शुनःशेप

      टिप्पणी: ऐतरेय ब्राह्मण ७.१३ में शुनःशेप आख्यान का आरम्भ इस प्रकार होता है कि राजा हरिश्चन्द्र के सौ रानियां थी किन्तु पुत्र एक भी न था। एक दिन नारद और पर्वत उनके घर आए तो उन्होंने नारद से पुत्र का महत्त्व जानकर उपाय के रूप में वरुण से पुत्र की याचना की। वरुण ने कहा पुत्र तो प्राप्त हो जाएगा लेकिन उससे मेरा यजन करना होगा। राजा ने मान लिया। राजा को रोहित नामक पुत्र हुआ तो वरुण ने राजा को उसके वचन की याद दिलायी। राजा ने कहा अभी तो पुत्र १० दिन का नहीं हुआ है, जब १० दिन का हो जाता है तभी तो वह मेध्य होता है। जब रोहित १० दिन का हो गया तो राजा ने कहा कि जब पशु के दांत निकल आते हैं तब वह मेध्य होता है, तब यजन करूंगा। जब दांत निकल आए तो कहा कि जब दांत गिरकर पुनः नए आ जाएं तब पशु मेध्य होता है। फिर कहा कि जब क्षत्रिय शस्त्रधारी हो जाता है तब मेध्य बनता है। अब हरिश्चन्द्र के पास कोई बहाना नहीं बचा था, उसने रोहित को बुलाकर सूचना दी कि तुम्हें यज्ञपशु बनाकर यजन किया जाएगा। रोहित यह सुनकर जंगल में भाग गया और एक साल तक विचरता रहा। इस बीच वरुण के क्रोध से राजा हरिश्चन्द्र को जलोदर रोग हो गया। रोहित ने जब सुना तो उसने घर आने का मन बनाया लेकिन इन्द्र ने ब्राह्मण रूप में प्रकट होकर कहा कि जो अश्रान्त नहीं रहता, उसके लिए श्री नहीं है। बैठा रहने वाला पुरुष पापी होता है। अतः विचरण ही करते रहो। फिर दूसरा वर्ष बीतने पर भी ऐसा ही हुआ। इन्द्र ने कहा कि विचरण करने वाले की जङ्घाएं पुष्पिणी होती हैं और आत्मा फलग्रहि होती है, उसके सारे पाप सो जाते हैं इत्यादि।फिर चौथा वर्ष बीतने पर भी ऐसा ही हुआ और इन्द्र ने कहा कि आसीन होने वाले का भाग्य भी बैठ जाता है और बैठ जाने वाले का भाग्य ऊर्ध्व खडा हो जाता है। भूमि पर शयन करने वाले का भाग्य भी सो जाता है इत्यादि। फिर पांचवें वर्ष भी ऐसा ही हुआ और इन्द्र ने कहा कि जो सोता है, वह कलि है, जो जग जाता है वह द्वापर है, जो उठ जाता है वह त्रेता है और जो विचरण करता है वह कृत है। फिर छठें वर्ष भी ऐसा ही हुआ और इन्द्र ने कहा कि विचरण करने वाला मधु प्राप्त करता है, स्वादु उदुम्बर प्राप्त करता है। सूर्य को देखो जो विचरण करते हुए कभी भी तन्द्रा को प्राप्त नहीं होता। रोहित फिर विचरण करने लगा। अब उसने सुयवस के पुत्र अजीगर्त को देखा जो भूख से पीडित था। अजीगर्त के तीन पुत्र थे- शुनःपुच्छ, शुनःशेप और शुनःलाङ्गूल। शुनःपुच्छ कनिष्ठ होने के कारण माता को प्यारा था, शुनःलाङ्गूल ज्येष्ठ होने के कारण पिता को प्यारा था, अतः उनका विक्रय नहीं किया जा सकता था। मध्यम पुत्र शुनःशेप को रोहित ने गायों तथा धन आदि के बदल क्रय कर लिया। वरुण देवता भी इसके लिए मान गया कि शुनःशेप यज्ञपशु से उसका यजन कर दिया जाए। जब शुनःशेप ने देखा कि उसके हनन का क्षण आ गया है तो उसने सर्वप्रथम प्रजापति देवता की स्तुति की। प्रजापति ने कहा कि अग्नि ही देवों के निकटतम है, उनकी स्तुति करो। अग्नि ने कहा कि सविता ही प्रसव करने वाला है, उनकी स्तुति करो। सविता ने कहा कि तुम वरुण राजा के लिए नियुक्त हो, उनके पास ही जाओ। वरुण ने कहा कि अग्नि ही देवों का मुख है, उनकी स्तुति करो। अग्नि ने कहा कि विश्वेदेवों की स्तुति करो। विश्वेदेवों ने कहा कि इन्द्र ही देवों में ओजिष्ठ, बलिष्ठ, सहिष्ठ, सत्तम है, उनकी स्तुति करो। इन्द्र ने कहा कि अश्विनौ की स्तुति करो। अश्विनौ ने कहा उषा की स्तुति करो। अब शुनःशेप के पाश एक-एक करके खुलते चले गए। ऋत्विजों के कहने पर शुनःशेप ने इस अञ्जःसव नामक अभिषेचनीय अह का विशिष्ट दर्शन किया(यत्र ग्रावा पृथुबुध्न - ऋ.१.२८ इत्यादि) । इसके पश्चात् शुनःशेप के अजीगर्त के स्थान पर विश्वामित्र का पुत्र बन जाने का वर्णन है। उपरोक्त स्तुतियां ऋग्वेद १.२४ से १.३० में उपलब्ध हैं।

