The story part of living incognito by Paandavas in the kingdom of Viraata can be read on the following site :
Mahabharata summary online
This story relates to the submission of virtuous mind towards the eternal one. A man who conquers his desires, tries to recognize himself in right aspect – that he is not a mere body, but a spirit also. He becomes able to see a deep discipline in the whole universe but remains bound with his ego. The only way to get rid of this ego is the submission of virtuous mind. It is important to note that only a virtuous mind is able in submitting, not an impure mind.
The kingdom of Viraata symbolizes the universe and king Viraata the supreme consciousness residing in this universe. Five paandavaas – Yudhishthira, Bheema, Arjuna, Nakula and Sahadeva symbolize five functions of virtuous mind. Yudhishthira is symbolic of a righteous mind/dharma, Bheema is symbolic of mental power, Arjuna of will or determination, Nakula of restraint and Sahadeva of discrimination/viveka. Draupadi is the power of a virtuous mind. All these five functions(paandavaas) and their power(Draupadi) transform while entering in service of king Viraata. A righteous mind becomes submissive to the existence of vast expanse of consciousness/viraata and this situation generates happiness( As indicated by the word meaning of pseudo name Kanka of Yudhishthira). Mental power turns subtle( pseudo name - Ballava of Bheema) . Determination gets inactivated(as indicated by the word meaning eunuch assumed by Arjuna), but other qualities like love, compassion etc. which were lying dormant get a chance to bloom. Restraint and discrimination bind all senses and consciousness towards the ultimate aim and the power of a pure mind(Draupadi) becomes able to follow the directions of pure nature. This transformation in a devotee does not fully destroy the evils of an impure mind, but the inner powers of the devotee are constantly able to defeat them.
According to the story, Paandavaas have to spend 13th year of their forest dwelling remaining incognito. The 12 years are symbolic of 12 stages of human existence – five sensory organs, five action organs, mind and intellect. There is a 13th stage beyond these 12, and that is the ego. The penances in the kingdom of Viraata are aimed at the devotion of submission to be practiced at this 13th level. The ego has to be merged into the vast expanse of consciousness.
Yudhishthira lives in the service of king Viraata teaching him the play of dice. He assumes the name Kamka/Kanka. The word meaning is to create pleasure. This can be explained in the way that a person devoted to vast consciousness does not question the events in this mortal world – why did this unpleasing event take place. He accepts the whole play – whether apparently good or bad - from his heart. He is able to know the inner play of this universe.
Bheema presents himself in the kingdom of vast consciousness as a cook. His name indicates the culling down of power(Bal-lava) for which the comments on Lava can be read. The duty of a cook is to ripen whatever is unripe.
Arjuna assumes the form of an eunuch in the kingdom of vast consciousness. Inactivation of the power of concentration is like becoming an eunuch. This power now surges for the benefit of the inner chamber. Our heart is the inner chamber which is the abode of Uttaraa, symbolizing love, and which is the abode of other girls symbolizing other emotional aspects of heart such as compassion etc. The surging of emotions of heart has been symbolized in the story as teaching music and dance by the eunuch.
Nakula is an adept in the art of horses and is symbolic of restraint. The word meaning of his new assumed name is one who ties a knot. He may symbolize restraint of senses, to tie the senses with the ultimate goal.
