पन्न
करने
का
उल्लेख
आता
है
-
सुमति,
राष्ट्रभृत्,
सुदर्शन,
आवरण,
धूम्रकेतु
।
इनमें
से
केवल
सुमति
के
वंश
का
विस्तार
दिया
गया
है
जिसमें
सोमयाग
के
ऋत्विजों
जैसे
उद्गाता,
प्रस्तोता
आदि
नाम
भी
सम्मिलित
हैं
।
ऋग्वेद
की
कईं
ऋचाओं
जैसे
१.१३६.१,
२.२४.९,
२.२५.१३,
८.४६.१९
आदि
में
मति
के
भरण
की
प्रार्थना
की
गई
है
।
ऋग्वेद
१०.३१.६
में
सुमति
के
भरण
की
प्रार्थना
की
गई
है
।
ऋग्वेद
२.३६.२(आसद्या
बर्हिर्भरतस्य सूनवः पोत्रादा
सोमं पिबता दिवो नरः ॥)
तथा
३.५३.२४(इम
इन्द्र भरतस्य पुत्रा अपपित्वं
चिकितुर्न प्रपित्वम्
।
हिन्वन्त्यश्वमरणं
न नित्यं ज्यावाजं परि णयन्त्याजौ
॥)
में
मरुतों
को
भरत
के
पुत्र
कहा
गया
है
।
वैदिक निघण्टु में भरता: शब्द का वर्गीकरण ऋत्विज नामों में किया गया है ।
प्र नू स मर्तः शवसा जनाँ अति तस्थौ व ऊती मरुतो यमावत।
अर्वद्भिर्वाजं भरते धना नृभिरापृच्छ्यं क्रतुमा क्षेति पुष्यति॥ १.०६४.१३
तमीळत
प्रथमं यज्ञसाधं विश
आरीराहुतमृञ्जसानम् ।
ऊर्जः
पुत्रं भरतं सृप्रदानुं देवा
अग्निं धारयन्द्रविणोदाम्
॥१.९६.३॥
अव त्मना भरते केतवेदा अव त्मना भरते फेनमुदन्।
क्षीरेण स्नातः कुयवस्य योषे हते ते स्यातां प्रवणे शिफायाः॥ १.१०४.०३
अर्चद्वृषा वृषभिः स्वेदुहव्यैर्मृगो नाश्नो अति यज्जुगुर्यात्।
प्र मन्दयुर्मनां गूर्त होता भरते मर्यो मिथुना यजत्रः॥ १.१७३.०२
अध्वर्यवो भरतेन्द्राय सोममामत्रेभिः सिञ्चता मद्यमन्धः।
कामी हि वीरः सदमस्य पीतिं जुहोत वृष्णे तदिदेष वष्टि॥ २.०१४.०१
अध्वर्यवो यो अपो वव्रिवांसं वृत्रं जघानाशन्येव वृक्षम्।
तस्मा एतं भरत तद्वशायँ एष इन्द्रो अर्हति पीतिमस्य॥ २.०१४.०२
अध्वर्यवो यन्नरः कामयाध्वे श्रुष्टी वहन्तो नशथा तदिन्द्रे।
गभस्तिपूतं भरत श्रुतायेन्द्राय सोमं यज्यवो जुहोत॥ २.०१४.०८
स संनयः स विनयः पुरोहितः स सुष्टुतः स युधि ब्रह्मणस्पतिः।
चाक्ष्मो यद्वाजं भरते मती धनादित्सूर्यस्तपति तप्यतुर्वृथा॥ २.०२४.०९
उताशिष्ठा अनु शृण्वन्ति वह्नयः सभेयो विप्रो भरते मती धना।
वीळुद्वेषा अनु वश ऋणमाददिः स ह वाजी समिथे ब्रह्मणस्पतिः॥ २.०२४.१३
स इज्जनेन स विशा स जन्मना स पुत्रैर्वाजं भरते धना नृभिः।
देवानां यः पितरमाविवासति श्रद्धामना हविषा ब्रह्मणस्पतिम्॥ २.०२६.०३
मन्दस्व होत्रादनु जोषमन्धसोऽध्वर्यवः स पूर्णां वष्ट्यासिचम्।
तस्मा एतं भरत तद्वशो ददिर्होत्रात्सोमं द्रविणोदः पिब ऋतुभिः॥ २.०३७.०१
यदङ्ग त्वा भरताः संतरेयुर्गव्यन्ग्राम इषित इन्द्रजूतः।
अर्षादह प्रसवः सर्गतक्त आ वो वृणे सुमतिं यज्ञियानाम्॥ ३.०३३.११
प्रति धाना भरत तूयमस्मै पुरोळाशं वीरतमाय नृणाम्।
दिवेदिवे सदृशीरिन्द्र तुभ्यं वर्धन्तु त्वा सोमपेयाय धृष्णो॥ ३.०५२.०८
