In daily practice, we experience only one type of breath. But in vedic literature, there is mention of not one, but at least 5, or 10 breath airs or forces. Out of these 10, 5 are main and 5 perhaps subsidiary. The present write up is mainly concerned mainly with one out of 5 main breaths, which is called Vyaana. Still, other 4 breaths are also briefly discussed for completion of the subject. Whether these 5 breaths are dependent on each other, or are independent of each other, has been discussed in puraanic and vedic literature. Mahabharata etc. say that there is largely an inter relationship between praana and apaana, while udaana, vyaana and samaana are interdependent on each other. Some texts mention that vyaana can get converted into apaana. Similarly, one sacred text mentions the breath responsible for running of normal daily life as apaana, while the other mentions udaana. So, what is the real situation, is not known. There is a possibility that some types of conjugate pairs are formed between these 5 breaths. Conjugate pair means, a large interdependence on each other. The property of a conjugate pair is that if one component decreases in value, the other component increases. If one has to increase content of apaana, then he has to lose the divine praana. And so on.

      The question is – what has been achieved by dividing the breath into 5 types of airs. The answer seems to be that one type of breath has not been found sufficient to describe different states of achievements in yoga. Take the example of vyaana breath. As we all know, human beings have very small potential for absorbing sun rays directly. But cow has. And it is only cow which is able to form vitamin E? from sunrays and skin of cow still remains the largest source of artificial production of this vitamin. But there is a possibility that man can also absorb sunrays. That seems to be possible when one has a developed pituitary gland, or a hump like the one which cows have.

      The ideal state for receiving energy from the universe is through our breath. But, as all of us know, it is impossible to subsist on breath energy alone. One has to consume food to compliment breath. Upanishadic texts seem to answer why we are unable to gather sufficient life energy from the universe. The answer seems to be that those centers in our body which can gather this energy are clogged. For example, heart, naval, foot toe are the centres for collecting universal energy.

      It is a general practice now a days to divide human consciousness in 7 parts, or 7 enclosures. The lowest enclosure is our gross body. Other enclosures gets subtler and subtler and pervade each other. The subtler and subtlest enclosures provide their energy to grosser enclosures. This is how our entity prevails. But this study on vyaana breath indicates that these enclosures are not continuous, but there is a gap between each other. Shri Rajneesh states that in fear, subtler enclosure get constricted and stops providing energy to gross enclosure. That is why the gross body starts trembling in presence of fear. But according to present study, there is existence of some gap between the two enclosures. If one wants to become fearless, he has to either cross this gap or close this gap altogether. This picture can be made more clear with the help of internal structures of semiconductors in modern day Solid State Physics, where there is existence of conduction band, valence band and forbidden gap. It is a guess that this forbidden gap in our body is our belly.

      A property of vyaana has been stated to be that it pervades. If it does not pervade, then it may mean that it is distorted. This distortion can be understood with the experiences of our daily life. When we eat some tasty food, it’s taste seems to spread in our body for a moment. Then it disappears altogether . The same is true with any pain, hunger, excitement etc. These all can be said to be the forms of vyaana breath which reside in the forbidden gap, but which can be further activated, just like various impurities in forbidden gap. On activation, the impurities are able to communicate either with conduction band or with valence band. This picture of conduction band, valence band and forbidden band is for a gross matter. What may happen when there is talk of subtler matter? It is a guess that forbidden gap will disappear. Ramayana talks of monkeys assisting Rama in search of Sita and ultimately forming a bridge over ocean to reach Lanka. This story can be interpreted in the light of the above forbidden band gap.

      Some important achievements have been mentioned by development of these 5 breaths. There is a possibility of unhindered communication on development of samaana breath, a much sought after subject at present for increasing the efficiency of communication network. With development of udaana air, some unspeakable excitement takes place. The jewellery worn by persons automatically becomes visible on our body. Vyaana gives powers to know minds of others. It is also a source of play in joy. And above all, it gives the powers to control communication with the universe or within our own body on a one – to – one basis. One to one means that the communication will not get mixed, just like the internet communication now a days.


      प्राण, अपान, व्यान, उदान, समान

      पांच वायुओं के सामान्य लक्षणों में प्राण का लक्षण यह है कि प्राण देव स्तर पर अथवा अमर्त्य स्तर पर कार्य करता है । अपान मर्त्य स्तर पर कार्य करता है । अपान में गुरुत्वाकर्षण जैसी शक्ति होती है जिसके कारण वह भुक्त अन्न को नीचे की ओर ले जाता है । प्राण और अपान का एक युगल है, जैसे भौतिक विज्ञान में conjugate pairs होते हैं । ऐसे युगलों में एक अवयव का ह्रास होता है तो दूसरे में वृद्धि होती जाती है । दोनों अवयवों का गुणनफल एक स्थिरांक रहता है । दूसरा युगल समान और व्यान का है । कहा गया है कि हृदय में समान वायु का निवास है जबकि हृदय से निकलने वाली ७२ हजार नाडियों में व्यान की स्थिति होती है । यह कथन ऐसे संकेत देता प्रतीत होता है कि स्वयं सूर्य में समान वायु की स्थिति है जबकि सूर्य से निकलने वाली किरणों में व्यान वायु की । व्यान शब्द की निरुक्ति व्याप्त होने के संदर्भ में की जाती है । व्यान से व्याधि की उत्पत्ति का भी उल्लेख आता है । उदान वायु ऊर्जा को ऊर्ध्व दिशा की ओर ले जाती है ।

      पांच वायुओं की प्रकृति को समझाने के लिए ब्राह्मणों और पुराणों में कुछ कथन उपलब्ध होते हैं । शतपथ ब्राह्मण ११.८.३.६ में कहा गया है कि प्राण पूर्व दिशा से सम्बन्धित है, व्यान दक्षिण दिशा से, अपान पश्चिम दिशा से, उदान उत्तर दिशा से और समान ऊर्ध्व दिशा से । पुराणों में कहा गया है कि ब्रह्मा के प्राण से दक्ष का जन्म हुआ, अपान से क्रतु का, व्यान से पुलह का (वायु पुराण १.९.९४), उदान से पुलस्त्य का और समान से वसिष्ठ का(मन से रुचि का, चक्षु से मरीचि का, हृदय से भृगु का इत्यादि) । सबसे पहले व्यान और उदान को लेते हैं । डा. फतहसिंह के अनुसार पुलह का अर्थ है जो पुर तक सीमित है(पुलह = पुरः ) । पुलस्त्य का अर्थ है जो पुर का स्त्यान, फैलाव करता है । पुराणों में पुलह से कपियो या वानरों की उत्पत्ति का उल्लेख है जबकि पुलस्त्य से रावण आदि राक्षसों का जन्म होता है . यह कहा जा सकता है कि यदि किसी कारण से व्यान का विस्तार न हो पाया तो वह पुरः स्थिति को, देह में सीमित स्थिति को जन्म देता है । कपि का अर्थ है – जो कम्पन उत्पन्न करता है, जो जड पदार्थ को कम्पित करता है, उसमें चेतना का प्रवेश कराता है । हमने कोई स्वादिष्ट पदार्थ जिह्वा पर रखा तो वह एक क्षण के लिए पूरी देह का कम्पन करता है। आवश्यकता इस बात की है कि यह सब कपि एक अकेली दिशा में योजित हों, एक अक्ष बनें . तभी वह रामायण में राम की सहायता कर सकते हैं । अथर्ववेद १४.१.१२ व ऋग्वेद १०.८५.१२ में सूर्या के संदर्भ में उल्लेख आता है कि जब सूर्या अपने पति के घर जा रही थी, तो उसके रथ में व्यान अक्ष में आहत था।

