In Sanskrit, Vahni means carrier. A chariot is drawn by some carrier. Our mind chariot is drawn by our experiences/impressions, good or bad. If impressions are bad, they will lead the mind in wrong direction. In this case, the impressions can be called the Vahnis/carriers. Vedic literature tells the way how individual experiences can be integrated into one entity which can guide us. According to this description, experience can be of three types - knowledge, action and feeling. If one has one type of experience, he has to supplement it by the other two. Then only it can become a true guide, a carrier. In nature, man has been stated to be active with his knowledge and action, while woman is active by her feeling/love. When both combine, then only a true guide can take place.
Our body chariot has been said to be drawn by two breath oxen named praana and appaana. In rigvedic mantras, this carrier has been named as a form of fire. This carrier fire can be of two types - simple fire which carries forward our mortal body and immortal fire which becomes the mouth for gods, which carries oblations to gods. The first type may have the property of burning, just as our hunger, while the second one is cooling. Both types of carriers/vahnis attain their extreme states when they get the assistance of tongue in the mouth. Our sexual organ has also been called a form of tongue which becomes sensitive for a lower type of fire. If one tries, this lower type of carrier/vahni can be converted into an evolved type of vahni. Then the sensation at sexual organ will also disappear. In the same way, the sensation on our tongue in the mouth exists until the tongue has not sensed the taste of that elixir which trickles from our head into mouth. These facts seem to be the basis of a story of puraanas where fire curses frog, elephant and parrot and make their tongues inactive.
वह्नि
टिप्पणी :
वह्नि का सामान्य अर्थ होता है वहन करने वाला, वाहक, रथ का बैल या अश्व आदि । होता यह है कि जैसे हमारे संस्कार होते हैं, उन्हीं के अनुसार मन विषयों की ओर दौडने लगता है । अतः इस संदर्भ में हमारे संस्कार वह्नियां कहलाएंगे । जैसा कि हम परिचित ही हैं, विषयभोग एक मृगमरीचिका मात्र ही सिद्ध होते हैं । अतः प्रश्न उठता है कि यदि संस्कार अशुद्ध हैं तो उन्हें कैसे शुद्ध किया जा सकता है जिससे वह सही मार्गदर्शन कर सकें । वैदिक व पौराणिक साहित्य से संकेत मिलते हैं कि संस्कारों को, अनुभवों को बृहत्तर रूप दिया जा सकता है जिससे वह सही मार्गदर्शन दे सकें । इसके लिए आवश्यक है कि ज्ञान, कर्म और भावना यह तीनों मिल कर काम करे । पुरुष का मस्तिष्क ज्ञान व कर्म प्रधान होता है, जबकि स्त्री का भावना प्रधान । अतः स्त्री - पुरुष के संयोग से यह कहा जा सकता है कि सही मार्गदर्शन को निर्धारित किया जा सकता है । यह उल्लेखनीय है कि सायणाचार्य द्वारा ऋग्वेद ३.