ESOTERIC ASPECT OF BHEESHMA

      - Radha Gupta

      Story of Bheeshma can be read on websites Bheeshma1 and Bheeshma2 etc. He is the eighth son of Shantanu and Ganga and is the incarnation of eighth of the gods classified under Vasus whose name is Dyo. His real name is Devavrata but due to his fierce declaration, he got to be called Bheeshma. His three declarations are not to marry, not to get progeny and not to ride on throne. In the story, the wife of Dyo wants to oblige her friend’s daughter on earth by providing her divine milk of the cow of sage Vasishtha. For this purpose, all the vasus combine to steal the divine cow of Vasishtha. Upon this, he curses these vasus to get birth on earth and that the eighth one will have to stay on earth for a long time. Subsequently, Dyo is born on earth as the son of Shantanu and Ganga. Let us try to understand the symbolism behind the story. Shantanu in heavens is called Mahaabhishaka, the great physician. Mahaabhishaka may be the conscious element of God which has manly nature. This treats the rigidity type of illness in nature. This conscious element is able to remove the darkness of nature and at the same time, this also gets attracted towards nature. When this removes the rigidity of nature, it will be called the great physician of heavens. But when this gets attracted towards nature in the form of Ganga, then this will be called Shantanu on earth. This fact can also be said in other words that the great physician in heaven is the consciousness of soul and when it falls, it becomes the consciousness of individual soul. This consciousness is weak. Hence it is called Sham – tanu, the dilute one. This Sham – tanu gets the eighth vasu as his son in the form of Bheeshma.

      Ganga is symbolic of nature. She embraced the consciousness of individual soul for emancipation of vasus from their curse. This nature provides this consciousness in the form of the eighth element called self. One can get rid of this self in human body only. Vasu means desire and when one calls vasus the gods, then it means divine cravings. It seems that the eight elements which form the gross and subtle body of a man – earth, water, fire, air, sky, mind, wisdom and ego – the divine craving in these are the eight vasus. Dyo in the story is somehow connected with that which illuminates the soul element through self. A man is the combination of consciousness of individual soul and nature. In this human body, the eight vasus reside in their cursed form. As a person steps up on the ladder of development, the earthly desires get converted into divine desires. All except the eighth vasu get liberated one by one, but not the eighth one, which means that the feeling of self continues for a long time. Why this does not get converted into divine desires? The story indicates that Dyo vasu stole the cow of Vasishtha. This means that the power which is needed to feel the divine self gets lost in feeding of the earthly desires in the form of daughter of Usheenara. Vasishtha means one whose consciousness develops vertically. As has been stated in context with comments on cow, the rays of sun at noon are called cow. Here in our context, cow may mean the strong soul power. This can be called the divine cow of sage Vasishtha which is able to fulfill all divine desires. Usheenara means earthly desires. So, when the divine desire called vasu Dyo wants to convert earthly desires into long lasting and young, then he loses his powers in this act. In other words, he is the cursed form of Dyo which has been represented by Bheeshma in the story.

      The consciousness having the traits of vertical development ( that of Vasishtha) does not want that soul power should be spent for making earthly desire strong and long lasting. This is the misuse of soul power and also of divine desire( vasu god). The proper use of element self can be made when it is able to reflect the presence of constantly flowing soul element. If, instead of using self for this purpose it is used to strengthen the ego, then this will be called the cursed form of vasu Dyo. Mahaabhaarata in the form of character Bheeshma tries to explain how Bheeshma in his lifetime remained attached with earthly desires for a long time and how he could recognize his real self at the last moment.

      There are eight vasus which can be equated with eight elements like earth, water, fire, air, sky, mind, wisdom and ego. It is difficult to explain the first five, but one can try to explain the last three. The divine craving of mind is Soma, the moon which provides cold and happiness. The divine craving of wisdom is to attain judgement, discrimination. The divine craving of self is to get illumination. If the presence of self is able to illuminate the personality, then it should be understood as the divine self.

      Shri Sheshadri from Bangalore has informed that in Mahaabhaarata, Dhritraashtra is symbolic of mind and Paandu is symbolic of wisdom. For a balance in life it is necessary that there be a balance between mind and wisdom or in other words, mind is guided by wisdom. If mind does not rely on wisdom, then it is blind. In the story, Dhritraashtra does not want to share kindom with Paandavaas. It is no surprise therefore that Bheeshma in the story may be symbolic of ego or self. It can be even more appropriate if out of mind, wisdom, unconscious mind/chitta and Ahamkaara/self, Bheeshma may represent chitta.


      भीष्म

      टिप्पणी : भीष्म शन्तनु व गङ्गा के ८वें पुत्र हैं और द्यो नामक वसु देवता के अवतार हैं । इनका मूल नाम देवव्रत है लेकिन भीषण प्रतिज्ञा करने के कारण भीष्म नाम पड गया है । विवाह न करना, संतान उत्पन्न न करना तथा राज्य सिंहासन पर आरूढ न होना इनकी तीन भीषण प्रतिज्ञाएं हैं । ये वसु देवता के अवतार हैं । एक बार आठों वसु देवता वसिष्ठ ऋषि के तपोवन में घूम रहे थे । वहां इन्होंने वसिष्ठ की नन्दिनी नामक कामधेनु गौ को देखा । द्यो नामक वसु ने कामधेनु गौ की विशेषता बतलाते हुए कहा कि जो इसका दुग्ध पान कर लेता है, वह सदा युवा बना रहता है तथा उसकी आयु भी दीर्घ होती है । यह सुनकर द्यो की पत्नी ने कहा कि मैं अपनी सखी - जो उशीनर राजा की पुत्री है, जिसका नाम जितवती है तथा जो रूप - सौन्दर्य से सम्पन्न है - के लिए यह कामधेनु गौ लेना चाहती हूं । तब द्यो नामक वसु ने अपने भाइयों के साथ मिलकर कामधेनु गौ का अपहरण कर लिया । वसिष्ठ ऋषि ने वसुओं को शाप दिया कि इस दुष्कृत्य के फलस्वरूप तुम मनुष्य योनि में जन्म लो । जिन सात भाइयों ने अपहरण कार्य में द्यो का साथ दिया है - वे तो प्रतिसंवत्सर एक - एक करके शाप से मुक्त हो जाएंगे परन्तु द्यो को दीर्घकाल तक मनुष्य लोक में ही रहना पडेगा । वसुओं की प्रार्थना पर गङ्गा ने मनुष्य लोक में उनकी माता बनना स्वीकार किया । इत्यादि । अब कथा के प्रतीकार्थ पर विचार करते हैं ।