      व्यान वायु की प्रकृति के सम्बन्ध में प्राचीन साहित्य में जितने संकेत दिए गए हैं, वह व्यान को स्पष्ट रूप से समझने के लिए पर्याप्त नहीं हैं । व्यान को तभी समझा जा सकता है जब आधुनिक भौतिक विज्ञान में ठोस अवस्था भौतिकी के अनुसार द्रव्यों की सूक्ष्म संरचना को समझ लिया जाए । मान लिया जाए कि किसी द्रव्य के अणु दूर – दूर बिखरे हुए हैं । ठोस द्रव्य का निर्माण करने के लिए यह आवश्यक है कि यह अणु एक दूसरे के निकट आएं । जब तक यह अणु दूर – दूर रहते हैं, तब तक इनमें निकट आने के लिए आकर्षण शक्ति विद्यमान रहती है । लेकिन जब यह अणु एक सीमा से अधिक निकट आते हैं तो उनके बीच विकर्षण शक्ति की प्रधानता रहती है । किसी ठोस पदार्थ के अणु इन आकर्षण और विकर्षण शक्तियों की साम्यावस्था में रहते हैं। इतना ही नहीं, अणु या परमाणु के सबसे बाहर जो इलेक्ट्रान नामक विद्युत कण विद्यमान होते हैं, वह दूसरे अणु या परमाणु के इलेक्ट्रानों से मिलकर विद्युत शक्ति के एक क्षेत्र का निर्माण करते हैं जिसके गुणों द्वारा यह निर्णय होता है कि किसी ठोस पदार्थ में धातुओं की भांति विद्युत का चालन होगा या काष्ठ की भांति वह विद्युत के कुचालक रहेंगे । लेकिन परमाणु के भीतरी भाग में जो इलेक्ट्रान विद्यमान होते हैं, उन पर इन बाहरी संयोगों का प्रभाव नहीं पडता । बाहर के इलेक्ट्रान जिस विद्युत शक्ति के क्षेत्र का निर्माण करते हैं, उसे विज्ञान में ऊर्जा पट्ट( energy band ) नाम दिया गया है । इस ऊर्जा पट्ट द्वारा यह

      समझाया जाता है कि ठोस के इलेक्ट्रान मिलकर जिस ऊर्जा क्षेत्र का या पट्ट का निर्माण करते हैं, उस ऊर्जा क्षेत्र में इलेक्ट्रानों का भ्रमण या गति प्रतिबन्धित है । जो इलेक्ट्रान चालकता पट्ट में रहेंगे, वह ठोस की विद्युतीय चालकता में पूरा योगदान देते हैं । जो इलेक्ट्रान संयोजकता पट्ट में रहेंगे, वह विद्युतीय चालकता में योगदान नहीं देते । इन दोनों पट्टों के बीच में ऊर्जा का एक अन्तराल होता है जिसमें सामान्य रूप से कोई इलेक्ट्रान नहीं रहता । इस प्रकार कोई पदार्थ या तो विद्युत का सुचालक होगा जैसे कि धातुएं, अथवा कुचालक होगा, जैसे कि काष्ठ । लेकिन आधुनिक विज्ञान ने एक तीसरी अवस्था का पता लगाया है – अर्धचालक । अर्धचालक धातु और कुचालक के बीच की अवस्थाएं हैं । यह पाया गया है कि यदि किसी शुद्ध कुचालक पदार्थ जैसे सिलिकन आदि में कुछ विशेष प्रकार की अशुद्धियों के परमाणु मिला दिए जाएं तो उन अशुद्धियों के परमाणु पट्ट अन्तराल, जो कि ऊर्जा की दृष्टि से एक वर्जित क्षेत्र है, उस पर प्रभाव डालते हैं । कुछ अशुद्धियां ऐसी होती हैं जो चालकता पट्ट के निकट वाले पट्ट अन्तराल

      पर प्रभाव डालती हैं । दूसरी कुछ अशुद्धियां ऐसी होती हैं जो पट्ट अन्तराल के



      संयोजकता पट्ट के निकट वाले भाग पर प्रभाव डालती हैं । तीसरे प्रकार में वह अशुद्धियां हैं जो वर्जित पट्ट अन्तराल के किनारों पर नहीं, अपितु बीच में किसी स्थान पर अपने प्रभाव क्षेत्र का निर्माण करती हैं । जो अशुद्धियां वर्जित पट्ट अन्तराल के दोनों किनारों पर अपना प्रभाव डालती हैं, उनके कारण द्रव्य की विद्युतीय चालकता पर प्रभाव पडता है । लेकिन जिन अशुद्धियों का प्रभाव दोनों किनारों से दूर कहीं बीच में होता है, वह विद्युतीय चालकता पर प्रभाव नहीं डालती । यह उल्लेखनीय है कि भले ही इस प्रकार की अशुद्धियां विद्युतीय चालकता पर प्रभाव न डालती हों, लेकिन इस प्रकार की अशुद्धियों को भी प्रकाश की सहायता से विद्युतीय चालकता में सीमित योगदान के लिए सक्रिय बनाया जा सकता है ।

      ठोस अवस्था भौतिकी का जो तथ्य जड पदार्थों पर लागू होता है, वह चेतना के क्षेत्र में भी लागू माना जा सकता है । रजनीश, महेश योगी आदि व्यक्तियों ने सामूहिक ध्यान पर बहुत कुछ कहा है और वह दावा करते थे कि यदि इतने व्यक्ति सामूहिक ध्यान करें तो वह पूरे विश्व के वातावरण में परिवर्तन ला सकते हैं । वर्तमान संदर्भ में हम सामूहिक चेतना की बात को भूल जाते हैं और व्यक्तिगत चेतना की बात करते हैं । क्या व्यक्तिगत चेतना के स्तर पर भी ऊर्जा के इस चित्र पट्ट को लागू किया जा सकता है । पुराणों की कथाओं से जो संकेत मिल रहे हैं, उससे तो ऐसा ही प्रतीत होता है । पुराणों में व्यान से पुलह और पुलह से कपियों की उत्पत्ति का उल्लेख है । कपियों को ठोस पदार्थ में वर्जित पट्ट अन्तराल में प्रभाव डालने वाली अशुद्धियों के समकक्ष रखा जा सकता है । उदाहरण के लिए, हमने अपनी जिह्वा पर कोई स्वादिष्ट भोजन रखा तो उसके कारण देह के विभिन्न भागों में एक रुचिकर कम्पन उत्पन्न होती है जिसे हम स्वाद का नाम देते हैं । जिह्वा के मूल भाग में, जो आमाशय तक जाता है, यह कम्पन सबसे अधिक होती है । कपि शब्द का अर्थ पुराणों की भाषा में कम्पन होता है, जो जड पदार्थ में कम्पन उत्पन्न कर दे । स्वादिष्ट भोजन यही कार्य करता है, अत़ः कपि कहलाने योग्य है । रामायण के किष्किन्धा काण्ड(डा. फतहसिंह के अनुसार किं किं दधाति इति किष्किन्धा ) को वर्जित पट्ट अन्तराल का प्रतीक समझा जा सकता है । किष्किन्धा पर्वत पर अन्तःपुर में तारा देवी विराजमान रहती है । बाली या सुग्रीव तारा का उपभोग कर सकते हैं । तारा का अर्थ है – जो अशुद्धियां वर्जित पट्ट अन्तराल के बीच के भागों में अपना प्रभाव डाल रही हैं, उनको किसी प्रकार से इस प्रकार रूपान्तरित करना है कि वह वर्जित पट्ट अन्तराल के किनारों पर प्रभाव डालने में समर्थ हों जिससे विद्युतीय चालकता पर उनका प्रभाव पडे । ब्राह्मण ग्रन्थों की भाषा में इसे चित्र – विचित्र स्थिति को तारक बनाना कहा गया है । यह कल्पना की जा सकती है कि जिस प्रकार वर्जित पट्ट अन्तराल के एक ओर संयोजकता पट्ट और दूसरी ओर चालकता पट्ट है, वैसे ही चेतना के स्तर पर किष्किन्धा पर्वत का निचला सिरा लंका से मिलता है । लेकिन रामायण की कथा यह संकेत देती है कि ऐसा नहीं है, अपितु इन दोनों के बीच में कोई विशाल सागर ( वर्जित अन्तराल) विद्यमान है जिसको पार कर पाना बडा कठिन है । केवल नल और नील वानर ही इस समुद्र पर सेतु का निर्माण कर सकते हैं ।