      उपरोक्त आख्यान राजसूय क्रतु के अभिषेचनीय अह में राजा को सुनाए जाने का विधान है।

      इस आख्यान का मूल चातुर्मास याग में खोजा जा सकता है। चातुर्मास याग का आरम्भ इस प्रकार होता है कि प्रजापति ने प्रजाओं को उत्पन्न किया लेकिन प्रजाएं उत्पन्न होते ही उनसे दूर चली गई। तब प्रजापति ने ऐसी प्रजा उत्पन्न की जो पयः प्राप्ति की आशा में उनसे दूर नहीं गई। तब मरुतों ने उस प्रजा के दक्षिण में स्थित होकर कहा कि हमें भी यज्ञ में भाग दो नहीं तो हम प्रजा की हिंसा करेंगे। चूंकि प्रजा ने उत्पन्न होते ही यव भक्षण किए, इसलिए उन पर वरुण का अधिकार हो गया क्योंकि यव वरुण देवता से सम्बन्धित होते हैं। वरुण ने प्रजा के उत्तर में स्थित होकर कहा कि मुझे भी यज्ञ में भाग दो नहीं तो प्रजा की हिंसा करूंगा। इस प्रकार दक्षिण में मरुतों ने और उत्तर में वरुण ने चातुर्मास याग में स्थान प्राप्त किया। इसके प्रतीक रूप में चातुर्मास में उत्तरवेदी और दक्षिणवेदी बनाई जाती हैं जिनमें क्रमशः अध्वर्यु तथा प्रतिप्रस्थाता नामक ऋत्विज स्थित होकर अपने – अपने कृत्यों का संचालन करते हैं।ऋग्वेद ९.६६.२५-२६ ऋचाएं निम्नलिखित हैं-

      पवमानस्य जङ्घ्नतो हरेश्चन्द्रा असृक्षत। जीरा अजिरशोचिषः।।

      पवमानो रथीतमः शुभ्रेभिः शुभ्रशस्तमः। हरिश्चन्द्रो मरुद्गणः।।

      उपरोक्त ऋचा में रथीतम पवमान सोम को हरिश्चन्द्र मरुद्गण कह दिया गया है। यदि हरिश्चन्द्र मरुद्गण है तो उसका पुत्र रोहित आरोहण करने वाली कोई शक्ति है। सामान्य रूप से रोहित/लोहित/मंगल को पृथिवी तत्त्व की अग्नि या तन्मात्रा कहा जाता है। और वरुण को आपः/तोय तत्त्व की अग्नि कहा जाता है(भविष्य पुराण २.१.१७.१५)। स्कन्द पुराण ५.२.४४.३३ में वरुण के मंगल ग्रह से पीडित होने का उल्लेख है।

