यव
टिप्पणी : यव शब्द की निरुक्ति यु-मिश्रणे-अमिश्रणे धातु के आधार पर की जाती है। डा. फतहसिंह कहा करते थे कि भौतिक रूप में यव बीच में जुडा रहता है, जबकि व्रीहि एक इकाई होता है। जिस प्रकार यव जुडा रहता है, ऐसे ही मनुष्य भी बीच में जुडा रहता है। उसका एक भाग मानुषी त्रिलोकी है जो मनोमय, प्राणमय और अन्नमय कोशों के मिलने से बनती है। दूसरा भाग दैवी त्रिलोकी है जो आनन्दमय और विज्ञानमय कोशों के मिलने से बनती है। यह दोनों त्रिलोकियां एक दूसरे में बल का आदान-प्रदान करती रहती हैं। इस तथ्य को सरल भाषा में इस प्रकार कहा जा सकता है कि जब मनुष्य अपने तप से प्राप्त बल को, अथवा अपने अर्जित ज्ञान को अपने व्यावहारिक जीवन में उतार लेने में समर्थ हो जाता है तो वह यव बन जाता है। तैत्तिरीय संहिता ६.४.१०.५ के अनुसार प्रजापति की अक्षि अश्वयत् होकर विकंकत में प्रवेश कर गई, लेकिन वहां वह रम न सकी। जब उसने यव में प्रवेश किया तो वह वहां रम गई। इससे संकेत मिलता है कि पहली स्थिति अक्षि या अक्ष है। दूसरी स्थिति अश्व है। जब अक्ष, द्यूत की स्थिति, संसार में घटनाओं के आकस्मिक रूप से घटित होने की स्थिति अश्व में बदल जाए तो समझना चाहिए कि यव का निर्माण हो गया है। शतपथ ब्राह्मण १.७.१.१० के कथन से यह स्पष्ट हो जाता है कि जो कर्मकाण्ड अनादिष्ट (देवता विशेष के नाम से रहित) हो, वहां यव या यवागू द्वारा आहुति देनी होती है। जहां देवता आदिष्ट हो, वहां पयः द्वारा। शतपथ ब्राह्मण ३.६.१.१० द्वारा भी इसी कथन की पुष्टि होती है।
वैदिक ऋचाओं में प्रायः गायों द्वारा अथवा पशुओं द्वारा यवस का भक्षण करके अत्यधिक प्रसन्न होने के उल्लेख आते हैं। ऋग्वेद ८.९२.१२ में उल्लेख है कि जिस प्रकार गाएं यवस के भक्षण से प्रसन्न होती हैं, ऐसे ही हम उक्थों द्वारा इन्द्र को प्रसन्न करते हैं। उक्थ उन प्राणों को कहते हैं जिनका प्रयत्न द्वारा उत्थान किया जाता है, अन्यथा वह सोते रहते हैं। ऋग्वेद १०.४२.१०(गोभिस्तरेम अमतिं दुरेवां) व १०.१०१.९ आदि से अनुमान लगता है कि गाएं अमति को दूर करने वाली धी/बुद्धि का प्रतीक हो सकती हैं।
पुराणों में स्वर्णिम यव को सिर पर रखकर तीर्थ विशेष में स्नान का उल्लेख है। जैसा कि श्री रजनीश द्वारा अपनी व्याख्यानमाला ‘कुण्डलिनी और सात शरीर’ में स्पष्ट किया है, हमारे शरीर के सात कोशों में से प्रत्येक कोश अपने से नीचे वाले कोश को बल प्रदान कर रहा है। जब भय आदि उपस्थित होने पर ऊपर का कोश संकुचित हो जाता है और अन्नमय कोश को बल देना बंद कर देता है तो पैर लडखडाने लगते हैं। इन सबको यव की स्थिति कहा जा सकता है। स्वर्णिम यव से तात्पर्य आनन्दमय कोश की शक्ति निचले कोशों को प्राप्त होने से हो सकता है।
यव, व्रीहि और तिल : जैमिनीय ब्राह्मण २.३४ का कथन है कि व्रीहि शक्वर्य हैं जबकि यव रेवतयः हैं। पृष्ठ्य षडह नामक सोमयाग में पंचम दिन महानाम्नी सामों को शक्वर्य कहा गया है। महानाम्नी साम में नाम प्राप्ति की अपेक्षा की जाती है। रेवत रयिवत् का परोक्ष रूप हो सकता है। लौकिक रूप में प्रचलित कर्मकाण्ड/विष्णु अर्चना में एकादशी तिथि को व्रीहि/अक्षत का निषेध कहा जाता है।
गया श्राद्ध पद्धति(लेखक : रुद्रदत्त पाठक, श्री विष्णु प्रकाशन, देव औरंगाबाद, बिहार) में गया में अनुष्ठान किये जाने वाले त्रिपिण्डीकरण श्राद्ध की विधि दी गई है। त्रिपिण्डीकरण श्राद्ध के रहस्य को कर्मकाण्ड में उच्चारित किए जाने वाले मन्त्रों के आधार पर समझा जा सकता है : अज्ञातनामगोत्राः सात्त्विकप्रेताः दिविस्थाः विष्णुमयास्त्रिपिण्डीश्राद्धे इदमासनं वो मया दीयते युष्माकमुपतिष्ठताम् से पहले कलश के आगे रखे आसन पर मोटक/कुशपत्रद्वय, यव व जल छोडा जाता है। अज्ञातनामगोत्राः अन्तरिक्षस्थाः ब्रह्ममया राजस प्रेतास्त्रिपिण्डीश्राद्धे इदमासनं वो मया दीयते युष्माकमुपतिष्ठताम् द्वारा दूसरे कलश के आगे रखे आसन पर मोटक/कुशपत्रद्वय, चावल व जल छोडा जाता है। अज्ञातनामगोत्रास्तामसप्रेता भूमिस्था रुद्रमयास्त्रिपिण्डीश्राद्धे इदमासनं वो मया दीयते युष्माकमुपतिष्ठताम् द्वारा तीसरे कलश के आगे रखे गए आसन पर मोटक, तिल व जल छोडा जाता है। पुनः ॐ यवोऽसि यवयास्मद् द्वेषो यवयारातीः( वा.सं. ५.२६, ६.१ आदि) इससे प्रथम पात्र पर यव, ॐ अक्षन्नमी मदन्त ह्यव प्रिया अधूषत। अस्तोषत स्वभानवो विप्रा नविष्ठया मती योजा न्विन्द्र ते हरी (ऋ. १.८२.२) इससे दूसरे पात्र पर व्रीहि/अक्षत और ॐअपहता असुरा रक्षांसि वेदिषदः इससे तीसरे पात्र पर तिल छोडे जाते हैं। इसके पश्चात् तीनों आसनों के सामने तीन वेदियां बनाई जाती है और उन पर कुशा से रेखाएं बनाई जाती है। रेखाओं पर अग्नि घुमाई जाती है और प्रत्येक वेदी की रेखाओं पर तीन-तीन कुशाएं बिछाई जाती हैं। इसके पश्चात् तीन वेदियों पर पिण्ड दिए जाते हैं। प्रथम वेदी पर यवपिण्ड देने के मन्त्रों में एक मन्त्र है – इदं यवमयं पिण्डं यवसर्पिः समन्वितम्। ददामि तस्मै प्रेताय यः पीडां कुरुते मम॥ये केचित् प्रेतरूपेण वर्तन्ते पितरो मम। यवपिण्डप्रदानेन तृप्तिं गच्छन्तु शाश्वतीम्॥ ये केचिद्दिवि तिष्ठन्ति प्रेताः सात्त्विकरूपिणः। सात्त्विकपिण्डप्रदानेन तृप्तिं गच्छन्तु शाश्वतीम्॥ दूसरी वेदी पर व्रीहिपिण्ड देने के लिए उच्चरित मन्त्रों में से एक है – इमं व्रीहिमयं पिण्डं मधुरत्रयसंयुतम्। तन्मुक्तये प्रयच्छामि पीडां ये कुर्वते मम॥ ये केचित् प्रेतरूपेण वर्तन्ते पितरो मम। व्रीहिपिण्डप्रदानेन व्रजन्तु गतिमुत्तमाम्॥ अन्तरिक्षे स्थिता ये च राजसा वायुरूपिणः। राजसपिण्डदानेन ते तृप्यन्तु मुदान्विताः॥ तीसरी वेदी पर तिलपिण्ड देने के लिए उच्चरित मन्त्रों में से एक है – इमं तिलमयं पिण्डं मधुना सर्पिषा युतम्। तेभ्यो ददामि प्रेतेभ्यो ये पीडां कुरुते मम॥ ये केचित्तामसाः प्रेता भूमौ तिष्ठन्ति सर्वदा। तिलपिण्डप्रदानेन गतिं गच्छन्तु ते ध्रुवाम्॥ तमोरूपाश्च ये केचिद् वर्तन्ते पितरो मम। पिण्याकपिण्डदानेन ते तृप्यन्तु क्षुधार्दिताः॥ तीन पिण्डों पर अर्घ प्रदान करने के मन्त्र : (१)अज्ञातनामगोत्राः सात्त्विकप्रेताः दिविस्था विष्णुमयाः त्रिपिण्डीश्राद्धे मातुलिंगैरर्घो वो मया दीयते युष्माकमुपतिष्ठताम्। द्वारा गन्ध, जल, यव, अक्षत, पुष्प और मातुलिंग फल द्वारा (२) अज्ञातनामगोत्राः राजसप्रेताः अन्तरिक्षस्थाः ब्रह्ममयाः त्रिपिण्डीश्राद्धे जम्बीरफलैरर्घो वो मया दीयते युष्माकमुपतिष्ठताम् द्वारा गन्ध, अक्षत, पुष्प, जल और जम्बीर फल द्वारा (३) अज्ञातनामगोत्राः तामसप्रेता भूमिस्थाः रुद्रमयाः त्रिपिण्डीश्राद्धे खर्जूरफलैरर्घो वो मया दीयते युष्माकमुपतिष्ठताम् द्वारा गन्ध, पुष्प, तिल तथा खजूर फल द्वारा। रुडकी विश्वविद्यालय में प्रतिष्ठित पं. नगेन्द्रदत्त सरस्वती ने सूचित किया है कि मृत्यु पश्चात् प्रेत के दशाह कर्म में यव पिण्ड बनाए जाते हैं, एकादशाह में व्रीहिपिण्ड और द्वादशाह में तिलपिण्ड। त्रिपिण्डी श्राद्ध कर्म में प्रथम यवपिण्ड के साथ यवसर्पि को जोडा गया है, जबकि व्रीहि व तिल के पिण्डों के साथ मधु/मधुरत्रय आदि का भी उल्लेख है। इससे यह आशंका होती है कि क्या यव के साथ मधु का कोई योग नहीं है? लेकिन अथर्ववेद ६.३०.१(देवा इमं मधुना संयुतं यवं इति) में यव के साथ मधु का भी उल्लेख है।
तैत्तिरीय संहिता ७.२.१०.२ में विभिन्न ऋतुओं में याग के द्रव्यों का उल्लेख है - ऋ॒तवो॒ वा ए॒तेन॑ प्र॒जाप॑तिमयाजय॒न् - - -स रस॒मह॑ वस॒न्ताय॒ प्राय॑च्छत् यवं॑ ग्री॒ष्मायोष॑धीर्व॒र्षाभ्यो॑ व्री॒हीञ्छ॒रदे॑ माषति॒लौ हे॑मन्तशिशि॒राभ्यां॒ । इस कथन के अनुसार यव ग्रीष्म ऋतु को प्रदान किए गए, व्रीहि शरद ऋतु को और माष व तिल हेमन्त-शिशिर ऋतुओं को। यह विचारणीय है कि क्या यव किसी प्रकार से ऊष्मा की शान्ति करने हेतु हैं और व्रीहि ऊष्मा जनन के लिए? आधुनिक विज्ञान की भाषा में यह ऊष्माशोषी और ऊष्माक्षेपी अभिक्रियाएं हो सकती हैं। शौनकीय अथर्ववेद ११.६.१३/११.४.१३ का मन्त्र है : प्राणापानौ व्रीहियवावनड्वान् प्राण उच्यते। यवे ह प्राण आहितोऽपानो व्रीहिरुच्यते॥ इस मन्त्र में व्रीहि को अपान कहा जा रहा है। जैसा कि सर्वविदित है, यज्ञ में पुरोडाश का निर्माण व्रीहि चूर्ण द्वारा किया जाता है। पुरोडाश मस्तिष्क का प्रतीक हो सकता है। ओदन का निर्माण भी व्रीहि द्वारा ही होता है। ओदन उदान प्राण का रूप है। अथर्ववेद में व्रीहि को अपान कहा जा रहा है। अपान और उदान में कोई सम्बन्ध हो सकता है। हो सकता है कि जब अपान प्राण का विकास पूर्ण हो जाए तो ऊर्जा उदान प्राण के विकास में लगने लगती हो। कहा जाता है कि हमारी देह में जो नैसर्गिक अलंकार उत्पन्न होते हैं, वह उदान प्राण के कारण हैं।https://sa.wikisource.org/s/16vs
