वृक
स्कन्दपुराणे ६.२३०+ विस्तृताख्यानः अस्ति यत्र वृकः सांकृतेः मुनेः तपसि विघ्नः करोति। सांकृतिः शापदानेन वृकं पङ्गुं करोति, किन्तु पूर्णतः निष्क्रियकरणे समर्थः नास्ति। अन्ततः विष्णुः तस्योपरि शयनं करोति येन वृकः निष्क्रियः भवति। सांकृति एवं वृकासुरस्य आख्यानस्य एका व्याख्या वृकशब्दस्य निरुक्तिः वक्रशब्दस्य आधारे कृत्वा संभवमस्ति। आधुनिकविज्ञाने नियमः अस्ति यत् गतिशीलपिण्डः अधिकतमसंभावितऋजुमार्गं गृह्णाति, यावत् कोपि बाह्यबलः अस्य ऋजुतायां परिवर्तनं न करोति। आध्यात्मिकक्षेत्रे अयं बाह्यबलः पापः भवितुं शक्यते।
ऋग्वेदे १.१०५.१८ कथनमस्ति - 'अरुणो मा सकृत् वृक: पथा यन्तं ददर्श हि । उज्जिहीते निचाय्या तष्टेव पृष्ट्यामयी वित्तं मे अस्य रोदसी । अरुणो मा सकृत् वृकः वाक्यांशे सकृत् शब्दस्य तुलना सांकृति मुनेः सार्धं करणीयमस्ति। सकृत् अर्थात् एकवारैव, एकलप्रयासेनैव। अनुमानमस्ति यत् सकृत् वृकस्य साधनातः ये दोषाः निर्मिताः भवन्ति, तेषां शमनं सांकृतिमुनेः साधनातः भवति। विष्णोः शयनं शेषोपरि भवति। अतएव, वृकः शेषऊर्जायाः तुल्यः प्रतीयते।
महाभारते भीमसेनस्य वृकोदरसंज्ञा प्रसिद्धमस्ति। कथनमस्ति यत् भीमसेनस्य उदरे वृकसंज्ञकः अग्निः वसति स्म, येन कारणेन तस्य संज्ञा वृकोदरः आसीत्। श्रीमद्भगवद्गीतायाः आरम्भे श्लोकः अस्ति –
पाञ्चजन्यं हृषीकेशो देवदत्तं धनंजयः।
पौण्ड्रं दध्मौ महाशङ्खं भीमकर्मा वृकोदरः ।।- महाभारत भीष्म ५१.२५
अत्र धनंजयः अर्जुनः देवदत्तसंज्ञकं शंखं ध्माति। देवदत्त अर्थात् दैवदत्त। यत्किंचित् दैवदत्तमस्ति, तस्मिन् शोधनं धनंजयस्य कृत्यमस्ति। पौण्ड्रस्य विषये अनुमानमस्ति यत् केचन चक्रवर्तिलक्षणाः जन्मतः प्राप्ताः भवन्ति, केचन पुरुषार्थतः। ये पुरुषार्थतः प्राप्तव्याः सन्ति, तेषां संज्ञा पुण्ड्राः अस्ति। पुराणेषु एकः पौण्ड्रक वासुदेवः अस्ति येन कृष्णसमान लक्षणानां निर्माणं स्वदेहे अपि कृतानि स्मः। एकः ज्योतिस्तम्भः निर्मितं भवति यस्मिन् पृथिव्याः विलेखनस्य, बीजवपनस्य क्षमता भवति। बलरामस्य एकः आयुधः लाङ्गलः अस्ति। यदि ज्योतिस्तम्भस्य क्षमता विलेखनस्य न भवेत्, तर्हि अयं आसुरी स्थितिः, वृकासुरस्य स्थितिः अस्ति। तैत्तिरीय ब्राह्मणे २.४.१.१ एवं तैत्तिरीय आरण्यके २.५.२ कथनमस्ति - 'यो नो अग्ने अभितो जनो वृको वारो जिघांसति । अत्र वारशब्दः वालस्य, ऊर्जायाः विकीर्णस्थित्याः सूचकः अस्ति।
आधुनिकविज्ञाने वृकस्य साम्यं ब्लैकहोलसंज्ञकेन पिण्डेन सह प्रतीयते। ब्लैकहोलपिण्डे आकर्षणस्य भयावहक्षमता भवति। तत् प्रकाशरश्मीनां अपि कर्षणकर्तुं शक्तः अस्ति। ब्रह्माण्डे ये पिण्डाः स्वपथे गतिशीलाः सन्ति, तेषामपि कर्षणकर्तुं अयं शक्नोति। अध्यात्मस्य भाषायां, अस्य पिण्डस्य अहंकारः अतीव प्रवृद्धः अस्ति। अथर्ववेदे ५.८.४, ५.२१.५, ६.३७.१, ७.५२.५, १९.४७.६ सार्वत्रिकरूपेण वृकेण अवेः मथनस्य उल्लेखाः सन्ति। अवि अवस्था सूर्योदयस्यकालस्य भवति। अतएव, एवं कथितुं शक्यन्ते यत् वृकः सूर्योदयस्य, अरुणोदयस्य कालस्य रोधनं कर्तुं शक्यते। किन्तु ऋग्वेदे १.१०५.१८ कथनमस्ति - 'अरुणो मा सकृत् वृक: पथा यन्तं ददर्श हि । उज्जिहीते निचाय्या तष्टेव पृष्ट्यामयी वित्तं मे अस्य रोदसी । अत्र वृकः धूम्राकारः नास्ति, अपितु अरुणवर्णः अस्ति (द्र. अरुणोपरि संक्षिप्त टिप्पणी)। पुराणेषु अरुणः गरुडसुपर्णस्य भ्राता अस्ति। सः अनूरु, ऊरु-रहितः अस्ति एवं सूर्यस्य सारथिः अस्ति। किन्तु अत्र स्थितिः भिन्ना अस्ति।
