भीम

      शिवस्य ये नवसंख्याकाः नामानि सन्ति, तेषु अष्टमः भीमः अस्ति । तस्य स्थानः आकाशः अस्ति(वायुपुराणम् २७.५४)। भीमतः पूर्वं उग्रः अस्ति यस्य स्थानं वायुः अस्ति (ब्रह्माण्डपुराणम् १.२.१०.१४)। किन्तु अन्येषु स्थलेषु सार्वत्रिकरूपेण भीमः वायोः अवतारः अस्ति, अयं कथनं उपलब्धः वर्तते। तीर्थानांवर्णने अपि भीमतीर्थस्य वर्गीकरणं वायुतीर्थेषु अस्ति (स्कन्दपुराणम् ७.१.१०.१०)। अस्य द्वैधस्य व्याख्या भविष्ये अपेक्षिता अस्ति।

      शतपथब्राह्मणे १३.५.४. अश्वमेधप्रकरणमस्ति। अत्र जनमेजयः, भीमसेनः, उग्रसेनः एवं श्रुतसेनः चत्वारः पारिक्षिताः संज्ञकाः भ्रातरः सन्ति। तेषु जनमेजयः अश्वमेधयागं करोति, भीमसेनः ज्योतिरतिरात्रं, उग्रसेनः गौअतिरात्रं, श्रुतसेनः आयुरतिरात्रम्। अन्यत्र कथनमस्ति यत् ज्योतिः गोषु वीर्यं स्थापितं करोति येन आयोः जन्म भवति। एवंप्रकारेण भीमसेनस्य कृत्यं तमसि ज्योत्स्नायाः स्थापनमस्ति, अयं प्रतीयते। एषः तमः अज्ञानस्य अथवा अन्यप्रकारस्य भवितुं शक्यते। वायुपुराणे २७.५४ उल्लेखमस्ति यत् शिवस्य यः भीमसंज्ञकः तनुरस्ति, तस्य दिशः पत्न्यः सन्ति, स्वर्गः सन्तानः। यः उग्रसेनः पारिक्षितः अस्ति, सः गौअतिरात्रं सम्पादयति। वायुपुराणानुसारेण २७.५४ शिवस्य यः उग्रः तनुरस्ति, तस्य दीक्षा पत्नीरस्ति। यथा उग्रस्य टिप्पण्यां कथितमस्ति, उग्रस्य पराकाष्ठा श्रद्धा अस्ति। अतएव, दीक्षायाः आरम्भः तर्कतः भवति एवं श्रद्धायां समाप्यते। अत्र पारिक्षिताः शब्दः ध्यातव्यमस्ति। परि-क्षिताः। या ऊर्जा नाभ्यां परितः क्षिता अस्ति, तस्याः सम्भरणं अत्र कल्पितमस्ति।

      श्रुतसेनसंज्ञकः यः चतुर्थः पारिक्षितः अस्ति, यः आयुरतिरात्रस्य सम्पादनं करोति, तस्य विषये न किमपि कथनं अस्ति। अनुमानमस्ति यत् श्रुतस्य प्रत्यक्षरूपम् शृतं अस्ति, पक्वम्। पुराणेषु उर्वशीपुरूरवयोः आख्यानस्य सार्वत्रिकवर्णनमस्ति। उर्वशीपुरूरवसोः संगमेन आयुपुत्रस्य प्राप्तिः भवति। अतएव, अयं संभवमस्ति यत् भीमसेनस्य प्रकृत्याः साम्यं पुरूरवेण सह अस्ति, उग्रसेनस्य उर्वश्या सह। विष्णुधर्मोत्तरपुराणे १.१५४ वर्णनमस्ति यत् उर्वश्याः प्राप्त्याः पूर्वं पुरूरवा रूपप्राप्त्यर्थं अत्रेः ऋषेः आश्रमे नक्षत्रेष्ट्याः संपादनं करोति यस्मिन् इष्ट्यां सः स्वदेहे नक्षत्राणां न्यासं करोति। अनेन विधिना सः रूपस्य प्राप्तिं करोति।