लौकिक कर्मकाण्ड में यव/जौ के निरर्थक से प्रयोगों को देखकर अश्रद्धा उत्पन्न होती है। लेकिन अथर्ववेद ६.९१.१(इमं यवं अष्टायोगैः षड्योगेभिरचर्कृषुः) का कथन है कि इस यव का कर्षण अष्टांग योग व षड्योगों द्वारा किया गया है।
प्रथम लेखन – ११.८.२०१२ई.( अधिक भाद्रपद कृष्ण नवमी, विक्रम संवत् २०६९), संशोधन – ९.१०.२०१३ई.(आश्विन् शुक्ल पञ्चमी, विक्रम संवत् २०७०)
यदि यवः ऊर्जायाः भण्डारमस्ति, तर्हि आधुनिक एवं पुरातन विज्ञानानुसारेण जडद्रव्ये ऊर्जायाः भण्डारणं केन प्रकारेण संभवमस्ति। आधुनिक विज्ञाने बैटरीषु विद्युतः भण्डारणं सर्वज्ञातमस्ति। पुरातन विज्ञानानुसारेण, यदा जडद्रव्ये सममित्याः न्यूनता भवति, तदा तस्याः समित्याः पूरणाय प्रजापतिः तस्मिन् द्रव्ये चतुर्धा/पञ्चधा प्रविशति (ब्रह्माण्डपुराणम् १.२.५.६१, लिङ्गपुराणम् १.७०.१५८, पद्मपुराणम् १.३.७३)-
विपर्ययेण शक्त्या च बुद्ध्या सिद्ध्या तथैव च। स्थावरेणु विपर्यासस्तिर्यग्योनिषु शक्तितः।। सिद्धात्मानो मनुष्यास्तु पुष्टिर्देवेषु कृत्स्नशः।
(लेखनम् - कार्तिक कृष्ण षष्ठी, विक्रमसंवत् २०७४, ११-१०-२०१७ई.)
BARLEY AND COW
There is one mantra of Rigveda which has been repeated thrice. This says that let us remove non – intelligence with cows and hunger with barley. Rigvedic mantras again and again mention the fondness of cow towards barley. Is it just an utterance of a shepherd or something deep may be hidden here? Let us try to see.
First we try to understand the nature of barley according to vedic literature. According to Shatapatha Brahmana १.७.२.२५, the waxing and waning of the moon is an act of gods and demons. Gods are the ones who add, while demons subtract. Or it may be vice versa also. Puraanic texts say that the moon which is waning, goes to herbs on the earth. As has been stated in comments on herbs, in vedic literature herbs represent the higher state of consciousness. According to modern thinkers, the visible part of moon represents the conscious mind while the invisible part the unconsciousness mind. From both point of views, the coming of moon on earth indicates that in terms of vedic language, it is the conversion of Shruti into Smriti/memory. This is like a barley which is connected in the middle.
What can be the connection of wisdom or intelligence with cows? Taittireeya Aaranyaka ५.६.८ says that this which is Pravargya is the father of wisdom and that the wisdom of poet is the best. It is essential to understand Pravargya. In this sacrifice, butter is boiled in an earthen vessel and cow and got milk is poured on it which gives rise to high fire. This fire is worshipped by vedic mantras which indicate that it may be a form of moon. One rigvedic mantra indicates that the heat is ultimately converted into high rising fire. What is the contribution of cows in it ? It is possible that the more the rays/gau/cows of our inner sun are absorbed in ourselves, the more heat is produced and consequently high rising will be the Pravargya.
Shatapatha ८.१.२.७ states that wisdom is on upper side and moon can also be on the upper side. This indicates that wisdom can be of two types – sun type and moon type. In Mahabharata, consort of Dhritarashtra, Gaandhaari has been stated as an incarnation of wisdom. Taittireeya Aaranyaka ५.६.८ states that progeny is wisdom. In vedic language, progeny should be taken as wisdom itself( Prajnya). As far as the statement of wisdom of poets being the best is concerned, the emergence of nonviolence is the birth of a poet. One example of this is of Vaalmeeki who spontaneously uttered a mantra when he saw violence.
यव और गौ
ऋग्वेद की एक ऋचा की पुनरुक्ति ऋचाओं १०.४२.१०, १०.४३.१० व १०.४४.१० में हो रही है । इस ऋचा की प्रथम पंक्ति में प्रार्थना की गई है कि हम गायों द्वारा अमति को पार करें और यव द्वारा विश्वा क्षुधा को पार करें । यह ऋचा गौ और यव के सम्बन्धों का आधार बनती है । इसके अतिरिक्त, ऋग्वेद की कईं ऋचाओं जैसे ३.४५.३, ४.४१.५, ४.४२.१०, ८.२.३, ८.४.१८, १०.१०१.९ आदि में गौ की यवप्रियता के उल्लेख आते हैं । ऋग्वेद १०.१००.१० से संकेत मिलता है कि गाएं यव से किसी प्रकार से ऊर्जा का ग्रहण कर पुष्ट होती हैं ।
उपरोक्त कथनों को समझने के प्रयास में पहले यव की वैदिक साहित्य के अनुसार प्रकृति पर विचार करते हैं । शतपथ ब्राह्मण १.७.२.२५ का कथन है कि चन्द्रमा जो पक्ष - पक्ष में घटता - बढता है, यह कार्य देवों और असुरों का है । जोडने को अयुवत् नाम दिया गया है और देवों को यावा, जोडने वाला कहा गया है । इसके विपरीत असुर अयावा हैं । इसका विलोम भी यहीं पर द्रष्टव्य है जिसका निहितार्थ अपेक्षित है । पुराणों का कहना है कि यह जो चन्द्रमा घटता है, यह कहां जाता है ? यह पृथिवी पर ओषधियों में समा जाता है । अमावास्या के दिन चन्द्रमा पूर्ण रूप से ओषधियों में समा जाता है । और जैसा कि ओषधि की टिप्पणी में देखा जा सकता है, वैदिक साहित्य में ओषधियां अतिमानसिक चेतनाओं का प्रतीक हैं, ऐसा निष्कर्ष निकाला गया है । आधुनिक चिन्तकों द्वारा प्रदत्त विचारधारा यह है कि आकाश में जो चन्द्रमा दिखाई दे रहा है, वह चेतन मन का प्रतीक है और जो अदृश्य है, वह अचेतन मन का । दोनों ही दृष्टिकोणों से, चन्द्रमा का पृथिवी पर आना यह संकेत करता है कि वैदिक भाषा में यह श्रुति का स्मृति में बदलना हो सकता है । इसे यव कहा गया है जो बीच में जुडा हुआ सा होता है । वर्तमान संदर्भ की ऋचा का कथन है कि हम यव द्वारा अपनी सारी/विश्वा क्षुधा को तृप्त करने में समर्थ हों ।
संदर्भ
*उ॒तो स मह्य॒मिन्दु॑भिः॒ षड् यु॒क्ताँ अ॑नु॒सेषि॑धत्। गोभि॒र्यवं॒ न च॑र्कृषत्॥(दे. पूषा) - ऋ. १.२३.१५
पूषा देव इन्दुओं के द्वारा मेरे लिए ६ परस्पर जुडी हुई ऋतुओं को लाए। उन्होनें मेरा कर्षण उसी प्रकार किया जैसे गायों के द्वारा यव का।
*मा वो॑ मृ॒गो न यव॑से जरि॒ता भू॒दजो॑ष्यः। प॒था य॒मस्य॑ गा॒दुप॑॥ - ऋ. १.३८.५
हे मरुतो, जिस प्रकार मृग यवस के बिना कभी नहीं रहता, उसी प्रकार तुम्हारा स्तुतिकर्ता तुम्हारी सेवा के बिना कभी न रहे। वह कभी भी यम के पथ पर न जाए।
*दु॒रो अश्व॑स्य दु॒र इ॑न्द्र॒ गोर॑सि दु॒रो यव॑स्य॒ वसु॑न इ॒नस्पतिः॑। शि॒क्षा॒न॒रः प्र॒दिवो॒ अका॑मकर्शनः॒ सखा॒ सखि॑भ्य॒स्तमि॒दं गृ॑णीमसि॥ - ऋ. १.५३.२, शौ.अ. २०.२१.२
दुरः – दाता(सायण भाष्य)
*दा॒धार॒ क्षेम॒मोको॒ न र॒ण्वो यवो॒ न प॒क्वो, जेता॒ जना॑नाम्। ऋषि॒र्न स्तुभ्वा॑, वि॒क्षु प्र॑श॒स्तो वा॒जी न प्री॒तो, वयो॑ दधाति॥(दे. अग्निः) - ऋ. १.६६.२
रमणीय घर(ओक) के समान क्षेम को धारण करने वाला, पके हुए यव के समान जनों का जेता, ऋषि के समान स्तुति करने वाला, प्रजा में प्रशस्त, प्रीतियुक्त वाजी/अश्व के समान अग्नि वयः/अन्न धारण करता है। इस ऋचा के माध्यम से यह सोचने का अवसर मिलता है कि क्या यवः और वयः/पक्षी/आयु में कोई सम्बन्ध है?
