वायु
वायु का वैदिक स्वरूप
शतपथ ब्राह्मण ४.१.३.१, तैत्तिरीय संहिता ६.४.७.१ आदि में ऐन्द्रवायव ग्रह के संदर्भ में उल्लेख आता है कि इन्द्र ने वृत्र/सोम को मार तो दिया लेकिन उसे विश्वास नहीं हुआ कि वृत्र मरा है या नहीं । उसने वायु से कहा कि वह देख कर आए कि वृत्र मरा या नहीं । वायु देवता गया और आकर सूचना दी कि वृत्र मर गया है । तब वायु ने यज्ञ में अपना भाग प्राप्त किया इत्यादि । यहां यह संकेत महत्त्वपूर्ण है कि वृत्र के मरण की परख वायु ही कर सकता है । वृत्र का अर्थ होता है - वृणोति - जो आच्छादन करता है । पृथ्वी की गुरुत्वाकर्षण शक्ति हमारा आच्छादन करती है, अतः वह वृत्र का एक प्रकार है । अध्यात्म में बहुत सी वासनाएं हमारा आच्छादन करती हैं, हमें अपनी ओर खींचती हैं, अतः वह वृत्र का दूसरा प्रकार है । वायु का बहना अध्यात्म में यह इंगित करता है कि अब वृत्र की आकर्षण शक्ति समाप्त हो गई है । इसे अध्यात्म का आरम्भ कहा जा सकता है । नारद भक्ति सूत्र, शाण्डिल्य भक्ति सूत्र आदि में भक्ति के प्रकारों में से एक वयः प्रकार की भक्ति है जब साधक बिना किसी आधार के, आलम्बन रहित होकर अन्तरिक्ष में विचरण करता है, उस पर किसी प्रकार का कोई आकर्षण नहीं रहता । क्या वयः और वायु में किसी प्रकार का सम्बन्ध है? इसका उल्लेख आगे किया जाएगा । पुराणों में इन्द्र और वायु के उपरोक्त आख्यान का स्वरूप यह है कि इन्द्र ने अग्नि और वायु को समुद्र सुखाने की आज्ञा दी जिससे समुद्र में छिपे असुरों का संहार किया जा सके । अग्नि और वायु द्वारा अस्वीकार करने पर इन्द्र ने अग्नि और वायु को वसिष्ठ और अगस्त्य बनने का शाप दिया । यह अन्वेषणीय है कि क्या वसिष्ठ और अगस्त्य भी किसी प्रकार से गुरुत्वाकर्षण को समाप्त करते हैं? वेदों व पुराणों की कथाओं में अगस्त्य वायु की तरह अपना फैलाव दिशाओं के अनुदिश करते हैं । वसिष्ठ कुम्भ से उत्पन्न होने के पश्चात् अग्नि की भांति ऊर्ध्व दिशा में अग्रसर होते हैं ।
शिव पुराण के सात खण्डों में से अन्तिम खण्ड वायवीय संहिता कहलाता है जिसके पूर्व और उत्तर दो भाग हैं । वायवीय संहिता का आरम्भ नैमिषारण्य में ऋषियों के समागम से होता है जहां सत्र के अन्त में वायु का प्रादुर्भाव होता है और वायु ऋषियों के प्रश्नों का समाधान करता है । सारी वायवीय संहिता मुख्यतः शिव की पाशुपत दीक्षा की व्याख्या है । यहां पशु, पाश और पति इन तीन शब्दों की व्याख्या की गई है । पशु पुरुष है और पाश प्रकृति । पशु अक्षर है जबकि पाश क्षर । पुरुष रूपी पशु प्रकृति रूपी पाश से बद्ध है और पाशों से मोचन केवल पशुपति शिव ही कर सकते हैं जिनका स्थान पुरुष से ऊपर कहा गया है । इस संहिता में जिन पाशों का उल्लेख है, वह जड पदार्थों की वही आकर्षण शक्ति है जिसका उल्लेख ऊपर किया जा चुका है । वायवीय संहिता इन पाशों के मूल को खोजने का प्रयास करती है और संभवतः अविद्या आदि को इसका मूल बताती है । इन पाशों से मुक्ति के रूप में इस संहिता में जिस पाशुपत दीक्षा का वर्णन है, उसका मूल वैदिक साहित्य में खोजा जा सकता है । शांखायन ब्राह्मण ६.४ में उल्लेख है कि पशुपति वायु के समकक्ष है क्योंकि इसका पशुपति हनन नहीं करता है । जैमिनीय ब्राह्मण २.६५ में उल्लेख है कि वायु दीक्षित है, अन्तरिक्ष दीक्षा । तैत्तिरीय ब्राह्मण ३.९.१७.५ में उल्लेख है कि गर्भ वायव्य हैं । वैदिक साहित्य में दीक्षित को आचार्य का गर्भ रूप माना जाता है क्योंकि गर्भ पूर्ण रूप से माता द्वारा सुरक्षित होता है । गर्भ पर जो शक्तियां कार्य कर रही होती हैं, वह सन्तुलित होती हैं । प्रश्न यह उठता है कि दीक्षा किसे कहते हैं । इस प्रश्न का उत्तर वैदिक व पौराणिक साहित्य में अन्तरिक्ष की प्रकृति को समझ कर दिया जा सकता है । अन्तरिक्ष का अर्थ है अन्त: - ईक्षण, अपने अन्दर झांकना, अन्तर्मुखी होना । वैदिक मन्त्रों में अन्तरिक्ष शब्द के साथ प्रायः उरु विशेषण जोडा गया है । उरु का अर्थ होता है विस्तीर्ण । यह संकेत करता है कि अन्तरिक्ष के दो स्वरूप हो सकते हैं - उरु व पुरु । भौतिक विज्ञान में दो परस्पर सम्बन्धित ( कन्जूगेट) राशियों के विस्तार के संदर्भ में एक नियम है जिसे अनिश्चितता का सिद्धान्त कहते हैं । इस सिद्धान्त के अनुसार यदि एक राशि के मान के बिल्कुल ठीक निर्धारण का प्रयास किया जाता है तो दूसरी राशि का निर्धारित मान अनिश्चित हो जाएगा । उदाहरण के लिए, यदि किसी क्षण विशेष पर किसी सूक्ष्म कण की ऊर्जा के मापन का प्रयत्न किया जाता है तो क्षण और ऊर्जा की अनिश्चितता का गुणनफल एक स्थिरांक होता है । इस सिद्धान्त का यद्यपि सीधा उपयोग वर्तमान संदर्भ में नहीं किया जा सकता, लेकिन इस सिद्धान्त के समकक्ष एक सिद्धान्त का प्रतिपादन किया जा सकता है कि कुछ राशियां ऐसी हैं जिनमें एक राशि को कम करने पर दूसरी राशि में वृद्धि हो जाती है । इसी तथ्य का उपयोग अन्तरिक्ष के संदर्भ में भी किया जा सकता है । शिव पुराण की वायवीय संहिता के आरम्भ में वर्णन आता है कि वायु ने ऋषियों की जिज्ञासाओं का समाधान नैमिषारण्य नामक स्थान पर किया । नैमिष वह स्थान है जहां मनोमय प्रकार के रथ के चक्र की नेमि शीर्ण हो गई थी, केवल नाभि ही बची रही । यह मन की एकाग्रता का प्रतीक है । यदि मन एकाग्र होगा तो ऐसा कहा जा सकता है कि अन्तरिक्ष उरु बन जाएगा । वैदिक साहित्य में वायु के साथ मन का प्रत्यक्ष रूप से उल्लेख ऋग्वेद ७.९१.१ व ३, ताण्ड्य ब्राह्मण १.५.११ आदि में हुआ है लेकिन प्रायः मन, प्राण और वाक् के त्रिक् में से केवल प्राण और वाक् का ही उल्लेख आया है । यज्ञ में अन्तरिक्ष स्थानीय अन्वाहार्यपचन अग्नि होती है जिसकी विशेषताओं को अन्तरिक्ष की विशेषताओं से जोडा जा सकता है । इस अग्नि का अधिपति नल नैषध कहा गया है । पुराणों में नल के संदर्भ में अश्व विद्या व अक्ष विद्या के वर्णन आते हैं । अश्व विद्या व्याप्ति की विद्या है । डा. लक्ष्मीनारायण धूत के अनुसार अक्ष विद्या प्रकृति में चांस, प्रायिकता के आधार पर घट रही घटनाओं का प्रतीक है । यह प्रकृति में चल रहा एक जूआ है - एक घटना घट भी सकती है, नहीं भी । हमारे लिए वह घटना अकस्मात् रूप से घटी है, उसका कोई पूर्वापर कारण नहीं है । यह प्रकृति में चल रहा द्यूत कहलाता है । यदि चेतना के उच्च शिखर पर आरोहण करके देखा जाए तो ज्ञात होता है कि प्रकृति में जो कुछ भी घटित हो रहा है, वह द्यूत नहीं है, उसके पीछे कोई कारण विद्यमान है । प्रश्न यह उठता है कि क्या अन्वाहार्यपचन अग्नि का वायु से कोई सम्बन्ध हो सकता है? इसका उत्तर नहीं में प्रतीत होता है । इसका कारण यह है कि नल का विलोम शब्द अनल अग्नि का पर्यायवाची है । अतः यह कहा जा सकता है कि अन्वाहार्यपचन अग्नि अग्नि का अन्तरिक्ष में विस्तार है । अन्वाहार्यपचन अग्नि का विकसित रूप सोमयाग में आग्नीध्र की अग्नि है जो आधी अन्तर्वेदी में और आधी बहिर्वेदी में होती है ( आग्नीध्र शब्द पर टिप्पणी द्रष्टव्य है ) । आग्नीध्र के विषय में वाजसनेयी माध्यन्दिन संहिता ५.३१ में उल्लेख आता है - 'विभुरसि प्रवाहणो' । इसका अर्थ हुआ कि इस अग्नि या वायु के दो रूप हैं - एक प्रवाह रूप और दूसरा प्रवाह के समाप्त होने पर विभु रूप, भावना रूप । आग्नीध्र का अर्थ होता है अग्नि को प्रज्वलित करने वाला । वायु को भी अग्नि को प्रज्वलित करने वाला कहा गया है । जहां - जहां वायु प्रवाहित होती है, वहीं - वहीं अग्नि जलाती है ।
तैत्तिरीय संहिता १.८.७.१, तैत्तिरीय ब्राह्मण १.७.१.१ व ३.७.१.५ , शतपथ ब्राह्मण २.६.३.६ आदि में पयः को वायव्य कहा गया है, अर्थात् वायु पयः को प्रदान करने वाली है । भौतिक जगत में वायु मेघों से वृष्टि का च्यवन कराती है । अतः वह पयः रूपी जल को प्रदान करती है । तैत्तिरीय संहिता १.७.१.२, २.१.४.८ आदि में वायु को द्यावापृथिवी या इडा रूपी गौ का वत्स कहा गया है । गौ अपने वत्स के लिए ही पयः धारण करती है । वैदिक साहित्य में वायु के पयः के साथ सम्बन्ध को आधुनिक वनस्पति विज्ञान के आधार पर समझा जा सकता है । पौधे पृथ्वी की गुरुत्वाकर्षण शक्ति की दिशा के विपरीत दिशा में वृद्धि करने के लिए प्रतिक्रिया काष्ठ(reaction wood) का निर्माण करते हैं और वर्तमान काल में अन्तरिक्षयानों के माध्यम से यह अध्ययन किया जा रहा है कि गुरुत्वाकर्षण से विहीन स्थिति में पौधों की प्रतिक्रिया - काष्ठ पर क्या प्रभाव पडता है । वनस्पति जगत में जहां भी पयः की उपलब्धि होती है, उसके बारे में यह अनुमान लगाया जा सकता है कि वनस्पति जगत अपने पयः के भण्डार को प्रतिक्रिया काष्ठ का निर्माण करने में समाप्त कर देता है । यह बहुत ही दुर्लभ अवसर है जहां पौधे अपने पयः रूप को सुरक्षित कर पाने में समर्थ होते हैं । इसी तथ्य का उपयोग अध्यात्म में वायु के संदर्भ में किया जा सकता है ।