      वायुपुराणे २७.५४ भीमसंज्ञकस्य देवस्य दिशः पत्न्यः सन्ति, अयं उल्लेखमस्ति। महाभारतादिषु पाण्डुपुत्रस्य भीमसेनस्य यः वृत्तान्तमस्ति, तस्मिन् प्रत्यक्षरूपेण भीमसेनस्य चतुर्दिक्षु भ्रमणस्य उल्लेखं न विद्यते। भीमसेनः पूर्वदिशायाः विजयार्थं गच्छति, अयमेव उल्लेखमस्ति (सभापर्व २९ अध्यायः)। किन्तु भीमसेनस्य यः गदा आयुधः अस्ति, तत् हृदयस्य परितः ये हेतिसंज्ञकाः नाड्यः सन्ति, येषु प्राणाः निद्राकाले विश्रान्तिं कुर्वन्ति, तेषां नाडीनां नियमनं करोति।



      टिप्पणी : वैदिक साहित्य में भीम प्रायः एक विशेषण के रूप में प्रकट हुआ है जबकि पौराणिक साहित्य में भीम को एक व्यक्ति विशेष का रूप दे दिया गया है । भीम शब्द के अर्थ का अनुमान लगाने के लिए वैदिक साहित्य में कुछ कुंजियां प्राप्त होती हैं । ऋग्वेद १.१५४.२, तैत्तिरीय ब्राह्मण २.४.३.४ आदि में 'प्र तद्विष्णु: स्तवते वीर्येण मृगो न भीम: कुचरो गिरिष्ठा: । यस्योरुषु त्रिषु विक्रमणेषु अधिक्षियन्ति भुवनानि विश्वा ।।' ऋचा प्रकट हुई है । इस से संकेत मिलता है कि कोई भीम मृग ऐसा है जो विचरण तो कु अर्थात् पृथिवी पर करता है लेकिन उसकी पहुंच गिरि तक, ऊपर तक है(ग्री - विज्ञाने : डा. फतहसिंह) । भीम का अर्थ होता है भय देने वाला । हमारे जीवन में भय देने वाला क्या हो सकता है ? हमारे जीवन को मृत्यु से भय है । यदि हम क्षुधाग्रस्त हैं तो जीवन की मृत्यु से रक्षा के लिए तुरन्त भोजन की खोज करते हैं । मृग का अर्थ है जो (अपने अस्तित्व का आधार) खोज रहा है - सबसे निचले स्तर पर भोजन आदि । फिर ज्ञान आदि । प्रश्न उठता है कि मृगो न भीम: कहने से वैदिक साहित्य का क्या तात्पर्य हो सकता है ? यह कहा जा सकता है कि हमारे जीवन में जो भीम है, हमारे लिए भय उत्पन्न कर रहा है, उसका उपयोग एक मृग के रूप में किया जा सकता है । यदि हम क्षुधाग्रस्त हुए हैं तो एक उपाय तो यह है कि संसार में उपलब्ध व्यञ्जनों का उपभोग करके तृप्त हो जाएं । यह भीष्म - भी - शम् की श्रेणी में आएगा । दूसरा उपाय यह है कि जब भूख लगी है तो हम जाग्रत हों कि यह भूख कहां से उत्पन्न हुई है । यह झूठी भूख तो नहीं है । शिव सूत्र, विज्ञान भैरव आदि तन्त्रों में शिव - पार्वती संवाद में एक सूत्र यही है कि भूख लगने पर जाग्रत होओ । यही भीम को मृग बनाना होगा । और वैदिक ऋचा आगे कहती है कि वह मृग ऐसा होना चाहिए जो पृथिवी पर भी विचरण करता हो और गिरि पर भी रहता हो । मनुष्य में यह विशेषता है कि वह पृथिवी पर रहकर भी अपने व्यक्तित्व के उच्च स्तरों तक पहुंच बना सकता है । यह साधना की एकान्तिक स्थिति है, व्यष्टिगत साधना है । ऋचा की दूसरी पंक्ति कहती है कि उस विष्णु की ऊरुओं में इतनी क्षमता है कि वह तीन क्रमणों में पूरे ब्रह्माण्ड का मापन कर सकता है । यह सार्वत्रिक साधना का संकेत है । ऋग्वेद की कईं ऋचाओं में उच्च स्तर वाले, गिरि पर रहने वाले भीम का उल्लेख विशेषण के रूप में किया गया है । ऋग्वेद १.१४०.६ में अग्नि के शृङ्गों के भीम होने का उल्लेख है । ऋग्वेद १.३६.२० में अग्नि की अमवन्त अर्चियों के भीम होने का उल्लेख है । ऋग्वेद ७.१९.१ में एक तिग्मशृङ्ग भीम वृषभ का उल्लेख है । यहां शृङ्ग से अभिप्राय अतिमानसिक शक्तियों से लेना चाहिए । ऋग्वेद की कुछ ऋचाओं में भीम वृषभ का उल्लेख मिलता है( जैसे ऋग्वेद ९.७०.७ में भीम वृषभ रूप सोम रु - शब्द करता है । ऋग्वेद १०.१०३.१ में इन्द्र के लिए भीम वृषभ विशेषण का प्रयोग हुआ है । ऋग्वेद १०.९२.८ में वृष्ण भीम के जठर से अबाधित शब्द उत्पन्न होता है । ऋग्वेद २.३३.११ में कहा गया है कि भीम मृग की भांति गर्त में स्थित युवा श्रुत की स्तुति करे । इससे संकेत मिलता है कि श्रुत को सुनने का काम भीम मृग का है - वह श्रुत जो गर्त में पडा है, जिसको युवा बनाया जा सकता है । यह उल्लेखनीय है कि महाभारत में पाण्डु - पुत्र भीम को वायु का अंश कहा गया है जबकि पुराणों में भीम नामक शिव को आकाश का रूप कहा गया है । शब्द की उत्पत्ति को आकाश तत्त्व से सम्बन्धित कहा जाता है । पुराणों में भीम के पुत्रों के नाम सुतसोम और श्रुतसेन मिलते हैं । यदि आकाश और वायु तत्त्वों वाले भीमों का वर्णन है तो अन्य तत्त्वों वाले भीमों का वर्णन भी पुराणों में उपलब्ध होना चाहिए । पुराणों में एक भीम नामक कुम्भकार है जो मृत्तिका से बने तुलसी पुष्प ही अर्पित करके मुक्ति प्राप्त करता है ।

