वीणा
वीणा व धनुष में साम्य के लिए धनुष पर टिप्पणी द्रष्टव्य है।
संदर्भ
*- - सैषा वाग्वनस्पतिषु वदति या दुन्दुभौ या तूणवे(तूण—तरकस) या वीणायां यद्दीक्षितदण्डं प्रयच्छति वाचमेवाव रुन्ध औदुम्बरो भवति – तैत्तिरीय संहिता ६.१.४.१
*घोषाय भषमन्ताय बहुवादिनमनन्ताय मूक ँ शब्दायाडम्बराघातं महसे वीणावादं क्रोशाय तूणवध्ममवरस्पराय शङ्खध्मं – माध्यन्दिन यजुर्वेद संहिता ३०.१९
‘महसे वीणावादं’ कथन से शिव पुराण ५.२६.४९ के इस कथन की पुष्टि होती है कि वीणा नाद से दूरदर्शन की सामर्थ्य प्राप्त होती है।
*पयो मह्यं परस्वन्तो हस्तिनो मे पयो दधन्। पयः पतत्रिणो मह्यं वीणया मे पयो दधन्॥ - पैप्पलाद संहिता २.७६.२
पयः की सृष्टि तब होती है जब तनाव मुक्त स्थिति उत्पन्न होती है(पयः पर टिप्पणी द्रष्टव्य)। पैप्पलाद संहिता के इस उल्लेख में वीणा द्वारा भी पयः के धारण का उल्लेख है जो संकेत करता है कि वीणा की स्थिति से तनाव से मुक्ति मिलती है।
*यस् तु नः पृथुर् वीणा वधूर् इव सर्पति। पयः कृतवे विषं कृतवागश् च चक्षतु॥ - पै.सं. २०.३७.३
*महाव्रतम् – सर्वासु स्रक्तिषु दुन्दुभयो वदन्ति या दिक्षु वाक्तां तेनावरुन्धते भूमिदुन्दुभिर्भवति यास्यां वाक्तां तेनावरुन्धते वीणा वदन्ति या पशुषु वाक्तां तेनावरुन्धते काण्डवीणा वदन्ति यौषधिषु वाक्तां तेनावरुन्धते नाडीतूणवा वदन्ति या वनस्पतिषु वाक्तां तेनावरुन्धते वाणश्शततन्तुर्भवति शतायुर्वै पुरुषश्शतवीर्य – काठक संहिता ३४.५
पार्श्वदेव-कृत संगीतसमयसार ग्रन्थ में पक्षिरुत का उल्लेख है। इससे संकेत मिलता है कि वीणा के माध्यम से पशु की वाक् को पक्षी की वाक् में, अतीन्द्रिय वाक् में, शकुन में बदलना है।
*वाग्वै सृष्टा चतुर्धा व्यभवत्, ततो या अत्यरिच्यत सा वनस्पतीन् प्राविशत्, सैषा याक्षे या दुन्दुभौ या तूणवे या वीणायां दण्डं प्रयछति तामेवास्मै वाचं प्रयछति - - - आस्यदघ्नं प्रयछत्येतावती हीय ँ वाग्वदति – मैत्रायणी संहिता ३.६.८
इस कथन में वाक् का अर्थ अतीन्द्रिय दर्शन, अन्तरात्मा की आवाज लिया जा सकता है। इस कथन में आस्यदघ्न वीणादण्ड का उल्लेख है। वैदिक साहित्य में नियम है कि कौन कितना लम्बा दण्ड धारण कर सकता है। ब्राह्मण के लिए आस्यदघ्न/मुख तक लम्बे दण्ड के धारण का निर्देश है।
*सोमक्रयणविधिः – अथ देवा वीणामेव सृष्ट्वा, वादयन्तो निगायन्तो निषेदुः। इति वै ते वयं गास्यामः इति। त्वा प्रमोदयिष्यामहे – इति। सा(गायत्री वाक्) देवानुपाववर्त। - शतपथ ब्राह्मण ३.२.४.६