३१.२ की व्याख्या के संदर्भ में पुरुष को वह्नि तथा स्त्री को अवह्नि कहा है । लेकिन यह कथन तैत्तिरीय संहिता ३.४.७.२ के इस कथन के विपरीत है कि मन गन्धर्व है और ऋक् - साम रूपी अप्सराएं उसकी वह्नियां हैं ।
वैदिक साहित्य में उपरोक्त कथनों का स्वरूप निम्नलिखित है -
शतपथ ब्राह्मण १.२.३.१ में आख्यान है कि अग्नि देवों से अदृश्य हो गई । देवों ने उसे ढूंढ निकाला । तब उसने जल में थूका जिससे एकत, द्वित और त्रित नामक तीन अग्नियां उत्पन्न हुई । अग्नि ने देवों से वरदान मांगा कि मैं तुम्हारे लिए हव्य का वहन तब करूंगी जब मेरे इन तीन भ्राताओं को भी यज्ञ में भाग प्राप्त हो । देवों ने कहा कि जो हवि बाहर गिरेगी, स्कन्दन करेगी, वह इन तीनों को प्राप्त होगी । इस प्रकार देवों को हव्य वहन करने वाली अग्नि तुरीय है, चतुर्थ है, अथवा कहा जा सकता है कि एकत, द्वित और त्रित का सम्मिलित रूप है । डा. फतहसिंह एकत, द्वित और त्रित की व्याख्या अन्नमय, प्राणमय और मनोमय कोशों के परस्पर मिलन के आधार पर करते हैं । ऋग्वेद १.२०.८ में ऋभुओं की संज्ञा के रूप में वह्नयः शब्द प्रकट हुआ है जिन्होंने सुकृत के आधार पर देवों के मध्य यज्ञीय भाग प्राप्त किया । डा. फतहसिंह तीन ऋभुओं ऋभु, विभु व वाज की व्याख्या ज्ञान, भावना व कर्म के रूप में करते हैं । अतः देवों को हव्य वहन करने वाली अग्नि इन तीनों का तुरीय रूप हो सकती है । जब तक यह तीन अलग - अलग रहेंगे, तब तक वह्नि रूप रहेंगे, हव्यवाह नहीं ।
वैदिक निघण्टु में वह्नि शब्द का वर्गीकरण अश्व नामानि में किया गया है । अश्व वाले अर्थ की व्याख्या के लिए पौराणिक आख्यान भी रचे गए हैं । एक आख्यान विश्वामित्र ऋषि का है( स्कन्द पुराण ६.९०) । अकाल पडने पर जब विश्वामित्र को भोजन के लिए कुछ भी न मिला तो वह एक चाण्डाल के गृह से अस्थि मात्र एक शुनः को उठा लाए और उसे पकाने का प्रयत्न किया । इस पर अग्नि/वह्नि रुष्ट होकर अदृश्य हो गई और देवों द्वारा अकाल को समाप्त करने पर ही पुनः प्रकट हुई । इस आख्यान में शुनः का अर्थ श्वा, श्व:, भविष्य का कल लिया जा सकता है । जहां श्व: विद्यमान है, वहां अ-श्व: विद्यमान नहीं रह सकता । इस संदर्भ में लक्ष्मीनारायण संहिता २.११७.११ में वह्नि की यह निरुक्ति सार्थक है कि वं - वैराज, हं - हनु , अर्थात् वैराज अवस्था का हनन करने वाली स्थिति को वह्नि कहते हैं ।
शुक्ल यजुर्वेद संहिता ५.३८, तैत्तिरीय संहिता १.३.३.१ आदि में धिष्ण्य अग्नियों के संदर्भ में एक वचन आया है -
'वह्निरसि हव्यवाहनः'
