VARAAHA
There is a famous story of the incarnation of Varaaha in Shrimad Bhaagavata . It is said that once upon a time, when lord Brahma was busy in creation and expansion of this universe, Swaayambhuva Manu and Shataroopaa manifested from his body and asked lord Brahmaa a proper place to live for themselves and their progeny. At that time, earth was situated in the water of dissolution. Brahmaa thought over it and soon a pig appeared from his nose in a subtle form. Enlarging his form, this pig entered in the water of dissolution and came back, carrying the earth on his tooth. In the meantime, one demon called Hiranyaaksha came to fight with varaaha/pig. Varaaha brought the earth outside the water and fought with him. At last, Varaaha killed Hiranyaaksha.
This story is totally symbolic. It shows that a man should always try for the development of his consciousness. Developing in upward direction our impure and restless mind becomes pure and cool. As soon as the mind becomes pure, a special kind of consciousness appears which transforms our ignorance into knowledge. This knowledge destroys our one – sided view to see this universe and help in to see this universe as a whole.
Here the developing consciousness is Brahmaa. Special consciousness transforming our ignorance into knowledge is Varaaha. Our mind and intellect is earth. Drowning of mind and intellect into ignorance shows drowning of earth in water. Our one – sided materialistic view towards the universe is Hiranyaaksha.
The story indicates that the process of the development of human consciousness is totally scientific. The first necessity for a human being is to acquire pure and tranquil mind. Then the higher consciousness descends in him automatically.
वराह अवतार कथा का रहस्यार्थ
- राधा गुप्ता
श्रीमद्भागवत महापुराण के तृतीय स्कन्ध के १३वें अध्याय में वराह अवतार की कथा वर्णित है । कथा में कहा गया है कि ब्रह्मा जी जब सृष्टि की रचना एवं विस्तार कर रहे थे, तब एक बार उनके शरीर के दो भाग हो गए । एक भाग से स्वायम्भुव मनु तथा दूसरे भाग से शतरूपा प्रकट हुए । स्वायम्भुव मनु ने अपनी भार्या शतरूपा के साथ पिता ब्रह्मा जी को प्रणाम किया और कहा कि आप हमें ऐसा कार्य करने की आज्ञा दीजिए जिससे आपकी सेवा हो जाए और हमारी सर्वत्र कीर्ति हो । ब्रह्मा जी ने कहा कि तुम दोनों अपने ही समान गुणवती सन्तान उत्पन्न करके धर्मपूर्वक पृथ्वी का पालन करो और यज्ञों द्वारा श्रीहरि की आराधना करो । मनु ने ब्रह्मा जी की आज्ञा को शिरोधार्य किया और कहा कि आप हमारे और हमारी भावी प्रजा के रहने के लिए स्थान बताइये क्योंकि सब जीवों का