In Bhaagavata puraana, Vena story starts after the story of Dhruva. This indicates that a part of consciousness can be made Dhruva, stable, while a part of consciousness remains unstable. This unstable part gives rise to luminescence which has been called Venati(verb) in Sanskrit. Vena itself has been given the form of a bird which has to fly to the highest level and fetch Soma from there. Every object in this world is emitting some form of luminescence. It is desirable that this luminescence is controlled, so that the bird is able to save it's energy in it's journey to higher self. Vedic and puraanic literature talks of a luminescence which appears after coming down from trance. This part of energy has to be properly utilized, and if necessary, it has to be modified. It's modification gives two parts - one is dark and stationary, while the other is able to travel a long distance. This reminds one of the laser light in modern days. This has been named Prithu in the story of Vena.

      It has been indicated in the story that Vena should be able to create some form of inducement. It is a guess that this inducement may be in the form of omens. If omens are true, then the Vena is pure. If omens are untrue, it has to be purified.

      First published : 17 - 2 - 2009 AD( Faalguna krishna ashtamee , Vikrama samvat 2065)


      वेन

      टिप्पणी: भागवत पुराण में वेन की कथा का आरम्भ ध्रुव आख्यान के पश्चात् होता है । इसका यह अर्थ निकाला जा सकता है कि चेतना का एक अंश ऐसा है जिसे ध्रुव बनाया जा सकता है । दूसरा अंश ऐसा है जिसे ध्रुव नहीं बनाया जा सकता । उस चेतना के उद्धार का उपाय वेन की कथा है । वैदिक निघण्टु में संज्ञा रूप में वेन शब्द का वर्गीकरण मेधावी नामों, यज्ञ नामों और पद नामों में किया गया है, जबकि क्रिया रूप में वेनति शब्द का वर्गीकरण कान्तिकर्मा, गतिकर्मा और अर्चति कर्मा के अन्तर्गत किया गया है । वेनति में व उदात्त है, जबकि वेन में न उदात्त है । ऋग्वेद के सायण भाष्य में सार्वत्रिक रूप से वेन की व्याख्या कान्तिकर्मा के आधार पर, कामना करने वाले के आधार पर करने का प्रयास किया गया है क्योंकि यास्क निरुक्त १०.३८ में वेन को कान्ति ही कहा गया है( वेनो - वेनते: कान्तिकर्मणः ) । यास्क निरुक्त १२.२९ में यास्क द्वारा निम्नलिखित मन्त्र की व्याख्या के संदर्भ में वेनति को कामयेत, 'कामना करे' कहा है -

      यस्मिन् वृक्षे सुपलाशे देवै: संपिबते यम: । अत्रा नो विश्पति: पिता पुराणाँ अनु वेनति ।।

      ऋग्वेद १.८६.८ से भी संकेत मिलता है कि वेनति क्रिया में कामना का कोई योगदान है ।

      यद्यपि वैदिक निघण्टु में वेन और वेनति शब्दों का वर्गीकरण बिल्कुल अलग - अलग किया गया है, फिर भी यास्क द्वारा वेन और वेनति शब्दों को मिला देना कितना उपयुक्त है, इसका विवेचन आगे किया जाएगा । सबसे पहले हम वेनति - कान्तिकर्मा अर्थ पर ध्यान देते हैं । कान्ति शब्द को वर्तमान युग के विज्ञान की भाषा में संदीप्ति(luminescence)के रूप में समझा जा सकता है । बहुत सी घडियों की सुईयों पर संदीप्तिशील पदार्थ का लेप लगा रहता है जिससे वह रात्रि में भी चमकती हैं । यह चमक कान्ति कहलाती है । इसका कारण यह है कि पदार्थ के अन्दर स्थित परमाणु जब दिन में बाहर से प्रकाश का अवशोषण करते हैं तो उस ऊर्जा को वह संदीप्ति के रूप में धीरे - धीरे बाहर निकालते रहते हैं । या यह कह सकते हैं कि अवशोषित ऊर्जा को सर्वदा धारण करने की शक्ति उन परमाणुओं में नहीं है, अतः वह ऊर्जा बाहर निकलती रहती है । यह ध्रुव अवस्था के विपरीत स्थिति है । इस धारणा की पुष्टि तैत्तिरीय ब्राह्मण ३.७.१३.१ में सोमयाग में अवभृथ स्नान के अवसर पर ऋजीष( सोमलता से सोम को निचोडने के पश्चात् बचा तृण भाग) के संदर्भ में कथित निम्नलिखित मन्त्र से होती है -

      यत्ते त्वचं बिभिदुर्यच्च योनिम् । यदास्थानात्प्रच्युतो वेनसि त्मना । त्वया तत्सोम गुप्तमस्तु नः । सा नः संधाऽसत्परमे व्योमन् ।।