      व्यान वायु के व्यावहारिक पक्ष को वानर हनुमान के माध्यम से भी समझा जा सकता है । हनुमान समुद्र लांघकर लंका में आग लगा देते हैं । कहा गया है कि व्यान प्राण और अपान के बीच संधि है(छान्दोग्य उपनिषद १.३) । देह के स्तर पर इस संधि का रूप यह है कि देह में एक ओर सिर है और दूसरी ओर पैर या मूलाधार । इन दोनों के बीच में देह का मध्य भाग है जिसमें हृदय, आमाशय आदि आते हैं । अतः यह व्यान वायु का भाग होना चाहिए। इस भाग में जो भी संवेदनाएं होती हैं, उनको बृहत् रूप दिया जा सकता है । उदाहरण के लिए, यदि भूख का अनुभव होता है, तो ऐसा संभव है कि भूख केवल पेट तक सीमित न रहे, अपितु वह पेट का अतिक्रमण करके मूलाधार प्रदेश अथवा पैरों को भी प्रभावित करे । तब यह ऐसा ही होगा जैसे हनुमान ने लंका को जलाया था । मूलाधार में आग लगने से वहां से रस का स्राव होकर वह शीर्ष की ओर गति करता है और उदान वायु का रूप धारण करता है । यद्यपि मूलाधार में भी उदान वायु कही गई है, लेकिन यह उदान कारण – कार्य से बंधा हो सकता है, जबकि शीर्ष का उदान कारण – कार्य से रहित ।

      व्यान वायु को समझाने के लिए इतने बडे कथानक को रचने की आवश्यकता क्यों पडी । इसका कारण यह है कि कर्मकाण्ड में व्यान का स्थान अन्वाहार्य पचन अग्नि होता है जिस पर हवि में रस उत्पन्न करने के लिए उसका पाक किया जाता है (शतपथ ब्राह्मण २.२.२.१८) । अन्वाहार्यपचन अग्नि का देवता नल नैषध कहा गया है । इस अग्नि की स्थिति आहवनीय अग्नि और गार्हपत्य अग्नियों के बीच होती है । आहवनीय अग्नि देवों की अग्नि होती है, जैसे हमारे अन्दर विशिष्ट प्रकार के शकुनों का उत्पन्न हो जाना । गार्हपत्य अग्नि हमारी चेतना की सामान्य स्थिति है । इस अग्नि को अपान या उदान कहा गया है । उदान स्थिति का प्रतिनिधित्व पुलस्त्य द्वारा किया गया है . पुर का स्त्यान या फैलाव कहने से क्या तात्पर्य हो सकता है , इस संदर्भ में अनुमान है कि कार्य – कारण का अस्तित्व पुर के स्त्यान को जन्म देता है . यदि पूर्व जन्म के संचित संस्कार रहेंगे तो उदान वायु का विकास नहीं हो पाएगा ।

      अन्वाहार्यपचन अग्नि के देवता के रूप में नल नैषध का नाम आता है । पुराणों की कथाओं में नल को अश्व विद्या में प्रवीण कहा गया है । लेकिन उसको अक्ष विद्या नहीं आती जिसके कारण वह द्यूत में पुष्कर से हार जाता है और उसे वन में रहकर कष्ट सहने पडते हैं । कालान्तर में वह एक राजा से अक्ष विद्या सीखता है । उस राजा ने दिखाया कि किस प्रकार एक ही बाण से पूरे बिभीतक वृक्ष के पत्तों की गणना की जा सकती है । इस कथा को आधुनिक इन्टरनेट के विज्ञान के माध्यम से समझा जा सकता है । इन्टरनेट किस प्रकार काम करता है । पूरे इन्टरनेट का संचालन एक ही केन्द्र स्थान से होता है । हम जिस किसी को भी संदेश भेजते हैं, वह संदेश पहले केन्द्र स्थान पर पहुंचता है, फिर वहां से वह गन्तव्य पते पर । अथवा ऐसा भी संभव है कि हम जिस संदेश को गन्तव्य पते पर प्रेषित करते हैं, वह करोडों पतों को पार करके अपने गन्तव्य पते पर ही कैसे पहुंचता है । जो स्थिति इन्टरनेट की है, वही हमारे मस्तिष्क और शेष देह की भी है । मस्तिष्क देह के अलग – अलग अंगों को संदेश भेजने में समर्थ है और अंग भी अपने संदेश मस्तिष्क तक अलग – अलग भेज सकते हैं । यह कैसे संभव है कि चाहे इंटरनेट हो या मस्तिष्क, यह संदेश परस्पर मिलकर नष्ट नहीं होते । इस तथ्य को पुराणों की अक्ष विद्या समझा जा सकता है – जहां सारे संदेश अक्ष में निबद्ध हैं । ऋग्वेद १०.८५.१२ तथा अथर्ववेद १४.१.१२ में सूर्या के संदर्भ में उल्लेख आता है कि जब सूर्या अपने पति के घर जा रही थी, तो उसके रथ में व्यान अक्ष में आहत था। यदि अक्ष, केन्द्र बिन्दु नहीं होगा तो सारे संदेश अस्त – व्यस्त हो जाएंगे, पुराणों की भाषा में द्यूत की स्थिति बन जाएगी ।

      कहा गया है कि हृदय में समान वायु का निवास है जबकि हृदय से निकलने वाली प्रत्येक नाडी से सौ – सौ नाडियां निकलती हैं जो आगे ७२ हजार नाडियों में विभाजित हो जाती हैं । इन नाडियों में व्यान की स्थिति होती है ( प्रश्नोपनिषद ३.६ इत्यादि)।

      समान वायु से वसिष्ठ ऋषि की उत्पत्ति का उल्लेख है . वसिष्ठ की प्रकृति ऊर्ध्वमुखी विकास की होती है, जबकि समान शब्द से तात्पर्य सब दिशाओं में समान रूप से विस्तार होता है . समान में आकाश गुण है . दूसरी ओर अगस्त्य में फैलने का गुण कहा गया है। अतः अगस्त्य का सम्बन्ध व्यान वायु से होना चाहिए ।

