मत्तङ्ग मुनि और शबरी के माध्यम से मुमुक्षा वृत्ति का चित्रण
राधा गुप्ता
कथा का संक्षिप्त स्वरूप – कथा में कहा गया है कि राम और लक्ष्मण जब सुग्रीव से मित्रता हेतु ऋष्यमूक की ओर जा रहे थे, तब मार्ग में उन्होंने शबरी का आश्रम देखा। शबरी मत्तंग मुनि की शिष्या थी और मत्तंग मुनि के चले जाने पर भी वन्य फल-मूलों का संचय करती हुई राम के आगमन की प्रतीक्षा कर रही थी। मत्तंग मुनि ने ही शबरी को आश्वासन दिया था कि एक न एक दिन राम अवश्य आएँगे(अरण्यकाण्ड, अध्याय 73-74)।
कथा का तात्पर्य – प्रस्तुत वृत्तान्त के द्वारा इस महत्त्वपूर्ण तथ्य का प्रतिपादन किया गया है कि मनुष्य के चित्त/ गहरे मन में एक ऐसी वृत्ति विद्यमान है जो उसे सतत् किसी महात्मा के सत्संग, किसी धार्मिक आयोजन अथवा शास्त्रों के श्रवण-पठन की ओर प्रेरित करती है। इस वृत्ति का निर्माण उस प्रसन्न – हृष्ट मन के फलस्वरूप होता है जब मन किसी सत्संग, किसी धार्मिक आयोजन अथवा शास्त्रों के श्रवण-पठन आदि में बहुत प्रसन्नता का अनुभव कर लेता है और आश्वस्त हो जाता है कि एक न एक दिन इसी से आत्म-ज्ञान भी प्राप्त होगा।
कथा संकेत करती है कि यह वृत्ति मनुष्य के भीतर तब तक विद्यमान रहती है जब तक वह आत्म – ज्ञान में स्थित नहीं हो जाता। आत्म-ज्ञान में अवस्थित होने पर इस वृत्ति का सहज ही उद्धार हो जाता है।
कथा की प्रतीकात्मकता – कथा में आए हुए शब्दों की प्रतीकात्मकता को पृथक् से देख लेना भी उपयोगी होगा।
1- आत्मा – परमात्मा से सम्बन्ध रखने वाले अनेकानेक शास्त्रों का श्रवण अथवा पठन करते हुए मनुष्य का मन जब प्रसन्नता से युक्त हो जाता है, तब उस प्रसन्न मन को ही यहाँ मत्तंग मुनि कहा गया है। मुनि का अर्थ है – मन और मत्तंग (मत्तं गच्छति इति) का अर्थ है - प्रसन्न या हृष्ट।
2- इस प्रसन्न मन के पीछे – पीछे चलने वाली विशिष्ट मनोवृत्ति को जो आत्मा के दर्शन की अभिलाषा से युक्त होती है, यहां शबरी कहा गया है। शबरी शब्द शबली शब्द का रूपान्तर प्रतीत होता है जिसका अर्थ है – चितकबरी अर्थात् ज्ञान – अज्ञान से मिश्रित चेतना। शास्त्रीय भाषा में इस मनोवृत्ति अर्थात् शबरी को मुमुक्षा वृत्ति कहा जा सकता है।
3 – शास्त्रों के श्रवण अथवा पठन से अनेक प्रकार की आत्मविषयक सूचनाओं के इकट्ठा करने को ही शबरी का वन्य फल – मूलों को इकट्ठा करना कहा गया है।
मन की प्रसन्न के फलस्वरूप निर्मित हुई यह वृत्ति धीरे – धीरे संस्कार बन जाती है और जीवन में प्राप्त होने वाले सत्संगों (सत्पुरुष अथवा सत्शास्त्र का संग) में प्रवृत्त होकर ज्ञान सम्बन्धी सूचनाओं का संचय करती रहती है।
शबरी – मतङ्ग कथा का वैदिक रूप
विपिन कुमार