      भीष्म - पिता शन्तनु की उत्पत्ति के सम्बन्ध में महाभारत में एक कथा है ( आदिपर्व, अध्याय ९६) जिसमें कहा गया है कि राजा महाभिषक् ही स्वर्ग से पतित होने पर मनुष्य लोक में शन्तनु रूप में उत्पन्न हुए । महाभिषक् का अर्थ है पुरुष रूप चैतन्य । महाभिषक् शब्द में महा का अर्थ है प्रकृति और भिषक् का अर्थ है रोग का उपचार करने वाला । प्रकृति से उत्पन्न जडता /मूढता रूपी रोग का उपचार पुरुष रूप चैतन्य ही करता है । जब तक मनुष्य में चैतन्य का उद्रेक नहीं होता, तब तक व्यक्तित्व में जडता( मूढता, अज्ञानता ) ही छायी रहती है । जैसे - जैसे चैतन्य का उद्रेक अर्थात् बोध बढता है, वैसे - वैसे व्यक्तित्व में समाहित मूढता भी कम होती जाती है । परन्तु यह पुरुष रूप चैतन्य प्रकृति - प्रदत्त मूढता को दूर भी करता है तथा यही चैतन्य प्रकृति पर आसक्त भी होता है । जब यह मूढता को दूर करता है, तब स्वर्ग में स्थित राजा महाभिषक् कहलाता है । परन्तु जब यही कथा में उद्धृत गङ्गा नदी रूप प्रकृति पर सम्मोहित होता है तो स्वर्ग से पतित होकर मनुष्य लोक में राजा शन्तनु कहलाता है । इसी तथ्य को अन्य शब्दों में इस प्रकार भी कह सकते हैं कि स्वर्ग में स्थित राजा महाभिषक् आत्म रूप चैतन्य है तथा पृथिवी पर पतित होकर वही आत्म चैतन्य शन्तनु ( शम् - तनु ) रूप में जीवात्म चैतन्य हो जाता है । यह जीवात्म चैतन्य दुर्बल शम् वाला होता है, इसलिए शन्तनु ( तनु - दुर्बल ) कहलाता है । इस जीवात्म चैतन्य को ही भीष्म के रूप में आठवें वसु की प्राप्ति होती है ।

      गङ्गा देवी प्रकृति की प्रतीक है । वसु देवताओं की प्रार्थना पर उनका शाप से उद्धार करने के लिए गङ्गा देवी ने शन्तनु रूप जीवात्म चैतन्य का पति रूप में वरण किया । इसका तात्पर्य यह हुआ कि मनुष्य व्यक्तित्व का प्रारम्भ जिन पुरुष और प्रकृति नामक दो तत्त्वों से मिलकर हुआ है - वही दो तत्त्व शन्तनु और गङ्गा हैं । गङ्गा रूपी प्रकृति ही जीवात्म चैतन्य को आठवें 'अहं' नामक तत्त्व के रूप में भीष्म को प्रदान करती है । मनुष्य योनि में ही इस 'अहं' का अपने शापित रूप 'अहंकार' से मुक्त होना संभव है । वसु देवता संख्या में आठ कहे गए हैं । वसु का अर्थ है - वासना, कामना या इच्छा और देवता का अर्थ है दिव्य । अतः वसु देवता का अर्थ हुआ - दिव्य वासना या कामना या इच्छा । ऐसा प्रतीत होता है कि मनुष्य का स्थूल तथा सूक्ष्म शरीर जिन आठ तत्त्वों - पृथिवी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन, बुद्धि तथा अहंकार से बना है - उन तत्त्वों में अन्तर्भूत दिव्य वासना ही आठ वसु हैं । ग्रन्थों में इनके नामक धर, ध्रुव, सोम, अह, अनल, अनिल, प्रत्यूष और प्रभास कहे गए हैं । कथा में वर्णित द्यो नामक वसु प्रभास का ही पर्याय प्रतीत होता है क्योंकि द्यो का अर्थ है - चमकना तथा प्रभास का भी अर्थ है चमकना । मनुष्य योनि में उपलब्ध 'अहं' तत्त्व के द्वारा ही आत्म तत्त्व पूर्ण रूप से भासमान हो पाता है - इसलिए इसे द्यो या प्रभास कह सकते हैं । जीवात्म चैतन्य तथा प्रकृति के समन्वित रूप मनुष्य में प्रारम्भ में तो आठों वसु अपने शापित रूप अर्थात् पार्थिव वासना से युक्त होकर ही वास करते हैं, परन्तु जैसे - जैसे मनुष्य विकास की सीढियों पर चढता जाता है, वैसे - वैसे स्थूल तथा सूक्ष्म शरीर की पार्थिव वासना दिव्य वासना में रूपान्तरित होने लगती है । सात वसु देवता तो एक - एक संवत्सर में ( अथवा जन्म में ) शाप से मुक्त हो जाते हैं परन्तु आठवां द्यो नामक वसु शाप से मुक्त नहीं होता । अर्थात् अहं नामक आठवें तत्त्व में अहंकार रूपी पार्थिव वासना लम्बे समय तब बनी ही रहती है । यह अहंकार रूप पार्थिव वासना दिव्य वासना में परिणत क्यों नहीं हो पाती ? इसका कारण बताते हुए कथा में कहा गया है कि इसने राजा उशीनर की पुत्री हेतु वसिष्ठ ऋषि की गौ का अपहरण किया । अर्थात् दिव्य 'अहं' को अनुभव करने में जिस प्रखर आत्मशक्ति की आवश्यकता होती है, वही शक्ति द्यो नामक वसु द्वारा पार्थिव वासना रूप अहंकार ( उशीनर - पुत्री ) के पोषण में खर्च कर दी जाती है । वसिष्ठ ऋषि का अर्थ है - सतत् ऊर्ध्व विकास करने वाली चेतना । जैसा कि गौ पर टिप्पणी के संदर्भ में कहा जा चुका है, मध्याह्नकालीन सूर्य की किरणें गौ कहलाती हैं । अतः यहां गौ का अर्थ हुआ - प्रखर आत्म शक्ति । यह प्रखर आत्म शक्ति रूपी गौ कामधेनु कहलाती है अर्थात् इस प्रखर आत्म शक्ति के उदय हो जाने पर ही उपर्युक्त वर्णित सभी दिव्य कामनाओं को प्राप्त किया जा सकता है । उशीनर राजा का अर्थ है - उशी - नर अर्थात् पार्थिव कामना । द्यो नामक वसु देवता अर्थात् दिव्य वासना जब पार्थिव वासना को दीर्घायु और युवा बनाना चाहती है, तब उसकी प्रखर आत्म शक्ति का इस कार्य में हरण हो जाता है । यही द्यो नामक वसु देवता का शापित रूप है । भीष्म नामक पात्र इसी रूप का प्रतिनिधित्व करता है ।

