It has been quoted in a sacred text that ascending to inverted heaven was done with the help of Yamunaa. What is this “inverted” heaven, is necessary to understand for proper understanding of Yamunaa. It has been stated that the transition from sixth day of a Somayaaga to the next 7th and following days is inversion like. As has been said elsewhere in comments of other words also, the penances upto 6th day are representative of vertical penance, while the following days are representative of a horizontal penance, a state of bliss. One text quotes that Yamunaa is bound by it’s two banks. This statement may seem trivial, but in this context, it becomes important, as to which are the two banks of Yamunaa? It can be guessed that the above vertical and horizontal penances are the two banks of Yamunaa. There is a story that once gopis wanted to cross the river to feed muni Durvaasaa. They asked Krishna and he told them to utter that if Krishna is a celibate by birth, then the river should give way. And the river actually gave them the way. In a similar manner, gopis asked Durvaasaa how to go back by crossing the river. Durvaasaa told them to utter that if Durvaasaa lives without food, surviving only on a little grass juice, then let river give the way. And this actually happened. Gopis were very surprised that on one hand Krishna is a celibate and on the other hand Durvaasaa lives without food. Then Durvaasaa explains them the reason. This story forms the basis for understanding the two banks of Yamunaa. One bank is of vertical penances, where all the desires have to be calmed so that total tranquility is achieved. On the other hand, all the desires have to be associated with a higher goal, in this case Krishna, which gives immense pleasure. Then those desires which were evil, transform in good ones, these become friendly in our goal.
The other story regarding two banks of Yamunaa is that of crossing of Yamunaa by Vasudeva in transporting baby Krishna from Mathuraa to Gokula. Here also there are two sides of the story. On the one side is Kamsa and on the other side is Nanda, the foster father of Krishna.
One other main holy place at the banks of Yamunaa is Indraprastha. Depicting the importance of this place, it has been said that one gains the memory of his previous birth by contact with holy water of this place. Lord Brahmaa could regain memory of lost vedas here. About the origin of this holy place, it has been said that lord Indra performed a yaaga here and distributed lot of wealth to gods. Still, so much wealth was left without distribution which is lying here. The riddle of this place can be understood on the basis of the fact that in Soma yaaga, only that soma is offered to Indra which has become standstill. In the story of Indraprastha, this has been called a heap of wealth. There is a story in Mahaabhaarata where there is a quarrel between mind and speech over superiority. At last, the judgement is delivered that a mind which is standstill is superior, while a speech which is flowing is superior. It is expected that the standstill soma which is offered to lord Indra is nothing but a form of standstill mind. This story can be understood on the basis of famous trio of vedic literature – praana, mana and vaak, or life-force, mind and speech/voice, or sun, moon and earth. It is desirable that the story of sage Durvaasaa, Gopis and Krishna in Vrindaavana is also understood on the basis of this trio.
There is a hymn in Rigveda which contains conversation between lord Yama and her sister Yamee. Yamee wants to make Yama her husband, but Yama ignores her advances by arguments. These arguments are at present not understood, but it can be guessed that until one has achieved the state of bliss, he has to adhere with established principles.
Dr. Fatah Singh takes Yamunaa as representing action, while Gangaa has been taken as representing knowledge. The accuracy of this assumption can be tested on the basis of statement of one puraana that Yamunaa represents Yajurveda, a veda of sacrificial actions. In vedic literature, actual action is one which does not lead to increase in entropy. This can only be a state of action represented by a wish fulfilling tree, which requires no actual action.
Regarding equating Yamunaa with sister, the meaning of sister in Sanskrit seems to be connected with future. Gods live in present, humans live in future. Their actions create future and past. Yamunaa has also been associated with “inversion”. So, this aspect has to be examined with these facts.