      दीपावली पर्व चातुर्मास का एक अंग है। जो संन्यासी चातुर्मास में एक स्थान पर रुके होते हैं, वे दीपावली के कुछ ही दिनों पश्चात् प्रयाण करते हैं। चातुर्मास याग के चार अंग हैं – वैश्वदेव, वरुणप्रघास, साकमेध और शुनासीर। इनमें वैश्वदेव इष्टि, वरुणप्रघास व साकमेध क्रमिक रूप से संवत्सर के ४-४ मासों के बाद सम्पन्न किए जाते हैं जबकि शुनासीर याग को साकमेध के १५ दिन बाद सम्पन्न किया जाता है। वैश्वदेव इष्टि में अग्नि अनीकवती आदि इष्टियां सम्पन्न की जाती हैं। वरुणप्रघास में वरुण देवता की विशेष रूप से अर्चना की जाती है जिससे पापों का नाश हो सके। साकमेध में मरुतों के ७ गणों की उपासना की जाती है जिससे वे इन्द्र के सखा बन सकें। शुनासीर याग के दो भाग हैं – शुनम् और सीर/श्री। शुनम् का अर्थ होगा कि एकान्तिक साधना द्वारा जो कुछ प्राप्त किया जा सकता था, वह सब प्राप्त कर लिया गया है, शून्य की प्राप्ति कर ली गई है, सब पाप नष्ट हो गए हैं। सीर/श्री का अर्थ होगा कि अब हम उस स्थिति में पहुंच गए हैं कि अपनी उपलब्धियों को अपने व्यावहारिक जीवन में उतार सकें तथा दूसरों को भी उससे लाभ पहुंचा सकें। दीपावली पर्व पर गणेश शुनम् का प्रतीक हो सकता है तथा सीर/श्री लक्ष्मी का। हरिश्चन्द्र के आख्यान में रोहित को आरोहण करने वाली ऊर्जा माना जा सकता है। आधुनिक विज्ञान की भाषा में रोहित को पृथ्वी से अभी-अभी छोडा गया एक उपग्रह कहा जा सकता है जबकि शुनम् को उपग्रह की वह स्थिति कहा जा सकता है जहां वह पृथिवी की गुरुत्वाकर्षण शक्ति से बाहर पहुंच गया है।

      भागवत पुराण में मध्यम प्रकार के भक्त के चार लक्षण कहे गए हैं जो इस संदर्भ में भी उपयोगी कहा जा सकता है। चार लक्षण हैं – ईश्वर में प्रेम, उसके आधीनों से मैत्री, बालिशों से कृपा व द्वेषियों की उपेक्षा। इन लक्षणों में मैत्री को मित्र देवता का लक्षण व कृपा को वरुण देवता का लक्षण माना जा सकता है। शुनासीर याग के संदर्भ में शुनम् को मैत्री, कृपा व उपेक्षा से निर्मित माना जा सकता है, जबकि सीर को प्रेम का रूप कहा जा सकता है।

      सामान्य रूप से तो चातुर्मास याग एक वर्ष से भी अधिक समय होता है, लेकिन चाहे तो इसे मात्र एक दिन में भी सम्पन्न किया जा सकता है। यह साधक के तप की तीव्रता पर, अभीप्सा पर निर्भर करता है। दीपावली पर हनुमान की अर्चनाग मरुतों के साकमेध पर्व से सम्बन्धित हो सकती है। चातुर्मास याग का विधि-विधान कल्प ग्रन्थों व ब्राह्मण ग्रन्थों में उपलब्ध है। चातुर्मास याग के विधि-विधान के संदर्भ में डा. लालताप्रसाद द्विवेदी की पुस्तक “वैदिक वाङ्मय में चातुर्मास्य यज्ञ” (पेनमैन पब्लिशर्स, ७३०८ प्रेमनगर, शक्तिनगर, दिल्ली – ११०००७, प्रकाशित २००५ई.) भी पठनीय है।

      शुनःशेप के संदर्भ में यह उल्लेखनीय है कि वह अजीगर्त ऋषि का मध्यम पुत्र है और अजीगर्त धनाभाव/वित्ताभाव/क्षुधा से पीडित है। इसीलिए वह मध्यम पुत्र शुनःशेप का विक्रय करके वित्त प्राप्त करने के लिए तैयार है। मध्यम शब्द का रहस्य आधुनिक विज्ञान में तत्त्वों की सारणी(periodic table of elements) के माध्यम से समझा जा सकता है। इस सारणी में लगभग ११० तत्त्वों को उनमें विद्यमान इलेक्ट्रानों की संख्या के क्रम से आठ वर्गों में विभाजित किया गया है। ऐसा करने पर पाया गया है कि एक वर्ग में जो तत्त्व हैं, उनके गुणों में कुछ न कुछ समानता है। चतुर्थ वर्ग के तत्त्वों के नाम हैं – कार्बन, सिलिकन, जर्मेनियम, वंग/टिन व सीसा/लैड। वर्तमान जगत में जीवन के अस्तित्त्व के लिए कार्बन उत्तरदायी है। कार्बन के परमाणुओं में एक-दूसरे से जुडने की बहुत आसक्ति है। सिलिकन के परमाणुओं में यह आसक्ति नहीं है, न ही इससे आगे के तत्त्वों में। सीसे को तो नपुंसक तत्त्व कहा जाता है। यह नपुंसकता किसी हद तक वंग/टिन में भी विद्यमान है। चतुर्थ वर्ग को मध्यम वर्ग कहा जा सकता है। वैदिक दृष्टिकोण से इस वर्ग का नाम शुनः होना चाहिए। शुनः बनने की यात्रा कार्बन परमाणुओं की आसक्ति से आरम्भ करनी है और सीसे पर, नपुंसकता पर जाकर समाप्त करनी है। नपुंसकता का अर्थ होगा कि भूख, प्यास आदि कोई भी आवेग हमें प्रभावित न करे।