*अश्वमेधः – यदा वै पुरुषः श्रियं गच्छति। वीणाऽस्मै वाद्यते। ब्राह्मणौ वीणागाथिनौ संवत्सरं गायतः। श्रियै वा एतद्रूपम्। यद्वीणा। श्रियमेवास्मिंस्तद्धत्तः। तदाहुः – यदुभौ ब्राह्मणौ गायेताम्। अपास्मात्क्षत्त्रं क्रामेत्। ब्रह्मणो वा एतद्रूपम्। यद् ब्राह्मणः। न वै ब्रह्मणि क्षत्त्रं रमत इति। यदुभौ राजन्यौ । अपास्माद् ब्रह्मवर्चसं क्रामेत्। - - - ब्राह्मणोऽन्यो गायति। राजन्योऽन्यः। - - दिवा ब्राह्मणो गायति । नक्तं राजन्यः। - - -अयजतेत्यददादिति ब्राह्मणो गायति। - - -इत्ययुध्यतेत्यमुं संग्राममजयदिति राजन्यः। - शतपथ ब्राह्मण १३.१.५.१
लौकिक संगीत में राग विशेष का गान किस प्रहर में करना है, यह आंशिक रूप से उस राग में प्रकट होने वाले मध्यम स्वर की तीव्रता पर निर्भर करता है। तीव्र मध्यम का प्रयोग रात्रिकाल के लिए किया जाता है जबकि शुद्ध मध्यम स्वर का प्रयोग दिन के लिए। जैसे-जैसे रात्रि घनी होती है, मध्यम स्वर की तीव्रता में भी वृद्धि होती जाती है। शतपथ ब्राह्मण का वर्तमान उल्लेख यह इंगित करता है कि लौकिक संगीत में रात्रि और दिन से क्या तात्पर्य है। रात्रि वह है जिसमें क्षत्रिय बनकर अपने पापों का नाश किया जाता है, संग्राम करना होता है। दिवस काल में दक्षता में, दान सामर्थ्य में वृद्धि करनी होती है। ऐसा प्रतीत होता है कि साधना में श्री से पूर्व की अवस्था परिश्रित, चारों ओर से बंधी हुई होती है। परिश्रित के बन्धनों को समाप्त कर उसे श्री का रूप देना है।
*अश्वमेधे सावित्रीष्टिः – तस्यै प्रयाजेषु तायमानेषु ब्राह्मणो वीणागाथी दक्षिणत उत्तरमंद्रामुदाघ्नन् तिस्रः स्वयंसंभृता गाथा गायति, इत्ययजत, इत्यददादिति। तस्योक्तं ब्राह्मणम्। - श.ब्रा. १३.४.२.८, ११, १४
*पारिप्लवाख्यान ब्राह्मणम् – मनुर्वैवस्वतो राजेत्याह। तस्य मनुष्या विशः। त इम आसत इति। अश्रोत्रिया गृहमेधिन उपसमेता भवन्ति। तानुपदिशति। ऋचो वेदः सोऽयमिति। ऋचां सूक्तं व्याचक्षाण इवानुद्रवेत्। वीणागणगिन उपसमेता भवन्ति। तानध्वर्युः संप्रेष्यति। वीणागणगिन इत्याह। पुराणैरिमं यजमानं राजभिः साधुकृद्भिः संगायतेति। तं ते तथा संगायन्ति। - श.ब्रा. १३.४.३.३
*अथ सायंधृतिषु हूयमानासु राजन्यो वीणागाथी दक्षिणत उत्तरमन्द्रामुदाघ्नन् तिस्रः स्वयं संभृता गाथा गायति। इत्ययुध्यत, इत्यमुं संग्राममजयदिति। तस्योक्तं ब्राह्मणम्। - श.ब्रा. १३.४.३.५
*दीक्षणीयायां संस्थितायाम्। सायं वाचि विसृष्टायाम्। वीणागणगिन उपसमेता भवंति। तानध्वर्युः संप्रेष्यति। वीणागणगिन इत्याह – देवैरिमं यजमानं संगायत इति। तं ते तथा संगायंति। - श.ब्रा. १३.४.४.२