वायु और रूप में सम्बन्ध : शतपथ ब्राह्मण ११.८.३.८, तैत्तिरीय संहिता ३.१.४.२ आदि में वायु में रूप की पराकाष्ठा का उल्लेख आता है । एक संभावना यह है कि उपनिषदों में वायु का स्थान नाभि से लेकर भ्रूमध्य तक कहा गया है । भ्रूमध्य वह स्थान है जहां से चलकर चेतना पुरुष तक पहुंचती है । शतपथ ब्राह्मण १४.५.१.६ व १४.६.९.१३(बृहदारण्यक उपनिषद २.१.६ व ३.९.१३) आदि में वायु के अन्दर पुरुष के होने के उल्लेख आते हैं । शतपथ ब्राह्मण १४.६.७.११ का कथन है कि जो अन्तर्यामी अमृत आत्मा है, वह वायु पर प्रतिष्ठित है, वायु उसका शरीर है, लेकिन वायु को उसका ज्ञान नहीं है । शतपथ ब्राह्मण १४.३.२.७ का कथन है कि अन्तरिक्ष सब देवों का आयतन है जबकि वायु सब देवों का आत्मा है । भागवत पुराण के छठे स्कन्ध में वृत्र का वध होता है जबकि आठवें स्कन्ध में मोहिनी रूप धारी विष्णु द्वारा अपने रूप से असुरों को मोहित करने का वर्णन है । शिव पुराण वायवीय संहिता के उत्तर भाग का आरम्भ कृष्ण द्वारा पुत्र की प्राप्ति के लिए तप से होता है । पाशुपत दीक्षा के द्वारा कृष्ण साम्ब पुत्र को प्राप्त करते हैं । साम्ब को भी रूप में अप्रतिम कहा गया है । रूप शब्द पर टिप्पणी पठनीय है । ऐसा कहा जा सकता है कि सामान्य चक्षुओं से हमें रूप का दर्शन नहीं होता, प्रतिरूप का, प्रतिबिम्ब का दर्शन होता है ।
प्राण और वायु में सम्बन्ध : वैदिक साहित्य में सार्वत्रिक रूप से प्राणों को वायु कहा गया है ( उदाहरण के लिए, शतपथ ब्राह्मण ४.४.१.१५, ८.४.२.२७ आदि ) । लेकिन शतपथ ब्राह्मण ११.८.३.८ का कथन है कि सूर्य ने सर्वश्रेष्ठ प्राणों का ग्रहण अग्नि से किया, रूप का वायु से । अतः यह इंगित करता है कि प्राण और वायु में अन्तर है । जैमिनीय ब्राह्मण २.५१ व २.५२ में प्राण और वायु में अन्तर को और अधिक स्पष्ट किया गया है । इस कथन के अनुसार ऋतुएं दो प्रकार की होती हैं - प्राणर्तु और देवर्तु । जब तक सूर्य का विकास नहीं हुआ है, तब तक प्राणर्तुओं का अस्तित्व होता है । प्राणर्तुओं में प्राण वसन्त रूप होता है, वह वसन्त जो जड वस्तुओं में प्राणों का संचार करता है, उसे चेतन बनाता है । ग्रीष्म वाक् , चक्षु वर्षा, श्रोत्र शरद आदि होते हैं । दूसरी ओर देवर्तुओं में वायु वसन्त, अग्नि ग्रीष्म, पर्जन्य वर्षा, आदित्य शरद आदि होते हैं । देवर्तु का वायु वसन्त किसी प्रकार से प्राणर्तु के प्राण वसन्त से तादात्म्य बनाता है(प्राणो वै मनुष्यधूर् वायुर् देवधूः। गायत्र्यां प्रस्तुतायां प्राणेन वायुं संदध्यात्। तद् अन्तरा यजमानस्य प्राणम् अवयातयेत् – जै.ब्रा. १.२७०)। शतपथ ब्राह्मण १४.६.३.२(बृहदारण्यक उपनिषद ३.३.२) के अनुसार वायु के दो रूप हैं - समष्टि और व्यष्टि । जैमिनीय ब्राह्मण २.६५ का कथन है कि मेरे प्राण से प्राण को दीक्षा प्राप्त हो जिससे वायु का समष्टि रूप प्राप्त हो सके । अतः यह कहा जा सकता है कि जब व्यष्टि रूप प्राण समष्टि रूप धारण कर लेते हैं तो वह वायु का निर्माण करते हैं जिसमें चरने का, बहने का गुण होता है । शतपथ ब्राह्मण १०.६.२.११ के अनुसार प्राण से अग्नि दीप्त हो सकती है, अग्नि से वायु, वायु से आदित्य, आदित्य से चन्द्रमा आदि । शतपथ ब्राह्मण ८.४.२.२७ के अनुसार प्राण त्रिवृत् है और वायु ही प्राण है । तैत्तिरीय संहिता १.३.८.१ व ६.३.७.४ में पशु के संज्ञपन पर कहा जाता है कि उसका प्राण वायु के द्वारा गृहीत हो । ताण्ड्य ब्राह्मण १.७.३ में अश्व के ग्रहण पर पठनीय मन्त्र में कहा जाता है कि मैं वायु के तेज द्वारा तुझे ग्रहण कर रहा हूं, नक्षत्रों के रूप द्वारा, सूर्य के वर्च: द्वारा इत्यादि । तैत्तिरीय संहिता ५.५.१.१ के अनुसार वायु अग्नि का तेज है । यही कारण है कि जहां - जहां भी वायु बहती है, वहीं - वहीं अग्नि दहन करती है । ताण्ड्य ब्राह्मण ७.५.१६ में एक आख्यान आता है जिसमें मख द्वारा हरण किए गए यश का बंटवारा विभिन्न देवों में होता है । वायु ने यश को उशन् रूप में प्राप्त किया । प्राण उशन् हो सकते हैं । यह औशनानि कामदुघा गौ का रूप हो सकते हैं । शतपथ ब्राह्मण १४.६.१.८( बृहदारण्यक उपनिषद ३.१.८ में प्रश्न उठाया गया है कि यदि यह अन्तरिक्ष आलम्बन रहित है तो किस आक्रम द्वारा यजमान स्वर्गलोक को क्रमण करता है । इसका उत्तर दिया गया है कि उद्गाता ऋत्विज द्वारा, वायु द्वारा, प्राण द्वारा । जो प्राण है, वही यज्ञ का उद्गाता है, वही वायु है । शतपथ ब्राह्मण १४.६.७.६(बृहदारण्यक उपनिषद ३.७.७) के अनुसार वायु ही वह सूत्र है जिसके द्वारा यह लोक और परलोक, सब भूत परस्पर संदृब्ध होते हैं । जै.ब्रा. १.२७० के अनुसार - प्राणो वै मनुष्यधूर् वायुर् देवधूः। गायत्र्यां प्रस्तुतायां प्राणेन वायुं संदध्यात्। तद् अन्तरा यजमानस्य प्राणम् अवयातयेत्।
वायु व अग्नि में सम्बन्ध –
वायु व मरुतों में सम्बन्ध – द्र. पोताउपरि टिप्पणी
वायु व नियुत : वैदिक मन्त्रों में सार्वत्रिक रूप से वायु से नियुतों के साथ आगमन की कामना की जाती है । नियुत अश्व का एक पर्यायवाची नाम है । ब्राह्मण ग्रन्थों में नियुत क्या हो सकता है, इसकी आंशिक व्याख्या प्राप्त होती है । तैत्तिरीय संहिता २.१.१.२ के अनुसार प्राण वायु है और अपान नियुत है । इसी स्थान पर सायणाचार्य द्वारा नियुत की निरुक्ति नितरां यौति मित्रायतीति के रूप में की गई है । तैत्तिरीय संहिता ५.५.१.२ का कथन है कि यदि नियुत्वान वायु के लिए न हो तो यजमान उन्मादग्रस्त हो जाए । अतः यजमान को उन्माद से बचाने के लिए वायवे नियुत्वते होता है । शतपथ ब्राह्मण ६.२.२.६ के अनुसार प्राण वायु है जबकि उदान नियुत है । एक कल्पना यह की जा सकती है कि प्राण के साथ जिस अपान व उदान को नियोजित करने के उल्लेख हैं, उससे तात्पर्य देह में उच्चतर चक्रों के शरीरों को निम्नतर चक्रों के शरीरों के साथ जोडने से है जिससे गुरुत्वाकर्षण का अतिक्रमण न कर पाने वाले शरीर भी उच्चतर शरीरों के साथ जुडकर गुरुत्वाकर्षण से पार यात्रा कर सकें । इस संदर्भ में भगवद्गीता अध्याय ४ श्लोक ५ उल्लेखनीय है । इस श्लोक में कृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि हे अर्जुन, मेरे और तेरे बहुत से जन्म व्यतीत हो चुके हैं लेकिन मैं उन सबको जानता हूं, तू नहीं जानता । यह जानना तभी हो सकता है जब एक देह से दूसरी देह में स्थान्तरण पर निम्नतर शरीर भी उच्चतर शरीरों के साथ स्थान्तरित हो सके । यदि किसी में इतनी सामर्थ्य नहीं है तो वह अपने निम्नतर शरीरों को त्याग कर ही अपनी यात्रा करेगा और अगले जन्म में पूर्व जन्मों को याद नहीं रख पाएगा । तैत्तिरीय संहिता २.१.१.१ के अनुसार नियुत धृति है जिसके द्वारा भूति का धारण किया जाता है । विष्णु पुराण १.८.२५ व लक्ष्मीनारायण संहिता १.३८२.२५ के अनुसार धृति वायु की पत्नी है । यह विचारणीय है कि नियुत और नियति में क्या सम्बन्ध है। योगवासिष्ठ १.२५.१० के अनुसार नियति काल की पत्नी है। शिवपुराण ६.१६.८३ के अनुसार नियति विभु की शक्ति, कर्त्तव्यज्ञानदायक है।
ऐन्द्रवायव ग्रह : तैत्तिरीय संहिता ६.४.७.१, शतपथ ब्राह्मण ४.१.३.१ आदि में ऐन्द्रवायव ग्रह के संदर्भ में कहा गया है कि इन्द्र ने वृत्र मरा है या नहीं, इसकी परीक्षा के लिए वायु को भेजा । जब वायु ने सूचना दी तो इसके पश्चात् इन्द्र ने वाक् को व्याकृत कर दिया । इस कारण से यह ऐन्द्रवायव ग्रह कहलाता है । तैत्तिरीय आरण्यक ३.९.१ में वाक् को वायु की पत्नी कहा गया है । धृति और वाक् का तादात्म्य इस प्रकार स्थापित किया जा सकता है कि वैदिक साहित्य में सार्वत्रिक रूप से पृथिवी को वाक् कहा गया है । वाक् को ज्ञान का संचय, देवी सरस्वती कहा जा सकता है । लेकिन पृथिवी में ज्ञान का यह संचय तभी हो सकता है जब पृथिवी से सभी प्रकार के दोष समाप्त हो जाएं । यह अन्वेषणीय है कि पुराणों में ऐन्द्रवायव ग्रह का विस्तार किस प्रकार किया गया है । हो सकता है कि यह विस्तार वायु द्वारा पशुपति शिव की महिमा के गुणगान के रूप में हो ।
शतपथब्राह्मणे ४.१.३.१ कथनमस्ति यत् वायुः ऐन्द्रवायवग्रहस्य तुरीयं(चतुर्थ) भागमेव इन्द्राय दातुमिच्छति एवं इन्द्रः ऐन्द्रवायवग्रहस्य तुरीयभागमेव वायवे दातुमिच्छति। अन्ततः प्रजापतिः ऐन्द्रवायवग्रहस्य तुरीयभागं इन्द्रं ददाति। शेषाः तुरीयाः – तुरीयाः भागानि सः मनुष्येषु, वयःसु, पशुषु, सरीसृपेषु वितरति। इन्द्रः यं तुरीयभागं प्राप्नोति, तत् निरुक्तः अस्ति। अन्ये यं तुरीयं प्राप्नुवन्ति, ते अनिरुक्ताः सन्ति। सायणभाष्ये अस्य व्याख्या परा, पश्यन्ती, मध्यमा, वैखरी वाक् उपरि आधृता अस्ति। व्याख्यानाय वायोः वैशिष्ट्यानां सम्यक् दर्शनस्य आवश्यकता अस्ति। वायोः जननं अपसः भवति, ब्राह्मणग्रन्थेषु अयं कथनं उपलभ्यते। अपसः प्रकृतिः प्रवहणप्रकारस्य अस्ति। देहस्य स्थूलस्तरे यदा अपसः प्रवाहं संभवं भवति, तदा व्याधयः तिरोहिता भवन्ति। अपसः प्रवाहस्य अग्रिमविकासः वायोः प्रवाहः अस्ति। यदा गुरुत्वाकर्षणस्य लोपं भवति, तत् वायोः स्थितिः अस्ति। पुराणेषु आख्यानाः सन्ति यत् वायुः अपसः शोषणे समर्था अस्ति। वायोः अगस्त्यादयः ये अवताराः सन्ति, तेपि समुद्रादीनां शोषणे समर्थाः सन्ति। किन्तु शतपथब्राह्मणानुसारेण, यावत् इन्द्रस्य सहयोगं न भवति, तावत् निरुक्ता वाचः सर्जनं न भवति। व्यवहारे निरुक्तवाचः अभिप्रायं अआदि वर्णेषु विभाजनीया वाक् गृह्णन्ति। निरुक्ता वाक् सत्यवाक् भवितुं शक्यते। तन्त्रशास्त्रे वाचः विभाजनं परा पश्यन्त्यादि रूपेण कृतमस्ति।