      महाभारत में युधिष्ठिर - भ्राता के रूप में चित्रित भीमसेन का स्वर्गारोहण करते समय पतन कहा गया है । युधिष्ठिर ने भीमसेन के पतन का कारण बताया है -

      'अतिभुक्तं च भवता प्राणेन च विकथ्यसे । अनवेक्ष्य परं पार्थ तेनासि पतिता भुवि' - महाप्रस्थानिक पर्व अध्याय २.२८ ) ।

      यहां संकेत किया गया है कि पर को देखने की सामर्थ्य भीमसेन में सीमित है, वह अपनी कथनी - करनी के लिए केवल प्राण पर निर्भर करता है जो उसके पतन के कारणों में से एक है । दूसरा कारण अतिभोजन है । भीम का भोजन क्या हो सकता है ? जैसा कि बल शब्द की टिप्पणी में कहा जा चुका है, बल वह है जो सब प्रकार के भोजनों का ब्रह्माण्ड से कर्षण करने में समर्थ हो । शौनकीय अथर्ववेद १५.१४ सूक्त में विभिन्न प्रकार के गणों द्वारा अन्न के कर्षण के उल्लेख हैं । सबसे पहले प्राची दिशा में मारुत शर्ध द्वारा मन को अन्नाद बनाने का उल्लेख आता है । यहां मारुत शर्ध को प्राणों के रूप में लिया जा सकता है । डा. फतहसिंह का कहना है कि वेद में शर्ध एक भीड का संकेत करता है, ऐसी भीड जिसमें कोई संगति नहीं है । पौराणिक भीम को वायु का अंश कहा गया है और स्वर्ग में भीम को मरुद्गणों से घिरे हुए वायु के साथ विराजमान कहा गया है । यह अनुमान लगाया जा सकता है कि मरुत और वायु प्राणों के संकेतक हैं( वैदिक साहित्य में प्राण ही बृहत् रूप धारण करने पर वायु बनते हैं ) । अतः जब भीम पर अतिभोजन का आरोप लगता है तो उसका अर्थ यह भी हो सकता है भीम सम्यक् रूप से अन्नों का कर्षण करने में असमर्थ है । वह केवल प्राण रूपी वायुओं द्वारा मन को उपकरण बनाकर अन्न का कर्षण करना जानता है । यह तथ्य श्रीमती राधा गुप्ता की इस धारणा को भी पुष्ट करता है कि भीम का बल मनोबल है । भीम के क्या - क्या कार्य हो सकते हैं ? महाभारत आदि पर्व में भीम को धृति कहा गया है । आदि पर्व १.६६(उद्योगपर्व २९.५३) में भीम को युधिष्ठिर रूपी महाद्रुम की शाखाएं कहा गया है ।

