याम
टिप्पणी : जैसा कि अजामिल शब्द की टिप्पणी में कहा जा चुका है, जामि/यामि/यामी वह स्थिति है जब सब कुछ नियम पूर्वक चल रहा हो और अजामि/अयामि वह स्थिति है जब नियम से हट कर कुछ घटित हो गया हो, जैसे अचानक हर्ष, प्रेम का उमड आना आदि । वैष्णव भक्ति में इष्टदेव की पूजा अष्टयाम पूजा कहलाती है । सामान्य अर्थों में याम एक प्रहर या तीन घण्टे के काल को कहते हैं और जो पूजा चौबीसों घण्टे की जाए, वह अष्टयाम पूजा कहलाएगी । सामान्य पूजा पद्धति में अष्टयाम पूजा को प्रातःकाल इष्टदेव को जगाना, फिर स्नान, शृङ्गार, भोजन, शयन आदि में विभाजित कर लिया गया है । लेकिन एक साधक के लिए याम का अर्थ यह हो सकता है कि प्रत्येक घटना का यमन, नियमन कहां से हो रहा है, कौन कर रहा है, इसकी खोज की जाए । जैसा कि श्री रजनीश द्वारा 'कुण्डलिनी और सात शरीर' में कहा गया है, हमारे स्थूल शरीर को शक्ति सूक्ष्म शरीर से मिल रही है, सूक्ष्म शरीर को शक्ति कारण शरीर से, कारण शरीर को उससे भी ऊपर की चेतना से आदि । इसका प्रमाण यह दिया गया है कि भय उपस्थित होने पर हमारे पैर लडखडाने लगते हैं । इसका कारण यह है कि भय होने पर सूक्ष्म शरीर संकुचित हो जाता है और स्थूल शरीर पर उसका नियंत्रण कम हो जाता है, अतः पैर लडखडाने लगते हैं । यदि किसी को वास्तव में यह देखना है कि किसी घटना का नियंत्रण कौन कर रहा है, कहां से हो रहा है तो उसको चेतना की सामान्य स्थिति से ऊपर उठकर देखना होगा ।
शतपथ ब्राह्मण ४.१.१.१ में उपांशु व अन्तर्याम ग्रहों का वर्णन है । यज्ञ में देवों को सोम की आहुति देने के लिए प्रयुक्त होने वाले पात्रों/ग्रहों के वर्णन का यह आरम्भ है । उपांशु (उप + अंशु) ग्रह के संदर्भ में कहा गया है कि इस ग्रह का पूरण बाहर के प्राणों से करे(तं बहिष्पवित्राद्गृह्णाति ), वह प्राण जो सर्वत्र फैले हुए हैं । इस वर्णन में यह भी संकेत दिया गया है कि उपांशु व अन्तर्याम ग्रहों की आवश्यकता क्यों पडी? कहा गया है कि त्रिलोकी में द्युलोक, अन्तरिक्ष और पृथिवी सम्मिलित हैं । लेकिन मनुष्य ऊपर से भी कटा हुआ है, नीचे से भी । वृक्षों की भांति वह मूल से युक्त नहीं है जिनके द्वारा अपना भोजन स्वयं ग्रहण किया जा सके । हुआ यह है कि वृक्षों में जो प्राण मूल विकसित करने में प्रयुक्त होते हैं, प्राणियों में उन्हीं प्राणों का उपयोग इन्द्रियों के विकास के लिए किया गया है । जिन प्राणों का नियन्त्रण मूलाधार से होता है, उन्हीं को क्रमशः विकसित करते हुए चक्षु, श्रोत्र आदि इन्द्रियों तक पहुंचाया गया है । उपांशु पात्र के संदर्भ में यह समझा जा सकता है कि पहले तो जो प्राण बिखरे हुए हैं, उनको एकीकृत करना है । फिर, शतपथ ब्राह्मण के निर्देशानुसार उसको 'स्वां कृत' बनाना है(स्वांकृतोऽसीति प्राणो वा अस्यैष ग्रहः स स्वयमेव कृतः स्वयंजातस्तस्मादाह स्वांकृतोऽसीति विश्वेभ्य इन्द्रियेभ्यो दिव्येभ्यः पार्थिवेभ्य इति सर्वाभ्यो ह्येष प्रजाभ्यः स्वयं जातो – माश ४.१.१.