      इसका अर्थ सायण भाष्य में इस प्रकार किया गया है कि हे सोमलता, सोम के शोधन के लिए जो तेरी त्वचा का भेदन किया गया, जो तेरी योनि का भेदन किया गया, जो तुझे तेरे आस्थान से प्रच्युत करने के कारण तू वेनन करती है, वह हमारा सब अपराध गुप्त ही रहे । यहां आस्थान से प्रच्युत होने के कारण वेनन क्रिया के घटित होने का उल्लेख महत्त्वपूर्ण है । आस्थान में स्थिर रहना तो ध्रुव स्थिति है । जहां आस्थान से प्रच्युति हुई कि वेनन क्रिया, संदीप्ति क्रिया, कान्ति क्रिया का आरम्भ हुआ ।

      तैत्तिरीय संहिता ४.२.८.२ आदि में आहवनीय अग्नि के चयन के लिए रुक्म/हिरण्य को बिछा कर उसके ऊपर चयन करने का विधान है । कहा गया है कि यदि भूमि पर आहवनीय अग्नि का चयन किया जाए तो अग्नि के कारण पृथिवी पर ओषधि - वनस्पतियों की उत्पत्ति न हो, यदि अन्तरिक्ष में किया जाए तो वयांसि/पक्षी उत्पन्न न हों, यदि द्युलोक में किया जाए तो अग्नि के कारण वर्षा न हो । इसलिए रुक्म बिछाकर उसके ऊपर ही अग्नि का चयन करते हैं । पुष्कर पर्ण के ऊपर रुक्म को रखने के लिए निम्नलिखित मन्त्र का विनियोग होता है -

      ब्रह्म जज्ञानं प्रथमं पुरस्ताद्वि सीमतः सुरुचो वेन आव: । स बुध्निया उपमा अस्य विष्ठा: सतश्च योनिमसतश्च विव: ।।

      इस यजु से यह प्रतीत होता है कि सबसे पहली अवस्था ब्रह्म की, निर्विकल्प समाधि की, ध्रुव की है । निर्विकल्प समाधि से सविकल्प समाधि में व्युत्थान होने पर (डा. फतहसिंह सीमतः का अर्थ अंग्रेजी भाषा के semi शब्द के आधार पर करते हैं, जबकि सायणाचार्य सीमतः का अर्थ सभी दिशाओं से करते हैं ) सुरुचि वाले वेन का, कान्ति का आविर्भाव होता है । पौराणिक कथाओं में वेन को अंग का पुत्र कहा गया है । वैदिक साहित्य में तो यह कथन प्रत्यक्ष रूप से कहीं प्रकट नहीं होता, लेकिन इसको इस प्रकार समझा जा सकता है कि अंग समाधि से व्युत्थान की अवस्था है, व्यावहारिक जीवन में उतरने की अवस्था है । इस सुरुचि वाली वेन अवस्था को, कान्ति की अवस्था को अग्नि चयन का आधार बनाया जा सकता है, यज्ञ का आधार बनाया जा सकता है, इस कान्ति का सदुपयोग किया जा सकता है ।

      ऐसा प्रतीत होता है कि वेन शब्द का मूल वि/बि = पक्षी में निहित है । विश्व की सभी प्राचीन सभ्यताओं में बि को आत्मा कहा गया है । ऋग्वेद की ऋचा में वेर्न वृक्षं वसतिं इत्यादि पंक्ति प्रकट हुई है । इसका अर्थ है कि जैसे पक्षी वृक्ष पर बैठता है । यहां वेर्न के परोक्ष, सरलीकृत रूप को 'वेन' समझा जा सकता है । ऋग्वेद १०.१२३ सूक्त भार्गव वेन ऋषि का है और इसका देवता वेन है । वेन को अन्तरिक्ष स्थानीय देवता कहा गया है । पक्षी बनने के लिए दोनों ओर पंख होना अनिवार्य है जिससे वह उड सके । वैदिक ऋचाओं में सार्वत्रिक रूप से वेन को हिरण्य पक्षों वाले एक शकुन का रूप दिया गया है, जैसे वेन देवता वाले भार्गव वेन ऋषि के सूक्त १०.१२३ में । वेन के यह दो पक्ष कौन से हो सकते हैं, इसको ऐतरेय ब्राह्मण १.२० के आधार पर समझा जा सकता है । ऐतरेय ब्राह्मण १.२० में वेन के साथ दो प्रकार के प्राणों के सम्बद्ध होने का उल्लेख है - अवाङ् प्राण और ऊर्ध्व प्राण । स्वयं वेन नाभि स्थानीय/केन्द्र बिन्दु है । अवाङ् प्राणों के अन्तर्गत तीन प्राणों का उल्लेख आता है - पहले वह जो रेतःनिर्माण के लिए उत्तरदायी है, दूसरा वह जो मूत्र के लिए उत्तरदायी है और तीसरा वह जो पुरीष के लिए उत्तरदायी है । इन तीन प्राणों के समानान्तर तीन पावमानी ऋचाओं, शोधक ऋचाओं का उल्लेख है । रेतः निर्माण के समकक्ष ऋचा 'पवित्रं ते विततं ब्रह्मणस्पते इति' है । दूसरा प्राण मूत्र का है जिसके लिए विनियुक्त ऋचा तपोष्पवित्रं विततं दिवस्पदे इत्यादि है । तीसरा प्राण पुरीष का है जिसके लिए विनियुक्त ऋचा वियत्पवित्रं धिषणा अतन्वत इत्यादि है । ऐसा प्रतीत होता है कि यह प्रसंग वेन के दो पक्षों का निर्माण करने के लिए है । रेतः, मूत्र और पुरीष के निर्माण में संलग्न प्राणों को पितर प्राण, स्वधा प्राण कहा जा सकता है । यह सूर्य से सम्बन्धित प्राण भी हो सकते हैं । इन प्राणों के समकक्ष दूसरे पक्ष का निर्माण करना है जो सोम का शोधन करे । उसका संकेत पवित्रं ते इत्यादि (ऋग्वेद ९.८३.१-२) पावमानी ऋचाओं द्वारा दिया गया है ।