*सोम॑ रार॒न्धि नो॑ हृ॒दि गावो॒ न यव॑से॒ष्वा। मर्य॑ इव॒ स्व ओ॒क्ये॑॥ - ऋ. १.९१.१३
हे सोम, तुम हमारे हृदय में इस प्रकार स्थान बनाओ/रारन्धि जैसे गाएं यवसों मे, जैसे मर्य अपने गृह/ओक में।
*अध॑ स्व॒नादु॒त बि॑भ्युः पत॒त्रिणो॑ द्र॒प्सा यत् ते॑ यव॒सादो॒ व्यस्थि॑रन्। - ऋ. १.९४.११
हे अग्नि, जब यवस/तृण का भक्षण करके तुम्हारी ज्वालाएं/द्रप्साः फैलती हैं तो तुम्हारे स्वन/शब्द से पतत्रि/पक्षी डर जाते हैं।
*यवं॒ वृके॑णाश्विना॒ वप॒न्तेषं॑ दु॒हन्ता॒ मनु॑षाय दस्रा। अ॒भि दस्युं बकु॑रेणा॒ धम॑न्तो॒रु ज्योति॑श्चक्रथु॒रार्याय॥ - ऋ. १.११७.२१
अश्विनौ मनुष्य के लिए वृक/हल की फाल द्वारा यव को बोते हैं। अपने भासमान वज्र(बकुरेण) द्वारा वे दस्यु को नष्ट करते हैं तथा आर्य के लिए उरु ज्योति प्रकट करते हैं। इस ऋचा में वृक का अर्थ तिर्यक्/सांसारिक कर्म अथवा नाभि के परितः मण्डल में फैली ऊर्जा हो सकता है। वृक शब्द पर टिप्पणी द्रष्टव्य है।
*सा॒कं गावः॒ सुव॑ते॒ पच्य॑ते॒ यवो॒ न ते॑ वाय॒ उप॑ दस्यन्ति धे॒नवो॒ नाप॑ दस्यन्ति धे॒न वः॑॥(दे. इन्द्रवायू) - ऋ. १.१३५.८
यज्ञ कार्य हेतु एक ओर गायों के दुग्ध का उपयोग किया जाता है, साथ ही साथ यव को पकाया जाता है। हे वायु, इससे धेनुएं नष्ट नहीं होती हैं।
*अ॒भी नो॑ अग्न उ॒क्थमिज्जु॑गुर्या॒ द्यावा॒क्षामा॒ सिन्ध॑वश्च॒ स्वगू॑र्ताः। गव्यं॒ यव्यं॒ यन्तो॑ दी॒र्घाहेषं॒ वर॑मरु॒ण्यो॑ वरन्त॥ - ऋ. १.१४०.१३
हे अग्नि, तुम हमें प्राणों के उत्थान(उक्थमित्) के लिए प्रोत्साहित करो(जुगुर्या, गॄ – शब्दे, विज्ञाने)। द्यावापृथिवी और स्वयं बहने वाले(स्वगूर्ताः) सिन्धु भी प्रोत्साहित करें। अरुण वर्ण वाली उषाएं गव्य और यव्य अन्न लाती हुई हमारे दीर्घ अह को वरेण्य बनाएं।
*परा॑ शु॒भ्रा अ॒यासो॑ य॒व्या सा॑धार॒ण्येव॑ म॒रुतो॑ मिमिक्षुः। न रो॑द॒सी अप॑ नुदन्त घो॒रा जु॒षन्त॒ वृधं॑ स॒ख्याय॑ दे॒वाः॥ - ऋ. १.१६७.४
शुभ्र अलंकार वाले अयासः मरुत मिश्रणशीला विद्युत के द्वारा(यव्या) उसी प्रकार वृष्टि करते हैं जैसे युवक साधारण स्त्री में रेतः सिञ्चन करता है। रोदसी घोर मरुतों के इस कृत्य का विरोध नहीं करती तथा देवगण सखीभाव से (द्यावापृथिवी का) वर्धन करते हैं।
*मो षू ण॑ इ॒न्द्रात्र॑ पृ॒त्सु दे॒वैरस्ति॒ हि ष्मा॑ ते शुष्मिन्नव॒याः। म॒हश्चि॒द् यस्य॑ मी॒ळ्हुषो॑ य॒व्या ह॒विष्म॑तो म॒रुतो॒ वन्द॑ते॒ गीः॥ - ऋ. १.१७३.१२
हे इन्द्र, देवों द्वारा संग्राम में हमारा त्याग मत करना(मो षु), क्योंकि तुम्हारा पृथक् से यजन किया गया है(अवयाः, अवयजनम्)। - -- - जिसकी मिश्रण करने वाली(यव्या) गिरा की मरुत वन्दना करते हैं? डा. फतहसिंह कहा करते थे कि वेद में दो युग्म हैं – एक ओ षु और दूसरा मो षु। यह दोनों ओम के भाग हैं।
*तस्मि॒न्ना वे॑शया॒ गिरो॒ य एक॑श्चर्षणी॒नाम्। अनु॑ स्व॒धा यमु॒प्यते यवं॒ न चर्कृ॑ष॒द् वृषा॑॥ - ऋ. १.१७६.२
उस इन्द्र में अपनी गिरः स्थापित करो जो ज्ञानवान् मनुष्यों(चर्षणीनाम्) में एक है। जिसके लिए स्वधा के अनुदिश आहुति दी जाती है, जो वृषा/वृष्टि का करने वाला है, यव की भांति कर्षण करता है।
*यत् ते॑ सोम॒ गवा॑शिरो॒ यवा॑शिरो॒ भजा॑महे। वाता॑पे॒ पीव॒ इद् भ॑व॥ - ऋ. १.१८७.९
हे सोम, जो तेरा अंश गायों के पयः आदि में निहित है, जो यव आदि में निहित है, उसका हम सेवन करते हैं। हे शरीर/वातापे, तुम मोटे बनो।
*यदी॑ मा॒तुरुप॒ स्वसा॑ घृ॒तं भर॒न्त्यस्थि॑त। तासा॑मध्व॒र्युराग॑तौ॒ यवो॑ वृ॒ष्टीव॑ मोदते॥(दे. अग्निः) - ऋ. २.५.६
जिस समय माता रूपी वेदी के पास उसकी स्वसा रूप जुहू नामक पात्र में घृत भरा जाता है और उसे रखा जाता है, उस समय अध्वर्यु/अग्नि उसी प्रकार प्रसन्न होते हैं जैसे यव वृष्टि होने पर।
*अध्व॑र्यवो॒ यो दि॒व्यस्य॒ वस्वो॒ यः पार्थि॑वस्य॒ क्षम्य॑स्य॒ राजा॑। तमूर्द॑रं॒ न पृ॑णता॒ यवे॒नेन्द्रं॒ सोमे॑भि॒स्तदपो॑ वो अस्तु॥ - ऋ. २.१४.११
हे अध्वर्युओं, जो इन्द्र दिव्य, पार्थिव व क्षम्य वसुओं के राजा हैं, उनका सोमों से तर्पण ऐसे करो जैसे यव से ऊर्दर(ऊर्ध्व दर से युक्त, कुठिया, उदर?)।
*पु॒रा सं॑बा॒धाद॒भ्या व॑वृत्स्व नो धे॒नुर्न व॒त्सं यव॑सस्य पि॒प्युषी॑। - ऋ. २.१६.८
जिस प्रकार यवस से तृप्त हुई धेनु अपने वत्स का क्षुद्बाधा से आवर्तन करती है, उसी प्रकार हे इन्द्र, तुम भी शत्रुबाधा आने से पूर्व ही हमारा आवर्तन/ववृत्स्व करो।
*त्रिक॑द्रुकेषु महि॒षो यवा॑शिरं तुवि॒शुष्म॑स्तृ॒पत् सोम॑मपिब॒द् विष्णु॑ना सु॒तं यथाव॑शत्। - ऋ. २.२२.१
बहुबल(तुविशुष्म) वाले महान(महिष) इन्द्र ने यव के सत्तू से मिश्रित यवाशिर को, जिसे विष्णु ने साफ किया था, कामना अनुसार त्रिकद्रुकों में पिया। सोमयाग में अभिप्लव षडह के प्रथम तीन दिवसों ज्योति, गौ व आयु की संज्ञा त्रिकद्रुक है। कद्रू शब्द पर टिप्पणी से ऐसा अनुमान है कि कद्रू/कर्दः/कूडा पापनाश की कोई स्थिति है।
*इ॒ममि॑न्द्र॒ गवा॑शिरं॒ यवा॑शिरं च नः पिब। आ॒गत्या॒ वृष॑भिः सु॒तम्॥ - ऋ. ३.४२.७
*ग॒म्भी॒राँ उ॑द॒धीँरि॑व॒ क्रतुं॑ पुष्यसि॒ गा इ॑व। प्र सु॑गो॒पा यव॑सं धे॒नवो॑ यथा ह्र॒दं कु॒ल्या इ॑वाशत॥ - ऋ. ३.४५.३
हे इन्द्र, जैसे गम्भीर उदधि को भरा जाता है, जैसे गौ को पुष्ट किया जाता है, ऐसे ही तुम क्रतु को पुष्ट करते हो। जैसे यवस के प्रति धेनुएं खिंची चली आती हैं, जैसे ह्रद की ओर कुल्या खिंची चली आती हैं, ऐसे ही हमारे रक्षक तुम हमारे पास आओ।
*इन्द्रा॑ यु॒वं व॑रुणा भू॒तम॒स्या धि॒यः प्रे॒तारा॑ वृष॒भेव॑ धे॒नोः। सा नो॑ दुहीय॒द् यव॑सेव ग॒त्वी स॒हस्र॑धारा॒ पय॑सा म॒ही गौः॥ - ऋ. ४.४१.५
हे इन्द्र और वरुण, तुम दोनों इस धी के प्रेरक इस प्रकार बनो जैसे वृषभ धेनु का। वह (धी रूपी धेनु) यवस द्वारा प्रेरित किए जाने पर हमारे लिए सहस्रधारा रूप में पयः का दोहन करे।
*रा॒या व॒यं स॑स॒वांसो॑ मदेम ह॒व्येन॑ दे॒वा यव॑सेन॒ गावः॑। तां धे॒नुमि॑न्द्रावरुणा यु॒वं नो॑ वि॒श्वाहा॑ धत्त॒मन॑पस्फुरन्तीम्॥ - ऋ. ४.४२.१०
स्तुति करने वाले/ससवांसः हम रायः द्वारा हर्षित हों, देव हव्य से और गाय यवस से। हे विश्व का नाश करने वाले/विश्वाहा इन्द्रावरुण, हमारे लिए आप दोनों वह धेनु दो जो अनपस्फुरण वाली हो।
*के मे॑ मर्य॒कं वि य॑वन्त॒ गोभि॒र्न येषां॑ गो॒पा अर॑णश्चि॒दास॑। य ईं॑ जगृ॒भुरव॒ ते सृ॑ज॒न्त्वाजा॑ति प॒श्व उप॑ नश्चिकि॒त्वान्॥(दे. अग्निः) - ऋ. ५.२.५
मेरे मरणशील राष्ट्र का कौन उन गायों से वि-यवन करता है जिन गायों का कोई रक्षक/गोपा हुआ ही नहीं। जिन शत्रुओं ने मेरे राष्ट्र(ईं) पर अधिकार कर लिया है, वे नष्ट हों(अव-सृजन्तु), चिकित्वान्/पूर्वाभास करने वाली अग्नि हमें हमारे पशुओं से युक्त कर दे।
*उ॒त स्म दुर्गृभीयसे पु॒त्रो न ह्वा॒र्याणा॑म्। पु॒रू यो दग्धासि॒ वना ऽग्ने॑ प॒शुर्न यव॑से॥ - ऋ. ५.९.४
जिस प्रकार कुटिल या वक्र गति वालों के पुत्र को ग्रहण करना कठिन होता है, उसी प्रकार उस अग्नि को ग्रहण करना कठिन होता है जिसने यवस में स्थित पशु की भांति बहुत से वन जला दिए हों।