२२), अर्थात् उसको अपने रक्षण के लिए बाहर से भोजन, ज्योति आदि की आवश्यकता न पडे, वह अपना भरण अपने आप करने में समर्थ हो । स्वां कृत प्राण को भागवत पुराण ८.१.१० में स्वायम्भुव मनु के वर्णन के आधार पर समझा जा सकता है । इतना करने के पश्चात् कहा गया है कि मन इस प्राण में प्रवेश करे और यह प्राण अन्तरिक्ष में फैले । इसका अर्थ हुआ कि जो प्राण स्वां कृत नहीं हैं, उनमें मन का प्रवेश भी कठिन है और इस प्रकार उनका नियमन भी कठिन है । स्व का एक अर्थ यह भी हो सकता है कि इन प्राणों का जो जड भाग था, वह अब समाप्त हो गया है और यह प्राण अब अन्तरिक्ष में एक पक्षी की भांति उडने के योग्य हो गए हैं । शतपथ ब्राह्मण के अनुसार इन प्राणों का नियन्त्रण आत्मा रूपी उपांशु सवन द्वारा किया जाता है ।
अन्तर्याम पात्र के संदर्भ में, अन्तर्याम पात्र को आत्मा का यमन करने वाला कहा गया है । उपांशु प्राण को अपान, आत्मा को व्यान और अन्तर्याम को उदान कहा गया है । उपांशु प्राण को दिन की भांति कहा गया है जो रात्रि के अन्धकार में भी प्रकाशित होता रहता है । इसकी स्थापना रात्रि में की जाती है । इसीलिए रात्रि में थोडा - थोडा प्रकाश रहता है । अन्तर्याम को रात्रि की भांति कहा गया है जिसकी स्थापना दिवस में की जाती है । इस कारण से सूर्य का अत्यधिक ताप व्यथित नहीं करता । इसे चन्द्रमा की भांति कहा जा सकता है । अन्तर्याम का महत्त्व बृहदारण्यक उपनिषद में अन्तर्यामी ब्राह्मण/उद्दालक आरुणि ब्राह्मण में अन्तर्यामी के वर्णन के आधार पर समझा जा सकता है । यहां कहा गया है कि प्रत्येक घटना के पीछे जो कारण विद्यमान है, उसका साक्षात्कार करना है । वही अन्तर्यामी है । उपांशु प्राण को अज भक्ति और अन्तर्याम प्राण को अवि कहा गया है । अज की प्रवृत्ति ऊपर की ओर होती है, अवि की नीचे की ओर ।
भागवत पुराण ८.१.१७ में स्वायम्भुव मनु के स्वयंज्योति रूप भगवान् की आराधना में तल्लीन होने के समय असुरों द्वारा उनके भक्षण का प्रयास और यज्ञ रूप भगवान् से प्रकट याम देवों द्वारा मनु की रक्षा के कथन का तात्पर्य अन्वेषणीय है । इस साधना में अजामि स्थिति उत्पन्न होने पर याम साधना काम में आती है ।
प्रथम लेखन : १२-११-२००८ ई.
A devotee is suppose to perform 8 times ritualistic worship in Vaishnava cult . This may include awakening, bathing, putting clothes, offering food to his favourite god. This ritual seems to be too boring for a devotee. Almost same ritual is repeated time and again. The esoteric aspect of this worship may be that a devotee can continue to do his duties for his tutelary deity in a regular manner. Then a state of ecstasy may come where he forgets his regular duties. Again he returns to his normal state. This cycle goes on. The fact is that the practice he has developed during his normal state helps to control his abnormal state of ecstasy also. Why this state of ecstasy develops, is an open question.