      अब हम इस प्रश्न पर ध्यान देते हैं कि वेन और वेनति शब्दों में कितनी समानता है, कितना भेद है । ऋग्वेद १०.६४.२ में 'वेनन्ति वेना:' का उल्लेख है । इसका अर्थ यह हुआ कि वेन वेनन क्रिया कर भी सकते हैं, नहीं भी । ऐसा अनुमान है कि यदि वेन की वेनन क्रिया को, ऊर्जा के क्षरण की क्रिया को किसी प्रकार रोक दिया जाए, अथवा उसको किसी प्रकार से नियन्त्रित कर लिया जाए, तभी वह ऊर्ध्व दिशा में गति करने में समर्थ हो सकते हैं । ऋग्वेद १.५६.२ में वेनाः द्वारा गिरि पर आरोहण करने का उल्लेख है । ऋग्वेद १.८३.५ में कहा गया है कि सबसे पहले अथर्वा ने यज्ञों द्वारा पथ का विस्तार किया, तभी व्रतपा, व्रत का पालन करने वाले वेन सूर्य का जन्म हो सका(यज्ञैरथर्वा प्रथम: पथस्तते ततः सूर्यो व्रतपा वेन आजनि) । ऐसा हो सकता है कि अथर्वा ने यज्ञों द्वारा जिस पथ का ततन्, विस्तार किया, उसको वैदिक तथा पौराणिक साहित्य में पृथु नाम दिया गया हो ( स देवो देवान् प्रति पप्रथे पृथु - ऋ. २.२४.११) । ऋग्वेद ८.१००.५ में वेनों के एक ऋत को आरोहण करने का उल्लेख है जिससे मन और हृदय दोनों ने मिलकर मुझ से वार्तालाप किया (आ यन्मा वेना अरुहन्नतृस्यं एकमासीनं हर्यतस्य पृष्ठे । मनश्चिन्मे हृद आ प्रत्यवोचदचिक्रदञ्छिशुमन्त: सखायः ) । ऋग्वेद १०.१२३.६(वेन सूक्त) में हृदय के द्वारा वेनन करने का उल्लेख है ।

      ऋग्वेद ९.२१.५ में वेन को इस प्रकार नियन्त्रित करने का निर्देश है जिससे वह हमारे लिए अरावा बन सके । रव को शोर कहा जा सकता है और अरावा को शोर से रहित । ऋग्वेद ९.८५.११ में उल्लेख है कि सुपर्ण के नाक/स्वर्ग में पहुंच जाने पर वेनों की पूर्वी गिराओं की कृपा हुई (नाके सुपर्णमुपपप्तिवांसं गिरो वेनानामकृपन्त पूर्वी: ) । इन सभी उल्लेखों से यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि वेन/पक्षी यद्यपि वेनन क्रिया में समर्थ है, लेकिन उसकी इस क्रिया को नियन्त्रित करना है जिससे वह जब बोले तो चेतना के उच्च स्तर से बोले । जैसा कि ध्रुव की टिप्पणी में कहा जा चुका है, वि/वयः से तात्पर्य सभी को कभी न कभी प्रकट होने वाले शकुनों - अपशकुनों से हो सकता है । यदि शकुन झूठे निकलते हैं तो यह इस तथ्य की ओर संकेत करता है कि हमारा वेन दुष्ट है, पापी है । जिस प्रकार से भागवत पुराण में वेन को दुष्ट राजा कहा गया है, उसी प्रकार शांखायन ब्राह्मण ८.५ में पापोक्त वेन(उभयतो वेनम् पापोक्तस्य) का पावमानी ऋचाओं द्वारा शोधन करने का निर्देश है । श्रीमती राधा गुप्ता द्वारा पृथु शब्द की टिप्पणी के संदर्भ में किया गया यह कथन महत्त्वपूर्ण है कि पापी वेन कौन है? जो जीवात्मा यह समझता है कि तू देह ही है, सूक्ष्म चेतना नहीं, वह पापी वेन है । ध्रुव की टिप्पणी में यह कहा जा चुका है कि वयः/पक्षी वह है जिसने पृथिवी की गुरुत्वाकर्षण शक्ति के विरुद्ध अपने आपको संतुलित कर लिया है । तब वह अन्तरिक्ष में पक्षी की भांति तिर्यक् दिशा में विचरण करने में समर्थ होता है । लेकिन अभी उसमें ऊर्ध्व दिशा में विचरण करने की शक्ति नहीं होती । इस शक्ति को बाद में प्राप्त करना होता है । अन्त में वेन सूर्य सदृश बन जाता है । तैत्तिरीय आरण्यक ३.११.१ में सुवर्ण घर्म को वेन समझने का निर्देश है ।