      सतत् ऊर्ध्व विकास करने वाली चेतना ( वसिष्ठ) यह नहीं चाहती कि प्रखर आत्म शक्ति ( गौ) को पार्थिव कामना ( द्यो - पत्नी की सखी ) के दीर्घायुष्य अर्थात् दीर्घ काल तक बने रहने तथा चिर युवा बने रहने के लिए खर्च कर दिया जाए । यह आत्म शक्ति का दुरुपयोग है तथा दिव्य वासना ( वसु देवता ) का भी दुरुपयोग है । 'अहं' तत्त्व का सही उपयोग तब होता है जब इसके माध्यम से सतत् प्रवाहमान आत्म तत्त्व की उपस्थिति का निरन्तर अनुभव किया जाए । परन्तु यदि 'अहं' का उपयोग इस रूप में न होकर सारा जीवन 'अहंकार' के पोषण में ही व्यतीत कर दिया जाए - तब तो बस वसु देवता का दुरुपयोग ही है तथा यही द्यो नामक वसु देवता का शापित रूप है ।

      महाभारत में भीष्म चरित्र के माध्यम से इसी तथ्य को विस्तार से समझाने का प्रयत्न किया गया है कि भीष्म अपने लम्बे जीवन काल में अहंकार रूप पार्थिव वासना से किस प्रकार बंधे रहे और अन्त समय में किस प्रकार अपने वास्तविक अहं ( दिव्य वासना ) को पहचान सके ।

      आठ तत्त्वों और आठ दिव्य वासनाओं का युग्म निम्न रूप में बना सकते हैं :

      पृथ्वी - धर, जल - अह/आपः, अग्नि - अनल, वायु - अनिल, आकाश - ध्रुव, मन - सोम, बुद्धि - प्रत्यूष, अहंकार - प्रभास । प्रथम पांच तत्त्वों की पांच दिव्य वासनाओं का स्पष्टीकरण करना अभी कठिन है परन्तु मन, बुद्धि तथा अहंकार की दिव्य वासनाओं का किञ्चित् स्पष्टीकरण किया जा सकता है । मन की दिव्य वासना है सोम । सोम का अर्थ है - चन्द्रमा जो शीतलता तथा आह्लाद प्रदान करता है । मन की दिव्य वासना शीतल और आह्लाद युक्त रहने की है । बुद्धि की दिव्य वासना है - प्रत्यूष । प्रत्यूष का अर्थ है - सवेरा या जागरण । यदि बुद्धि जागरण ( विवेक, प्रज्ञा) को उपलब्ध हो गई है तो समझना चाहिए कि दिव्य वासना से युक्त है । अहं की दिव्य वासना है प्रभास । यदि अहं की उपस्थिति व्यक्तित्व को प्रकाशमान कर रही है तो समझना चाहिए कि वह दिव्य वासना वाला अहं है ।

      बंगलौर निवासी श्री शेषाद्रि की धारणा है कि धतृराष्ट्र मन का प्रतीक है और पाण्डु बुद्धि का । एक व्यक्तित्व में मन और बुद्धि दोनों का समान योगदान है । मन बुद्धि के बिना अन्धा है । इस संदर्भ में महाभारत की कथा में भीष्म द्वारा अहंकार तत्त्व का प्रतिनिधित्व करना आश्चर्यजनक नहीं है । यह भी हो सकता है कि मन, बुद्धि, चित्त व अहंकार में भीष्म का चरित्र चित्त का प्रतिनिधित्व करता हो ।

      Bheeshma is the pillar of Kuru/Kaurava dynasty. Deep study of Mahaabhaarata tells us that Kuru dynasty symbolizes a vast creation of mind and Bheeshma symbolizes our misconception of being only a body with the ego as the doer. To remove this misconception, one has to understand that a person is a perfect combination of soul and body, or Purusha and Prakriti/nature. But when one is centered only on body or he thinks himself as a body, not a soul, a series of impurities appear.

          First, the mind is an element having three folds named as Satva/pure, Rajas/mixed and Tamas/dark. As soon as a person thinks himself a body, these three folds start unfoldment.

          Second, the soul is one but the bodies are different. So, thinking himself as a body, a differentiation takes place. Mind expands in thousands of branches, such as desire, attachment, anger, greediness, jealousy etc. This expansion of mind is Kuru dynasty.

          Third, thinking himself as a soul and the body as an instrument, a person does not live under the pressures of mind. Being a soul, he is the master of his body and controls it's functions every time. But on the reverse process, a person is controlled by mind and feels himself helpless.

          Now the question arises how Bheeshma( thinking himself as a body) originates. Hindu wisdon(Veda Vyaasa) says in Mahaabhaarata that the pure consciousness binds itself with Prakriti and becomes impure, called Jeevaatmaa. As the eighth element of our body named 'ego' receives consciousness from it, a person thinks himself a body. This is the divine rule, so Bheeshma's name is Deva - Vrata.

          The next question arises as to how is it possible to kill Bheeshma?

          Veda Vyaasa says that there are three methods to kill Bheeshma : 1 - Great desire to kill it, 2 - To develop viewing the whole(Shikhanda view), 3 - Trying continuously to achieve the aim. All these three methods should be applied simultaneously.

          The story says that as soon as Bheeshma fell down from the chariot on the 10th day of the battle, he did not leave the praanaas. He remained lying down on arrows and waited for onset of Uttaraayana/summer solstice. In Uttaraayana itself, he left his praanaas. As has been said earlier, Bheeshma is the symbol of non - divine consciousness of the eighth element of our body. This non - divinity is called Dakshinaayana/winter solstice. When this non - divine changes into divine, it is said that Bheeshma left his praanaas in Uttaraayana.

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      First published : 11-2-2008 AD( Maagha shukla panchamee, Vikramee samvat 2064)


      महाभारत के भीष्म - एक विवेचन

      - राधा गुप्ता

      भीष्म महाभारत कथा में उस आधार - स्तम्भ की भांति हैं जिसके आधार पर कुरुवंश रूपी भवन खडा होता है और आधार - स्तम्भ के ढह जाने पर भवन भी धराशायी हो जाता है ।