वैदिक साहित्य में सार्वत्रिक रूप से यम के दो कुत्तों – श्याम व शबल का उल्लेख आता है। इन्हें यम के मार्ग के रक्षक कहा गया है। यदि शबल का तादात्म्य शबरी या शबली से है, तो श्याम का तादात्म्य् मतङ्ग से हो सकता है। जैसा कि राधा ने उल्लेख किया है, शबली स्थिति में संशय विद्यमान रहता है। वैदिक साहित्य के अनुसार इस संशय को मिटाकर शबली को कामधेनु गौ बनाना है – जो हर कामना को बिना संशय के पूरा कर दे। रामायण में शबरी को मतङ्ग की शिष्या के रूप में चित्रित किया गया है। इससे संकेत मिलता है कि शबली या शबरी में जो संशय की विद्यमानता है, वह मतङ्ग ऋषि द्वारा ही दूर की जा सकती है। मतङ्ग आश्रम की स्थिति ऋष्यमूक पर्वत पर कही गई है। यह संकेत देता है कि मतङ्ग ऋषि का कार्य तभी होता है जब इन्द्रियां अन्तर्मुखी हो जाएं, जैसा कि रात्रि काल में होता है। रात्रि को श्याम स्थिति कहा जा सकता है(जैमिनीय ब्राह्मण 1.6 में अह को शबल व रात्रि को श्याम कहा गया है)। इससे अगली स्थिति श्यामला, अर्थात् श्याम को रंगीन बनाने की है। श्री राजश्यामलारहस्योपनिषद में मतङ्ग ऋषि कूचिमार को राजश्यामला देवी का रहस्य प्रकट करते हैं। पुराणों में वायव्य दिशा में श्यामला गोपी की स्थिति कही गई है। वृन्दावन में इस दिशा में रङ्गदेवी गोपी को स्थान दिया गया है, ऐसा अनुमान है। पुराणों के श्यामला नाम और वृन्दावन के रङ्गदेवी नाम में कोई अन्तर नहीं है। श्यामला का अर्थ है श्याम वर्ण का लालन करने वाली, उसमें रंग देने वाली। रङ्गदेवी गोपी की सेवा राधा-कृष्ण को चन्दन अर्पित करना है। वह सुगन्ध की ज्ञाता है। वह मन्त्र द्वारा कृष्ण को आकृष्ट कर सकती है।
अथर्ववेद में इस दिशा में इरा पुंश्चली की स्थिति कही गई है जिसका विज्ञान “हस” है। अह और रात्रि परिष्कन्द हैं। इरा से तात्पर्य होता है पृथिवी पर उत्पन्न होने वाली ओषधि-वनस्पतियों से। हस्ती इस इरा का विशेषज्ञ माना जाता है, अतः उसे ऐरावत कहते हैं। पुराणों में तो इरा हस्तियों की माता है। वेदों में इरा के अन्य रूप इळा और इला हैं। सोमयाग में इळा के प्रतीक रूप में दक्षिण भारतीय इडली व्यञ्जन बनाया जाता है जिसका सेवन यज्ञ के सबसे अन्त में किया जा सकता है। कहा गया है कि इळा पाकयज्ञिया है, अर्थात् उसको यज्ञ के द्वारा पकाना है। पकने के पश्चात् ही उसका सेवन किया जा सकता है। इरा के विज्ञान के रूप में “हस” शब्द का उल्लेख है। सामवेद के गायन में दो शब्द आते हैं – अस और हस। संभवतः अस अन्तर्मुखी स्थिति है और हस बहिर्मुखी। अथवा हस हंस से, नीर-क्षीर विवेक से सम्बन्धित हो सकता है। लेकिन हस के संदर्भ में यह तर्क संतोषजनक नहीं हैं। संभावना यह है कि हस का परोक्ष रूप “घस” है। घस शब्द का प्रयोग खाने के लिए होता है। इसी धातु से घास बना है। यदि वेद में इरा/इळा के भक्षण का निषेध है तो फिर उसका विज्ञान यही हो सकता है कि उसका भक्षण किस प्रकार किया जाए। भौतिक पृथिवी की जो इरा है, उसका सेवन हम अपने भोजन के रूप में कर ही रहे हैं। लेकिन वेद का संदेश है कि पहले उसको पाकयज्ञिया बनाओ, तब भक्षण करना। इ़डा को पाकयज्ञिया बनाने से क्या तात्पर्य हो सकता है, इसको इस तथ्य से समझ सकते हैं कि वायव्य दिशा