*स्तु॒हि भो॒जान् त्स्तु॑व॒तो अ॑स्य॒ याम॑नि॒ रण॒न् गावो॒ न यव॑से। - ऋ. ५.५३.१६
हे ऋषि, इस यज्ञ में फल देने वाले(भोजान्) मरुतों की स्तुति करो जो इस याम में इस प्रकार प्रसन्न होते हैं जैसे यवस को पाकर गाएं।
*अश्वि॑ना हरि॒णावि॑व गौ॒रावि॒वानु॒ यव॑सम्। हं॒सावि॑व पतत॒मा सु॒ताँ उप॑॥ - ऋ. ५.७८.२
हे अश्विनौ, तुम शुद्ध किए गए सोम पर उसी प्रकार टूट पडो जैसे हरिण-द्वय तथा गौर-द्वय यवस के पास आते हैं, जैसे हंस-द्वय जल के पास आते हैं।
*नी॒चीन॑बारं॒ वरु॑णः॒ कव॑न्धं॒ प्र स॑सर्ज॒ रोद॑सी अ॒न्तरि॑क्षम्। तेन॒ विश्व॑स्य॒ भुव॑नस्य॒ राजा॒ यवं॒ न वृ॒ष्टिर्व्यु॑नत्ति॒ भूम॑॥ - ऋ. ५.८५.३
वरुण ने मेघ/कवन्ध को नीचे की ओर वृष्टि करने वाला बनाने के लिए रोदसी और अन्तरिक्ष की सृष्टि की। उसके द्वारा सारे भुवन का राजा भूमि को इस प्रकार गीला करता है जैसे वृष्टि यव को।
*त्वं त्या चि॒दच्यु॒ता ऽग्ने॑ प॒शुर्न यव॑से। धामा॑ ह॒ यत् ते॑ अजर॒ वना॑ वृ॒श्चन्ति॒ शिक्व॑सः॥ - ऋ. ६.२.९
हे अग्नि, तुम अच्युत काष्ठों का भी इस प्रकार भक्षण कर लेती हो जैसे यवस पर पशु। हे अजर अग्नि, दीप्तियों/शिक्वसः के कारण तेरे तेज/धाम वनों को काट डालते हैं।
*प्रोथ॒दश्वो॒ न यव॑सेऽवि॒ष्यन् य॒दा म॒हः सं॒वर॑णा॒द् व्यस्था॑त्। आद॑स्य॒ वातो॒ अनु॑ वाति शो॒चिरध॑ स्म ते॒ व्रज॑नं कृ॒ष्णम॑स्ति॥ - ऋ. ७.३.२
यवस में भक्षण/अविष्यन् करता हुआ अश्व जिस प्रकार शब्द/प्रोथत् करता है, इसी प्रकार जब महान अग्नि संवरण के कारण स्थित हो जाता है, उस समय उसकी शोचि वात के अनुदिश चलती है। तब तुम्हारा मार्ग कृष्ण हो जाता है।
*वि यस्य॑ ते पृथि॒व्यां पाजो॒ अश्रे॑त् तृ॒षु यदन्ना॑ स॒मवृ॑क्त॒ जम्भैः॑। सेने॑व सृ॒ष्टा प्रसि॑तिष्ट एति॒ यवं॒ न द॑स्म जु॒ह्वा॑ विवेक्षि॥ (दे. अग्निः) – ऋ. ७.३.४
हे अग्नि, जब तुम्हारा तेज(पाजः) पृथिवी में क्षिप्र(तृषु) रूप से फैलता है, तब तुम दांतों(जम्भैः) द्वारा अन्न का भक्षण(समवृक्त) करती हो। तुम्हारा तेज(प्रसिति) सेना की तरह जाता है। हे दर्शनीय(दस्म) अग्नि, तुम ज्वाला(जुह्वा) द्वारा उसी प्रकार भक्षण (विवेक्षि) करती हो जैसे यव का।
*ई॒युर्गावो॒ न यव॑सा॒दगो॑पा यथाकृ॒तम॒भि मि॒त्रं चि॒तासः॑। - ऋ. ७.१८.१०
चयनित होने पर मरुद्गण अपने मित्र इन्द्र की ओर उसी प्रकार जाते हैं जैसे गोपरहित गाएं यवभक्षण हेतु।
*आ॒त्मा ते॒ वातो॒ रज॒ आ न॑वीनोत् प॒शुर्न भूर्णि॒र्यव॑से सस॒वान्। अ॒न्तर्म॒ही बृ॑ह॒ती रोद॑सी॒मे विश्वा॑ ते॒ धाम॑ वरुण प्रि॒याणि॑॥ - ऋ. ७.८७.२
हे वरुण, तेरे द्वारा अन्तरिक्ष में प्रेरित वात सारे प्राणीजगत के प्राणों को धारण करने वाली है। जैसे पशु यवस का भक्षण करने पर भारवाही बन जाता है, ऐसे ही वह वात जगत का भर्ता/भूर्णि बन जाती है। - - - -
*क्षय॑न्तौ रा॒यो यव॑सस्य॒ भूरेः॑ पृ॒ङ्क्तं वाज॑स्य॒ स्थवि॑रस्य॒ घृष्वेः॑॥ - ऋ. ७.९३.२
हे इन्द्राग्नि-द्वय, तुम बहुत यवस रूपी रायः/धन के ईश्वर/क्षयन्तौ हो, हमें शत्रुओं का नाश/घृष्वेः करने वाला स्थूल वाज प्रदान करो।
डा. फतहसिंह कहा करते थे कि राति, रायः और रयि यह तीन विभिन्न स्तरों जैसे अन्नमय, प्राणमय व मनोमय कोश के धन हैं। जैमिनीय ब्राह्मण में यव को रेवतयः कहा गया है। रेवती शब्द रयिवती का रूप है। अथर्ववेद में यव को प्राण कहा गया है। एक उपनिषद में प्राण और रयि का उल्लेख आता है। प्राण देवयान मार्ग है जबकि रयि पितृयान मार्ग। यह संभव है कि रयि के मार्ग को प्राण का मार्ग बनाने के लिए साधना करनी पडती हो।
*प॒र्जन्या॑य॒ प्र गा॑यत दि॒वस्पु॒त्राय॑ मीळ्हुषे॑। स नो॒ यव॑समिच्छतु॥ - ऋ. ७.१०२.१
दिवः के पुत्र, मीळ्हुष/सिंचन करने वाले पर्जन्य के लिए गाओ। वह हमारे लिए यवस की इच्छा करे।
*तं ते॒ यवं॒ यथा॒ गोभिः॑ स्वा॒दुम॑कर्म श्री॒णन्तः॑। इन्द्र॑ त्वा॒स्मिन् त्स॑ध॒मादे॑॥ - ऋ. ८.२.३
जिस प्रकार यव को गोदुग्ध/गोभिः आदि मिलाकर स्वादु बनाया जाता है, उसी प्रकार स्वादिष्ट बनाए गए सोम का पान करने के लिए हम इस यज्ञ में इन्द्र का आह्वान करते हैं।
*परा॒ गावो॒ यव॑सं॒ कच्चि॑दाघृणे॒ नित्यं॒ रेक्णो॑ अमर्त्य। अ॒स्माकं॑ पू॒षन्नवि॒ता शि॒वो भ॑व॒ मंहि॑ष्ठो॒ वाज॑सातये॥ - ऋ. ८.४.१८
हे दीप्तिशाली/आघृणे पूषा, गाय किसी काल में यवस की ओर जाती हैं। हे अमर्त्य, हमारा धन/रेक्ण नित्य हो। हे पूषा, हमारी रक्षा करने वाले, शिव बनो, वाज देने के लिए दातृतम/मंहिष्ठ बनो।
*द॒श॒स्यन्ता॒ मन॑वे पू॒र्व्यं दि॒वि यवं॒ वृके॑ण कर्षथः। ता वा॑म॒द्य सु॑म॒तिभिः॑ शुभस्पती॒ अश्वि॑ना॒ प्र स्तु॑वीमहि॥ - ऋ. ८.२२.६
हे अश्विनौ, तुमने मनु के लिए द्युलोक में दक्षता उत्पन्न करते हुए(दशस्यन्ता/दक्षस्यन्ता) पूर्व्य यव का वृक/हल द्वारा कर्षण किया था। हे शुभ के पति अश्विनौ, आज हम सुमतियों द्वारा तुम्हारी स्तुति करते हैं।
*अ॒स्य वृष्णो॒ व्योद॑न उ॒रु क्र॑मिष्ट जी॒वसे॑। यवं॒ न प॒श्व आ द॑दे॥ - ऋ. ८.६३.९
वर्षा करने वाले इस इन्द्र द्वारा विविध ओदन ग्रहण कर लेने पर सारा लोक जीवन के लिए उरु क्रमण/पदनिधान करता है। पशुओं द्वारा यव ग्रहण करने की भांति आदान करता है।
*तवेदि॑न्द्रा॒हमा॒शसा॒ हस्ते॒ दात्रं॑ च॒ना द॑दे। दि॒नस्य॑ वा मघव॒न् त्संभृ॑तस्य वा पू॒र्धि यव॑स्य का॒शिना॑॥ - ऋ. ८.७८.१०
हे इन्द्र, तुम्हारी आशंसा से ही मैंने हाथ में काटने का साधन दरांती ग्रहण किया है। पहले दिन काटे गए या एकत्र किए गए यव की मुष्टि/काशि से पूरण करो( काश का अर्थ प्रकाश भी होता है)।
*अपा॑दु शि॒प्र्यन्ध॑सः सु॒दक्ष॑स्य प्रहो॒षिणः॑। इन्दो॒रिन्द्रो॒ यवा॑शिरः॥ - ऋ. ८.९२.४
सुदक्ष व विशिष्ट रूप से होम करने वाले ने जो अन्धस रूप सोम प्रस्तुत किया था, शिप्र/क्षिप्र इन्द्र ने उस इन्दु रूप यवाशिरः से पान किया(अपाद् – ॐ)।
*व॒यमु॑ त्वा शतक्रतो॒ गावो॒ न यव॑से॒ष्वा। उ॒क्थेषु॑ रणयामसि॥ - ऋ. ८.९२.१२
हे शतक्रतु, हम तुम्हें उक्थों(उत्थित प्राणों) में इस प्रकार प्रसन्न करते हैं जैसै गाएं यवसों में प्रसन्न होती हैं। इस ऋचा में यवसों की तुलना उक्थों से किया जाना महत्त्वपूर्ण है।
*स न॒ इन्द्रः॑ शि॒वः सखा ऽश्वा॑व॒द्गोम॒द्यव॑मत्। उ॒रुधा॑रेव दोहते॥ - ऋ. ८.९३.३
उपरोक्त लक्षणों वाला इन्द्र जो शिव है, सखा है, अपने स्तोता के लिए अश्ववत्, गोमत्, यवमत् होकर प्रभूत धारा के रूप में धन का दोहन करता है।
*वार्ण त्वा॑ य॒व्याभि॒र्वर्ध॑न्ति शूर॒ ब्रह्मा॑णि। वा॒वृ॒ध्वांसं॑ चिदद्रिवो दि॒वेदि॑वे॥ - ऋ. ८.९८.८
जिस प्रकार नदियों का जल(वार्ण) समुद्र का वर्धन करता है, उसी प्रकार ब्रह्म/स्तोत्र मिश्रण करने वाली विद्युतों(यव्याभिः) द्वारा तेरा वर्धन करते हैं। हे अद्रिवः, प्रतिदिन तेरा वर्धन करते हैं।
*यवं॑यवं नो॒ अन्ध॑सा पु॒ष्टंपु॑ष्टं॒ परि॑ स्रव। सोम॒ विश्वा॑ च॒ सौभ॑गा॥ - ऋ. ९.५५.१
हे सोम, तुम अन्धः सोम के द्वारा यव-यव में पुष्ट करते हुए परिस्रवण करो। तथा हमें सभी सौभाग्यदायक धन दो। यह विचारणीय है कि क्या यव में अन्धः सोम का ही प्रवेश हो सकता है?