Sahadeva is adept in the art of cows and he may symbolize the power of discrimination/viveka. His assumed named means one who is able to hold all the consciousness in one thread. This consciousness bound with one thread does not allow a person to diverge from his goal.
विराट की कथा के माध्यम से परम सत्ता के प्रति समर्पित मन का चित्रण
- राधा गुप्ता
पूर्व लेखों में महाभारत की कथाओं के माध्यम से प्रतिपादित साधना मार्ग के चार सोपानों का वर्णन किया जा चुका है । पहला सोपान है - अत्यन्त तुच्छ वासनाओं का त्याग जो 'लाक्षागृह - दाह' की कथा के माध्यम से वर्णित है । दूसरा सोपान है - विषय - सुखों में लिप्त हुई इन्द्रियों का निग्रह जिसे 'खाण्डव दाह' की कथा के माध्यम से वर्णित किया गया है । तीसरा सोपान है - स्वयं को देह मात्र मान लेने की भ्रमपूर्ण संकल्पना का नाश जिसका वर्णन 'जरासंध वध' की कथा के माध्यम से किया गया है । तथा चौथा सोपान है - अज्ञान - प्रसूत 'संयोग' से बचकर विराट ब्रह्माण्ड में व्याप्त गहन व्यवस्था को पहचानना जो 'शकुनि तथा युधिष्ठिर की द्यूतक्रीडा' के माध्यम से वर्णित है ।
साधना मार्ग के उपर्युक्त वर्णित चार सोपानों को पार करके साधक जिस पांचवें सोपान पर पहुंचता है - उसे 'परम सत्ता के प्रति सात्त्विक मन के समर्पण' के रूप में देखा जा सकता है । इस साधना को महाभारतकार ने विराट पर्व के ६९ अध्यायों के अन्तर्गत पाण्डवों द्वारा राजा विराट की सेवा के रूप में निरूपित किया है । साधना का यह पांचवां सोपान ही प्रस्तुत लेख का विषय है ।
कहानी में निहित आध्यात्मिक रहस्यों को जानने के लिए सर्वप्रथम कहानी को जानना आवश्यक है । यद्यपि कहानी अत्यन्त प्रसिद्ध तथा सर्व परिचित है, तथापि यहां उसका अत्यन्त संक्षिप्त रूप प्रस्तुत है ।
शकुनि के साथ युधिष्ठिर की द्यूतक्रीडा इस शर्त पर हुई थी कि जो हारेगा, वह १२ वर्ष वन में रहेगा तथा एक वर्ष अज्ञात रूप से रहकर व्यतीत करेगा । तदनुसार जब युधिष्ठिर हार गए, तब शर्त के अनुसार वे भाईयों तथा पत्नी के साथ १२ वर्ष वन में रहे तथा एक वर्ष अज्ञात रूप से रहने के लिए विराट नगर में चले गए । विराट नगर में प्रवेश करने से पूर्व उन्होंने अपने शस्त्रास्त्र शमी वृक्ष के ऊपर छिपाकर रख दिए। द्रौपदी सहित पांचों पाण्डव एक - एक करके राजा विराट की सेवा में प्रस्तुत हुए । युधिष्ठिर ने कंक नाम धारण कर द्यूतक्रीडा द्वारा राजा का मनोरंजन किया । भीम ने बल्लव नामक रसोईया बन कर स्वादिष्ट व्यञ्जनों से राजा विराट का पोषण किया । अर्जुन ने बृहन्नला नामक नपुंसक बनकर राजा के अन्त:पुर में रहने वाली राजकन्या उत्तरा तथा अन्य कन्याओं को संगीत एवं नृत्य की शिक्षा दी । नकुल अश्व - विद्या में निपुण था, अतः ग्रन्थिक नाम धारण कर अश्वशाला में अश्वों की देखभाल के लिए नियुक्त हो गया । सहदेव गो विद्या में निपुण था, इसलिए तन्तिपाल नाम धारण कर गोशाला में गोधन की सुरक्षा हेतु नियुक्त किया गया तथा द्रौपदी सैरन्ध्री बनकर राजा विराट की रानी सुदेष्णा की सेवा में नियुक्त हो गई । विराट नगर में अज्ञात रूप से रहते हुए पाण्डवों को कोई भी पहचान न सका । जैसे - जैसे अज्ञातवास का एक वर्ष पूरा होता जा रहा था, वैसे - वैसे हस्तिनापुर में दुर्योधन प्रभृति कौरवों की चिन्ता बढती जा रही थी । राजा विराट की नगरी में पाण्डवों के छद्मवेश में होने की सम्भावना पर विचार करते हुए कौरवों में सर्वसम्मति से यह निर्णय हुआ कि राजा विराट की नगरी पर आक्रमण करके उसके गोधन का हरण कर लिया जाए । यदि पाण्डव छद्म वेष में वहां होंगे तो आक्रमण का सामना करने के लिए निश्चित रूप से बाहर आएंगे । अतः योजनानुसार पहले कौरवों के सहयोगी त्रिगर्त्त नरेश सुशर्मा ने विराट नगरी पर आक्रमण किया, परन्तु छद्म वेष धारी पाण्डवों से पराजित हो गया । तदनन्तर कौरवों ने पुनः विराट नगरी पर आक्रमण करके वहां के गोधन का हरण कर लिया । इस बार बृहन्नला रूप धारी अर्जुन ने विराट के पुत्र उत्तर का सारथि बन कर उस आक्रमण का सामना किया और उत्तर को अपना वास्तविक स्वरूप बताकर कौरव सेना को पराजित किया । अज्ञातवास का एक वर्ष पूर्ण हो चुका था, इसलिए उत्तर ने राजा विराट के पास पहुंचकर अन्य सभी पाण्डवों का भी यथार्थ परिचय राजा से कह सुनाया । राजा विराट ने पाण्डवों का यथोचित सम्मान किया तथा युधिष्ठिर को राज सिंहासन पर बैठाया ।