यमुना
टिप्पणी : जैमिनीय ब्राह्मण ३.१५० में औक्ष्णोरन्ध्रं साम के संदर्भ में उल्लेख आता है कि उशना काव्य ने यमुना द्वारा ही प्रतीप स्वर्ग लोक को आरोहण किया । जैमिनीय ब्राह्मण ३.१८३ में रोहितकूलीयम् साम के संदर्भ में उल्लेख आता है कि विश्वामित्र ने भरतों की अनस्वती नगरी में जाने के लिए दो अनड्वाहों का आश्रय लिया । वह (नगरी?) गंगा या यमुना के प्रतिकूल थी । इससे आगे प्रतिकूल की याज्ञिक भाषा में व्याख्या की गई है । कहा गया है कि द्वादशाह नामक सोमयाग में जो षष्ठम् अह से छन्दोम संज्ञक सातवें, आठवें व नवें अहों को संक्रमण करते हैं, वह प्रतिकूल जैसा ही है । द्वादशाह के षष्ठम् अह के संदर्भ में यह अनुमान है कि छठे अह तक की साधना एकान्तिक साधना होती है, वृत्र के हनन की साधना होती है । सातवें अह से नवम अह तक की संज्ञा छन्दोम होती है और अनुमान है कि यह वृत्र की मृत्यु के पश्चात् आनन्द की स्थिति है । ऐसा कोई उल्लेख नहीं है कि वास्तव में ६+६ दिनों के दो भागों का निहितार्थ क्या है । इस निहितार्थ को यमुना के माध्यम से समझा जा सकता है । सामरहस्योपनिषद पृष्ठ २२१:१७, २५८:२१ आदि में उल्लेख आता है कि वृन्दावन में यमुना उभयतट बद्धा है । गोपालोत्तरतापिन्युपनिषद तथा गर्ग संहिता ४.१ में गोपियों द्वारा यमुना पार स्थित दुर्वासा मुनि को भोजन प्रस्तुति के लिए जाने का कथन है । यहां कठिनाई यमुना को पार करने की है । पहली बार वह 'कृष्ण बाल ब्रह्मचारी हैं' यह कहकर यमुना पार करती हैं । लौटते समय वह 'दुर्वासा मुनि हैं', यह कहकर यमुना पार करती हैं । लगता है कि यमुना के यही दो तट हैं । एक तट एकान्तिक साधना का है तो दूसरा तट सार्वत्रिक साधना का । दुर्वासनाएं मुनि बन जाएं, मौन हो जाएं, यह एकान्तिक साधना का लक्ष्य हुआ । कहा गया है कि दुर्वासा यमुना तट पर जहां विराजमान थे, उसका नाम भाण्डीर वन था । फिर कृष्ण की लीलाओं में एक कथा आती है कि भाण्डीर वन में कंस के सखा प्रलम्ब का उपद्रव हुआ । वह बलराम को अपनी पीठ पर बैठाकर उनका हरण करने लगा तो बलराम ने उसे मार दिया । प्रलम्ब की ज्योति बलराम में समा गई । इससे आगे कहा गया है कि प्रलम्ब हू हू गन्धर्व का पुत्र था जो शापवश असुर बन गया था । इन कथाओं को इस प्रकार समझा जा सकता है कि भाण्ड धातु 'अव्यक्तायां वाचि' के अर्थ में है । इसका अर्थ यह हो सकता है कि इस स्थान पर वाक् को अव्यक्त बनाना है, जैसा कि दुर्वासा के मुनि बन जाने से लक्षित होता है । हू हू गन्धर्व आनन्द की स्थिति है जो प्रलम्ब/प्ररम्भ के रूप में व्यक्त हो रही है(रेभ - शब्दे ) । यह आनन्द किस प्रकार का है जिसकी अभिव्यक्ति को अव्यक्त बनाना है, यह विचारणीय है । सामरहस्योपनिषद २६०:४ में