*स यथा वीणायै वाद्यमानायै न बाह्यान् शब्दान् शक्नुयाद् ग्रहणाय। वीणायै तु ग्रहणेन वाणावादस्य वा शब्दो गृहीतः। - श.ब्रा. १४.५.४.८, १४.७.३.८
यह कथन संकेत देता है कि जब आन्तरिक वीणा का नाद सुनाई पडता है तो बाहर के शब्दों का सुनाई देना बन्द हो जाता है।
*अथ यो यूप आसीद्, य एवैष वीणायै दण्डस्, स एव सः। अथ या रशना आसन्, यान्य् एवैतानि वीणाया उपवाणानि, ता एव ताः। अथ यो द्रोणकलश आसीद्, यैवैषा वीणायै सूना, स एव सः। अथ यद् अधिषवणं चर्मासीद्, यद् एवैतद् वीणायै चर्म, तद् एव तत्। अथ य उपरवा आसन्, य एवैते वीणाया आकाशास्, त एव ते। अथ ये ग्रावाण आसन्, यान्य एवैतानि वीणायै वादनानि, ते एव ते। अथ यानि सप्त चतुरुत्तराणि छन्दांस्य् आसन्, या एवैतास् सप्त वीणायै तन्त्र्यस्, तान्य एव तानि। अथ ये दशरात्रे स्तोमा आसन्, या एवैता दशांगुलयस् त एव ते। - जैमि. ब्रा. २.७०
जैमिनीय ब्राह्मण का यह कथन वीणा की आध्यात्मिक संरचना की व्याख्या करने वाला एकमात्र उल्लेख है जिसकी तुलना औमापतम् के कथन से की जा सकती है। औमापतम् में अलाबू(लोकभाषा में पके कद्दू से बना पात्र) को सरस्वती का पद्मासन कहा गया है जबकि जैमिनीय ब्राह्मण में सूना को द्रोणकलश कहा गया है(द्र. द्रोणकलश पर टिप्पणी)। अलाबू पात्र का उपयोग सर्प विष के संग्रह के लिए करते हैं, ऐसा पुराणों का कथन है(द्र. पृथिवी दोहन का प्रसंग)। दूसरी ओर, द्रोणकलश का उपयोग सोम के संग्रह के लिए किया जाता है। सोमयाग में द्रोणकलश को उदुम्बर काष्ठ से बनाया जाता है जिसका मुख ओंकार अक्षर के सदृश होता है। छलनी से छानने के पश्चात् सोम का संग्रह द्रोणकलश में किया जाता है और फिर द्रोणकलश में देवताविशेष के ग्रह/पात्र को डुबाकर सोम का ग्रहण किया जाता है। हो सकता है कि द्रोणकलश प्राणों का प्रतीक हो जो शुद्ध सोम की अभीप्सा करते रहते हैं। वीणा के बाह्य स्वरूप में तो सूना, दण्ड आदि सभी अवयव अलग-अलग दिखाई पडते हैं, लेकिन आन्तरिक वीणा में प्रतीत होता है कि जो वीणा का दण्ड है, वही सूना भी है। हमारी यह देह ही दण्ड है, यही सूना है। यदि वैदिक वीणा में तूंबे का स्वरूप द्रोणकलश है तो वीणा संरचना में अन्यत्र भी इसके उल्लेख होने चाहिएं। लेकिन केवल एक ही परोक्ष उल्लेख प्राप्त होता है कि सोमक्रयण के समय शकट के अक्ष के नीचे-नीचे द्रोणकलश को लेकर चलते हैं(प्रोहण) और यह प्रोहण इस प्रकार होता है कि द्रोणकलश का अक्ष से सम्पर्क न होने पाए। शकट के अक्ष और उसके सिरों पर चक्रों के घर्षण से आसुरी वाक् का जन्म होता है। यह