      पौराणिक कथाओं के अनुसार राजा वेन अपने को ही सर्वोपरि मानता है । वह यज्ञ में विश्वास नहीं करता । लेकिन ऋषिगण यज्ञ करना चाहते हैं जिसके लिए वह वेन से धन की मांग करते हैं । वेन द्वारा यज्ञ की निन्दा पर ऋषिगण उसे हुंकार द्वारा मार देते हैं और फिर उसकी देह का मन्थन करते हैं । उसकी देह के मन्थन से एक तो ह्रस्व कद, कृष्ण वर्ण वाला निषाद(नि:शेषेण सीदति इति निषाद, उसमें गति करने की सामर्थ्य नहीं है ) प्रकट होता है और दूसरा पृथु प्रकट होता है । इसका अर्थ इस प्रकार लिया जा सकता है कि जो कान्ति प्रकट हुई है, उसे हुंकार द्वारा किसी प्रकार रोका जा सकता है । फिर उसका संशोधन किया जा सकता है । उसके संशोधन से एक तो कृष्ण वर्ण प्रकट होता है और दूसरा पृथु, विस्तीर्ण गति करने वाला प्रकट होता है । आज के वैज्ञानिक युग में हम लेजर से परिचित हैं जिसकी किरणों में दूर तक जाने की सामर्थ्य होती है । इसका कारण यह है कि लेजर की किरणों की कलाओं में परस्पर सामञ्जस्य होता है, वह एक दूसरे का विनाश नहीं करती । कृष्ण वर्ण का विकास तब होता है जब किरणें एक दूसरे से मिलकर पूर्ण विनाश कर देती हैं ।

      यह उल्लेखनीय है कि इस संसार की सभी वस्तुओं से, चाहे वह जीवित हों या अजीवित, एक कान्ति का उत्सर्जन होता है । उस कान्ति का कोई सदुपयोग होता हो, ऐसा प्रतीत नहीं होता ।

      वैदिक साहित्य में शुक्रामन्थि ग्रह - द्वय के संदर्भ में निम्नलिखित दो यजुओं का विनियोग किया जाता है -

      प्रथम यजु - अयं वेनश्चोदयत्पृश्निगर्भा ज्योतिर्जरायू रजसो विमाने । इममपां संगमे सूर्यस्य शिशुं न विप्रा मतिभी रिहन्ति । उपयामगृहीतोऽसि शण्डाय त्वैष ते योनिर्वीरतां पाहि । । - तैत्तिरीय संहिता १.४.८.१

      इस यजु का अर्थ है कि यह वेन पृश्निगर्भ में ज्योति रूपी जरायु का प्रेरण करता है - - - - ?

      द्वितीय यजु - तम् प्रत्नथा पूर्वथा विश्वथेमथा ज्येष्ठतातिम् बर्हिषदꣳ सुवर्विदम् । प्रतीचीनं वृजनं दोहसे गिराऽऽशुं जयन्तम् अनु यासु वर्धसे ॥
      उपयामगृहीतो ऽसि मर्काय त्वैष ते योनिः प्रजाः पाहि ॥ - तैत्तिरीय संहिता १.४.९.१

      इनमें से पहली यजु का विनियोग शुक्र ग्रह के लिए है जबकि दूसरी यजु का विनियोग मन्थी ग्रह के लिए । कहा गया है कि शुक्र ग्रह सूर्य का रूप है जबकि मन्थी ग्रह चन्द्रमा का( तैत्तिरीय संहिता ६.४.१०) । शतपथ ब्राह्मण ४.२.१. में इस कथन का परिवाद किया गया है और निर्देश दिया गया है कि वेन वाली यजु का विनियोग मन्थी ग्रह के लिए करे । इससे यह संकेत मिलता है कि वेन की कान्ति की दो अवस्थाएं हो सकती हैं - सूर्य से सम्बन्धित और चन्द्रमा से सम्बन्धित ।