टिप्पणी : अथर्ववेद ५.८.४, ५.२१.५, ६.३७.१, ७.५२.५, १९.४७.६ आदि में सार्वत्रिक रूप से वृक द्वारा अवि के मथन के उल्लेख आते हैं । ऋग्वेद १.११६.१६ तथा १.११७.१७ में राजा ऋज्राश्व का उल्लेख आता है जिसने वृकी पाल रखी थी और राजा ने उसे १०० मेष खाने को दिए जिस पर ऋज्राश्व के पिता ने उसे अन्धा कर दिया और बाद में अश्विनौ ने चक्षु प्रदान किए ( डा. फतहसिंह मेष का तात्पर्य चक्षुओं का निमेष - उन्मेष लेते हैं ) । जैसा कि गौ की टिप्पणी में छान्दोग्य उपनिषद के आधार पर कहा गया है, अज अवस्था सूर्योदय से पूर्व की, तप की अवस्था है । अवि अवस्था सूर्योदय की अवस्था है तथा गौ अवस्था मध्याह्न काल के सूर्य की अवस्था है । सूर्य उदय होने से जड वस्तुओं में प्राणों का संचार होने लगता है । वृक को समझने की कुञ्जी हमें तैत्तिरीय ब्राह्मण २.४.१.१ तथा तैत्तिरीय आरण्यक २.५.२ के कथन से प्राप्त होती है जहां कहा गया कि 'यो नो अग्ने अभितो जनो वृको वारो जिघांसति । ' इस मन्त्र में वृक के साथ वार/वाल विशेषण आया है । जैसा कि अन्यत्र टिप्पणियों में भी कहा जा चुका है, वाल अवस्था सूर्य के परितः स्थित मण्डल की स्थिति है । यह प्रकाश की बिखरी हुई, उच्च एण्ट्रांपी वाली अवस्था है । अथर्ववेद के मन्त्रों के अनुसार यह अवस्था सूर्योदय की अवि नामक अवस्था को हानि पहुंचाती है । अतः उसे समाप्त करने की आवश्यकता है । जैमिनीय ब्राह्मण १.२४ में अग्निहोत्र के विशेषज्ञों के संदर्भ में किसी वृष्ण – पुत्र बर्कुर का उल्लेख आया है जिसके अग्निहोत्र करने का उद्देश्य यह है कि उसकी प्रजा वित्तों में भूयिष्ठ श्रेष्ठ बने । इस कथन में बर्कुर शब्द को वृकुर् के रूप में समझा जा सकता है। कहा गया है कि १६वीं कला आत्मा है जबकि शेष १५ कलाएं उसका वित्त हैं । आत्मा नाभि है, कलाएं उसकी परिधि । अतः जैमिनीय ब्राह्मण का यह कथन तैत्तिरीय ब्राह्मण के कथन की पुष्टि करता है । अथर्ववेद १९.४७.८ में वृक की हनु को तोडने तथा उसके द्वारा द्रुपद में उसे मारने का निर्देश है जबकि अथर्ववेद १९.५०.१ में वृक के अक्ष - द्वय को नष्ट करने तथा द्रुपद में मारने का निर्देश है । डा. फतहसिंह के अनुसार यज्ञ में द्रुपद सामान्य अर्थों में उस खूंटे को कहते हैं जिसमें बांध कर पशुओं का हनन किया जाता है । लेकिन गम्भीर अर्थों में द्रुपद का अर्थ तीव्र गति वाला पद होता है - अस्थिरता की स्थिति । हमारे अन्नमय, प्राणमय और मनोमय कोश अस्थिरता से युक्त हैं । अतः यह द्रुपद कहे जा सकते हैं ।
