युयुत्सु
टिप्पणी : ऋग्वेद में २ स्थानों पर युयुत्सन् क्रिया रूप में प्रकट हुआ है और सायणाचार्य द्वारा इसका अर्थ “युद्ध करते हुए” किया गया है। ऋग्वेद में ‘युयोत’ शब्द कईं स्थानों पर प्रकट हुआ है और सायणाचार्य द्वारा इसका अर्थ ‘पृथक् करना’ किया गया है। ऋग्वेद की बहुत सी ऋचाओं में द्वेष के युयोतन की प्रार्थना की गई है(ऋ. २.६.४, २.२९.२, ५.५०.३, ५.८७.८, ६.४७.१३, ७.५८.६, ८.११.३, १०.६३.१२, १०.७७.६, १०.१००.९, १०.१३१.७)। कुछेक ऋचाओं में अंहः के युयोतन की प्रार्थना है(ऋ. ८.१८.१०, ९.१०४.६)। कुछेक ऋचाओं में रपः के युयोतन की प्रार्थना है(ऋ. २.३३.३, ७.३४.१३, ८.१८.८) इत्यादि। युयुत्सु या युयोत शब्द पर विचार करने पर पहली दृष्टि में प्रतीत होता है है कि यह शब्द युत के आधार पर बना होगा। ग्रहों की युति प्रसिद्ध ही है। लेकिन श्री सायणाचार्य द्वारा किया गया ‘पृथक्करण’ अर्थ हमें युयोत शब्द के लिए युञ् धातु पर ले जाता है। काशकृत्स्न धातु कोश में यह धातु बन्धने अर्थ में है और युति का अर्थ इस धातु के संदर्भ में ‘अवरोधन’ किया गया है। युयोत शब्द में यु प्रत्यय का क्या अर्थ हो सकता है, यह अन्वेषणीय है। काशकृत्स्न धातु कोश में यु धातु का अर्थ एक स्थान पर मिश्रणे और दूसरे स्थान पर जुगुप्सायाम् किया गया है। अतः यह कहा जा सकता है कि जहां युति से घृणा, जुगुप्सा हो, वह युयुत या युयोत है। जब भगवद्गीता में कहा जाता है कि ‘धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः’ तो इसका अर्थ होगा कि वह साधक जो धर्मक्षेत्र कुरुक्षेत्र में अपने पापों का, द्वेषों का नाश करने की ओर उत्सुक हुआ है। लेकिन यु प्रत्यय के साथ यह तर्क ऋग्वेद ८.७०.७ में ‘युयोजते’ शब्द पर खरा उतरता प्रतीत नहीं होता जहां इन्द्र के हरियों को रथ से जोडने के संदर्भ में इस शब्द का प्रयोग हुआ है।
महाभारत आदिपर्व में उल्लेख आता है कि युयुत्सु का जन्म धृतराष्ट्र द्वारा वैश्या जाति की स्त्री के साथ संयोग करने से हुआ था। वैश्य जाति की स्त्री को परिवृक्ता कहा जाता है और तैत्तिरीय ब्राह्मण १.७.३.४ में राजसूय के संदर्भ में परिवृक्ता के गृह में जाकर नैर्ऋत चरु बनाने का निर्देश है। कहा गया है कि इससे पाप रूप निर्ऋति को दूर करते हैं(दूसरी ओर, क्षत्रिय जाति की भार्या के घर में जाकर भग देवता के लिए चरु बनाने का निर्देश है)। क्षत्रिय द्वारा वैश्य जाति की स्त्री से उत्पन्न सन्तान को करण कहते हैं, अतः युयुत्सु की भी करण संज्ञा है। युयुत्सु यद्यपि दुर्योधन का भ्राता था, तथापि वह महाभारत युद्ध में पाण्डवों की ओर से लडा और युद्ध से जीवित बचने वालों में वह भी एक था। युयुत्सु(यु-युत्सु) शब्द का अर्थ युत्सु(युद्ध) के आधार पर लडने को उत्सुक के रूप में किया जाता है। महाभारत ही एकमात्र स्रोत है जहां युयुत्सु को क्षत्रिय पुरुष और वैश्य प्रकृति का संयोग कहा गया है। ऐसा कहा जा सकता है कि क्षत्र अवस्था दक्षता प्राप्त करना चाहती है(दक्षिण दिशा), जबकि वैश्य स्थिति पापों का नाश करना चाहती है और इस प्रकार धनात्मकता की ओर जाना चाहती है(पश्चिम दिशा)। धनात्मकता की ओर जाने के लिए दोनों का सहयोग आवश्यक है। यही अध्यात्म में युद्ध करना कहा जा सकता है।
संदर्भ
*त्यं चि॑दस्य॒ क्रतु॑भि॒र्निष॑त्तमम॒र्मणो॑ वि॒ददिद॑स्य॒ मर्म॑। यदीं॑ सुक्षत्र॒ प्रभृ॑ता॒ मद॑स्य॒ युयु॑त्सन्तं॒ तम॑सि ह॒र्म्ये धाः॥ - ऋ. ५.३२.५
सायण भाष्य—जो वृत्र बैठा हुआ है और जिसके मर्म का पता नहीं है, इन्द्र ने क्रतुओं से उसके मर्म को जाना। सुक्षत्र इन्द्र ने सोमपान से जनित मद के द्वारा तमः/अन्धकार में युद्ध करते हुए वृत्र को गृह में रख दिया।
*प्र नेम॑स्मिन् ददृशे॒ सोमो॑ अ॒न्तर्गो॒पा नेम॑मा॒विर॒स्था कृ॑णोति। स ति॒ग्मशृ॑ङ्गं वृष॒भं युयु॑त्सन् द्रुहस्त॑स्थौ बहु॒ले ब॒द्धो अ॒न्तः॥ - ऋ. १०.४८.१०
सायण भाष्य- इसमें आधे(नेम) के अन्दर सोम दिखाई देता है और वह रक्षक है(गोपा)। और जिस आधे में दिखाई नहीं देता, उसमें अस्थि के वज्र से(अस्था) प्रकट करता है(आविः कृणोति)। वह तीक्ष्ण शृङ्ग वाले वृषभ से लडते हुए(युयुत्सन्) अन्धकार(बहुले) को बांध कर उसमें बैठ जाता है?
*धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः। मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत संजय॥ - गीता १.१
*योत्स्यमानानवेक्षेऽहं य एतेऽत्र समागताः। धार्तराष्ट्रस्य दुर्बुद्धेर्युद्धे प्रियचिकीर्षवः॥ - गीता १.२३
*कृपया परयाविष्टो विषीदन्निदमब्रवीत्। दृष्ट्वेमं स्वजनं कृष्ण युयुत्सुं समुपस्थितम्॥ - गीता १.२८
प्रथम लेखन – ६-६-२०१२ई.(आषाढ कृष्ण २, विक्रम संवत् २०६९)