आसुरी वाक् प्रकट न होने पाए, इस हेतु द्रोणकलश का प्रोहण हो सकता है। वीणा के दण्ड के रूप में सोमयाग के यूप का उल्लेख है। सोमयाग में सबसे पूर्व दिशा में हरी वनस्पति/वृक्ष से निर्मित एक स्तम्भ की स्थापना की जाती है जिसकी शाखाओं को काट दिया जाता है। इस स्तम्भ से उस पशु को बांधा जाता है जिसकी सोमयाग में बलि देनी होती है। शाखाओं के काटने से तात्पर्य यह हो सकता है कि साधना में ऊर्ध्वमुखी प्रगति करनी है। यूप के अन्य सांकेतिक अर्थ क्या हैं, यह अन्वेषणीय है। पूर्व दिशा भूत-भविष्य के ज्ञान की दिशा है। यदि दण्ड शब्द पर विचार करें तो तीन प्रकार के दण्डों का उल्लेख पुराणों में आता है – मनोदण्ड, वाग्दण्ड/कायदण्ड और कर्मदण्ड। पुराणों में दण्ड के अग्र पर ऋषियों की स्थापना करने तथा दण्डाग्र को वज्र बनाने आदि के उल्लेख आते हैं। इस वज्र से पृथिवी का खनन किया जा सकता है। औमापतम् में दण्ड को जीवस्वरूप कहा गया है। जैमिनीय ब्राह्मण में वीणा की सात तन्त्रियों को सात छन्द कहा गया है जबकि औमापतम् में तन्त्री को जीव की परा शक्ति वासुकि नाग कहा गया है। ऐतरेय ब्राह्मण में अंगुलियों को तन्त्रियां कहा गया है जबकि जैमिनीय ब्राह्मण में दस अंगुलियों को सोमयाग के दस दिवसों के दस स्तोम कहा गया है। औमापतम् में अंगुलियों को शिव के पांच मुख कहा गया है।
*पृथिव्या रूपं स्पर्शा अन्तरिक्षस्योष्मणो दिवः स्वरा अग्ने रूपं स्पर्शा वायोरूष्माण आदित्यस्य स्वरा ऋग्वेदस्य रूपं स्पर्शा यजुर्वेदस्योष्माणः सामवेदस्य स्वराश्चक्षुषो रूपं स्पर्शाः श्रोत्रस्योष्माणो मनसः स्वराः प्राणस्य रूपं स्पर्शा अपानस्योष्माणो व्यानस्य स्वराः। अथ खल्वियं दैवी वीणा भवति तदनुकृतिरसौ मानुषी वीणा भवति। यथाऽस्याः शिर एवममुष्याः शिरो यथाऽस्या उदरमेवममुष्या अम्भणं(वीणादण्डमध्यवर्ति छिद्रम्) यथाऽस्यै जिह्वैवममुष्यै वादनं यथाऽस्यास्तन्त्रय एवममुष्या अङ्गुलयो यथाऽस्याः स्वरा एवममुष्याः स्वरा यथाऽस्याः स्पर्शा एवममुष्याः स्पर्शा यथा ह्येवेयं शब्दवती तर्द्मवत्येवमसौ शब्दवती तर्द्मवती यथा ह्येवेयं लोमशेन चर्मणाऽपिहिता भवत्येवमसौ लोमशेन चर्मणाऽपिहिता इति। लोमशेन ह स्म वै चर्मणा पुरा वीणा अपिदधति। - ऐतरेय आरण्यक ३.२.५