निवास स्थान पृथ्वी इस समय प्रलय के जल में डूबी हुई है । मनु की बात सुनकर ब्रह्मा जी पृथ्वी के उद्धार के लिए, जो प्रलय के जल में डूब गई थी तथा ब्रह्मा जी के लोक - रचना में व्यस्त रहने से रसातल को चली गई थी - विचार करने लगे । तभी उनके नासाछिद्र से एक छोटा सा वराह - शिशु निकला और वह क्षण भर में ही हाथी के बराबर विशाल आकार का हो गया । वराह अथवा सूकर रूप धारी श्रीहरि ने उस समय अपनी गर्जना से ब्रह्मा, ब्रह्मा के पुत्रों, श्रेष्ठ ब्राह्मणों तथा जन, तप, सत्य लोक के निवासी मुनियों को हर्ष से भर दिया और देवताओं का हित करने के लिए वे लीलापूर्वक जल में घुस गए । रसातल में पहुंचकर उन्होंने समस्त जीवों की आश्रयभूता पृथिवी को देखा, जिसे कल्प के अन्त में शयन करने के लिए उद्धत हुए श्रीहरि ने अपने ही उदर में लीन कर लिया था । यज्ञमूर्ति तथा सूकर रूप धारी श्रीहरि जल में डूबी हुई पृथ्वी को अपनी दाढों पर लेकर रसातल से ऊपर आए । जल से बाहर आते समय उनके मार्ग में विघ्न डालने के लिए महापराक्रमी हिरण्याक्ष ने जल के भीतर ही उन पर गदा से आक्रमण किया । इससे उनका क्रोध तीक्ष्ण हो गया और उन्होंने लीला से ही उसे मार डाला ।
प्रस्तुत कथा पूरी तरह से प्रतीकात्मक है और एक ही कथा के अन्दर चार कथाएं एक के बाद एक परस्पर गुंथी हुई हैं । ये चार कथाएं हैं - १- स्वायम्भुव मनु एवं शतरूपा की उत्पत्ति, २- पृथ्वी का प्रलय जल में डूबना, ३- वराह की उत्पत्ति एवं पृथ्वी का उद्धार तथा ४- वराह द्वारा हिरण्याक्ष का वध ।
अब हम सम्पूर्ण कथा को उसके प्रतीकों के आधार पर समझने का प्रयास करें -
स्वायम्भुव मनु एवं शतरूपा
मनु शब्द मन से बना है । प्रत्येक मनुष्य के पास जो मन नामक तत्त्व है, वह मन जब निम्नतर स्तर पर विद्यमान अन्नमय कोश (पञ्चभूतों से निर्मित स्थूल शरीर तथा उसके भोग) से जुडता है, तब मनुस् कहलाता है( इसी मनुस् से मनुष्य शब्द बना है ) परन्तु वही मन जब उच्चतर स्तर पर विद्यमान विज्ञानमय कोश से जुडता है, तब मनु कहलाता है । विज्ञानमय कोश शुद्धता का, पवित्रता का, स्थिरता का कोश है, अतः इससे जुडने पर मन भी शुद्ध, पवित्र और स्थिर हो जाता है । सामान्य व्यवहार की भाषा में ऐसे मन को उच्च मन अथवा शुद्ध मन कहा जा सकता है ।
स्वयंभू का अर्थ है - स्वयं उत्पन्न होने वाला । स्वयंभू ब्रह्मा का ही एक नाम है, अतः स्वयंभू से उत्पन्न होने के कारण इस मनु अर्थात् उच्च मन का नाम हुआ स्वायम्भुव, ठीक उसी प्रकार जैसे सुमित्रा का पुत्र सौमित्र अथवा जमदग्नि का पुत्र जामदग्नेय कहलाता है ।
इस मनु अर्थात् उच्च मन की शक्ति को ही यहां शतरूपा कहा गया है । शतरूपा (शत + रूपा ) का अर्थ है - सौ रूप धारण करने वाली । पौराणिक साहित्य में शत शब्द सौ के साथ - साथ सहस्र के अर्थ में भी प्रयुक्त होता है । अतः मनु रूपी उच्च मन जिस शतरूपा शक्ति से संयुक्त होता है, वह सहस्रों क्षमताओं वाली होने के कारण ही शतरूपा कही गई है । मनु तथा शतरूपा रूपी इस उच्च मनश्चेतना से अनेक गुणों का प्रादुर्भाव होता है । उन गुणों को ही कथा में मनु की 'प्रजा' कहा गया है । श्रीमद्भागवत के चतुर्थ तथा पंचम स्कन्धों में इस प्रजा का विस्तार से वर्णन हुआ है ।