*स मा॒तरा॑ वि॒चर॑न् वा॒जय॑न्न॒पः प्र मेधि॑रः स्व॒धया॑ पिन्वते प॒दम्। अं॒शुर्यवे॑न पिपिशे य॒तो नृभिः॒ सं जा॒मिभि॒र्नस॑ते॒ रक्ष॑ते॒ शिरः॑॥ - ऋ. ९.६८.४
*आ नः॑ पवस्व॒ वसु॑म॒द्धिर॑ण्यव॒दश्वा॑व॒द्गोम॒द्यव॑मत् सु॒वीर्य॑म्। यू॒यं हि सो॑म पि॒तरो॒ मम॒ स्थन॑ दि॒वो मू॒र्धानः॒ प्रस्थि॑ता वय॒स्कृतः॑॥ - ऋ. ९.६९.८
हे सोम तुम हमारे लिए वसुमत्, हिरण्यवत्, अश्ववत्, गोमत्, यवमत् होकर बरसो। हे सोम, तुम मेरे पितर हो, द्युलोक की मूर्द्धा पर प्रकृष्ट रूप से स्थित हो तथा वयः के करने वाले हो। यह विचारणीय है कि क्या यवः और वयः में कोई सम्बन्ध है? यह उल्लेखनीय है कि दिवः की मूर्द्धा पर ही वयस्कृत होने का उल्लेख है। पुराणों में जब तीर्थ विशेष में सिर पर स्वर्णिम यव रखकर स्नान करने का निर्देश है तो यह विचारणीय है कि क्या वहां यव का रूप वयः है?
*सदा॑सि र॒ण्वो यव॑सेव॒ पुष्य॑ते॒ होत्रा॑भिरग्ने॒ मनु॑षः स्वध्व॒रः। विप्र॑स्य वा॒ यच्छ॑शमा॒न उ॒क्थ्यं१॒॑ वाजं॑ सस॒वाँ उ॑प॒यासि॒ भूरि॑भिः॥ - ऋ. १०.११.५
हे अग्नि, तुम सदा रमणीय हो, सु-अध्वर वाले मनुष्य का होत्रों द्वारा उसी प्रकार पोषण करते हो जैसे यवस। - - -
*भ॒द्रं नो॒ अपि॑ वातय॒ मनो॒ दक्ष॑मु॒त क्रतु॑म्। अधा॑ ते स॒ख्ये अन्ध॑सो॒ वि वो॒ मदे॒ रण॒न् गावो॒ न यव॑से॒ विव॑क्षसे॥ - ऋ. १०.२५.१
*गावो॒ यवं॒ प्रयुता अ॒र्यो अक्ष॒न् ता अपश्यं स॒हगोपा॒श्चरन्तीः। हवा॒ इद॒र्यो अ॒भितः॒ समाय॒न् कियदासु॒ स्वपतिश्छन्दयाते॥ - ऋ. १०.२७.८
गायों को यव देने पर(प्रयुता) वह अर्य बन गई? मैं उन्हें गोपों के साथ चरती देखता हूं। आह्वान करने पर अर्य चारों ओर से आ जाता है और उनका पति इनमें से कुछ से दुग्ध का दोहन करता है। डा. फतहसिंह अर्य की व्याख्या इस प्रकार किया करते थे कि जैसे रथ के चक्र के सारे अरे नाभि से जुडे रहते हैं, वह स्थिति अर्य कहलाती है।
*सं यद्वयं॑ यव॒सादो॒ जना॑नाम॒हं य॒वाद॑ उ॒र्वज्रे अ॒न्तः। अत्रा॑ यु॒क्तो॑ऽवसा॒तार॑मिच्छा॒दथो॒ अयु॑क्तं युनजद्वव॒न्वान्॥ - ऋ. १०.२७.९
जनों में हम(पशु आदि) तृण(यवस) को खाने वाले हैं। मैं विस्तीर्ण हृदयाकाश(उर्वज्रे) के अन्त में (अन्तर्यामी ब्रह्म के रूप में) यव का भक्षण करने वाला हूं। यहां(हृदयाकाश में) जो युक्त है, वह कल्याण करने वाले (अवसातारम्) की इच्छा करे। और संसार के विषयों का अतिशय सेवन करने की इच्छा वाला(ववन्वान्) अयुक्त को युक्त करे। डा. फतहसिंह के अनुसार जब किसी शब्द का हीन रूप प्रदर्शित करना हो तो उसके अन्त में स जोड दिया जाता है(यव-यवस)।
*आ॒राच्छत्रु॒मप॑ बाधस्व दू॒रमु॒ग्रो यः शम्बः॑ पुरुहूत॒ तेन॑। अ॒स्मे धे॑हि॒ यव॑म॒द्गोम॑दिन्द्र कृ॒धी धियं जरि॒त्रे वाज॑रत्नाम्॥ - ऋ. १०.४२.७
हे बहुतों के द्वारा आहूत इन्द्र, जो उग्र शम्ब/वज्र है, उसके द्वारा शत्रु को हमसे दूर भगाओ। हमें यवमत्, गोमत् दो, अपनी स्तुति करने वाले की धी को वाजरत्ना बनाओ। शम्ब/शम्भु के विषय में अनुमान है कि यह हृदय के अन्तरतम में छिपी ज्योति का प्रतीक है।
*गोभि॑ष्टरे॒माम॑तिं दु॒रेवां॒ यवे॑न॒ क्षुधं॑ पुरुहूत॒ विश्वा॑म्। व॒यं राज॑भिः प्रथ॒मा धना॑न्य॒स्माके॑न वृ॒जने॑ना जयेम॥ - ऋ. १०.४२.१०, ४३.१०, ४४.१०, तु. शौ.अ. ७.५२.७
हे बहुतों द्वारा आहूत इन्द्र, गायों द्वारा हम दुष्टागमना(दुरेवां) अमति को तरें, यव द्वारा विश्वा क्षुधा को पार करें। हम राजाओं द्वारा मुख्य धन अपने बल से जीतें।
*आपो॒ न सिन्धु॑म॒भि यत् स॒मक्ष॑र॒न् त्सोमा॑स॒ इन्द्रं॑ कु॒ल्या इ॑व ह्र॒दम्। वर्ध॑न्ति॒ विप्रा॒ महो॑ अस्य॒ साद॑ने॒ यवं॒ न वृ॒ष्टिर्दि॒व्येन दानु॑ना॥ - ऋ. १०.४३.७
जिस प्रकार आपः सिन्धु की ओर बहते हैं, कुल्या ह्रद की ओर बहती हैं, उसी प्रकार सोमासः इन्द्र की ओर बहते हैं। विप्र यज्ञगृह में दिव्य दान द्वारा इन्द्र का महत्त्व उसी प्रकार बढा देते हैं जिस प्रकार वृष्टि से यव।
*सा॒ध्व॒र्या अ॑ति॒थिनी॑रिषि॒राः स्पा॒र्हाः सु॒वर्णा॑ अनव॒द्यरू॑पाः। बृह॒स्पतिः॒ पर्व॑तेभ्यो वि॒तूर्या॒ निर्गा ऊ॑पे॒ यव॑मिव स्थि॒विभ्यः॑॥ - ऋ. १०.६८.३, तु. शौ.अ. २०.१६.३
अन्न की कुठियाओं/स्थिविभ्यः से जिस प्रकार यव बाहर निकाले जाते हैं, उसी प्रकार बृहस्पति ने कल्याणकारी दूध देने वाली, नित्य गमनशील, स्पृहणीय, शोभन वर्ण वाली और प्रशंसनीय रूप से युक्त गायों को पर्वतों से बाहर निकाला।
*सो अ॒भ्रियो॒ न यव॑स उद॒न्यन् क्षया॑य गा॒तुं वि॒दन्नो॑ अ॒स्मे। उप॒ यत् सीद॒दिन्दुं॒ शरी॑रैः श्ये॒नोऽयो॑पाष्टिर्हन्ति॒ दस्यू॑न्॥ - ऋ. १०.९९.८
वह इन्द्र जल इस प्रकार देना/उदन्यन् चाहते हैं जैसे यवस में मेघ/अभ्र वर्षा करता है। निवासस्थान/क्षयाय के लिए वह हमारे लिए मार्ग/गातु ढूंढें। जब इन्द्र के सारे शरीर में इन्दु बैठ जाते हैं तो वह लौहमय पीठ वाला श्येन बनकर दस्युओं का हनन करते हैं।
*ऊर्जं॑ गावो॒ यव॑से॒ पीवो॑ अत्तन ऋ॒तस्य॒ याः सद॑ने॒ कोशे॑ अ॒ङ्ध्वे। त॒नूरे॒व त॒न्वो॑ अस्तु भेष॒जमा स॒र्वता॑ति॒मदि॑तिं वृ॒णीमहे॥ - ऋ. १०.१००.१०
हे गायो, तुम उस यवस की प्रवृद्ध/पीवः ऊर्जा का भक्षण करो जो यवस ऋत के सदन में गोष्ठ/कोश में उगी हुई हो। तुम्हारा तनु ही तनु की भेषज हो। मैं सब की रक्षा करने वाली अदिति का वरण करता हूं।
*आ वो॒ धियं॑ य॒ज्ञियां॑ वर्त ऊ॒तये॒ देवा॑ दे॒वीं य॑ज॒तां य॒ज्ञिया॑मि॒ह। सा नो॑ दुहीय॒द्यव॑सेव ग॒त्वी स॒हस्र॑धारा॒ पय॑सा म॒ही गौः॥ - ऋ. १०.१०१.९
हे विश्वेदेवों, मैं अपनी रक्षा/ऊति के लिए तुम्हारी यज्ञिया, देवी, पूज्या धी का आवर्तन करता हूं। वह धी हमारे लिए उसी प्रकार दोहन करे जिस प्रकार यवस द्वारा प्रेरित गौ सहस्रधारा रूप में पयः का दोहन करती है।
*अ॒ग्निर्ह॒ नाम॑ धायि॒ दन्न॒पस्त॑मः॒ सं यो वना॑ यु॒वते॒ भस्म॑ना द॒ता। अ॒भि॒प्र॒मुरा॑ जु॒ह्वा॑ स्वध्व॒र इ॒नो न प्रोथ॑मानो॒ यव॑से॒ वृषा॑॥ - ऋ. १०.११५.२
वह अग्नि धनदाता/दन् व सर्वाधिक कर्मशील/अपस्तमः नाम धारण करती है जो भस्म रूपी दन्त से वन को जोडती/युवते है। हवियों से वेष्टित/अभिप्रमुरा जुहू पात्र द्वारा अग्नि सु-अध्वर वाली बनती है, वैसे ही जैसे समर्थ/इनः सर्वथा पुष्टांग/प्रोथमानः वृषा यवस में चरता है।