      आध्यात्मिक दृष्टि से महाभारत ग्रन्थ का अध्ययन करने पर यह तथ्य अत्यन्त सुस्पष्ट हो जाता है कि मनुष्य के मन का संसार जो मैं, मेरा, तू, तेरा, काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर , राग, द्वेष, ममता, आसक्ति, कामना, तृष्णा आदि के रूप में फैला हुआ है, वही कुरु वंश है तथा इस मन के संसार(कुरुवंश) का आधार है - मनुष्य का स्वयं को शरीर मात्र समझकर कर्तृत्व अहंकार से युक्त हो जाना जिसके प्रतीक भीष्म हैं । प्रत्येक मनुष्य पुरुष और प्रकृति - जिसे सामान्य व्यवहार की भाषा में आत्मा और शरीर कहा जाता है, का सम्मिलित रूप है । आत्मा चैतन्य है परन्तु शरीर जड है । आत्मा की चैतन्यता को ग्रहण करके ही जड शरीर चैतन्यवत् प्रतीत होता है । मनुष्य को 'मैं हूं' के रूप में जो अनुभूति होती है, वह 'मैं' तथा 'हूं' नामक दो तत्त्वों के परस्पर मिलने से होती है । इनमें 'हूं' शब्द चैतन्य सत्ता को व्यक्त करता है तथा 'मैं' शब्द शरीर सत्ता को । चैतन्य सत्ता की अभिव्यक्ति का आधार 'मैं' नामक शरीर/प्रकृति तत्त्व है तथा 'मैं' नामक शरीर/प्रकृति तत्त्व की क्रियाशीलता का आधार 'हूं' के रूप में चैतन्य सत्ता है । दोनों परस्पर एक दूसरे के पूरक हैं । इस तथ्य को विद्युत् शक्ति तथा उससे जलने वाले बल्ब के उदाहरण से सरलता से समझा जा सकता है । विद्युत् शक्ति चैतन्य सत्ता की भांति है तथा बल्ब शरीर सत्ता की भांति । विद्युत् शक्ति की विद्यमानता बल्ब के माध्यम से अभिव्यक्त हो पाती है तथा बल्ब में जो प्रकाश है, उसका आधार विद्युत् शक्ति ही है । विद्युत् शक्ति के बिना बल्ब प्रकाश नहीं दे सकता । परन्तु यदि कदाचित् बल्ब यह अहंकार करने लगे कि 'मैं ही सब कुछ हूं क्योंकि मैं प्रकाश कर रहा हूं' - तब हम उसकी मूढता पर हंसेंगे । यही मूढता मनुष्य भी कर रहा है । शरीर को क्रियाशीलता प्रदान करने वाली चैतन्य शक्ति को भुलाकर मनुष्य स्वयं को शरीर मात्र समझकर 'सब कुछ मैं शरीर रूप से ही कर रहा हूं' इस प्रकार का मिथ्या भ्रम और अहंकार धारण कर लेता है । परन्तु मनुष्य स्वयं को शरीर मात्र समझकर कर्तृत्व अहंकार से युक्त हो जाए और यह बात यहीं तक सीमित रहे, तब तो कोई विशेष हानि नहीं परन्तु समस्या तब उत्पन्न होती है जब स्वयं को शरीर मात्र समझकर कर्तृत्व अहंकार से युक्त हो जाना दुष्परिणामों की एक लम्बी शृङ्खला को जन्म दे देता है । यही शृङ्खला मनुष्य के अनन्त दु:खों का कारण बन जाती है । यह शृङ्खला निम्न रूप से प्रकट की जा सकती है -

      १- उपर्युक्त वर्णित इस शरीर - दृष्टि अर्थात् भीष्म के कारण सर्वप्रथम मनुष्य के मन की त्रिगुणात्मकता का प्रस्फुटन होता है । चैतन्य दृष्टि अर्थात् एकत्व - दृष्टि होने पर मन की यह त्रिगुणात्मकता प्रस्फुटित नहीं होती क्योंकि पृथक्ता का भाव ही वहां विद्यमान नहीं होता । इस तथ्य को कहानी में यह कहकर व्यक्त किया गया है कि भीष्म काशिराज की तीन कन्याओं का हरण करके उन्हें हस्तिनापुर में ले आए । ये तीन कन्याएं सत्त्व, रज तथा तम प्रकृति को ही इंगित करती हैं ।

      २ - चैतन्य अर्थात् आत्मा तो सबका एक है परन्तु शरीर भिन्न - भिन्न हैं । अतः शरीर केन्द्रित दृष्टि होने से शरीर से सम्बन्ध रखने वाले लोग अपने तथा शरीर से सम्बन्ध न रखने वाले लोग पराए हो जाते हैं । यह अपना और पराया भाव मन में प्रस्फुटित हुए रजस, तमस गुणों के साथ मिलकर मन में सहस्रों वृत्तियों /व्यापारों को जन्म दे देता है जिसे मन का संसार अर्थात् कुरुवंश कहा जाता है । इस तथ्य को कहानी में अम्बिका तथा अम्बालिका से धतृराष्ट्र - पाण्डु की उत्पत्ति एवं पुनः कौरवों - पाण्डवों की उत्पत्ति के रूप में व्यक्त किया गया है । चूंकि शरीर - दृष्टि ही इस मनः संसार रूपी कुरुवंश का मूल है, इसी कारण भीष्म को कुरुवंश का पितामह कह कर सम्बोधित किया गया है ।

      ३- 'मैं चैतन्यस्वरूप हूं और मुझे प्राप्त यह शरीर मेरे लिए एक यन्त्र/उपकरण की भांति है जिसका मुझ चैतन्य के द्वारा सम्यक् उपयोग किया जा सकता है' - यह सम्यक् दृष्टि है । इस सम्यक् दृष्टि के होने पर स्वामी - सेवक सम्बन्ध की भांति शरीर रूपी नगर की सारी व्यवस्था सुचारु रूप से चलती है परन्तु इसके विपरीत असम्यक् दृष्टि होने पर यह सारी व्यवस्था ही अस्त - व्यस्त हो जाती है । स्वामी यदि सर्वथा अनुपस्थित हो जाए और सेवक ही स्वामी की भांति व्यवहार करने लगे, तब जो स्थिति निर्मित होगी, वह भयंकर ही कही जाएगी । भीष्म की भीषण प्रतिज्ञा के रूप में इसी तथ्य को इंगित किया गया है । भीष्म (अर्थात् शरीर केन्द्रित दृष्टि) स्वयं शरीर के स्वामी के पद पर अधिष्ठित नहीं हो सकता, इसलिए शरीर के साम्राज्य पर मन की दुर्योधनादि वृत्तियां आरूढ होकर मनमाने ढंग से व्यवहार करने लगती हैं । महाभारत कथा में भीष्म तथा दुर्योधनादि कौरवों का परस्पर व्यवहार यही इंगित कर रहा है । दुर्योधनादि रचित किसी भी षडयन्त्र पर भीष्म नियन्त्रण नहीं रख पाते और मूक की भांति सब कुछ सहन करते रहते हैं ।

      अब प्रश्न उपस्थित होता है कि मनुष्य में यह शरीर - केन्द्रित अहंकार रूपी चेतना/भीष्म उत्पन्न कैसे हुई? अर्थात् मनुष्य स्वयं को चैतन्य रूप न समझकर शरीर रूप क्यों समझता है ?