वैदिक निघण्टु में वृक को वज्र नाम, पद नाम तथा स्तेन नामों के अन्तर्गत परिगणित किया गया है । डा. जी. एन. भट्ट के शोधप्रबन्ध 'वैदिक निघण्टु' के अनुसार ऋग्वेद में वृक शब्द कुल २८ बार आया है और इनमें से किसी भी स्थान पर सायणाचार्य द्वारा इसकी व्याख्या वज्र रूप में नहीं की गई है । ऋग्वेद १.११७.२१ तथा ८.२२.६ में वृक द्वारा यव वपन व यव कर्षण के निर्देश हैं जिनकी व्याख्या सायण द्वारा वृक रूपी हल/लांगल की गई है । हल अक्ष का रूप होता है जिसके सिरों से ऊर्जा प्रवेश करती है व बाहर निकलती है । इसी ऊर्जा द्वारा अपनी देह का वपन व कर्षण हो सकता है । ऋग्वेद १०.१२७.६ में वृक्य वृक के यावयन करने, यव से युक्त करने का निर्देश है । डा. फतहसिंह के अनुसार यव आभासी रूप में २ भागों में होता हुआ भी परस्पर संयुक्त होता है । इसी प्रकार यदि दैवी त्रिलोकी ( मनोमय, विज्ञानमय व आनन्दमय कोश ) को मानुषी त्रिलोकी ( अन्नमय, प्राणमय और मनोमय कोश ) से जोड दिया जाए तो वह यव जैसी स्थिति होती है । इस ऋचा में वृक का विशेषण वृक्य स्त्रीलिङ्ग में है । निघण्टु में वृक के स्तेन नामों में परिगणित होने के संदर्भ में, अथर्ववेद १९.४७.६ में वृक के स्तेन विशेषण का प्रयोग हुआ है ।
वैदिक साहित्य में वृक को संवत्सर के साथ भी सम्बद्ध किया गया है । जैमिनीय ब्राह्मण २.४२४ में किसी मन्त्र के पद ' वृकस्य चरतस् सर्पणम् ' की व्याख्या की गई है । कहा गया है कि प्रजापति ही वृक है, वह संवत्सर रूप है, संवत्सर ही सर्पण करता है । अहोरात्र ही संवत्सर के सर्पण हैं । यह अन्वेषणीय है कि क्या वृक स्थिति, बिखरी हुई ऊर्जा की वाल स्थिति संवत्सर का रूप ग्रहण कर सकती है ? सूर्य, पृथिवी व चन्द्रमा या प्राण, वाक् और मन जब परस्पर संग्रथित हो जाएं तो वह संवत्सर की स्थिति कहलाती है । सर्पण की स्थिति से अहोरात्र की उत्पत्ति कही गई है । अहोरात्र का प्रादुर्भाव पृथिवी द्वारा अपनी धुरी पर घूमने के कारण होता है । इस घुमाव को आधुनिक विज्ञान की भाषा में स्पिन या भ्रमि कहते हैं । दूसरे प्रकार की गति को कक्षीय या ओरबिटल गति कहते हैं । पृथिवी सूर्य के परितः कक्षा/ओरबिट में भ्रमण करती है । पदार्थ के सूक्ष्म कणों की गति से सम्बन्ध रखने वाले आधुनिक विज्ञान के अनुसार भ्रमि व कक्षा या स्पिन व ओरबिट का परस्पर युग्मन बहुत महत्त्वपूर्ण होता है । यह माना जा सकता है कि सर्पण में यद्यपि दोनों प्रकार की गतियां विद्यमान होती हैं, लेकिन मुख्य रूप से भ्रमि या स्पिन की प्रधानता होती है । ऋग्वेद १.१०५.११ में सुपर्णों द्वारा ऋषि त्रित की वृक से रक्षा करने का उल्लेख आता है । यह माना जा सकता है कि जहां सर्प में भ्रमि रूप गति की प्रधानता रहती है, वहीं सुपर्ण में कक्षा रूप गति की प्रधानता है । ऋग्वेद ६.१३.५ में वृक के लिए वयः अवस्था उत्पन्न करने का निर्देश है । वयः पक्षी को कहते हैं ।
त्रित ऋषि के सूक्त १.१०५.१८ में ऋचा की पंक्तियां हैं : 'अरुणो मा सकृत् वृक: पथा यन्तं ददर्श हि । उज्जिहीते निचाय्या तष्टेव पृष्ट्यामयी वित्तं मे अस्य रोदसी । इस ऋचा में वृक के विशेषण अरुण का प्रयोग हुआ है । ऋचा के अनुसार एक बार अरुण वृक ने ऋषि को पथ में जाते हुए देखा और ऋषि के हनन का प्रयत्न किया । यह पद पाठकार शाकल्य का मत है । निरुक्तकार यास्क ने 'मा सकृत् ' का पाठान्तर मासकृत् किया है और इस प्रकार अरुण वृक को मास का निर्माण करने वाला सूर्य या चन्द्रमा माना है । यह ध्यान देने योग्य है कि पौराणिक साहित्य में अरुण को गरुड या सुपर्ण का ज्येष्ठ भ्राता कहा गया है जो ऊरुओं से रहित ( अनूरु ) है । वह सूर्य का सारथी भी है । ऊरु का अर्थ विस्तीर्ण चेतना अवस्था लिया जा सकता है । यह माना जा सकता है कि अरुण अवस्था वृक रूप वाल की सर्वाधिक विकसित अवस्था है । यह आश्चर्यजनक है कि पुराणों में वृकासुर की कथा में भी किसी न किसी प्रकार से वृकासुर के साथ पाद रहित ८ मासों तथा पाद सहित ४ मासों का समावेश किया गया है । तैत्तिरीय ब्राह्मण २.