गरुडपुराणे २.३२.११३ कथनमस्ति - कुशद्वीपः स्थितो मांसे क्रौञ्चद्वीपः शिरास्थितः ॥ प्रश्नमस्ति – किं मांसः एव कुशः अस्ति अथवा मांसस्यान्तरे कुशद्वीपः अस्ति। आधुनिकविज्ञानानुसारेण मांसस्य संरचना तन्तूनामुपरि आधृता अस्ति। मांसे ये नलिकाकाराः संरचना विद्यमानाः सन्ति, तेषु नलिकानां अक्षेषु एकः मुख्य तन्तुः भवति यस्य परितः अन्ये तन्तवः भवन्ति ये केन्द्रीय तन्तोः पोषणं कुर्वन्ति। यदा प्राणी कापि क्रियां करोति, तदा तन्तूनां समञ्चन-प्रसारणं भवति। समञ्चन-प्रसारणे ऊर्जायाः आवश्यकता भवति यस्याः पूर्तिः मुख्यतन्तोः परितः स्थितेभ्यः कोशेभ्यः अथवा तन्तुभ्यः भवति। देहे केचन तन्तवः सन्ति ये क्रियासु भागं वहन्ति, क्रियानुसारेण समञ्जन – प्रसारणं कुर्वन्ति, किन्तु तेभ्यः आक्सीजनस्य भरणं अपेक्षितरूपेण न भवति। हृदयादिषु ये तन्तवः भवन्ति, तेषां समञ्चन-प्रसारणं इच्छाशक्त्यनुसारेण संभवः नास्ति, तेषां समंचन-प्रसारणं श्वासानुसारेण एव भवति। मांसे तन्त्रिकातन्त्रस्य तन्तवः अपि विस्तृताः सन्ति। अयं संभवमस्ति यत् कुशा अथवा कुशः केन्द्रीयतन्तोः रूपं अस्ति।
योगवासिष्ठे ६.२.४.४३ तैलस्य लव बिन्दोः उल्लेखमस्ति - अहमित्यर्थदुस्तैललवो ब्रह्मणि वारिणि । प्रसृतो यत्तदाश्वेतत्त्रिजगच्चक्रकं स्थितम् ।। अयं संकेतमस्ति यत् यथा जलोपरि तैलस्य बिन्दोः प्रसारणं भवति, अस्य संज्ञा लवः अस्ति। योगवासिष्ठस्य कथनं अहंकारस्य प्रसारणाय अस्ति। किन्तु स्थूलदेहस्य स्तरे अपि अयं कथनं स्पष्टः अस्ति। एकः कुशा अस्ति यस्य संरचना अक्षप्रकारस्य अस्ति। अन्यः तैललवः अस्ति। भविष्यपुराणे ४.१९९.५ कथनमस्ति यत् विष्णोः स्वेदस्य धरापृष्ठे पतनं कणशः व लवशः अभवत् - तत्र स्वेदो महानासीत्क्रुद्धस्याथ गदाभृतः । पतितश्च धरापृष्ठे कणशो लवशस्तथा ।। काशकृत्स्नधातुव्याख्याने १.२०५ लुबि धातु मर्दने एवं ९.९७ लुबि धातु अर्दने अर्थे अस्ति। अयं संकेतमस्ति यत् तैलबिन्दोः यत् प्रसरणमस्ति, तत् संघर्षयुक्तः अस्ति। अनुमानमस्ति यत् देहे यः मांसमस्ति, तत् लव एवं कुशस्य मिश्रणमस्ति।
ऋग्वेदस्य १०.११९ सूक्तस्य ऋषिः इन्द्रः लबः अस्ति। अस्य सूक्तस्य प्रथमपदः अस्ति – इति वा इति मे मनो गामश्वं सनुयामिति। अत्र गौ पृथिव्याः रूपं अस्ति, अश्वः द्यौरूपः। पृथिव्याः प्रकृतिः अक्षप्रकारा अस्ति, अश्वस्य तैलबिन्दु, लवप्रकारा। कथनमस्ति – इति वा इति। तैत्तिरीयसंहितायां ४.७.५.२ कथनं भवति – इतिश्च मे गतिश्च मे। इति प्रकारस्य क्रिया पृथिव्योपरि भवति, गतिप्रकारस्य द्युलोके।
लव
टिप्पणी : वैदिक पदानुक्रम कोश तथा यास्क निरुक्त ३.५ में लव शब्द की निरुक्ति लु - लवने/काटने व लीन होने (लीयते) के द्वारा की गई है । लव को समझने की एक कुञ्जी हमें महाभारत में बल्लव शब्द से प्राप्त होती है । विराट के नगर में अज्ञातवास करते समय भीम ने वहां बल्लव नाम से सूदकार/रसोईये का काम करते हुए निवास किया था । श्रीमती राधा गुप्ता ने बल्लव का अर्थ बल को सूक्ष्म बनाना किया है ( द्र. विराट पर टिप्पणी ) । लव को समझने से पूर्व हमें बल/वल शब्द को समझना होगा । लव शब्द वल का उल्टा है । वैदिक व पौराणिक साहित्य में वल असुर का आख्यान आता है । वल असुर गायों को चुरा लेता है । इन्द्र अपने वज्र से वल का संहार करता है । वल असुर के अंग जब पृथिवी पर गिरते हैं तो उनसे रत्नों की उत्पत्ति होती है । वल शब्द के बारे में अनुमान है कि यह मुख आदि के परितः अवस्थित आभामण्डल का द्योतक है( वाल वृक्ष के मूल के परितः बनाए गए थांवले को कहते हैं जो जल का संरक्षण करता है ) । ऋग्वेद की कईं ऋचाओं जैसे १.६२.४, ४.५०.५, १०.६७.