*अप॒ वा ए॒तस्मा॒च्छ्री रा॒ष्ट्रं क्राम॑ति। यो॑ऽश्वमे॒धेन॒ यज॑ते। ब्रा॒ह्म॒णौ वी॑णागा॒थिनौ॑ गायतः। श्रि॒या वा ए॒तद्रू॒पम्। यद्वीणा॑। श्रिय॑मे॒वास्मि॒न्तद्ध॑त्तः। य॒दा खलु॒ वै पु॒रुषः॒ श्रिय॑मश्नु॒ते। वीणा॑ऽस्मै वाद्यते इति। तदा॑हुः। यदु॒भौ ब्रा॑ह्म॒णौ गाये॑ताम्। प्र॒भ्र ँशु॑काऽस्मा॒च्छ्रीः स्या॑त्। न वै ब्रा॑ह्म॒णे श्री र॑मत॒ इति। ब्रा॒ह्म॒णो॑ऽन्यो गाये॑त्। रा॒ज॒न्यो॑ऽन्यः। ब्रह्म॒ वै ब्रा॑ह्म॒णः। क्ष॒त्त्र ँ रा॑ज॒न्यः॑। तथा॑ हास्य॒ ब्रह्म॑णा च क्ष॒त्त्रेण॑ चोभ॒यतः॒ श्रीः परि॑गृहीता भवति। तदा॑हुः यदु॒भौ दिवा॒ गाये॑ताम्। अपा॑स्माद्रा॒ष्ट्रं क्रा॑मेत्। न वै ब्रा॑ह्म॒णे रा॒ष्ट् ँ र॑मत॒ इति॑। य॒दा खलु॒ वै राजा॑ का॒मय॑ते। अथ॑ ब्राह्म॒णं जि॑नाति। दिवा॑ ब्राह्म॒णो गा॑येत्। नक्त॑ ँ राज॒न्यः॑। ब्रह्म॑णो॒ वै रू॒पमहः॑। क्ष॒त्त्रस्य॒ रात्रिः॑। तथा॑ हास्य॒ ब्रह्म॑णा च क्ष॒त्त्रेण॑ चोभ॒यतो॑ रा॒ष्ट्रं परि॑गृहीतं भवति। इत्य॑ददा॒ इत्य॑यजथा॒ इत्य॑पच॒ इति॑ ब्राह्म॒णो गाये॑त्। इ॒ष्टा॒पू॒र्तं वै ब्रा॑ह्म॒णस्य॑। इ॒ष्टा॒पू॒र्तेनै॒वैन॒ ँ स सम॑र्धयति। इत्य॑जिना॒ इत्य॑युध्यथा॒ इत्य॒मु ँ सं॑ग्रा॒मम॑ह॒न्निति राज॒न्यः॑। यु॒द्धं वै रा॑ज॒न्य॑स्य। यु॒द्धेनै॒वैन॒ ँ स सम॑र्धयति। - तैत्तिरीय ब्राह्मण ३.९.१४.१
*सा(वाक्) पुनर्त्तात्यक्रामत् सा वनस्पतीन् प्राविशत्तान्देवाः पुनरयाच ँ स्तान्न पुनरददुस्तानशपन् - - - -। तां वनस्पतयश्चतुर्द्धा वाचं वि न्यदधुर्दुन्दुभौ वीणायामक्षे तूणवे तस्मादेषा वदिष्ठैषा वल्गुतमा वाग्या वनस्पतीनां देवाना ँ ह्येषा वागासीत्। - ताण्ड्य ब्राह्मण ६.५.१३
ताण्डय ब्राह्मण के उपरोक्त कथन में वनस्पतियों में वाक् के छिपने का क्या अर्थ हो सकता है, इसका संकेत वनस्पति शब्द की टिप्पणी से प्राप्त हो सकता है। वनस्पति की विशेषता यह है कि इसका छेदन करने पर यह पुनः प्ररोहण करने लगती है। इसका कारण इसमें विद्यमान स्टेम कोशिकाओं की बहुलता है। एक बार वनस्पति में कोई नाद प्रवेश कर जाए, वह स्टेम कोशिकाओं आदि में प्रवेश करके तनाव-विशेष उत्पन्न कर देता होगा जिसके कारण नाद को, वाक् को, अन्तरात्मा की आवाज को पुनः प्राप्त करना संभव नहीं है। यदि किसी प्रकार से इस तनाव को क्रमशः दूर किया जा सके, या आधुनिक विज्ञान की भाषा में, इस तनाव का मैपिंग किया जा सके तो वाक् को पुनः प्राप्त किया जा सकता है। आधुनिक विज्ञान में यह प्रयास कोई नए नहीं हैं। वीणा निर्माण के माध्यम से तनाव दूर हो सकता है।
अथैतां
वीणां
शततन्त्रीमुपकल्पयन्ति
१
तस्याः
पालाशी
सूना
भवति
२
औदुम्बरो
दण्डः
३
अपि
वौदुम्बरी
सूना
पालाशो
दण्डः
४
तामानडुहेन
सर्वरोहितेन
चर्मणा
बाह्यतोलोम्नाभिषीव्यन्ति
५
तस्यै
मूले
दण्डं
दशधातिविध्यन्ति
६
तद्दशदश
रज्जूः
प्रवयन्ति
७
ता
अग्रे
नाना
बध्नन्ति
८
दण्डसमासा
वीणा
शततन्त्री
भवति
शाङ्खा.श्रौ.सू.
