शाल्मलि

      टिप्पणी : सुकिंशुकं शल्मलिं विश्वरूपं हिरण्यवर्णं सुवृतं सुचक्रम्।

      आ रोह सूर्ये अमृतस्य लोकं स्योनं पत्ये वहतुं कृणुष्व।। - ऋ. १०.८५.२०

      अर्थात् हे सूर्या, तुम उस रथ पर आरूढ होओ जो सुपुष्पित शल्मलि से बना है, विश्वरूप है, हिरण्यवर्ण है, अच्छे चक्रों से बना है इत्यादि। यास्काचार्य ने सुकिंशुकं इत्यादि ऋचा की व्याख्या का प्रयास निम्नलिखित रूप में किया है-

      सुकाशनं शन्नमलं सर्वरूपम्। अपिवोपमार्थे स्यात्सुकिंशुकमिव शल्मलिमिति। किंशुकं-क्रंशतेः। प्रकाशयतिकर्मणः। शल्मलिः – सुशरो भवति। शरवान्वा।– यास्क निरुक्त १२.९

      दूसरी ओर, नरक में स्थित निम्नलिखित स्वरूप का शाल्मलि द्रष्टव्य है –

      ज्वलन्तीमायसीं घोरां बहुकण्टकसंवृताम्। शाल्मलीं तेऽवगूहंति परदाररता हि ये।। - स्कन्द पुराण ५.३.१५५.३

      तैत्तिरीय संहिता ७.४.१२.१, वाजसनेयि माध्यन्दिन संहिता २३.१३, शतपथ ब्राह्मण १३.२.७.४ आदि में अश्वमेध के संदर्भ में उल्लेख है कि

      वायुष्ट्वा पचतैरवतु असितग्रीवश्छागैः न्यग्रोधश्चमसैः शल्मलिर्वृद्ध्या।।

      (काठक संहिता ४४.१ में वृद्ध्या के स्थान पर ऋद्ध्या प्रकट हुआ है)

      इस यजु में शल्मलि के वृद्धि गुण से अश्व की रक्षा होती है। पुराणों में शाल्मलि से सम्बन्धित बहुत सी कथाएं इसी यजु पर आधारित प्रतीत होती हैं। नारद पुराण १.६६.१०७ में सूक्ष्मेश की शक्ति शाल्मलि का उल्लेख है। यह उल्लेख शाल्मलि शब्द की व्याख्या में मील के पत्थर के समान है। इसी तथ्य का विवेचन योगवासिष्ठ ६.१.१२०.२३ के इस उल्लेख से होता है कि शाल्मलि देह है। लेकिन इन सब उल्लेखों से परे महाभारत शान्ति पर्व १५६.७ का यह श्लोक उल्लेखनीय है-

      अहं त्वामभिजानामि विदितश्चासि मे द्रुम। पितामहः प्रजासर्गे त्वयि विश्रान्तवान् प्रभुः।।

      तस्य विश्रमणादेव प्रसादो मत्कृतस्तव। रक्ष्यसे तेने दुर्बुद्धे नात्मवीर्याद् द्रुमाधम।।