की विशेषता क्या है। जैसा कि वायु शब्द की टिप्पणी में स्पष्ट किया जा चुका है, वायु एक ऐसी स्थिति है जहां जड पदार्थ के कारण गुरुत्वाकर्षण लगभग समाप्त हो जाता है। यही कारण है कि वायु का प्रवाह मुक्त रूप से होता रहता है। यदि गुरुत्वाकर्षण विद्यमान रहता है तो वनस्पति जगत गुरुत्वाकर्षण की विपरीत दिशा में वृद्धि करने के लिए प्रतिक्रिया काष्ठ का निर्माण करता है और इस कार्य में ही उसकी अधिकांश ऊर्जा का व्यय हो जाता है। ऊर्जा की चरम परिणति – पयः को सुरक्षित रखने के लिए यह आवश्यक है कि उसे गुरुत्वाकर्षण से बचाया जाए। यही कारण है कि वनस्पतियां अपने बीज के चारों ओर काष्ठ का आवरण बनाती हैं जो प्रतिक्रिया काष्ठ का ही रूप है। इस आधार पर यह विचार किया जा सकता है कि जब वनस्पति जगत को गुरुत्वाकर्षण शक्ति जैसी किसी शक्ति का सामना करना नहीं पडेगा तो उसके पयः का और बीज का स्वरूप क्या होगा। वही इरा पाकयज्ञिया कहलाने योग्य होगी।
श्रीसूक्त में इस दिशा में पृथिवी की गन्ध को प्रमुखता दी गई है(गन्धद्वारां दुराधर्षां नित्यपुष्टां करीषिणीम्। ईश्वरीं सर्वभूतानां तामिहोपह्वये श्रियम्॥)। इरा, पृथिवी की गन्ध आदि कथन यह संकेत करते हैं कि किसी प्रकार से जड भूतों से सूक्ष्म भूत प्रकट करने हैं, जड से चेतन भूत उत्पन्न करने हैं। वही पृथिवी आदि तत्त्वों की गन्ध है। करीषिणी शब्द के संदर्भ में, करीष सूखे गोबर को कहते हैं जिसे जलाने के काम में लिया जाता है। विष्णुधर्मोत्तर पुराण में करीषिणी को घर्म/धर्म? की पत्नी कहा गया है। यदि करीषिणी को धर्म के बदले घर्म की पत्नी माना जाए तो अधिक उपयुक्त प्रतीत होता है। घर्म शरीर के परितः प्रकट हुई गर्मी को कहते हैं। महापुरुषों के चित्रों के मुख के परितः एक आभामण्डल दिखाया जाता है। वह भी घर्म का रूप है। इस घर्म का मूल करीषिणी को कहा गया है। जब वायव्य दिशा में श्यामला गोपी या रङ्गदेवी गोपी की स्थिति कही जाती है तो साधना के स्तर पर उससे यही तात्पर्य निकाला जा सकता है कि अब साधक की देह का आभामण्डल श्याम, काला नहीं रह गया है, अब वह रङ्ग वाला है। यदि भौतिक पृथिवी के लिए उसकी ओषधि-वनस्पतियां इरा हैं तो साधक की पृथिवी के लिए उसका आभामण्डल इरा है।
उणादिकोश की नारायण वृत्ति में मतङ्ग की निरुक्ति मन से की गई है(पतितमितृलूभ्यो ङ्गच्।।2.2.59।। - - -- -- - अर्थात् पति से पतङ्गः, तमि से तमङ्गः, तृ से तरङ्गः, लू से लवङ्गः शब्द बनता है। - - - मनस्तुट् च ।।2.2.62।। अर्थात् मन से मनङ्गः बनता है और मन में तुट् आगम अतिरिक्त करने पर मतङ्गः शब्द का निर्माण होता है) । यदि मतङ्ग मन है तो शबरी बुद्धि हो सकती है।
रात्रि को शर्वरी कहा जाता है। शबरी शब्द की व्युत्पत्ति शर्वरी के आधार पर भी हो सकती है। शव में, निष्चेष्ट अवस्था में प्राणों के संचार को शर्व कहा जा सकता है।
प्रथम लेखन - 22-3-2015ई.(चैत्र शुक्ल द्वितीया, विक्रम संवत् 2072)
संदर्भ
शबली