७.१५.६ में भी अरुण वृक का उल्लेख आया है । सांकृति मुनि और वृकासुर की पुराण कथा में वृकासुर के प्रकोप से बचने का उपाय अशून्यशयन व्रत कहा गया है । अशून्य शयन का अर्थ है जहां विष्णु लक्ष्मी के साथ, सात्त्विक प्रकृति के साथ सोए हुए हैं । दूसरे शब्दों में, प्रकृति पुरुष के दिशा निर्देशों से रहित नहीं है । इसी तथ्य को आत्मा और उसका वित्त या नाभि और परिधि के रूप में कहा जा सकता है । यह कहा जा सकता है कि यदि वित्त आत्मा से, नाभि से रहित है तो वह श्रेयस्कर नहीं है ।
ऋग्वेद १.११६.१४, १.११७.१६ व १०.३९.१३ में अश्विनौ द्वारा वृक के मुख में फंसी वर्तिका की रक्षा करने के उल्लेख आते हैं । पुनः पुनः वर्तन करने वाली उषा को वर्तिका कहा जाता है । लेकिन यह महत्त्वपूर्ण है कि उषा का जो रूप पहले दिन होता है, वही रूप दूसरे दिन नहीं होता । अतः यह वर्तन सम्पूर्ण नहीं है । इसका कारण यह हो सकता है कि यह वृक के मुख में फंसी हुई है । इसे मुक्त करना है ।
ब्राह्मण ग्रन्थों में वृक की उत्पत्ति २ प्रकार से कही गई है । इन्द्र ने त्वष्टा के यज्ञ में बिना बुलाए जाकर वहां रखे सोम का पान कर लिया जो उसके विभिन्न अंगों के माध्यम से विभिन्न रूपों में स्रवित हुआ । शतपथ ब्राह्मण ५.५.४.१०, तैत्तिरीय ब्राह्मण १.८.५.२ व जैमिनीय ब्राह्मण २.१५७ के अनुसार जो सोम इन्द्र के कर्णों के माध्यम से स्रवित हुआ, वह वृक बना । शतपथ ब्राह्मण १२.७.१.८ के अनुसार जो ओज व जूति मूत्र के द्वारा स्रवित हुए, वह वृक बने । उपस्थ तथा निचले भाग में स्थित लोम वृक के कारण हैं, मध्य भाग में स्थित लोम व्याघ्र के कारण तथा शीर्ष भाग में स्थित लोमों को सिंह के कारण कहा गया है ।
तैत्तिरीय ब्राह्मण २.६.११.७ में त्वष्टा द्वारा वृक की भांति तीव्र गति से भेषज कर्म करने का उल्लेख है । अथर्ववेद १२.१०.३/१२.५.४९ में वृकों द्वारा वास्तुओं में ऐलबम्/ऐरवम् करने का उल्लेख है । यह अन्वेषणीय है कि क्या वास्तु के उल्लेख द्वारा पुराणों की कथा में चातुर्मास में विष्णु द्वारा पदयुक्त वृक पर शयन के तथ्य की व्याख्या की जा सकती है ? महाभारत में भीम के उदर में वृक अग्नि की स्थापना करने से महाभारतकार का क्या तात्पर्य है, यह अन्वेषणीय है । अंग्रेजी भाषा के वर्क(work) का क्या वृक से कोई सम्बन्ध हो सकता है, यह भी अन्वेषणीय है ।
जैमिनीय ब्राह्मण १.२४ में अग्निहोत्र के संदर्भ में वृष्ण – पुत्र बर्कुर का कथन है जो अग्निहोत्र की साधना वित्तों में भूयिष्ठ श्रेष्ठ होने के रूप में करता है । बर्कुर शब्द को वृकुर के रूप में समझा जा सकता है । बर्कुर का अभिप्राय इस प्रकार समझा जा सकता है कि १५ कलाएं वित्त हैं और १६वीं कला स्वयं आत्मा है । आत्मा नाभि है, वित्त परिधि हैं ।