*कु॒विद॒ङ्ग यव॑मन्तो॒ यवं॑ चि॒द्यथा॒ दान्त्य॑नुपू॒र्वं वि॒यूय॑। इ॒हेहै॑षां कृणुहि॒ भोज॑नानि॒ ये ब॒र्हिषो॒ नमो॑वृक्तिं॒ न ज॒ग्मुः॥ - ऋ. १०.१३१.२, शौ.अ. २०.१२५.२, द्र. मा.श. १२.७.३.१३,
जिस प्रकार कृषक(यवमन्तः) पकने के अनुसार यव को अलग-अलग अनुपूर्व रूप में काटते हैं, उसी प्रकार जिन ऋत्विजों ने यज्ञ(बर्हिषः) में नमोवृक्ति/नमः का परित्याग नहीं किया है, उनको इनका भोजन दो।
*ब॒भ्रोरर्जु॑नकाण्डस्य॒ यव॑स्य ते पला॒ल्या तिल॑स्य तिलपि॒ञ्ज्या। वी॒रुत् क्षे॑त्रिय॒नाश॒न्यप॑ क्षेत्रि॒यमु॑च्छतु॥ - शौ.अ. २.८.३
मटमैले वर्ण के अर्जुन वृक्ष के काष्ठ से, जौ की भूसी से एवं तिल की मंजरी से निर्मित मणि तेरा रोग दूर करे। क्षेत्रीय व्याधियों, अतिसार, यक्ष्मा आदि का विनाश करने वाली ओषधि समस्त रोगों को दूर करे।
*दे॒वा इ॒मं मधु॑ना॒ संयु॑तं॒ यवं॒ सर॑स्वत्या॒मधि॑ म॒णाव॑चर्कृषुः। इन्द्र॑ आसी॒त् सीर॑पतिः श॒तक्र॑तुः की॒नाशा॑ आसन् म॒रुतः॑ सु॒दान॑वः॥ - शौ.अ. ६.३०.१
*ह॒तं त॒र्दं स॑म॒ङ्कमा॒खुमश्वि॑ना छि॒न्तं शिरो॒ अपि॑ पृ॒ष्टीः शृ॑णीतम्। यवा॒न्नेददा॒नपि॑ नह्यतं॒ मुख॒मथाभ॑यं कृणुतं धा॒न्याय॥ - शौ.अ. ६.५०.१
*तर्द॒ है पत॑ङ्ग॒ है जभ्य॒ हा उप॑क्वस। ब्र॒ह्मेवासं॑स्थितं ह॒विरन॑दन्त इ॒मान् यवा॒नहिं॑सन्तो अ॒पोदि॑त॥ - शौ.अ. ६.५०.२
*इ॒मं यव॑मष्टायो॒गैः ष॑ड्यो॒गेभि॑रचर्कृषुः। तेना॑ ते त॒न्वो॒३॒॑ रपो॑ऽपा॒चीन॒मप॑ व्यये॥ - शौ.अ. ६.९१.१
*व्री॒हिम॑त्तं॒ यव॑मत्त॒मथो॒ माष॒मथो॒ तिल॑म्। ए॒ष वां॑ भा॒गो निहि॑तो रत्न॒धेया॑य दन्तौ॒ मा हिं॑सिष्टं पि॒तरं॑ मा॒तरं॑ च॥ - शौ.अ. ६.१४०.२
*उच्छ्र॑यस्व ब॒हुर्भ॑व॒ स्वेन॒ मह॑सा यव। मृणी॒हि विश्वा॒ पात्रा॑णि॒ मा त्वा॑ दि॒व्याशनि॑र्वधीत्॥ - शौ.अ. ६.१४२.१
*आ॒शृ॒ण्वन्तं॒ यवं॑ दे॒वं यत्र॑ त्वाच्छा॒वदा॑मसि। तदुच्छ्र॑यस्व॒ द्यौरि॑व समु॒द्र इ॑वै॒ध्यक्षि॑तः॥ - शौ.अ. ६.१४२.२
*गोभि॑ष्टरे॒माम॑तिं दुरेवां॒ यवे॑न वा॒ क्षुधं॑ पुरुहूत॒ विश्वे॑। व॒यं राज॑सु प्रथ॒मा धना॒न्यरि॑ष्टासो वृज॒नीभि॑र्जयेम॥ - शौ.अ. ७.५२.७, २०.८९.१०, तु. शौ.अ.
*अ॒श्व॒त्थो द॒र्भो वी॒रुधां॒ सोमो॒ राजा॒मृतं॑ ह॒विः। व्री॒हिर्यव॑श्च भेष॒जौ दि॒वस्पु॒त्रावम॑र्त्यौ॥ - शौ.अ. ८.७.२०
*यो वै कशा॑याः स॒प्त मधू॑नि॒ वेद॒ मधु॑मान् भवति। ब्रा॒ह्म॒णश्च॒ राजा॑ च धे॒नुश्चा॑न॒ड्वांश्च॑ व्री॒हिश्च॒ यव॑श्च॒ मधु॑ सप्त॒मम्॥ - शौ.अ. ९.१.२२
*अ॒ग्निर्यव॒ इन्द्रो॒ यवः॒ सोमो॒ यवः॑। य॒व॒यावा॑नो दे॒वा या॑वयन्त्वेनम्॥ - शौ.अ. ९.२.१३
*ये व्री॒हयो॒ यवा॑ निरू॒प्यन्तें॒ऽशव॑ ए॒व ते। - शौ.अ. ९.६.१४
*प्रा॒णा॒पा॒नौ व्री॑हिय॒वाव॑न॒ड्वान् प्रा॒ण उ॑च्यते। यवे॑ ह प्रा॒ण आहि॑तोऽपा॒नो व्री॒हिरु॑च्यते॥ - शौ.अ. ११.६.१३
*पञ्च॑ रा॒ज्यानि॑ वी॒रुधां॒ सोम॑श्रेष्ठानि ब्रूमः। द॒र्भो भ॒ङ्गो यवः॒ सह॒स्ते नो॑ मुञ्च॒न्त्वंह॑सः॥ - शौ.अ. ११.८.१५
*स न॒ इन्द्रः॑ शि॒वः सखाश्वा॑व॒द् गोम॒द् यव॑मत्। उ॒रुधा॑रेव दोहते॥ - शौ.अ. २०.७.३
*सा॒ध्व॒र्या अ॑ति॒थिनी॑रिषि॒रा स्पा॒र्हाः सु॒वर्णा॑ अनव॒द्यरू॑पाः। बृह॒स्पतिः॒ पर्व॑तेभ्यो वि॒तूर्या॒ निर्गा ऊ॑पे॒ यव॑मिव स्थि॒विभ्यः॑॥ - शौ.अ. २०.१६.३, तु. ऋ. १०.६८.३
*आपो॒ न सिन्धु॑म॒भि यत् स॒मक्ष॑र॒न्त्सोमा॑स॒ इन्द्रं॑ कु॒ल्या इ॑व ह्र॒दम्। वर्धन्ति॒ विप्रा॒ महो॑ अस्य॒ साद॑ने॒ यवं॒ न वृ॒ष्टिर्दि॒व्येन॒ दानु॑ना॥ - शौ.अ. २०.१७.७
*गोभि॑ष्टरे॒माम॑तिं दुरेवां॒ यवे॑न क्षुधं॑ पुरुहूत॒ विश्वा॑म्। व॒यं राज॑भिः प्रथ॒मा धना॑न्य॒स्माके॑न वृ॒जने॑ना जयेम॥ - शौ.अ. २०.१७.१०, २०.९४.१०, तु. शौ.अ. ७.५२.७
*दु॒रो अश्व॑स्य दु॒र इ॑न्द्र॒ गोर॑सि दु॒रो यव॑स्य॒ वसु॑न इ॒नस्पतिः॑। शि॒क्षा॒न॒रः प्र॒दिवो॒ अका॑मकर्शनः॒ सखा॒ सखि॑भ्य॒स्तमि॒दं गृ॑णीमसि॥ - शौ.अ. २०.२१.२, ऋ. १.५३.२
*आ॒राच्छत्रु॒मप॑ बाधस्व दू॒रमु॒ग्रो यः शम्बः॑ पुरुहूत॒ तेन॑। अ॒स्मे धे॑हि॒ यव॑म॒द् गोमदिन्द्र कृ॒धी धियं॑ जरि॒त्रे वाज॑रत्नाम्॥ - शौ.अ. २०.८९.७
*कु॒विद॒ङ्ग यव॑मन्तो॒ यवं॑ चि॒द् यथा॒ दान्त्य॑नुपू॒र्वं वि॒यूय॑। इ॒हेहै॑षां कृणुहि॒ भोज॑नानि॒ ये ब॒र्हिषो॒ नमो॑वृक्तिं॒ न ज॒ग्मुः॥ - शौ.अ. २०.१२५.२, ऋ. १०.१३१.२
*चरक सौत्रामणी : कु॒विद॒ङ्ग यव॑मन्तो॒ यवं॑ चि॒द्यथा॒ दान्त्य॑नुपू॒र्वं वि॒यूय॑। इ॒हेहै॑षां कृणुहि॒ भोज॑नानि॒ ये ब॒र्हिषो॒ नम॑ ऽ उक्तिं॒ यज॑न्ति॥ – वा.मा.सं. १०.३२, १९.६,
*अग्निचयने चितिमन्त्राः : यवा॑नां भा॒गोऽस्यय॑वाना॒माधि॑पत्यं प्र॒जा स्पृ॒ताश्च॑तुश्चत्वारिं॒श स्तोमः॑। - वा.मा.सं. १४.२६
*एक॑त्रिंशतास्तुवत प्र॒जा ऽ अ॑सृज्यन्त॒ यवा॒श्चाय॑वा॒श्चाधि॑पतय ऽ आस॒न्॥ - मा.सं. १४.३१
*अग्निचयने वसोर्धारादिमन्त्राः : व्री॒हय॑श्च मे॒ यवा॑श्च मे॒ माषा॑श्च मे॒ तिला॑श्च मे मु॒द्गाश्च॑ खल्वा॑श्च मे - - - -य॒ज्ञेन॑ कल्पन्ताम् – वा.मा.सं. १८.१२
*सौत्रामणी यागः : पयसो रू॒पं यद्यवा॑ द॒ध्नो रू॒पं क॒र्कन्धू॑नि। सोम॑स्य रू॒पं वाजि॑नं सौ॒म्यस्य॑ रू॒पमा॒मिक्षा॑॥ - वा.मा.सं. १९.२३
*सौत्रामणी यागः : यवा॒ न ब॒र्हिर्भ्रु॒वि केस॑राणि क॒र्कन्धु॑ जज्ञे॒ मधु॑ सार॒घं मुखा॑त्॥ - वा.मा.सं. १९.९१
*सौत्रामणी : - - - अ॒श्विनेन्द्रा॑य भेष॒जं यवैः॑ क॒र्कन्धु॑भि॒र्मधु॑ ला॒जैर्न मास॑रं॒ पयः॒ सोमः॑ परि॒स्रुता॑ घृ॒तं मधु॒ व्यन्त्वाज्य॑स्य॒ होत॒र्यज॑॥ - वा.मा.सं. २१.३२
*भूर्भुवः॒ स्वर्लाजी३ञ्छाची३न्यव्ये॒ गव्य॑ ए॒तदन्नमत्त देवा ऽ ए॒तदन्न॑मद्धि प्रजापते॥ - वा.मा.सं. २३.८
*आश्वमेधिक मन्त्राः : कु॒विद॒ङ्ग यव॑मन्तो॒ यवं॑ चि॒द्यथा॒ दान्त्य॑नुपू॒र्वं वि॒यूय॑। इ॒हेहै॑षां कृणुहि॒ भोज॑नानि॒ ये ब॒र्हिषो॒ नम॑ ऽ उक्तिं॒ यज॑न्ति॥ - वा.मा.सं. २३.३८
*दर्शपूर्णमासे व्रतोपायनम् : तदु ह स्माऽऽहापि बर्कुर्वार्ष्णः – माषान्मे पचत, न वा एतेषां हविर्गृह्णन्तीति, तदु तथा न कुर्यात्। व्रीहियवयोर्वा एतदुपचम् – यच्छमीधान्यम्, तद् व्रीहियवावेवैतेन भूयांसौ करोति। तस्मादारण्यमेवाश्नीयात्। - मा.श. १.१.१.१०