६ आदि में वल का रव के द्वारा विदारण करने के उल्लेख आते हैं । रव शब्द में र अग्नि/सूर्य का द्योतक है जिसे पृथिवी तत्त्व के द्योतक लव में रूपान्तरित किया जा सकता है । सूर्य की पृथिवी पर पहुंचने वाली किरणों को रव कहा जा सकता है । ऋचाओं से संकेत मिलता है कि अग्नि और सूर्य का रव अलग - अलग प्रकार का होता है । ऋग्वेद की ऋचाओं से ऐसा प्रतीत होता है कि रव का उपयोग पृथिवी पर स्थित बाधाओं को दूर करने के लिए किया जा सकता है । ऋग्वेद ४.५०.४/तैत्तिरीय ब्राह्मण २.८.२.७ के अनुसार रव का उपयोग तम को दूर करने के लिए किया जा सकता है । ऋग्वेद ७.३३.४ व ९.९७.३६ में बृहत् रव का उल्लेख है जिसके द्वारा इन्द्र में शुष्म/बल को धारण कराया जाता है । यह कहा जा सकता है कि रव/लव का कार्य मर्त्य स्तर पर स्मृति को श्रुति द्वारा पुष्ट करना है जिसकी पुष्टि के लिए ऋग्वेद १०.९४.१२ को उद्धृत किया जा सकता है । वाल्मीकि रामायण में सीता के पुत्रों के रूप में कुश व लव का समावेश किया है । लव की राजधानी श्रावस्ती है - श्रवण की, स्मृति की स्थिति । कुश की नगरी दक्षिण कोशल और लव की उत्तरकोशल है । उत्तर स्थिति डा. फतहसिंह के अनुसार वृत्र वध के पश्चात् आनन्द की स्थिति होती है ।
No satisfactory explanation is available at present why Seetaa gave birth to her sons Kusha and Lava in the hermitage of Vaalmeeki. Even the interpretation of the names mentioned in Raamaayana itself can not be deciphered. As has been stated in the comments on Seetaa, the hermitage of sage Vaalmeeki represents the state where Seetaa is protected with an armor, the armor of sacrifices, the armor of gods. Fabrication of an armor in this way is too common in puraanic literature. Word Lava is Vala with letters reversed. Vala may be an aura around the body. This aura has to be pierced to absorb it in the body. This will create gems inside the body. Rigveda mentions Rava, not Lava which can pierce Vala. In Sanskrit, Rava is the name of noise. How Rava can be equated with Lava, is yet to be seen. May be the power at mortal level has been called Rava/Lava.
संदर्भ
सरण्युभिः फलिगमिन्द्र शक्र वलं रवेण दरयो दशग्वैः ॥१.६२.४॥
स सुष्टुभा स ऋक्वता गणेन वलं रुरोज फलिगं रवेण ।४.५०.५
जुष्टी
नरो
ब्रह्मणा
वः
पितॄणामक्षमव्ययं
न
किला
रिषाथ
।
यच्छक्वरीषु
बृहता
रवेणेन्द्रे
शुष्ममदधाता
वसिष्ठाः
॥७.३३.४॥
एवा
नः
सोम
परिषिच्यमान
आ
पवस्व
पूयमानः
स्वस्ति
।
इन्द्रमा
विश
बृहता
रवेण
वर्धया
वाचं
जनया
पुरंधिम्
॥९.९७.३६॥
इन्द्रो वलं रक्षितारं दुघानां करेणेव वि चकर्ता रवेण । १०.६७.६
ध्रुवा
एव
वः
पितरो
युगेयुगे
क्षेमकामासः
सदसो
न
युञ्जते
।
अजुर्यासो
हरिषाचो
हरिद्रव
आ
द्यां
रवेण
पृथिवीमशुश्रवुः
॥१०.९४.१२॥
*काल परमाणु ही लव है। नीचे-ऊपर रक्खे हुए कमलपत्रों को एक साथ ही सुई से भेदन करने पर प्रत्येक दल में जितना काल लगता है, उसी की संज्ञा लव है। कहा जाता है कि इससे सूक्ष्मकाल की उपलब्धि नहीं होती। दो सौ छप्पन लवों की एक मात्रा होती है। बिन्दु का उच्चारणकाल एक सौ अट्ठाईस लव है। अर्द्धचन्द्र का चौंसठ, रोधिनी का बत्तीस, नाद का सोलह, नादान्त का आठ, शक्ति का चार, व्यापिका का दो और समना का एक लव होता है। उन्मना सर्वथा कालहीन है। - शिवशंकर अवस्थी, मन्त्र और मातृकाओं का रहस्य, पृष्ठ ५७ (चौखम्बा विद्याभवन, वाराणसी, १९८६)
The Scientific World Journal, vol. 2016, Article ID 3182746, 14 pages, 2016. https://doi.org/10.1155/2016/3182746