      भारतीय मनीषा कहती है कि जैसे रेशम का कीडा अपने ही उत्पन्न किए हुए तन्तुओं से अपने को सब ओर से बांध लेता है, उसी प्रकार निर्गुण आत्मा भी अपने ही प्रकट किए हुए प्राकृत गुणों से बंध जाता है और प्राकृत गुणों से बंधे हुए उस आत्मा/जीवात्मा से ही चेतना ग्रहण करने के कारण मनुष्य के 'अहं' तत्त्व में क्रियाशील चेतना शरीर - केन्द्रित कर्तृत्व अहंकार अर्थात् भीष्म के रूप में प्रकट हो जाती है , अर्थात् सबसे पहले शुद्ध आत्मा ही स्वेच्छा से अशुद्ध स्वरूप/जीवात्मा रूप में परिणत होता है । उस जीवात्मा से ही मनुष्य का अहं तत्त्व चेतना प्राप्त करता है । इसी तथ्य को महाभारत कथा में भीष्म की उत्पत्ति कथा के अन्तर्गत स्वर्ग के राजा महाभिषक्/शुद्ध आत्मा की गङ्गा/प्रकृति पर आसक्ति, राजा महाभिषक् का ही पृथ्वी पर शान्तनु /जीवात्मा रूप में प्राकट्य तथा शान्तनु को भीष्म नामक पुत्र की उत्पत्ति कह कर निरूपित किया गया है ।

      शरीर केन्द्रित कर्तृत्व अहंकार रूपी भीष्म की उत्पत्ति उपर्युक्त वर्णित दिव्य विधान के अनुसार होती है, इसीलिए भीष्म को 'देवव्रत' कहा गया है । देवव्रत(देव - व्रत) का अर्थ है - दिव्य नियम या विधान ।

      महाभारत के आदिसर्ग में सम्भव पर्व के अन्तर्गत ( अध्याय ९८ - १००) भीष्म की उत्पत्ति के सम्बन्ध में एक कथा दी गई है । यह कथा इंगित करती है कि मनुष्य को अन्य योनियों से भिन्न जो आठवां 'अहं' नामक तत्त्व प्राप्त हुआ है, उसमें क्रियाशील चेतना दो प्रकार की होती है । १- दिव्य तथा २ - अदिव्य । 'मैं चैतन्य स्वरूप हूं' इस प्रकार स्वस्वरूप का अनुभव कराने वाली चेतना दिव्य है तथा 'मैं शरीर मात्र हूं' इस प्रकार स्वस्वरूप की विस्मृति कराने वाली चेतना अदिव्य है । दिव्य चेतना को कथा में प्रभास अथवा द्यो नामक वसु देवता कहा गया है तथा अदिव्य चेतना को प्रभास नामक वसु देवता का ही शापित रूप देवव्रत अथवा भीष्म कहा गया है । कहने का अभिप्राय यह है कि 'अहं' तत्त्व में क्रियाशील अदिव्य चेतना ही भीष्म है । इसीलिए महाभारत की कथा में भीष्म को वसु देवता का अवतार(शाप प्राप्त रूप ) कहा गया है ।

      अब पुनः प्रश्न उपस्थित होता है कि क्या यह शरीर केन्द्रित अहंकार रूप चेतना/भीष्म चैतन्य केन्द्रित अहं चेतना (प्रभास नामक वसु देवता ) में रूपान्तरित हो सकती है ? अर्थात् क्या शरीर केन्द्रित कर्तृत्व अहंकार का वध सम्भव है ?

      शरीर - केन्द्रित कर्तृत्व अहंकार /भीष्म का वध सम्भव भी है और अनिवार्य भी । अनिवार्यता का निरूपण कृष्ण के उन वचनों में समाहित है जब वे पुनः - पुनः अर्जुन को भीष्म वध के लिए प्रेरित करते हैं और अर्जुन द्वारा शिथिलता प्रदर्शित करने पर स्वयं ही भीष्म - वध हेतु उत्सुक हो जाते हैं । महाभारत कथा शरीर केन्द्रित चेतना/भीष्म के वधोपाय का निर्देश करती हुई कहती है कि इस शरीर केन्द्रित अहं/भीष्म का वध तीन उपायों के समवेत प्रयोग से ही सम्भव है । ये उपाय हैं -

      १ - शरीर - केन्द्रित अहं से मुक्त होने के लिए मनुष्य की स्वयं की प्रबल इच्छा अर्थात् जब तक मनुष्य स्वयं ही न चाहे, तब तक कुछ भी करना सम्भव नहीं है । इस तथ्य को शान्तनु द्वारा भीष्म को प्राप्त इच्छा - मृत्यु के वरदान के रूप में इंगित किया गया है । जहां एक ओर भीष्म जीवात्मा/शान्तनु की प्रकृति के फैलाव की इच्छा को पूर्ण करता है, वहीं दूसरी ओर प्रकृति के फैलाव को समेट लेने के लिए इच्छा मृत्यु की सामर्थ्य भी रखता है ।

      २ - समग्र दृष्टि का निर्माण, जिसे शिखण्डी की उपस्थिति कह कर संकेतित किया गया है ।

      ३ लक्ष्य प्राप्ति का संकल्प एवं एकाग्रता जिसे अर्जुन द्वारा सतत् बाण सन्धान कहा गया है ।

      उपर्युक्त उपायों का आश्रय लेकर 'अहं' तत्त्व में क्रियाशील भीष्म रूपी अदिव्य चेतना तब तक पूर्णतः लक्ष्य - निष्ठ बनी रहती है जब तक वसु देवता रूपी दिव्य चेतना में रूपान्तरित नहीं हो जाती । इस लक्ष्य निष्ठ होने को ही कथा में भीष्म का बाण - शय्या पर शयन करना कहकर संकेतित किया गया है । बाण का अर्थ है - लक्ष्य । अतः बाणों पर शयन करने का अर्थ हुआ - पूर्ण रूप से लक्ष्य - निष्ठ होना ।

      'अहं' तत्त्व में विद्यमान भीष्म रूपी अदिव्य चेतना का दिव्य चेतना में रूपान्तरित होना ही दक्षिणायन से उत्तरायण में प्रवेश करना है । उत्तरायण स्थिति में भीष्म द्वारा प्राण त्याग करना यह इंगित करता है कि अब भीष्म रूपी अदिव्य चेतना का सर्वथा लोप/नाश हुआ और उसका स्थान दिव्य चेतना ने ग्रहण किया । कहा जाता है कि दक्षिणायन में देवता सो जाते हैं तथा उत्तरायण में जाग्रत हो जाते हैं - इस दृष्टि से भी जो दिव्य चेतना(वसु देवता) शरीर - केन्द्रित कर्तृत्व अहंकार अर्थात् दक्षिणायन की स्थिति में खोई हुई थी, वही दिव्यता 'अहं' तत्त्व के चैतन्य - केन्द्रित होने पर अर्थात् उत्तरायण में जाग्रत हो जाती है । यही भीष्म का वसु लोक को प्राप्त होना है ।