कहानी पूरी तरह प्रतीकात्मक है और इस आध्यात्मिक तथ्य को निरूपित करती है कि जैसे - जैसे मनुष्य का सात्त्विक मन विराट अस्तित्व में अनुस्यूत गहन व्यवस्था को पहचानने लगता है, वैसे - वैसे वह शम को प्राप्त होकर परम सत्ता के प्रति पूर्ण समर्पित हो जाता है । समर्पित हुए इस सात्विक मन के सभी व्यापार(वृत्तियां) पहले जैसे नहीं रहते । उसमें कुछ इस प्रकार के सूक्ष्म रूपान्तरण घटित हो जाते हैं कि स्वयं के अतिरिक्त दूसरा कोई भी व्यक्ति इस रूपान्तरण को पहचान नहीं पाता । धर्मनिष्ठा नामक सात्त्विक व्यापार (युधिष्ठिर) का रूपान्तरण समग्र अस्तित्व के प्रति स्वीकार भाव में हो जाने से यह स्थिति प्रसन्नतादायक(कंक ) बन जाती है । मनोबल नामक व्यापार(भीम) सूक्ष्म बल(बल्लव) में रूपान्तरित हो जाता है । संकल्प नामक व्यापार(अर्जुन) यद्यपि अक्रियाशील(नपुंसक) हो जाता है, तथापि वही व्यापार रूपान्तरित होकर हृदय - धरातल पर बिखरे पडे प्रसुप्त सदृश प्रेम, करुणा, दया प्रभृति भावों को उद्दीप्त करके जीवन में संगीत का सृजन करने लगता है । संयम नामक व्यापार(नकुल) रूपान्तरित होकर सभी इन्द्रियों को समर्पण रूपी एक लक्ष्यता में बांध देता है (ग्रन्थिक) । विवेक नामक व्यापार (सहदेव) रूपान्तरित होकर चेतना को अखण्डित बनाए रखने में सहयोगी हो जाता है (तन्तिपाल) । इस प्रकार सात्विक मन की सारी शक्ति(द्रौपदी) परम सत्ता की निर्देशना का सम्यक् पालन करने में प्रवृत्त हो जाती है । अहंकार का शमन करने में यही समर्पण साधना नितान्त समर्थ तथा उपयोगी होती है । परन्तु समर्पण साधना की इस उच्चतर स्थिति में भी असद् मन की दुष्चेष्टाओं का पूर्णतः अन्त नहीं होता, केवल साधक की अन्त:शक्तियां उन्हें सतत् पराजित करती रहती हैं ।
अब हम एक - एक प्रतीक को लेकर तथ्यों को समझने का प्रयास करें ।
कहानी में कहा गया है कि पाण्डव १२ वर्ष वन में रहकर १३वें वर्ष में विराट नगर में राजा विराट की सेवा में रहे ।
वर्ष का अर्थ है - स्थान अथवा स्तर । १२ स्तरों - पांच ज्ञानेन्द्रियों, पांच कर्मेन्द्रियों, मन तथा बुद्धि की साधना करने के पश्चात् मनुष्य व्यक्तित्व का एक तेरहवां स्तर भी है - अहंकार । अहंकार के स्तर पर साधना करने के पश्चात् ही जीवन के आत्यन्तिक लक्ष्य मोक्ष की तरफ अग्रसर हुआ जा सकता है । विराट नगर की कथा के माध्यम से इसी १३वें अहंकार नामक स्तर पर की जाने वाली समर्पण साधना को इंगित किया गया है । यह साधना परम सत्ता(विराट राजा) को केन्द्र में रखकर उसी परम सत्ता के नियमों के अनुपालन में अपने अहंकार को अर्पित करके की जाती है ।
कहानी में कहा गया है कि द्रौपदी सहित पांचों पाण्डव अपने - अपने नाम और रूप को बदलकर राजा विराट की सेवा में उपस्थित हुए ।
विराट नगर विराट ब्रह्माण्ड का प्रतीक है तथा राजा विराट इस विराट ब्रह्माण्ड में व्याप्त परम सत्ता का प्रतिनिधित्व करता है । पांचों पाण्डव सात्विक मन के पांच व्यापारों - धर्मनिष्ठा(युधिष्ठिर), मनोबल(भीम), संकल्प व एकाग्रता(अर्जुन), संयम(नकुल) तथा विवेक(सहदेव ) को इंगित करते हैं । द्रौपदी उपर्युक्त पांच व्यापारों वाले सात्विक मन की शक्ति का प्रतीक है । सात्विक मन के सभी व्यापारों का रूपान्तरित होकर परम सत्ता के प्रति समर्पित होना ही पाण्डवों एवं द्रौपदी का नाम - रूप बदल कर राजा विराट की सेवा में उपस्थित होना है । यहां यह महत्त्वपूर्ण संकेत किया गया है कि सात्विक मन अपने उपर्युक्त वर्णित स्वरूप से परम सत्ता के प्रति समर्पित नहीं हो सकता क्योंकि उसमें अहं का अंश विद्यमान रहता है । अतः समर्पित होने के लिए उसका रूपान्तरित होना अनिवार्य है ।
*युधिष्ठिर कंक बनकर द्यूतक्रीडा द्वारा राजा विराट का मनोरंजन करता है ।