      वर्तमान टिप्पणी में व्यान के पूर्व रूप को कपि, कम्पन, स्वाद, भूख आदि कहा गया है । तैत्तिरीय ब्राह्मण २.६.४.५ में कौकिल सौत्रामणी याग के संदर्भ में कहा गया है – सरस्वती उपवाकैर्व्यानम् । अर्थात् सरस्वती उपवाकों के द्वारा व्यान को जान लेती है । याज्ञिक भाषा में उपवाक अंकुरित यवों को कहते हैं (श्रौतयज्ञप्रक्रिया – पदार्थानुक्रमकोषः , प्रणेता – प. पीताम्बरदत्त शास्त्री, राष्ट्रिय संस्कृत संस्थानम्, दिल्ली, २००५ ई.) । लेकिन जैसा कि याग के कोकिल नाम से ही स्पष्ट है, उपवाक का उपयुक्त अर्थ हमारे अन्दर उत्पन्न होने वाले शकुन इत्यादि होगा । एक वाक् है जिसे अन्तरात्मा की आवाज कह सकते हैं । शकुन इत्यादि को उपवाक् की श्रेणी में रखा जा सकता है । यह कहा जा सकता है कि वाक् का जनन विकाररहित स्थिति में होता होगा, जबकि उपवाक् का जन्म विकारयुक्त स्थिति में भी हो सकता है । जब उपवाक् भूख की तरह फैल जाएगी, तब वह व्यान बन जाएगी । अतः कहा गया है कि सरस्वती देवी उपवाकों द्वारा व्यान का अनुमान लगा लेती है । व्यान का क्या लाभ होगा, इस संदर्भ में तैत्तिरीय ब्राह्मण १.५.७.१ में कहा गया है कि आयु से प्राण का सातत्य(विस्तार) होता है, प्राण से अपान का, अपान से व्यान का, व्यान से चक्षु का, चक्षु से श्रोत्र का, श्रोत्र से मन का, मन से वाक् का, वाक् से आत्मा का इत्यादि । अथवा ऐसा कहा जा सकता है कि यह विस्तार स्वयं ही नहीं हो जाता, अपितु प्रयत्न द्वारा करणीय है । इस संदर्भ में व्यान से चक्षु के विकास का कथन ध्यान देने योग्य है । यहां जिस चक्षु की बात की जा रही है, वह तृतीय नेत्र हो सकता है । वर्तमान चिकित्सा विज्ञान के अनुसार ( डा. जांगिड, बीकानेर) तृतीय चक्षु का विकास शिरोभाग में स्थित पिट्युटरी ग्लैण्ड द्वारा होता है । और ऐसे प्रयास चल रहे हैं कि विटामिन ए के इंजेक्शनों द्वारा पिट्युटरी ग्रन्थि का विकास कर दिया जाए जिसका लाभ चक्षुओं को मिलेगा । नए चक्षुओं का निर्माण करना भी संभव हो जाएगा । पिट्युटरी ग्रन्थि का एक और लाभ है । जो लोग बिना भोजन के ही जीवन यापन कर लेते हैं, उनमें पिट्युटरी ग्रन्थि का आकार बडा पाया गया है । अतः यह कहा जा सकता है कि योग के स्तर पर पिट्युटरी ग्रन्थि का विकास अनिवार्य है । और यह विकास व्यान वायु द्वारा ही संभव है । जैमिनीय ब्राह्मण २.४१ में तैत्तिरीय ब्राह्मण के उपरोक्त कथन का दूसरा रूप प्राप्त होता है । कहा गया है कि विषुवान् स्थिति प्राप्त होने तक प्राण है, विषुवान् स्थिति व्यान है और व्यान से आगे अपान की स्थिति है । गवामयन सत्र याग एक वर्ष तक चलता है । इस याग की कल्पना एक पक्षी के रूप में की गई है । पहले छह मास मिलकर पक्षी के एक पक्ष का निर्माण करते हैं, दूसरे छह मास दूसरे पक्ष का । इन दो पक्षों के बीच यज्ञ का एक विशेष दिन होता है जिसे विषुवान् कहा जाता है । जिस प्रकार पृथिवी की विषुवत् रेखा पर सूर्य की किरणें सीधी पडती हैं, उसी प्रकार विषुवान् अह में देह से छाया का, तम का लोप हो जाता है क्योंकि सूर्य से सीधी किरणें प्राप्त होती हैं । सामान्य जीवन में हम सूर्य से तिरछी किरणें प्राप्त कर रहे हैं । सूर्य की किरणों को वनस्पति जगत अवशोषित करके हमारे लिए भोजन बनाता है जिसे हम ग्रहण करते हैं । लेकिन विषुवान् स्थिति प्राप्त होने पर हम अपने भोजन का निर्माण स्वयं कर सकेंगे ।

      ऐतरेय आरण्यक ३.२.५ में वर्णमाला के अक्षरों का वर्गीकरण प्राण, अपान आदि वायुओं में किया गया है । कहा गया है कि क, ख, ग आदि स्पर्श संज्ञक वर्ण प्राण का रूप हैं, श, ष, स इत्यादि ऊष्माण वर्ण अपान का रूप हैं और अ, आ, इ, ई इत्यादि स्वर व्यान का रूप हैं । जो स्पर्श वर्ण हैं, उनका सम्बन्ध पृथिवी, अग्नि, ऋग्वेद, चक्षु से है । जो ऊष्माण वर्ण हैं, उनका सम्बन्ध अन्तरिक्ष, वायु, यजुर्वेद, श्रोत्र से है । जो स्वर हैं, उनका सम्बन्ध द्युलोक, आदित्य, सामवेद और मन से है । जैसा कि सर्वविदित है, स्पर्श वर्णों में जड तत्त्वों की प्रधानता होती है । स्वर संज्ञक वर्णों में यह जडता समाप्त हो जाती है । तन्त्र शास्त्र में स्वरों को गले के विशुद्धि चक्र में स्थान दिया गया है जबकि क, ख, ग आदि स्पर्श वर्णों अथवा व्यञ्जनों को हृदय के अनाहत चक्र आदि में स्थान दिया गया है । श, ष, स ऊष्माण वर्णों की स्थिति मूलाधार चक्र में कही जाती है । श्री रजनीश के व्याख्यान सेवन चक्राज सेवन बांडीज में कहा गया है कि हृदय के चक्र में स्थिति ऐसी होती है जैसे चेतना किसी बोतल में बन्द है लेकिन स्पष्ट रूप से यह नहीं कहा जा सकता कि वह बोतल के अन्दर है या बाहर । हृदय से नीचे के चक्रों में तो वह बोतल में बन्द है ही (यहां बोतल को हमारी देह समझना चाहिए) । गले के विशुद्धि चक्र में पहुंचने पर यह स्थिति आ जाती है कि चेतना देह का अतिक्रमण कर जाती है । अब हम दूसरे के मन की बात जान सकते हैं । हमारी चेतना दूसरे की चेतना में व्याप्त हो सकती है । ऐतरेय आरण्यक के अनुसार यह व्यान प्राण की स्थिति है । लेकिन, जैसा कि जैमिनीय ब्राह्मण के आधार पर ऊपर उल्लेख किया गया है, गवामयन सत्र में व्यान को विषुवान् कहा गया है । इस विषुवान् अह के पहले तीन और बाद के तीन अहों की संज्ञा स्वर होती है । अतः यह कहा जा सकता है कि व्यान प्राण स्वरों तक सीमित नहीं है, अपितु उससे भी ऊपर की कोई स्थिति हो सकती है ।

      यह अन्वेषणीय है कि आधुनिक ठोस अवस्था भौतिकी के अनुसार जड पदार्थ की चेतना के तीन भाग किए गए हैं – चालकता पट्ट, वर्जित अन्तराल तथा संयोजकता पट्ट । यह स्थिति जड पदार्थों के लिए है । लेकिन व्यान जैसी स्थिति में जहां जडता समाप्त हो जाती है, इन तीनों पट्टों की क्या स्थिति होगी, यह अभी स्पष्ट नहीं है ।