यहां अत्यन्त संक्षिप्त रूप में इतना ही कहना पर्याप्त होगा कि स्वायम्भुव मनु एवं शतरूपा का पहला गुण(पुत्र) है - विकास(सतत् ऊर्ध्व विकास ) प्रवृत्ति, जिसे कहानी में 'उत्तानपाद' कहा गया है तथा दूसरा गुण(पुत्र) है - विस्तार (समग्र हित हेतु चेतना का फैलाव ) प्रवृत्ति, जिसे कहानी में 'प्रियव्रत' नाम दिया गया है । विकास तथा विस्तार रूपी इन दो प्रवृत्तियों अथवा गुणों के माध्यम से व्यक्तित्व में नाना प्रकार के श्रेष्ठ गुण प्रादुर्भूत होते हैं । इन दो प्रवृत्तियों के अतिरिक्त स्वायम्भुव मनु एवं शतरूपा अर्थात् मनुष्य की उच्च मनश्चेतना तीन विशिष्ट शक्तियों से भी संयुक्त होती है । ये विशिष्ट शक्तियां हैं - १ - देवहूति अर्थात् ज्ञानशक्ति, २- आकूति अर्थात् इच्छा या भाव शक्ति तथा ३ - प्रसूति अर्थात् क्रियाशक्ति । ये शक्तियां विशिष्ट तत्त्वों अथवा चेतना - धाराओं से जुडकर प्रभूत गुण रूपी प्रजा को उद्भूत करने वाली हो जाती हैं । किसी विशिष्ट शक्ति के किसी विशिष्ट गुण के साथ जुडने अथवा संयुक्त होने को ही पौराणिक साहित्य में 'मिथुन' कहा गया है और इस मिथुन से जो तीसरा गुण उत्पन्न होता है, वही 'मैथुनी सृष्टि' है ।
उच्च मनश्चेतना से उत्पन्न हुए गुणों के माध्यम से मनुष्य स्वयं का जीवन भी धर्मपूर्वक व्यतीत करता है तथा जगत् हित में भी संलग्न होता है । इसे ही कथा में धर्मपूर्वक पृथ्वी का पालन तथा यज्ञों द्वारा श्रीहरि की आराधना कहकर इंगित किया गया है ।
उपर्युक्त वर्णित प्रवृत्तियों, शक्तियों अथवा गुणों का क्रियान्वयन चूंकि उच्च स्तर के मन, बुद्धि, प्राण तथा इन्द्रियात्मक शरीर के माध्यम से ही संभव है, इसीलिए कथा में स्वायम्भुव मनु ने ब्रह्मा जी से अपने तथा अपनी भावी प्रजा के रहने के लिए उपयुक्त स्थान प्रदान करने की प्रार्थना की अर्थात् व्यक्तित्व में गुणों की स्थापना के लिए मन - बुद्धि आदि का जडता से मुक्त होना आवश्यक है । ठीक उसी प्रकार जैसे किसी वस्तु को रखने के लिए तदनुरूप पात्र की आवश्यकता होती ही है ।
पृथ्वी का प्रलय जल में डूबना
कथा में कहा गया है कि जब ब्रह्मा जी के शरीर से स्वायम्भुव मनु एवं शतरूपा उत्पन्न हुए, तब पृथ्वी प्रलय के जल में डूबी हुई थी । इस कथन को अन्य दो प्रकारों से भी कहा गया है । एक स्थान पर कहा है कि कल्प के अन्त में शयन के लिए उद्धत होने पर श्रीहरि ने पृथ्वी को अपने उदर में लीन कर लिया तथा एक अन्य स्थान पर कहा गया है कि ब्रह्मा जी जब लोकरचना में लगे हुए थे, तब पृथ्वी रसातल को चली गई । उपर्युक्त कथनों के इन तीनों ही प्रकारों में पृथ्वी की लीनता अथवा अध:पतन को इंगित किया गया है ।