इन्द्रः वायुना सह केन प्रकारेण सम्बद्धः अस्ति। अस्मिन् संदर्भे एकं उदाहरणं गया तीर्थस्य अस्ति। गया तीर्थस्य वर्गीकरणं वायुमहाभूतेषु अस्ति। वायुपुराणादिषु आख्यानमस्ति यत् देवाः गयासुरस्य देहोपरि यज्ञस्य वेदिं निर्मातुमिच्छन्ति। किन्तु गयासुरस्य देहस्य कम्पनं समाप्तं न भवति। यदा जनार्दनः विष्णुः गदां धारयित्वा गयासुरस्य देहोपरि विराजति, तदैव कम्पनस्य समाप्तिः भवति। अयं कंपनं बहिर्जगतः सुखदुःखादिभ्यः अस्ति। विष्णोः गदायाः किमाशयमस्ति। हृदयस्य परितः हितासंज्ञकाः ये नाड्यः सन्ति, येषु प्राणः हृदयतः निर्गत्य स्वप्नावस्थायां भ्रमणं करोति, तेषां नाडीनां नियामकः गदास्त्रः अस्ति। यावत् वायुः हृदये एव सीमितः अस्ति, तावत् तस्योपरि हृदयस्यान्तः स्थितस्य पुरुषस्य नियन्त्रणं अस्ति। यदा अयं हृदयतः बाह्यं गच्छति, तदा अयं नियंत्रणं शिथिलं भवति, अयं प्रतीयते। अग्निचयने वायोः प्रतीकस्य विकर्णीसंज्ञकाइष्टकायाः स्थापनं स्वयमातृण्णाइष्टकायाः सन्निधिं कुर्वन्ति(मा.श. ८.७.३.९)। स्वयमातृण्णाइष्टका पुरुषस्य स्थानमस्ति, अयं स्टेला क्रैमरिशस्याः अनुमानमस्ति।
शतपथब्राह्मणे ४.१.५.१९ मध्ये ऐन्द्रवायवग्रहस्य एकं वैशिष्ट्यं रशना अस्ति, इति उल्लेखमस्ति। रशनातः किं तात्पर्यं शक्यमस्ति। एका रशना वत्स एवं गौ मध्ये संबन्धं स्थापयति। एका रशना अरणिमन्थनं करोति। प्रस्तुतसंदर्भे प्रतीयते यत् यत्रापि वायोः अस्तित्वं भवति, तत्र संवादं संभवं भवति(द्र. मा.श. ८.७.३.१०, तै.आ. ७.३.१)।
वायु व वयः -- वैदिक साहित्य में वायु व वयः में स्पष्ट अन्तर प्रदर्शित किया गया है । शतपथ ब्राह्मण ६.१.२.२ का कथन है कि जो गर्भ अन्दर था, उससे वायु का जन्म हुआ । जो अश्रु गिरा, उससे वयांसि उत्पन्न हुए ….। तैत्तिरीय संहिता ५.२.१०.७ में कहा गया है कि वयों द्वारा अयों को प्राप्त करते हैं और अयों द्वारा वयों को । इससे सर्वत: वायुमती होते हैं । तैत्तिरीय ब्राह्मण २.३.३.२ के अनुसार वायु द्वारा केशवपन पर मरीचियों की प्राप्ति होती है जबकि अन्तरिक्ष द्वारा केशवपन पर वयों की । (यज्ञदीक्षा में केशवपन कृत्य होता है। आधुनिक कैंसरचिकित्सा में केशवृद्धि रुक जाती है, देह में कोशिकाओं का विभाजन रुक जाता है)। शतपथ ब्राह्मण ८.२.४.१६ में उल्लेख आता है कि सर्वप्रथम पशु, फिर वयः और अन्त में छन्द होता है । यह कथन छन्दों की प्रकृति पर महत्त्वपूर्ण प्रकाश डालता है । छन्द का अर्थ होता है छादन करने वाला । पशु की अवस्था में वासनाएं छादन करने वाली थी, वृत्र की स्थिति थी जबकि छन्द देवों से सम्बन्धित होते हैं । छन्दावस्था में ऊर्जा का क्षय नहीं होता।
वायु व हनुमान : पौराणिक साहित्य में हनुमान को वायु को पुत्र कहा गया है क्योंकि वायु ने शिव के वीर्य का वहन करके उसका अञ्जना में सिंचन किया था जिससे हनुमान का जन्म हुआ । हनुमान की प्रसिद्धि एक ब्रह्मचारी के रूप में है । वायु के गुरुत्वाकर्षण अवरोधक गुण के कारण हनुमान का यह गुण स्पष्ट हो जाता है ।
वायु, भीम व मृग : पौराणिक साहित्य में भीम को वायु का अवतार कहा गया है । इस संदर्भ में महाभारत में कथा आती है कि कुन्ती ने पर्वत पर एक मृग को देखा जिसे देखकर भय के कारण उसकी गोदी से बालक गिर पडा जिसके कारण शिलाएं चूर - चूर हो गई । इस कारण बालक का नाम भीम रखा गया । इस संदर्भ में वेद के प्रसिद्ध मन्त्र मृगो न भीमो कुचरो गिरिष्ठ: का उल्लेख किया जा सकता है जिसके अनुसार मृग भीम है, भय उत्पन्न करने वाला है, कुचर अर्थात् पृथिवी पर विचरण करने वाला है और गिरिष्ठ भी है । इसका एक अर्थ यह हो सकता है कि जो मृग भीम है, भय उत्पन्न करता है, वह कुचर, पृथ्वी पर विचरण करने वाला है । उसे गिरिष्ठ बनाया जा सकता है । मत्स्य पुराण में वायु के वाहन के रूप में भी मृग का उल्लेख है । मृग का अर्थ यह लिया जा सकता है कि जो खोज करता है अपने लिए भोगों आदि की, और साधना में मृग सिद्धि के उपाय भी बताता है( द्र. ब्रह्माण्ड पुराण २.३.३७ में मृग द्वारा परशुराम को प्रबोधन ) । यह भीम मृग का गिरिष्ठ रूप हो सकता है । ताण्ड्य ब्राह्मण १.८.१३ में वायु के लिए मृग दान का निर्देश है जिससे अमृतत्व प्राप्त हो, दाता को वयः प्राप्त हो और प्रतिग्रहण करने वाले को मयः प्राप्त हो । ताण्ड्य ब्राह्मण २३.१३.२ में भी वायु द्वारा मृगसत्र में आरण्यक पशुओं पर आधिपत्य प्राप्त करने का कथन है । प्रश्न यह है कि मृग को भीम, भय उत्पन्न करने वाला क्यों कहा गया है ? पृथ्वी के स्तर पर मनुष्य को क्षुधा, तृषा आदि भय सताते हैं जो मृत्यु का भय कहलाते हैं । शांखायन ब्राह्मण २७.५ में वायु को अनिलया, न कांपने वाली और अपभया, भय से रहित कहा गया है । तैत्तिरीय आरण्यक १.९.१, १.१७.१ आदि में अन्तरिक्ष में स्थित ११ रुद्रों के नाम प्रभ्राजमाना:, व्यवदाता:, वासुकिवैद्युता:, रजता:, परुषा:, श्यामा:, कपिला:, अतिलोहिता:, ऊर्ध्वा:, अवपतन्ता: और वैद्युत आए हैं । जब तक वायु के प्रवाह द्वारा इन ११ को शान्त न किया जाए, यह भयदायक रहेंगे । यदि सूक्ष्म शरीरों के संदर्भ में सोचें तो रजनीशमहोदय द्वारा दूसरे स्तर पर स्थित सूक्ष्म शरीर, इथीरियल बांडी को भय से युक्त कहा गया है जो भय आने पर संकुचित हो जाता है और हर्ष होने पर विकसित हो जाता है । अनाहत चक्र नामक चौथे चक्र का देवता वायु कहा जाता है जिसका वाहन मृग है । यह हो सकता है इस चक्र से निचले चक्र वायु के मृग वाहन का कार्य करते हों । निचले चक्रों के मृगों द्वारा भोगों की खोज की जाती होगी जबकि अनाहत चक्र के मृग द्वारा सिद्धि का मार्ग दिखाया जाता होगा । अनाहत चक्र के देवता के रूप में वायु का उल्लेख यह संकेत करता है कि अनाहत चक्र की जो विशेषताएं हैं, वह वायु की विशेषताओं में भी उपलक्षित होनी चाहिएं । रजनीशमहोदय के अनुसार अनाहत चक्र के स्तर पर मनुष्य का स्व: केन्द्रीभूत हो जाता है । इसके पश्चात् इन सभी केन्द्रों को परस्पर मिलाकर एक करने का काम रह जाता है जो विशुद्धि चक्र में होता है । अनाहत चक्र तक वर्णमाला के व्यञ्जनों का वर्चस्व रहता है जबकि विशुद्धि चक्र के पद्म के दलों में स्वरों का अस्तित्व रहता है ।
ब्रह्माण्ड पुराण में अनुवत्सर वायु को अहोरात्रकर कहा गया है । यह उल्लेख इसलिए महत्त्वपूर्ण हो जाता है कि ब्राह्मण ग्रन्थों में चातुर्मास याग के चार पर्वों वैश्वदेव, वरुणप्रघास, साकमेध और शुनासीर में से वैश्वदेव को संवत्सर, वरुणप्रघास को परिवत्सर, साकमेध को इडावत्सर और शुनासीर को अनुवत्सर कहा गया है ( तैत्तिरीय ब्राह्मण १.४.१०.२, ताण्ड्य ब्राह्मण १७.१३.१७), लेकिन ब्रह्माण्ड पुराण में अनुवत्सर वायु का जो गुण दिया गया है, वह अन्यत्र उपलब्ध नहीं है ।
पौराणिक साहित्य में वायु के स्पर्श गुण का सार्वत्रिक रूप से उल्लेख आता है । वैदिक साहित्य में इसका उल्लेख दूसरे प्रकार से आता है । सोम याग में पहले छह दिवस अभिप्लव षडह कहलाते हैं और फिर अगले छह दिवस पृष्ठ्य षडह । जैमिनीय ब्राह्मण २.३१ का कथन है कि जो यह पवन करता है/बहता है, यही स्पृष्ट्य है । ब्रह्म अभिप्लव है जबकि क्षत्र पृष्ठ्य ।
वायु का व्यावहारिक रूप
जिस प्रकार भौतिक जगत पृथिवी, अन्तरिक्ष और द्युलोक या आकाश में विभाजित है, इसी प्रकार आयुर्वेद में शरीर को भी तीन या अधिक भागों में विभाजित किया जाता है । पादों का भाग पृथिवी भाग है जिसमें कफ की प्रधानता होनी चाहिए । नाभि का भाग अग्नि प्रधान होना चाहिए । हृदय का भाग वात प्रधान होना चाहिए । शीर्ष का भाग आकाश प्रधान होना चाहिए । लेकिन व्याधियों के फलस्वरूप इनके स्थानों में विपर्यय हो जाता है । दूषित वात पादों आदि में पहुंच जाती है जहां यह भीषण दर्द उत्पन्न करती है । दूषित हुआ कफ शीर्ष भाग में पहुंच जाता है आदि । लेकिन योग में अग्नि, वात आदि को उनके सीमित आयतनों से निकाल कर सारे शरीर में व्याप्त करना होता है । वात को उसके सीमित आयतन से निकालने के लिए अन्तरिक्ष को विकसित करना होता है । वैदिक साहित्य में कहा गया है कि पहले पृथिवी और द्युलोक परस्पर मिले हुए थे । उनके बीच में किसी प्रकार से अन्तरिक्ष का प्रादुर्भाव हुआ और उससे ही सूर्य, चन्द्रमा आदि का सारा विकास सम्भव हुआ । हठयोग में अन्तरिक्ष को विकसित करने के लिए काकी मुद्रा का वर्णन आता है(घेरण्डसंहिता ३.३९) जिसमें मुख के द्वारा वायु का पान किया जाता है जिससे जठर में भी वायु का प्रवेश हो जाए । श्वास द्वारा ग्रहण की गई वायु केवल फेफडों तक ही सीमित रहती है और फिर रक्त की लाल कणिकाएं वहां से आक्सीजन ग्रहण करके सारे शरीर में उसे पहुंचाती हैं । लेकिन वास्तविकता यह है कि शरीर की आक्सीजन की आवश्यकताएं रक्त द्वारा प्रदान की गई आक्सीजन से पूर्ण नहीं हो पाती । उदाहरण के लिए, हमारे द्वारा किया गया भोजन आन्त्र में पहुंच कर शरीर की सारी आक्सीजन का अवशोषण कर लेता है जिससे हमें निद्रा आ जाती है । अतः अन्य प्रकार से भी आक्सीजन को ग्रहण करने की आवश्यकता है । हठयोग की काकी मुद्रा इसमें सहायक है । स्थूल वायु के व्यर्थ भाग को गुदा मार्ग से बाहर निकालना होता है जिसके लिए पूरे आन्त्र मार्ग का खुला होना आवश्यक है । इस प्रकार ग्रहण की गई वायु अन्तरिक्ष को विस्तीर्ण बनाती है जिसमें अग्नि भी व्याप्त हो सकती है । अभी तक जो अग्नि केवल जठर तक सीमित थी, अब वह सारे शरीर में फैलने लगती है, सारे शरीर का पाक होने लगता है ।
प्रथम प्रकाशन : इन्दौर; दीपावली, २१-१०-२००६ई.