यह वचन होता नामक ऋत्विज की अग्नि के लिए है । इसका अर्थ यह है कि वह अग्नि जो भूमि पर, मर्त्य स्तर पर वह्नि है, वह द्युलोक में, देवों के स्तर पर, अमर्त्य स्तर पर देवों को हवि पहुंचाने वाली हव्यवाहन अग्नि बन जाती है । इसका तात्पर्य यह है कि जहां - जहां भी वह्नि विद्यमान है, उसे हव्यवाहन अग्नि बनाना है । यह कहा जा सकता है कि हमारी सारी देह का ही अग्नि वहन कर रही है, कण - कण में वह्नि रूपी अग्नि विद्यमान है । योगवासिष्ठ ३.७९.९५ व ३.८०.२६ में इस पहेली की व्यावहारिक व्याख्या की गई है । कहा गया है कि जो वह्नि दाहक है, वह मर्त्य स्तर की वह्नि है । जो वह्नि अग्नि होते हुए भी अदाहक गुण धारण कर लेती है, वह हव्यवाहन अग्नि है । यह तब होता है जब वह्नि व्यापकता का गुण धारण कर लेती है । इस तथ्य को इस प्रकार समझ सकते हैं कि भूख के आरम्भ में जठराग्नि हमें कष्ट पहुंचाती है । लेकिन जो लोग दीर्घकालीन अनशन करते हैं, उनका कहना है कि दो - चार दिन के पश्चात् यह कष्ट समाप्त हो जाता है । तब यह जठराग्नि सारे शरीर में व्याप्त हो जाती है और सारे शरीर के मांस को खाने लगती है । यह तथ्य स्कन्द पुराण ६.९० तथा महाभारत अनुशासन पर्व ८५ के आख्यान को समझने में सहायक हो सकता है । इस आख्यान के अनुसार देवों को हवि का वहन करने वाली वह्नि देवों से अदृश्य हो गई और जल में छिप गई । वहां वह अपनी दाहकता से मण्डूकों को जलाने लगी । मण्डूकों/भेकों ने वह्नि की उपस्थिति की सूचना देवों को दे दी । इस पर वह्नि ने भेकों को शाप दिया कि तुम्हारी जिह्वा रस का आस्वादन करने में असमर्थ हो जाए(अथवा तुम जिह्वारहित हो जाओ) । तब देवों ने भेकों को उत्शाप दिया कि रस का आस्वादन न करते हुए भी निष्प्राण - प्राय भेक जल प्राप्त होने पर पुनः जीवित हो जाएंगे । फिर वह्नि वंश स्तम्ब/अश्वत्थ में छिप गई । वहां हस्ती ने उसकी उपस्थिति की सूचना देवों को दे दी । तब वह्नि ने हस्ती की जिह्वा आवर्त/विपरीत होने का शाप दिया । देवों ने उसे उत्शाप दिया । फिर वह्नि शमी - अश्वत्थ सन्धि/शमी गर्भ में छिप गई । वहां शुक ने उसकी सूचना देवों को दे दी । तब वह्नि ने उसकी जिह्वा/वाक् विस्पष्ट न होने का शाप दिया । देवों ने उत्शाप रूप में कहा कि वाक् विस्पष्ट न होते हुए भी उसकी वाक् बालवत् प्रिय होगी ।
इस आख्यान में सबसे पहले वह्नि के जल में छिपने का कथन है (संदर्भ भेद से, जल में वह्नि सबसे अन्त में छिपती है ) ।। हमारी देह में स्वाधिष्ठान चक्र को जल का अधिष्ठान कहा जाता है । इस चक्र का मुख या जिह्वा हमारा शिश्न है । श्रीधीश गीता आदि ग्रन्थों के अनुसार शिश्न मुख की जिह्वा का विकृत रूप है । शिश्न पर जो सुख की अनुभूति होती है, वह शरीर की अग्नि की कोई विकृति है, अग्नि का तमस् रूप है (ऋग्वेद ३.५.१) । इसका वास्तविक स्थान मुख में जिह्वा की संवेदनशीलता है । प्रयत्न करने पर इस विकृति को दूर किया जा सकता है । तब यह अग्नि उषा का रूप बन जाती है, प्राणों को जगाने वाली बन जाती है ( ऋग्वेद १.४८.११, १.११३.१७, ५.७९.४, ७.७५.५, । जब पौराणिक आख्यान में मण्डूकों की जिह्वा के रसास्वादन से विहीन होने का उल्लेख आता है तो इसका अर्थ यही लिया जा सकता है कि यदि हम मण्डूक बन कर दाहक वह्नि को पहचान लें तो हमारे शिश्न की रसग्राहिता समाप्त हो जाएगी । डा. फतहसिंह के अनुसार मण्डूक प्राण हैं जो दिव्य रस की अभीप्सा करते रहते हैं ।