१७.३.९
स वाणः शततन्तुः । अथैकेषाम् । भूस्त्रयस्त्रिंशत्तन्तव इति त्रयस्त्रिंशतमध्वर्युः प्रतनोति । भुवस्त्रयस्त्रिंशत्तन्तव इति त्रयस्त्रिंशतं होता । सुवस्त्रयस्त्रिंशत्तन्तव इति त्रयस्त्रिंशतमुद्गाता । गृहपतिरुत्तमम् – आप.श्रौ.सू. २१.१७.११
*अथ वीणां प्रवक्ष्यामि शृणुष्वायतलोचने॥३७३॥ करण्डकाकृतिर्दण्डो निम्नोन्नतविवर्जितः। पञ्चमुष्टिश्च षण्मुष्टिः त्रिपुरी सप्तमुष्टिका॥३७४॥अष्टमुष्ट्यधिका वीणा प्रौढी स्यादाचतुर्दश। दरी पञ्चदशारम्भं यावदष्टादशाङ्गुलम्॥३७५॥ खदिरो राजवृक्षश्च वीणा स्याद्रक्तचन्दनः। करभे चाम्रपनसौ सुन्दरी च तथा भवेत्॥३७६॥ एणशृङ्गा[द्] दन्तिदन्ताद्वैशिका नवकल्पना। सुवर्णकांस्यरजतैः छत्रं च कटकं तथा॥३७७॥ एकतन्त्री तु भारी स्यात् प्रौढी स्याद्वित्रितन्त्रिका। अनाविधा ब्रह्मवीणा चतुः पंचादितन्त्रिका॥३७८॥ दण्डं जीवस्वरूपः स्यात् करभः (कु)[क?]र्म एव च। नाभिर्ब्रह्मा वैशिके तु सरस्वत्यभिधीयते॥३७९॥ सरस्वत्यासनं पद्मं अलाबुरिति कथ्यते। तन्त्री स्याद्वासुकिश्चैव जीवा शाक्तिः परं भवेत्॥३८०॥ दक्षिणाऽनामिका मध्ये वामे मध्यादिवर्जिता। अङ्गुल्या पञ्चवक्त्राणि मम देवि महेश्वरि॥३८१॥ वीणावादनमायुष्यं श्रीकरं मोक्षदं तथा॥ नादो गीतावसानस्तु बहिः स्यात्स्वरमण्डले॥३८२॥ ग्रामजातिस्वराश्चैव श्रुतयो मूर्च्छनास्तथा। ताना रागाश्च ते सर्वे जायन्ते स्वरमण्डले॥३८३॥ स्वरमण्डलमाख्यातं सप्तत्रिंशद्युतं शतम्। ध्रुवा मण्डलमाख्यातं चतुःषष्टिप्रमाणकम्॥३८४॥ तानमण्डलमाख्यातमूनपंचाशदेव च। द्वात्रिंशन्मण्डले[स्वा?]रौ श्रौतं द्वाविंशतिर्भवेत्॥३८५॥ वारुणेन्द्रं द्वादशैव विपंची नवधा भवेत्॥३८६॥ सप्तभिः परिवादिन्यां वीणाभेदाश्शतं शतम्। अष्टादशाङ्गुला प्रोक्ता वीणा स्यात्परिवादिनी।३८७॥ विपंचिका त्रिशाखाभिः कथिता परिवादिनी। ऊनविंशाङ्गुलं दीर्घा विपंची पंचविस्तृता॥३८८॥ द्वाविशत्यङ्गुलायामा वारणा सप्तविस्तृता। चान्द्रिका दशविस्तीर्णा वारुणेन्द्रवदायता॥३८९॥ मूर्च्छनां श्रुतिमेरूणां दीर्घं षट्त्रिंशदङ्गुलम्। अष्टादशाङ्गुलास्तेषां विस्तारः परिकीर्तितः॥३९०॥ चत्वारिंशाङ्गुलायामं चतुर्विंशतिविस्तृतम्। तानमण्डलमाख्यातं तथैव ध्रुवमण्डलम्॥३९१॥ आयतं षष्टिरङ्गुल्यः षट्त्रिंशद्विस्तृतं तथा। स्वरमण्डलमाख्यातं देवीदमवधारय॥३९२॥ तन्त्रीसंख्यककीलाः स्युः देवो वीणा महेश्वरी। - औमापतम् अध्याय २२