      ऐतरेय ब्राह्मण ३.३० में तृतीय सवन में ऋभुगण के देवताओं के साथ सोमपान का प्रश्न उठाया गया है और कहा गया है कि चूंकि ऋभुगण से मनुष्यगन्ध आती है, इसलिए देवगण उनके साथ सोमपान नहीं करना चाहते । उसका उपाय यह निकाला गया कि सविता देवता उनके दोनों ओर खडा हुआ और तब सोमपान संभव हो पाया । सविता देवता के खडे होने के प्रतीक रूप में दो धाय्यों का विनियोग किया जाता है जिनमें से एक 'अयं वेनश्चोदयत्पृश्निगर्भा इति' है । वेन के साथ सविता देवता का यह सम्बन्ध इंगित करता है कि वेन में जिस कान्ति का आविर्भाव हो रहा है, उससे किसी प्रेरणा का जन्म होना चाहिए । यह प्रेरणा उच्चतर चेतना से निम्नतर चेतना इत्यादि के रूप में हो सकती है, जैसा कि आगे स्पष्ट किया गया है ।

      पुराणों में वेन को सार्वत्रिक रूप से अङ्ग व मृत्यु - कन्या सुनीथा का पुत्र कहा गया है जिसे उसके पिता अङ्ग ने पुत्रेष्टि आदि द्वारा बडे परिश्रम से प्राप्त किया है । लेकिन माता सुनीथा के किसी दोष के कारण वेन दुष्ट बन जाता है । और वेन की दुष्टता यह है कि वह वैदिक मार्ग का त्याग करके जैन मार्ग अपना लेता है । जैसा कि अङ्ग शब्द की टिप्पणी में कहा गया है, अङ्ग समाधि से उत्थान की अवस्था हो सकती है । निर्विकल्प समाधि को मृत्यु सदृश ही कहा जा सकता है । सुनीथा का अर्थ है सम्यक् रूप से ले जाई गई (चेतना?) । समाधि से व्युत्थान पर जब चेतना का अवतरण होता है तो वह साधारण मनुष्य की भांति या तो अचेतन मन बन सकता है या चेतन मन । आवश्यकता इस बात की है कि समाधि से व्युत्थान पर चेतना का अधिकतम अंश चेतन मन में रूपान्तरित हो, अचेतन मन में नहीं । यदि वह चेतना अचेतन मन बनती है तो वह दुष्ट वेन की स्थिति है । यदि वह चेतन मन बनती है तो वह पृथु की स्थिति है । पुराणों में दुष्ट वेन की ऊरु का मन्थन करने पर निषाद के प्रकट होने का उल्लेख है । ऐसा कहा जा सकता है कि साधारण मनुष्य में अचेतन मन ही ऊरु होता है । और जब वेन के पाणि के मन्थन का उल्लेख आता है तो पाणि के मन्थन से तात्पर्य यह हो सकता है कि किसी कार्य को करने की प्रेरणा किस सीमा तक उच्चतर चेतना से मिलती है । यही पाणि का मन्थन हो सकता है (सवितु: प्रसविताभ्यां अश्विनोर्बाहुभ्यां पूष्णोर्हस्ताभ्यां इत्यादि ) । पद्म पुराण द्वितीय खण्ड वेनोपाख्यान है जिसमें कहा गया है कि वे अपने पापों के प्रक्षालन के लिए तीर्थयात्रा करता है । तीर्थयात्रा करने से तात्पर्य भी अपने अचेतन मन को चेतन मन में रूपान्तरित करने से हो सकता है ।

      तैत्तिरीय आरण्यक १०.१०.- का निम्नलिखित श्लोक उल्लेखनीय है -

      त्रिधा हितं पणिभिर्गुह्यमानं गवि देवासो घृतमन्वविन्दन् ।

      इन्द्र एकꣳ सूर्य एकं जजान वेनादेकꣳ स्वधया निष्टतक्षुः ।।

      इस मन्त्र का सायण भाष्य भी द्रष्टव्य है ।

      वेन

      वैदिक संदर्भ

      *तदित् समानमाशाते वेनन्ता न प्र युच्छतः । धृतव्रताय दाशुषे ॥ वेदा यो वीनां पदमन्तरिक्षेण पतताम् । वेद नाव: समुद्रियः ॥ - ऋग्वेद १.२५.६-७