महाभूतेषु वायुः
ह्रैं बीजः वायु महाभूतेन (द्र. महाभूतोपरि टिप्पणी) सह सम्बद्धं अस्ति। वायुः प्राणानां अनिरुक्तं रूपमस्ति, अयं वैदिक साहित्ये प्रसिद्धमस्ति। येषां अष्ट तीर्थानां वर्गीकरणं वायु महाभूते अस्ति ते एवंप्रकारेण सन्ति –
गया
चैव
कुरुक्षेत्रं
तीर्थं
कनखलं
तथा
॥
९
॥
विमलं
चाट्टहासं
च
माहेन्द्रं
भीमसंज्ञकम्
॥
गुह्याद्गुह्यतरं
ह्येतत्प्रोक्तं
वाय्वष्टकं
तव
॥
स्कन्द
७.१.१०.१०
॥
हृदयः वायु महाभूतस्य स्थानमस्ति। तन्त्रे अस्य महाभूतस्य प्रतीकं षट्कोणिका, षड्भुजीया आकृतिः अस्ति। मधुमक्षिकायाः कुलायस्य संरचना अपि षड्भुजीयं एव भवति। आधुनिक विज्ञानानुसारेण ग्रेफाईट इत्यादि द्रव्याणां आन्तरिक संरचना अपि षट्भुजीयं भवति। एवं तेषां संरचना मुख्य रूपेण द्वि – विमीयं भवति। तृतीय विमा अपेक्षाकृत लुप्ता एव भवति। ग्रेफाईट द्रव्यस्य एकं विशिष्ट प्रकारं आधुनिक विज्ञाने ग्रेफीन अस्ति यस्य गुणानां अध्ययनं वर्तमान विज्ञानस्य विषयं अस्ति। अनेनानुसारेण, ग्रेफीन द्रव्ये विद्युत आवेश धारी कणानां यः चलनमस्ति, तस्योपरि ग्रेफीन द्रव्यस्य स्थूलतायाः प्रभावं न भवति। वैज्ञानिक शब्देषु अस्य स्थित्याः व्यक्तीकरणं इलेक्ट्रान – फोनान अन्योन्यक्रिया द्वारा भवति। फोनान अर्थात् स्थूल द्रव्यस्य कम्पनम्, ध्वनि। स्थूल द्रव्यस्य कम्पनम् विद्युत आवेश युक्तानां कणानां प्रचालनं छिन्नं करोति। किन्तु ग्रेफीन अथवा ग्रेफाईट द्रव्ये अयं स्थितिः न भवति। वायु महाभूतस्य प्रतिनिधितीर्थं गया तीर्थं भवति। गया तीर्थस्य विशेषता पुराणेषु एवंप्रकारेण कथितमस्ति यत् गयासुरः स्वदेहस्य दानं देवानां यज्ञस्य हेतुं अकरोत्, किंतु तस्य देहस्य कम्पनस्य विरामं नाभवत्। तदा सर्वे देवाः तस्य देहोपरि स्थिताः अभवन्। किन्तु तदानीमपि तस्य कम्पनस्य विरामं नाभवत्। यदा गदाधरः विष्णुः स्वगदा सहितं तस्य देहोपरि स्थितः अभवत्, तदानीमेव तस्य कम्पनस्य विरामं अभवत्। आध्यात्मिक रूपेण इलेक्ट्रान – फोनान अन्योन्यक्रियायाः किं अर्थं भवितुं शक्यते। एकं अर्थं भवति यत् ये देहस्य सुख-दुःखाः सन्ति, तेषां प्रभावं विद्युत रूपी आत्मोपरि न भवति। गयातीर्थसंदर्भे अस्य व्याख्या किंचित् अन्यप्रकारेण कर्तुं अपि शक्यन्ते। हृदयस्य परितः ये नाड्यः सन्ति, ते प्राणस्य/प्राणानां विश्रामस्य स्थानं भवन्ति। यदा प्राणः तेषु नाडीषु स्वपिति, तदा स्वप्नानां दर्शनं भवति। गदा अस्त्रेण एषां नाडीनां शान्तिः भवति। व्यवहारे एकादशी-द्वादशी तिथिव्रतरूपेण अयं केन प्रकारेण भवति, अन्वेषणीयः। द्वादशी तिथिः नाडीनां शं-करणे सम्बद्धमस्ति। हनुमानः वायोः पुत्रं अस्ति। हनुमानेन स्वहृदयस्य विस्फारणं कृत्वा रामस्य विद्यमानता प्रदर्शनं लोके सर्वज्ञातं अस्ति।
गया तीर्थे मरीचि – पत्न्याः शिलारूपमपि विद्यते। मरीचि ऋषिः अस्य शिलायाः उपरि स्थित्वा तपः करोति। शिलायामपि कम्पनं भवति एवं तस्य शिलायाः आच्छादनं पर्वतेभ्यः भवति। किन्तु तथापि शिलायाः आच्छादनं सम्पूर्णं न भवति, अयं कथनमस्ति।
वायोः महाभूतस्य एकं गुणं तिरोभवनमस्ति। ग्रेफाईटद्रव्यमध्ये मुख्यरूपेण द्विविमाययोः अस्तित्वं अस्ति। तृतीया विमा गौण रूपेण अस्ति। तस्मिन् विमायां ग्रेफाईट द्रव्यस्य विस्तारं नास्ति। अन्य शब्देषु, ग्रेफाईट द्रव्यस्य चेतना द्विविमीया अस्ति। तृतीयायां विमायां तस्य चेतना सुप्तमस्ति। प्रयत्नेन अस्याः विमायाः सक्रियकरणं सम्भवमस्ति। किं अयं संभवमस्ति यत् एक-विमीय एवं शून्य – विमीय द्रव्याणां अपि अस्तित्वं अस्मिन् जगते अस्ति। इदानीं, विज्ञानानुसारेण एक-विमीय एवं शून्य- विमीय कृत्रिम द्रव्याः विद्यमानाः सन्ति, किन्तु वास्तविक रूपेण तेषां सुप्ता चेतना लुप्तासु विमासु भ्रमणं करोति। स्वचेतनायाः तिरोभवनं क्रमिक रूपेण केन प्रकारेण भवेत्, अयं अन्वेषणीयः।
अस्य महाभूतस्य एकं गुणं उच्चाटनमस्ति। उच्चाटनस्य संदर्भे पुराणे अयं कथनं अस्ति यत् व्याधीनां द्विप्रकाराः सन्ति - व्याधि एवं आधि। व्याधेः अपनयनं ओषधि सेवनं द्वारा सम्भवमस्ति। किन्तु केषांचित् व्याधीनां चिकित्सा ओषधिसेवनेन संभवं नास्ति। कारणं – तेषां व्याधीनां मूलं आधि रूपेण चेतना मध्ये विद्यमानमस्ति। आधेः चिकित्सा मन्त्र इत्यादिना एव सम्भवमस्ति। अतएव मन्त्रादिभिः व्याधेः उच्चाटनं, दूरीकरणं ह्रैं बीजक्षेत्रे भवति। अन्तर्जालोपरि उच्चाटनस्य उदाहरणं अन्य प्रकारेण भवति। कोपि जनः अस्ति यस्य प्रवेशं वयं स्वगृहे न इच्छन्ति। तस्य अपनयनं उच्चाटनक्रियादिभिः भवति।
ह्रैं - वायु महाभूतस्य संदर्भे गया, कुरुक्षेत्र, नैमिषादि तीर्थानां उल्लेखः अस्ति। गया तीर्थः पितॄणां श्राद्ध हेतु प्रसिद्धमस्ति। दक्षिणभारते श्राद्ध हेतु गोकर्ण तीर्थस्य प्रसिद्धिः अस्ति। किन्तु गोकर्ण तीर्थस्य वर्गीकरणं आकाश महाभूतान्तर्गतं अस्ति। कुरुक्षेत्रस्य उल्लेखस्य संदर्भे, गीतायां कथनमस्ति – धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः। यदि कोपि क्रिया धर्मानुसारेण कृतं भवति, तर्हि सा क्रिया विना परिश्रम एव भविष्यति, कल्पवृक्षानुसारेण। ऊर्जायाः कोपि क्षयं न भविष्यति।
वायुमहाभूते तीर्थाष्टके माहेन्द्रतीर्थं एकमस्ति। माहेन्द्र तीर्थस्य विशेषता सोमयागे महाव्रतअह्ना प्रदर्शितं भवति। महाव्रते अहनि साम/स्तोत्रं एवं वीणावादनं द्वयानां साकं विद्यमानता भवति। वीणावादनं मर्त्य स्तरे भवति। सामस्तोत्रं अमर्त्य स्तरे भवति। इलेक्ट्रान – फोनान भाषायां अस्य स्थित्यां इलेक्ट्रान एवं फोनान परस्परं सहयोगं कुर्वन्ति।
पुराणेषु वायु महाभूतस्य उत्कर्षं वायु रूप स्थूल प्राणस्य प्राण, अपान, व्यानादि अवयवेषु भवितुं कथितमस्ति। यदा एवं भवति, तदा वायोः द्वि अवयवानां मध्ये सन्धिः भवति – यथा प्राण – अपान मध्ये। यदि एवं भवति, तदा महापुरुषस्य द्वात्रिंशत् लक्षणानां उत्पत्ति अपि संभवं प्रतीत्यते। वायोः महाभूतस्य प्रतीकं द्वित्रिकोणानां मध्ये सन्धिना प्रदर्शितं भवति। डा. फतहसिंह अनुसारेण एकः त्रिकोणः उन्मनी एवं द्वितीयः त्रिकोणः समन्याः चेतनायाः प्रतीकमस्ति।
अग्निपुराणम् ८८.४७ मध्ये वायु, आकाश एवं पराकाशस्य स्थित्यां अन्तरं कथितं भवति। वायु महाभूतस्य स्थित्यां स्वतन्त्रता भवति, संभवतः गुरुत्वाकर्षणतः स्वतन्त्रता भवति, खगवत् स्थितिः भवति।
वायु महाभूते शान्तिकलायाः अस्तित्वमस्ति। शान्तिकलायाः उपयोगं उपद्रवादीनां शान्तिकरणे भवति। उपद्रवं किं भवति, अस्मिन् संदर्भे ब्राह्मणग्रन्थे कथनं अस्ति यत् आरण्यकाः पशवः यदा मनुष्यं पश्यन्ति, तदा ते उपद्रवन्ति, लुप्तप्रायाः भवन्ति। यदा लोके कोपि आकस्मिकं उपद्रवं भवति – युद्धं, शिशुजन्मे विकृतिः आदि, तस्य शमनं वायु महाभूतेन सम्भवं भवितुमर्हति। अयं उपद्रवसंज्ञकस्य भक्त्याः व्याख्या अस्ति। सामवेदस्य अन्यानां भक्तीनां संज्ञा हिंकार, प्रस्ताव, उद्गीथ, प्रतिहार एवं निधनं अस्ति। अयं संभवमस्ति यत् हिंकार भक्तिः पृथिवी महाभूतेन, प्रस्तावः जलमहाभूतेन, उद्गीथं तेजःमहाभूतेन, प्रतिहारं वायुमहाभूतेन एवं निधनं आकाशमहाभूतेन सम्बद्धं भवेत्।
PRACTICAL ASPECT OF AIR: Just as this universe is divided into earth, sky and heaven, in the same way, Aayurveda divides human body into three parts : The legs constitute the part which shluld primarily be the abode of cough, navel or stomach should be the abode of Pitta or fire and heart should be the abode of air. The head should be abode of heaven. But there is a mixing of the natural situations due to various ailments. Due to defilement, air reaches legs etc. creating serious pain. The defiled cough reaches head etc. This is the state of defilement. But in yoga, one has to bring out fire, air etc. from their confined volumes and spread throughout the body. To spread the air, one has to develop the sky first. According to vedic literature, earth and heaven were conjoined in the earlier stage. Then somehow sky developed between the two and the development of sun, moon etc. became possible after that only. How to develop sky in yoga? There is a special posture in Hathayoga where one is supposed to drink air by mouth, just like water. This brings air in stomach. The presence of air in the stomach becomes useful because of the fact that whatever oxygen is provided to the body by hemoglobin of blood, that is not sufficient for proper functioning of the body. We need more oxygen. Thus this posture makes the sky part of the body wider. This makes possible the spread not only of air, but of fire also.