दण्ड के संदर्भ में दण्डक वन पर भी विचार करना चाहिए। वीणा के अवयवों में दण्ड ही ऐसा है जिसका परिमार्जन करना हमारे वश में है। दण्ड पर बंधी तन्त्रियां(संभवतः सुषुम्ना नाडी में कुण्डलिनी शक्ति के विकास का प्रतीक) तो समय आने पर अपने आप ही बंधेंगी। और फिर उन तन्त्रियों को अपने हाथों से कम्पित करना, अपना भविष्य स्वयं निर्धारित करना तो और भी कठिन काम है। दण्डक वन में लक्ष्मण की उपासना का निर्देश है। लक्ष्मण द्वारा शूर्पणखा(शूर्प-णह) की नाक काटी गई थी। वेद का प्रसिद्ध सूक्त है – दितिः शूर्पम् अदितिः शूर्पग्राही। चक्षुर्मुसलं काम उलूखलं। - - । शूर्प के द्वारा अन्न का परिमार्जन किया जाता है।
*वीणारूपं ततोऽत्रैव प्रोच्यते सादरं मया। वीणाघोषैकतन्त्र्त्या स्यात्तन्त्रीभ्यां नकुलाभिधा॥ त्रितन्त्रीभिस्त्रितन्त्र्याख्या चित्रा सप्तभिरेव च। विपञ्ची नवभिः ख्याता रम्या स्यान्मत्तकोकिला। तन्त्रीणामेकविंशत्या स्थानत्रयविभूषिता॥ - श्रीकण्ठः
*वाद्यं ततेति वीणा स्यादष्टधा सा निरूप्यते। रुद्रवीणा ब्रह्मवीणा तौम्बुरं स्वरमण्डलम्। पिनाकी किन्नरी दण्डी रावणस्य करोऽपरः॥ - अहोबिलः
*विपञ्ची वल्लकी चित्रा हस्तिका परिवादिनी। शततन्त्री जया ज्येष्ठाऽऽलापिनी त्रसरा तथा॥ नकुलोष्ठी घोषवती किन्नरी मत्तकोकिला। निश्शङ्कवीणा सारङ्गी कूर्मा - - - ॥ औदुम्बरी पिनाकी च ततो रावणहस्तकः। षट्कर्णेत्यादिभिर्भेदैस्ततं प्रोक्तं मनीषिभि॥ - हम्मीरः
*वक्रा कूर्मात्वलाबूश्च वीणाद्या त्रिविधा मता। विपञ्ची वल्लकीमत्तकोकिलैन्द्री सरस्वती॥ गान्धर्वी ब्रह्मिका सप्त वक्रास्तन्त्र्यः कला नव। संवादिनी वितन्त्री च किन्नरी परिवादिनी॥ वध्रासक्ता पञ्च कूर्माः। वितानो नकुलश्चेति द्विधालाबूः प्रकीर्तिता। वितन्त्रिका विशोकेति चेश्वरी परिवादिनी। सदाशिवागमाद्ज्ञेया यथागमनिदर्शनम्॥ - नान्यः
*सप्तभिश्च भवेच्चित्रा विपञ्ची नवभिस्तथा। - भरतः
*एकविंशतितन्त्रीभिः महती नारदीति च। - नान्यः
*एकविंशतितन्त्रीभिः महावीणाः प्रकीर्तिताः। सप्ततन्त्री भवेश्चित्रा नवतन्त्री विपञ्चिका॥ वल्लकी षड्गुणा चैव तथा धूसरिकेति । द्वितन्त्रीकास्तु विज्ञेया अलाबूपाङ्गसंज्ञिताः॥
(किन्नरी, पिनाकी, सारवी इत्यलाबूभेदाः) – नान्यः
*एकविंशतितन्त्रीकां नारदोऽवादयन्मुनिः। चित्रां मतङ्गः स्वातिश्च विपञ्चीमिति तद्यथा॥ त्रिग्रामस्वरसंख्याभिस्तन्त्रीभिर्महतीति(२१) या। नारदो वादकस्तस्या नापरो दिवि विश्रुतः॥ अत्र व्यक्तास्त्रयो ग्रामाः स्फुटास्सप्त स्वरा अपि। प्रतिस्वरं प्रतिग्रामं मूर्छनास्त्वेकविंशतिः॥ तानास्त्वेकोनपञ्चाशद्गणितास्सप्तभिः स्वरैः। चित्रोक्ता सप्ततन्त्रीभिः वक्तिसप्तस्वरान्स्फुटान्॥ - नान्यः