      छान्दोग्य उपनिषद १.३ से हमें समान और व्यान को और अधिक समझने का अवसर मिलता है । एक सूर्य है जो ऊर्जा देता है । दूसरी पृथिवी है जो सूर्य से ऊर्जा ग्रहण करती है । जब लेने वाले और देने वाले का भेद समाप्त हो जाए, वह समान की स्थिति है । उस स्थिति में पृथिवी को स्वर कहा गया है तथा सूर्य को स्वर – प्रत्यास्वर । आधुनिक भौतिक विज्ञान में प्रयत्न चल रहे हैं कि सूचना का आदान – प्रदान बृहत् स्तर पर कैसे हो । उसका उपाय यह है कि सूचना लेने वाले और देने वाले में भेद न हो । यही स्थिति प्रेम में भी कही जा सकती है । व्यान की स्थिति में कहा गया है कि जब प्राण भी ठहर जाए, अपान भी, वह बीच की स्थिति, सन्धि व्यान होती है । इसके उदाहरण के रूप में कहा गया है कि बोलते समय प्राण और अपान दोनों रुक जाते हैं । यहां बोलने से तात्पर्य उसी परावाक् से हो सकता है । इससे आगे कहा गया है कि अग्नि मन्थन, आजि सरण, दृढ धनुष का आयमन, यह सारे कार्य अप्राण – अनपान स्थिति में ही संभव हो पाते हैं, अतः व्यान का रूप हैं ।

      षड्-विंश ब्राह्मण २.२.२० में सोमयाग में बहिष्पवमान स्तोत्र के समय गाई जाने वाली ऋचाओं के गान की विधि के संकेत दिए गए हैं । कहा गया है कि जो प्रथमा है, उसे आयच्छन् गाए क्योंकि यह अवाङ् प्राण आयत जैसा है । द्वितीय ऋचा को घोषिणी की भांति गाए क्योंकि अपान घोष की भांति है । तृतीय को उद्यच्छन् की भांति गाए क्योंकि प्राण उद्यत की भांति है । चतुर्थ को निक्रीडित की भांति गाए क्योंकि व्यान निक्रीडित की भांति है । पञ्चमी को निरुक्त – अनिरुक्त की भांति गाए क्योंकि समान निरुक्त – अनिरुक्त की भांति है । षष्ठी को उदासम् की भांति गाए क्योंकि उदान जो श्रृङ्ग है, वह उदस्त की भांति है । अन्त वाली ऋचा को रथन्तरवर्णा गाए क्योंकि यह (इयं) पृथिवी रथन्तर है, इसी में प्रतिष्ठा करनी होती है । षड् विंश ब्राह्मण के इस कथन से संकेत मिलता है कि प्राण वायु की प्रकृति उदय की भांति है, अपान की घोष की भांति, व्यान की निक्रीडित की भांति, समान की निरुक्त – अनिरुक्त की भांति और उदान की उदय – अस्त की भांति । प्राण की उद्यत प्रकृति के कथन को अथर्ववेद १५.१५ के आधार पर समझा जा सकता है । भौतिक जगत में जिस प्रकार सूर्य का उदय होता है, इसी प्रकार देह के स्तर पर महाभूतों में से तन्मात्राओं का उदय होता है । पृथिवी तत्त्व से अग्नि का उदय होता है जिसकी गति ऊर्ध्व दिशा में होती है । देह के स्तर पर भूख के उदय से तो हम सभी परिचित हैं । यह अग्नि का रूप है । इससे आगे के विकास को अथर्ववेद के आधार पर समझा जा सकता है । कहा गया है कि द्वितीय स्तर पर आदित्य का उदय होता है, तृतीय स्तर पर चन्द्रमा का, चतुर्थ स्तर पर पवमान का, पांचवें स्तर पर आपः का, छठें स्तर पर पशुओं का और सातवें स्तर पर प्रजाओं का । अपान की घोष प्रकृति के कथन पर समाधि से व्युत्थान की दृष्टि से विचार किया जाए तो यह कहा जा सकता है कि समाधि का जो श्रुत ज्ञान है, उसे अपान के द्वारा स्मृति में उतारना है । इसे और अच्छी तरह समझने की आवश्यकता है । श्री रजनीश ने संकेत दिया है कि हमने अभी किसी रस का आस्वादन किया । थोडी देर बाद हम उसको भूल जाते हैं । हमें फिर उस रस के आस्वादन की आवश्यकता पडती है । इसका कारण यह है कि उस रस का हमारी देह के साथ तादात्म्य स्थापित नहीं हो पाया है । वैदिक साहित्य की भाषा में लगता है कि इस तथ्य को घोष कहा गया है जो अपान का गुण है । आधुनिक विज्ञान की भाषा में इसे अनुनाद या रेजोनेन्स कह सकते हैं । अनुनाद जितना प्रबल होगा, रस की स्मृति उतनी ही प्रबल होगी । पौराणिक साहित्य में गवां घोष - गायों तथा गोपालों के रहने का स्थान प्रसिद्ध है । जो पृथिवी सूर्य की ऊर्जा का अवशोषण करती है तथा फिर उस ऊर्जा का उत्सर्जन भी करती है, उसे गौ कहा जाता है । अथर्ववेद १५.१६ में अपान के ७ स्तरों का उल्लेख है जिनके नाम पौर्णमासी, अष्टका, आमावास्या, श्रद्धा, दीक्षा, यज्ञ और दक्षिणा हैं । इसका तात्पर्य यह है कि पृथिवी को केवल सूर्य की ऊर्जा का ही अवशोषण – उत्सर्जन नहीं करना है, अपितु चन्द्रमा जिस प्रकार संवत्सर और उसके पक्ष, मास आदि अवयवों का निर्माण कर रहा है, उसको भी ध्यान में रखना है । अपान के साथ ऊष्माण वर्णों श, ष तथा स को सम्बद्ध किया गया है । ऊष्माण शब्द को आधुनिक रसायन विज्ञान में दो रसायनों के बीच अभिक्रिया के आधार पर समझा जा सकता है । कुछ रसायन ऐसे होते हैं जिनके मिलने पर ऊष्मा का जनन होता है । कुछ ऐसे होते हैं जिनके मिलने पर ऊष्मा का अवशोषण होता है । उदाहरण के लिए, नौसादर को पानी में घोलने पर पानी ठंडा हो जाता है । वैदिक साहित्य का कथन है कि ऊष्मा का जो जनन है, वह अपान से सम्बन्धित है । भागवत पुराण का कथन है कि ऊष्माणं इन्द्रियाण्याहुः अन्तस्था बलमात्मनः । अर्थात् ऊष्माणों के माध्यम से जिस ऊष्मा का जनन हो रहा है, वह इन्द्रियों को प्राप्त हो रही है । यदि इन्द्रियों को अन्तर्मुखी करना है तो ऊष्माण प्रक्रिया से हटकर अन्तस्थ प्रक्रिया पर जाना पडेगा । ऐसा अनुमान लगाया जा सकता है कि जब अथर्ववेद अपान के साथ पौर्णमासी, अमावास्या, श्रद्धा आदि जोड रहा है, तो उसका संकेत इसी ओर होगा । व्यान को निक्रीडित, निःशेषेण क्रीडित की भांति कहा गया है । क्रीडा के संदर्भ में अभी इतना ही कहा जा सकता है कि वैदिक ऋचाओं में मरुद्गण क्रीडा तभी करते हैं जब वृत्र का, हमारे अज्ञान के पर्दे का नाश हो जाता है । अथर्ववेद १५..१७ में व्यान के ७ स्तरों का उल्लेख है जिनके नाम क्रमशः भूमि, अन्तरिक्ष, द्यौ, नक्षत्र, ऋतुएं, आर्तव और संवत्सर हैं । यह विचित्र स्थिति है कि एक ओर व्यान को विषुवान् और स्वर जैसी सूक्ष्म और सूक्ष्मतर स्थितियां कहा जा रहा है तो दूसरी ओर भूमि, अन्तरिक्ष आदि महाभूत कहा जा रहा है । व्याख्या भविष्य में अपेक्षित है । यह उल्लेखनीय है कि अथर्ववेद १५.१५ से १५.१७ सूक्तों का रूपान्तर गोपथ ब्राह्मण १.१.३९ में भी तीन आचमनों के संदर्भ में उपलब्ध है । उदान की उदयास्त प्रकृति होने के कथन को अनुभवों के आधार पर समझना होगा । उदान प्राण की प्रकृति कुण्डलिनी जैसी, सर्प जैसी प्रतीत होती है । जब देह में सूक्ष्म ऊर्जा अतिरिक्त होती है तो यह ऊर्ध्व दिशा में गति करके उदान प्राण का, अलंकारों का विकास करती है । जब देह को ऊर्जा की आवश्यकता होती है, जैसे भोजन के बाद, तो यह प्राण अस्त हो जाता है ।