पौराणिक आख्यान में दूसरे स्थान पर हस्ती वंश स्तम्ब/अश्वत्थ में वह्नि की सूचना देवों को देता है और वह्नि शाप रूप में हस्ती की जिह्वा को प्रतीप/आवर्त बना देती है । लोक में हस्ती भोज्य वस्तु को अपनी सूंड को मोडकर अपने मुख में रखता है । यह जिह्वा का आवर्त होना हो सकता है । योग में जिह्वा को उल्टी घुमा कर उसे कपाल कुहर में ले जाया जाता है जहां उसे सहस्रार से क्षरने वाले रसों का आस्वादन करने का अवसर मिलता है ।
शुक द्वारा शमीगर्भ में छिपी वह्नि की सूचना देने और उसकी वाक् के विस्पष्ट न होने के संदर्भ में, शुक को शकुन रूप में लिया जा सकता है । शकुन अस्पष्ट ही होते हैं । यह वह्नि की व्यापक स्थिति है जो अश्व स्थिति के अधिक निकट है ।
ऋग्वेद की कुछ ऋचाओं में वह्नि के साथ आसा/आस्य शब्द प्रकट हुआ है ( १.७६.४, १.१२९.५, ६.११.२, ६.१६.९, ७.१६.९, १०.११५.३) । ऋग्वेद ७. १६.९ का कथन है -
स मन्द्रया च जिह्वया वह्निरासा विदुष्टर: ।
यह कहा जा सकता है कि जिह्वा में जो रसास्वादन की शक्ति विद्यमान है, वह सारे शरीर में विद्यमान वह्नि की ही सूचक है । जिह्वा पर जो रसों की अनुभूति होती है, वह तो वास्तव में विद्युत की वह अनुभूति है जो शरीर के विभिन्न अंगों में पहुंचकर वहां विभिन्न कोशों को उद्दीपित करती है । ऋचा का कहना है कि यदि वह्नि को मुख की जिह्वा रूप साधन मिल जाए तो वह विदुष्टर, अधिक जानने वाली , ज्ञान प्राप्त करने वाली बन जाती है । ऋग्वेद ३.६.२ में ७ जिह्वाओं वाली वह्नियों का उल्लेख है ।
भागवत पुराण के पांचवें स्कन्ध में प्रकट जम्बू द्वीप की व्याख्या जम्बू शब्द की टिप्पणी में इस आधार पर की गई है कि जमु - यम के दो आधार हैं - घोर और अघोर । यही तथ्य वह्नि पर भी लागू होता है जिसके दो रूप हैं - दाहक और अदाहक । शतपथ ब्राह्मण १.४.२.२ तथा १.५.१.८ में देवों के लिए हव्य का भरण करने वाली अग्नि को भरत नाम दिया गया है । यह परीक्षणीय है कि शतपथ ब्राह्मण का यह कथन पुराणों के भरत की व्याख्या किस प्रकार करता है ।
ऋग्वेद ९.२१.५-६, ९.३६.२, ९.८९.१, ९.९१.१, ९.९६.१७, आदि में दशापवित्र द्वारा शुद्ध किए जाने वाले सोम को वह्नि संज्ञा दी गई है । ऋग्वेद ६.५७.३ में पूषा की वह्नियों के रूप में अजा तथा इन्द्र की वह्नियों के रूप में हरि - द्वय का उल्लेख है । यहां भी वह्नि के अग्न्यात्मक व सोमात्मक होने का संकेत मिलता है । अजा ताप की स्थिति है ।
ऋग्वेद की ऋचाओं में वह्नि शब्द के क्या - क्या अर्थ हो सकते हैं, यह पं. चन्द्रशेखर उपाध्याय व श्री अनिल कुमार उपाध्याय द्वारा रचित पुस्तक वैदिक कोश( नाग प्रकाशक, १९९५) में दिया है । इस विवरण के अनुसार वह्नि का अर्थ जगत् को धारण करने वाला( ऋग्वेद २.२१.२), कुल को बढाने वाली सन्तति - पुत्र या पुत्री ( ऋग्वेद ३.३१.२), अश्व( ऋग्वेद २.३७.३), बैल( ऋग्वेद १०.१०१.१०), अपुत्र पिता जो कन्या को अन्य कुल में भेजता है( ऋग्वेद ३.३१.१), देवों के पास हवि पहुंचाने वाला अग्नि आदि हैं ।