*विपञ्ची – मतङ्गो वादकस्तस्याश्चैत्रिको नाम नापरः। स्वातिर्वैपञ्चिकः ख्यातो निर्ममे पुष्कराणि यः॥ विपञ्च्यां नवतन्त्रीषु स्वरास्सप्त तथापरौ। काकल्यन्तरसंज्ञौ च द्वौ स्वरावित्यमानि च। एवं मतङ्गः स्वे शास्त्रे प्रोक्तवान् यन्निदर्शितम्॥ अष्टौ द्वादश तन्त्र्यश्च यासां तन्त्र्यश्शतं तथा। तास्सर्वा यज्ञयोगिन्यो वीणा वीणादनामिका?॥ - नान्यः
*आलावणी ब्रह्मवीणा किन्नरी लघुकिन्नरी। विपञ्ची वल्लकी ज्येष्ठा चित्रा घोषवती जया॥ हस्तिका कुब्जिका कूर्मा सारङ्गी परिवादिनी। त्रिसरी शततन्त्री च नकुलैन्द्री च कर्तरी?॥ औदुम्बरी पिनाकी च निबद्धः पुष्कलस्तथा। तथा रावणहस्तश्च रुद्रोऽथ स्वरमण्डलः॥ कपिलासी मधुस्यन्दी घोणेत्यादि ततं भवेत्। सिद्धैषां घटना लोके पारम्पर्योपदेशतः॥ - नारायणः
*तते वीणादिके वीणाः पिनाकी किन्नरीमुखाः। पिनाकी सधनुस्तुम्बा किन्नर्यो द्वित्रितुम्बलाः॥ वीणासु देववीणाद्या विज्ञेया नादपूरिता। शिवस्य वीणाऽनालम्बी सरस्वत्यास्तु कच्छपी॥ विश्वावसोश्च बृहती महती नारदस्य च। कलावती तुम्बुरोस्तु गणानां च प्रभावती॥ तथा कोशवती वीणा विपञ्ची कण्ठकूणिका। वल्लकी ब्रह्मवीणेति वीणाभेदा अनेकशः॥ एकतन्त्री द्वितन्त्री च त्रितन्त्री सप्ततन्त्रिका। एकविंशतितन्त्री चेत्युत्तमा मध्यमाऽपरा॥ भजते सर्ववीणासु एकतन्त्री प्रधानताम्। - सुधाकलशः
*छन्दो धारा कैकुटी च कङ्कालो वस्तुतूर्णकौ। गजलीलाभिधानं च तथैवोपरिवादनम्॥ दण्डकं च तथा ज्ञेयं वाद्यं पक्षिरुताभिधम्। एतद्दशविधं नाम्ना वीणावाद्यं समीरितम्॥ - - - - -- - - -- समस्तहस्तसंयोगाद् वाद्यं पक्षिरुतं मतम्। -- संगीतसमयसारः ६.१३(पार्श्वदेवः)
*जे भिक्खू मुहवीणियं करेइ करंतं वा साहज्जइ। जे भिक्खू दंतवीणियं करेइ करंतं वा साइज्जइ। जे भिक्खू उट्ठवीणियं करेइ करंतं वा साइज्जइ। जे भिक्खू णासावीणियं करेइ करंतं वा साइज्जइ। जे भिक्खू कक्खवीणियं करेइ करंतं वा साइज्जइ। जे भिक्खू हत्थवीणियं करेइ करंतं वा साइज्जइ। जे भिक्खू नक्खवीणियं करेइ करंतं वा साइज्जइ। जे भिक्खू पत्तवीणियं करेइ करंतं वा साइज्जइ। जे भिक्खू पुष्फवीणियं करेइ करंतं वा साइज्जइ। जे भिक्खू फलवीणियं करेइ करंतं वा साइज्जइ। जे भिक्खू वीयवीणियं करेइ करंतं वा साइज्जइ। जे भिक्खू हरियवीणियं करेइ करंतं वा साइज्जइ। - - - - अभिधानराजेन्द्रकोश भाग ६, पृष्ठ ३३४
साइज्जइ – सहाय्य?
प्रथम लेखन—१६-३-२०१२ई.(चैत्र कृष्ण९, विक्रम संवत् २०६८)