१०,०१४.१० अति द्रव सारमेयौ श्वानौ चतुरक्षौ शबलौ साधुना पथा ।
१०,०१४.१० अथा पितॄन्सुविदत्रां उपेहि यमेन ये सधमादं मदन्ति ॥
(५.२९.६ ) आमे सुपक्वे शबले विपक्वे यो मा पिशाचो अशने ददम्भ ।
(५.२९.६ ) तदात्मना प्रजया पिशाचा वि यातयन्तामगदोऽयमस्तु ॥६॥
(८.१.९ ) श्यामश्च त्वा मा शबलश्च प्रेषितौ यमस्य यौ पथिरक्षी श्वानौ ।
(८.१.९ ) अर्वाङेहि मा वि दीध्यो मात्र तिष्ठः पराङ्मनाः ॥९॥
(१८.२.११ ) अति द्रव श्वानौ सारमेयौ चतुरक्षौ शबलौ साधुना पथा ।
(१८.२.११ ) अधा पितॄन्त्सुविदत्रामपीहि यमेन ये सधमादं मदन्ति ॥११॥
शुक्रर्षभा
नभसा
ज्योतिषागाद्
विश्वरूपा
शबलीर्
अग्निकेतुः
।
समानम्
अर्थम्̇
स्वपस्यमाना
बिभ्रती
जराम्
अजर
उष
आऽगाः॥
- तै.सं.
4.3.11.5
कृष्णा
भौमा
धूम्रा
ऽ
आन्तरिक्षा
बृहन्तो
दिव्याः
शबला
वैद्युताः
सिध्मास्
तारकाः॥
-
मा.वा.सं
24.10
अथो हैतौ श्यामशवलाव् एव यद् अहोरात्रे। अहर् वै शवलो रात्रिश् श्यामः। ते ये नक्तं जुह्वति रात्रिम् एव ते श्यामं प्रविशन्ति। अथ य उदिते जुह्वत्य अहर् एव ते शबलं प्रविशन्ति। तयोर् एतद् एवात्ययनम् , अस्तम् इते पुरा तमिस्रायै सुव्युष्टायां पुरोदयात्॥ जै.ब्रा. 1.6
ताम् अब्रुवन् - सोमायोदेहि तृतीयेन चात्मनस् तृतीयेन च सहस्रस्येति। सा बभ्रुः पिंगाक्ष्य् उदैत्, तृतीयेन चात्मनस् तृतीयेन च सहस्रस्य। सैषा सोमक्रयणी। तृतीयेन च ह वै तस्यै तृतीयेन च सहस्रस्य सह सोमो राजा क्रीतो भवति। तां पुनर् एवाप्सु प्रावेशयन्। ताम् अब्रुवन्न् - इन्द्रायोदेहि तृतीयेन चात्मनस् तृतीयेन च सहस्रस्येति। सा शबली पष्ठौह्य् उदैत् तृतीयेन चात्मनस् तृतीयेन च सहस्रस्य। सैषेन्द्रेष्या दीयते। - जै.ब्रा. 2.250
सा यैषा शबली पष्ठौह्य् उपन्नम् एषामुष्मिन् लोके कामदुघा भूत्वा तिष्ठते। य एवं वेद तार्प्यम् प्रत्यस्य दक्षिणा नयति, सहस्रस्य सयोनितायै। सहस्रं वै यद् असृज्यत। तस्य तार्प्यम् एव योनिर् आसीत्।- जै.ब्रा.2.251
शबलि समुद्रो ऽस्य् अक्षितिर् ब्रह्मदेवी प्रथमजा ऋतस्यैकम् अक्षरं क्षरसि विभावर्य् अभीमान् लोकान् अमृतं दुहाना तां त्वा विद्म सरमे दीद्यनाम् अक्षितिं देवेभ्यो भासा तपन्तीम्।- जै.ब्रा.2.258
अथास्या एतत् पृश्नि शबलं पदं यद् रात्रिः। स यो हास्या एतत् पृश्नि शबलं पदं वेद पृश्निर् एव प्रजया पशुभि श्रिया कीर्त्यायुषा भवति। तद् यथाग्निं दीप्यमानम् उपवाजिनेनोपवाजयेद् एवम् एवैतद् ब्राह्मण आत्मानं संश्यते सत्यं वदन्। स सत्यम् एव वदेत्, सत्यं चरेत्, सत्यं चिकिर्षेत्, सत्यम् एव भवति। - जै.ब्रा. 2.259
रन्तिर् असि रमतिर् असीमे स्वर्गस्य ऊर्जस्वती पयस्वती शबल्य् एह्य् अराभुर् अस्मि सिकताः पुरोमि वत्सा बिभर्मि सहस्रमातरं विद्म त्वा पुरुष तल्लक स न इदं ब्रूहि यथेदं भविष्यति॥- जै.ब्रा.2.259॥
रौद्रं
गावीधुकं
चरुम्
अक्षावापस्य
गृहे
।
अन्तत
एव
रुद्रं
निरवदयते
।
शबल
उद्वारो
दक्षिणा
समृद्ध्यै
।
द्वादश_एतानि
हवीम्̐षि
भवन्ति
।
द्वादश
मासाः
संवत्सरः
।
-
तै.ब्रा.