      शतपथ ब्राह्मण ४.१.२.२५ तथा ऐतरेय ब्राह्मण २.२१ में प्रातरनुवाक् नामक कृत्य में उपांशु – अन्तर्याम ग्रहों के संदर्भ में एक पक्षी की कल्पना की गई है जिसके उपांशु व अन्तर्याम ग्रह दो पक्ष हैं तथा उपांशुसवन आत्मा है । कहा गया है कि अंशु सोम को कहते हैं । उसका एक भाग उपांशु कहलाता है । फिर कहा गया है कि प्राण उपांशु हैं, उदान अन्तर्याम है तथा व्यान उपांशुसवन ( उपांशु को शुद्ध करने वाला ) है । उपांशुसवन आत्मा है । यह विवस्वान् (वासना से रहित) आदित्य है( शतपथ ब्राह्मण ३.९.४.७) । (तैत्तिरीय ब्राह्मण १.५.४.२ में अन्तर्याम को उदान के बदले अपान कहा गया है ।) यह अन्वेषणीय है कि क्या ठोस अवस्था भौतिकी के अनुसार जिस चालकता पट्ट, वर्जित अन्तराल और संयोजकता पट्ट की कल्पना की गई है, उसे क्रमशः प्राण, व्यान और अपान कहा जा सकता है ।

      शतपथ ब्राह्मण ८.१.३.६ में चिति चयन के संदर्भ में प्रथम चिति में पूर्व दिशा में प्राणभृत् इष्टका की स्थापना का निर्देश है, पश्चिम में चक्षुभृत व अपानभृत् का, दक्षिण में मनोभृत व व्यानभृत् का, उत्तर में श्रोत्रभृत् व उदानभृत् का तथा मध्य में वाग्भृत व समानभृत् का । इस निर्देश में व्यान के साथ मन को स्थापित किया गया है जो अन्य निर्देशों के प्रतिकूल प्रतीत होता है ।

      मैत्रायणी उपनिषद ७.१ में पांच वायुओं के साथ जो विवरण दिया गया है, उसे संक्षेप में निम्न तालिका में प्रस्तुत किया जा रहा है ( इस विवरण का मुख्य विषय पांच वायुएं नहीं हैं) -


      दिशा

      वायु

      देवता

      ऋतु

      छन्द

      साम

      लाभ

      पूर्व

      प्राण

      अग्नि

      वसन्त

      गायत्री

      रथन्तर

      निर्गुण, शुद्ध इत्यादि

      दक्षिण

      व्यान

      इन्द्र

      ग्रीष्म

      त्रिष्टुप्

      बृहत्

      अनन्तशक्ति, धाता, भास्कर आदि

      पश्चिम

      अपान

      मरुतः

      वर्षा

      जगती

      वैरूप

      अभय, अशोक, आनन्द, तृप्त, स्थिर, अमृत, ध्रुव

      उत्तर

      समान

      विश्वेदेवा

      शरद

      अनुष्टुप्

      वैराज

      शून्य, शान्त, अप्राण, निरात्मा, अनन्त आदि

      ऊर्ध्व

      उदान

      मित्रावरुणौ

      हेमन्त-शिशिर

      पंक्ति

      शाक्वर - रैवत

      प्रणव, भारूप, विगतनिद्र, विजर, विमृत्यु, विशोक


      इस तालिका में प्राण के साथ वसन्त ऋतु को रखने को इस प्रकार न्यायोचित ठहराया जा सकता है कि वसन्त ऋतु में जड प्रकृति में प्राणों का संचार हो जाता है, जो प्राण सोए पडे थे, वह जाग जाते हैं, वनस्पति जगत में नए अंकुर उत्पन्न होने लगते हैं । इसे प्राण की उद्यत प्रकृति कहा जा सकता है, सूर्य के उदय की भांति । व्यान के साथ ग्रीष्म ऋतु का न्याय इस प्रकार किया जा सकता है कि व्यान विषुवत् रेखा की स्थिति है जहां सूर्य की किरणें पृथिवी पर सीधी पडती हैं । ग्रीष्म ऋतु में भी ऐसा ही होता है जिसके कारण पृथिवी पर सूर्य की अधिकतम ऊर्जा आ पाती है । अपान के साथ वर्षा ऋतु का न्याय इस प्रकार किया जा सकता है कि वर्षा काल में पृथिवी पर अमृत की वर्षा होती है जिसका कारण पृथिवी की गुरुत्वाकर्षण शक्ति हो सकती है, लेकिन पृथिवी पर आकर वह अमृत दूषित हो जाता है । यही स्थिति अपान की होनी चाहिए । समान के साथ शरद ऋतु का न्याय इस प्रकार किया जा सकता है कि वर्षा ऋतु में पृथिवी पर जो मैलापन उत्पन्न होता है, वह शरद ऋतु आने पर स्वच्छ हो जाता है । सारा जल स्वच्छ हो जाता है ( वर्षा विगत शरद ऋतु आई इत्यादि – तुलसीदास) । इसी प्रकार समान स्थिति स्वच्छता उत्पन्न करने वाली होनी चाहिए । उदान के साथ हेमन्त – शिशिर का न्याय इस प्रकार किया जा सकता है कि उदान वायु के विकास से प्रथमतः सिर में शीतलता उत्पन्न होती है, फिर सारा शरीर शीतल होने लगता है हिम की भांति, ऐसा रजनीश आदि का कहना है । इस शीतलता के पीछे विज्ञान क्या है, कौन सी ऐसी प्रक्रियाएं घटित होती हैं जो शरीर से सारी ऊष्मा का अवशोषण कर लेती हैं, अभी तक ज्ञात नहीं है । ऐसा हो सकता है कि उदान रूपी चन्द्रमा के विकास के पश्चात् ही अपान का पौर्णमासी आदि में रूपान्तरण होता होगा ।

      डा. एस.टी. लक्ष्मीकुमार ने अपनी पुस्तक(Quest for New Materials , विज्ञान प्रसार द्वारा प्रकाशित ) में इस तथ्य का विस्तार दिया है कि हमारे शरीर में सूक्ष्म स्तर पर ऊष्मा का जनन किस प्रकार होता है । यह कार्य रक्त के हीमोग्लोबीन में उपस्थित लौह अणुओं द्वारा सम्पन्न होता है । श्वास वायु से आक्सीजन ग्रहण करके लौह कण पांच संयोजकता(पेंटावेलेंट) वाले कण में रूपान्तरित हो जाता है । फिर जब यह रक्त शरीर में जाता है तो वहां यह अपनी आक्सीजन स्थान्तरित कर देता है और वापस तीन संयोजकता वाले रूप (ट्राईवेलेंट) में आ जाता है । पांच संयोजकता वाले रूप से तीन संयोजकता वाले रूप तक आने में बहुत कम मात्रा में ऊष्मा का जनन होता है लेकिन यही वह ऊष्मा है जिससे हमारी देह के सारे कार्य कलाप सम्पन्न होते हैं । क्या इस ऊष्मा को वैदिक साहित्य का अपान कहा जा सकता है, यह विचारणीय है । वायु पुराण १५.११ में प्राण को अन्तरात्मा तथा अपान को बाह्यात्मा कहा गया है ।