उल्लेख है कि वृन्दावन में यमुना क्रीडाधिष्ठान है । सामरहस्योपनिषद २५५:१ का कथन है कि यमुना का दक्षिण तट महास्थान है जहां वृन्दावन आदि स्थित हैं । गोपियों और कृष्ण की रासक्रीडा के संदर्भ में गोपियों को चित्तवृत्तियां माना जा सकता है । एकान्तिक साधना तक यही चित्तवृत्तियां दुर्वासनाएं थी । अब इन्होंने गोपियों का रूप धारण कर लिया है । और उससे आगे की स्थिति है इन चित्तवृत्तियों का कृष्ण से रास, रस में लीन होना । ऋग्वेद ५.५२.१७ का कथन है कि 'यमुनायामधि श्रुतमुद्राधो गव्यं मृजे नि राधो अश्व्यं मृजे ।' यहां दो प्रकार के राध: का उल्लेख है - एक जो गो प्रकार का है और दूसरा जो अश्व प्रकार का है । यह कल्पना की जा सकती है कि कृष्ण से मिलन से पूर्व राध: गो प्रकार है जबकि मिलन के पश्चात् अश्व प्रकार का । चूंकि पौराणिक राधा का अस्तित्व केवल यमुना किनारे ही है, अतः यह कहा जा सकता है कि यमुना के निहितार्थ को समझने के लिए राधा के निहितार्थ को समझना होगा । और दुर्वासा मुनि की कथा के संदर्भ में यह ध्यान देने योग्य है कि पहले कृष्ण अपने गुरु दुर्वासा मुनि से ज्ञान प्राप्त करके गोपियों के पास आते हैं, फिर गोपियां दुर्वासा के पास जाती हैं । सामरहस्योपनिषद के अन्त में जीव की तीन स्थितियों का कथन है - सत्, चित् और आनन्द । इनमें से सत् स्थिति को सांसारिक जीव की स्थिति कहा गया है जो कर्म करने में तल्लीन रहता है । दूसरी स्थिति चित् की है जब जीव को ज्ञान उत्पन्न हो जाता है और उसमें विरक्ति आ जाती है । तीसरी स्थिति आनन्द की है जब जीव की सारी चेतना एक दिव्य आनन्द में ओत - प्रोत हो जाती हैं, उसकी जो पहले वासनाएं थी, अब वही उसके साधन में सहायक बन जाती हैं ।
जैमिनीय ब्राह्मण ३.१५० में औक्ष्णोरन्ध्रं साम के संदर्भ में उल्लेख आता है कि उशना काव्य ने यमुना द्वारा ही प्रतीप स्वर्ग लोक को आरोहण किया । जैमिनीय ब्राह्मण ३.१८३ में रोहितकूलीयम् साम के संदर्भ में उल्लेख आता है कि विश्वामित्र ने भरतों की अनस्वती नगरी में जाने के लिए दो अनड्वाहों का आश्रय लिया । वह (नगरी?) गंगा या यमुना के प्रतिकूल थी । इससे आगे प्रतिकूल की याज्ञिक भाषा में व्याख्या की गई है । कहा गया है कि द्वादशाह नामक सोमयाग में जो षष्ठम् अह से छन्दोम संज्ञक सातवें, आठवें व नवें अहों को संक्रमण करते हैं, वह प्रतिकूल जैसा ही है । जैमिनीय ब्राह्मण २.३०० में गवामयन याग के संदर्भ में कहा गया है कि गवामयन याग के ६ - ६ मास के दो पक्षों में से पहले की संज्ञा अभिजित् है जबकि दूसरे की विश्वजित् । अग्नि अभिजित् है, इन्द्र विश्वजित् । यह लोक अभिजित् है, स्वर्गलोक विश्वजित् । स्वर्गलोक यमुना है । अभिजित् पर टिप्पणी के आधार पर यह कहा जा सकता है कि अभिजित् एकान्तिक साधना का पक्ष है जबकि विश्वजित् सार्वत्रिक साधना का । यमुना में सोमयाग के अन्त में अवभृथ स्नान किया जाता है । यमुना में अवभृथ स्नान का वैदिक साहित्य में सार्वत्रिक रूप से निर्देश है ( उदाहरण के लिए, ताण्ड्य ब्राह्मण २५.