      ऋग्वेद ५.५६.२ में कहा गया है कि हे अग्नि, जो हवन/आह्वान तेरे निकट आ चुके हैं, उन्हें तू भीम की भांति वर्धित कर । तैत्तिरीय ब्राह्मण २.६.११.७ में प्रयाज देवता के रूप में वनस्पति देवता का उल्लेख है जिसमें मन्यु को भीम कहा गया है । यह मन्यु ही वनस्पति बन सकता है । शौनकीय अथर्ववेद सूक्त १५.१४ में देवगण ईशान देवता के द्वारा मन्यु को उपकरण बनाकर अन्न का कर्षण करते हैं । मन्यु के बारे में अनुमान है कि यह वह क्रोध है जो मज्जा में उत्पन्न होता है । साधारण क्रोध रक्त में उत्पन्न होता है ।

      ऋग्वेद की ऋचाओं में सार्वत्रिक रूप से भीम के साथ तविषी( ऋ. २.३४.१, ९.७०.७), त्वेष( ऋ. १.३६.२० १.७०.११), तुविष्मान्( १.१९०.३) जैसे शब्दों का प्रयोग हुआ है । वैदिक निघण्टु में तविषी शब्द का वर्गीकरण २८ बल नामों के अन्तर्गत किया गया है । तविषी का वास्तविक अर्थ क्या हो सकता है, यह अन्वेषणीय है । मुख की आभा भी त्वेष हो सकती है । शीर्ष भाग में किसी घर्म की उत्पत्ति भी त्वेष हो सकती है । तैत्तिरीय ब्राह्मण २.५.५.४( तुलनीय : ऋग्वेद २.३४.१) में मरुतों के तविष ऊर्मियों द्वारा भीम मृग जैसे बनने का उल्लेख है । ऋग्वेद ४.१६.१४ व ९.९७.२८ में सिंह की भांति भीम का उल्लेख है । ऋग्वेद ९.६१.३० में भीम आयुधों का उल्लेख है । ऋग्वेद ६.१८.१० में भीमा अशनि का उल्लेख है । ऋग्वेद १०.१०९.४ में ब्राह्मण की भीमा जाया का उल्लेख है । शतपथ ब्राह्मण १३.५.४.३ में अश्वमेध के संदर्भ में ज्योति अतिरात्र नामक दिवस का सम्बन्ध भीमसेन से, गौ अतिरात्र का उग्रसेन से और आयु अतिरात्र का सम्बन्ध श्रुतसेन से जोडा गया है(शांखायन श्रौत सूत्र १६.९ में यह क्रम भिन्न प्रकार से है । वहां ज्योति अतिरात्र का सम्बन्ध उग्रसेन से, गौ अतिरात्र का भीमसेन से और आयु अतिरात्र का श्रुतसेन से कहा गया है ) ।। महाभारत आदि पर्व ३.१ में भीमसेन को परिक्षित - पुत्र जनमेजय के तीन भ्राताओं में से एक कहा गया है । दूसरे दो भ्राता श्रुतसेन व उग्रसेन हैं । कथा में कहा गया है कि जनमेजय के यज्ञ में इन तीनों ने सरमा - पुत्र शुनः का अकारण ताडन किया जिस पर सरमा ने इन्हें यज्ञ में भय प्राप्त होने का शाप दिया । इससे आगे कथाकार ने कथा को बीच में ही छोडकर आयोद धौम्य के तीन शिष्यों आरुणि, उपमन्यु और वेद का वृत्तान्त आरम्भ कर दिया है । आरुणि के बारे में कहा गया है कि वह गुरु की आज्ञा से केदार कुल्या की रक्षा करने गया और जल का बहाव न रुकने पर वहां स्वयं लेट गया और गुरु द्वारा पुकारने पर ही उठा । चूंकि वह केदार का दारण करके उठा था, अतः गुरु ने उसका नाम उद्दालक रखा । उद्दालक पर टिप्पणी द्रष्टव्य है । यह साधना का एकान्तिक पक्ष है । ऐसी सम्भावना है कि यह उद्दालक ही भीम का स्वरूप हो सकता है । इससे आगे कथा में उपमन्यु को भिक्षा मांगने आदि का कार्य दिया जाता है और बदले में उसे भोजन नहीं दिया जाता । वह भूख से त्रस्त होकर अर्क पत्रों का सेवन करने से अंधा हो जाता है और कूप में गिर पडता है । कूप में स्थित होकर वह अश्विनौ की स्तुति करता है और चक्षु प्राप्त करता है । तीसरा शिष्य वेद गुरु की सेवा करने से वेद प्राप्त करता है । यह अन्वेषणीय है कि वैदिक और पौराणिक साहित्य में उद्दालक और भीम के चरित्र में कितनी समानताएं मिलती हैं ।