      अब हम प्राण क्या हो सकता है, इसको समझने की ओर अग्रसर होते हैं । जैसा कि डा. लक्ष्मीकुमार की पुस्तक में दिया गया है, हमारे शरीर में आक्सीजन के अवशोषण के साथ ही ऊष्मा का जनन भी होता है । क्या यह कहा जा सकता है कि आक्सीजन का अवशोषण ही प्राण है । अग्नि पुराण ५९ तथा २१४ के आधार पर यह कहा जा सकता है । इस पुराण में आरम्भ महाभूतों तथा उनकी तन्मात्राओं अग्नि, वायु आदि के एक दूसरे में संहरण या प्रलय से किया गया है ( यह समाधि की ओर प्रस्थान और उससे व्युत्थान का रूप है )। जब केवल आकाश मात्र शेष बचता है, तब उसका लय मन में, मन का अहंकार में, अहंकार का महत् में, महत् का अव्याकृत में, अव्याकृत का ज्ञान रूप में । इसके पश्चात सृजन का कार्य आरम्भ होता है । सबसे पहले शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध की सृष्टि की जाती है । फिर ऐसा प्रतीत होता है कि इन पांचों का समावेश एक हिरण्मय अण्ड में करना पडता है । इतना होने के पश्चात् इस हिरण्मय अण्ड में प्राण और जीव का संचार किया जा सकता है । यह प्रश्न प्रायः उठाया जाता है कि गर्भ में पहले प्राण आता है या जीव । लगता है कि यह दोनों साथ – साथ आते होंगे । कहा गया है (अग्नि पुराण २१४) कि जीव में स्थित प्राण में निःश्वास और उच्छ्वास का गुण है जिसके द्वारा वह विसर्ग(अन्दर से बाहर फेंकना) से पूरण करता है । अतः यह कहा जा सकता है कि प्राण वह है जिसमें ब्रह्माण्ड से ऊर्जा ग्रहण करने का गुण हो । ब्रह्म पुराण १.७०.५७ तथा वायु पुराण ९७.५३ का कथन है कि प्राण का कार्य इस देह में परमात्मा का वर्धन करना है । यह उल्लेखनीय है कि प्राणी जगत प्राणों को दो प्रकार से ग्रहण करता है – एक तो श्वास के द्वारा और दूसरे भोजन के द्वारा । श्वास द्वारा प्राणों की वृद्धि किस प्रकार की जा सकती है, इस संदर्भ में श्वास की विपश्यना का उल्लेख मात्र करना पर्याप्त होगा । भोजन के संदर्भ में ब्राह्मण ग्रन्थों में कहा गया है कि मनुष्य अपना भोजन ऊपर को मुख करके ग्रहण करते हैं, जबकि पशु अपना भोजन मुख को नीचे की ओर करके ग्रहण करते हैं । कर्मकाण्ड में प्राण का सम्बन्ध आहवनीय अग्नि से और अपान या उदान का गार्हपत्य अग्नि से कहा गया है । आहवनीय अग्नि देवों को आहुति देने वाली अग्नि है । अतः प्राण को दैव स्तर का तथा अपान को मर्त्य स्तर का कहा जा सकता है । सामान्य रूप से अपान का उल्लेख शरीर से मल आदि का निस्सरण करने वाली वायु के रूप में किया जाता है । जैसा कि अग्निहोत्र शब्द की टिप्पणी में उल्लेख किया जा चुका है, गार्हपत्य अग्नि से आहवनीय अग्नि का विकास कोई सरल प्रक्रिया नहीं है, अपितु तप साध्य है – जब परावाक् का उदय होने लगे, तब आहवनीय अग्नि का विकास समझना चाहिए । वर्तमान संदर्भ में चूंकि प्राणों की उपलब्धि सभी प्राणियों को है, अतः प्राणों की दिव्यता का कथन किस प्रकार लागू होगा, यह विचारणीय है ।

      यह विचारणीय है कि पौराणिक व वैदिक साहित्य में अपान को तो ऊष्माण कह दिया गया है । लेकिन अन्तस्थ वर्णो के बारे में, जिनमें ऊष्मा का अवशोषण होता है, कुछ नही कहा गया है । यह अन्तस्थ वर्ण या तो प्राण का प्रतीक हो सकते हैं या उदान का । चूंकि ऊष्मा का अवशोषण उदान वायु द्वारा होता है, अतः यह निश्चय होता है कि अन्तस्थ वर्ण उदान से सम्बन्धित हैं ।

      कुछ उपनिषदों में शरीर में प्राण, अपान आदि वायुओं के स्थानों का निर्धारण किया गया है जिसे संक्षेप में निम्नलिखित सारणी में दिखाया गया है –