शतपथ ब्राह्मण १२.३.२.६ में वार्कलि नामक विद्वान का कथन है जो यह जानता है कि वर्षा करते हुए मेघ में कितनी बूंदें हैं । वार्कलि शब्द को वृकल के पुत्र के रूप में समझा जा सकता है और वृकल का अर्थ होगा – जो वृक का लालन करता है। उसका कहना है कि शरीर में जितने स्वेद के स्रोत या स्वेदायन हैं, उतनी ही वर्षा की बूंदें हैं । वैदिक साहित्य में स्वेद को वर्षा के रूप में लिया जाता है । मूत्र को भी देह के स्तर पर वर्षा का परिणाम समझा जाता है । इस प्रकार देह के स्तर पर वर्षा दो प्रकार से होती है ।
जोडा – २१-९-२०१०(भाद्रपद शुक्ल त्रयोदशी, विक्रमी संवत् २०६७)
वृक और वृक्क – शतपथ ब्राह्मण १२.७.१.८ में सौत्रामणी याग के संदर्भ में कहा गया है कि इन्द्र के मूत्र के माध्यम से जो ओज व जूति स्रवित हुए, वह वृक बने । मूत्र का जनन वृक्कों द्वारा, गूर्द्दों द्वारा रक्त को छानने से होता है । यह कथन संदेह उत्पन्न करता है कि क्या वृक और वृक्क का कोई सम्बन्ध हो सकता है ? पैप्पलाद संहिता १६.१३९.८ के अनुसार – क्रोधो वृक्कौ मन्युराण्डौ प्रजा शेपः । अर्थात् वृक्क - द्वय क्रोध का रूप हैं, आण्ड – द्वय मन्यु का तथा शिश्न प्रजा का । अन्यत्र मन्यु को व्याघ्र कहा गया है तथा ओज को वृक । तुलना करने पर हम वृक को ओज, क्रोध आदि का जनयिता मान सकते हैं । और वैदिक साहित्य में जो कथन वृक के लिए दिए गए हैं, उन सभी को देह के स्तर पर वृक्क – द्वय के लिए लागू किया जा सकता है ।
तैत्तिरीय संहिता ५.७.१९.१ में कहा गया है – सूर्याचन्द्रमसौ वृक्याभ्यां । अर्थात् वृक्यों (या वृक्कों ?) द्वारा सूर्य और चन्द्र को ग्रहण किया जाता है । इसका अर्थ यह हुआ कि पौराणिक तथा वैदिक साहित्य में जो वृकासुर के आख्यान हैं, उन्हें सूर्य और चन्द्रमा की दृष्टि से समझने की आवश्यकता है । वृकासुर की कथा में वृकासुर का शमन तभी हो पाता है जब सोम रूपी विष्णु उसके ऊपर शयन करते हैं । जब वृक पादरहित, अनूरु होता है तो उसका नाम अरुण होता है और वह सूर्य का सारथी होता है । पैप्पलाद संहिता १६.१३९.८ में वृक्क – द्वय का तादात्म्य क्रोध से किया गया है । ऐसा प्रतीत होता है कि क्रोध का विकसित रूप ही अरुण अवस्था प्राप्त कर सकता है ।
Mantras of Atharvaveda refer to hurting of sheep by vrika/wolf. There are 2 mantras in Rigveda where a king gives 100 rams to a she- wolf for eating and consequently becomes blind due to curse from his father. In mythology, Mesha/ram is symbolic of opening and closing of eyes. As has been clarified in the commentary of cow, goat is a state before sunrise, sheep is the state of sunrise and cow is the state of sun at noon. When sun rises, it creates inanimate objects full with life. Braahmanic texts offer the key to understand wolf when they refer one mantra where adjective aura appears with wolf. Therefore, it can be said that wolf is the state of aura around the rising sun or sheep. This aura is the state of high entropy. This hurts the central state. Hence it deserves to be destroyed.