*पुरोडाशकरणम् : अथ शूर्पमादत्ते – वर्षवृद्धमसि इति। - - - -अथ (शूर्पे) हविर्निर्वपति – प्रति त्वा वर्षवृद्धं वेत्तु(वा.सं.१.१६) इति। वर्षवृद्धा उ ह्येवैते यदि व्रीहयो यदि यवाः। वर्षमु हेवैतान् वर्द्धयति तत्संज्ञामेवैतच्छूर्पाय च वदति – नेदन्योन्यं हिनसात इति। - मा.श. १.१.४.२०
*सान्नाय्यसम्पादनम्—अथ यवाग्वैतां रात्रिमग्निहोत्रं जुहोति। आदिष्टं वा एतद्देवतायै हविर्भवति यत् पयः। स यत् पयसा जुहुयाद्- यथाऽन्यस्यै देवतायै हविर्गृहीतं तदन्यस्यै जुहुयाद्- एवं तत्। तस्माद्यवाग्वैतां रात्रिमग्निहोत्रं जुहोति। - मा.श. १.७.१.१०
*स यो देवानाम्(अर्धमासः—शुक्लपक्षः) आसीत्, स यवायुवत हि तेन देवाः। अथो इतरथाहुः य एव देवानामासीत्सोऽयवा न हि तमसुरा अयुवत योऽसुराणां स यवायुवत हि तं देवाः– मा.श. १.७.२.२६
*अग्नेः पुनराधानम् : अर्कपलाशाभ्यां व्रीहिमयमपूपं कृत्वा यत्र गार्हपत्यमाधास्यन् भवति, तन्निदधाति, तद् गार्हपत्यमादधाति। अर्कपलाशाभ्यां यवमयमपूपं कृत्वा यत्राहवनीयमाधास्यन् भवति, तन्निदधाति, तदाहवनीयमादधाति। - मा.श. २.२.३.१२-१३
*ता अस्य प्रजाः सृ्ष्टा वरुणस्य यवान् जक्षुः। वरुण्यो ह वा ऽ अग्रे यवः। तद्यन्वेव वरुणस्य यवान् प्रादन् – तस्माद् वरुणप्रघासा नाम। – मा.श. २.५.२.१
*चातुर्मास्ययागे वरुणप्रघासपर्व : तद् यन्मेषश्च मेषी च भवतः। - - - -यवमयौ भवतः। यवान् हि जक्षुषीर्वरुणोऽगृह्णात्। - मा.श. २.५.२.१६
*अग्निष्टोमे दीक्षितधर्माः : तद्धैके – प्रथमे व्रत उभौ व्रीहियवावावपन्ति। उभाभ्यां रसाभ्याम् – यदेवात्र यज्ञस्य निर्धीतम् यद्विदुग्धम् – तत्पुनराप्याययाम – इति वदन्तः। यद्यु व्रतदुघा न दुहीत – यस्यैवातः कामयेत – तस्य व्रतं कुर्यात्। एतदु ह्येवास्यैता उभौ व्रीहियवावन्वारब्धौ भवत इति। तदु तथा न कुर्यात्। न ह स यज्ञमाप्याययति, न सन्दधाति – य उभौ व्रीहियवावावपति। तस्मादन्यतरमेवावपेत्। हविर्वा अस्यैता उभौ व्रीहियवौ भवतः। स यदेवास्यैतौ हविर्भवतः – तदेवास्यैतावन्वारब्धौ भवतः। - मा.श. ३.२.२.१४
*औदुम्बरीस्थापनम् : अथ यवमत्यः प्रोक्षण्यो भवन्ति।- - - -ततो देवेभ्यः सर्वा एवौषधय ईयुर्यवा हैवैभ्यो नेयुः(न पलायिताः)। तद्वै देवा अस्पृण्वत(वाञ्छितवन्तः)। त एतैः सर्वाः सपत्नानामोषधीरयुवत यदयुवत तस्माद्यवा नाम। - - - -स यः सर्वासामोषधीनाँँ रस ऽआसीत्तं यवेष्वदधुस्तस्माद्यत्रान्या ऽओषधयो म्लायन्ति तदेते मोदमाना वर्द्धन्ते।- - - तस्माद्यवमत्यः प्रोक्षण्यो भवन्ति। स यवानावपति । यवोऽसि यवयास्मद्द्वेषो यवयारातीरिति नात्र तिरोहितमिवास्त्यथ प्रोक्षत्येको वै प्रोक्षणस्य बन्धुर्मेध्यामेवैतत्करोति – मा.श. ३.६.१.८-११
*यद्देवत्यः पशुर्भवति, तद्देवत्यं पुरोडाशमनुनिर्वपति। तद् यत्पुरोडाशमनुनिर्वपति। सर्वेषां वाऽएष पशूनां मेधो यद्व्रीहियवौ। तेनैवैनमेतन्मेधेन समर्द्धयति। कृत्स्नं करोति। - मा.श. ३.८.३.१
*शुक्रामन्थिनौ ग्रहौ : तं सक्तुभिः श्रीणाति। - - -वरुणो ह वै सोमस्य राज्ञोऽभीवाक्षि प्रतिपिपेष। तदश्वयत्। ततोऽश्वः समभवत्। तद् यच्छ्वयथात्समभवत् – तस्मादश्वो नाम। तस्य(अश्वस्य) अश्रु प्रास्कन्दत् ततो यवः समभवत्। तस्मादाहुः – वरुण्यो यव इति। – मा.श. ४.२.१.११
*रत्नयागाः : अथ श्वोभूते सूतस्य गृहान्परेत्य वारुणं यवमयं चरुं निर्वपति। सवो वै सूतः। सवो वै देवानां वरुणः। - - - -अथ श्वोभूते परिवृत्त्यै गृहान्परेत्य नैर्ऋतं चरुं निर्वपति। - - स कृष्णानां व्रीहीणां नखैर्निर्भिद्य, तण्डुलान्नैर्ऋतं चरुं श्रपयति। - मा.श. ५.३.१.५- १३
*दीक्षणीययागाः : अथ वरुणाय धर्मपतये वारुणं यवमयं चरुं निर्वपति। - मा.श. ५.३.३.९
*राजसूये त्रैधातवीसंज्ञिका उदवसानीयेष्टिः : तं उभयेषां व्रीहियवाणां गृह्णाति। व्रीहिमयमेवाग्रे पिण्डमधिश्रयति – तद् यजुषां रूपम्। अथ यवमयं – तदृचां रूपम्। अथ व्रीहिमयं – तत् साम्नां रूपम्। तदेतत्त्रय्यै विद्यायै रूपं क्रियते। सैषा राजसूययाजिन उदवसानीयेष्टिर्भवति। - मा.श. ५.५.५.९
*स्पृदिष्टकोपधानम् - यवानां भागोऽसि । अयवानामाधिपत्यमिति पूर्वपक्षा वै यवा अपरपक्षा अयवास्ते हीदं सर्वं युवते चायुवते च पूर्वपक्षेभ्यो भागं कृत्वापरपक्षेभ्य आधिपत्यमकरोत्प्रजा स्पृताः– मा.श. ८.४.२.११
*(न्यूनातिरेकदोषपरिहारे सति) ते ह ते गंधर्वा आसुः। शूर्पं यवमान् कृषिरुद्वालवान्धानांतर्वान्। - मा.श. ११.२.३.९
*सौत्रामणी यागः : मुखादेवास्य बलमस्रवत्, स गौः पशुरभवदृषभः। अथ ये फेनास्ते यवाः। यत् स्नेहः तत्कर्कन्धु।- - - - मज्जभ्य एवास्य भक्षः सोमपीथो ऽस्रवत्ते व्रीहयो ऽभवन् – मा.श. १२.७.१.४
*कुविदंग यवमन्तो यवं चित्(वा.सं. १९.६) इति पयोग्रहान् गृह्णाति। सोमांशवो वै यवाः। सोमः पयः। सोमेनैवैनं सोमं करोति। (नाना हि वां देवहितं सदस्कृतम् इति सुराग्रहान् गृह्णाति)- मा.श. १२.७.३.१३
*सौत्रामणी यज्ञात्पुरुषोत्पत्तिः : अथ यानि कर्णयोर्लोमानि। यानि च भ्रुवोः। तानि यवसक्तवश्च कर्कन्धुसक्तवश्च। - मा.श. १२.९.१.५
(पय॑सो रू॒पं यद्यवा॑ द॒ध्नो रू॒पं क॒र्कन्धू॑नि। – वाजसनेयि मा. संहिता १९.२३)
*यद्धरिणो यवमत्ति इति। विड् वै यवः। राष्ट्रं हरिणः। विशमेव राष्ट्रायाद्यां करोति। तस्माद्राष्ट्री विशमत्ति। – मा.श. १३.२.९.८
*अथ यद्युदके म्रियेत। वारुणं यवमयं चरुमनुनिर्वपेत्। - - वरुण्या हि यवाः। - मा.श. १३.३.८.५
*अथ क्षत्ता पालागलीमभिमेथति। पालागलि हयेहये पालागलि! यद्धरिणो यवमत्ति न पुष्टं पशु मन्यते (वा.सं. २३.३०) इति। - - - -ताः क्षत्तारं प्रत्यभिमेथंति। क्षत्तर्हयेहये क्षत्तः! यद्धरिणो यवमत्ति न पुष्टं बहु मन्यते इति(वा.सं.२३.३१)।– मा.श. १३.५.२.८
*श्मशानकरणम् : कृत्वा यवान्वपति। अघं मे यवयानिति। अवकाभिः प्रच्छादयति। कं मेऽसदिति। दर्भैः प्रच्छादयति अरूक्षतायै। - मा.श. १३.८.३.१३
*दश ग्राम्याणि धान्यानि भवन्ति – व्रीहि यवाः तिल माषाः अणु प्रियंगवः गोधूमाश्च मसूराश्च खल्वाश्च खलकुलाश्च। - मा.श. १४.९.३.२२
*धानानाम्̐ रूपं कुवलं परीवापस्य गोधूमाः । सक्तूनाम्̐ रूपं बदरम् उपवाकाः करम्भस्य ॥पय॑सो रू॒पं यद्यवा॑ द॒ध्नो रू॒पं क॒र्कन्धू॑नि। – वाजसनेयि मा. संहिता १९.२३
*यवो ऽसि यवयास्मद् द्वेषो यवयारातीः – तै.सं. १.३.१.१