१०.२३, शाङ्खायन श्रौत सूत्र १३.२९.२१, आपस्तम्ब श्रौत सूत्र २३.१३.६ आदि ) । अवभृथ स्नान के संदर्भ में, सोमयाग के अन्त में अवभृथ स्नान किया जाता है । पौराणिक संदर्भों के अनुसार अवभृथ स्नान के पश्चात् यजमान एक दिव्य कुमार के रूप में जल से निकल कर बाहर आता है जो वरदान आदि देने में समर्थ होता है ( लक्ष्मीनारायण संहिता ) । जैमिनीय ब्राह्मण ३.१८३ का कथन है कि यही प्रतीप स्थिति है, प्रतिकूल स्थिति है ।
यमुना के दो तटों के संदर्भ में दूसरी कथा वसुदेव द्वारा पुत्र कृष्ण को मथुरा से गोकुल ले जाने की है । एक कंस की नगरी मथुरा/मधुरा है तो दूसरी नन्द की, आनन्द की । यमुना के संदर्भ में तीसरी कथा अक्रूर द्वारा यमुना में स्नान के समय कृष्ण के दर्शन की है जिसका निहितार्थ विचारणीय है । वास्तविकता यह है कि यज्ञ के अन्त में अवभृथ स्नान के रहस्यों के विषय में अधिक ज्ञात नहीं है ।
पद्म पुराण ६.१९९ में यमुना तट पर स्थित इन्द्रप्रस्थ तीर्थ का विस्तृत माहात्म्य प्राप्त होता है । कहा गया है कि इन्द्रप्रस्थ तीर्थ में ब्रह्मा जी को विस्मृत वेद ज्ञान का पुनः स्मरण हो गया था । सारा इन्द्रप्रस्थ तीर्थ ही पूर्व जन्म के ज्ञान से सम्बन्धित है । इस तीर्थ की अन्तर्वर्ती कथाओं में कहा गया है कि इस तीर्थ के जल का स्पर्श होने से राक्षसों का उद्धार हो जाता है, वह स्वर्ग लोक को चले जाते हैं, उन्हें पूर्व जन्म का स्मरण हो जाता है । इन्द्रप्रस्थ तीर्थ के उद्भव के विषय में केवल इतना ही कहा गया है कि यहां इन्द्र ने यज्ञ किया था और उसने यज्ञ के अन्त में बहुत सा धन देवों में वितरित किया था । फिर भी बहुत सा धन बच गया था जिसका प्रस्थ/ढेर यहां विद्यमान है । इन्द्रप्रस्थ को वेद की ऋचाओं व सोमयाग के माध्यम से समझा जा सकता है । ऋग्वेद १०.११६.२, १०.११६.७ - ८, २.३६.४, ७.९८.२ आदि में इन्द्र से प्रस्थित सोम का पान करने की प्रार्थना की गई है । ऋग्वेद १.२३.१ में वायु से प्रस्थित सोमों का पान करने की प्रार्थना की गई है । ऐतरेय ब्राह्मण ६.१०-१२ तथा गोपथ ब्राह्मण २.२.