युधिष्ठिर का अर्थ है - सात्विक मन का धर्मनिष्ठा नामक व्यापार । कंक का अर्थ है - कं+ क अर्थात् प्रसन्नता प्रदान करने वाली स्थिति । द्यूतक्रीडा का अर्थ है - अज्ञान - प्रसूत 'संयोग' तथा ज्ञान - प्रसूत 'व्यवस्था' को सम्यक् रूप से समझना । गहन व्यवस्था को समझते हुए तदनुरूप रहना ही परम सत्ता रूप विराट राजा का मनोरंजन करना है । अधिक स्पष्ट रूप में इसे इस प्रकार भी समझ सकते हैं कि जैसे ही व्यक्ति गहन व्यवस्था को स्वीकार करके तदनुसार जीवन जीने लगता है, वैसे ही ऐसा कोई प्रश्न उसके भीतर नहीं उठता कि ऐसा क्यों हुआ? वैसा क्यों हुआ? ब्रह्माण्ड में क्रियाशील परम सत्ता के अनन्त नियमों के आधार पर जैसा भी - अच्छा या बुरा, सुख या दुःख - जो कुछ भी जीवन में आ रहा है, उस सबको वह समान रूप से स्वीकार करता है । यह समग्र स्वीकार की स्थिति ही जीवन में सुख लाती है, प्रसन्नता लाती है क्योंकि जीवन में दुःख या अप्रसन्नता आने का एकमात्र कारण यही है कि हम अस्तित्व को समग्र रूप में स्वीकार नहीं करते । सुख को चाहते हैं परन्तु दुःख से इंकार करते हैं । सफलता चाहते हैं परन्तु असफलता से इंकार करते हैं । जो हमारे पास है, उसकी तरफú देखते नहीं परन्तु जो नहीं है, उसकी चाहना करते हैं । अतः गहन व्यवस्था को समझते हुए परम सत्ता या अस्तित्व को समग्र रूप में स्वीकार करना ही द्यूतक्रीडा द्वारा राजा विराट का मनोरंजन करना है । धर्मनिष्ठ सात्विक मन ही इस स्थिति में रूपान्तरित होता है तथा यह स्थिति प्रसन्नता प्रदायक होती है , इसलिए कहानी में इसे युधिष्ठिर का कंक बनना कहा गया है ।
*भीम बल्लव नाम धारण कर विराट राजा की सेवा में उपस्थित होता है और रसोईया बनकर सुस्वादु व्यञ्जनों द्वारा राजा को सन्तुष्टि प्रदान करता है ।
भीम सात्विक मन के 'मनोबल' नामक व्यापार का प्रतीक है । यही मनोबल कठिन परिस्थितियों से जूझने में हमारी सहायता करता है । बल्लव शब्द दो शब्दों से बना है - बल +लव । लव का अर्थ है - सूक्ष्म । अतः बल्लव का अर्थ हुआ - सूक्ष्म बल । परम सत्ता के प्रति समर्पित सात्विक मन जीवन में उपस्थित होने वाली प्रत्येक स्थिति को - चाहे वह सुख की हो या दुःख की - समान भाव से स्वीकार करता है , अतः समर्पण अवस्था में सरल अथवा कठिन परिस्थिति जैसे शब्द अपना अस्तित्व नहीं रख पाते । इसलिए इस अवस्था में मनोबल सूक्ष्म रूप धारण करके अवस्थित हो जाता है । यही भीम का बल्लव नाम धारण करना है । जैसे रसोइया सुस्वादु व्यञ्जन बनाकर, खिलाकर हमें संतुष्टि, संपुष्टि प्रदान करता है, उसी प्रकार परम सत्ता की इच्छा से जीना उसका पोषण ही है ।
* अर्जुन बृहन्नला नामक नपुंसक बनकर राजा विराट की सेवा में उपस्थित होता है और अन्त:पुर में स्थित विराट - कन्या उत्तरा एवं अन्य कन्याओं को संगीत एवं नृत्य की शिक्षा प्रदान करता है ।
अर्जुन संकल्प एवं एकाग्रता का प्रतीक है । परमात्मा के प्रति समर्पित होने पर मन के इस संकल्प एवं एकाग्रता नामक व्यापार का अक्रियाशील हो जाना ही अर्जुन का नपुंसक होना है । अन्त:पुर हमारा हृदय है जिसमें प्रेम भाव की प्रतीक विराट - कन्या उत्तरा का एवं दया, ममता, परोपकार प्रभृति अन्य हृदयगत भावों की प्रतीक कन्याओं का निवास है । समर्पण से पहले जो शक्ति संकल्प के रूप में कार्य करती थी, वही शक्ति समर्पण होने पर हृदयगत भावों का उद्दीपन करके जीवन में लयात्मकता का उद्भव कर देती है । ऐसा नहीं होता कि समर्पण से पहले हृदय में दया, प्रेम, करुणा आदि भाव नहीं होते । वे होते तो पहले से ही हैं, परन्तु क्रियाशील नहीं रहते । समर्पण अवस्था में वे ही प्रसुप्त से पडे भाव क्रियाशील हो उठते हैं । हृदयगत भावों के उद्दीपन से जीवन में संगीत एवं नृत्य का प्रस्फुटन ही कन्याओं को संगीत एवं नृत्य की शिक्षा देना कहा गया है । बृहन्नला - बृहत् +नर - शब्द नपुंसकता की विशिष्टता को इंगित करने के लिए ही है ।
*नकुल अश्वविद्या में निपुण है और सात्विक मन के संयम नामक व्यापार का प्रतीक है । वह ग्रन्थिक नाम धारण कर राजा विराट की सेवा में उपस्थित होता है और अश्वों की सुरक्षा आदि के कार्य में नियुक्त हो जाता है ।
यहां अश्व का अर्थ है - इन्द्रिय तथा ग्रन्थिक का अर्थ है - ग्रन्थि + क अर्थात् गूंथने या बांधने का कार्य करने वाला । इन्द्रियों का नियमन, संयमन करने वाला सात्विक मन का नकुल नामक व्यापार जब सभी इन्द्रियों को सर्वत्र भगवत्सत्ता की उपस्थिति रूप एक लक्ष्य में बांध देता है, तब ग्रन्थिक बन जाता है ।
*सहदेव गोविद्या में निपुण है और सात्विक मन के विवेक जैसे किसी उच्चतर व्यापार का प्रतीक कहा जा सकता है । वह तन्तिपाल बनकर राजा विराट की गौओं का पालन तथा रक्षण कार्य करने लगता है ।
यहां गो का अर्थ है - चेतना तथा तन्तिपाल का अर्थ है - तन्ति+पाल अर्थात् सूत्र या रस्सी का पालन करने वाला । सात्विक मन का यह सहदेव नामक व्यापार जब रूपान्तरित होकर एक सूत्र में पिरी हुई समग्र चेतना का पालन करता है, तब तन्तिपाल हो जाता है । अर्थात् सारे शरीर में फैली हुई चेतना अब परम सत्ता के प्रति समर्पण रूप एक सूत्र में बंध जाती है और यही एक सूत्र में बंधी हुई चेतना मनुष्य को लक्ष्य से विचलित नहीं होने देती ।