VEDIC CONCEPT OF AIR : There is a reference that lord Indra sent air to check whether demon Vritra has still died or not. Air went and informed that the demon has actually died. Then air attained it’s part in the sacred yaaga. The hidden fact here is that only air is able to judge whether Vritra has died or not. Vritra means one who covers. The gravitational force of earth also covers us, hence it is a type of Vritra. In spirituality, so many desires cover us, so these are the second form of Vritra. The flow of air is the first indication that the attractive force of Vritra has now subsided. There is often mention in the sacred texts of devotion of a form of devotion which is like the flying of a bird in the sky. This is also related with this subsiding of attractive force of earth.
The last part of Shiva Puraana is the narration by air to the seers at a place which was formed out of the destruction of the circumference of the wheel of mind. Air can manifest only at this place and teach seers how to overcome the bondage of nature on eternal form. The bondage here may be this attractive force of earth, of inanimate objects. The puraana traces the origin of this force in ignorance.
Sacred vedic texts mention that air is the initiated, sky is the initiation. The question arises what is initiation? The question may be partially answered by the word meaning of sky. Sky in Sanskrita means to peep inside oneself, to become introvert. In vedic mantras, word sky often appears with adjective “uru”, wide. This indicates that sky can be of two types – confined and wide. In vedic and puraanic literature, there are often two conjugate terms out of which if one spreads, the other gets narrow. In case of sky, the conjugate term is mind. Air gave his sermons to seers at the place Naimishaaranya, a place where mind became concentrated. The concentration of mind only will make the sky wider.
In Somayaaga, the sky can be represented by the fire Anvaahaaryapachana whose diety is Nala. The special attribute of this fire is the simultaneous presence of play of dice and spread of a horse. Chance is the play of dice in nature. The opposite of this is the spread of horse. According to chance theory, there is no cause behind an event. If one is able to see events from a higher plane, all events are due to some cause. The question arises whether this particular place can have any similarity with air? This is unlikely. This is most likely connected with fire. The actual place of air in Somayaaga appears to be the place of Aagneedhra priest which is half inside, half outside of the altar. This half - half situation indicates that this is the place of sky. The word meaning of Aagneedhra means one who is able to kindle fire. Air has the same property.
There is a universal statement in vedic literature that milk is air type, or that air provides milk, or that air is the calf for a milching cow. This statement can be understood on the basis of modern technological advances. Plants create reaction wood to circumvent the gravitational force and grow upwards. It seems that wherever plants create milk or juice, this all is subsequently converted into reaction wood. It is rare where plants are able to preserve their milk. The same fact can be applied on air also. It is only the airy state, a state of microgravity where milk can be preserved. The milk of vedic literature is the nectar, which is able to instill life in inanimate objects.
Vedic texts refer that air provides the highest level of roopa/form. This statement can be explained in the way that Upanishads refer the place of air from naval to centre of eyebrows. The center of eyebrows is the place from where one can start to reach the supreme personality, the purusha. This is the highest level of form. The examples of this highest form are the appearance of Mohini, the incarnation of lord Vishnu in Bhaagavata puraana. This happens only after demon Vritra is killed in sixth chapter. Vritra is the cursed form of Chitraketu who is able to see the copulation of lord Shiva and Paarvati by moving in a plane(The use of an aeroplane is another example where one can circumvent the gravitational force). The other example is the attainment of Saamba as the son by lord Krishna in Shiva puraana. Begetting of Saamba as his son was possible only when Krishna got initiated in Paashupat initiation. It may be mentioned here that the form visible by normal eyes may not be the actual form, but an image only.
RELATION BETWEEN PRAANA AND VAAYU/AIR: Though vedic literature universally calls praana as air, still there is difference between the two. Praana has been stated to lead to blossoming of autumn( in inanimate objects) before there is development of sun and moon. On the other hand, air is responsible for blossoming of autumn after rising of sun but before rise of moon. There are two forms of air – single and collective. Praana has to attain the collectiveness of air by initiation. Hence it can be said that praana represents the singlehood of air. After praana attains the collectiveness of air, it acquires the ability to flow, as of air.
In vedic mantras, air is requested to come with his carrier. The carrier of air has got a special name in vedic literature – the Niyuta. On the basis of statements in literature, it seems that all parts of an individual can not attain the state which can overcome gravity. So, after airy state is attained by oneself, he has to carry his lower self upward with the help of air. This lower self may be called the carrier of air. The uniting of lower self with air is not without purpose. There is a verse in Bhagvadgita which states that Arjuna does not know his previous births, but Krishna knows. This can be understood on the basis that when there is transition of vital element from one body to the other, it is most likely that it will leave it’s lower self and travel with higher self only, for the sake of lightness in travel. This will lead to deletion of memory. If one is able to carry the lower self with him, then he may be able to remember the previous birth also.
Different texts refer wife of air with different names. Puraanic texts refer to Dhriti, the power to hold, as wife of air. Vedic texts state Dhriti as Niyuta, the carrier of air. One text states Vaak, the speech as wife of air. The statement of Vaak as wife of air is important from the fact that one text states that Vaak was made speechworthy by Indra only after demon Vritra was killed. It is a proposal that we may take here Vaak to mean knowledge, the knowledge which would have been lost had the higher self been unable to bear the lower self with him.
Puraanic texts state an antelope as the carrier of air. Moreover, the fourth chakra(Anaahata) is depicted with it's lord air seated on an antelope. Bheema has been stated to be an incarnation of air. In Mahaabhaarata, there is a story how Bheema got his name. His mother saw a furious antelope due to which child fell from his lap. Due to this, the rocks got broken and powdered and hence the name of Bheema. The word meaning of Mriga or antelope is to search, the search for pleasures, the search for knowledge etc. Mriga may be simply taken as the inner mind which can guide one in every action. If this tendency is lost, the whole purpose is lost. The question is why this antelope has been called furious? The answer may be that the early stages of this antelope may lead to development of fear. One can suppose that these early stages may be the lower psychic bodies or lower chakras. For example, according to Rajneesha, the second level of consciousness called the etheric body, is the source of fear. This fear may be of death, of hunger, of thirst etc. This etheric body gets contracted on rise of fear. This fear has to be converted somehow into love which is the characteristic of Anaahata chakra. Now the antelope will show the way in penances, as was done in case of Parashuraama in Brahmaanda puraana. It can also be expected that other characteristics of Anaahata chakra should also appear in the characteristics of air. For example, Rajaneesha states that this is the place where the self gets concentrated, gets crystallized. After this stage, one has to mingle different crystallized selfs into one. This is done in next chakra.
(First published : Indore ; Deepaavali, 21th October 2006)
अन्य महत्त्वपूर्ण संदर्भ :
*अयं वै पवित्रं यो ऽयं (वायुः) पवते – मा.श. १.१.३.२, १.७.१.१२
*पुरोडाशकरणम् -- अयं वै वायुर्यो ऽयं पवत ऽएष वा इदँँ सर्वं विविनक्ति यदिदं किञ्च विविच्यते – मा.श. १.१.४.२२ (तु. मा.श. २.६.३.७)
*अयमेव स्रुवो यो ऽयं (वायुः) पवते – मा.श. १.३.२.५
*सान्नाय्यसम्पादनम् - स वत्सं शाखयोपस्पृशति वायव स्थेत्ययं वै वायुर्योऽयं पवत एष वा इदं सर्वं प्रप्यायति यदिदं किं च वर्षति- मा.श. १.७.१.३
*अयं वै वर्षस्येष्टे यो ऽयं (वायुः) पवते – मा.श. १.८.३.१२
*चातुर्मासवैश्वदेवपर्व -- पवमानो हरित आविवेशेति दिशो वै हरितस्ता अयं वायुः पवमानः। - मा.श. २.५.१.५
*यो वा ऽ अयं (वायुः) पवते एष तनूनपाच्छाक्वरः सोऽयं प्रजानामुपद्रष्टा प्रविष्टस्ताविमौ प्राणोदानौ – मा.श. ३.४.२.५
*यो वाऽयं (वायुः) पवत ऽ एष तनूनप्ता शाक्वरः – मा.श. ३.४.२.११
*यो वाऽयं (वायुः) पवतऽएष द्युतानो मारुतः – मा.श. ३.६.१.१६
ते वायुमब्रुवन् । अयं वै वायुर्योऽयं पवते वायो त्वमिदं विद्धि यदि हतो वा वृत्रो जीवति वा त्वं वै न आशिष्ठोऽसि यदि जीविष्यति त्वमेव क्षिप्रम्पुनरागमिष्यसीति – माश ४.१.३.[३]
*त्वं (वायो) वै नः (देवानाम्) आशिष्ठो ऽसि – मा.श. ४.१.३.३
* इन्द्रवायू इमे सुता उप प्रयोभिरागतम्। इन्दवो वामुशन्ति हि । उपयामगृहीतोऽसि वायव इन्द्रवायुभ्यां त्वैष ते योनिः सजोषोभ्यां त्वेति सादयति ....यो वै वायुः स इन्द्रो य इन्द्रः स वायुः – मा.श. ४.१.३.१९
तानि वा एतानि । श्लक्ष्णानि पात्राणि भवन्ति रास्नावमैन्द्रवायवपात्रं तत्तस्य द्वितीयं रूपं तेन तद्द्विदेवत्यम् – माश ४.१.५.१९
*वाजपेये ग्रहविशेषाः -- एष वाऽ अपाँ रसो यो ऽयं (वायुः) पवते – मा.श. ५.१.२.७
स यो गर्भोऽन्तरासीत् । स वायुरसृज्यताथ यदश्रु संक्षरितमासीत्तानि वयांस्यभवन्नथ यः कपाले रसो लिप्त आसीत्ता मरीचयोऽभवन्नथ यत्कपालमासीत्तदन्तरिक्षमभवत् - ६.१.२.[२]
*जातस्यकुमारस्यनामानि -- वायुर्वा उग्रः – मा.श. ६.१.३.१३
*यद्वेवैतं वायवे नियुत्वते । शुक्लं तूपरमालभते ....शुक्लो हि वायुस्तूपरो भवति तूपरो हि वायुः – मा.श. ६.२.२.७
*यद्वायव्यः पशुर्भवति प्राजापत्यः पशुपुरोडाशस्तेन हैवैतं सर्वं कृत्स्नं प्रजापतिं संस्करोति– मा.श. ६.२.२.११
*इन्द्राग्नी च विश्वकर्मा चान्तरिक्षं द्वितीयाँँ स्वयमातृण्णां चितिमपश्यन् - - -। तान्वायुरब्रवीत्। उपाहमयानीति, केनेति, दिग्भिरिति तथेति दिश्याभिर्ह तदुवाच तस्माद्द्वितीयायै स्वयमातृण्णाया अनन्तर्हिता दिश्या उपधीयन्ते – मा.श. ६.२.३.३-४
*श्वभ्रपूरणम्
-
अथैनां
वायुना
संदधाति
।
यद्वा
अस्यै
क्षतं
यद्विलिष्टं
वायुना
वै
तत्संधीयते
वायुनैवास्या
एतत्क्षतं
विलिष्टं
संतनोति
संदधाति३]
सं
ते
वायुर्मातरिश्वा
दधात्विति
।
अयं
वै
वायुर्मातरिश्वा
योऽयं
पवत
उत्तानाया
हृदयं
यद्विकस्तमित्युत्तानाया
ह्यस्या
एतद्धृदयं
विकस्तं
– मा.श.