1.7.3.6
तस्य
ह
विश्वामित्रस्यैकशतं
पुत्रा
आसुः
पञ्चाशदेव
ज्यायांसो
मधुच्छन्दसः
पञ्चाशत्कनीयांसः।
तद्ये
ज्यायांसो
न
ते
कुशलं
मेनिरे
ताननु
व्याजहारान्तान्वः
प्रजा
भक्षीष्टेति
त
एतेऽन्ध्राः
पुण्ड्राः
शबराः
पुलिन्दा
मूतिबा
इत्युदन्त्या
बहवो
वैश्वामित्रा
दस्यूनां
भूयिष्ठाः।
-
ऐ.ब्रा.
7.18
३,००९.०७
तद्भद्रं
तव
दंसना
पाकाय
चिच्छदयति
।
३,००९.०७ त्वां यदग्ने पशवः समासते समिद्धमपिशर्वरे ॥
५,०५२.०३ ते स्यन्द्रासो नोक्षणोऽति ष्कन्दन्ति शर्वरीः ।
५,०५२.०३ मरुतामधा महो दिवि क्षमा च मन्महे ॥
८,००१.२९ मम त्वा सूर उदिते मम मध्यन्दिने दिवः ।
८,००१.२९ मम प्रपित्वे अपिशर्वरे वसवा स्तोमासो अवृत्सत ॥
(४.५.४ ) एजदेजदजग्रभं चक्षुः प्राणमजग्रभम् ।
(४.५.४ ) अङ्गान्यजग्रभं सर्वा रात्रीणामतिशर्वरे ॥४॥
(७.८०.४ ) पौर्णमासी प्रथमा यज्ञियासीदह्नां रात्रीणामतिशर्वरेषु ।
(७.८०.४ ) ये त्वां यज्ञैर्यज्ञिये अर्धयन्त्यमी ते नाके सुकृतः प्रविष्टाः ॥४॥
(८.८.१७ ) घर्मः समिद्धो अग्निनायं होमः सहस्रहः ।
(८.८.१७ ) भवश्च पृश्निबाहुश्च शर्व सेनाममूं हतम् ॥१७॥
(८.८.१८ ) मृत्योराषमा पद्यन्तां क्षुधं सेदिं वधं भयम् ।
(८.८.१८ ) इन्द्रश्चाक्षुजालाभ्यां शर्व सेनाममूं हतम् ॥१८॥
(१५.५.२[५.४]अ) तस्मै दक्षिणाया दिशो अन्तर्देशाच्छर्वमिष्वासमनुष्ठातारमकुर्वन् । [४]
(१५.५.२[५.५]ब्) शर्व एनमिश्वासो दक्षिणाया दिशो अन्तर्देशादनुष्ठातानु तिष्ठति नैनं शर्वो न भवो नेशानो नास्य पशून् न समानान् हिनस्ति य एवं वेद ॥२॥ [५]
तद्वा अग्नय इति क्रियते । अग्निर्वै स देवस्तस्यैतानि नामानि शर्व इति यथा प्राच्या आचक्षते भव इति यथा बाहीकाः पशूनां पती रुद्रोऽग्निरिति तान्यस्याशान्तान्येवेतराणि नामान्यग्निरित्येव शान्ततमं तस्मादग्नय इति क्रियते स्विष्टकृत इति – मा.श. 1.7.3.8
आ माग्निष्टोमो विशतूक्थ्यश् चातिरात्रो मा विशत्व् आपिशर्वरः । तिरोअह्निया मा सुहुता आ विशन्तु सहस्रस्य मा भूमा मा प्र हासीत् ॥ - तै.सं. 7.3.13.1