२०-२२ में उल्लेख आता है कि सोमयाग में इन्द्र को तीनों सवनों में प्रस्थित सोम प्रस्तुत किया जाता है । यह 'प्रस्थित' सोम क्या है, इसका स्पष्टीकरण कहीं उपलब्ध नहीं है । इसकी व्याख्या का एकमात्र स्रोत इन्द्रप्रस्थ तीर्थ ही है । प्रस्थित शब्द मूलतः प्रतिष्ठा से बना है । महाभारत आश्वमेधिक पर्व में मन और वाक् के बीच परस्पर श्रेष्ठता के विवाद का एक आख्यान है जिसके अन्त में निर्णय दिया गया है कि मन का स्थावर रूप श्रेष्ठ है जबकि वाक् का जङ्गम रूप । ऐसा अनुमान है कि मन का स्थावर रूप, स्थिर रूप ही सोम है जिसे इन्द्र को प्रस्तुत किया जाता है । दूसरे शब्दों में, यह कहा जा सकता है कि इन्द्रप्रस्थ में इन्द्र प्राण/सूर्य है जबकि यमुना जल मन/सोम है । मन का प्रस्थित होना ही प्रस्थ बनना है । इस प्रकार इन्द्रप्रस्थ के माध्यम से प्राण, मन और वाक् के त्रिक रूप में संवत्सर का निर्माण किया गया है । वृन्दावन के संदर्भ में दुर्वासा, गोपियों व कृष्ण को भी प्राण, वाक् और मन के दृष्टिकोण से समझने की आवश्यकता है ।
इन्द्रप्रस्थ में यज्ञशेष धन होने के उल्लेख के संदर्भ में, यज्ञशेष पर रुद्र का आधिपत्य होता है । रुद्र को प्रसन्न करना होता है, तभी वह यज्ञशेष धन प्राप्त हो सकता है, जैसा कि नाभाग की कथा में है । सामान्य रूप से किसी कार्य को करने के पश्चात् जो शेष बचता है, वह बेकार हुई ऊर्जा होती है, जिसे उच्च अव्यवस्था वाली, उच्च एण्ट्रांपी वाली ऊर्जा कह सकते हैं । जब शेष के साथ यज्ञ शब्द जुड जाता है तो इसे बेकार ऊर्जा नहीं, अपितु धन नाम दिया गया है । इस धन की प्रकृति क्या है, यह अन्वेषणीय है । ऊपर दुर्वासा की कथा में दुर्वासा के मुनि बनने के उल्लेख पर भी इसी संदर्भ में विचार करने की आवश्यकता है । दुर्वासा वही रुद्र हो सकते हैं जिनका यज्ञशेष पर अधिकार होता है ।
महाभारत में पाण्डवों को जीवन यापन के लिए जिन पांच ग्रामों की प्राप्ति का उल्लेख आता है, उनके आधुनिक नाम इन्द्रप्रस्थ, पानीपत, सोनीपत, तिलपत व बागपत कहे जाते हैं । वैदिक भाषा में इनको इन्द्रप्रस्थ, प्राणप्रस्थ, शोणप्रस्थ, तिलप्रस्थ व वाक्प्रस्थ कहा जा सकता है । इन पांचों में से इन्द्रप्रस्थ को विशेष ख्याति प्राप्त हुई क्योंकि यह युधिष्ठिर द्वारा राजसूय याग सम्पन्न कराने का स्थान है । वाक्प्रस्थ को छोडकर शेष चार यमुना के पश्चिमी तट पर ही स्थित हैं । पश्चिम दिशा अपने पापों को जलाने की दिशा है, पापों का श्मशान बनाने की दिशा है ।
ऋग्वेद की ऋचाओं में सोम के प्रस्थित होने के उल्लेख तो मिलते हैं, लेकिन प्राण व वाक् के प्रस्थों के उल्लेख प्रत्यक्ष रूप से तो नहीं मिलते ।
डा. फतहसिंह ने यमुना को कर्म का तथा गङ्गा को ज्ञान का प्रतीक माना है । यह धारणा कितनी ठीक है, इसका अनुमान पुराणों के इस उल्लेख से लगाया जा सकता है कि यमुना यजुर्वेद रूप है । यजुर्वेद कर्मकाण्ड का वेद है । यह वेद ऐसे कर्म का निर्देश देता है जिसमें इस विश्व की अव्यवस्था में वृद्धि न हो । सामान्य कर्म से तो इस अव्यवस्था में वृद्धि ही हो रही है ( भौतिक विज्ञान में तापगतिकी का दूसरा नियम - इस विश्व की अव्यवस्था में निरन्तर वृद्धि हो रही है ) । यह कोई भावपरक कर्म हो सकता है, कोई कल्पवृक्ष हो सकता है ।