६.४.३.४
*अथैनां वायुना संदधाति । यत्र अस्य क्षतम् यद्विलिष्टम्, वायुना तत् सन्धीयते । सन्ते वायुर्मातरिश्वा दधातु - - - - उत्तानाया हृदयं यद्विकस्तम् । - - -- यो देवानां चरसि प्राणथेन । - श.ब्रा. ६.४.३.४
*सोमक्रयणम् -- अयं वै लोको गार्हपत्यो द्यौराहवनीयोऽथ यो ऽयं वायुः पवत ऽएष सोमः – मा.श. ७.३.१.१
*आपस्येष्टका -- अपां त्वेमन्त्सादयामीति । वायुर्वाऽअपामेम यदा ह्येवैष इतश्चेतश्च वात्यथापो यन्ति – मा.श. ७.५.२.४६
* पञ्चाशत्प्राणभृदिष्टकोपधानम्-- अयं वै वायुर्विश्वकर्मा योऽयं पवत......तस्मादेव (वायुः) दक्षिणैव भूयिष्ठं वाति मनो ह वायुर्भूत्वा दक्षिणतस्तस्थौ – मा.श. ८.१.१.७, ८.६.१.१७
*अयं वै वायुर्विश्वकर्मा यो ऽयं पवत ऽएष हीदँँ सर्वं करोति – मा.श. ८.१.१.७, ८.६.१.१७
*अपस्या उपदधाति । आपो वै वृष्टिः........ वायव्या अनूपदधाति वायौ तद्वृष्टिं दधाति तस्माद्यां दिशं वायुरेति तां दिशं वृष्टिरन्वेति –मा.श. ८.२.३.५
एते वै ते पशवः । यांस्तत्प्रजापतिर्वयसाऽऽप्नोत्स वै पशुं प्रथममाहाथ वयोऽथ च्छन्दो – माश ८.२.४.१६
*वायुर्वै मध्यमा विश्वज्योतिः (इष्टका) – मा.श. ८.३.२.१
*चतुर्थीचितिः, पुरस्तात् स्तोमेष्टका -- वायुर्वाऽआशुस्त्रिवृत्स एषु त्रिषु लोकेषु वर्तते – मा.श. ८.४.१.९
*एष (वायुः) हि सर्वेषां भूतानामाशिष्ठः – मा.श. ८.४.१.९
*छन्दस्येष्टकाः -- वायुर्वै निकायश्छन्दः – मा.श. ८.५.२.५
*तस्य (वायोः) रथस्वनश्च रथेचित्रश्च सेनानीग्रामण्याविति ग्रैष्मो तावृतू – मा.श. ८.६.१.१७
*वायुर्वै विकर्णी (इष्टका) द्यौरुत्तमा स्वयमातृण्णा वायुं च तद्दिवं चोपदधाति....अर्वाचीनं तद्दिवो वायुं दधाति – मा.श. ८.७.३.९
*यत्र वा अदोऽश्वं चितिमवघ्रापयन्ति तदसावादित्य इमांल्लोकान्त्सूत्रे समावयते तद्यत्तत्सूत्रं वायुः स स यः स वायुरेषा सा विकर्णी– मा.श. ८.७.३.१०
*विकर्णी इष्टका -- त्रिष्टुभोपदधाति त्रैष्टुभो हि वायुराग्नेय्याग्निकर्म ह्यनिरुक्तयाऽनिरुक्तो हि वायुः – मा.श. ८.७.३.१२
*मण्डूकविकर्षणम् -- वामदेव्यमात्मन् (गायति) । प्राणो वै वामदेव्यं वायुरु प्राणः सर्वेषामु हैष देवानामात्मा यद्वायुः – मा.श. ९.१.२.३८ (तु. मा.श. १४.२.३.७)
*अयमेवाकाशो जूः यदिदमन्तरिक्षमेतं ह्याकाशमनु जवते तदेतद्यजुर्वायुश्चान्तरिक्षं च यच्च जूश्च– मा.श. १०.३.५.२
*एष वै पृथग्वर्त्मा वैश्वानरः (यद्वायुः) – मा.श. १०.६.१.७
*प्राणस्त्वाऽएष वैश्वानरस्य (यद्वायुः) – मा.श. १०.६.१.७
*अग्नेर्ऋग्वेदो वायोर्यजुर्वेदः सूर्यात्सामवेदः (अजायत) – मा.श. ११.५.८.३
*अयं वै साधुः यो ऽयं (वायुः) पवत ऽ एष हीमाँल्लोकान्सिद्धो ऽनुपवते – मा.श. १४.१.२.२३
*अयं वै समुद्रः यो ऽयं (वायुः) पवत ऽएतस्माद्वै समुद्रात्सर्वे देवाः सर्वाणि भूतानि समुद्द्रवन्ति – मा.श. १४.२.२.२
*अयं वै सरिरः यो ऽयं (वायुः) पवत एतस्माद्वै सरिरात् सर्वे देवाः सर्वाणि भूतानि सहेरते – मा.श. १४.२.२.३
*अयं वै सविता यो ऽयं (वायुः) पवते – मा.श. १४.२.२.९
*मूर्तामूर्त ब्राह्मणम् : अथामूर्तम् । वायुश्चान्तरिक्षं च । एतत् अमृतम् । एतत् यत् । एतत् त्यम् । - - - - तस्यैतस्य एतस्यामृतस्य एतस्य यतः, एतस्य त्यस्य एष रस: । य एतस्मिन् मण्डले पुरुष: । त्यस्य हि एष रस: । - श.ब्रा. १४.५.३.४
*यथाग्निगर्भा पृथिवी यथा द्यौरिन्द्रेण गर्भिणी वायुर्दिशां यथा गर्भ एवं गर्भं दधामि ते– मा.श. १४.९.४.२१
*वाजपेये रथविषयकाः मन्त्राः-- वायुर्वा त्वा मनुर्वा त्वा गन्धर्वाः सप्तविँँशतिः। ते अग्रे अश्वमयुञ्जँँस्ते अस्मिन् जवमादधुः – तै.सं. १.७.७.२, मै.सं. १.११.१
*वायुर्वै क्षेपिष्ठा देवता – तै.सं. २.१.१.१, ३.४.३.२
वायवे नियुत्वत आ लभेत नियुद् वा अस्य धृतिः । धृत एव भूतिम् उपैत्य् - तैसं २.१.१.१
*वायुर्वै देवानां पवित्रम् – तै.सं. २.१.१०.२, मै.सं. २.५.५, कपि.क.सं. ४७.४
*वायुर्वै वृष्ट्या ईशे – तै.सं. २.४.९.१
*य आरण्याः पशवो विश्वरूपा विरूपाः सन्तो बहुधैकरूपाः। वायुस्ताँ अग्रे प्र मुमोक्तु देवः प्रजापतिः प्रजया संविदानः – तै.सं. ३.१.४.२, तै.आ. ३.११.१२ (तु. काठ.सं. ३०.८)
*युनज्मि वायुमन्तरिक्षेण ते सह – तै.सं. ३.१.६.१-२
*वायुरन्तरिक्षात् – तै.सं. ३.२.४.३
*वायोश्च त्वाऽपां च (सूर्य) भ्राजसे जुहोमि – तै.सं. ३.३.१.२
*वायुर् हिंकर्ताऽग्निः प्रस्तोता प्रजापतिः साम बृहस्पतिर् उद्गाता विश्वे देवा उपगातारो मरुतः प्रतिहर्तार इन्द्रो निधनं ते देवाः प्राणभृतः प्राणम् मयि दधतु – तै.सं. ३.३.२.१, बौश्रौसू ७.८
*वायुरसि प्राणः नामेत्याह प्राणापानावेवाव रुन्धे – तै.सं. ३.३.५.२
*अग्निर् वा उपद्रष्टा वायुर् उपश्रोताऽऽदित्यो ऽनुख्याता– तै.सं. ३.३.८.५
*वायुः प्रजाभ्यः - - - ज्योतिष्मतीं जुहोतु – तै.सं. ३.३.१०.१
*वायुरन्तरिक्षस्य (अधिपतिः) – तै.सं. ३.४.५.१
*मृदाहरणम् । मृदाहरण से उत्पन्न रिक्त स्थान की वायु से पूर्ति के लिए मन्त्र : सं ते वायुर्मातरिश्वा दधातूत्तानायै हृदयं यद्विलिष्टम् । देवानां यश्चरति प्राणथेन तस्यै च देवि वषडस्तु तुभ्यम् ।। - तै.सं. ४.१.४.१
*पञ्चविँँशत्या ऽस्तुवताऽऽरण्याः पशवो ऽसृज्यन्त वायुरधिपतिरासीत् – तै.सं. ४.३.१०.२, मै.सं. २.८.६
*वायुः पूयमानः (सोमः) – तै.सं. ४.४.९.१, मा.श. १२.६.१.२३
*यज्ञतन्वाख्या इष्टकाः-- वायुः पूयमानः ।.......वैश्वदेव उन्नीतः । रुद्र आहुतः । वायुरावृत्तः (सोमः) – तै.सं. ४.४.९.२
*ध्रुवा दिशा विष्णुपत्न्यघोराऽस्येशाना सदसो या मनोता । बृहस्पतिर्मातरिश्वोत वायु: संधुवाना वाता अभि नो गृणन्तु ।। - तै.सं. ४.४.१२.५
*संभृतमृदो यज्ञभूमौ समाहरणम् :-- क्रूरमिव वा अस्या तत्करोति यत्खनत्य । - - - -सं ते वायुर्मातरिश्वा दधात्वित्याह प्राणो वै वायु: प्राणेनैवास्यै प्राणं सं दधाति । सं ते वायुरित्याह । तस्माद्वायुप्रच्युता दिवो वृष्टिरीर्ते । - तै.सं. ५.१.५.१
प्रथमचितौ अपस्याद्युपधानम् -- त्र्यविर् वयः कृतम् अयानाम् इत्य् आह वयोभिर् एवायान् अव रुन्द्धे । अयैर् वयाꣳसि सर्वतो वायुमतीर् भवन्ति – तैसं ५.२.१०.७
*अयं (वायुः) सर्वतः पवते- तै.सं. ५.२.१०.७, तै.आ. ५.४.१३
*सर्वानृतून् वर्षति वायुरावरीवर्ति – तै.सं. ५.३.१.३
* दीक्षणीयेष्टकाभिधानम्-- वायवे नियुत्वते तूपरम् आ लभते तेजो ऽग्नेर् वायुस् तेजस एष आ लभ्यते तस्माद् यद्रियङ् वायुः वाति तद्रियङ्ङ् अग्निर् दहति स्वम् एव तत् तेजो ऽन्व् एति यन् न नियुत्वते स्याद् उन् माद्येद् यजमानः । नियुत्वते भवति यजमानस्यानुन्मादाय– तै.सं. ५.५.१.१-२
*वायुर् वै पशूनाम् प्रियं धाम यद् वायव्यो भवत्य् एतम् एवैनम् अभि संजानानाः पशव उप तिष्ठन्ते वायव्यः कार्या3ः प्राजापत्या3 इत्य् आहुः । यद् वायव्यं कुर्यात् प्रजापतेर् इयात् । यत् प्राजापत्यं कुर्याद् वायोः इयात् । यद् वायव्यः पशुर् भवति तेन वायोर् नैति – तै.सं. ५.५.१.३, काठ.सं. १९.८
*यत्पूयति, तत् प्रवातेविषजन्ति, वायुर्हि तस्य पवयिता स्वदयिता – तै.सं. ६.४.७.२
अग्निर्वाव संवत्सरः । आदित्यः परिवत्सरः । चन्द्रमा इदावत्सरः । वायुरनुवत्सरः ।……..यच्छुनासीरीयेण यजते २ । वायुमेव तदनुवत्सरमाप्नोति – तैब्रा १.४.१०.२
*वायोर्निष्ट्या । व्रतति: परस्तादसिद्धिरवस्तात् । - तै.ब्रा. १.५.१.३
केशवपनम् पुष्टिवेदनम् -- पृथिवी न्यवर्तयत । सौषधीभिर्वनस्पतिभिरपुष्यत् । वायुर्न्यवर्तयत । स मरीचीभिरपुष्यत् । अन्तरिक्षं न्यवर्तयत । तद्वयोभिरपुष्यत् । ...तैब्रा २.३.३.२