      *त्रयः पवयो मधुवाहने रथे सोमस्य वेनामनु विश्व इद् विदुः । त्रयः स्कम्भासः स्कभितास आरभे त्रिर्नक्तं याथस्त्रिर्वश्विना दिवा ॥ - ऋ. १.३४.२

      *यास्ते प्रजा अमृतस्य परस्मिन् धामन्नृतस्य । मूर्धा नाभा सोम वेन आभूषन्तीः सोम वेदः ॥ - ऋ. १.४३.९

      *तं गूर्तयो नेमन्निष: परीणसः समुद्रं न संचरणे सनिष्यव: । पतिं दक्षस्य विदथस्य नू सहो गिरिं न वेना अधि रोह तेजसा ॥ - ऋ. १.५६.२

      *अस्येदु भिया गिरयश्च दृळ्हा द्यावा च भूमा जनुषस्तुजेते । उपो वेनस्य जोगुवान ओणिं सद्यो भुवद् वीर्याय नोधाः ॥ - ऋ. १.६१.१४

      *यज्ञैरथर्वा प्रथमः पथस्तते ततः सूर्यो व्रतपा वेन आजनि । आ गा आजदुशना काव्यः सचा यमस्य जातममृतं यजामहे ॥ - ऋ. १.८३.५

      *शशमानस्य वा नरः स्वेदस्य सत्यशवसः । विदा कामस्य वेनतः ॥ - ऋ. १.८६.८

      *होता यक्षद् वनिनो वन्त वार्यं बृहस्पतिर्यजति वेन उक्षभिः पुरुवारेभिरुक्षभिः । जगृभ्मा दूरआदिशं श्लोकमद्रेरध त्मना । अधारयदररिन्दानि सुक्रतु: पुरू सद्मानि सुक्रतु: ॥ - ऋ. १.१३९.१०

      *विभु प्रभु प्रथमं मेहनावतो बृहस्पते: सुविदत्राणि राध्या । इमा सातानि वेन्यस्य वाजिनो येन जना उभये भुञ्जते विशः ॥ योऽवरे वृजने विश्वथा विभुर्महामु रण्वः शवसा ववक्षिथ । स देवो देवान् प्रति पप्रथे पृथु विश्वेदु ता परिभूर्ब्रह्मणस्पतिः ॥ - ऋ. २.२४.१०

      *सत्यमूचुर्नर एवा हि चक्रुरनु स्वधामृभवो जग्मnरेताम् । विभ्राजमानांश्चमसाँ अहेवाऽवेनत् त्वष्टा चतुरो ददृश्वान् ॥ - ऋ. ४.३३.६

      *ऋतस्य पथि वेधा अपायि श्रिये मनांसि देवासो अक्रन् । दधानो नाम महो वचोभिर्वपुर्दृशये वेन्यो व्याव: ॥ - ऋ. ६.४४.८

      *इमे हि ते कारवो वावशुर्धिया विप्रासो मेधसातये । स त्वं नो मघवन्निन्द्र गिर्वणो वेनो न शृणुधी हवम् ॥ - ऋ. ८.३.१८

      *यद् वां कक्षीवाँ उत यद् व्यश्व ऋषिर्यद् वां दीर्घतमा जुहाव । पृथी यद् वां वैन्यः सादनेष्वेवेदतो अश्विना चेतयेथाम् ॥ - ऋ. ८.९.१०

      *स क्षपः परि षस्वजे न्यु१स्रो मायया दधे स विश्वं परि दर्शतः । तस्य वेनीरनु व्रतमुषस्तिस्रो अवर्धयन् नभन्तामन्यके समे ॥ - ऋ. ८.४१.३

      *यथा चिद् वृद्धमतसमग्ने संजूर्वसि क्षमि । एवा दह मित्रमहो यो अस्मध्रुग् दुर्मन्मा कश्च वेनति ॥ - ऋ. ८.६०.७

      *स पूर्व्यो महानां वेनः क्रतुभिरानजे । यस्य द्वारा मनुष्पिता देवेषु धिय आनजे ॥ - ऋ. ८.६३.१

      *आ यन्मा वेना अरुहन्नृतस्यँ एकमासीनं हर्यतस्य पृष्ठे । मनश्चिन्मे हृद आ प्रत्यवोचदचिक्रदञ्छिशुमन्तः सखायः ॥ - ऋ. ८.१००.५

      *आस्मिन् पिशङ्गमिन्दवो दधाता वेनमादिशे । यो अस्मभ्यमरावा ॥ - ऋ. ९.२१.५

      *अभि वेना अनूषतेयक्षन्ति प्रचेतसः । मज्जन्त्यविचेतसः ॥ - ऋ. ९.६४.२१

      *सम्यक् सम्यञ्चो महिषा अहेषत सिन्धोरूर्मावधि वेना अवीविपन् । मधोर्धाराभिर्जनयन्तो अर्कमित् प्रियामिन्द्रस्य तन्वमवीवृधन् ॥ - ऋ. ९.७३.२