*यावानां भागोऽस्ययावानामाधिपत्यं प्रजाः स्पृताश्चतुश्चत्वारिँँशः स्तोम – तै.सं. ४.३.९.१
गोलकस्य प्रादक्षिण्येन संचरता आदित्येन निष्पाद्यत्वात् मासानां दक्षिणावृत्त्वम्। - सायण भाष्य
*व्रीहयश्च मे यवाश्च मे(यज्ञेन कल्पन्ताम्) – तै.सं. ४.७.४.२
*दक्षिणतो मासा वै यावा अर्धमासा अयावास्तस्माद्दक्षिणावृतो मासा अन्नं वै यावा अन्नं प्रजा अन्नमेव दक्षिणतो धत्ते तस्माद्दक्षिणेनान्नमद्यते – तै.सं. ५.३.४.५
*शुक्रामन्थिग्रहकथनम् : प्र॒जाप॑ते॒रक्ष्य॑श्वय॒त्तत्परा॑ऽपत॒त्तद्विक॑ङ्कतं॒ प्रावि॑श॒त्तद्विक॑ङ्कते॒ नार॑मत॒ तद्यवं॒ प्रावि॑श॒त्तद्यवे॑ऽरमत॒, तद्यव॑स्य य॒व॒त्वम् यद्वैक॑ङ्कतं मन्थिपा॒त्रं भव॑ति॒ सक्तु॑भिः श्री॒णाति॑ प्र॒जाप॑तेरे॒व तच्चक्षुः॒ सं भ॑रति- --- - तै.सं. ६.४.१०.५
*द्वादशरात्रकथनम् : ऋ॒तवो॒ वा ए॒तेन॑ प्र॒जाप॑तिमयाजय॒न् - - -स रस॒मह॑ वस॒न्ताय॒ प्राय॑च्छत् यवं॑ ग्री॒ष्मायोष॑धीर्व॒र्षाभ्यो॑ व्री॒हीञ्छ॒रदे॑ माषति॒लौ हे॑मन्तशिशि॒राभ्यां॒ – तै.सं. ७.२.१०.२, तु. आप.श्रौ.सू. ६.३१.१४
*एते वै पशवो यद् व्रीहयश्च यवाश्च – मै.सं. १.६.११, २.३.१
*यद्वै प्रजा वरुणो(हेमन्तः) गृह्णाति शम्यं चैव यवं चापि न गृह्णाति – मै.सं. १.१०.१२
*एकत्रिँँशतास्तुवत, प्रजा असृज्यन्त, यवाश्चायवाश्चाधिपतय आसन् – मै.सं. २.८.६
*यद्यवा ग्राम्यं तेनान्नाद्यमवरुन्द्धे – मै.सं. ३.२.५
*एष खलु वा ओषधीनां तेजो यद् यवः – मै.सं. ३.९.३
*एते वै पशवो यद् व्रीहयश्च यवाश्च यद् व्रीहिमयः पुरोडाशो भवति, तेनैव पशुरालभ्यते शान्त्या अनिर्मार्गाय – मै.सं. ४.३.६
*निर्वरुणत्वायैव यवाः – मै.सं. ४.४.८, तां.ब्रा. १८.९.१७
*तस्य (प्रजापतेः) या कनीनिका परापतत्, स यवो ऽभवत् – मै.सं. ४.६.३
*यद्वै यज्ञः सन्तिष्ठते मित्रोऽस्य स्विष्टं युवते वरुणो दुरिष्टम् – मै.सं. 4.8.6
* क्षत्रं वा एतदोषधीनां यद् व्रीहयः सैनान्यं वा एतदोषधीनां यद्यवाः – ऐ.ब्रा. ८.१६
*यव यवयास्मदघा द्वेषाँँसि – तै.आ. ६.९.२
*गौर् एव रथन्तरम् अश्वो बृहद् अजा वैरूपम् अविर् वैराजं व्रीहयश् शक्वर्यो यवा रेवतयः।तद् ये ऽस्माद् रसात् सृष्टा भवन्ति तान् अस्मिन् दधाति। – जै.ब्रा. १.३३३, २.३४
*गौर् वै रथन्तरम् अश्वो बृहद् अजा वैरूपम् अविर् वैराजं व्रीहयश् शक्वर्यो यवा रेवतयः। स एष रसस् संसिक्तो यत् पृष्ठानि। - जै.ब्रा.२.३४
*आदित्यों व अङ्गिरसों का यज्ञ : यवोर्वरा वेदिर् भवति। सा हि पुराकृता भवति। यवानाम् उत्तरवेदिः। यवैर् वा आदित्या अङ्गिरसां यज्ञम् अयुवत। यद् यज्ञं यवैर् अयुवत तद् यवानां यवत्वम्। - जै.ब्रा. २.११७
*ता अस्य प्रजाः सृष्टा वरुणस्य यवमादन् – जै.ब्रा. २.२३१
*यद् अश्नात्य् ओदनस्य तद् रूपं, यत् पिबति मन्थस्य तत्। - - -तौ हैतौ प्रजापतेर् एव स्तनौ यद् व्रीहिश् च यवश् च। ताभ्याम् इमाः प्रजा बिभर्ति। - जै.ब्रा. ३.३४६
*अश्वमेधे द्वितीयमहस्तृतीयं च। मृत अश्वेन सह वस्त्राच्छादिता महिषी यदा क्लिश्नाति तदा महिषी प्रोत्साहन मन्त्राः : यद्ध॑रि॒णी यव॒मत्तीत्या॑ह। विड्वै ह॑रि॒णी। रा॒ष्ट्रं यवः॑। विशं॑ चै॒वास्मै॑ रा॒ष्ट्रं च॑ स॒मीची॑ दधाति। – तै.ब्रा. ३.९.७.२
*एतद्वै वरुणस्य भागधेयं यद्यवाः – काठक सं. १०.४
*शुक्ला इव यवाश्शुक्लमिवान्तरिक्षम्। - काठक सं. १२.४
*यवानां भागोऽस्ययवानामाधिपत्यं प्रजास्स्पृताश्चतुश्चत्वारिंशस्स्तोमः – काठ.सं. १७.४
*यवानां भागोऽस्ययवानामाधिपत्यमिति दक्षिणतः – काठ.सं. २१.१
*सा(प्रजापतेर्विकङ्कते पतिता कनीनिका) तस्मिन्नाध्रियत सा यवं प्राविशत्तस्मिन्नाध्रियत। - काठक संहिता २७.८
*दश
त्वा एते सोम अंशवः ।
प्रत्नो
अंशुर् यम् एतम् अभिषुण्वन्ति
।
तृप्तो
अंशुर् आपः ।
रसो
अंशुर् व्रीहिः ।
वृषो
अंशुर् यवः ।
शुक्रो
अंशुः पयः ।
जीवो
अंशुः पशुः ।
अमृतो
अंशुर् हिरण्यम् ।
ऋग्
अंशुर् यजुर् (यजुर्)
अंशुः
साम अंशुर् इति ।
एत
वा उ दश सोम अंशवः ।
यदा
वा एते सर्वे संगच्छन्ते ।
अतः
सोमो अतः सुतः । -
कौशीतकि
ब्राह्मणम् १३.४
*अयस्मयेन (पात्रेण) असुरा अदुहुर्यवान् – काठ.संक. १४०:१०
*पाशुकप्रायश्चित्तप्रकरणम् : यदि च कामयेतार्तिं विमथितार ऋच्छेयुरिति कुविदङ्ग यवमन्तो यवं चिद्(ऋ.१०.१३१.२) इत्याग्नीध्रीये जुहुयात् – शां.श्रौ.सू. १३.३.४
*आदित्यानां अङ्गिरसेभ्यः साकं साद्यःक्रं यज्ञक्रतुः : अग्निष्टोमो यज्ञः। यवोर्वरा वेदिः। यवखल उत्तरवेदिः। लाङ्गलेषा यूपः। यवकलापिश्चषालम्। - शां.श्रौ.सू. १४.४०.६
*अश्वमेधः : यद्धरिणो यवमत्ति न पुष्टं बहु मन्यते। शूद्रा यदर्यजारा न पोषाय धनायति॥ इत्यध्वर्युः पालागलीम्॥ - शां.श्रौ.सू. १६.४.४
*पुरुषमेधः : सदसि ब्रह्मवद्यम्। गावो यवं प्रयुता अर्यो अक्षन् ता अपश्यं सहगोपाश्चरन्तीः इति(ऋ.१०.२७.८) होताध्वर्युं पृच्छति। द्वितीयया(सं यद्वयं यवसादो जनानामहं यवाद उर्वज्रे अन्तः इति(ऋ.१०.२७.९)) प्रत्याह। - शां.श्रौ.सू. १६.१३.१६
*अग्निहोत्रे अग्न्युपस्थानम् : वर्षासु श्यामाकैर्यजेत शरदि व्रीहिभिर्वसन्ते यवैर्यथर्तु वेणुयवैरिति विज्ञायत इति विज्ञायते। - आप.श्रौ.सू. ६.३१.१४, तु. तै.सं. ७.२.१०.२
*कौकिल सौत्रामणिः : उपयामगृहीतो ऽस्यश्विभ्यां त्वा जुष्टं गृह्णामीति गृहीत्वा यवसक्तुभिः श्रीत्वा पवित्रेण परिमृज्यैष ते योनिस्तेजसे त्वेति सादयित्योपयामगृहीतो ऽसि सरस्वत्यै त्वा जुष्टं गृह्णामीति गृहीत्वा गोधूमसक्तुभिः श्रीत्वा पवित्रेण परिमृज्यैष ते योनिर्वीर्याय त्वेति सादयित्वोपयामगृहीतो ऽसीन्द्राय त्वा सुत्राम्णे जुष्टं गृह्णामीति गृहीत्वोपवाकासक्तुभिः श्रीत्वा पवित्रेण परिमृज्यैष ते योनिर्बलाय त्वेति सादयित्वोत्तरैर्यथालिङ्गमुपतिष्ठते। - आप.श्रौ.सू. १९.७.१
*प्रवर्ग्य प्रायश्चित्तानि : यदि घर्मदुघं न विन्देतान्यां दोहयेदथ यद्यन्यां न विन्देताजां दोहयेदथ यद्यजां न विन्देतार्कक्षीरैः प्रचरेदथ यद्यर्कक्षीरं न विन्देत यवपिष्टानि व्रीहिपिष्टानि श्यामाकपिष्टानि वाद्भिः संसृज्य तैः प्रचरेद् – बौ.श्रौ.सू. ९.१७.२६
*अक्षितास्त उपसदोऽक्षिताः सन्तु राशयः। पृणन्तो अक्षिताः सन्त्वत्तारः सन्त्वक्षिताः॥(शौ.अ. ६.१४२.३) इति यवमणिम् – कौशिक सूत्र १९.२७
द्र. व्रीहि