*वायुर्नक्षत्रमभ्येति निष्ट्याम् । तिग्मशृङ्गो वृषभो रोरुवाण: । समीरयन्भुवना मातरिश्वा । अपद्वेषांसि नुदतामराती: । तन्नो वायुस्तदु निष्ट्या शृणोतु । तन्नक्षत्रं भूरिदा अस्तु मह्यम् । तन्नो देवासो अनुजानन्तु कामम् । यथा तरेम दुरितानि विश्वा । - तै.ब्रा. ३.१.१.११
*अग्नयेऽहोमुचेऽष्टाकपाल: । सौर्यं पयः । वायव्य आज्यभाग: । - तै.ब्रा. ३.९.१७.४
*तस्य वा एतस्य यज्ञस्य मेघो हविर्धानं - - - -वायुरात्मा ऽमावास्या स्विष्टकृत् - - - वायावमावास्यायां स्वाध्यायमधीते तप एव तत्तप्यते - तै.आ. २.१४.१
*पवमानो हरित आ विवेशेति वायुरेव पवमानो दिशो हरित आविष्ट: - ऐ.आ. २.१.१
*पृथिवी वायुराकाश आपो ज्योतींषीत्येष वा आत्मोक्थं पंचविधं - ऐ.आ. २.३.१
*५ महाभूत - ऐ.आ. २.६.१
*प्रजापतिस्तपोऽतप्यत स तपस्तप्त्वा प्राणादेवेमं लोकं प्रावृहदपानादन्तरिक्षलोकं व्यानादमुं लोकं - शां.ब्रा. ६.१०
* वायुर् अग्रेगास्(ऋग्वेदः खिल ५.६.१-७) तत् प्राण रूपम् । वायवा तद् अपानस्य रूपम् । - शां.ब्रा. १४.४
*वायव्यां शंसति प्राणो वै वायव्या: प्राणमेव तदात्मन्धत्ते - शां.ब्रा. १६.३
अनिलया तद् वायुः । न ह्य् एष इलयति । अपभया तन् मृत्युः । न ह्य् एष बिभेति । - शांब्रा २७.५
वायुर्युनक्तु मनसा स्तोमं यज्ञाय वोढवे दधात्विन्द्र इन्द्रियं सत्याः कामा यजमानस्य सन्तु – तांब्रा १.५.११
वायवे मृगं तेनामृतत्वमशीय वयो दात्रे भूयान्मयो मह्यं प्रतिग्रहीत्रे – तांब्रा १.८.१३
*वायो शुक्रो अयामि त इति वायव्या प्रतिपद्भवति वाग्वै वायुर्वाचमेवास्य यज्ञमुखे युनक्ति तयाभिषिच्यते - तां.ब्रा. १८.८.७
एता एव समहाव्रताः एताभिर्वै वायुरारण्यानां पशुनामाधिपत्यं गच्छन्ति य एता उपयन्ति। मृगसत्रं वा एतत्। एताभिर्वा आरण्याः पशवो नाकृताः प्रजायन्ते – तांब्रा २३.१३
*अग्निराजिदोहं वायुराजिदोहमसावादित्य आजिदोहम् – जै.ब्रा. २.२५५
*अथ यच्छुनासीरीयेण यजते वायुरेव तद् भवति, वायोः सायुज्यँँ सलोकतां जयति – का.श. १.६.४.९
*अथ वायोरेकादशपुरुषस्यैकादश स्त्रीकस्य प्रभ्राजमाना व्यवदाताः। याश्च वासुकिवैद्युताः। रजताः पुरुषाश्श्यामाः। कपिला अतिलोहिता ऊर्ध्वा अवपतन्ताश्च। वैद्युत इत्येकादश। - तै.आ. १.९.१-२
अथ वायोरेकादशपुरुषस्यैकादशस्त्रीकस्य, इति । प्रभ्राजमानानाँ रुद्राणाँ स्थाने स्वतेजसा भानि । व्यवदातानाँ रुद्राणाँ स्थाने स्वतेजसा भानि । - तैआ १.१७.१
*अथ वायोरेकादशपुरुषस्यैकादशस्त्रीकस्य प्रभ्राजमानानाँँ रुद्राणाँ - - -, व्यवजातानां(व्यवदातानां)- -- , वासुकिवैद्युतानां - - - रजतानां - - -, परुषाणां - - - श्यामानां - - - कपिलानां - - -अतिलोहितानां - - - , ऊर्ध्वानां - - - , अवपतन्तानां - - - वैद्युतानां - - - स्थाने स्वतेजसा भानि – काठ.संक. ११६.१-१३
*अयं वायुरन्तरिक्षस्य पृष्ठम् – जै.ब्रा. ३.२५२
*अयं वायुरस्मिन्नन्तरिक्षे तिर्यङ् पवते – जै.ब्रा. ३.३१०
*अयं वायुर्यथर्तु पवते शीतो हेमन्तम्, उष्णो ग्रीष्मम् – जै.ब्रा. ३.३३३
*अयमु वै यः (वायुः) पवते स यज्ञः – गो.ब्रा. १.३.२, १.४.१
*अयमेव यो ऽयं (वायुः) पवत एष एव संसवे संसवः। एतं हि सर्वे देवा अनुयन्ति।तस्माद् यामेष दिशं वाति तां दिशमोषधयो वनस्पतयो ऽनुप्रतिहते – जै.ब्रा. १.३६१
*अयम् (वायुः) उत्तराद् भूयिष्ठं पवते सवितृप्रसूतो ह्येष (वायुः) पवते – काठ.सं. २३.८
*अरण्यस्येव हि वायुः – कपि.क.सं. ४६.८
*आतिर्वाहसो दर्विदा ते वायवे – मै.सं. ३.१४.१५
* अयं वै ब्रह्म योऽयं पवते तमेताः पञ्च देवताः परिम्रियन्ते विद्युद् वृष्टिश्चन्द्रमा आदित्यो अग्निः। विद्युद्वै विद्युत्य वृष्टिमनुप्रविशति साऽन्तर्धीयते तां न निर्जानन्ति। वृष्टिर्वै वृष्ट्वा चन्द्रमसमनुप्रविशति ...... चन्द्रमा वा अमावास्यायामादित्यमनुप्रविशति...... – ऐ.ब्रा. ८.२८
*तस्मादुत्तरतः पश्चादयं भूयिष्ठं पवमानः (वायुः) पवते सवितृप्रसूतो ह्येष एतत्पवते – ऐ.ब्रा. १.७
*तस्माद्वायुरेव साम – जै.उ.ब्रा. ३.१.१.१२
*तिर्यङ् वायुः पवते – काठ.सं. २२.७( तु. जै.ब्रा. १.२४७)
*त्वमापो अनु सर्वाश्चरन्ति जानतीः। - - - -त्वमग्निँँ हव्यवाहं समिन्त्से त्वं भर्ता मातरिश्वा प्रजानाम्। त्वं यज्ञस्त्वमु वेवासि सोमः। तव देवा हवमायन्ति सर्वे। त्वमेको ऽसि बहूमनुप्रविष्टः। नमस्ते अस्तु सुहवो म एधि- तै.आ. ३.१४.३
*न खलु वै किं चनवायुनानभिगतमस्ति – मै.सं. २.२.७
*अमुमाहुः परं मृत्युम् । पवमानं तु मध्यमम् । अग्निरेवावमो मृत्युः । चन्द्रमाश्चतुरुच्यते (द्र. सायणभाष्यम्) – तै.आ. १.८.४
*पवित्रं वै वायुः – तै.ब्रा. ३.२.५.११
*पृथिवी पूर्वरूपम्। द्यौरुत्तररूपम्। आकाशः सन्धिः। वायुः सन्धानम्। - तै.आ. ७.३.१-२, तै.उ. १.३.१-२
*भुव इत्येव यजुर्वेदस्य (प्रजापतिः) रसमादत्त। तदिदमन्तरिक्षमभवत्। तस्य यो रसः प्राणेदत् स वायुरभवद्रसस्य रसः – जै.उ.ब्रा. १.१.१.४
*य एवायं (वायुः) पवत एष एव स समुद्र एतंहि संद्रवन्तं सर्वाणि भूतान्यनुसंद्रवन्ति – जै.उ.ब्रा. १.८.१.४
*यजुषां वायुर्देवतं तदेव ज्योतिस्त्रैष्टुभं छन्दो ऽन्तरिक्षं स्थानम् – गो.ब्रा. १.१.२९
*यत्पश्चाद्वाति (वायुः)। पवमान एव भूत्वा पश्चाद्वाति – तै.ब्रा. २.३.९.६
*यदिदं सर्वं युते तस्माद् वायुः – जै.ब्रा. २.५६
*यद्ध वायुर्न पवेत प्रासाविदं तेजसा (आदित्यः) दहेदग्निर्वैश्वानरः प्रजा आददीत – जै.ब्रा. २.३८९
*यद् वै सत्रिणां सत्रे विनश्यते तदेभ्यो वायुरपिरोहयति – जै.ब्रा. ३.२२७
*यस्माद्गायत्रमध्यो द्वितीयः (त्रिरात्रः) तस्मात्तिर्यङ् वायुः पवते – तांब्रा. १०.५.२
*यो वा अग्नीनुपदीप्य वातेनोपवाजयति भूयो वै तद्दीप्यते - - -वायुरेव दीप्त्यै। - जै.ब्रा. २.१३८
*रूपं वायोः (आदित्य आदत्त) – जै.ब्रा. २.२६
*वाग्वायोः – तै.आ. ३.९.१
*वाग्वायोः पत्नी – मै.सं. १.९.२
*वायव आरोहणवाहा अनड्वाहौ – काठ.सं. ५०.१
*वायवे नियुत्वते पयो वा यवागूर्वा – काठ.सं. १५.२
*वायुरधिह्रियमाणः (सोमः) – काठ.सं. ३४.१४
अथ देवर्तवः। वायुर् एव वसन्त आस। अग्निर् ग्रीष्मः पर्जन्यो वर्षाः। आदित्यश् शरत्।…….स यस् स प्राणो वसन्त आस, यो वायुर् वसन्तस्, सो ऽयम् एतर्हि वसन्तः। अथ या वाग् ग्रीष्म आस, यो ऽग्निर् ग्रीष्मस्, सो ऽयम् एतर्हि ग्रीष्मः। - जैब्रा २.५१
*वायुरन्तरिक्षस्य (ककुप्) – जै.ब्रा. २.८७
*वायुरसि तिग्मतेजाः – काठ.सं. १.९, कपि.क.सं. १.९
*वायुरस्यन्तरिक्षे श्रितः। दिवः प्रतिष्ठा – तै.ब्रा. ३.११.१.९
*वायुरस्यैडः (वत्स त्वम्) – तै.आ. ४.८.२
*वायुरिव श्लोकभूर्भूयासम् – ऐ.आ. ५.१.१
*वायुरेकपात्तस्याकाशं पादः – गो.ब्रा. १.२.८
*वायुरेव पवमानः – ऐ.आ. २.१.१
*वायुरेव सविता – गो.ब्रा. १.१.३३, जै.उ.ब्रा. ४.१२.१.५
*वायुरेव हिङ्कारः – जै.उ.ब्रा. १.१२.२.९, १.१८.३.९
*वायुर्गोपाः – मै.सं. ३.६.९
*वायुर्भूत्वा (प्रजापतिः) प्रजानां प्राणो ऽभवत् – जै.ब्रा. १.३१४
*वायुर्वा इषिरः – जै.ब्रा. ३.२२७
*वायुर्वृष्टिं वहति – काठ.सं. १९.५, कपि.क.सं. ३०.३, ३१.१२
*वायुर्वै तूर्णिर्हव्यवाड् वायुर्देवेभ्यो हव्यं वहति – ऐ.ब्रा. २.३४
*वायुर्वै देवानामोजिष्ठः क्षेपिष्ठः – मै.सं. २.५.१
*वायुर्वै देवानामाशुः सारसारितमः – तै.ब्रा. ३.८.७.१ (तु. मा.श. १३.१.२.७)
*वायुर्वै पयसः प्रदापयिता – तै.ब्रा. ३.७.१.५
*वायुर्वै शान्तिश्, शान्त्या एवानिर्दाहाय – जै.ब्रा. २.१३८, ३.६६(तु. तां.ब्रा. ४.६.९)
*वायुर्वै स्तोता – तै.ब्रा. ३.९.४.४., मा.श. १३.२.६.२
*वायुर्हि विश्वे देवाः – मै.सं. ४.५.९
*वायुः सप्तिः – तै.ब्रा. १.३.६.४
*वायुः श्वेतसिकद्रुकः – तै.आ. १.१२.३