आध्यात्मिक स्तर पर पृथ्वी का अर्थ है - मन, बुद्धि तथा इन्द्रियों से युक्त हमारा यह सूक्ष्म - स्थूल शरीर । 'प्रलय' शब्द शरीर की दिव्यता की लयावस्था को इंगित करता है तथा 'जल में डूबना' जडता अथवा अज्ञता में स्थिति का सूचक है । अतः मन, बुद्धि तथा इन्द्रियों से युक्त इस शरीर की दिव्यता के लुप्त हो जाने और अदिव्यता अर्थात् जडता, मूढता, अज्ञता में स्थित हो जाने को ही प्रतीकात्मक भाषा में पृथ्वी का प्रलय जल में डूबना कहा गया है । इसी प्रकार से कल्प के अन्त में श्रीहरि का शयन करना हमारे ही भीतर विद्यमान चैतन्य ( सत् चित् आनन्दस्वरूप ) की सुप्तावस्था (अजाग्रत अवस्था ) को इंगित करता है । मनुष्य का चैतन्य जब सोया रहता है, तब ही उसकी मन - बुद्धि रूपी पृथ्वी की दिव्यता का लोप होता है और वह जडता अर्थात् अज्ञता के उदर में लीन हो जाती है । इसी प्रकार प्रकारान्तर से दिव्यता का लोप होकर अदिव्यता अर्थात् पाप में स्थिति होना ही मन - बुद्धि रूपी पृथ्वी का रसातल में पहुंचना है । रसातल का वर्णन करते हुए श्रीमद्भागवत (स्कन्ध ५, अध्याय २४, श्लोक ३०) में ही कहा गया है कि रसातल में पणि नामक दैत्य निवास करते हैं जो निवातकवच, कालेय और हिरण्यपुरवासी भी कहलाते हैं । इनका देवताओं से विरोध है तथा ये महान् बलवान् होते हैं । श्रीहरि के तेज से इनका बलाभिमान चूर्ण हो जाता है , इसलिए ये सर्पों के समान लुक - छिपकर रहते हैं । 'पणि' का अर्थ है - पापयुक्त । अतः रसातल के उपर्युक्त वर्णन के माध्यम से भी यहां मन - बुद्धि रूपी पृथ्वी की पापयुक्तता अर्थात् अपवित्रता को ही इंगित किया गया है । मन - बुद्धि आदि से युक्त शरीर का अपवित्र अथवा पापयुक्त होना उसका रसातल में स्थित होना है ।
वराह की उत्पत्ति एवं पृथ्वी का उद्धार
अपवित्र शरीर अर्थात् पापयुक्त अशुद्ध मन - बुद्धि उच्च गुणों का संधारण करने में समर्थ नहीं हो सकते । अतः व्यक्तित्व में श्रेष्ठ गुणों की स्थापना करने के लिए मन - बुद्धि रूपी पृथ्वी का अज्ञान रूपी जल से अथवा अशुद्धता - अपवित्रता रूपी रसातल से बाहर आना आवश्यक है । कथा में कहा गया है कि जब इस पृथ्वी के उद्धार के लिए ब्रह्मा जी विचार करने लगे, तब अकस्मात् उनके नासाछिद्र से वराह भगवान् प्रकट हुए । यहां हमें पहले वराह भगवान् को प्रकट करने वाले ब्रह्मा जी को आध्यात्मिक धरातल पर समझना होगा –
ब्रह्मा
ब्रह्मा शब्द 'बढना' अर्थ वाली 'बृंह~' धातु में मनिन् प्रत्यय लगने से बना है । अतः ब्रह्मा का अर्थ है - बृंहणशील अर्थात् बढने के धर्म वाला गतिशील चैतन्य । गतिहीन परमतत्त्व(परमात्मा ) ही जब बृंहणशील होता है, तब ब्रह्मा कहलाता है । इस बृंहणशील चैतन्य को श्रीमद्भागवत पुराण में ही वर्णित 'ब्रह्मा द्वारा सृष्टि का विस्तार(स्कन्ध तृतीय, अध्याय १२) नामक वर्णन के आधार पर किंचित् समझने का प्रयास किया जा सकता है । यहां कहा गया है कि ब्रह्मा जी ने सबसे पहले अज्ञान की पांच वृत्तियों को रचा परन्तु उस पापमयी सृष्टि से वे प्रसन्न नहीं हुए । फिर उन्होंने सनकादि मुनियों को उत्पन्न किया परन्तु निवृत्तिपरायण