      Vedic aspect of Bheeshma

      - Vipin Kumar

      There is another aspect of the story of Bheeshma. In soma yaaga, there are 8 special fires out of which 6 are situated inside the sitting place of priests and the rest two are situated outside. These 6 generally remain in extinguished state and are kindled only on special occasions from the fire of Aagneedhra priest. There is an anecdote behind these fires. These 8 were gandharvas in heaven deputed to protect soma. But when they failed to do their duty, they had to come on earth by curse. These are these special fires. The space of the 8th priest is situated half inside and half outside of the altar for yaaga. This may mean that this priest has the nature of being introvert and extrovert. This fire is situated in the north. In the earlier stage of soma yaaga, this fire is situated in south. This fire has got special characteristics for which comments on Anvaahaaryapachana and Aagneedhra can be read. The presiding diety of this fire is king Nala and the story of Nala indicates that this fire has both the characteristics of a horse(spreading) and dice(gambling). Dice is also symbolized by an axis, an arrow etc. It can be expected that the arrows of Arjuna which were used to immobilize Bheeshma are symbolic of axes. The other name of Aujuna is Nara/Nala which indicates that the character of Bheeshma is closely connected with that of Aagneedhra. The name of wife of Aagneedhra in puraanic texts is puurvachitti( meaning earlier mind) and this word appears in Rigveda in connection with Dyaavaaprithvi( a coupling of heaven and earth) also. It seems that Vasu named Dyo does not represent the pure form of Dyau which can impart nector. Vasu dyo may be an impure state called Dyaavaaprithavi (a coupling of heaven and earth)which has been stated to grant a spotted cow, not a cow which can impart nectar. It has been stated that dyo is decorated by constellations in the heaven while earth is decorated by pictures(symbolic meaning unconscious mind, chitta). In the story of Bheeshma, he helps Chritraangada and Vichitraveerya. Thus it can be hoped that the story of Bheeshma can shed further light on the character of priest Aagneedhra. In the stories of Bheeshma, all the 8 vasus are born of river Ganges, but in puraanic contexts of 8 fires, these fires are born from 16 rivers.

      Regarding the story of Bheeshma remaining a celibate, it can be said that Bheeshma is rejecting earthly marriage and proceeding towards a divine one. It has been stated in Braahmanical texts that heaven and earth somehow got separated. These decided to unite. Then heaven put her essence in earth in the form of some lusture and earth put her essence in heaven in the form of dark. This has been called a divine marriage. In the story of Bheeshma, he knows the importance of Krishna, the dark one. He strives to get Krishna the highest place in Raajsuuya sacrifice.

      There is an anecdote that Varuna sent out his proud/arrogant son Bhrigu on pilgrimage. Bhrigu sees fierce scenes in five directions and returns home out of fear. In east, he sees that a man is eating a man by tearing him. In south, a man is eating a man by cutting him. In west, a man is eating a silent man. In north, a man is eating a crying man. In north east, two ladies are standing between a fearful man. These fierce scenes have been called Bheeshma. The anecdote explains the meanings of these scenes in context of different performances in Agnihotra. It is an open question whether this anecdote can anyhow explain different events in the life of Bheeshma and vice versa. One gets some hints. In east, the scene has been explained in the form that men are trees which produce fruits without blossoming. The atonement for this is that one offers samit/wood to fire in Agnihotra. This may mean that one is supposed to awaken his praanas like fire in spring season when all the nature is up in blossoms. East seems to be the direction of hearing of feeble voice of our highest level. This can be done only when our life forces are unison with each other( Samiti, a unified assembly). In south, the men are animals for which the atonement is that one is supposed to get milk from animals for Agnihotra. Animals have been stated to arise out of some power of sun which may be related to Ushaa and as is well known, Usha is connected with Dyo/heaven which tries to awaken life forces. In vedic literature, Usha/Ukha is given the shape of an earthen vessel which also has udder signs marked on it. This clearly indicates that the aim is to somehow arrange soma from powers connected with sun(The story of Bheeshma also starts from here). In west direction, the silent men are herbs and the atonement is that one is supposed to burn straw in Agnihotra. This may be symbolic of burning one’s sins which are at present in a dormant state. In north, the crying men are symbolic of waters and the fetching of water in Agnihotra is atonement for this. This may be symbolic of those impressions which are bearing fruits in the present day life (A clear idea about symbolic meanings of different directions has been given in Rishi - Chhanda). This can be associated with an event in the life of Bheeshma where he tried to get hold of three girls named Ambaa, Ambaalikaa and Ambikaa for the sake of his step brothers. Out of these three, Ambaa cries and ultimately she makes penances to somehow get Bheeshma killed. She is reborn in the form of a river and also as daughter of king Drupada and then gets converted into a man named Shikhandi.

      Vedic literature also names the sacrifice of a horse and cow? in Ashwamedha where the horse is tied with middle post(yuupa) and one goat and one sheep are tied beside it. The horse is Bheeshma and symbolic of mouth, while goat and sheep are symbolic of forehead and jaw. The point to be noted is that here the horse is tied with a post called yuupa, while in case of the story of Bheeshma, he is killed by the daughter of Drupada. The word drupada is also a kind of yuupa or post.

      There is a form of Bheeshma which is connected with calmness, tranquility, which calms down fear. This is attained after Bheeshma has been shot with arrows. Then he is able to provide guidance to Yudhishthira in Shaanti section of Mahaabhaarata. The question is why there is fear of death? According to Bhaagavata Puraana, the feeling of fear is due to the fact that one feels himself as alone, not in unity with the universe. If heaven descends on earth, this feeling of lonliness can disappear.

      The story of Bheeshma is not without practical application. One text states that our forehead is heaven, nose is like sky/mid heaven and mouth is like earth. It is a universal knowledge in yoga that so many juices trickle to our upper palate in mouth. This is a form of divine rain from the heaven which stimulates so many life forces.