इम इन्द्र भरतस्य पुत्रा अपपित्वं चिकितुर्न प्रपित्वम्।
हिन्वन्त्यश्वमरणं न नित्यं ज्यावाजं परि णयन्त्याजौ॥ ३.०५३.२४
जनस्य गोपा अजनिष्ट जागृविरग्निः सुदक्षः सुविताय नव्यसे।
घृतप्रतीको बृहता दिविस्पृशा द्युमद्वि भाति भरतेभ्यः शुचिः॥ ५.०११.०१
को अस्य शुष्मं तविषीं वरात एको धना भरते अप्रतीतः।
इमे चिदस्य ज्रयसो नु देवी इन्द्रस्यौजसो भियसा जिहाते॥ ५.०३२.०९
अध्वर्यवश्चकृवांसो मधूनि प्र वायवे भरत चारु शुक्रम्।
होतेव नः प्रथमः पाह्यस्य देव मध्वो ररिमा ते मदाय॥ ५.०४३.०३
प्रप्रायमग्निर्भरतस्य शृण्वे वि यत्सूर्यो न रोचते बृहद्भाः।
अभि यः पूरुं पृतनासु तस्थौ द्युतानो दैव्यो अतिथिः शुशोच॥ ७.००८.०४
गृभीतं ते मन इन्द्र द्विबर्हाः सुतः सोमः परिषिक्ता मधूनि।
विसृष्टधेना भरते सुवृक्तिरियमिन्द्रं जोहुवती मनीषा॥ ७.०२४.०२
प्र सु स्तोमं भरत वाजयन्त इन्द्राय सत्यं यदि सत्यमस्ति।
नेन्द्रो अस्तीति नेम उ त्व आह क ईं ददर्श कमभि ष्टवाम॥ ८.१००.०३
परि यत्कविः काव्या भरते शूरो न रथो भुवनानि विश्वा।
देवेषु यशो मर्ताय भूषन्दक्षाय रायः पुरुभूषु नव्यः॥ ९.०९४.०३
युवं कवी ष्ठः पर्यश्विना रथं विशो न कुत्सो जरितुर्नशायथः।
युवोर्ह मक्षा पर्यश्विना मध्वासा भरत निष्कृतं न योषणा॥ १०.०४०.०६
प्र जिह्वया भरते वेपो अग्निः प्र वयुनानि चेतसा पृथिव्याः।
तमायवः शुचयन्तं पावकं मन्द्रं होतारं दधिरे यजिष्ठम्॥ १०.०४६.०८
ऋजीत्येनी रुशती महित्वा परि ज्रयांसि भरते रजांसि।
अदब्धा सिन्धुरपसामपस्तमाश्वा न चित्रा वपुषीव दर्शता॥ १०.०७५.०७
अप हत रक्षसो भङ्गुरावतः स्कभायत निर्ऋतिं सेधतामतिम्।
आ नो रयिं सर्ववीरं सुनोतन देवाव्यं भरत श्लोकमद्रयः॥ १०.०७६.०४
भराय सु भरत भागमृत्वियं प्र वायवे शुचिपे क्रन्ददिष्टये।
गौरस्य यः पयसः पीतिमानश आ सर्वतातिमदितिं वृणीमहे॥ १०.१००.०२
स इन्नु रायः सुभृतस्य चाकनन्मदं यो अस्य रंह्यं चिकेतति।
त्वावृधो मघवन्दाश्वध्वरो मक्षू स वाजं भरते धना नृभिः॥ १०.१४७.०४
सरस्वतीवान्भारतीवानिति वागेव सरस्वती प्राणो भरतः परिवाप – ऐ २.२४
तदेतदृषिः पश्यन्नभ्यनूवाच नियुत्वाँ इन्द्र सारथिरिति तस्माद्धाप्येतर्हि भरताः सत्वनां वित्तिम्प्रयन्ति - ऐ.ब्रा. २.२५
तस्माद्धेदम्भरतानाम्पशवः सायंगोष्ठाः सन्तो मध्यंदिने संगविनीमायन्ति - ऐ.ब्रा. ३.१८
एतेन ह वा ऐन्द्रेण महाभिषेकेण दीर्घतमा मामतेयो भरतं दौःषन्तिमभिषिषेच तस्मादु भरतो दौःषन्तिः समन्तं सर्वतः पृथिवीं जयन्परीयायाश्वैरु च मेध्यैरीजे तदप्येते श्लोका अभिगीताः --हिरण्येन परीवृतान्कृष्णाञ्छुक्लदतो मृगान्। मष्णारे भरतोऽददाच्छतम्बद्वानि सप्त च ।। भरतस्यैष दौःषन्तेरग्निः साचीगुणे चितः । यस्मिन्सहस्रं ब्राह्मणा बद्वशो गा विभेजिरे ।। अष्टासप्ततिं भरतो दौःषन्तिर्यमुनामनु। गङ्गायां वृत्रघ्नेऽबध्नात्पञ्चपञ्चाशतं हयान्।। त्रयस्त्रिंशच्छतं राजाश्वान्बद्ध्वाय मेध्यान्। दौःषन्तिरत्यगाद्राज्ञोऽमायां मायवत्तरः।। महाकर्म भरतस्य न पूर्वे नापरे जनाः । दिवं मर्त्य इव हस्ताभ्यां नोदापुः पञ्च मानवा इति।ऐ.ब्रा. ८.२३