*द्रौपदी सैरन्ध्री अर्थात् परिचारिका बनकर राजा विराट की पत्नी सुदेष्णा की सेवा में उपस्थित होती है ।
द्रौपदी सात्विक मनःशक्ति की प्रतीक है । सुदेष्णा का अर्थ है - सु+देशना अर्थात् श्रेष्ठ निर्देशना । इस श्रेष्ठ निर्देशना का तात्पर्य क्या है? इसे सरलता से समझने के लिए हमें श्रीमद्भगवद्गीता के केन्द्रीय स्वर को ध्यान में लाना होगा क्योंकि वह केन्द्रीय स्वर ही श्रेष्ठ निर्देशना है । श्रीमद्भगवद्गीता में कृष्ण पुनः - पुनः अर्जुन से कहते हैं कि हे अर्जुन! तू मेरा स्मरण कर, मेरा भजन कर, मेरा यजन कर । अर्थात् सबसे पहले तू इस विराट जगत् के प्रत्येक जड - चेतन पदार्थ को ध्यान से देख । तभी तुझे पता चलेगा कि प्रत्येक जड - चेतन पदार्थ के केन्द्र में मैं अर्थात् परम सत्ता विद्यमान है तथा परिधि पर नाना नाम रूप वाले शरीर स्थित हैं । केन्द्र में विद्यमान परम सत्ता सदा अपरिवर्तित है परन्तु परिधि पर विद्यमान नाना नामरूपात्मक शरीर सतत् परिवर्तनशील है । केन्द्र में विद्यमान परम सत्ता निर्देशक की भांति है तथा परिधि पर विद्यमान शरीर उस निर्देश का पालन करने वाले की भांति है । केन्द्र और परिधि दोनों के इस शाश्वत सत्य को भलीभांति समझकर, पहचानकर तदनुसार जीवन जीना ही मेरा स्मरण, भजन तथा यजन है । मनुष्य को चाहिए कि वह जीवन के केन्द्र में परम सत्ता को रखे तथा परिधि पर देहभावासक्त स्वयं को रखे । परम सत्ता जब - जब जैसे - जैसे उसे रखना चाहे, तब - तब वैसे - वैसे ही वह रहे । यही सु देशना अथवा श्रेष्ठ निर्देशना है । परन्तु स्थिति बिल्कुल विपरीत है । मनुष्य जीवन के केन्द्र में शरीर को तथा परिधि पर परमसत्ता को रखता है । उसका भाव यही रहता है कि परम सत्ता उसके निर्देश के अनुसार उसकी इच्छा के अनुसार चले । जब वह चाहे धन, तब वह धन दे दे । जब वह चाहे मोक्ष, तब वह मोक्ष दे दे । वह जब - जब जो - जो चाहे, तब - तब वह परमसत्ता उसके लिए वह - वह कार्य कर दे । इस विपरीत स्थिति का कारण यही है कि समर्पित सात्विक मनःशक्ति(सैरन्ध्री) ही श्रेष्ठ निर्देशना का पालन करने में समर्थ हो सकती है । जब तक मनुष्य को यह सात्विक एवं समर्पित मनःशक्ति उपलब्ध नहीं हो जाती, तब तक उसका जीवन सु - देशना के अनुसार नहीं चल सकता । यह सुदेशना सदा सर्वदा परम सत्ता के साथ ही रहती है, इसलिए कहानी में इसे विराट राजा की पत्नी कहा गया है ।
उपर्युक्त वर्णन के आधार पर समर्पण अवस्था में सात्विक मन की रूपान्तरित स्थिति अत्यन्त स्पष्ट हो जाती है ।
*यह रूपान्तरित स्थिति दूसरों के लिए अज्ञात रहती है, अर्थात् कोई भी व्यक्ति किसी दूसरे व्यक्ति की इस स्थिति को जान नहीं पाता, इसलिए कहानी में पाण्डवों का अज्ञातवास कहकर चित्रित किया गया है ।
*विराट नगर में प्रवेश करने से पूर्व पाण्डवों ने अपने सभी अस्त्र - शस्त्र नगर के बाहर ही स्थित शमी वृक्ष पर छिपा कर रख दिए, ताकि नगर में कोई उन्हें पहचान न सके ।
चूंकि अज्ञातवास की साधना अहंकार से मुक्ति की साधना है, अतः यह कथन इस तथ्य का संकेत है कि नाम, पद आदि के रूप में हमारी पहचान ही हमारे अहंकार को बनाए रखती है । अहंकार से मुक्त होने के लिए इस पहचान से मन को मुक्त करना आवश्यक है । परम सत्ता के प्रति समर्पित होने से पहले अपनी पहचान - मैं, मेरा नाम, मेरा पद - को बाहर ही छोड देना चाहिए क्योंकि उस साधना में अहंकार का स्वरूप ले लेने वाली यह पहचान बाधक है । शमी वृक्ष शमयुक्त(शान्त) मन को इंगित करता है । समर्पण से पहले मन का शान्त होना अनिवार्य है ।
*कहानी में कहा गया है कि पाण्डवों को अज्ञातवास की अवधि में ढूंढकर पुनः वनवास के दु:खों में डालने के लिए कौरवों ने दो बार विराट नगर पर आक्रमण किया परन्तु दोनों बार उन्हें असफलता ही हाथ लगी ।
यह कथन इस तथ्य को इंगित करता है कि सात्विक मन की समर्पित अवस्था में भी हमारा असात्विक मन क्रियाशील रहता है और उसकी कुचेष्टाएं बन्द नहीं होती, भले ही सात्विक मन के द्वारा वह निरन्तर पराजित एवं असफल होता रहे ।
*कहानी में कहा गया है कि सैरन्ध्री के रूप में रानी सुदेष्णा की परिचर्या करने वाली द्रौपदी पर सुदेष्णा का चचेरा भाई कीचक कामासक्त दृष्टि रखता है तथा उसे बलपूर्वक अपने अधिकार में करना चाहता है । पीडित सैरन्ध्री के अनुरोध पर बल्लव रूप धारी भीम अतिबलशाली कीचक का वध कर देता है ।