      महाभारत के उपरोक्त श्लोक नारद व शाल्मलि के आख्यान में प्रकट हुए हैं। संक्षेप में, आख्यान इस प्रकार है कि नारद जी शाल्मलि वृक्ष के पास गए और उससे पूछा कि हे शाल्मलि, क्या कारण है कि वायु सभी वृक्षों की शाखाओं को तोड डालते हैं किन्तु तुम्हारी शाखाएं तो ज्यों की त्यों हैं। शाल्मलि ने उत्तर दिया कि वायु मेरा क्या बिगाड सकता है, मैं तो वायु से भी अधिक शक्तिशाली हूं। नारद जी ने यह बात जाकर वायु से बताई तो वायु शाल्मलि के पास आया और उससे कहा कि मैं तुम्हारी शाखाओं को इसलिए नहीं तोडता हूं क्योंकि प्रजा की सृष्टि करते समय इनके नीचे प्रजापति ने विश्राम किया था। लेकिन यदि तुम्हें गर्व है तो कल सवेरे आकर मैं इन शाखाओं को तोड देता हूं। रात में शाल्मलि ने सोचा कि वायु के आगे मेरा क्या बल है। लेकिन वायु के प्रकोप से मैं कैसे बच सकता हूं। इसका एक ही उपाय है कि अपनी शाखाओं को मैं स्वयं ही गिरा देता हूं। तब बलशाली वायु मेरा कुछ भी नहीं बिगाड सकेगा। और ऐसा ही हुआ। यह विचारणीय है कि प्रजा की सृष्टि करते समय शाल्मलि के नीचे विश्राम कैसे हो सकता है। शल्ल धातु चलने अर्थ में है। इसका अर्थ होगा कि जो ऊर्जा सूक्ष्म रूप में न्यून अव्यवस्था अथवा एण्ट्रांपी की स्थिति में विद्यमान है, वही जब बृहत् रूप धारण करती है(जैसे हमारा आत्मा तथा देह), तब अव्यवस्था में वृद्धि हो जाती है। इसे ही शल्ल – चलने धातु द्वारा प्रदर्शित किया गया है। क्या कोई स्थिति ऐसी भी है जहां वृद्धि होते हुए भी अव्यवस्था से बचा जा सकता हो, यह विचारणीय है। पुराणों में तो शाल्मलि द्वीप के स्वामी के रूप में वपुष्मान् और उसके सात पुत्रों श्वेत, रोहित, जीमूत आदि का उल्लेख है। डा. फतहसिंह व डा. सुकर्मपालसिंह तोमर का अनुमान है कि वपु तेज के अर्थों में है, सूर्य। एक अन्धं वपु है, एक दर्शतं वपु है। जब पुराण वपुष्मान् और उसके पुत्रों श्वेत, रोहित, जीमूत आदि की बात करते हैं, तो उससे तात्पर्य इसी अन्धं और दर्शतं वपु से हो सकता है। वैदिक साहित्य में जो गिने-चुने शाल्मलि के उल्लेख हैं, उनमें तो वपु का कोई उल्लेख ही नहीं है। किन्तु ऋग्वेद की ऋचा में सूर्या के रथ के विशेषणों के रूप में सुकिंशुक शल्मलि का उल्लेख आया है। किंशुक का अर्थ पलाश पुष्प लिया जाता है जो सुन्दर तो होता है, लेकिन उसमें सुगन्ध नहीं होती। शाल्मलि वृक्ष के पुष्प की भी यही स्थिति है कि वह सुन्दर तो होता है, लेकिन सुगन्ध नहीं होती। वर्तमान ऋचा में किंशुक के बदले सुकिंशुक शब्द आया है। लगता है कि पुराणकार ने किंशुक के बदले वपु के पुष्पित होने का अवलम्बन लिया है। और जब देह शाल्मलि बनती है तो इस पर कैसे-कैसे पुष्प खिल सकते हैं, यह नीचे दी गई सारणियों से द्रष्टव्य है।

      ऋग्वेद में शल्मलि शब्द केवल २ बार प्रकट हुआ है-

      यच्छल्मलौ भवति यन्नदीषु यदोषधीभ्यः परि जायते विषम्।

      विश्वे देवा निरितस्तत् सुवन्तु मा मां पद्येन रपसा विदत् त्सरुः।। - ऋ. ७.५०.३

      अर्थात् जो विष शल्मली वृक्ष में होता है, जो विष नदियों व ओषधियों से जन्म लेता है, विश्वेदेव उस विष को हमसे दूर करें। मेरे पैर के पाप से अथवा शब्द से छिपकर आने वाला सर्प मुझे न पहचान सके।

      अधिपति-वपुष्मान्/यज्ञबाहु

      वर्ष नाम

      अग्नि ११९.७

      कूर्म

      गरुड १.५६

      देवीभागवत ८.१२.१७

      ब्रह्माण्ड १.२.१४.३१

      भागवत(यज्ञबाहु) ५.२०.९

      लिङ्ग

      वायु ४९.३०

      विष्णु २.४.२२

      श्वेत


      श्वेत

      सुरोचन

      श्वेत

      सुरोचन


      श्वेत(कुमुद प.)

      श्वेत

      हरित


      हरित

      सौमनस्य

      हरित

      सौमनस्य


      लोहित(उन्नत)

      हरित

      जीमूत


      जीमूत

      रमण

      जीमूत

      रमणक


      जीमूत(बलाहक)

      जीमूत

      लोहित


      रोहित

      देववर्ष

      रोहित

      देववर्ष


      हरित(द्रोण)

      रोहित

      वैद्युत


      वैद्युत

      पारिभद्र

      वैद्युत

      पारिभद्र


      वैद्युत(कङ्क)

      वैद्युत

      मानस


      मानस

      आप्यायन

      मानस

      आप्यायन


      मानस(महिष)

      मानस

      सुप्रभ


      सप्रभ

      विज्ञात

      सुप्रभ

      अविज्ञात


      सुप्रभ(ककुद)