In the classical book Vedic Nighantu, word vrika/wolf has been classified under thunderbolt, steps and thief. Dr. G.N.Bhat in his book ‘Vedic Nighantu’ quotes that Vrika/wolf word has appeared in Rigveda 28 times. But nowhere has Saayana explained it in the sense of thunderbolt. Rigvedic mantras refer to sowing and drawing of field by vrika. Here the meaning of vrika is plough which can be used to plough our body. Thus, here vrika assumes the form of an axis from one end of which energy enters in it and comes out from the other end. One rigvedic mantra refers to making vrika associated with barley/yava. According to Dr. Fatah Singh, a barley grain is coupled in between. This is one in spite of two. Similarly, the divine and demonic, or immortal and mortal parts of our body can be coupled with each other.
Vedic literature associates vrika with Samvatsara/year. This year progresses through serpentine motion. This serpentine motion has been said to lead to day and night. This remains to be investigated whether such a disordered state, a state of higher entropy can assume the form of an year? A year is formed by the coupling of sun, earth and moon, or praana, body and mind. Can this coupling is still possible in the state of vrika? As for day and night, these appear due to rotation of earth around it’s axis. This is called spin. The other part of the motion of earth is orbital motion around the sun. Though serpentine motion has both spin and orbital parts in it, but it can be assumed that it mainly has spin type of motion. There is one mantra in Rigveda where the seer says that hawks defended him from vrika/wolf. It can be assumed that whereas the serpentine motion has mainly spin type of motion, the hawk possesses mainly orbital motion. One mantra in Rigveda instructs to generate the state of a bird for vrika.
In one mantra of Rigveda, a seer says that a pink coloured vrika saw him and try to hurt. Famous word interpreter Yaaska interprets it in the way that a pink coloured vrika can form the months and therefore it may be either sun or moon. In puraanic texts, this pink coloured one has been stated to be the elder brother of hawk or Garuda. He is without thighs. Thigh in Sanskrit represents the vast span of consciousness. It can be assumed that the pink coloured one is the highest state of development of vrika, the scattered energy, the aura. It is surprising that puraanic texts associate months with the demon Vrikaasura in the form of 8 months and 4 months.
There are several mantras in Rigveda where vrika/wolf is holding a bird in his mouth and gods save her. This bird has the quality of repeating her self again and again. This may be symbolic of the goddess of dawn, Ushaa. In outer world, the Ushaa of a day before is not the same as of today. It has not repeated itself perfectly. This is due to vrika.