अग्ने महान् असि ब्राह्मण भारत इति । अग्निर्वै भरतः स वै देवेभ्यो हव्यं भरति – कौ ३.२
अग्ने महां असि ब्राह्मण भारतेति । ब्रह्म ह्यग्निस्तस्मादाह ब्राह्मणेति भारतेत्येष हि देवेभ्यो हव्यं भरति तस्माद्भरतोऽग्निरित्याहुरेष उ वा इमाः प्रजाः प्राणो भूत्वा बिभर्ति तस्माद्वेवाह भारतेति -माश १.४.२.२
मनुष्वद्भरतवदिति ।...भरतवदिति । एष हि देवेभ्यो हव्यं भरति तस्माद्भरतोऽग्निरित्याहुरेष उ वा इमाः प्रजाः प्राणो भूत्वा बिभर्ति तस्माद्वेवाह भरतवदिति - माश १.५.१.८
अथ कार्तवेशम्। त्रेधा भरतेषु राष्ट्रम् आसीत् - वैतहव्येषु तृतीयं, मित्रवत्सु तृतीयं, कृतवेशे तृतीयम्। सो ऽकामयत कृतवेशो - ह त्व् इमे द्वे राष्ट्रे एकधा राष्ट्रं स्याद् इति। स एतद् द्विनिधनं सामापश्यत्। तेनास्तुत। तेनेमे द्वे राष्ट्रे ह त्वैकधा राष्ट्रम् अभवत्। तद् एतच् छ्रीर् भ्रातृव्यहा साम। अश्नुते श्रियं हन्ति द्विषन्तं भ्रातृव्यं य एवं वेद। यद् उ कृतवेशो ऽपश्यत् तस्मात् कार्तवेशम् इत्य् आख्यायते।- जै ३.१९६
प्र प्रायमग्निर्भरतस्य शृण्व इति । प्रजापतिर्वै भरतः स हीदं सर्वं बिभर्ति – माश ६.८.१.१४
एतद्विष्णोः क्रान्तम् तेन हैतेन भरतो दौःषन्तिरीजे तेनेष्ट्वेमां व्यष्टिं व्यानशे येयं भरतानां तदेतद्गाथयाभिगीतम् अष्टासप्ततिं भरतो दौःष्यन्तिर्यमुनामनु गङ्गायां वृत्रघ्नेऽबध्नात्पञ्चपञ्चाशतं हयानिति - माश १३.५.४.११
अथ तृतीयया शकुन्तला नाडपित्यप्सरा भरतं दधे परः सहस्रानिन्द्रायाश्वान्मेधान्य आहरद्विजित्य पृथिवीं सर्वामिति – माश १३.५.४.१३
तदेतद्गाथयाभिगीतम् शतानीकः समन्तासु मेध्यं सात्राजितो हयम्। आदत्त यज्ञं काशीनां भरतः सत्वतामिवेति – माश १३.५.४.२१
महदद्य भरतानां न पूर्वे नापरे जनाः। दिवं मर्त्यैव पक्षाभ्यां नोदापुः सप्त मानवा इति - १३.५.४.२३
एष वो भरता राजा सोमो ऽस्माकम् ब्राह्मणानाꣳ राजा - तैसं. १.८.१०.२
(एषः- यजमानः, भरता - राजन्यवैश्यादयः)
ऋषयो वा इन्द्रं प्रत्यक्षं नापश्यन् स वसिष्ठोऽकामयत कथमिन्द्रं प्रत्यक्षं पश्येयमिति स एतन्निहवमपश्यत् ततो वै स इन्द्रं प्रत्यक्षमपश्यत्, स एनमब्रवीद्ब्राह्मणं ते वक्ष्यामि यथा त्वत्पुरोहिता भरताः प्रजनिष्यन्तेऽथ मान्येभ्य ऋषिभ्यो मा प्रवोच इति तस्मा एतान् स्तोमभागानब्रवीत् ततो वै वसिष्ठपुरोहिता भरताः प्राजायन्त सेन्द्रं वा एतत् साम यदेतत् साम भवति सेन्द्रत्वाय - तां १५.५.२४