कीचक आत्मप्रशंसा का प्रतीक है । जैसे हवा चलने से खोखला बांस शब्दायमान होता रहता है, उसी प्रकार गुणहीन भी अपनी प्रशंसा के गीत गाता है । कहानी के माध्यम से यह संकेत किया गया प्रतीत होता है कि यद्यपि सात्विक मनःशक्ति(सैरन्ध्री) और आत्मप्रशंसा नामक वृत्ति(कीचक) का परस्पर न तो कोई सम्बन्ध है तथा न ही हो सकता है, तथापि यदि कभी आत्मप्रशंसा की वृत्ति सात्विक मनःशक्ति पर मोहित होकर उसे पीडित करती है, तब सात्विक मन में ही स्थित सूक्ष्म बल इस दुर्वृत्ति का नाश कर मनःशक्ति की रक्षा करता है । अर्थात् मनुष्य का अपना ही बल अपनी ही कुवृत्ति से अपनी रक्षा कर लेता है ।
*कहानी में राजा विराट के दो भाईयों का भी उल्लेख है । विराट से छोटे भाई का नाम शतानीक एवं उसी का दूसरा नाम सूर्यदत्त है । तथा सबसे छोटे भाई का नाम विशालाक्ष एवं उसी का दूसरा नाम मदिराक्ष कहा गया है ।
राजा विराट परम सत्ता का प्रतीक है । चूंकि परम सत्ता ही इस विराट जगत् के रूप में प्रकट है, अतः यह विराट जगत् ही राजा विराट का छोटा भाई कहा जा सकता है । इसका नाम शतानीक है । शतानीक का अर्थ है - शत +अनीक अर्थात् सहस्र संख्य सेना । जैसे सेना राजा के आगे - आगे चलती है, उसी प्रकार से यह दृश्यमान जगत् ही उस अदृश्य परम सत्ता के आगे - आगे चलता है , अतः इसे शतानीक कहना सार्थक ही है । शतानीक का दूसरा नाम सूर्यदत्त है । साहित्य जगत में सूर्य भी परम सत्ता का वाचक कहा जाता है । परम सत्ता की सत्ता से ही जगत की सत्ता है , अतः सूर्यदत्त नाम भी उचित ही है ।
यह दृश्यमान जगत मनुष्य को आकर्षित भी करता है और मोहित भी । इसलिए इसे विशालाक्ष तथा मदिराक्ष नामक सबसे छोटा भाई भी कहा जा सकता है ।
*इसी प्रकार कहानी में राजा विराट की दो पत्नियों तथा उनके दो पुत्रों का उल्लेख है । पहली पत्नी का नाम सुरथा तथा उसके पुत्र का नाम श्वेत है । दूसरी पत्नी का नाम सुदेष्णा तथा उसके पुत्र का नाम उत्तर है ।
इन उल्लेखों से जगत की दो प्रकार की गतियों की ओर संकेत किया गया प्रतीत होता है । पहली गति है - विस्तार की तथा दूसरी गति है - विकास की(horizontal and vertical evolution) । सुरथा एवं उसके पुत्र श्वेत से विस्तार गति को इंगित किया गया है । रथ कहते हैं - शरीर को । जगत रूप से प्रकट होने के लिए जो शक्ति परम सत्ता को अनन्त शरीर उपलब्ध कराती है, वही परम सत्ता की सहायिका सुरथा नामक पहली पत्नी है । सुरथा का पुत्र श्वेत है । श्वेत शब्द 'श्वि' धातु से बना है , जिसका अर्थ है – बढना, विकसित होना । पुत्र को पौराणिक साहित्य में गुण का प्रतीक माना जाता है , अतः 'सुरथा का पुत्र श्वेत' है - यह कहना इंगित करता है कि वह सुरथा बढने या विस्तार गुण वाली है ।
इसी प्रकार सुदेष्णा एवं उसके पुत्र उत्तर से विकास गति को इंगित किया गया है । क्योंकि सुदेष्णा का अर्थ है - सुनिर्देशना तथा उत्तर का अर्थ है - उच्च या ऊंचा । अतः 'सुदेष्णा का पुत्र उत्तर' है - यह कहना इंगित करता है कि परम सत्ता की दूसरी पत्नी सुनिर्देशना उच्चता के गुण से युक्त है ।
कहानी में श्वेत के ही एक अन्य नाम 'शंख' का तथा उत्तर के भी एक अन्य नाम 'भूमिञ्जय' का उल्लेख है , जो तद् तद् अर्थ के ही समानार्थी हैं ।
*स्वपुत्र उत्तर के माध्यम से ही राजा विराट को पाण्डवों का यथार्थ परिचय प्राप्त होता है । राजा विराट पाण्डवों का यथोचित सम्मान करके युधिष्ठिर को अपने सिंहासन पर बैठा देते हैं ।
इसका तात्पर्य यही है कि यद्यपि किसी भी व्यक्ति का समर्पित सात्विक मन दूसरों के लिए अज्ञात बना रहता है, परन्तु जीवन - व्यवहार में उसकी उच्चतर गति उसका यथार्थ परिचय करा ही देती है । ऐसा समर्पित सात्विक मन आत्म सत्ता के पद पर आरूढ होने के सर्वथा योग्य ही होता है ।
वि-राज्
१. अथैतद्वामेऽक्षणि पुरुषरूपम् । एषास्य ( दक्षिणे ऽक्षणि वर्तमानस्येन्द्राख्यस्य पुरुषस्य ) पत्नी विराट् । माश १४,६,११,३ ।
२. अथैते दैवी च मानुषी च विराजौ । तयोरेष एतदादित्योऽध्यूढस्तपति । चतस्रो दिशश् चत्वारो ऽवान्तरदेशा द्वाविमौ लोकौ । एषा दैवी विराट् । अथ मानुषी । चत्वारोऽत्तारष् षडाद्याः। ब्राह्मणश्च राजन्यश्च वैश्यश्च शूद्रश्चैतेऽत्तारः। गौश्चाश्वश्चाजश्चाविश्च व्रीहिश्च यवश्चैत आद्याः। जै १.२५२ ।
३. इयं ( पृथिवी ) वाव विराट् । क ४०.२ ।
४. एषा वै परमा विराड् यच्चत्वारिꣳशद्रात्रयः पङ्क्तिर्वै परमा विराट् । तां २४,१०,२ ।
५. एषा वै स्तनवती विराड् यङ्कामङ्कामयते तमेतां दुग्धे । तां २०,१,५ ।