      भीष्म का वैदिक स्वरूप

      भीष्म की कथा सोम याग के एक और पक्ष को भी उजागर करती प्रतीत होती है । सोमयाग के सदोमण्डप में ६ धिष्ण्य अग्नियों की स्थिति होती है जिन पर किसी विशेष अवसर पर मैत्रावरुण, होता आदि ६ ऋत्विज विराजमान होते हैं । यह ६ धिष्ण्य अग्नियां प्रायः बुझी हुई अवस्था में ही रहती हैं और किसी विशेष अवसर पर ही इनका अवज्योतन आग्नीध्र ऋत्विज अपनी अग्नि से करता है । यह ६ अग्नियां, आग्नीध्र की अग्नि तथा मार्जालीय की अग्नि मिलकर ८ धिष्ण्य अग्नियों का समूह बनाते हैं । शतपथ ब्राह्मण आदि में इस विषय में एक आख्यान दिया गया है कि गायत्री ने जिस समय स्वर्ग से सोम का आहरण किया, उस समय देवताओं ने सोम की रक्षा का कार्य ८ गन्धर्वों को सौंप रखा था । रक्षा के कार्य में असफल होने पर इन गन्धर्वों को शापवश मनुष्य लोक में आकर धिष्ण्य अग्नियां बनना पडा । इनको पोषण के लिए सोम नहीं मिलता, केवल घृत की आहुति ही मिलती है । कहा गया है कि यह किसी प्रकार से सोम के भक्षण के लिए मुंह खोले प्रतीक्षा करते रहते हैं । शुक्ल यजुर्वेद ५.३१ में इन धिष्ण्य अग्नियों के नाम गिनाएं गए हैं । यह सब द्विनामा हैं ( एक नाम स्वर्ग का, एक पृथिवी का ) । इसके पश्चात् ८ अन्य नाम भी गिनाएं गए हैं । वायु पुराण २९.१३ तथा ब्रह्माण्ड पुराण १.२.१२.१५ में इसकी अन्य प्रकार से व्याख्या की गई है कि ८ विहरणीय अग्नियां हैं तथा ८ उपस्थेय अग्नियां हैं । इन १६ का जन्म हव्यवाहन/आहवनीय/शंस्य अग्नि द्वारा १६ नदियों(१कावेरी, २कृष्णवेणा, ३नर्मदा, ४यमुना, ५गोदावरी, ६वितस्ता, ७ चन्द्रभागा, ८इरावती, ९विपाशा, १०कौशिकी, ११शतद्रु, १२सरयू, १३सीता, १४सरस्वती, १५ह्रादिनी व १६पावनी ) के साथ समागम से हुआ है । पौराणिक कथाओं से तुलना करने पर आठवें वसु के अवतार भीष्म को आठवीं धिष्ण्य आग्नीध्र अग्नि माना जा सकता है । जहां धिष्ण्य अग्नियों का जन्म विभिन्न नदियों रूपी माताओं से होता है, भीष्म की कथा में आठों वसुओं का जन्म एक ही माता गङ्गा से होता है । आग्नीध्र की अग्नि का पूर्व रूप प्राग्वंश में दक्षिणाग्नि है जिसका अधिपति राजा नल नैषध है ( द्र. अन्वाहार्यपचन शब्द पर टिप्पणी )। यह अग्नि दक्षिण दिशा में अर्धचन्द्राकार रूप में स्थित होती है । इस अग्नि की प्रकृति अश्व व अक्ष दोनों प्रकार की होती है, जैसी कि राजा नल की प्रकृति है । महाभारत की कथा में अर्जुन भीष्म को शरों से विद्ध करता है । यह शर या इषु या तीर भी अक्षों के प्रतीक हैं और अर्जुन का एक नाम नर भी है । ऋग्वेद १०.८९.४ में द्यौ को आकाश में स्थिर करने के लिए अक्ष रूप स्तम्भ लगाए गए हैं । द्यौ के स्तम्भन के उल्लेख वैदिक साहित्य में सार्वत्रिक हैं ।

      उत्तरवेदी में स्थान्तरित होने पर यह अग्नि उत्तर दिशा में आग्नीध्र की अग्नि ( द्र. आग्नीध्र शब्द पर टिप्पणी ) के रूप में स्थित रहती है । आग्नीध्र मण्डप वेदी के आधा बाहर और आधा अन्दर होता है जिसका अभिप्राय है कि आग्नीध्र की प्रकृति यह है कि यह बहिर्मुखी भी हो सकता है और अन्तर्मुखी भी । यह प्रकृति भीष्म की प्रकृति से साम्य रखती है । भीष्म को स्वच्छन्द मृत्यु का वरदान मिला हुआ है । हो सकता है कि मृत्यु का अर्थ अन्तर्मुखी होने से हो । शतपथ ब्राह्मण १.८.१.४१ में आग्नीध्र को द्यावापृथिवी कहा गया है । महाभारत की कथा के संदर्भ में ऐसा प्रतीत होता है कि द्यो नामक वसु उस शुद्ध द्यौ का प्रतीक नहीं है जो ऋग्वेद १०.६३.३ के अनुसार पीयूष का वर्षण करती है, अपितु उसमें वासना मिली हुई है । अतः वह स्वयं पीयूष का वर्षण करने में समर्थ नहीं है । जब वह शापित होती/होता है तो वह द्यो से वैदिक साहित्य की द्यावापृथिवी बन जाता है जिसका प्रतिनिधित्व आग्नीध्र नामक ऋत्विज करता है । द्यावापृथिवी पृश्नि ( चितकबरी, ऋग्वेद १.१६०.१ ) है । तैत्तिरीय संहिता २.५.२.५ का कथन है कि द्यौ नक्षत्रों से विभूषित होती है जबकि पृथिवी चित्रों से ( तुलनीय : भीष्म द्वारा चित्राङ्गद व विचित्रवीर्य की सहायता करना ) । जब द्यावापृथिवी युग्म होता है तो तब द्यौ पृष्ठ ( तैत्तिरीय संहिता ४.१.२.३, ५.१.२.६, ५.७.२५.१ आदि ) रूप होता है ( पृष्ठ अर्थात् अचेतन मन? ) जिसका तर्पण घृत द्वारा करना अभीष्ट होता है । पुराणों में आग्नीध्र ऋत्विज की पत्नी के रूप में पूर्वचित्ति का नाम आया है जबकि तैत्तिरीय संहिता ७.४.१८.१ में द्यौ के लिए तथा ऋग्वेद १.११२.१ में द्यावापृथिवी के लिए पूर्वचित्तये शब्द का प्रयोग हुआ है ।

      पितृ तर्पण में यम के साथ उस भीष्म के लिए भी तर्पण किया जाता है जो उत्तरायण से विहीन है । भीष्म पञ्चक व्रत में कृष्ण की अर्चना की जाती है । अन्य कथाओं में भीष्म सूर्य उपासना विधि का भी श्रवण करते हैं । भीष्म की कथा आग्नीध्र ऋत्विज की प्रकृति को आगे समझने में सहायक हो सकती है ।