      *दिवो नाके मधुजिह्वा असश्चतो वेना दुहन्त्युक्षणं गिरष्ठाम् । अप्सु द्रप्सं वावृधानं समुद्र आ सिन्धूरूर्मा मधुमन्तं पवित्र आ ॥ नाके सुपर्णमुपपप्तिवांसं गिरो वेनानामकृपन्त पूर्वीः । शिशुं रिहन्ति मतयः पनिप्नतं हिरण्ययं शकुनं क्षामणि स्थाम् ॥ - ऋ. ९.८५.१०-११


      *तं मर्मृजानं महिषं न सानावंशुं दुहन्त्युक्षणं गिरिष्ठाम् । तं वावशानं मतयः सचन्ते त्रितो बिभर्ति वरुणं समुद्रे ॥ - ऋ. ९.९५.४

      *तक्षद्यदी मनसो वेनतो वाग् ज्येष्ठस्य वा धर्मणि क्षोरनीके । आदीमायन् वरमा वावशाना जुष्टं पतिं कलशे गाव इन्दुम् ॥ - ऋ. ९.९७.२२

      *तद्बन्धुः सूरिर्दिवि ते धियंध्रा नाभानेदिष्ठो रपति प्र वेनन् । सा नो नाभिः परमास्य वा घाऽहं तत् पश्चा कतिथश्चिदास ॥ - ऋ. १०.६१.१८

      *क्रतूयन्ति क्रतवो हृत्सु धीतयो वेनन्ति वेनाः पतयन्त्या दिशः । न मर्डिता विद्यते अन्य एभ्यो देवेषु मे अधि कामा अयंसत ॥ - ऋ. १०.६४.२

      *प्र तद्दुःशीमे पृथवाने वेने प्र रामे वोचमसुरे मवत्सु । ये युक्त्वाय पञ्च शतास्मयु पथा विश्राव्येषाम् ॥ - ऋ. १०.९३.१४

      *अयं वेनश्चोदयत् पृश्निगर्भा ज्योतिर्जरायू रजसो विमाने । इममपां संगमे सूर्यस्य शिशुं न विप्रा मतिभी रिहन्ति ॥ समद्रादूर्मिमुदियर्ति वेनो नभोजा: पृष्ठं हर्यतस्य दर्शि । ऋतस्य सानावधि विष्टपि भ्राट् समानं योनिमभ्यनूषत व्राः ॥ - - - - अप्सरा जारमुपसिष्मियाणा योषा बिभर्ति परमे व्योमन् । चरत् प्रियस्य योनिषु प्रियः सन् त्सीदत् पक्षे हिरण्यये स वेनः ॥ नाके सुपर्णमुप यत् पतन्तं हृदा वेनन्तो अभ्यचक्षत त्वा । हिरण्यपक्षं वरुणस्य दूतं यमस्य योनौ शकुनं भुरण्युम् ॥ - ऋ. १०.१२३ देवता वेनः

      *श्रुधी हवमिन्द्र शूर पृथ्या उत स्तवसे वेन्यस्यार्कैः । आ यस्ते योनिं घृतवन्तमस्वारूर्मिर्न निम्नैर्द्रवयन्त वक्वा: ॥ - ऋ. १०.१४८.५

      *त्वं त्यमिन्द्र मर्त्यमास्त्रबुध्नाय वेन्यम् । मुहु: श्रथ्ना मनस्यवे ॥ - ऋ. १०.१७१.३

      *ते एते धाय्ये अनिरुक्ते प्राजापत्ये शस्येते अभित आर्भवं सुरूपकृत्नुमूतयेऽयं वेश्चोयत्पृश्निगर्भा इति प्रजापतिरेवैनांस्तदुभयतः परिपिबति तस्मादु श्रेष्ठी पात्रे रोचयत्येव यं कामयते तम् । - ऐतरेय ब्राह्मण ३.३०

      *होमादूर्ध्वं होत्रा पठनीया ऋचः - स्वाहाकृतः शुचिर्देवेषु घर्मः समुद्रादूर्मिमुदियर्ति वेनो द्रप्सः समुद्रमभि यज्जिगाति - ऐ.ब्रा. १.२२

      *अयं वेनश्चोदयत्पृश्निगर्भा इति । वेनोऽस्माद्वा ऊर्ध्वा अन्ये प्राणा वेनन्त्यवाञ्चोऽन्ये तस्माद्वेनः प्राणो वा अयं सन्नाभेरिति तस्मान्नाभिस्तन्नाभेर्नाभित्वं प्राणमेवास्मिंस्तद्दधाति । पवित्रं ते विततं ब्रह्मणस्पते तपोष्पवित्रं विततं दिवस्पदे वियत्पवित्रं धिषणा अतन्वतेति पूतवन्तः प्राणास्त इमेऽवाञ्चो रेतस्यो मूत्र्यः पुरीष्या इत्येतानेवास्मिंस्तद्दधाति । - ऐ.ब्रा. १.२०