      प्राण

      अपान

      व्यान

      उदान

      समान

      त्रिशिखब्राह्मणोप. २.७८

      आस्य-नासिका मध्य, हृदय, नाभि मण्डल, पादाङ्गुष्ठ

      गुद, मेढ्र, उरु, जानु

      श्रोत्र, उरु, कटि, गुल्फ, स्कन्ध, गला

      सर्वसन्धियों में, पादों की और हस्तों की भी

      सर्वगात्र

      जाबालदर्शनोप. ४.२५

      आस्य-नासिका मध्य, नाभिमध्य, हृदय

      गुदमध्य, उरु, जानु, सारा उदर, कटि, नाभि, जङ्घा

      श्रोत्र-अक्षि मध्य, ककुद, गुल्फ,

      प्राणस्थान में, गले में, पाद, हस्त

      सर्वदेह में

      योगचूडामण्युप. २४

      हृदय

      गुदमण्डल

      सर्वशरीर

      कण्ठमध्य

      नाभिदेश

      अमृतनादोप. ३५

      हृदय

      गुद

      सर्वाङ्ग

      कण्ठ

      नाभिदेश


      जैसा कि इस तालिका से स्पष्ट है, विभिन्न उपनिषदों में देह में वायुओं की स्थितियों के विषय में प्रायः एकमत है लेकिन कुछ भिन्नताएं भी हैं । उदाहरण के लिए, एक उपनिषद व्यान वायु का स्थान स्कन्ध में कहता है तो दूसरा उपनिषद ककुद में । लेकिन स्थिति तब स्पष्ट हो जाती है जब हम वृषभ के स्कन्ध पर ध्यान देते हैं । वृषभ में स्कन्ध और ककुद एक ही अंग के नाम हैं । लेकिन मनुष्य में ककुद का विकास सिर में कहा गया है जहां सिर में स्थित किसी नाडी में इतना दबाव उत्पन्न होता है कि सिर में कूबड निकल आता है । और विभिन्न बुद्धों की प्रतिमाओं में तो एक के ऊपर एक ककुद दिखाया जाता है । उपनिषदों के वाक्यों का मह्त्त्व तब ज्ञात होता है जब हम इस तथ्य का संज्ञान लेते हैं कि पशु तो अपना पेट किसी तरह भर ही लेते हैं, लेकिन मनुष्य का पेट कभी नहीं भरता । वह सदा नए – नए रसों का आस्वादन करने के लिए लालायित ही रहता है । आदर्श स्थिति यह है कि हमारी पूर्ति केवल श्वास द्वारा हो जाए । ब्रह्माण्ड से हमें जिस – जिस शक्ति की आवश्यकता है, वह सब श्वास वायु द्वारा पूरी हो जाए (विपश्यना में सिखाया जाता है कि अन्दर जाने वाला प्राण भी आनन्ददायक होना चाहिए, बाहर निकलने वाला भी) । लेकिन हम सभी जानते हैं कि ऐसा होता तो नहीं है । तब हमें ब्रह्माण्ड की शक्ति का अवशोषण भोजन द्वारा करना पडता है । ऐसा क्यों होता है कि हम ब्रह्माण्ड की ऊर्जा को ग्रहण करने में असफल हो रहे हैं । इसका उत्तर उपनिषदों के उपरोक्त वचनों से आता प्रतीत होता है । कहा गया है कि प्राण का स्थान मुख – नासिका मध्य, हृदय, नाभिमध्य तथा पादाङ्गुष्ठ है । सामान्य रूप से जब हम श्वास लेते हैं तो विपश्यना ध्यान में यह निर्देश दिया जाता है कि यह देखो कि प्राण अन्दर कहां – कहां छू रहा है । नासिका के अन्दर के भाग में वायु के स्पर्श का अनुभव तो होता ही है । लेकिन इससे आगे भी विकास की स्थितियां हैं । आधुनिक विज्ञान के अनुसार प्राण वायु का अवशोषण फेफडों के माध्यम से होता है । लेकिन एक साधक में प्राण वायु का अवशोषण नासिका के अन्दर के भाग में भी होता है और वह सारे शरीर में फैलकर संवेदना उत्पन्न करता है । फिर उपनिषदों का कथन है कि प्राण वायु का दूसरा केन्द्र हृदय है । फिर तीसरा केन्द्र नाभि है, चौथा केन्द्र पादाङ्गुष्ठ है । यहां यह कहना उचित होगा कि नासिका से नीचे प्राणों के आवागमन की अनुभूति तभी हो सकती है जब हमारी देह भूख से व्याकुल हो जाए, जब हम दुग्ध आदि उच्च ऊर्जा प्रदान करने वाले पदार्थों का सेवन न्यूनतम करें । जब प्राण को अवशोषित करने के इतने सारे केन्द्र सक्रिय हो जाएं जिनके नाम उपनिषदों ने गिनाए हैं, तब यह कहा जा सकता है कि अब हम केवल प्राण वायु द्वारा ब्रह्माण्ड से ऊर्जा का अवशोषण कर सकते हैं ।

      सुबालोपनिषद ४ में हृदय मध्य में एक लोहित मांसपिण्ड की स्थिति कही गई है जिसके अन्दर कुमुद सरीखे एक पुण्डरीक या कमल की स्थिति कही गई है । हृदय के दस छिद्र होते हैं जिनमें प्राणादि पांच तथा नागादि पांच वायुओं की स्थिति होती है । जब यह पुण्डरीक विभिन्न वायुओं से सम्पर्क करता है, तब विभिन्न प्रकार के दर्शन होते हैं, जैसा कि निम्नलिखित तालिका में प्रदर्शित किया गया है –

      प्राण

      नदी, नगर,

      अपान

      यक्ष, राक्षस, गन्धर्व

      व्यान

      देव, ऋषि,

      उदान

      देवलोक, देव, स्कन्द, जयन्त

      समान

      देवलोक, धन

      अन्य वायुओं के लिए मूल स्रोत द्रष्टव्य है ।

      यह सर्वथा स्पष्ट है, अथवा ऐसा आभास होता है कि प्राणादि पांचों वायुओं का स्वतन्त्र अस्तित्व है । लेकिन अमृतनादोपनिषद ३६ के प्राणादि के वर्ण के कथन से ऐसा संकेत मिलता है कि इन वायुओं का कोई स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं है, अपितु एक के अन्दर एक समायी हुई हैं, वैसे ही जैसे शरीर के अन्नमय कोश में प्राणमय कोश समाया हुआ है, प्राणमय में मनोमय इत्यादि । कहा गया है कि प्राण वायु का वर्ण रक्तमणि के समान है जिसके अन्दर इन्द्रगोपसम अपान विद्यमान होता है । अपान के मध्य गोक्षीरधवलप्रभ समान की स्थिति होती है । उदान का वर्ण अपाण्डुर तथा व्यान का अर्चिसम होता है ।

      लक्ष्मीनारायण संहिता ३.१७४.३ में पांच वायुओं को गर्भ के विकास द्वारा समझाया गया है। कहा गया है कि गर्भ स्थापन के समय शुक्र और शोणित के मिलने पर प्राण की प्रवृत्ति होती है । अपान द्वारा शुक्र का प्रेरण और रजः का आकर्षण होता है । इन दोनों का मिलन होने पर समान इनमें बीज स्थापना का कार्य करता है । उदान मिश्रण को गर्भ की ओर ले जाता है तथा उसे नाल हेतु नाभि में ध्रुव रूप में स्थापित करता है । व्यान पाक हेतु उस गर्भ का व्यापन करता है, समान उस गर्भ को स्थिर करता है।

      शतपथ ब्राह्मण ४.२.५.३ में सामवेद के प्रतिहर्त्ता नामक ऋत्विक् को भिषक् अथवा व्यान कहा गया है । यदि व्यान भिषक् के तुल्य है तो इस तथ्य की व्याख्या शरीर के स्थूल, सूक्ष्म, कारण, आदि सात कोशों के आधार पर करना उचित होगा । श्री रजनीश के अनुसार स्थूल शरीर में गति उत्पन्न करने वाला सूक्ष्म शरीर होता है, सूक्ष्म शरीर को गति देने वाला कारण शरीर होता है इत्यादि । भय होने पर सूक्ष्म शरीर सिकुड कर स्थूल शरीर से बाहर निकल जाता है, इसलिए पैर लडखडाने लगते हैं । निचला कोश भिक्षु है, ऊपर का कोश भिषक् है । सात कोशों के बारे में बहुत कुछ कहा गया है, किन्तु व्यान के संदर्भ में वर्तमान टिप्पणी से यह संकेत मिलता है कि ऐसा संभव है कि एक कोश और दूसरे कोश के बीच में कोई अन्तराल विद्यमान हो । स्थूल शरीर में यह अन्तराल उदर के रूप में प्रकट हुआ है । यह अन्तराल पार हो तभी अभय की स्थिति आ सकती है, अन्यथा भय बना रहेगा । या तो अन्तराल को पार करना होगा, या इसके अस्तित्व को समाप्त करना होगा ।

      प्राण का गायत्री छन्द है, अपान का उष्णिक्, उदान का बृहती, व्यान का अनुष्टुप्, समान का पंक्ति । अपान के उष्णिक् छन्द से संकेत मिलता है कि हमारी देह में जहां – जहां भी ऊष्मा का जनन हो रहा है, वहां अपान वायु कार्य कर रही है। ऊष्मा के जनन द्वारा ही देह के सारे व्यापार सम्पन्न होते हैं। लेकिन योग में एक स्थिति ऐसी भी होती है जहां शीतलता उत्पन्न होती है। भागवत पुराण में कहा गया है कि शीतलता या अन्तस्थ स्थिति आत्मा का बल बनती है जबकि ऊष्माण इन्द्रिय। उदान के बृहती छन्द को इस प्रकार समझा जा सकता है कि पृथिवी पर सूर्य विषुवत् रेखा पर बृहती छन्द में गति करता है। यह स्थिति पृथिवी पर सममिति पूर्ति से सम्बन्धित हो सकती है।

      व्यान तथा समान की सब सन्धियों में स्थिति है, ऐसा कथन मिलता है। व्याख्या अपेक्षित है।