होने के कारण उन मुनियों ने भी सृष्टि विस्तार करना नहीं चाहा । पुनः उन्होंने ११ रुद्रों की रचना की परन्तु वे भी उत्तम सृष्टि करने वाले न थे । इसके पश्चात् ब्रह्मा जी ने दस प्रजापतियों को बनाया परन्तु वे भी प्रजा की कुछ विशेष वृद्धि नहीं कर सके । इसके पश्चात् ब्रह्मा जी ने देवताओं को बनाया तथा काम की भी सृष्टि की परन्तु उससे भी वे सन्तुष्ट नहीं हुए । अन्त में जब ब्रह्मा जी उत्तम सृष्टि हेतु विचारमग्न हुए। तब उनके मुखों से वेद प्रकट हुए और उन्होंने स्वयं को कृतकृत्य सा अनुभव किया । तभी स्वायम्भुव मनु एवं शतरूपा की उत्पत्ति हुई, जो ब्रह्मा जी की इच्छानुसार उत्तम प्रजा की वृद्धि करने वाले थे ।
इस वर्णन के आधार पर ऐसा प्रतीत होता है कि २५ तत्त्वों से बने हुए इस मनुष्य शरीर में जो शुद्ध चैतन्य ( आत्म तत्त्व) विद्यमान है, वही जब बृंहणशील होता है, तब ब्रह्मा कहलाता है । इस बृंहणशील चैतन्य की सबसे पहली सृष्टि अज्ञान की ही होती है । परन्तु धीरे - धीरे नाना रूपों में बृंहण करता हुआ यह चैतन्य एक दिन उच्च मन के रूप में प्रकट हो जाता है । अर्थात् प्रत्येक मनुष्य के भीतर जो चैतन्य का सतत् विकास हो रहा है, उसका प्रारम्भिक स्तर तो अज्ञान अथवा अशुद्धता का ही होता है, परन्तु शनैः शनैः विकसित होता हुआ वह चैतन्य उच्च स्तर पर अर्थात् मन की शुद्धता के स्तर पर पहुंच जाता है । इस उच्च स्तर पर पहुंचने को ही कथा में यह कहकर इंगित किया गया है कि ब्रह्मा के शरीर से स्वायम्भुव मनु एवं शतरूपा प्रकट हुए । उच्च स्तर पर पहुंचे हुए इस बृंहणशील चैतन्य अर्थात् ब्रह्मा में इसी क्षण एक विशिष्ट सामर्थ्य भी जाग्रत हो जाती है, जो मनुष्य की शरीर रूपी पृथ्वी की अदिव्यता को दिव्यता में रूपान्तरित कर देती है ।
इसी विशिष्ट चैतन्य सामर्थ्य को कथा में वराह भगवान् का अवतरण कहकर संकेतित किया गया है । चूंकि यह विशिष्ट चैतन्य - सामर्थ्य पृथ्वी के उद्धार हेतु अवतरित होती है, संभवतः इसी लिए कथा में इसे नासाछिद्र से प्रकट किया गया है । पृथ्वी का गुण है गन्ध, अतः पृथ्वी के अन्वेषण हेतु तत्सम्बन्धी इन्द्रिय नासिका को उससे सम्बद्ध कर दिया गया है । मनुष्य की मन - बुद्धि रूपी पृथ्वी को दिव्यता में रूपान्तरित करने वाली इस विशिष्ट चैतन्य - सामर्थ्य को वराह नाम देना भी उद्देश्यपूर्ण है । वराह शब्द की निरुक्ति दो प्रकार से की जा सकती है । पहली निरुक्ति के अनुसार 'वराह' वर शब्द में हन् धातु के योग से बना है । वर शब्द का अर्थ है - श्रेष्ठ अथवा अभीष्ट और हन् का अर्थ है - वध करना । अतः वराह का अर्थ हुआ - वराय श्रेष्ठाय अभीष्टाय वा हन्ति अर्थात् श्रेष्ठ के लिए अश्रेष्ठ का वध करने वाला अथवा अभीष्ट के लिए अन् - अभीष्ट का वध करने वाला । वराह की दूसरी निरुक्ति वृ शब्द में हन् धातु लगाकर की जा सकती है । वृ से वर बन जाता है और वृ का अर्थ है - आवरण या आच्छादन । अतः वराह का अर्थ हुआ - मन - बुद्धि रूपी पृथ्वी पर पडे हुए अज्ञानता