      सुप्रभ

      इस तालिका में सातवें वर्ष के नाम सुप्रभ, विज्ञात व अविज्ञात आए हैं। डा. फतहसिंह के चिन्तन के अनुसार हमारा विज्ञानमय कोश अविज्ञात है और विज्ञानमय से नीचे मनोमय कोश ज्ञात ज्ञात है। इस वर्ष में ककुद्मान् या सहस्रश्रुति पर्वत की स्थिति कही गई है। अविज्ञात को ही सरल भाषा में ककुद कहा जा सकता है।

      पर्वत नाम

      अग्नि पुराण ११९.७

      कूर्म १.४९.१३

      गरुड १.५६.६

      देवीभागत ८.१२.२२

      ब्रह्माण्ड १.२.१९.३५

      भागवत ५.२०.१०

      मत्स्य १२२.९५

      लिङ्ग १.५३.५

      वायु ४९.३०

      विष्णु २.४.२६

      कुमुद

      कुमुद

      कुमुद

      सरस

      कुमुद(श्वेत व.)

      स्वरस

      सुमना

      कुमुद

      कुमुद

      कुमुद

      अनल

      उन्नत

      उन्नत

      शतशृङ्ग

      उत्तम(लोहित)

      शतशृङ्ग

      पीत/सर्वसुख

      उत्तम

      उन्नत

      उन्नत

      बलाहक

      बलाहक

      द्रोण

      वामदेव

      बलाहक(जीमूत)

      वामदेव

      रोहित/रोहिण

      बलाहक

      बलाहक

      बलाहक

      द्रोण

      द्रोण

      महिष

      कंदक

      द्रोण(हरित)

      कुन्द


      द्रोण

      द्रोण

      द्रोण

      कङ्क

      कङ्क

      बलाहक

      कुमुद

      कङ्क(वैद्युत)

      मुकुन्द/कुमुद


      कङ्क

      कङ्क

      कङ्क

      महिष

      महिष

      क्रौञ्च/कङ्क

      पुष्पवर्ष

      महिष(मानस)

      पुष्पवर्ष


      महिष

      महिष

      महिष

      ककुद्मान्

      ककुद्मान्

      ककुद्मान्

      सहस्रश्रुति

      ककुद्मान्(सुप्रद)

      सहस्रश्रुति


      ककुद्मान्

      ककुद्मान्

      ककुद्मान्





      पर्वतों की विशेषताएं तथा उनके वर्षों के नाम


      पर्वतों की विशेषताएं


      पर्वतों की विशेषताएं व उनके वर्षों के नाम


      नदी नाम

      अग्नि

      कूर्म १.४९.१३

      गरुड १.५६.७

      देवीभागवत ८.१२.२४

      ब्रह्माण्ड १.२.१९.४६

      भागवत ५.२०.१०

      लिङ्ग

      विष्णु २.४.२८


      योनी

      योनि

      अनुमति

      ज्योतिः

      अनुमति


      योनि


      तोया

      तोया

      सिनीवाली

      शान्तिः

      सिनीवाली


      तोया


      वितृष्णा

      वितृष्णा

      सरस्वती

      तुष्टा

      सरस्वती


      वितृष्णा


      चन्द्रा

      चन्द्रा

      कुहू

      चन्द्रा

      कुहू


      चन्द्रा


      शुक्ला

      शुक्ला

      रजनी

      शुक्रा

      रजनी


      मुक्ता


      विमोचनी

      विमोचनी

      नन्दा

      विमोचनी

      नन्दा


      विमोचनी


      निवृत्ति

      विधृतिः

      राका

      निवृत्तिः

      राका


      निवृत्तिः


      भागवत और देवीभागवत पुराणों में शाल्मलि द्वीप की नदियों के रूप में अनुमति, सिनीवाली, कुहू, राका का उल्लेख है जो पूर्णिमा और अमावास्या के नाम हैं। इससे संकेत मिलता है कि शाल्मलि द्वीप की प्रकृति चन्द्रमा की वृद्धि और ह्रास से युक्त है। इन दोनों पुराणों में शाल्मलि द्वीप के स्वामी के रूप में यज्ञबाहु का उल्लेख है जबकि अन्य पुराणों में वपुष्मान् का। पुराणों में शाल्मलि वृक्ष के नीचे पतत्रिराट् या सुपर्ण के निवास का उल्लेख है और शाल्मलि द्वीप के वासियों को वायु देवता और सोम देवता की अर्चना करने वाला कहा गया है। वायु से अर्थ प्राण या सूर्य लिया जा सकता है।

      संगीत शास्त्र में पञ्चम स्वर का प्रादुर्भाव शाल्मलि द्वीप से कहा गया है। निहितार्थ अपेक्षित है।

      प्रथम लेखन १०-६-२०११ई.(ज्येष्ठ शुक्ल नवमी, विक्रम संवत् २०६८)