यास्काचार्य के निरुक्त ९.२६ में यमुना की व्याख्या इस प्रकार की गई है कि 'प्रयुवती गच्छतीति वा प्रवियुतं गच्छतीति वा ' । अर्थात् या तो यमुना दो को मिलाती है या अलग हुए को जाती है ।
ऋग्वेद १०.१० सूक्त यम - यमी संवाद है जिसमें यमी यम की पत्नी बनने का आग्रह करती है लेकिन यम उसको अपनी भगिनी समझता है । नरसिंह पुराण में यह संवाद यम और यमुना के बीच है । प्रश्न यह है कि स्वसा से क्या अर्थ हो सकता है । ऐसा अनुमान है कि स्वसा श्वस्तनम् का छद्म रूप है । श्वस्तनम् से अर्थ है भविष्य का कल । देवों की प्रगति अद्यतनम् में, इसी क्षण में, वर्तमान में होती है जबकि प्रजा, पशु, स्वर्ग आदि की प्रगति श्वस्तनम् में होती है ( जैमिनीय ब्राह्मण २.४२४, ३.१७-१८ आदि ) । पुराणों में यमुना का वाहन कूर्म या कच्छप है । कूर्म धीमी गति का, श्वस्तनम् का प्रतीक है जबकि कच्छप में अनुमान है कि यह गति तीव्र हो जाती है । मैत्रायणी संहिता १.५.१२ का कथन है कि पहले केवल अह था, अद्यतन था, श्वस्तनम् नहीं । रात्रि के सृजन से श्वस्तनम् का जन्म हुआ । यह कथन यम - यमी के संदर्भ में है ।
प्रथम लेखन : ९-१२-२००७ ई.
यमुना के संदर्भ में महत्त्वपूर्ण वैदिक संदर्भ :
ॐसप्त मे सप्त शाकिन एकमेका शता ददु: । यमुनायामधि श्रुतमुद्राधो गव्यं मृजे नि राधो अश्व्यं मृजे ।। - (मरुतः) - ऋग्वेद ५.५२.१७
ॐआवदिन्द्रं यमुना तृत्सवश्च प्रात्र भेदं सर्वताता मुषायत् । अजासश्च शिग्रवो यक्षवश्च बलिं शीर्षाणि जभ्रुरश्व्यानि ।। - ऋग्वेद ७.१८.१९
ॐअतिकाळिकरौद्रस्य विष्णु: सौम्येन भाविना । यमुननदी कालिकं ते विष्णुस्तोत्रम् अनु स्मरन् ।। खिल २.१४.९
ॐयदि वासि त्रैककुदं यदि यामुनमुच्यसे । उभे ते भद्रे नाम्नी ताभ्यां नः पाह्याञ्जनः ।। - शौनकीय अथर्ववेद ४.९.१०
ॐकालिको नाम सर्पो नवनागसहस्रबळ: । यमुनह्रदे ह सो जातो यो नारायण वाहनः ।। - खिल २.१४.४
ॐप्लाक्षं प्रस्रवणं प्राप्योत्थानम् । ते यमुनायां कारपचवेऽवभृथम् अभ्युपेयु: । - आश्वलायन श्रौत सूत्र १२.६.३०
ॐत्रि: प्लक्षां प्रति यमुनामवभृथमभ्यवयन्ति । (तदैव मनुष्येभ्यस्तिरो भवति ) । - आपस्तम्ब श्रौत सूत्र २३.१३.१४, शाङ्खायन श्रौत सूत्र १३.२९.३०, ताण्ड्य ब्राह्मण २५.१३.४
ॐअष्टासप्ततिं भरतो दौष्यन्तिर्यमुनामनु । गङ्गायां वृत्रघ्नेऽबध्नात् पञ्चपञ्चाशतं हयान् ।। - ऐतरेय ब्राह्मण ८.२३, शतपथ ब्राह्मण १३.५.४.११
ॐनमो गङ्गायमुनयोर्मध्ये ये वसन्ति ते प्रसन्नात्मानश्चिरं जीवितं वर्धयन्ति नमो गङ्गायमुनयोर्मुनिभ्यश्च नम: । - तैत्तिरीय आरण्यक २.२०.१