There are anecdotes in Braahmanical texts that vrika was born from the energy which trickled through the urine of Indra. This forms the hair of lower parts of the body. The hair of upper parts of the body have been said to be made out of tiger and lion.
संदर्भाः
त्वमग्ने यज्यवे पायुरन्तरोऽनिषङ्गाय चतुरक्ष इध्यसे।
यो रातहव्योऽवृकाय धायसे कीरेश्चिन्मन्त्रं मनसा वनोषि तम्॥ १.०३१.१३
स हि श्रवस्युः सदनानि कृत्रिमा क्ष्मया वृधान ओजसा विनाशयन्।
ज्योतींषि कृण्वन्नवृकाणि यज्यवेऽव सुक्रतुः सर्तवा अपः सृजत्॥ १.०५५.०६
आस्नो वृकस्य वर्तिकामभीके युवं नरा नासत्यामुमुक्तम्। ऋ. १.११६.१४
अजोहवीदश्विना वर्तिका वामास्नो यत्सीममुञ्चतं वृकस्य। - १.११७.१६
यवं वृकेणाश्विना वपन्तेषं दुहन्ता मनुषाय दस्रा।
अभि दस्युं बकुरेणा धमन्तोरु ज्योतिश्चक्रथुरार्याय॥ १.११७.२१
वृक-लाङ्गल-यूप
युवं ह्यास्तं महो रन्युवं वा यन्निरततंसतम्।
ता नो वसू सुगोपा स्यातं पातं नो वृकादघायोः॥ १.१२०.०७
तत्तदिदस्य पौंस्यं गृणीमसीनस्य त्रातुरवृकस्य मीळ्हुषः।
यः पार्थिवानि त्रिभिरिद्विगामभिरुरु क्रमिष्टोरुगायाय जीवसे॥ १.१५५.०४
त्वमस्माकमिन्द्र विश्वध स्या अवृकतमो नरां नृपाता।
स नो विश्वासां स्पृधां सहोदा विद्यामेषं वृजनं जीरदानुम्॥ १.१७४.१०
उत वा यो नो मर्चयादनागसोऽरातीवा मर्तः सानुको वृकः।
बृहस्पते अप तं वर्तया पथः सुगं नो अस्यै देववीतये कृधि॥ २.०२३.०७
अर्वाञ्चो अद्या भवता यजत्रा आ वो हार्दि भयमानो व्ययेयम्।
त्राध्वं नो देवा निजुरो वृकस्य त्राध्वं कर्तादवपदो यजत्राः॥ २.०२९.०६
बृहस्पते तपुषाश्नेव विध्य वृकद्वरसो असुरस्य वीरान्।
यथा जघन्थ धृषता पुरा चिदेवा जहि शत्रुमस्माकमिन्द्र॥ २.०३०.०४
उत स्य न इन्द्रो विश्वचर्षणिर्दिवः शर्धेन मारुतेन सुक्रतुः।
अनु नु स्थात्यवृकाभिरूतिभी रथं महे सनये वाजसातये॥ २.०३१.०३
यो नो मरुतो वृकताति मर्त्यो रिपुर्दधे वसवो रक्षता रिषः।
वर्तयत तपुषा चक्रियाभि तमव रुद्रा अशसो हन्तना वधः॥ २.०३४.०९
वृक आदाने
अस्वप्नजस्तरणयः सुशेवा अतन्द्रासोऽवृका अश्रमिष्ठाः।
ते पायवः सध्र्यञ्चो निषद्याग्ने तव नः पान्त्वमूर॥ ४.००४.१२
इन्द्रा युवं वरुणा दिद्युमस्मिन्नोजिष्ठमुग्रा नि वधिष्टं वज्रम्।
यो नो दुरेवो वृकतिर्दभीतिस्तस्मिन्मिमाथामभिभूत्योजः॥ ४.०४१.०४
स त्वं न ऊर्जसन ऊर्जं धा राजेव जेरवृके क्षेष्यन्तः॥ ६.००४.०४
नू नो अग्नेऽवृकेभिः स्वस्ति वेषि रायः पथिभिः पर्ष्यंहः।