      तत्त्वों की इस सारणी की आध्यात्मिक व्याख्या के लिए अब तक जो प्रयास किए गए हैं, उनमें इसके वर्गों को संगीत के सात स्वरों के तुल्य रखने का प्रयास किया गया है। संगीत में मध्यम स्वर बहुत महत्त्वपूर्ण होता है। कोई राग किस समय गाया जाना है, इसका निर्णय उसमें विद्यमान मध्यम स्वर की स्थिति से होता है। मध्यम स्वर के दो प्रकार होते हैं – शुद्ध मध्यम और तीव्र मध्यम। तीव्र मध्यम में ध्वनि की आवृत्ति अधिक होती है। जैसे-जैसे रात्रिकाल निकट आता है, तीव्र मध्यम की पुनरावृत्ति अधिक होती जाती है। लेकिन वैदिक साहित्य के आधार पर तत्त्व सारणी की और अधिक आध्यात्मिक व्याख्या का प्रयास किया जा सकता है। वैदिक साहित्य में शुनम् के, मध्यम के परितः श्री की स्थापना की गई है और जैसा कि अष्टसखी शब्द के संदर्भ में व्याख्या की जा चुकी है, श्री के गुणों का विभाजन आठ दिशाओं में किया गया है। जीव जगत में शुनम् की स्थिति यही है। दूसरी ओर, जड जगत में तत्त्वों की सारणी का आधार रैखिक है। तत्त्व सारणी के तीसरे और पांचवें वर्ग की व्याख्या भविष्य में अपेक्षित है। इस प्रकार यह स्पष्ट हो जाता है कि शुनःशेप का पिता अजीगर्त वित्ताभाव से पीडित क्यों है। वैदिक साहित्य में कहा गया है कि आत्मा १६वीं कला है और शेष १५ कलाएं इसका वित्त हैं। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि १६वीं कला शुनः का रूप है और शेष १५ कलाएं इसका वित्त, पेश/शरीर हैं। पेश का उल्टा शेप/लिंग होता है। शुनः की स्थिति को प्राप्त करना पर्याप्त नहीं है। और वित्त को प्राप्त करने के लिए श्री की उपासना करनी ही पडेगी।


      शुनः/शुनम्


      संदर्भ

      *शु॒नम॒न्धाय॒ भर॑मह्वय॒त्सा वृ॒कीर॑श्विना वृषणा॒ नरेति॑ । जा॒रः क॒नीन॑ इव चक्षदा॒न ऋ॒ज्राश्वः॑ श॒तमेकं॑ च मे॒षान् ॥ - ऋ. १,११७.१८

      *ज॒म्भय॑तम॒भितो॒ राय॑तः॒ शुनो॑ ह॒तं मृधो॑ वि॒दथु॒स्तान्य॑श्विना। वाचं॑वाचं जरि॒तू र॒त्निनीं॑ कृतमु॒भा शंसं॑ नासत्यावतं॒ मम॑ ॥ - ऋ. १,१८२.४

      *शु॒नं हु॑वेम म॒घवा॑न॒मिन्द्र॑म॒स्मिन् भरे॒ नृत॑मं॒ वाज॑सातौ। शृ॒ण्वन्त॑मु॒ग्रमू॒तये॑ स॒मत्सु॒ घ्नन्तं॑ वृ॒त्राणि॑ सं॒जितं॒ धना॑नाम्॥ - ऋ. ३.३०.२२, ३१.२२, ३२.१७, ३४.११, ३५.११, ३६.११, ३८.१०, ३९.९, ४३.८, ४८.५, ४९.५, ५०.५, १०.८९.१८, १०४.११, शौ.अ. २०.११.११, तै.ब्रा. २.४.४.३, साम ३२९