      *अयं वेनश्चोदयत्पृश्निगर्भा इतीन्द्र उ वै वेन ऐन्द्रमेव स्वाहाकारमेताभिरनुवदि । तस्यैकामुत्सृजति नाके सुपर्णमुपयत्पतन्तमिति सोऽयमात्मनोऽतीकाशस्तामुत्तरासु करोति तेनो साऽनन्तर्हिता भवत्युभयतो वेनं पापोक्तस्य पावमानीरभिष्टुयादात्मा वै वेनः पवित्रं वै पावमान्यः पुनात्येवैनं - शां.ब्रा. ८.५

      *दशम अहः :-अयं वै वेनः प्रजापतेः प्रत्यक्षं तन्वस्ता होता वदेत् - शां.ब्रा. २७.४

      *इयमेव वेनासेवनी मध्यं ब्राह्मणाच्छंसी तस्माद्ब्राह्मणाच्छंसी प्रातःसवन एकदेवत्याः शंसति - - - शाङ्खायन ब्राह्मण २८.१०

      *दशहोतृहृदयाख्यं मन्त्रं :-सुवर्णं घर्मं परिवेद वेनम् । इन्द्रस्याऽऽत्मानं दशधा चरन्तम् । अन्तः समुद्रे मनसा चरन्तम् । - तैत्तिरीय आरण्यक ३.११.१

      *वेनस्तत्पश्यन्विश्वा भुवनानि विद्वान्यत्र विश्वं भवत्येकनीळम् । यस्मिन्निदँ सं च वि चैकं स ओतः प्रोतश्च विभु प्रजासु ॥ - तै.आ. १०.१.३

      *त्रिधा हितं पणिभिर्गुह्यमानं गवि देवासो घृतमन्वविन्दन् । इन्द्र एकं सूर्य एकं जजान वेनादेकं स्वधया निष्टतक्षुः ॥ - तै.आ. १०.१०(१२.११).

      *शुक्रामन्थिग्रहयोरभिधानम् : अयं वेनश्चोदयत्पृश्निगर्भा ज्योतिर्जरायू रजसो विमाने । इममपां संगमे सूर्यस्य शिशुं न विप्रा मतिभी रिहन्ति । उपयामगृहीतोऽसि शण्डाय त्वैष ते योनिर्वीरतां पाहि । - तैत्तिरीय संहिता १.४.८.१

      *आहवनीय चयनार्थ रुक्माद्युपधानाभिधानम् : ब्रह्म जज्ञानं प्रथमं पुरस्ताद्वि सीमतः सुरुचो वेन आव: । स बुध्निया उपमा अस्य विष्ठाः सतश्च योनिमसतश्च विव: । - तै.सं. ४.२.८.२

      अथ मन्थिनं गृह्णाति । अयं वेनश्चोदयत्पृश्निगर्भा ज्योतिर्जरायू रजसो विमाने इममपां संगमे सूर्यस्य शिशुं न विप्रा मतिभी रिहन्ति उपयामगृहीतोऽसि मर्काय त्वेति – माश ४.२.१.१०

      *राजसूये दिग्जय ध्यानम् :- पृथिर्वैन्यः । अभ्यषिच्यत । स राष्ट्रं नाभवत्। स एतानि पार्थान्यपश्यत् । तान्यजुहोत् । तैर्वै स राष्ट्रमभवत्। - तै.ब्रा. १.७.७.३

      *पशो: सूक्ते वपाया: पुरोनुवाक्या:- ब्रह्म जज्ञानं प्रथमं पुरस्तात् । वि सीमतः सुरुचो वेन आव: । स बुध्निया उपमा अस्य विष्ठाः । सतश्च योनिमसतश्च विव: ॥ - तै.ब्रा. २.८.८.८

      *(हे प्रवर्ग्यस्वामिन् ) नाके सुपर्णमुप यत्पतन्तम् । हृदा वेनन्तो अभ्यचक्षत त्वा । हिरण्यपक्षं वरुणस्य दूतम् । यमस्य योनौ शकुनं भुरण्युम् ॥ - तै.ब्रा. २.५.८.५

      *अवभृथकर्मणि ऋजीषस्य दध्ना पयसा वा मधुमिश्रेण प्रोक्षणे मन्त्राः :- यत्ते त्वचं बिभिदुर्यच्च योनिम् । यदास्थानात्प्रच्युतो वेनसि त्मना । त्वया तत्सोम गुप्तमस्तु नः । सा नः संधाऽसत्परमे व्योमन् । - तै.ब्रा. ३.७.१३.१