के आवरण को नष्ट करने वाला । दोनों ही निरुक्तियों के आधार पर यह स्पष्ट होता है कि वराह भगवान् से तात्पर्य उस विशिष्ट चैतन्य से है जो मनुष्य की मन - बुद्धि रूपी पृथ्वी को अज्ञानता रूपी प्रलय - जल में से निकालकर उसे ज्ञान की भूमि पर स्थापित करता है । कथा में वराह को सूकर भी कहा गया है । सूकर ( सु + कर) का अर्थ है - सु अर्थात् श्रेष्ठ को करने वाला । जो चैतन्य मन - बुद्धि रूपी पृथ्वी को अज्ञानता से निकालकर ज्ञान में स्थापित कर दे, उसका सूकर नाम सार्थक ही है ।
वराह द्वारा हिरण्याक्ष का वध
कथा में कहा गया है कि वराह भगवान् जब रसातल से पृथ्वी को लेकर बाहर आ रहे थे, तब हिरण्याक्ष नामक महाबलवान् दैत्य जल में ही उनसे लडने के लिए आया । भगवान् ने पृथ्वी को जल से बाहर रखकर युद्ध के लिए लालायित हिरण्याक्ष से युद्ध किया तथा उसे मार डाला ।
श्रीमद्भागवत के तृतीय स्कन्ध में अध्याय १७, १८ एवं १९ में हिरण्याक्ष की उत्पत्ति तथा कार्य का विस्तार से वर्णन हुआ है । यह दिति का पुत्र है, इसलिए दैत्य कहलाता है । अतः हिरण्याक्ष को सम्यक् रूपेण समझने के लिए दिति को समझना उपयोगी होगा । जिस अस्तित्व को हम ब्रह्माण्ड(जगत्) तथा पिण्ड(शरीर) के रूप में देख रहे हैं - वह दो तत्त्वों के मेल से बना है । एक है पुरुष तथा दूसरा है - प्रकृति । पुरुष चेतन है किन्तु प्रकृति जड । पुरुष अव्यक्त है किन्तु प्रकृति व्यक्त । पुरुष केन्द्र है किन्तु प्रकृति परिधि । प्रकृति की सहायता लेकर पुरुष ब्रह्माण्ड तथा पिण्ड के रूप में अभिव्यक्त हो रहा है । अर्थात् ब्रह्माण्ड तथा पिण्ड की इस अभिव्यक्ति में पुरुष तथा प्रकृति समान रूप से सहभागी हैं । परन्तु मनुष्य की चेतना अज्ञान के कारण जब इस ब्रह्माण्ड तथा पिण्ड के बाह्य दृश्यमान स्वरूप को ही सब कुछ मानकर उसके प्रति आसक्त हो जाती है और उस बाह्य दृश्यमान स्वरूप के केन्द्र में स्थित परम चैतन्य तत्त्व को नहीं देख पाती, तब खण्डित कही जाती है । यह खण्डित चेतना ही दिति है । इस खण्डित चेतना (दिति) का गुण(पुत्र) है - खण्डित दृष्टि जिसे कथा में हिरण्याक्ष नाम दिया गया है । हिरण्याक्ष शब्द हिरण्य तथा अक्ष नामक दो शब्दों के मेल से बना है । हिरण्य का अर्थ है - स्वर्ण तथा अक्ष का अर्थ है - आंख । अतः हिरण्याक्ष का अर्थ हुआ - स्वर्ण पर लगी हुई आंख या दृष्टि । ब्रह्माण्ड(जगत्) तथा पिण्ड(शरीर) का जो बाह्य स्वरूप दिखाई देता है, वह स्वर्ण के समान अपनी चमक से मन को आकर्षित करता है तथा उसके भोगों के प्रति मन को लोभयुक्त बनाता है , अतः इस बाह्य स्वरूप पर केन्द्रित दृष्टि ही एकांगी दृष्टि है । यह एकांगी अथवा हिरण्याक्ष दृष्टि चूंकि सर्वत्र समान रूप से व्याप्त परम चेतन तत्त्व को नहीं देख पाती और बाहर की विविधता, अनेकता पर केन्द्रित रहती है, इसलिए अहंकार से युक्त हो जाती है । वराह चैतन्य द्वारा मन - बुद्धि रूपी पृथ्वी के ज्ञानयुक्त होने पर ही इस हिरण्याक्ष दृष्टि का नाश हो पाता है ।