६. ओदनपचनो गार्हपत्य आहवनीयो मध्याधिदेवनमामन्त्रणम्, एषा वै विराट् पञ्चपदा,... यस्य ह्येषावरुद्धा स मनुष्याणाꣳ श्रेष्ठो भवति । काठ ६,८ ।
७. चतुर्धा ह्येतस्याः ( विराजः ) दश दशाक्षराणि। मै १,११,१० ।
८. त ( देवाः ) एतं विराजं यज्ञमपश्यन् । तमाहरन् । तेनायजन्त । ततो वै ते विराजमन्नाद्यमवारुन्धत । जै २,८५।
९. ता एतास्तिस्रो विराजो दैवी यज्ञिया मानुषी, सैषा दैवी विराड् यदिमे लोकाः ।
जै १,२४६ ।
१०. त्रयस्त्रिंशदक्षरा (+वै कौ. माश.J) विराट् । तैसं २,५,१०,३; कौ १४,२, १८.५; माश ३, ५,१,८।
११. त्रिꣳशदक्षरा ( +वै [ऐ., माश.)) विराट्। मै १,१०,८; काठ ३३, ३, ३६,२; ऐ ४,१६;
८,४; जै २,५९; ३,५; तां १०,३,१२; तै १,६,३,४; ३,८,१०,४; माश ३,५,१,७ ।
१२. त्रिपदा विराट् । मै ३,४,६; काठ २१,५; क ३१,२० ।
१३. त्रिर्वा इदं विराड् व्यक्रमत गार्हपत्यमाहवनीयꣳ सभ्यम् । मै १,६,११ ।
१४. दश च ह वै चतुर्विराजो ऽक्षराणि । गो १,५,२० ।
१५. दशदशिनी विराट् । कौ २,३: १७,३; १९,५, ७ ।
१६. दशाक्षरा ( + वै माश.J) विराट् । तैसं २, ६, १, २; काठसंक ५४:९; ऐ ६,२०; गो १,४,२४, २,१,१८; ६,२; १५; जै १,१३२; १६५, २,१७०, ३,२४२; तां ३,१३,३; माश १,१,१,२२ ।
१७. तस्य दश कृत्वः प्ररोहति। षट् कृत्वः पूर्वयोश् चतुर् उत्तमायै। ते दश प्ररोहास् संपद्यन्ते। दशाक्षरा विराड् अन्नं विराट्। य एवासौ तपत्य् एष एव विराट्। एतस्मिन्न् एव तत् स्वर्गे लोके ऽन्ततः प्रतितिष्ठन्ति॥ जै १,३४० ।
१८. दशालभ्यन्ते, दशाक्षरा विराड्, विराडेतान्येवेन्द्रियाणि वीर्याण्यात्मन्धित्वेयꣳ (पृथिवी) विराडस्यामेव प्रतितिष्ठति । मै २,५,१० ।
१९. दित्यवाड् वयो विराट् छन्दः । तैसं ४,३,५,१; मै २,८,२ ।
२०. देवपात्रं वै विराट् । काठ २८,३; क ४४,३ ।
२१. पञ्चपदा वै विराट् । तस्या वा इयं ( पृथिवी ) पादः । अन्तरिक्षं पादः। द्यौः पादः । दिशः पादः । परोरजाः पादः । तैआ १,२५,३ ।
२२. पञ्चाविर्वयो विराट् छन्दः। काठ १७,२ ।
२३. पष्ठवाहो विराजे । मै ३,१३,१८।।
२४. यद्वै विराजस्तेजस्तदाग्नेयः । काठ २९, ७ ।
२५. याष्षष्टिस् ( स्तोत्रियाः ) सा विराट् । जै २,१११।।
२६. विराजमभ्यक्रन्दत् । ततो ऽप्सरसो ऽसृजत त्वष्टृमुखाः । जै ३,३८१ ।
२७ विराज्यग्निश्चेतव्यः । काठ २०,५ ।
२८. विराट् छन्दस्तद्वाग् वरुणो देवता । काठ ३९,४ ।
२९. विराडसि सपत्नहा । तैसं १, ३, २, १।।
३०. विराड्ढीयम् (पृथिवी ) । माश २,२,१,२० ।
३१. विराड् दिशां विष्णुपत्नी । काठ २२, १३ ।
३२. विराड् विरमणाद्विराजनाद्वा । दै ३, १२ ।
३३. संवत्सरो विराट् । तैसं ५, ६, ७, २; काठ २१, ५; क ३१,२० ।
३४. प्रजननी स्तोमो विराजं चानुष्टुभं चाभिसंपद्यते। संपन्नमिव वा एतच्छन्दः पूर्णमिव प्रजननं यद्विराट् । अन्त उ वा एष छन्दसां यत् अनुष्टुब् इति। जै २, ९५ ।
३५ सर्वदेवत्यं वा एतच्छन्दो यद्विराट् । माश १३,४,१,१३ ।
३६. सहस्राक्षरा वै परमा विराट् । तां २५, ९, ४ ।
३७. सा (वाक् ) चतुर्थमहः प्राप्य विराड् भवति । तूष्णीं निषद्यम् । जै २, १ ।
३८. सा विराट् त्रयस्त्रिंशदक्षरा भवति । ऐ २, ३७ ।
३९. सा विराड् विक्रम्यातिष्ठद् ब्रह्मणा देवेषु । तैसं ७, ३, ९, १ ।
४०. स्त्रिया विराट । काठ ३५, १५।
४१. स्रुग्वै विराट् । तैसं ५, २, ७, ५; काठ २०, ५; क ३१, ७ ।
४२. स्वर्गों वै लोको विराड् । काठ ३३,२ ॥
[राज- अक्षर- ७ तां ८.६.१४;
अग्नि- ४१ काठ २३.८; २३७ काठ १८.१९; ६९२ माश ६.३.३.४५, ३.१.२१, ८.२.१२, ९.१.१.३१; ६९४ तै १.२.२.२७ ;
अग्निष्टोम- ३४ कौ १५.५;
अदिति- ५० तैसं ४.२.१०.२ ;
अनाधृष्ट, ष्टा- ३ माश ८.२.४.४;
अन्न- १७ ऐ १.५, तैसं २.५.१०.३, ६.१.२, काठ ३६.२, काठसंक ५४, कौ ९.६, १२.३, जै १.१३२, १६५, २०४, ३०६, ३३१, २.८, १३, तां ४.८.४, तै १.६.३.४, ८.२.२; ४२ ऐर १.५.२; ४३ मै १.६.११, ३.२.९, ऐ १.५, ४.११, ५.१९, ६.२०, जै १.२.२९, माश ७.५.२.१९;
अन्नाद्य- ८ कौ १४.२; १५ तैसं २.२.५.३ , १९ ऐ ४.१६, ८.४, २१ कौ १.१, २.३, १२.२, १५.५, २२ गो १.५.२०, २.६.१५ ; अश्व- ९३ मै २.१३.१४ ; आग्नेय- ४१ मै ४.७.३;
आदित्य- ३३१ जै १.३१४;
उपरव- ४ काठ २५.९, क ४०.२;
ऊधस्- काठ २५.९;
ऊर्ज-७ काठ ३३.३, तै १.२.२.२;
क्षत्र—५८ जै २.१३१; गायत्री- १६ जै २.३३५;
गो- २५ मै ४.२.३ ;६० तां ४.९.३;
चक्षुस्-६२ मै ३.२.९,
चन्द्रमस्-६९ जै १.२४६;
छन्दस्-३९ मै ३.८.४ ,९३ जै ३.३००, १०२ तैसं ५.३.२.३; काठ २०.११, क ३१.१३, तां १०.२.२ १०३ मै ३.४.६;
जमदग्नि- ७ तैसं ३.३.५.२;
ज्योतिष्मत्- ३ तैसं ४.४.८.१;
ज्योतिस्- ३२ मै ४.९.१३, तैआ ४.२१.१;
त्रयस्त्रिंश- २५ जै ३.३०१ ;
