भोजन
टिप्पणी—वर्तमान काल में ऐसे भोजन की आवश्यकता है जो कैंसर तथा अन्य महारोगों से रक्षा करने में सहायक हो सके। इस उद्देश्य के लिए निम्नलिखित भोज्य द्रव्यों का प्रस्ताव है –
गेहूं को ग्राइन्डर में पीस कर बारीक दलिया बना लें। इसे कच्चा ही मुख में डालकर चूसते रहें। इस प्रकार एक-दो चम्मच भर गेहूं का चूर्ण चूसा जा सकता है। अधिक चूसने में कठिनाई यह है कि इसका स्वाद अरुचिकर होता है। अतः इसे चूसकर पेट नहीं भरा जा सकता।
चावल व छिलके वाली दालों जैसे मूंग, उडद आदि को मिलाकर खिचडी पका लें। इसमें थोडी- थोडी मात्रा में हल्दी, जीरा, धनिया, हींग, घृत आदि सभी वह द्रव्य डालें जो खिचडी में डाले जाते हैं। इसके पश्चात् इस खिचडी को तवे पर डालकर मन्द – मन्द अग्नि पर सुखा लें। खिचडी जलने न पाए। अब ग्राइन्डर में डालकर इसका चूर्ण बना लें। इसे मुख में डालकर चूस लें। जिस दाल की खिचडी खाने की इच्छा हो, उसी दाल से बनी सूखी खिचडी को चूस लें। फिर स्वाद लेने के लिए अलग से गीली खिचडी भी थोडी मात्रा में सेवन कर लें। इस सूखी खिचडी का स्वाद ऐसा है कि चूसने में विकर्षण नहीं होता। इसी प्रकार चावलों में घिया को कस कर और अन्य मसाले डालकर सुखा लें। इसको पीसने की आवश्यकता नहीं है।
बादाम की गिरियों को गरम जल में भिगोकर उनका छिलका उतार दें और सुखा लें। इन बादाम गिरियों का सेवन तरबूज, खरबूजा, कद्दू व खीरा की गिरियों के साथ चबाकर किया जा सकता है। बाद में मुनक्का भी ले लें।
शौच और भोजन के बीच कम से कम तीन घंटे का अन्तराल दें।
श्राद्ध में भोजन हेतु मन्त्र
इस जगत में कोई भी कार्य करते समय इस बात का ज्ञान होना चाहिए कि अमुक कार्य का सर्वश्रेष्ठ रूप क्या हो सकता है। अन्त्येष्टिदीपिका पुस्तक में श्राद्ध के अवसर पर भोक्ता द्वारा भोजन करते समय कर्त्ता द्वारा गेय सामगान निम्नलिखित है। इस साम से लगता है कि भोक्ता का कार्य केवल भोजन करना ही नहीं है, अपितु प्रेत के कर्मफलों का भी भक्षण करके उसे कर्मफलों से मुक्त कर देना है। इस कथन का आधार कुछ सामों में प्रकट क्रतु शब्द है जिसके बारे में यह माना जाता है कि क्रतु वह यज्ञ है जिससे कर्मफल जुडा होता है। कर्मफलों से मुक्त होकर प्रेत की स्थिति वेन/वेर्न, पक्षी की भांति हो जाती है। उसके पश्चात् प्रेत का रूप पुर का भेदन करने वाला हो जाता है जो अमित ओज से सम्पन्न होता है। भोजन कृत्य का आरम्भ ओज के अनुदिश सोम का शोधन करने के द्वारा किया गया था। डा. फतहसिंह ओज की व्याख्या ओ, ॐ(अ+उ+म) से जन्मा के रूप में करते हैं। प्रश्न यह है कि क्या इस माधुच्छन्दसी संहिता का गान सामान्य जीवन में भी भोजन के समय किया जाना चाहिए?