*वायुः ह्रियमाणः (प्रवर्ग्यः) - तै.आ. ५.११.४
*वायोः पक्षतिः – काठ.सं. ५३.१२
*वायुः निपक्षतिः – मै.सं. ३.१५.४
*वायोः पुछम् – मै.सं. ३.१५.६
*वायोर्निष्ठ्या – तै.ब्रा. १.५.१.३, ३.१.१.१०
*वायोर्वातपाः – काठ.सं. २३.१
*शुक्तं विषजन्ति – काठ.सं. २७.३
*शुक्तं प्रवाते विषजन्ति – मै.सं. ४.५.८
*श्वेतँँ वायवा आलभेत – मै.सं. २.५.१
*स एष वायुः पञ्चविधः प्राणो ऽपानो व्यान उदानः समानः – ऐ.आ. २.३.३
*समुद्रो ऽसि नभस्वानार्द्रदानुर् इत्येतानि वै वायो रूपाणि – मै.सं. ३.४.३
*तेजोऽग्नेर्वायुः – तै.सं. ५.५.१.१
*वायुर्वा अग्नेस्तेजस्तस्माद् वायुमग्निरन्वेति – मै.सं. ३.१.१०
*अथ यत् स्वम् महिमानम् आवाहयति । वायुम् तद् आवाहयति । वायुर्वा अग्नेः स्वो महिमा – कौ.ब्रा. ३.३
*अयमेवाग्निष्टोमो योऽयं (वायुः) पवते – जै.ब्रा. २.४९
*वायवे श्वेतमजमालभेत बुभूषन् – काठ.सं. १२.१३
*एष वै मृत्युर्यद् वायुरजिर एव नाम – जै.ब्रा. १.२६
*वायुर् अध्वर्युः – गो.ब्रा. १.१.१३
*वायुर्वा अध्वर्य्युः – गो.ब्रा. १.२.२४
*वायुर्वा अध्वर्य्युः अधिदैवंप्राणोऽध्यात्मम् – गो.ब्रा. १.४.५
*वायुरनुद्रष्टा – काठ.संक. १२२
*वायुरनुवत्सरः – तां.ब्रा. १७.१३.१७, तै.ब्रा. १.४.१०.१
* स ततो धूमम् एव रथं समास्थाय वायोस् सलोकताम् अभिप्रयाति। .......एष वै मृत्युर् यद् वायुर् अजिर एव नाम। तम् एव ताभिर् आहुतिभिश् शमयित्वान्तरिक्षं लोकानां जयति वायुं देवं देवानाम्। वायोर् देवस्य सायुज्यं सलोकतां समभ्यारोहति य एवं विद्वान् अग्निहोत्रं जुहोति – जै.ब्रा. १.२६
*अन्तरिक्षँँ शान्तिस्तद् वायुना शान्तिः – मै.सं. ४.९.२७
*अन्तरिक्षँँ समित्, ताँँ वायुः समिन्द्धे – मै.सं. ४.९.२३
*अन्तरिक्षमेव द्वितीयस्य च तृचस्य प्रथमया स्तोत्रिया जयति, वायुं द्वितीयया, प्राणं तृतीयया – जै.ब्रा. १.२४५
*अन्तरिक्षे तेन प्रतितिष्ठति वायुं ज्योतिरवरुन्द्धे – काठ.संक. १०
*प्रमा छन्दस्तदन्तरिक्षँँ वायुर् देवता – मै.सं. २.१३.१४
*ये देवा यज्ञहनो यज्ञमुषो ऽन्तरिक्षे ऽध्यासते। वायुर्मा तेभ्यो रक्षतु – काठ.सं. ५.६
*वायुमन्तरिक्षाय ( प्रजापतिर्वत्सं प्रायच्छत्) – जै.ब्रा. ३.१०७
*वायुरन्तरिक्षात् उदैत् – जै.ब्रा. १.७
*वायुरन्तरिक्षे – तै.आ. १.२०.२
*वायुरन्तरिक्षे श्रितः, दिवः प्रतिष्ठा – तै.ब्रा. ३.११.१.९
*वायुर्वा अन्तरिक्षस्याध्यक्षो ऽन्तरिक्षदेवत्याः पशवः मै.सं. ४.१.१
*वायुर्वा अन्तरिक्षस्याध्यक्षाः ऽन्तरिक्षदेवत्याः खलु वै पशवः – तै.ब्रा. ३.२.१.३
*वायुर्वै देवो ऽन्तरिक्षं देवी – शां.आ. १.५
*स एषोऽन्नस्य ग्रहो यद् वायुः – ऐ.आ. २.४.३, ऐ.उ. १.३.१०
*वायुर्वा अपामायतनम् - - -। आपो वै वायोरायतनम् – तै.आ. १.२२.२-३
*अपराजिता नामासि ब्रह्मणा विष्टा - - -मरुतस्ते गोप्तारो वायुरधिपति स्तया देवतयाङ्गिरस्वद् ध्रुवा सीद – मै.सं. २.८.१४
* सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म .....तस्माद्वा एतस्मादात्मन आकाशः सम्भूतः। आकाशाद्वायुः। वायोरग्निः। अग्नेरापः । अद्भ्यः पृथिवी । पृथिव्या ओषधयः । – तै.आ. ८.१.१, तै.उ. २.१.१
* तस्य वा एतस्य यज्ञस्य मेघो हविर्धानं विद्युदग्निर्वर्षꣳ हविस्तनयित्नुर्वषट्कारो यदवस्फूर्जति सोऽनुवषट्कारो वायुरात्माऽमावास्या स्विष्टकृत्- – तै.आ. २.१४.१
*यदादित्यो ऽस्तमेति वायुमेवाप्येति – जै.ब्रा. २.४९
*वायुर्वा एतं (आदित्यम्) देवतानामानशे – तां.ब्रा. ४.६.७
*आयुर्वा एष यद्वायुः – ऐ.आ. २.४.३, ऐ.उ. १.३.१०
*वायोरायुषाऽऽयुष्मान् भूयासम् – काठ.सं. ५.५
*नित्यास्ते (अग्नि-वायु-संवत्सराः) ऽनुचरास्तव (हे इन्द्र) – तै.आ. १.१२.३
*वायाविन्द्रो वैकुण्ठः – शां.आ. ६.२, कौ.उ. ४.२
*वायुः पूतः पवित्रेण प्राक् सोमो अतिस्रुतः। इन्द्रस्य युज्यः सखा। वायोः पूतः पवित्रेण प्रत्यक् सोमो अतिस्रुतः। इन्द्रस्य युज्यः सखा। - मै.सं. ३.११.७
* वायोरुपासनम् -- सर्वा दिशोऽनुविवाति । सर्वा दिशोऽनुसंवातीति । स वा एष मातरिश्वैव । अथ यत्पश्चाद्वाति । पवमान एव भूत्वा पश्चाद्वाति ।..... यदुत्तरतो (वायुः) वाति। सवितैव भूत्वोत्तरतो वाति – तै.ब्रा. २.३.९.६
*एष (वायुः) वै सोमस्योद्गीथो यत्पवते – तां.ब्रा. ६.६.१८
*वायुर् वा उपश्रोता – गो.ब्रा. २.२.१९, २.४.९, तै.ब्रा. ३.७.५.४
*वायुर्वा उशन् – तां.ब्रा. ७.५.१९
*एष वा ऊष्मा योऽयं (वायुः) पवते – का.श. ४.८.३.१२
*अग्ने रूपं स्पर्शा वायोरूष्माण आदित्यस्य स्वरा– ऐ.आ. ३.२.५
*ऋतधाम (अन्तरिक्षम्) यस्मिन् वायुः – जै.ब्रा. १.३३४, ३.३४७
प्राणेन मे प्राणो दीक्षतां वायवे समष्टवा उ – जै.ब्रा. २.६५
*ऋषभोऽसि शाक्वरो वायुर्जन्मना – काठ.सं. १.११
*ऋतधामा नाम लोको वयोभिर्विष्टो गन्धर्वाप्सरसो गोप्तारो वायुरधिपति श्वेतं रूपं प्राणे प्रतिष्ठितः – जै.ब्रा. ३.३४८
*प्राणो वै मनुष्यधूर् वायुर् देवधूः। गायत्र्यां प्रस्तुतायां प्राणेन वायुं संदध्यात्। तद् अन्तरा यजमानस्य प्राणम् अवयातयेत्। – जै.ब्रा. १.२७०
*प्रजापतये च वायवे च गोमृगः – मै.सं. ३.१४.११
*वायवे नियुत्वत आलभेत ग्रामकामः – तै.सं. २.१.१.२
*वायुर्वै चरन् – तै.ब्रा. ३.९.४.१
*वायुर्वै जातवेदा वायुर्हीदं सर्वं करोति यदिदं किंच – ऐ.ब्रा. २.३४
*तथेति वायुः पवते – जै.उ.ब्रा. ३.२.१.२
*एष (तार्क्ष्यः/वायुः) वै सहावांस्तरुतैष हीमाँल्लोकान्सद्यस्तरति – ऐ.ब्रा. ४.२०
*अयं वै तार्क्ष्यो योऽयं (वायुः) पवते, एष स्वर्गस्य लोकस्याभिवोढा – ऐ.ब्रा. ४.२०
*वायु्र्वै तार्क्ष्यः – कौ.ब्रा. ३०.५
*तेजो वै वायुः – तै.ब्रा. ३.२.९.१
*श्वेतँँ वायवे नियुत्वता आलभेत तेजस्कामः – मै.सं. ३.१.१०
*त्रैष्टुभो हि वायुः – मै.सं. ३.१.५, मा.श. ८.७.३.१२
*यद्दक्षिणतो वाति (वायुः) मातरिश्वैव भूत्वा दक्षिणतो वाति – तै.ब्रा. २.३.९.५
*द्यौरसि वायौ श्रिता। आदित्यस्य प्रतिष्ठा – तै.ब्रा. ३.११.१.१०
*वायुर्वै देवः – जै.उ.ब्रा. ३.१.४.८
*एका ह वाव कृत्स्ना देवता ऽर्धदेवता एवान्याः। अयमेव योऽयं (वायुः) पवते। एष एव सर्वेषां देवानां ग्रहाः – जै.उ.ब्रा. ३.१.१.१-२
अस्तं चन्द्र मा एति तेन सोऽसर्वः स एतमेवाप्येति ५ अस्तं नक्षत्राणि यन्ति तेन तान्यसर्वाणि...... तद्यदेतत्सर्वं वायुं एवाप्येति तस्माद्वायुरेव साम जै.उ.ब्रा. ३.१.१.१२
*वायुर्वा अनयोः(द्यावापृथिव्योः) वत्सः – मै.सं. २.५.४, काठ.सं. १३.५
*वायुर् धाय्या – जै.उ.ब्रा. ३.१.४.२
*वायुर् वै नभस्पतिः – तै.सं. ३.३.८.६, गो.ब्रा. २.४.९
*नसोर्वायुश्च प्राणश्च (पुरुषस्य जातौ) – काठ.संक. १०१: ८
*अयं वाव यः (वायुः) पवते। सोऽग्निर् नाचिकेतः – तै.ब्रा. ३.११.७.१
*वायुर्देवानां विशो नेता, नियुतो देवानां विशः – काठ.सं. १२.१३
*निष्ट्यं(स्वाती) नक्षत्रँ वायुर्देवता – मै.सं. २.१३.२०
*वायुः पञ्चहोता। स प्राणः – तै.आ. ३.७.२
*अथ माध्यन्दिनः पवमानः। स ह स धनजिदेव स्तोमः। वायुरेव सः। स हीदं प्राणो भूत्वा सर्वं धनमजयत् – जै.ब्रा. १.३१३
*ताः (दिशः) अयं वायुः पवमान आविष्ट इति वाजसनेयः – जै.ब्रा. २.२२९
*अयं वाव यः (वायुः) पवते स पवमानः – काठ.सं. २२.१०, कपि.क.सं. ३५.४
*एताभिः (एकोनविंशतिभी रात्रिभिः) वायुरारण्यानां पशूनामाधिपत्यमाश्नुत – तां.ब्रा. २३.१३.२
*ते (पशवः) ऽब्रुवन्वायुर्वा अस्माकमीशे। - जै.उ.ब्रा. १.१६.३.४
*वायव स्थेति। वायुर्वा अन्तरिक्षस्याध्यक्षः। अन्तरिक्षदेवत्याः पशवः। वायुरेवैनान् (पशून्) अन्तरिक्षाय परिददाति – कपि.क.सं. ४६.८
*वायुरेवास्मै पशून् निनयति – मै.सं. २.५.१