दक्षिण,णा- ५१ तै ४.३.६.२, मै २.८.३, काठ १७.३;
दशन् – १ जै १.२३५, २.३२३;
दिव्- ४२ काठ २०.६;
दीक्षा- ४ काठ २१.५,
ध्रुव- १० तैसं ३.१.६.३;
नाभि- ७ जै १.२४६;
पशु-१०० काठ २१.४, क ३१.१९, १५१ जै २.१११ १८२ मै १.६.६;
पुरुष-मेध- ५ गो १.५.८,
पुरुष-सम्पद्- जै १.२३५;
पृथिवी- २० माश ७.४.२.२३; ६२ तैसं ५.५.४.१, काठ २५.९, माश १२.६.१.४०, गो २.६.२,
अथैतौ विराट्स्वराजौ। देवा वा अकामयन्त - विराजम् अन्नाद्यम् अवरुन्धीमहि, विराज्य् अन्नाद्ये प्रतितिष्ठेमेति। त एतं विराजं यज्ञम् अपश्यन्। तम् आहरन्। तेनायजन्त। ततो वै ते विराजम् अन्नाद्यम् अवारुन्धत जै २.८५
इयं वै रथन्तरम्। इयम् उ वै विराट्। य उ वा अस्यै भूयिष्ठं परिगृह्णाति स विराजति। अन्नं विराट्। जै २.८५
प्रजनन- १४;
ता
एतास्
तिस्रो
विराजो
दैवी
यज्ञिया
मानुषी।
सैषा
दैवी
विराड्
यद्
इमे
लोकाः।
सा
न्यूना।
यजमानावधानायैव
तन्
न्यूना।
तद्
अन्तर्
यजमानम्
अवदधाति।
तस्या
एतस्यै
चन्द्रमा
एवापिधानम्।
एतद्
धि
देवानां
प्रत्यक्षम्
अन्नाद्यं
यच्
चन्द्रमाः॥
अथैषा
यज्ञिया
विराड्
यद्
एता
बहिष्पवमान्यः।
सा
न्यूना।
यजमानावधानायैव
तन्
न्यूना।
तद्
अन्तर्
यजमानम्
अवदधाति।
तस्या
एतस्यै
हिंकार
एवापिधानम्।
हिंकारेण
ह्य्
एव
देवेभ्यो
ऽन्ततो
ऽन्नाद्यं
प्रदीयते॥
अथैषा
मानुषी
विराड्
यद्
इमे
पुरुषे
प्राणाः।
सा
न्यूना।
स
उ
एव
यजमानप्रत्यक्षम्।
तस्या
एतस्या
अन्नम्
एवापिधानम्॥जै
१.२४६;
बृहत्- ३२;
भूत- ९३;
मांस- ९ जै २.५८;
यज्ञ- १६५ माश १.१.१.२२, २.३.१.१८, ४.४.५.१९;
एतद् ध वै राज्यं यद् विराट्। अथैतत् स्वाराज्यं यद् अनुष्टुप्। विराजैव कनीयान् राज्यं गच्छति, अनुष्टुभा ज्यायान् स्वाराज्यं लोकम् । तस्योभे बृहद्रथन्तरे सामनी भवतः। एतद् ध वै राज्यं यद् रथन्तरम्। अथैतत् स्वाराज्यं यद् बृहत्। जै २.९४
रोहिणी- ११ तै १.१.१०.६;
वरुण- १४ तैआ ५.१२.२;३२ तैआ ३.९.२; ४७ तैसं १.७.११.२; ५५ मै १.९.२, काठ ९.१०, गो २.२.९;
वाच्- ९३ मै ३.२.१०, जै ३.६७, माश ३.५.१.३४ ;
विद्युत्- १५ माश १२.८.३.११
वैराज ( सामन्- )
१. तद् वैराजपृष्ठं भवत्य् - अन्नं वै वैराजम् - अन्नाद्यस्यैवावरुद्ध्यै। जै २, ३६४ ।
२. अभ्य् एव रथन्तरेण क्रन्दति, रेत एव बृहता सिञ्चति, गर्भान् एव वैरूपेण दधाति, जनयत्य् एव वैराजेन, वर्धयत्य् एव शक्वरीभिर्, अन्नाद्यम् एव रेवतीभिः प्रदीयते। जै २, २ ।
३. वैराजः पुरुषो दश हस्त्या अङ्गुलयो दश पद्या दश प्राणास्तत् त्रिꣳशत् , त्रिꣳशदक्षरा विराट् । काठ ३६, ७ ।
४. वैराजमसृजत । तदग्नेर्घोषो ऽन्वसृज्यत...... तस्माद् वैराजस्य स्तोत्रे ऽग्निं मन्थन्ति । जै १, १४३
आपो वै देवानां पत्नय आसन्। ता मिथुनम् ऐच्छन्त।......ता अब्रुवन् सृजध्वम् एवेति। ता वैराजं चतुर्थे ऽहन्न् असृजन्त। तद् अग्नेर् घोषो ऽन्वसृज्यत। तस्माद् वैराजस्य स्तोत्रे ऽग्निं मन्थन्ति।जै ३, ११८; तां ७,८,११)
५. वैराजः सोमः । कौ ९. ६, माश ३, ३, २, १७, ९, ४, १९ ।
६. विराजो वा एष संपदे षोडशी। वैराजो वै षोडशी विराजिविराजि प्रतिष्ठितः। जै १, १९५; देवतीर्थं वा एतद् यद् एष वैश्वानरः प्रायणीयो ऽतिरात्रः। तस्मिन्न् एष स्थाणुः क्रियते यत् षोडशी। वैराजो वै षोडशी, विराजि विराजि प्रतिष्ठितः। जै २, ४३५ ।
७. शारदौ मासौ प्रयच्छेति । एतौ ते प्रयच्छानीत्यन्नमन्नमित्येव पतित्वास्या उदीच्यै दिशो वैराजं भा आदत्त । जै ३, ३६६ ।
८. सवितुर्वैराजम् । मै २, ३, ७; काठ १२, ५॥
अग्निहोत्र- २६ शांआ १०.८;
अन्न- ३८ शांआ ११.७;
स्मिन् पृष्ठरूपं वा गायेद् एता वा व्याहृतीर् व्याहृत्योद्गायेद् गोश् चाश्वश् चाजा चाविश् च व्रीहिश् च यवश् चेति। गौर् एव रथन्तरम् अश्वो बृहद् अजा वैरूपम् अविर् वैराजं व्रीहयश् शक्वर्यो यवा रेवतयः।जै १.३३३,
षट्कृत्वः पुरस्ताद् विषुवतः पृष्ठ्यान्य् उपयन्ति।.... गौर् वै रथन्तरम् अश्वो बृहद् अजा वैरूपम् अविर् वैराजं व्रीहयश् शक्वर्यो यवा रेवतयः। स एष रसस् संसिक्तो यत् पृष्ठानि। जै २.३४;
धातृ- १९ तैसं २.३.७.३; पशु- ३१३ मै ३.७.४, ४.२.४;
पुरुष- ९१ काठ ३३.३, तां २.७.८, १९.४.५, तै ३.९.८.२; ९२ मै १.१०.१३;
प्रजापति- १५७ १६.५.१७;
बृहत्- ४२ ऐ ४.१२;
यज्ञ१७१ गो १.४.२४, २.६.१५,
कति ते पिता संवत्सरस्याहान्य् अमन्यतेति। दशेति होवाच। दश वावेति होवाच - दशाक्षरा विराड्, अन्नं विराड्, वैराजो यज्ञः। जै २.४३१
वैराजी- अप्- २४६ कौ १२.३, माश ५.३.४.१
वैराज्य - उदीची- ४ ऐ ८.१४, २३ ८.१४;
प्लक्ष- ७ ऐ ७.३२, ८.१६;
रुद्र- ५८ जै २.२५; ५९ जै ३.१५२, ३६८;
वाच्- १३ जै २.१