तान्वै प्रथमेनैव पर्यायेणा पूर्वरात्रादनुदन्त मध्यमेन मध्यरात्रादुत्तमेनापर-रात्रादपि शर्वर्या अनुस्मसीत्यब्रुवन्नपिशर्वराणि खलु वा एतानि छन्दांसीति ह स्माहैतानि हीन्द्रं रात्रेस्तमसो मृत्योर्बिभ्यतमत्यपारयंस्तदपिशर्वराणामपिशर्वरत्वम्॥ ऐ.ब्रा. 4.5॥
स्तोत्राण्यपिशर्वराणि तिसृभिर्देवताभिः संधिना राथंतरेण स्तुवते तेन रात्रिः पञ्चदशस्तोत्रा – ऐ.ब्रा. 4.6
षोडशिना प्रचर्य रात्रिपर्यायैः प्रचरति ।९।होतृचमसमुख्यः प्रथमो गणः । मैत्रावरुणचममुख्यो द्वितीयः । ब्राह्मणाच्छंसिचमसमुख्यस्तृतीयः । अच्छावाकचमसमुख्यश्चतुर्थः ।१०। इन्द्राय त्वापिशर्वरायेति मुख्यंमुख्यं चमसमनून्नयति ।११। सर्वैन्द्री रात्रिः ।१२। – आप.श्रौ.सू. 14.3.12
रात्रिपर्यायेषु मुख्यानां चमसानामभिमर्शन इति ॥ सूत्रँ शालीकेरत्रो ह स्माह बौधायन इन्द्राय त्वापिशर्वरायेत्येव मुख्यंमुख्यं चमसमभिमृशेदिति ॥ रात्रिपर्यायेषु मुख्यानां चमसानामभिमर्शन इति ॥ सूत्रँ शालीकेरत्रो ह स्माह बौधायन इन्द्राय त्वापिशर्वरायेत्येव मुख्यंमुख्यं चमसमभिमृशेदिति ॥ - बौ.श्रौ.सू. 23.13
ॐ एकदा हि व्रजस्त्रियः सकामाः शर्वरीमुषित्वा सर्वेश्वरं गोपालं कृष्णमूचिरे । उवाच ताः कृष्ण अमुकस्मै ब्राह्मणाय भैक्ष्यं दातव्यमिति दुर्वासस इति । कथं यास्यामो जलं तीर्त्वा यमुनायाः । - गोपालोत्तरतापिन्युपनिषत्
भवाय नमः। भवलिङ्गाय नमः । शर्वाय नमः । शर्वलिङ्गाय नमः । शिवाय नमः । - - - - महानारायणोपनिषद
अघोरेभ्योऽथ घोरेभ्यो घोरघोरतरेभ्यः । सर्वतः शर्व सर्वेभ्यो नमस्ते अस्तु रुद्ररूपेभ्यः ॥ १॥ - महानारायणोपनिषद
शर्व देवीभागवत ७.३८(शर्वाणी की मध्यम क्षेत्र में स्थिति), ब्रह्माण्ड १.२.१०.३८(रुद्र का नाम, शरीर में भूमि/अस्थि का रूप), १.२.१०.७८(रुद्र, विकेशी - पति, अङ्गारक - पिता), वामन ९०.२८(दक्षिण गोकर्ण में विष्णु का शर्व नाम ), शिव ३.५, स्कन्द ५.२.३६.३२(शर्व द्वारा मृकण्ड को अयोनिज पुत्र का वरदान), कथासरित् १.६.१२३,
शर्वरी भागवत ६.६.१४(दोष वसु की भार्या, शिशुमार-माता),