      * ऋ॒तेनाद्रिं॒ व्य॑सन्भि॒दन्तः॒ समङ्गि॑रसो नवन्त॒ गोभिः॑। शु॒नं नरः॒ परि॑ षदन्नु॒षास॑मा॒विः स्व॑रभवज्जा॒ते अ॒ग्नौ ॥ - ऋ. ४,३.११

      *अव॑र्त्या॒ शुन॑ आ॒न्त्राणि॑ पेचे॒ न दे॒वेषु॑ विविदे मर्डि॒तार॑म्। अप॑श्यं जा॒यामम॑हीयमाना॒मधा॑ मे श्ये॒नो मध्वा ज॑भार॥- ऋ. ४.१८.१३

      *शु॒नं वा॒हाः शु॒नं नरः॑ शु॒नं कृ॑षतु॒ लाङ्ग॑लम्। शु॒नं व॑र॒त्रा ब॑ध्यन्तां शु॒नमष्ट्रा॒मुदि॑ङ्गय॥ - ऋ. ४.५७.४

      *शु॒नं नः॒ फाला॒ वि कृ॑षन्तु॒ भूमिं॑ शु॒नं की॒नाशा॑ अ॒भि य॑न्तु वा॒हैः। शु॒नं प॒र्जन्यो॒ मधु॑ना॒ पयो॑भिः॒ शुना॑सीरा शु॒नम॒स्मासु॑ धत्तम्॥ - ऋ. ४.५७.८

      *त्वामी॑ळे॒ अध॑ द्वि॒ता भ॑र॒तो वा॒जिभिः॑ शु॒नम्। ई॒जे य॒ज्ञेषु॑ य॒ज्ञिय॑म् ॥ - ऋ. ६,१६.४

      *श॒तं वे॒णूञ्छ॒तं शुनः॑ श॒तं चर्मा॑णि म्ला॒तानि॑ । श॒तं मे॑ बल्बजस्तु॒का अरु॑षीणां॒ चतुः॑शतम् ॥ - ऋ. ८.५५.३

      *शु॒नम॑ष्ट्रा॒व्य॑चरत्कप॒र्दी व॑र॒त्रायां॒ दार्वा॒नह्य॑मानः। नृ॒म्णानि॑ कृ॒ण्वन्ब॒हवे॒ जना॑य॒ गाः प॑स्पशा॒नस्तवि॑षीरधत्त॥ - ऋ. १०,१०२.८

      *शु॒नम॒स्मभ्य॑मू॒तये॒ वरु॑णो मि॒त्रो अ॑र्य॒मा। शर्म॑ यच्छन्तु स॒प्रथ॑ आदि॒त्यासो॒ यदीम॑हे॒ अति॒ द्विषः॑॥ - ऋ. १०,१२६.७

      *अ॒श्वा॒यन्तो॑ ग॒व्यन्तो॑ वा॒जय॑न्तो॒ हवा॑महे॒ त्वोप॑गन्त॒वा उ॑। आ॒भूष॑न्तस्ते सुम॒तौ नवा॑यां व॒यमि॑न्द्र त्वा शु॒नं हु॑वेम ॥ - ऋ. १०,१६०.५

      *चातुर्मास्ययागे शुनासीरीय पर्व : अथ यस्माच्छुनासीर्येण यजेत। या वै देवानां श्रीरासीत् – साकमेधैरीजानानां विजिग्यानानाम् – तच्छुनम्। अथ यः संवत्सरस्य प्रजितस्य रस आसीत् – तत्सीरम्। - मा.श. २.६.३.२

      *हस्तिषट् काण्डे गार्हपत्यचयनम् : स वाऽआत्मानमेव विकृषति – न पक्षपुच्छानि। आत्मंस्तदन्नं दधाति। यदु वाऽआत्मन्नन्नं धीयते – तदात्मानमवति, तत्पक्षपुच्छानि। अथ यत्पक्षपुच्छेषु – नैव तदात्मानमवति, न पक्षपुच्छानि। स दक्षिणार्द्धेनाग्नेरन्तरेण परिश्रितः प्राचीं प्रथमां सीतां कृषति। शुनं सुफाला विकृषन्तु भूमिं शुनं कीनाशा अभियन्तु वाहैः(वा.सं. १२.६९) इति। शुनं शुनमिति। यद्वै समृद्धम् – तच्छुनम्। समर्धयत्येवैनामेतत्। - मा.श. ७.२.२.९