      शतपथ ब्राह्मण ११.६.१.३ में अग्निहोत्र की व्याख्या के संदर्भ में एक आख्यान रचा गया है । वरुण के पुत्र भृगु को अपनी विद्वत्ता पर गर्व हो जाता है तो पिता उन्हें विश्व भ्रमण के लिए भेजते हैं । पूर्व दिशा में भृगु ने देखा कि पुरुष पुरुष का संवृश्चन करके खा रहा है जो भीष्म कृत्य है । दक्षिण दिशा में भीष्म कृत्य यह देखा कि पुरुष पुरुष का संकर्तन करके खा रहा है । पश्चिम दिशा में भीष्म कृत्य यह देखा कि तूष्णीं पुरुष तूष्णीं पुरुष को खा रहा है । उत्तर दिशा में भीष्म कृत्य यह देखा कि आक्रन्दन करने वाला पुरुष आक्रन्दन करने वाले पुरुष को खा रहा है । उत्तर - पूर्व दिशा में भीष्म कृत्य यह देखा कि एक कल्याणी और एक अतिकल्याणी स्त्रियां एक भयंकर पुरुष के दोनों ओर खडी हैं । यह देखकर भृगु भयभीत होकर घर लौट आए । तब वरुण ने उन्हें अग्निहोत्र के रहस्य व प्रायश्चित्त बताए । पूर्व दिशा में पुरुष वनस्पति हैं और वनस्पतियों की जो समिधा बनाई जाती है, वही उसका प्रायश्चित्त है । दक्षिण दिशा में पुरुष पशु रूप हैं और अग्निहोत्र में जो पयः की आहुति दी जाती है, वही उसका प्रायश्चित्त है । पश्चिम दिशा में ओषधियां पुरुष हैं और अग्निहोत्र में जो तृणों का अवज्योतन करते हैं, वही उसका प्रायश्चित्त है । उत्तर दिशा में आपः पुरुष हैं और अग्निहोत्र में जो आपः का प्रयोग किया जाता है, वही उसका प्रायश्चित्त है । उत्तर - पूर्व दिशा में जो कल्याणी स्त्री है, वह श्रद्धा है और जो अतिकल्याणी है, वह अश्रद्धा है । अग्निहोत्र में जो पूर्व और उत्तर आहुतियां दी जाती हैं, वही उनका प्रायश्चित्त है । भयंकर पुरुष क्रोध है । स्रुचि में जल लाकर जो निनयन किया जाता है, वही उसका प्रायश्चित्त है । यह अनुमान लगाया जा सकता है कि यदि ब्राह्मण ग्रन्थ में भीष्म के संदर्भ में ५ दिशाओं का उल्लेख है तो हो सकता है कि पौराणिक साहित्य में भी छद्म रूप से इन दिशाओं की व्याख्या की गई हो । पूर्व दिशा में वनस्पति को समित् बनाने के संदर्भ में शतपथ ब्राह्मण १.३.४.६ व २.३.४.२१ में द्युमन्त के समिन्धन का संदर्भ उपयोगी हो सकता है । वैदिक साहित्य में प्रायः गायत्री द्वारा प्राणों के समिन्धन के उल्लेख आते हैं । दक्षिण दिशा में पुरुषों के पशु होने के उल्लेख के संदर्भ में शतपथ ब्राह्मण २.१.१.६ में द्यावापृथिवी के संदर्भ में ऊष के पशु होने का उल्लेख आया है । द्यौ व उषा का सम्बन्ध तो सर्वविदित है । जैसा कि उषा की टिप्पणी में कहा जा चुका है, उषा का अर्थ होता है सोते हुए प्राणों को प्रथम बार जगाना । उषाकाल में सोए हुए प्राण जाग जाते हैं । अतः यह कहा जा सकता है कि पशु इस ऊष/उषा का विशेष रूप से सम्पादन करते हैं । इन पशुओं से ऐसे पयः की प्राप्ति अभीष्ट है जिसका यज्ञ कार्य में उपयोग किया जा सके । ऊष की प्रकृति उग्र है जिसको पयः के रूप में सौम्य बनाना है । तैत्तिरीय संहिता ४.१.५.४ में द्यौ को उखा कहा गया है । जैसा कि सर्वविदित ही है, यज्ञ कार्य में मिट्टी को पकाकर एक हंडिया के स्वरूप वाले भाण्ड का निर्माण किया जाता है जिसमें स्तनों का निर्माण भी किया जाता है । इसका तात्पर्य यही हो सकता है कि उषा/उखा को रूपान्तरित करके इसे एक गौ का रूप देना है जो दुग्ध दोहन में समर्थ हो । यह विचारणीय है कि क्या यह द्यो वसु के संदर्भ में चिरायु प्रदान करने वाले कामधेनु गौ के दुग्ध से सम्बन्धित है ? पश्चिम दिशा में ओषधि और तृण के अवज्योतन के संदर्भ में ओषधि की व्याख्या भी ऊष को धारण करने वाले के रूप में की जा सकती है । जैसा कि छन्दों के संदर्भ में ४ दिशाओं के प्रतीकों के बारे में कहा जा चुका है, पश्चिम दिशा श्मशान की, अपने पूर्व संस्कारों को भस्म करने की दिशा है ( दक्षिण दिशा दक्षता प्राप्ति की दिशा है ) । उत्तर दिशा के आक्रन्दमान पुरुषों के उल्लेख में उन्हें आपः कहा गया है । पौराणिक कथाओं में भीष्म अम्बा, अम्बिका व अम्बालिका नामक कन्याओं का स्वयंवर से हरण करते हैं जिनमें से अम्बा क्रन्दन करती है । अन्त में अम्बा भीष्म के वध के लिए प्रयत्न व तप करती है और अग्नि में जल कर भस्म हो जाती है । अग्नि में भस्म होने से पहले वह शिव से प्रदत्त माला को द्रुपद पर टांग देती है । इस माला में यह गुण है कि जो इसको पहन लेगा, वह भीष्म को मारने में समर्थ होगा । लेकिन भीष्म के भय से कोई भी राजा इसका उपयोग करने का साहस नहीं जुटा पाता । अगले जन्म में अम्बा राजा द्रुपद की पुत्री के रूप में उत्पन्न होती है जो बाद में शिखण्डी नामक पुरुष बन जाती है और तथाकथित रूप में भीष्म के वध में सहायक होती है । अम्बा शब्द अम्भ:, जल से साम्य रखता है ।

      कुछ अन्य ब्राह्मणों ( शतपथ ब्राह्मण १३.२.२.२, तैत्तिरीय ब्राह्मण ३.८.२३.१ में अश्वमेध के संदर्भ में पशुओं का यूप से बांधकर आलम्भन किया जाता है । मध्यम यूप से अश्व तूपर गोमृग .को बांधा जाता है जो भीष्म है । यह मुख स्थानीय है । इसके एक ओर कृष्णग्रीव अज को बांधा जाता है जो रराटी/ललाट रूप है । दूसरी ओर सारस्वती मेषी को बांधा जाता है जो हनु रूप है । द्रुपद भी यूप का एक गौण प्रकार है । अतः यह विचार करने की आवश्यकता है कि वैदिक तथ्य पौराणिक तथ्यों की और पौराणिक तथ्य वैदिक तथ्यों की किस प्रकार व्याख्या कर सकते हैं । अन्य संदर्भ में सेनामुख/राजमुख को भीष्म कहा गया है जिससे राजा से प्रजा भयभीत रहे । पश्चिम दिशा में तृणों द्वारा अवज्योतन का उल्लेख है । यह विचारणीय है कि क्या अवज्योतन स्वयं द्यो नाम से सम्बन्धित है ? अन्य संदर्भ ( तैत्तिरीय ब्राह्मण ३.१२.३.३) में मन को भीष्म कहा गया है जिसका सह भाव में होना अपेक्षित है ? यास्क के निरुक्त १.२० में भीम की निरुक्त भय उत्पन्न करने वाले के रूप में की गई है और साथ ही साथ भीष्म को भी इसी प्रकार का कहा गया है ।

      ऐसा प्रतीत होता है कि भीष्म का एक रूप भी - शम् भी है जो भय को समाप्त करने वाला है । शर - विद्ध भीष्म इसका प्रतीक हो सकते हैं जो महाभारत के शान्ति पर्व के रूप में युधिष्ठिर और भीष्म के संवाद रूप में है ।