      पुराणों में राजा भीम द्वारा स्वकन्या दमयन्ती को नल को अर्पित करने के संदर्भ में, माध्यन्दिन वाजसनेयी संहिता ३०.६, तैत्तिरीय ब्राह्मण आदि में उल्लेख आता है कि 'नरिष्ठायै भीमलम्', अर्थात् नरिष्ठ, नर में सर्वश्रेष्ठ के लिए भीमल, भीम का लालन करने वाले का आलभन करे । ऐसा प्रतीत होता है कि दमयन्ती भीमल का रूप है जो राजा नल का, नरिष्ठ का वरण करती है ।

      पुराणों में भीमरथ के चरित्र के संदर्भ में, ऋग्वेद ६.३१.५ में भीम रथ का उल्लेख द्रष्टव्य है ।


      There is a universal rik in vedic literature which in it’s first line compares lord Vishnu with a bheem/fearful wild beast. The property of this beast has been stated to be that it can travel on earth and still it is on the mountain. This indicates that this beast is of such type whose consciousness normally remains earthly but which can easily contact it’s higher consciousness also. The second line of rik mentions the wide approach of Vishnu who measured all the universe with his three steps. This indicates that the first approach of becoming a bheema/fearful beast falls under personal enlightenment, while the second approach pertains to the uplift of the whole universe. Other verses also indicate the same characteristics of Bheema – that it can contact the higher consciousness in it’s quest for something better. But for the character Bheemasena of Mahaabhaarata, he has been stated to lack this character of contacting his higher consciousness.

      The word Bheema in Sanskrit means one which creates fear in us. Our basis needs for sustaining life, like hunger, create fear in us if these are not fulfilled immediately. Fear of losing life. To circumvent this fear, there are two alternatives. One, that we immediately try to fulfill our needs by external means. For example, if we are hungry , we should immediately take food. The other alternative suggest by Tantra texts is that let us use this fear as a means to search the basic cause. This tendency of searching lies in a wild beast, called Mriga in Sanskrit. And the vedic rik states that it is not sufficient to search only, but the means of search, the beast should have approach to both higher and lower levels of consciousness.

      There is a story in the beginning of Mahaabhaarata that king Janamejaya started his ashvamedha yaaga and that yaaga is safeguarded by his three brothers named Shrutasena, Ugrasena and Bheemasena. These three brothers receive curse from divine bitch Sarmaa because they beat her dog son without any reason. The story abruptly ends here and then new story of the three disciples of Dhaumya, namely Aaruni, Upamanyu and Veda starts. Aaruni is famous for stopping the waste of water in the field with his body. Then when he is called by his guru, he stands up, leaving the field. For this reason, he was given the name Uddaalaka. It seems that this Uddaalaka is nothing but the character of Bheemasena in disguise.