ता सूरिभ्यो गृणते रासि सुम्नं मदेम शतहिमाः सुवीराः॥ ६.००४.०८
ता नृभ्य आ सौश्रवसा सुवीराग्ने सूनो सहसः पुष्यसे धाः।
कृणोषि यच्छवसा भूरि पश्वो वयो वृकायारये जसुरये॥ ६.०१३.०५
दृतेरिव तेऽवृकमस्तु सख्यम्।
अच्छिद्रस्य दधन्वतः सुपूर्णस्य दधन्वतः॥ ६.०४८.१८
मा नो वृकाय वृक्ये समस्मा अघायते रीरधता यजत्राः।
यूयं हि ष्ठा रथ्यो नस्तनूनां यूयं दक्षस्य वचसो बभूव॥ ६.०५१.०६
राया हिरण्यया मतिरियमवृकाय शवसे।
वृकाय चिज्जसमानाय शक्तमुत श्रुतं शयवे हूयमाना।
यावघ्न्यामपिन्वतमपो न स्तर्यं चिच्छक्त्यश्विना शचीभिः॥ ७.०६८.०८
प्र ये ययुरवृकासो रथा इव नृपातारो जनानाम्।
उत स्वेन शवसा शूशुवुर्नर उत क्षियन्ति सुक्षितिम्॥ ७.०७४.०६
अत्रा वि नेमिरेषामुरां न धूनुते वृकः।
दिवो अमुष्य शासतो दिवं यय दिवावसो॥ ८.०३४.०३
मा ते अस्यां सहसावन्परिष्टावघाय भूम हरिवः परादै।
त्रायस्व नोऽवृकेभिर्वरूथैस्तव प्रियासः सूरिषु स्याम॥ ७.०१९.०७
दशस्यन्ता मनवे पूर्व्यं दिवि यवं वृकेण कर्षथः।
ता वामद्य सुमतिभिः शुभस्पती अश्विना प्र स्तुवीमहि॥ ८.०२२.०६
वृको लाङ्गलं भवति विकर्तनात्' (निरु. ६.२६)
पार्षद्वाणः प्रस्कण्वं समसादयच्छयानं जिव्रिमुद्धितम्।
सहस्राण्यसिषासद्गवामृषिस्त्वोतो दस्यवे वृकः॥ ८.०५१.०२
भूरीदिन्द्रस्य वीर्यं व्यख्यमभ्यायति।
प्रति ते दस्यवे वृक राधो अदर्श्यह्रयम्।
दश मह्यं पौतक्रतः सहस्रा दस्यवे वृकः।
वृकश्चिदस्य वारण उरामथिरा वयुनेषु भूषति।
सेमं नः स्तोमं जुजुषाण आ गहीन्द्र प्र चित्रया धिया॥ ८.०६६.०८
ते न आस्नो वृकाणामादित्यासो मुमोचत।
उदीरतामवर उत्परास उन्मध्यमाः पितरः सोम्यासः।
असुं य ईयुरवृका ऋतज्ञास्ते नोऽवन्तु पितरो हवेषु॥ १०.०१५.०१
ता वर्तिर्यातं जयुषा वि पर्वतमपिन्वतं शयवे धेनुमश्विना।
वृकस्य चिद्वर्तिकामन्तरास्याद्युवं शचीभिर्ग्रसिताममुञ्चतम्॥ १०.०३९.१३
ऋष्वा ते पादा प्र यज्जिगास्यवर्धन्वाजा उत ये चिदत्र।
त्वमिन्द्र सालावृकान्सहस्रमासन्दधिषे अश्विना ववृत्याः॥ १०.०७३.०३
सुदेवो अद्य प्रपतेदनावृत्परावतं परमां गन्तवा उ।
अधा शयीत निर्ऋतेरुपस्थेऽधैनं वृका रभसासो अद्युः॥ १०.०९५.१४
पुरूरवो मा मृथा मा प्र पप्तो मा त्वा वृकासो अशिवास उ क्षन्।
न वै स्त्रैणानि सख्यानि सन्ति सालावृकाणां हृदयान्येता॥ १०.०९५.१५
यो न इन्द्राभितो जनो वृकायुरादिदेशति।
अधस्पदं तमीं कृधि विबाधो असि सासहिर्नभन्तामन्यकेषां ज्याका अधि धन्वसु॥ १०.१३३.०४