यद्वा ऊविश्पतिरित्यादि पितृसंहितां विहायेदं ह्यन्वोजसेत्यादि माधुच्छन्दसीं संहितामश्नत्सु द्विजेषु जपेत्--
**ॐभूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्॥१॥ - ऋ. ३.६२.१०, सामवेद २.८१२
*ॐ तत्सवितुर्वरेणियोम्। भार्गोदेवस्य धीमाहि२। धियो यो नः प्रचो१२१२। हुम्। आ२। दायो। आ२३४५॥२॥
**इ॒दं ह्यन्वोज॑सा सु॒तं रा॑धानां पते। पिबा॒ त्व१॒॑स्य गि॑र्वणः॥ - ऋ. ३.५१.१०, सामवेद १.१६५(१-३, आंगिरसं माधुछन्दसम् वा, आंगिरसं क्रौञ्चम् वा, आंगिरसं घृतश्चुन्निधनं प्राजापत्यं माधुच्छन्दसं वा ), २.८७
*इदाऽ६मे। हियऽ३नूओऽ१जासाऽ२। सूतँराधा। नाम्पाऽ१ताऽ२यि। पिबातुवस्यागीर्वाणाऽ२३४ः। पिबाऽ३४तुवाऽ३। स्याऽ२गाऽ२३४औहोवा। वाऽ२३४णाः॥१॥
*इदंँ हियाऽ४औहो। नूऽ३ओजाऽ२३४सा। सूतंँराधा। नाऽ२३म्। पाऽ२३४ताइ। पिबातुवस्याऽ२३। ग। वाहायि। वाऽ२३४णाः। एहियाऽ६हा। होऽ५इ। डा॥२॥
*इदंँ ह्यनूऽ६ओजसा। सुतंँराधा। नाम्पातौ। होवाऽ३हाइ। पिबातुव। स्यगायिर्व्वाणौ। होवाऽ३हाइ। पिबातुवौ। होवाऽ३हा। स्यगायेऽ३ः। वाऽ२नाऽ२३४औहोवा। घृतश्चुताऽ२३४५ः॥३॥
**त्वामि॒दा ह्यो नरो ऽपी॑प्यन् वज्रि॒न् भूर्ण॑यः। स इ॑न्द्र॒ स्तोम॑वाहसामि॒ह श्रु॒ध्युप॒ स्वस॑र॒मा ग॑हि॥ - ऋ. ८.९९.१, सामवेद १.३०२(माधुच्छन्दसम्), २.१६३
*त्वामिदा। होयि। हियोनराऽ६ए। अपाइप्यन्वा। ज्रायिन् भूर्णाऽ२३४याः॥ स इन्द्रस्तोमवाहसः। इहाश्रूधा। औहोऽ३४वाहाइ। उपास्वासा। औहोऽ३४वाहा। रमागाऽ२३हाऽ३४ऽ३यि। ओ ऽ२३४५इ। डा॥४॥
**स पू॒र्व्यो म॒हानां॑ वे॒नः क्रतु॑भिरानजे। यस्य॒ द्वारा॒ मनु॑ष्पि॒ता दे॒वेषु॒ धिय॑ आन॒जे॥ - ऋ. ८.६३.१, सामवेद १.३५५(मधुश्चुन्निधनम्)
*सपूर्व्योमहोना६मे। वेनःक्रतु३भाइरानजे३। हा३हा। औ३हो३वा। आइही२। यस्यद्वारा३मानुः पिता३। हा३हा। औ३हो३वा। आइही२। दाइवेषुधा३। हा्३हाइ। औ३हो३वा। आइही२। यआ२३। ना२जा२३४औहोवा। मधुश्चुता२३४५ः॥५॥
**पु॒रां भि॒न्दुर्युवा॑ क॒विरमि॑तौजा अजायत। इन्द्रो॒ विश्व॑स्य॒ कर्म॑णो ध॒र्ता व॒ज्री पु॑रुष्टु॒तः॥ - ऋ. १.११.४, सामवेद १.३५९(मारुतम्), २.६००
*पुराम्भिन्दुर्य्युवाकवीः। अमितौजाअजाया२३ता। आइन्द्रोविश्वा३। स्याकर्म्मा२३४णाः। धर्त्ता। वाज्रौवा ओ२३४वापुररू५ष्टुताः। होऽ५इ। डा॥६॥
**उप प्रक्षे मधुमति क्षियन्तः पुष्येम रयिं धीमहे त इन्द्र॥ - सामवेद १.४४४
*ओवा। उपप्रक्षेमधुमति क्षियन्तः। ओ वा। ओ इ। पुष्येमरयिन्धीमहेत आऽ२३इन्द्रा। ओ। वाओवा। ओ। वाहाऽ३१उवाऽ३४। ऊऽ३४पा॥७॥
**पव॑स्व सोम॒ मधु॑माँ ऋ॒तावा॒ ऽपो वसा॑नो॒ अधि॒ सानो॒ अव्ये॑। अव॒ द्रोणा॑नि घृ॒तवा॑न्ति सीद म॒दिन्त॑मो मत्स॒र इ॑न्द्र॒पानः॑॥ - ऋ. ९.९६.१३, सामवेद १.५३२(माधुच्छन्दसम्)
*हा ओऽ२३४हाइ। इहाऽ३१। पवस्वसो। माऽ३मधु। मांँऋतावा। अपोवसा। नोऽ३अधि सानोअव्यायि। अवद्रोणा नीऽ३घृत। वन्तिरोहा। हाओऽ२३४हाइ। इहाऽ३१। मदिन्तमो मत्सरः। आऽ३४३यि। द्राऽ३पाऽ५नाऽ६५६ः॥८॥
**सु॒रू॒प॒कृ॒त्नुमू॒तये॑ सु॒दुघा॑मिव गो॒दुहे॑। जु॒हू॒मसि॒ द्यवि॑द्यवि॥ - ऋ. १.४.१, सामवेद १.१६०(?), २.४३७
*सुरूपकृत्नुमूतयेसुदुघामा। वगो२। दुहया३१उवा२३। इ२३४डा। सू२३४वाः। जुहुमा२३सी। द्यविद्यविया३१उवा२३। ज्यो२३४तीः॥९॥ इति माधुच्छन्दसी संहिता।
प्रथम लेखन -- २३-११-२०११ई.(मार्गशीर्ष कृष्ण त्रयोदशी, विक्रम संवत् २०६८)