      त्वेषासो अग्नेरमवन्तो अर्चयो भीमासो न प्रतीतये । रक्षस्विनः सदमिद्यातुमावतो विश्वं समत्रिणं दह ॥१.३६.२०॥

      साधुर्न गृध्नुरस्तेव शूरो यातेव भीमस्त्वेषः समत्सु ॥१.७०.११॥

      उपस्तुतिं नमस उद्यतिं च श्लोकं यंसत्सवितेव प्र बाहू । अस्य क्रत्वाहन्यो यो अस्ति मृगो न भीमो अरक्षसस्तुविष्मान् ॥१.१९०.३॥

      स्तुहि श्रुतं गर्तसदं युवानं मृगं न भीममुपहत्नुमुग्रम् । मृळा जरित्रे रुद्र स्तवानोऽन्यं ते अस्मन्नि वपन्तु सेनाः ॥२.३३.११ ॥

      धारावरा मरुतो धृष्ण्वोजसो मृगा न भीमास्तविषीभिरर्चिनः । अग्नयो न शुशुचाना ऋजीषिणो भृमिं धमन्तो अप गा अवृण्वत ॥२.३४.१॥

      सूर उपाके तन्वं दधानो वि यत्ते चेत्यमृतस्य वर्पः । मृगो न हस्ती तविषीमुषाणः सिंहो न भीम आयुधानि बिभ्रत् ॥४.१६.१४॥

      यथा चिन्मन्यसे हृदा तदिन्मे जग्मुराशसः । ये ते नेदिष्ठं हवनान्यागमन्तान्वर्ध भीमसंदृशः ॥५.५६.२॥

      अग्निर्न शुष्कं वनमिन्द्र हेती रक्षो नि धक्ष्यशनिर्न भीमा ।
      गम्भीरय ऋष्वया यो रुरोजाध्वानयद्दुरिता दम्भयच्च ॥६.१८.१०॥

      स सत्यसत्वन्महते रणाय रथमा तिष्ठ तुविनृम्ण भीमम् । याहि प्रपथिन्नवसोप मद्रिक्प्र च श्रुत श्रावय चर्षणिभ्यः ॥६.३१.५॥

      या ते भीमान्यायुधा तिग्मानि सन्ति धूर्वणे ।
      रक्षा समस्य नो निदः ॥९.६१.३०॥

      रुवति भीमो वृषभस्तविष्यया शृङ्गे शिशानो हरिणी विचक्षणः । आ योनिं सोमः सुकृतं नि षीदति गव्ययी त्वग्भवति निर्णिगव्ययी ॥९.७०.७॥

      अश्वो नो क्रदो वृषभिर्युजानः सिंहो न भीमो मनसो जवीयान् ।
      अर्वाचीनैः पथिभिर्ये रजिष्ठा आ पवस्व सौमनसं न इन्दो ॥९.९७.२८॥

      सूरश्चिदा हरितो अस्य रीरमदिन्द्रादा कश्चिद्भयते तवीयसः । भीमस्य वृष्णो जठरादभिश्वसो दिवेदिवे सहुरि स्तन्नबाधितः ॥१०.९२.८॥

      आशुः शिशानो वृषभो न भीमो घनाघनः क्षोभणश्चर्षणीनाम् । संक्रन्दनोऽनिमिष एकवीरः शतं सेना अजयत्साकमिन्द्रः ॥ऋ. १०.१०३.१॥

      देवा एतस्यामवदन्त पूर्वे सप्तऋषयस्तपसे ये निषेदुः ।
      भीमा जाया ब्राह्मणस्योपनीता दुर्धां दधाति परमे व्योमन् ॥१०.१०९.४॥

      युधिष्ठिरो धर्ममयो महाद्रुमः स्कन्धोऽर्जुनो भीमसेनोऽस्य शाखाः ।
      माद्रीपुत्रौ पुष्पफले समृद्धे मूलं त्वहं ब्रह्म च ब्राह्मणाश्च ।। महाभारतम् आदि १.६६, उद्योग २९.५३